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ऋषिभाषित का दार्शनिक अध्ययन
बौद्ध परंपरा में कुम्मापुत्त थेर का वर्णन उपलब्ध होता है। अपदान की अट्ठकथा में इनके जीवन से संबंधित कथानक का वर्णन विस्तार से उपलब्ध होता है। उसमें यह कहा गया है कि इन्होंने पूर्व जन्म में विपस्सी बुद्ध के पैर मालिश के लिए तेल दान दिया था। परिणामस्वरूप वैलुत्कण्टक नामक शहर के श्रेष्ठ गृहपति के गृह में जन्म लिया था। इनके संबंध में यह भी कहा गया है कि ये सारिपुत्त के प्रवचन से प्रभावित होकर प्रव्रजित हुए और कर्मस्थान के संबंध में विपश्यना करते हुए अर्हत् अवस्था को प्राप्त हुए। कुर्मापुत्र को सत्यथेर का निकटस्थ व्यक्ति माना गया है।
ऋषिभाषित में वर्णित कुर्मापुत्र का मुख्य उपदेश निष्कामता या अनासक्ति पर प्रकाश डालता है। उनके अनुसार आकांक्षा या इच्छा ही दु:ख का मूल कारण है। अनुत्सुकता के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए वे कहते हैं कि जो प्रमाद या आलस्यवश भी इच्छा की ओर नहीं बढ़ता, तो वह सुखी होता है और यदि वह स्वेच्छा से इस दिशा में प्रेरित हो तो वह कितना सुखी हो सकता है, यह वह खुद ही अनुभूत कर सकता है। अतः कामनाओं (इच्छाओं) पर नियंत्रण कर जीवन व्यतीत करें यही उनका मुख्य निर्देश है। कुर्मापुत्र के इस उपदेश को गीता में वर्णित अनासक्त योग से तुलना की जा सकती है।
'कुम्मापुत्त' का नामकरण वस्तुतः उनकी माता के आधार पर हुआ है। इस संबंध में जैन और बौद्ध दोनों परंपराएँ एक मत हैं। ये मुख्यरूप से अनासक्ति और चित्तशुद्धि पर बल देते हैं। ये संभवतः महावीर या बुद्ध के समकालीन रहे होंगे। ८. केतलीपुत्त
ऋषिभाषित का आठवां अध्ययन केतलीपुत्र से संबंधित है। इस अध्याय में केतली पुत्र के उपदेश संकलित है। जैन परंपरा में भी इनका उल्लेख मात्र ऋषिभाषित में ही उपलब्ध होता हैं। जैन परंपरा का अन्य साहित्य एवं बौद्ध और वैदिक परंपराएँ भी इनके व्यक्तित्त्व और उपदेश के संबंध में किसी प्रकार की कोई सूचना नहीं देती है।
जैन परंपरा में 'तैतलीपुत्र' का उल्लेख ज्ञाता और सूत्रकृतांगचूर्णि में हुआ है।५ किन्तु ऋषिभाषित केतलीपुत्र और तेतलीपुत्र का अलग-अलग उल्लेख करता है। वस्तुतः दोनों नामों में एक अक्षर का ही फर्क हैं। इसलिए यह भी संभव है कि ऋषिभाषित के केतलीपुत्र और तेतलीपुत्र दो भिन्न व्यक्ति न होकर एक ही व्यक्ति रहे होंगे।
__ ऋषिभाषित में इनके उपदेशों का मुख्य प्रतिपाद्य विषय मुक्त और बद्ध या सिद्ध और संसारी आत्मा के स्वरूप का चित्रण करना रहा है। वे कहते हैं कि मुक्त आत्मा में मात्र ज्ञान गुण और संसारी आत्मा में ज्ञान और चारित्र- ये दो गुण हैं या
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55. ज्ञाताधर्मकथा, 1/24
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