Book Title: Padmanandi Panchvinshati
Author(s): Balchandra Shastri
Publisher: Jain Sanskruti Samrakshak Sangh Solapur
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवराज जैन ग्रंथमाला, पुष्प नं. - १० पद्मनन्दि पंचविंशति: ( धार्मिक एवं नैतिक २६ प्रकरणों का संग्रह) अज्ञातकर्तृक संस्कृत टीका सहित आलोचनात्मक रीति से सम्पादित वीर संवत् २५२७ - - सम्पादक तथा अनुवादक - श्री पं. बालचन्द्रजी सिध्दान्तशास्त्री - प्रकाशक - जैन संस्कृति संरक्षक संघ संतोष भवन, ७३४, फलटण गल्ली, सोलापुर २ 2 : (०२१७) ३२०००७ ई. सन् २००१ Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय यह जो ग्रंथ यहां समीक्षात्मक रीतिसे सम्पादित, पूर्णतः अनुवादित तथा सर्वाङ्ग दृष्टिसे समालोचित होकर प्रस्तुत किया जा रहा है, वह लगमग एक सहस्र वर्षोंसे लगातार सुप्रसिद्ध रहा पाया जाता है । इसके एक प्रकरण (एकत्वसप्तति) पर कर्नाटक प्रदेशके एक नरेशके सम्बोधनार्थ लगभग वि. सं. ११९३ में कन्नड भाषामें टीका लिखी गई थी। तत्पश्चात् किसी समय वह संस्कृत टीका रची गई जो इस ग्रंथके साथ प्रकाशित है, तथा आजसे कोई एकशती पूर्व राजस्थानमें हिन्दी वचनिका लिखी गई । अनेक ग्रंथकताओं व टीकाकाने १२वीं शतास उगाकर उसका उल्लेख किया है व उसके अवतरण दिये हैं। देशके उत्तरसे दक्षिण तक इस ग्रंथकी उक्त प्रकार प्रसिद्धि व लोक-प्रियताका कारण उसका विषय व प्रतिपादन शैली है। ग्रंथ अपने वर्तमान रूपमें २६ स्वतंत्र प्रकारणोंका संग्रह है जिनका विषय जैन धार्मिक दृष्टिसे मार्मिक और रुचिकर है। विषयकी व्याख्यानशैली सरल और विशद है । केवल दो स्तुतियां (१३-१४ ३) प्राकृत भाषामें रची गई हैं; शेष समस्त २४ प्रकरण संस्कृत पद्यात्मक है। रचनाकी दृष्टिसे ग्रंथ तीन स्थितियोंमेंसे निकला है। आदितः ग्रंथकारने अनेक छोटे छोटे स्वतंत्र प्रकरण लिखे जो अपने अपने गुणोंके अनुसार लोक प्रचलित हुए होंगे । इनमेंसे एक प्रकरण अर्थात् एकत्व सप्ततिने आगामी ग्रंथकारोंका ध्यान विशेषरूपसे आकर्पित किया । तत्पश्चात् कभी किसी संग्रहकारने उक्त प्रकरणोंसे २५ को एकत्र कर ग्रंयकारके नाम व अधिकारोंकी संख्यानुसार उसका नाम पद्मनन्दि-पञ्चविंशति रखा । ग्रेथकी तीसरी स्थिति तब उत्पन्न हुई जब किसी अन्य संग्राइकने उनमें एक और प्रकरण जोड़कर उनकी संख्या २६ कर दी, तथापि नाम पञ्चविंशति अपरिवर्तित रखा । यह जोड़ा हुआ प्रकरण संभवतः अन्तिम और उन्ही पभनन्दिकृत है, यद्यपि यह बात सर्वथा निश्चित रूपसे नहीं कही जा सकती। कुछ प्रकरणोंके अन्त या मध्यमें भी कमी कुछ पद्य समाविष्ट किये गये प्रतीत होते हैं और इसी कारण प्रकरणोंके सप्तति, पञ्चाशत् व अष्टक नाम उनमें उपलभ्य एयोंकी संख्याके अनुरूप नहीं पाये जाते । वर्तमान में ग्रंथके २६ प्रकारणोंमें पद्योंकी संख्या ९३९ है। इनमें सबसे बड़ा प्रकरण १९८ पद्योंका व छोटेसे छोटे चार प्रकरण ८-८ पधोंके हैं। इस ग्रंथके कर्ताके प्रदेश व कालके सम्बन्धकी कोई सूचना ग्रंथमें नहीं पाई जाती। किन्तु उसके एक प्रकरण आर्थात् एकत्व-सप्ततिपर जो कन्नड टीका पाई जाती है, तथा जो कुछ अन्य स्फुट प्रमाण अन्यत्र उपलब्ध होते हैं उनसे प्रायः सिद्ध होता है कि इस ग्रंथकी रचना कर्नाटक प्रदेशमें संभवतः कोल्हापुर या उसके समीप सं. १०७३ और ११९३ के बीच हुई थी। यदि यह अनुमान ठीक हो कि मूल ग्रन्थ और कन्नड टीकाके का एक ही हैं, तो ग्रंथका रचनाकाल उक्त अन्तिम सीमाके लगभग माना जा सकता है। Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (viii) यह ग्रंथ इससे पूर्व कमसे कम दो बार प्रकाशित हो चुका है--एक बार मराठी अनुवाद सहित वि. सं. १९५५ में और दूसरी बार हिन्दी अनुवाद सहित वि. सं. १९७१ में । ये संस्करण प्रायः किसी एक ही प्राचीन प्रति परसे तैयार किये गये थे, उनके साथ कोई समीक्षात्मक विवेचन व ग्रंथकारका परिचय नहीं दिया गया था। तथा वे संस्करण दीर्घकालसे अनुपलभ्य हैं। प्रस्तुत संस्करपके लिये इन दोनों मुद्रित प्रतियोंके अतिरिक्त समस्त उपलभ्य प्राचीन हस्तलिखित प्रतियोंका उपयोग किया गया है। तथा सम्पादकों और अनुवादकने ग्रंथको विद्वानों और श्रद्धालु पाठकों के लिये यथाशक्य अधिकसे अधिक उपयोगी बनानेका प्रयत्न किया है । अंथकी अंग्रेजी और हिन्दी प्रस्तावनाएँ यद्यपि समान सामग्रीपर आधारित हैं, तथापि वे बहुत कुछ स्वतंत्रतासे लिखी गई हैं और वे विद्वानोंके लिये विशेषतः आधारभूत प्रमाणोंके उल्लेखोंके सम्बन्धमें, परस्पर परिपूरक हैं । जिन हस्तलिखित प्रतियोंका इस ग्रंथके सम्पादनमें उपयोग किया है उनके मालिकोंके तथा जीवराज ग्रंथमालाके अधिकारी वर्गके, उनके इस ग्रंथमालामें ऐसे ग्रंथोंके प्रकाशनमें उत्साह और सहयोग के हेतु, सम्पादक हृदयसे कृतज्ञ हैं। कोल्हापुर । आ. ने. उपाध्ये हीरालाल जैन Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना १ पमनन्दि -पञ्चविंशति की प्रतियोंका परिचय हस्तलिखित प्रतियाँ-प्रस्तुत संस्करण निम्न हस्तलिखित प्रतियोंके आधारसे तैयार किया गया है। १. 'क' प्रति- यह संस्कृत टीकासे युक्त प्रति स्थानीय श्राविका श्रमकी संचालिका श्री ब्र. सुमतीबाई शहाके संग्रह की है जो सम्भवतः भट्टारक श्री लक्ष्मीसेनजी कोल्हापुरकी हस्तलिखित प्रतिपरसे तैयार की गई थी । प्रस्तुत संस्करणके लिये प्रथम कापी इसी परसे तैयार की गई थी। २. 'श' प्रति- यह प्रति स्थानीय विद्वान् श्री पं. जिनदासजी शास्त्रीकी है। इसकी लंबाई १३ इंच और चौड़ाई ५३ इंच है । पत्रसंख्या १-१७८ है । इसके प्रत्येक पत्रमें एक ओर लगभग १०.११ पंक्तियां और प्रति पंक्तिमें लगभग ४४ - १५ अक्षर हैं । इसमें मूल श्लोक लाल स्माहीसे तथा संस्कृत टीका काली स्याहीसे लिखी गई है । इस प्रतिमें कहीं कहीं पीछेसे किसीके द्वारा संशोधन किया गया है। इससे उसका मूल पाठ इतना भ्रष्ट हो गया है कि वह अपने यथार्थ स्वरूपमें पड़ा भी नहीं जाता है। इसमें ग्रन्थका प्रारम्भ ।। ऊँ नमः सिद्धेभ्यः ॥ इस मंगलवाक्यसे किया गया है। अन्तमें सामाप्तिसूचक निन्न वाक्य है ॥ इति ब्रह्मचर्याष्टकं ।। इति श्रीमत्पद्मनंद्याचार्यविरचिता पद्मनंदिपंचविशतिः॥ श्रीवीतरागार्पणमस्तु ।। श्रीजिनाथ नमः ॥ प्रतिके प्रारम्भमें उसके दानका उल्लेख निम्न प्रकारसे किया गया है- आ पद्मनंदिपंचविंशति सटीक दोशी रतनबाई कोम नेमचंद न्याहालचंद ए श्रावक पासू गोपाल फडकुलेन दान कयू छे संवत् १९५१ फागण वद्य ११ गुरुवार । ३. 'अ' प्रति- यह प्रति सम्भवतः स्व. श्री पं. नाथूरामजी प्रेमी बम्बई की रही है। इसकी लंबाई ११. और चौड़ाई ५३ इंच है। पत्रसंख्या १-१७५ है। इसके प्रत्येक पत्रमें एक ओर १२ पंक्तियां और प्रतिपंक्तिमें ३५-३८ अक्षर हैं । ग्रन्थका प्रारम्भ ।। ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।। इस वाक्यसे किया गया है। अन्तिम समाप्तिसूचक वाक्य है ब्राह्मचर्याष्टकं समाप्तं इति पद्मनंदिकुंदकुंदाचार्यविरचितं संपूर्ण ।। इसमें 'युवतिसंगविवर्जनमष्टक' आदि इस अन्तिम श्लोक और उसकी टीकाको किसी दूसरे लेखकके द्वारा छोटे अक्षरोंमें १७५वें पत्रके नीचे लिखा गया है। इससे पूर्वके श्लोकका 'भुक्तवतः कुशलं न अस्ति' इतना टीकांश भी ग्रहांपर लिखा गया है। उपर्युक्त समातिसूचक शक्य भी यहीपर लिखा उपलब्ध होता है। इससे यह अनुमान होता है कि सम्भवतः उसका अन्तिम पत्र नष्ट हो गया था और इसीलिये उपर्युक्त अन्तिम अंशको किसीने दूसरी प्रतिके आधारसे १७५वे पत्रके नीचे लिख दिया है । आश्चर्य नहीं जो उस अन्तिम पत्रपर लेखकके नाम, स्थान और लेखनकालका भी निर्देश रहा हो । इस प्रतिका कागज इतना जीर्ण शीर्ण हो गया है कि उसके पत्रको उठाना और रखना भी कठिन हो गया है। वैसे तो इसके प्रायः सब ही पत्र कुछ न कुछ खंडित हैं, फिर भी ४० से १२६ पत्र तो बहुत त्रुटित हुए हैं। इसीलिये पाठभेद देनेमें उसका बहुत कम उपयोग हो सका है। Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २३ ४. 'ब' प्रति- इस प्रतिमें ग्रन्थका मूल भाग मात्र है, संस्कृत टीका नहीं है । यह ऐ. पन्नालाल सरस्वती भवन बम्बईसे प्राप्त हुई थी जो यहां बहुत थोड़े समय रह सकी है । उसका उपयोग पाठभेदोंमें कचित् ही किया जा सका है। ५. 'च' प्रति- यह प्रति संघके ही पुस्तकालयकी है । इसमें मूल श्लोकोंके साथ हिन्दी (ढूंढारी) वचनिका है । संस्कृत टीका इसमें नहीं है । इसकी लंबाई-चौडाई १३४७ है । पत्र संख्या १-२७९ है। इसके प्रत्येक पत्रमें एक ओर १२ पंक्तियां और प्रतिपंक्तिमें ४०-४४ अक्षर हैं । लिपि सुन्दर व सुवाच्य है। इसका प्रारम्भ इस प्रकार है-॥६०॥ ॐ नमः सिद्धेभ्यः ।। अथ पंधनंदिपंचविंशतिका अन्धकी मूल लोकनिका अर्थसहित वचनिका लिखिये है ।। अन्तमें- ॥ इति श्री पद्मनंदिमुनिराजविरचितमनंदिपंचविंशतिका वचनिका समाप्तः ।। इस वाक्यको लिखकर प्रतिके लेखनकालका उल्लेख इस प्रकार किया गया है- मिति भादौ वदि ॥ ३ ॥ बुधवासरे । संवत् ।। १९॥ २९ ।। मुकाम चंद्रापुरीमध्ये | सुभं भवतु मंगलं : श्री श्री श्री । वचनिकाके अन्तमें २५ चौपाई छन्दोमें उसके लिखने आदिका परिचय इस प्रकार कराया गया है-ढूंढाहर देशमें जयपुर नगर है। उसमें रामसिंह राजा प्रजाका पालन करता था। वहां सांगानेर बजारमें खिन्दूकाका मन्दिर है । वहां साधर्मी जन आकर धर्मचरचा किया करते थे । पअनन्दिपश्चविंशतिके अर्थको सुनकर उनके मनमें सर्वसाधारणके हितकी दृष्टिसे वचनिकाका भाव उदित हुआ । इसके लिये उन सबने ज्ञानचन्दके पुत्र जौहरीलालसे कहा 1 तदनुसार उन्होंने उसे मूल वाक्योंको सुधार कर लिखा और वचनिका लिखना प्रारम्भ कर दी । किन्तु 'सिद्धस्तुति' तक वचनिका लिखनेके पश्चात् उनका देहावसान हो गया । तब पंचोंके आग्रहसे उसे हरिचन्दके पुत्र मनालालने पूरा किया। इस प्रकार वचनिका लिखनेका निमित्त बतलाकर आगे उसके पच्चीस अधिकारोंका चौपाई छन्दोंमें ही निर्देश किया गया है । यह देश वनिका १९१५वें सालमें मृगशिर कृष्णा ५ गुरुवारको पूर्ण हुई । इसमें प्रथमतः मूल श्लोकको लिखकर उसका शब्दार्थ लिखा गया है, और तत्पश्चात् भावार्थ लिखा गया है । भावार्थमें कई स्थानोंपर ग्रन्थान्तरोंके श्लोक व गाथाओं आदिको भी उद्धृत किया गया है। मुद्रित प्रतियां-१. प्रस्तुत प्रन्थका एक संस्करण श्री. गांधी महालचन्द कस्तूरचन्दजी धाराशिवके द्वारा शक सं. १८२० में प्रकाशित किया गया था। इसमें मूल श्लोकके बाद उसका मराठी पद्यानुवाद, फिर संक्षिप्त मराठी अर्थ और तत्पश्चात् संक्षिप्त हिन्दी (हिन्दुस्थानी ) अर्थ भी दिया गया है । हिन्दी अर्थ प्रायः मराठी अर्थका शब्दशः अनुवाद प्रतीत होता है । अर्थमें मात्र भावपर ही दृष्टि रखी गई है। २. दूसरा संस्करण श्री. ए. गजाधरलालजी न्यायशास्त्रीकी हिन्दी टीकाके साथ भारती भवन' बनारससे सन् १९१४ में प्रकाशित हुआ है। यह हिन्दी टीका प्रायः पूर्वोक्त (५ 'च' प्रति ) हिन्दी वचनिकाका अनुकरण करती है । इन दो संस्करणोंके अतिरिक्त अन्य भी संस्करण प्रकाशित हुए हैं या नहीं, यह हमें ज्ञात नहीं है । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ , पानन्दि-पश्चविंशतिः २. अन्यका स्वरूप व ग्रन्थकार ग्रन्थका नाम-प्रस्तुत ग्रन्थ अपने वर्तमानरूपमें २६ स्वतंत्र प्रकरणोंका संग्रह है। इसका नाम 'पदूमनन्दि-पञ्चविंशति' कैसे और कब प्रसिद्ध हुआ, इसका निर्णय करना कठिन है । यह नाम स्वयं ग्रन्थकारके द्वारा निश्चित किया गया प्रतीत नहीं होता, क्योंकि, वे जब प्रायः सभी ( २२, २३ और २४ को छोड़कर) प्रकरणोंके अन्तमें येन केन प्रकारेण अपने नामनिर्देशके साथ उस उस प्रकरणका भी नामोल्लेख करते हैं तय मन्थके सामान्य नामका उल्लेख न करनेका कोई कारण शेष नहीं दिखता । इससे तो यही प्रतीत होता है कि ग्रन्थकारने उक्त प्रकरणोंको स्वतन्त्रतासे पृथक् पृथक् ही रचा है, न कि उन्हें एक अन्यके भीतर समाविष्ट करके । दूसरे, जर मन्थके भीतर २६ विषय बर्णित हैं तब 'पञ्चविंशति' की सार्थकता भी नहीं रहती है। उसकी जो प्रतियां हमें प्राप्त हुई हैं उनमें प्रकरणों के अन्तों जिस प्रकार प्रकरणका नामोल्लेख पाया जाता है उस प्रकार उसकी संख्याका निर्देश प्रायः न तो शब्दों में पाया जाता है और न अंकोंमें । हां, उसकी जो मूल श्लोकोंके साथ दूंदारी भाषामय वचनिका पायी जाती है उसमें अधिकारोंका नाम और संख्या अवश्य पायी जाती है । किन्तु यहां भी 'पञ्चविंशति की संगति नहीं बैठायी आ सकी । वहां ययाक्रमसे २४ अधिकारोंका उल्लेख करके आगे 'स्मानाष्टक'के अन्तमें ॥ इति श्री ज्ञानाकनामा पचीसमा अधिकार समाप्त भया ॥ २५ ॥ यह वाक्य लिखा है, तथा अन्तिम 'अनचर्याष्टक'के अन्तमें ॥ इति ब्रह्मचर्याष्टक समाप्तः ॥ २५ ॥ ऐसा निर्देश है । इस प्रकार अन्तके दोनों अधिकारोंको २५वां सूचित किया गया है। ___ वचनिकाकारने ग्रन्थके अन्तमें इस वचनिकाके लिखनेके हेतु आदिका निर्देश करते हुए जो प्रशस्ति लिखी है उसमें भी अन्तिम २ प्रकरणोंकी क्रमसंख्याकी संगति नहीं बैठ सकी है । यथा--- चौवीशम अधिकार जो कयो भानत्यागअष्टक सरदयो । अंतिम ब्रह्मचर्य अधिकार आठ काव्यमें परम उदार ।। यहाँ क्रमप्राप्त 'शरीराष्टक' को २४वां अधिकार न बतला कर उसके आगेके 'मानाष्टक' को २४वां अधिकार निर्दिष्ट किया गया है । दूसरे, इस वचनिकाके प्रारम्भमें जो पीठिकास्वरूपसे अन्यके अन्तर्गत अधिकारोंका परिचय कराया गया है वहां 'परमार्थविंशति' पर्यन्त यथाक्रमसे २३ अधिकारों का उल्लेख करके तत्पश्चात् 'शरीराष्टक' को ही २४वां अधिकार निर्दिष्ट किया गया है। जैसे—...."ता पीछे आठ काव्यनि विषं चौवीशमा शरीराष्टक अधिकार वर्णन किया है। ता पीछे नव काव्यनिविर्षे ब्रह्मचर्याष्टक अधिकार वर्णन करके ग्रन्थ समाप्त किया" । उक्त दोनों वाक्योंके बीचमें सम्भवतः प्रतिलेखकके प्रमादसे "ता पीछे आठ काव्यनिवि पचीसमा मानाष्टक अधिकार वर्णन किया है" यह वाक्य लिखनेसे रह गया प्रतीत होता है। इस प्रकार २४वें अधिकारके नामोल्लेखमें पूर्व पीठिका और अन्तिम प्रशस्तिमें परस्पर विरोध पाया जाता है। Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ यदि प्रन्थकारको स्वयं इस ग्रन्थका नाम 'पाटविंशति' अमीष्ट होता तो फिर अधिकारोंकी यह संख्याविषयक असंगति दृष्टिगोचर नहीं होती। इनमेंसे कुछ कृतियां (जैसे- एकत्वसप्तति आदि) स्वतन्त्ररूपसे भी प्राप्त होती हैं व प्रकाशित हो चुकी है। उनमें परस्पर पुनरुक्ति मी बहुत है । अत एव जान पड़ता है। for rकारने अनेक स्वतंत्र रचनाएँ की थीं जिनमेंसे किसीने पचीसको एकत्र कर उस संग्रहका नाम अनधिगति दिन उपधात् किसी अन्यने उनकी एक और रचनाको उसी संग्रहमें जोड़ दिया किन्तु नामका परिवर्तन नहीं किया । आम्धर्य नहीं जो किसी अन्य इसमें आ जुड़ी हो । I अन्धकारकी भी एक रचना Jhansi सब प्रकरणों की एककर्तृकता- यहां यह एक प्रश्न उपस्थित होता है कि वे सब प्रकरण किसी एक ही पद्मनन्दीके द्वारा रचे गये हैं, या पद्मनन्दी नामके किन्हीं विभिन्न आचार्योंके द्वारा रवे गये हैं, अथवा अन्य भी किसी आचार्य द्वारा कोई प्रकरण रचा गया है? इस प्रश्नपर हमारी दृष्टि ग्रंथके उन प्रकरणों पर जाती है जहां ग्रन्थकारने किसी न किसी रूपमें अपने नामकी सूचना की है। ऐसे प्रकरण बाईस (१-२१ व २५ ) हैं। इन प्रकरणों में प्रन्थकर्ताने पद्मनन्दी, पहुअनन्दी, अम्भोजनन्दी, अम्भोरुदनन्दी, पद्म और अननन्दी; इन पर्दकि द्वारा अपने नामकी व कहीं कहीं अपने गुरु वीरनन्दीकी मी सूचना की है'। इसके साथ साथ उन प्रकरणोंकी भाषा, रचनाशैली और नाम व्यक्त करनेकी पद्धतिको देखते हुए उन सबके एक ही कर्ताके द्वारा रचे जानेमें कोई सन्देह नहीं रहता । इनको छोड़कर एकत्व भावनादशक ( २२ ), परमार्थविंशति ( २३ ), शरीराष्टक (२४) और ब्रह्मचर्याष्टक (२६) ये चार प्रकरण शेष रहते हैं, जिनमें अन्थकर्ताका नाम निर्दिष्ट नहीं है। श्री मुनि पद्मनन्दी अपने गुरुके अतिशय भक्त थे । उन्होंने गुरुको परमेश्वर तुल्य ( १०-४९ ) निर्दिष्ट करते हुए इस गुरुभक्तिको अनेक खालोंपर प्रगट किया है। यह गुरुभक्ति एकत्वभावनादशक प्रकरणके छठे लोकमें भी देखी जाती है। इससे यह प्रकरण उन्हींक द्वारा रचा गया प्रतीत होता है । वह गुरुभक्ति एकत्वभावनादशकके समान परमार्थविंशतिमें भी दृष्टि गोचर होती हैं। दूसरे, इस प्रकरणमें जो १०६ लोक आया है वह कुछ थो-से परिवर्तित स्वरूपमें इसके पूर्व अनित्यपञ्चाशत ( ३- १७) में भी आ चुका है। तीसरे, इस प्रकरणमें अवस्पिद S मिलषिता मोक्षेऽपि सा सिद्धिहृत्-- इत्यादि) की समानता कितने ही पिछले लोकोंके साथ पायी जाती है । इसके अतिरिक्त प्रस्तुत प्रकरणके अन्तर्गत १९व श्लोक तो प्रायः (तृतीय चरणको छोड़कर) उसी १८वें छोक ( जायेतोद्वतमोहतो १. पद्मनन्दी १-११८, १-५४, ३-५५, ४७७, ६-६२, १००४, ११-३१, ११-११, १३-६०, १५-३०, १६-१४, नन्दी ५-९, ७-१७, ९-३३, २५-८६ अम्भोजनन्दी ८-२९ अम्भोरुहनन्दी १७-८, १८-९: पद्म १४ - ३३, १९ - १०, २०-८१ अब्जनम्मी ११-१८. २. देखिये ११९५, २-५४, १-३२, १०-४९, ११-४ और ११-५५. ३. गुरूपदेशतोऽस्माकं निःश्रेयसपदं प्रियम् ॥ २२-६. ४. देखिये श्लोक ९ ( नित्यानन्दपदप्रदं गुरुवयों आगर्ति वेतन) और १६ ( गुर्वप्रियतमुतिपदवीप्राध्यर्थनिर्मन्यताआतानन्दवशात्) । ५. देखिये मेक १-५५ और ४-५३. Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " २६ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः रूपमें पीछे (१-१५४) आ चुका है। ये सब ऐसे हेतु हैं कि जिनसे पिछले प्रकरणों के साथ इस प्रकरणकी समानकर्तृकताका अनुमान होता है। शरीराष्टकका प्रथम श्लोक ( दुर्गन्धाशुचि आदि) पीछे अनित्यपञ्चाशत् ( ३-३) में आ चुका है। इसके अतिरिक गुरुमक्तिको प्रदर्शित करनेवाला वाक्य (मे झदि गुरुवचनं चेदस्ति तसत्त्वदर्शि-५) यहां भी उपलब्ध होता है । इससे यह प्रकरण मी उक्त मुनि पद्मनन्दीके द्वारा ही रचा गया प्रतीत होता है। अब ब्रह्मचर्याष्टक नामका अन्तिम प्रकरण ही शेष रहता है । सो यहां यद्यपि ग्रन्थकारने अपने नामका निर्देश तो नहीं किया है, फिर भी इस प्रकरणकी रचनाशैली पूर्व प्रकरणोंके ही समान है। इस प्रकरणका अन्तिम श्लोक यह है युवतिसंगविवर्जनमष्टकं प्रति मुमुक्षुजन भणितं मया । सुरतरागसमुद्गता जनाः कुरुत मा क्रुधमत्र मुनौ मयि ॥ यहां पूर्व पद्धतिके समान अन्धकारने 'युवति गनिनन अधम ( ब्रह्मचर्गक ) के रचे जानेका उल्लेख किया है। साथमें उन्होंने अपने मुनिपदका निर्देश करके अपने ऊपर क्रोध न करनेके लिये विषयानुरागी जनोंसे प्रेरणा भी की है। यहां यह स्मरण रखने की बात है कि श्री पद्मनन्दीने कितने ही स्थलों में अपने नामके साथ 'मुनि' पदका प्रयोग किया है। इससे इस प्रकरणके भी उनके द्वारा रचे जानेमें कोई बाधा नहीं दिखती अन्यके अन्तर्गत ऋषमस्तोत्र ( १३ ) और जिनदर्शनस्तवन (१४) ये दो प्रकरण ऐसे हैं जो प्राकृतमें रचे गये हैं । इससे किसीको यह शंका हो सकती है कि शायद ये दोनों प्रकरण किसी अन्य पद्मनन्दीके द्वारा स्वे गये होंगे। परन्तु उनकी रचनापद्धति और भावभंगीको देखते हुए इस सन्देहके लिये कोई स्थान नहीं दिखता । उदाहरणके लिये इस स्तोत्रमें यह गाथा आयी है-- विप्पडिवज्जइ जो तुह गिराए मइ-सुइबलेण केवलियो । वरदिद्विदिहमहअंतपक्खिगणणे वि सो अंधो ॥ ३४ ॥ इसकी तुलना निन्न श्लोकसे कीजिये यः कल्पयेत् किमपि सर्वविदोऽपि वाचि संदिया तत्वमसमञ्जसमात्मबुद्ध्या । खे पत्रिणां विचरतां सुहशेक्षिताना संख्या प्रति प्रविदधाति स वादमन्धः ॥ १-१२५ ॥ इन दोनों पद्योंका अभिप्राय समान है, उसमें कुछ भी भेद नहीं है । इसीलिये भाषाभेदके होनेपर मी इसे उन्हीं पद्मनन्दीके द्वारा रचा गया समझना चाहिये। इसके अतिरिक्त इस स्तोत्र ( २३-३४ ) में आठ प्रातिहार्योंके आश्रयसे जैसे भगवान् आदिनाथकी स्तुति की गई है वैसे ही शान्तिनाथ स्तोत्रमें उनके आश्रयसे शान्तिनाथ जिनेन्द्रकी भी स्तुति की गई है। ऋषभजिनस्तोत्रके 'जत्थ जिण ते वि जाया सुरगुरुपमहा कई कुंठा (३६) इस वाक्यकी समानता भी सरस्वतीस्तोत्रके निम्न वाक्यके साथ दर्शनीय हैकुष्ठास्तेऽपि बृहस्पतिप्रभृतयो यस्मिन् भवन्ति भुवम् (१५-३१) । इसी प्रकार ऋषभस्तोत्रकी तीसरी गाथा और जिनदर्शनस्तवनकी सोलहवीं गाथाके 'चम्मच्छिणा वि दिद्वे' और 'चम्ममएणच्छिणा नि दि?' Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना २७ आदि पदोंकी समानताको देखते हुए यही प्रतीत होता है कि वह जिनदर्शनस्तवन भी प्रकृत पद्मनन्दी मुनि द्वारा ही रचा गया है। इससे तो यही विदित होता है कि प्रस्तुत अन्धकारका जैसे संस्कृतभाषापर भाषित अधिकार था वैसे ही उनका प्राकृत भाषांके ऊपर भी पूरा अधिकार था । पचनन्दी और उनका व्यक्तित्व - पूर्व विवेचन से यह सिद्ध हो चुका है कि प्रस्तुत प्रन्थके अन्तर्गत सब ही प्रकरणोंके रचयिता एक ही मुनि पद्मनन्दी है । उन्होंने प्रायः सभी प्रकरणों में केवल अपने नाम मात्रका ही निर्देश किया है, इसके अतिरिक्त उन्होंने अपना कोई विशेष परिचय नहीं दिया । इतना अवश्य है कि उन्होंने दो स्थलोंपर ( १ - १९७, २-५४ ) 'वीरनन्दी' इस नामोल्लेख के साथ अपने गुरुके प्रति कृतज्ञताका भाव दिखलाते हुए अतिशय भक्ति प्रदर्शित की है। इसके अतिरिक्त नामनिर्देशके विना तो उन्होंने अनेक स्थानोंमें गुरुस्वरूपसे उनका स्मरण करते हुए उनके प्रति अतिशय श्रद्धाका भाव व्यक्त किया है'। जैसा कि उन्होंने परमार्थविंशतिमें व्यक्त किया है, ' श्रीवीरनन्दी उनके दीक्षागुरु प्रतीत होते हैं । सम्भव है ये ही उनके विद्यागुरु भी रहे हों। यह सम्भावना उनके निम्न उल्लेखके आधारसे की जा रही है रमत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपाद - पद्मद्वयस्सारण से जनितप्रभावः । श्रीपद्मनन्दिमुनिराश्रितयुग्भदानपञ्चाशतं ललितवर्णचयं चकार ।। २-५४ ॥ यह तत् प्रकरण करते हुए निन्दने यह भाव व्यक्त किया है कि मैंने जो यह बावन लोकमय सुन्दर प्रकरण रचा है वह रलत्रयसे विभूषित श्रीवीरनन्दी आचार्यके चरण-कमर्लोके स्मरणजनित प्रभावसे ही रचा है- अन्यथा मुझमें ऐसा सामर्थ्य नहीं था । इस उल्लेखमें जो उन्होंने 'स्मरण' पदका प्रयोग किया है उससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस प्रकरणकी रचनाके समय आचार्य वीरनन्दी उनके समीप नहीं थे उस समय उनका स्वर्गवास हो चुका था । मुनि पद्मनन्दीके द्वारा विरचित इन कृतियोंके पढ़नेसे ज्ञात होता है कि वे मुनिधर्मका दृढ़तासे पालन करते थे । वे मूलगुणों के परिपालनमें थोड़ी-सी भी शिथिलताको नहीं सह सकते थे (१-४० ) । उनके लिये दिगम्बरत्वमें विशेष अनुराग ही नहीं था, बल्कि वे उसे संयमका एक आवश्यक अंग मानते ये ( १ - ४१ ) । प्रमादके परिहारार्थ उन्हें एकान्तवास अधिक प्रिय था ( १ - ४६ ) । वे अध्यात्मके विशेष प्रेमी थे- आत्मज्ञानके विना उन्हें कोरा कायक्लेश पसन्द नहीं था ( १ - ६७ ) उनकी अधिकांश कृतियां जैसे एकत्वसप्तति, आलोचना, सद्बोधचन्द्रोदय, निश्वयपश्चाशत् और परमार्थविंशति- अध्यात्मसे ही सम्बन्ध रखनेवाली हैं। वे व्यवहार नयको केवल मन्दबुद्धि जनोंके लिये अर्थावबोधका ही साधन मानते थे, उनकी दृष्टिमें मुक्तिमार्गका साधनभूत तो एक शुद्धनय (निश्चयनय) ही था ( ११,८-१२ ) । ३. ग्रंथकार की खोज प्रस्तुत ग्रंथके कर्ताका नाम पद्मनन्दी है । जैन साहित्यमें इस नामके अनेक ग्रंथकार हुए हैं। मूलसंघ आदि आचार्य कुन्दकुन्दका एक नाम पद्मनन्दी भी था। जंबूदीव - पण्णत्तिके कर्ता पद्मनन्दीने अपनेको वीरनन्दीका प्रशिष्य तथा बन्दीका शिष्य कहा है तथा अपने विद्यागुरुका नाम श्रीविजय १. देखिये पीछे पू. १५ का टिप्पण नं. २. २. गुर्वयदत्तमुचि पदवी प्राप्त्यर्यनिर्ब्रन्थता जातानन्दवशात्॥२३-१६॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ पमनम्दि-पशाविंशविर प्रकट किया है। उपलब्ध प्रमाणापरसे इनका रचनाकाल विक्रमकी ११वीं शती सिद्ध होता है। इन्होंने अपना नाम वरपउमणदि प्रकट किया है। प्राकृत पद्यात्मक 'धम्मरसायण' के कर्ताने भी अपना नाम 'वरपउमणदिमुणि' प्रकट किया है। इसके अतिरिक्त उक्त दोनों रचनाओं में कुछ सादृश्य भी है (घ. र. ११८-१२० और जं. प. १३, ८५-८७, घ. र. १२२-२७ व १३४-१३६ और 5. प. १३, ९०-९२) । अत एव आश्चर्य नहीं जो जं. दी. प. और घ. र. के कर्ता एक ही हो । एक वे भी पानन्दी है, जिनकी पंचसंग्रहयूचि हालमें ही भारतीय ज्ञानपीठ, काशीसे प्रकाशित हुई है। भावना-पद्धति नामक ३४ पोंकी एक स्तुति तथा जीरापल्ली पार्धनायस्तोत्रके कर्ता पानन्दी पट्टावलीके अनुसार दिल्ली (अजमेर) की महारफ गद्दीपर प्रमाचन्द्र के पश्चात् आरूढ हुए और वि. सं. १३८५ से १४५० तक रहे। वे जन्मसे आमण वंश के थे। उनके शिष्य दिल्ली-जयपुर, ईडर और सूरतकी भधारक गहियोपर आरद हुए। इन ग्रंथकारों के अतिरिक्त कुछ पानन्दी नामधारी आचार्योंके उल्लेख प्राचीन शिलालेखों व ताम्रपटों आदिमें प्राप्त हुए हैं जो निम्न प्रकार हैं १. वि. सं. ११६२ में एक पद्मनन्दि सिद्धान्तदेव व सिद्धान्त-चक्रवर्ती मूलसंघ, कुन्दकुन्दान्वय, ऋाणूर गण व तिंत्रिणीक गछमें हुए । (एपी. कर्ना. ७, सोरख नं. २६२) २. गोल्लाचार्यके प्रशिष्य व त्रैकाल्पयोगीके शिष्य कौमारदेव प्रतीका दूसरा नाम आविद्धकर्ण पद्मनन्दि सैद्धान्तिक था। वे मूलसंघ, देशीगणके आचार्य थे जिनका उल्लेख वि. सं. १२२० के एक लेखमें पाया जाता है, उनके एक सहधर्मी प्रभाचन्द्र थे तथा उनके शिष्य कुलभूषणके शिष्य माधनन्दीका संबंध कोल्हापुरसे था। (एपी. कर्ना. २, नं. ६४ (५०). संभवतः ये वे ही हैं जिन्हें एक मान्य लेखमें मन्त्रवादी कहा गया है (एपी. कर्ना २, नं. ६६ (४२). ३. एक पद्मनन्दी वे हैं जो नयकीर्तिके शिष्य व प्रभाचन्द्रके सहधर्मी थे और जिनका उल्लेख वि. सं. १२३८, १२४२, और १२६३ के लेखों में मिलता है । इनकी मी उपाधि 'मंत्रवादिवर' पाई जाती है। संभवतः ये उपर्युक्त नं. २ के पद्मनन्दीसे अभिन्न हैं। (एपी. का. ३२७ (१२४); ३३३ (१२८) और ३३५ (१३०). ४. एक पद्मनन्दी वीरनन्दीके प्रशिष्य तथा रामनन्दीके शिष्य थे जिनका उल्लेख १२वीं शतीके एक लेखमें मिलता है। (एपी. कनो. ८, सोराव नं. १४०, २३३ व शिकारपुर १९५; देसाई, जैनिजिम इन साउथ इंडिया, पृ. २८० आदि) ५. अध्यात्मी शुमचन्द्रदेवका स्वर्गवास वि. सं. १३७० में हुआ था और उनके जिन दो शिष्योंने उनकी स्मृतिमें लेख लिखवाया था उनमें एक पद्मनन्दी पंडित थे । (एपी. कर्ना. ६५ (४१) व भूमिका पृ. ८६). ६. बाहुबली मलधारिदेवके शिष्य पमनन्दि भट्टारकदेवका उल्लेख वि. सं. १३६० के एक लेखमें आया है । उन्होंने उस वर्षमें एक जैन मन्दिरका निर्माण करवाया था । (एपी. कर्ना. हुन्सुर १५), ७. मूलसंघ, कोण्डकुन्दान्वय, देशीगण, पुस्तक गच्छवर्ती त्रैविधदेवके शिष्य पद्मनन्दिदेवका स्वर्गवास वि. सं. १३७३ ( ! १५३३) हुआ था । (एपी. फर्ना. अ. बे. २६९ (११४). Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ८. प्रभाचन्द्रके शिष्य पानन्दीकी बड़ी प्रशंसा देवगढके वि. स. १४७१ के शिलालेख में पाई जाती है । (रा. मित्र. ज. ए. सो. बं. ५२ पृ. ६७–८० ). स्पष्ट है कि उपर्युक्त पद्मनन्दी नामधारी आचार्यों में से कोई मी ऐसा नहीं है जो प्रस्तुत ग्रंथके कर्ता वीरनन्दीके शिष्य पद्मनन्दी मुनिसे अभिनवकार किया जा सके। प्रस्तुत कालादिका निर्णय हमें उनकी रचना के आधारपर ही बाह्य व आभ्यन्तर प्रमाणपरसे करना है । के ४. ग्रन्थकारका काल-निर्णय प्रस्तुत ग्रन्थके रचयिता श्री मुनि पद्मनन्दी कब हुए, इसका ठीक ठीक निश्चय करना कठिन है । तथापि उनकी इन कृतियोंका उनसे पूर्व और पश्चात्कालीन ग्रन्थकारोंकी कृतियोंके साथ मिलान करने से उनके समय की सीमाओंका कुछ निर्धारण किया जाता है पद्मनन्दी और गुणभद्र - जब हम तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करते हैं तब हमें उनकी इन कृतियोंपर आचार्य गुणभद्रकी रचनाका प्रभाव दिखाई देता है । उदाहरणार्थ गुणभद्र स्वामीने अपने आत्मानुशासनमें मनुष्य पर्यायका स्वरूप दिखलाते हुए उसे ही तपका साधन निर्दिष्ट किया है . दुर्लभमशुद्धमपसुखमविदितमृत्तिसमय मल्पपरमायुः । मानुष्यमिहैव तपो मुक्तिस्तपसैव तत्तपः कार्यम् ॥ १११ ॥ इसका प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत (१२-२१) निम्न पद्यसे मिलान कीजिये - दुष्प्रापं बहुदुः खराशिरशुचि स्तोका युरल्पज्ञताज्ञातप्रान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भये । अस्मिन्नेव तपस्ततः शिवपदं तत्रैव साक्षात्सुखं सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि तपः कुर्यान्नरो निर्मलम् ॥ आत्मानुशासनके उपर्युक्त लोकमें मनुष्य पर्यायके लिये ये पांच विशेषण दिये गये हैं- दुर्लभ, अशुद्ध, अपसुख, अविदितमृतिसमय और अल्पपरमायु । ठीक उसी अभिप्रायको सूचित करनेवाले वैसे ही पांच विशेषण पञ्चविंशतिके इस श्लोक में भी दिये गये हैं- दुष्प्राप, अशुचि, बहुदुः खराशि, अश्पक्षताज्ञातप्रान्तदिन और स्तोकायु | वहां गुणभद्र स्वामीने यह कहा है कि मुक्तिकी प्राप्ति तपसे होती है और वह तप इस मनुष्य पर्यायमें ही होता है, अतः उस मनुष्य पर्यायको पाकर तप करना चाहिये । यही यहां पद्मनन्दी ने भी कहा है कि साक्षात् सुख मुक्तिमें है, उस मुक्तिकी प्राप्ति तपसे होती है, और वह तप इस मनुष्य पर्याय ही सम्भव है; यह सोचकर सुखार्थी मनुष्यको निर्मल तप करना चाहिये। इस प्रकार दोनों लोकों में कुछ शब्दभेदके होनेपर भी अर्थमें कुछ भी भेद नहीं है'। उन गुणभद्रका समय प्रायः शक सं. की ८वीं सदीका उत्तरार्ध (वि. सं. ९वीं सदीका अन्त और १०वींका पूर्वार्ध) है । अत एव उनकी कृतिका उपयोग करनेवाले श्रीमुनि पद्मनन्दी वि. की १०वीं सदीके पूर्व नहीं हो सकते हैं। १. इसके अतिरिक्त प. प. विं.के ९-१८, १४९, १-७६, १-११८ ( ३-३४ मी ), ३-४४ और १-५१ वो कमसे आत्मानुशासनके इन श्लोकों से मिलान कीजिये - २३९-४०, १२५, १५, १३०, ३४, ७९. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्ममन्दि- पञ्चविंशतिः पचनन्दी और सोमदेवसूरि प्रस्तुत ग्रंथकी रचनायें सोमदेवकृत यशस्तिलकका भी प्रभाव देखने में आता है । उदाहरण के लिये यहांका यह लोक देखिये -- * त्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं सदेकं तदपि प्रयच्छति । समस्तशुक्लापि सुवर्णवित्रा त्वमत्र मातः कृतचित्रचेष्टिता ॥ १५-१३ ॥ are ठीक इससे मिलता-जुलता यह यशस्तिलकका भी लोक देखिये- एकं पदं बहुपदापि ददासि तुष्टा वर्णात्मिकापि च करोषि न वर्णभाजम् । सेवे तथापि भवतीमथवा जनोऽर्थी दोषं न पश्यति तदस्तु तवैष दीपः ॥ यश. ( उ. ) पृ. ४०१. इन दोनों ही कोकोंमें विरोधाभासके आश्रयसे सरस्वतीकी स्तुति करते हुए यह कहा गया है कि हे सरस्वति ! तुम अनेक पदोंसे संयुक्त होकर भी एक ही पद (मोक्ष) को देती हो, तथा उधम अकारादि वर्णमय शरीरको धारण करती हुई उत्कृष्ट हो । अन्य इन लोकोंको भी देखिये सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणैर्यद्दीयते प्राणिनां दानं स्यादभयादि तेन रहितं दानत्रयं निष्फलम् । आहारौवध शास्त्रदानविधिभिः क्षुद्रोग-जायाद् भयं यत्पात्रजने विनश्यति ततो दानं तदेकं परम् ॥ आहाराट् सुखितौषवादतितरं नीरोगता जायते शास्त्रात् पात्रनिवेदितात् परभवे पाण्डित्यमत्यद्भुतम् । एतत्सर्वगुणप्रभापरिकरः पुंसोऽभयाद् दानतः पर्यन्ते पुनरुन तो अतपदप्राप्तिर्विमुक्तिस्ततः ॥ प. प. विं. ११-१२. सौरूप्यमभयादाहुराहाराद् भोगवान् भवेत् । आरोग्यमौषधाज्ज्ञेयं श्रुतात् स्यात् श्रुतकेबली ॥ अभयं सर्वसत्त्वानामादौ दद्यात् सुधीः सदा । तद्धीने हि वृथा सर्वः परलोकोचितो विधिः । दानमन्यद् भवेन्मा वा नरश्वेदभयप्रदः । सर्वेषामेव दानानां यतस्तद्दानमुत्तमम् ॥ ܘ यश. ( उ ) पृ. ४०३-४०४ दोनों ही अन्योंके इन लोकोंमें समानरूपसे चतुर्विध दानके फलका निर्देश करके सब दोनों में अभयदानको प्रमुखता दी गई है। प.प. वि. में गृहस्थके छह आवश्यकका निर्देशक जो 'देवपूजा गुरूपास्तिः ( ६-७ )' आदि श्लोक आया है वह ज्योंका त्यों (मात्र 'पूजा' के स्थानमें 'सेवा' है) यशस्तिलक (उ. प्र. ४१४ ) में प्राप्त होता है । प. प. विं. (२ - १० ) में सुनिके लिये शाकपिण्ड मात्रके दाताको अनन्त पुण्यभाक् बतलाया है। यही मान यश. ( उ. पू. ४०८) में इन शब्दोंमें प्रगट किया गया है मुनिभ्यः शाकपिण्डोऽपि भक्त्या काले प्रकल्पितः । भवेद्गण्यपुण्यार्थे भक्तिश्चिन्तामणिर्यतः || यशस्तिलक (उ. पृ. २५७) में परलोकके साघनार्थ निम्न लोकका उपयोग किया गया है तदर्हज-स्तनेहातो रक्षोदृष्टेर्भवस्मृतेः । मूतानन्वयनाञ्जीवः प्रकृतिज्ञः सनातनः ॥ इसके अन्तर्गत हेतुओंमेंसे 'भूतानन्वयनात्' हेतुका उपयोग प. विं. (१ - १३७ ) में प्रायः उसी रूपमें ही किया गया है। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना सोमदेव सूरिने देशयतियों ( श्रावकों ) के प्रतको मूलगुण ( यश. उ. पृ. ३२७) और उत्तरगुण (यश. उ. पृ. ३३३) के मेदसे दो प्रकारका बतलाकर उनमें मूलगुण और उत्तरगुणोंका निर्देश इस प्रफारसे किया है मथ-मांस-मधुत्यागाः सहोदुम्बरपञ्चकाः[ कैः ] । अष्टावेते गृहस्थानामुक्ता मुलगुणाः श्रुतेः ।। अणुप्रतानि पश्चैव त्रिप्रकार गुणवतम् । शिक्षाबतानि चत्वारि गुणाः स्यु‘दशोसरे ॥ उनका अनुसरण करते हुए यहां मुनि पमनन्दीने भी इन मूलगुणों और उत्तरगुणोंका इसी प्रकारसे पृथक् पृथक् निर्देश अपने उपासकसंस्कार (६, २३-२४) में किया है। इतना ही नहीं, मगिक कागुनो. नटरमा डा लोको नो प्रायः ( चतुर्थ चरणको छोषफर) उन्होंने जैसाका तैसा यहाँ ले लिया है। इस प्रकारसे यह निश्चित है कि मुनि एप्रनन्दीने अपनी इन कृतियोंमें यशस्तिलकके उपासकाध्ययनका पर्याप्त उपयोग किया है। यशस्तिलककी प्रशस्तिके अनुसार उसकी समाप्तिका काल श. सं. ८८१ (+१३५-१०१६ वि. सं.) है। अत एव मुनि पद्मनन्दीका रचनाकाल इसके पश्चात् हो समझना चाहिये, इसके पूर्वमें यह सम्भव नहीं है। पानन्दी और अमृतचन्द्रसरि- पनन्दीने प्रस्तुत अन्धके अन्तर्गत निश्चयपञ्चाशतप्रकरणमें व्यवहार और शुद्ध नयोंकी उपयोगिताको दिखलाते हुए शुद्ध नयके आश्रयसे आत्मतत्वके विषयमें कुछ कहनेकी इच्छा इस प्रकार प्रकट की हैव्यवहतिरबोधजनबोधनाय कर्मक्षयाय शुद्धनयः । स्वार्थ मुमुक्षुरहामिति वक्ष्ये तदाश्रितं किंचित् ।। ८॥ यहां पद्मनन्दीने व्यवहारनयको अबोध ( अज्ञानी) जनोंको प्रतिबोधित करनेका साधन मात्र बतलाया है। इसका आधार अमृतचन्द्र रिविरचित पुरुषार्थसिक्युपायका निम्न श्लोक रहा हैअक्षुधस्य बोपनार्थ मुनीश्वरा देशयन्त्यभूतार्थम् । व्यवहारमेव केवलमवैति यस्तस्य देशना नास्ति ॥ ६ ॥ इस श्लोकके पूर्वार्धमें प्रयुक्त शब्द और अर्थ दोनोंको ही उपर्युक्त लोकमें ग्रहण किया गया है। छन्द (आर्या) भी उक्त दोनों लोकोंका एक ही है । इससे आगेके ९-११ लोकोंपर भी पुरुषार्थसिद्धधुपायके. लोक और ५ का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। उक्त अमृतचन्द्रसूरिका समय प्रायः वि. सं. की ११वीं सदीका पूर्वार्ध है । अत एव मुनि पप्रनन्दी इनके पश्चात् ही होना चाहिये । पयनन्दी और अमितगति- आचार्य अमितगतिका श्रावकाचार प्रसिद्ध व विस्तृत है। उन्होंने अपने सुभाषितरत्नसदोहके अन्तिम (३१) प्रकरणमें भी संक्षेपसे उस श्रावकाचारका निरूपण किया है । १ निवषपञ्चाशत्के ९३ श्लोकका पूर्वार्ध भाग समयप्राभूतकी निन्न गायाका प्रायः छायानुवाद है-वहारोऽभूत्यो भूवत्थो देसिदो हु मदणी । भूवत्वमस्सिवो खल्तु सम्मादिली हयात जीवो ॥ ११ ॥ २ श्री. पं, कैलाशचत्रजी शास्त्रीने जैनसन्देशके शोशाक ५ (पृ. १७४-4.) में अमृतमन्द्र झिका यही समय निर्दिा किया है। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभनन्दि पञ्चर्षिशतिः तुलनात्मक दृष्टिसे विचार करनेपर उसका प्रभाव एपनन्दीकी इन कृतियोंमें कुछके ऊपर दिखता है। उदाहरणके रूपमें यहाँ ( ६. २९-३०) विनयकी आवश्यकताको बतलाते हुए उसके स्वरूप और फलका निर्देश इस प्रकार किया है विनय यथायोम्यं कर्तव्यः परमेष्टिषु । दृष्टि-बोध-चरित्रेषु तद्वत्सु समयाश्रितैः ।। दर्शन-शान-चरित्र-सपःप्रभृति सिद्धयति । विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वारं प्रचक्षते ॥ यह भाव अमितगति-श्रादकार (१३ ) में इस प्रकारसे व्यक्त किया गया है संघे चतुर्विधे भक्त्या रसत्रयराजिते । विधातव्यो यथायोम्यं विनयो नयकोविदः ॥ १४ ॥ सम्यग्दर्शन-चारित्र-तपोज्ञानानि देहिना । अवाप्यन्ते विनीतेन यशांसीव विपश्चिता ॥ १८ ॥ अमितगति-श्रावकाचारके इन लोकोंका उपर्युक्त दोनों लोकोंमें न केवल भाव ही लिया गया है, बल्कि कुछ शब्द भी ले लिये गये है। ___ अमितगति-श्रावकाचारके चतुर्थ परिच्छेदमें कुछ योडे-से विस्तारके साथ चार्वाक, विज्ञानाद्वैतवादी, प्रमाद्वैतवादी, सांख्य, नैयायिक, असर्वज्ञतावादी मीमांसक एवं बौद्ध आदिके अभिप्रशयको दिखलाफर उसका निराकरण किया गया है । इसका विचार अति संक्षेपमें मुनि पानन्दीने मी प्रस्तुत ग्रन्थ (१,१३४-३९) में किया है। यद्यपि इन मत-मतान्तरोका विचार अष्टसहली, लोकवार्तिक, प्रमेयकमलमार्तण्ड एवं न्यायकुमुदचन्द्र आदि तर्कप्रधान अन्यों में बहुत विस्तारके साथ किया गया है, फिर भी मुनि पानन्दीने उक्त विषयपर अमितगतिकृत श्रावकाचारका ही विशेषरूपसे अनुसरण किया है। यथा आत्मा कायमितश्चिदेकनिलयः कर्ता च भोक्ता स्वयं संयुक्तः स्थिरता-विनाश-जननैः प्रत्येकमेकक्षणे ॥ प. १-१३४ ॥ कुर्यात् कर्म शुभाशुभ स्वयमसौ मुझे स्वयं तत्फलं सातासातगतानुभूतिकलनादात्मा न चान्यादृशः । चिपः स्थिति-जन्म-भङ्गकलितः कर्मावृतः संहती मुक्ती ज्ञान-हगेकमूर्तिरमलबैलोक्यचूडामणिः ॥ प. १-१३८॥ इसकी तुलना अ. श्रा. के निम्न श्लोकसे कीजिये-- निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः खित्युत्पत्ति-व्ययात्मकः । कर्ता मोक्ता गुणी सूक्ष्मो ज्ञाता दृष्टा तनुप्रमा ॥ ४-५६ ॥ इसके अन्तर्गत प्रायः सभी विशेषण उपर्युक्त प. पं. वि. के श्लोकोंमें उपस्थित है। भाचार्य अमितगतिने इस श्रावकाचारकी प्रशस्तिमें अपनी गुरुपरम्पराका तो उल्लेख किया है, पर मन्थरचनाकालका निर्देश नहीं किया । फिर भी उन्होंने सुभाषितरमसंदोह, धर्मपरीक्षा और पञ्चासंग्रहकी समातिका काल क्रमसे वि. सं. १०५०, १०७० और १०७३ निर्दिष्ट किया है। इससे उनका समय निश्चित है। अत एव उनके श्रावकाचारका उपयोग करनेवाले मुनि एमनन्दी वि. सं. की ११ वीं सदीके उत्तरार्धमें या उनके पश्चात् ही होना चाहिये, इसके पूर्व होनेकी सम्भावना नहीं है । . जैसे-'विनयक्ष यथायोग्यं कर्तव्यः' और 'विधासब्यो यथायोग्य मादि। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ३३ पद्मनन्दी, जयसेन और पद्मप्रभ मलधारी देव — अब हम यह देखनेका प्रयत्न करेंगे कि वे ११ वीं सदी के कितने पश्चात् हो सकते हैं। इसके लिये यह देखना होगा कि उनकी इन कृतियोंका उपयोग किसने और कहां पर किया है । प्रस्तुत पञ्चविंशतिके अन्तर्गत एकत्वसप्ततिके 'दर्शनं निश्वयः पुंसि' आदि लोक (१४) को पञ्चास्तिकायकी १६२वीं गाथाकी टीकामें जयसेनाचार्यने 'तथा चोक्तमात्माश्रितनिश्चयरलत्रयलक्षणम्' लिखकर उद्धृत किया है। इसी लोकको पद्मप्रभ मलधारी देवने भी नियमसार (गा. ५१-५५) की टीका में 'तथा चोक्तमेकत्वसप्ततौ' लिखकर उसके नामोल्लेखके साथ ही उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त पद्मप्रभ मलधारी देवने उक्त नामोल्लेखके साथ इसी नियमसारकी ४५-४६ गाथाओंकी टीकामें उस एकत्वसप्ततिके ७९ वें श्लोकको, तथा १००वीं गाथाकी टीकामें ३९-४१ लोकोंको भी उद्धृत किया है। पद्मप्रभक स्वर्गवास वि.सं. १२४२ में हुआ था तथा जयसेनका उससे पूर्व किन्तु आचारसारके कर्ता वीरनन्दी (वि. सं. १२९० ) से पश्चात् सिद्ध होता है । अत एव पद्मनन्दीका समय इसके आगे नहीं जा सकता है। निष्कर्ष यह निकलता है कि वे वि. सं. १०७५ के पश्चात् और १२४० के पूर्व किसी समय में हुए हैं । पद्मनन्दी और सुनन्दी - मुनि पद्मनन्दीने देशत्रतोयोतन प्रकरण ( ७ - २२ ) मैं कुंदुरुके पत्रके बराबर और जौके बराबर जिनगृह और जिनप्रतिमा के निर्माणका फल अनिर्वचनीय बतलाया है। यह वर्णन वसुनन्दि-श्रावकाचारकी निम्न गाथाओंसे प्रभावित दिखता है- कुत्युंभरिदलमेचे जिणभवणे जो ठबेह जिणपडिमं । सरिसवमेत्तं पि हे सो णसे तित्थयरपुष्णं ॥ ४८१ ॥ जो पुण जिद्भिवणं समुष्णयं परिहि-तोरणसमगं । निम्मावर तस्स फलं को सब वणिजं सयलं ॥ ४८२ ॥ इसी प्रकार उन्होंने 'दानोपदेशन' प्रकरण (४८-४९) में जो पात्रके भेद और उनके लिये दिये जानेवाले दानके फलका विवेचन किया है उसका आधार उक्त मापकाचारकी २२१-२३ व २४५-४८ गाथायें, तथा धर्मोपदेशामृतके ३१ वें लोकमें एक एक व्यसनका सेवन करनेवाले युधिष्ठिर आदिके जो उदाहरण दिये गये हैं उनका आधार १२५-३२ गाथायें रहीं प्रतीत होती हैं। आचार्य वसुनन्दी अमितगतिके उत्तरवर्ती और पं. आशाधरके पूर्ववर्ती प्रायः वि. सं. की १२वीं सदीके ग्रन्थकार हैं । पद्मनन्दी और प्रभाचन्द्र आचार्य प्रभाचन्द्रने रत्नकरण्ड श्रावकाचारके 'धर्मामृतं सतृष्णः' आदि श्लोक ( ४-१८ ) की टीका में प्रस्तुत ग्रन्थके अन्तर्गत उपासक संस्कार प्रकरणके 'अधुवाशरणे चैव' आदि दो लोकों ( ४३-४४ ) को उद्धृत किया है। आचार्य प्रभाचन्द्र विक्रमकी १३वीं सदीमें पं. आशाधरजीके पूर्व में हुए हैं। पद्मनन्दी और पं. आशाघर - श्री पण्डितप्रवर आशाधरजीने अपने अनगारधर्मामृतकी सोपज्ञ टीका में मुनि पद्मनन्दीके कितने ही लोकोंको उद्धृत किया है। उदाहरणार्थ उन्होंने ९ वें अध्यायके ८० और ८१ लोकोंकी टीका 'अत एव श्रीपद्मनन्दिपादैरपि सम्वेतादूषणं दिमात्रमिदमधिजगे' इस आदरसूचक वाक्यके साथ धर्मोपदेशामृत के ' म्लाने क्षालनतः' आदि लोक ( ४१ ) को उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त इसी अध्याय ९३वें लोककी टीकामें उक्त प्रकरणके ४३वें, तथा ९७ वें लोककी टीकामें ४२वें श्लोकको भी 5 Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानन्दि-पधार्षिशविर उद्धृत किया है। इसी प्रकार अनगारधर्मामृतके ही आठवें अध्यायके २१वें श्लोककी टीका सदोषचन्द्रोदयके प्रथम श्लोकको, २३वें श्लोककी टीकामें इसी प्रकरणके १८.१६ और ४४ इन तीन श्लोकोंको, तथा ६४ श्लोककी टीकामें उपासकसंस्कारके ६१वें श्लोकको उक्त किया है। इस टीकाको पं. आशाधरजीने वि. सं. १३०० में समाप्त किया है । अत एव मुनि पद्मनन्दीका इसके पूर्वमें रहना निश्चित है। पचनन्दी और मानत-आचार्य मानतुजविरचित मक्तामर स्तोत्रमें एक श्लोक इस प्रकार है को विस्मयोऽत्र यदि नाम गुणैरशेषैस्त्वं संश्रितो निरवकाशतया मुनीश । दोषैरुपातविबुधाश्रयजातगर्वैः स्वमान्तेरऽपि न कदाचिदपीक्षितोऽसि ॥ २७ ॥ इसकी तुलना पद्मनन्दीके निम श्लोकसे कीजिये सम्यग्दर्शनबोधवृत्तसमलाशीलक्षमाद्यैर्षनैः ___ संकेताश्रयवजिनेश्वर भवान् सर्वेर्गुणैराश्रितः । मन्ये त्वय्यवकाशलब्धिरहितैः सर्वत्र लोके वयं संपाचा इति गर्वितैः परिहतो दोपैरशेषैरपि ॥ २१-१ ॥ इन दोनों लोकोंका एक ही अभिप्राय है। इसके अतिरिक्त जिस प्रकार भक्तामर स्तोत्र ( २८-३५ ) में आठ प्रातिझायोंके आश्यसे भगवान् आदिनाथकी स्तुति की गई है उसी प्रकार प्रस्तुत प्रन्पके अन्तर्गत ऋषभस्तोत्र ( २३-३४) में भगवान् आदिनाथकी तथा शान्तिनाथस्तोन (१-८) में शान्तिनाथ तीर्थकरकी भी स्तुति की गई है। पग्रनन्दी और कुमुदचन्द्र-भक्तामरके समान कल्याणमन्दिर स्तोत्र (१९-२६) में आचार्य कुमुदचन्द्रके द्वारा भी आठ प्रतिहार्योंके आश्रयसे भगवान् पार्श्वजिनेन्द्रकी स्तुतिकी गई है। वे वहां अशोकवृक्षका उल्लेख करते हुए कहते हैं धमोपदेशसमये सविधानुभावादास्तां जनो भवति ते तहरप्यशोकः । अभ्युद्गते दिनपतौ समहील्होऽपि किं वा वियोधमुपयाति न जीवलोकः ।। १९ । इसकी तुलना ऋषभस्तोत्रकी निम्न गाथासे कीजिये अच्छंतु ताव इयरा फुरियविवेया णमंतसिरसिहरा । होइ असोओ रुवखो वि शाह तुह संणिहाणत्थो ।। २४ ॥ ५. यद्यपि मानतज्ञाचार्यका काम निश्चित नहीं है, फिर भी दोनों लोकोंके भावको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि मुनि पनीने भकामरके उक ऋोकका अपने कमें विशीकरण किया है। वैसे-मजामरस्तोत्रमे 'गुणैः' इस सामान्य पदका प्रयोग कर किसी विशेष गुणका उल्लेख नहीं किया । उसे मुनि पद्यनन्दीने 'सम्यग्दर्शन' "मैः' इस पदके द्वारा स्पष्ट कर दिया है । भकामरमें जिस 'अशेष शम्दका प्रयोग गुणके साथ [ गुणरशेषः ] किया गया है उस 'मशेष' शब्दका प्रयोग यहां दोषके साय [ दोषैरशेषैः ] किया गया है, और गुणोंकी अशेषता दिखलाने के लिये 'सर्वेः' पदको अधिक ग्रहण किया गया है। २. शांतिनामस्तोत्रके प्रथम और द्वितीय श्लोकोंकी भक्तामरके ३१ और ३२वें श्लोकोंके साथ भावकी मी बहुत कुछ समानता है। भक्तामरके २२ और ३२ वें श्लोकसे ऋषभस्तोत्रकी गाया ८ और २८ भी कुछ समानता रखती है। इसके अतिरिक्त भक्तामरखोत्र (२४-२५) में ब्रह्मा, ईश्वर, अनाकेतबड, शंकर और पुरुषोत्तम आदि नामोंके द्वारा जिनेन्द्रकी सुति की गई है। तदनुसार ऋषभरतोस(५५) में भी ये सब नाम जिनेन्द्रकेही निर्दिष्ट किये गये हैं। Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना इसका और उक्त श्लोकके पूर्वार्षका न केवल भाव ही समान है, बल्कि शब्द भी समान है। पमनन्दी और शुभचन्द्र- शुभचन्द्रकृत ज्ञानार्णवमें जैन धर्म और सिद्धान्त संबंधी प्रायः सभी विषयोंका विशद प्ररूपण पाया जाता है। इसकी अनित्यभावनाका वर्णन प्रस्तुत ग्रंथके अनित्यपश्चाशत्से तुलनीय है । विशेषतः ज्ञाना० अनित्यभा. के पद्य ३०-३१ का प्रस्तुत अनित्यपश्चाशतके पथ १६ से साम्य ध्यान देने योग्य है। ज्ञानार्णवके उक्त दोनों पद्य आचार्य पूज्यपाद विरचित इष्टोपदेशके ९वें पद्यके आधारसे स्थे गये प्रतीत होते हैं। ज्ञानार्णवका रचनाकाल लाभग १२वीं शती पाया जाता है। परनन्दी और श्रुतसागर सरि-श्रुतसागर प्रिने दर्शनप्रामृत गा. ९ और मोक्षप्रामृत गा. १२ की टीकामें एकत्वसप्ततिके 'साम्यं स्वास्थ्यं समाधिश्च' आदि लोक (६४) को उद्धृत किया है। इसके अतिरिक्त उन्होंने द. प्रा. गा. ३० की टीकामें धर्मोपदेशामृतके 'वनशिखिनि' आदि ७५वें श्लोकको तथा बोधप्रामृत गा. ५० की टीकामें एकत्वसप्ततिके ७९३ लोकको भी उद्धृत किया है। ___ उन्होंने एक श्लोक ( मद्यमांसपुरावश्या-आदि) चारित्रप्राभूतकी २१वीं गाथाकी टीकामें उद्धृत किया है । वह लोक प्रस्तुत ग्रन्थके दो प्रकरणी (१-१६ व ६-१०) में पाया जाता है । मेद केवल इतना है यहां 'मद्य' शब्दके स्थानमें 'पूत' पद है । इसके अतिरिक्त और कुछ भी मेद नहीं है । श्रुतसागर सूरि वि. सं. १६वीं सदीमें हुए हैं। ___ उक्त समस्त तुलनात्मक विवेचनका मथितार्थ यह है कि पञ्चविंशतिके ग्रंथकारने संभवतः कुन्दकुन्द, उमाल्याति, पूज्यपाद, अकलंक, गुणभद्र, मानतुंग, कुमुदचन्द्र, सोमदेवसरि, अमृतचन्द्रसूरि और अमितगतिकी रचनाओंका उपयोग किया है । इनमें समयकी दृष्टिसे सबसे पीछेके आचार्य अमितगति हैं, जिनके ग्रंथोंमें सबसे पिछला कालनिर्देश वि. सं. १०७३ का पाया जाता है। अत एव पं. वि. का रचनाकाल इससे पश्चात् होना चाहिये । तथा जिन ग्रंथोंमें इस रचनाके किसी प्रकरणका स्पष्ट उल्लेख व अवतरण पाया जाता है उनमें सबसे प्रथम पमप्रभ मलधारी देव कृत नियमसारकी टीका है। इन मलबारी देवके स्वर्गवासका काल वि. सं. १२४२ पाया जाता है। अत एव सिद्ध होता है कि पंचविंशतिकार पवनन्दी वि. सं. १०७३ और १२४२ के बीचमें कमी हुए हैं। इस सीमाको और भी संकुचित करनेमें सहायक एकत्वस्मतिकी कन्नड टीका है जिसका परिचय अन्यत्र दिया जा रहा है और जो वि. सं. ११९३ के आसपास लिखी गई थी। अत एव पंचविंशतिकार पमनन्दीका काल वि.सं. १०७३ और ११९३ के बीच सिद्ध होता है। यह भी असंभव नहीं कि मूलमंच और एकत्वसप्ततिकी कमर टीकाके रचयिता पकानन्दी एक ही हों। किन्तु इसका पूर्णतः निर्णय कुछ और सष्ट प्रमाणों की अपेक्षा रखता है। 1. इसी प्रकार शांतिनाथस्वोत्रके प्रथम और वितीय तथा सरखतीस्तोत्रके । कोकळी मी कल्याणमंदिरके २६, २५ और दूसरे लोकसे कुछ समानता दिखती है। २. तरवार्थवार्तिक (१ ९) मौर रशस्तिलक (उ, पृ. २७१) में यह एक ओक उदात किया गया है इत सानं क्रियाहीनं बसा चाहानिमा किया। पावन् किलान्धको दरबः पश्यमपि च पालः ॥ धर्मोपदेशामतके उस ओक ('मनशिििन मृतोऽन्यः' भावि ) में मी रही नाव निहित है। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्ममन्वि पञ्चविंशतिः ५. पद्मनन्दि - पंचविंशतिकी संस्कृत टीका प्रस्तुत ग्रन्थ के साथ जो संस्कृत टीका प्रकाशित की गई है उसके रचयिताका कहीं नामनिर्देश नहीं है। इससे यह ज्ञात नहीं होता कि उसकी रचना कब और किसके द्वारा की गई है। उसके रचयिता किस प्रदेशके रहनेवाले थे, मुनि थे या गृहस्थ, तथा किसके शिष्य व किस परम्परा के थे; इत्यादि बातोंके जानने का कोई उपाय नहीं है । इतना अवश्य है कि टीकाका जो स्वरूप है उसको देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि उसके रचयिता गणनीय विद्वान् नहीं थे। उनकी यह टीका बहुत साधारण है । उससे मूल डोकोका न तो अर्थ ही स्पष्ट होता है और न भाव भी । उसमें जहां वहां केवल कुछ ही शब्दोंका, विशेषतः सरल शब्दोंका, अर्थ मात्र व्यक्त किया है । उदाहरणार्थ निम्न श्लोक और उसकी टीकाको देखिये ३६ रजकशिलासदृशीमिः कुर्कुर कर्परसमान चरिताभिः । गणिकाभिर्यदि संगः कृतमिह परलोकवार्ताभिः ॥ १-२४ ॥ इह लोके संसारे । यदि चेत् । गणिकाभिः वेश्याभिः । संगः कृतः तदा परलोकवार्ताभिः कृतं पूर्यता पूर्णम् (१) । किंलक्षणाभिः वेश्याभिः । रजकशिलासदृशीभिः कुर्कुरकर्परसमान चरिताभिः ॥ २४ ॥ इस प्रकार उक्त लोककी टीकामें केवल 'इह' का अर्थ 'लोके संसारे', 'यदि' का अर्थ 'चेत्' और 'गणिकामि:' का अर्थ 'वेश्यामि' न किया गया है। इसके अतिरिक ज कलार्थ और भावार्थको कुछ भी स्पष्ट नहीं किया गया है। इसके आगे २७वें श्लोकका यह अन्तिम चरण है— नित्यं वञ्चनहिंसनोज्झविधौ लोकाः कुतो मुफ्त ॥ इसका टीककार अर्थ करते हैं- भो लोकाः । नित्यं सदा । वञ्चनहिंसनोज्नविधौ । कुतो मुझत कमान्मोहं गच्छत । I इस प्रकारसे उसका भाव कुछ भी स्पष्ट नहीं होता है। यहां ये एक दो ही उदाहरण दिये गये है। वस्तुतः प्रस्तुत टीकाकी प्रायः सर्वत्र यही स्थिति है । इसके अतिरिक्त इस टीकामें जहां तहां अर्थकी असंगति भी देखी जाती है। जैसे- श्लोक १-७५ में 'अश्रदधान:' पदका अर्थ 'आलस्यसहित १-१०४ में 'मृत्पिण्डीभूतभूतम्' का अर्थ 'मृतप्राणिपिण्डसदृशम् ' ; १-१०९ में 'याति' का अर्थ 'यातिर्गमनं न', इसी लोकमें 'मृतः' का अर्थ 'मरणं न', 'जरा जर्जरा जाता' का अर्थ 'मत्र मुक्त जरा न यत्र मुक्तौ जरया कृत्वा जर्जराः सिद्धाः न'; १-११८ में 'आस्थाय' का अर्थ 'खित्वा'; इसमें 'न विद' का अर्थ 'क्वापि वयं न विदः; तथा लोक १-१३७ में "भूतानन्वयतो न भूतजनितो' का अर्थ 'अन्वयतः निश्चयतः । आत्मा भूतो न इन्द्रियरूपो न पृथिव्यादिजनितो न भूतजनितो न' और 'कमपि अर्थक्रिया न युज्यते' का अर्थ 'उत्पादव्ययधौन्यत्रयात्मिका क्रिया न युज्यते । अपि तु सर्वेषु द्रव्येषु श्रन्यव्ययोत्पादक्रिया युज्यते' । इस लोकका भाव टीकाकारको सर्वथा हृदयंगम नहीं हुआ है । टीकाकार संस्कृत भाषाके साथ ही सिद्धान्तके भी कितने ज्ञाता थे, इसका अनुमान 'लब्धिपञ्चकसामग्री व्यादि छोक (४-१२) की टीकाको देखकर भली भांति किया जा सकता है । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना टीकाकी भाषा-टीकाकारने जिस संग मालामें इन टीका की रचना की है वह भविष्य माशुद्ध है । इस टीकाकी रचना करते हुए उन्हें बीच बीचमें हिन्दी वाक्यों व शब्दोंका भी अवलम्बन लेना पड़ा है (देखिये श्लोक ४-१२)। उनकी भाषाविषयक वे अशुद्धियां कुछ इस प्रकार है-वनतिष्ठनेन (१-६७), दुर्जयः दुर्जीतः (१-९९), स्तुत्यमानेषु (१-१०६), कठिनेन प्राप्यते (१-१६६), मनोइन्द्रियरहिताः (१०-३२, बाझपदार्थाः अन्यानि किं न सन्ति (११-२२), आकृष्टयन्त्रसूत्रात् आकर्षितसूत्रात् (११-६०), तत्पतेः तस्याः स्त्रियाः पतेः वल्लभात् (१२-१०), कियत् आनन्दं परिस्फुरति (१३-३), छभेन (१३-१४), प्रमुक्त्वा (१३-३९), प्रमाप्रमुखाः ...किरणा; खद्योते योज्यते (१३-५१), तेजःसौख्यहतेः अकर्तृ- सौत्यहतेः तेज: अकर्तृ ‘हन् हिंसागत्योः' देवादीनां सुखेन गमनस्य तेजः, तस्य तेजसः अफ अकारकम् (१७-७), घनघातात् घनतः घाताद , शरीरस्य संनिधिः निकटं न जायते (२४-७), उभयथा द्विप्रकार ( २५-२) इत्यादि ।। संस्कृतके समान प्राकृतका भी उनका ज्ञान अल्प ही दिखता है । उदाहरणस्वरूप उनके द्वारा टीकामें किये गये ऋषभस्तोत्र के अन्तर्गत कुछ शब्दोंके अर्थको देखिये ५ अम्हारिसाण-मम सदृशानाम् ; ५ यिइच्छिया हृदयस्थिता; ८ स चिय-शची सुरदेवइन्द्राणी च; ९ सुरायलं-सुरालयं मन्दिरं; १४...सासछम्मेण श्वासप्रेन; १६ वराई-वराकिनी; १९,३२....चिय= भो अर्च्य भो पूज्य; २० मुयं व-मृतगवत् ; २१ जियाण-यावताम् ; ३२ अहोकन्यजडोह-अहो इत्याश्चर्ये ।....जलौघं समुद्रं; ३३ हिययपईहरहृदयप्रदीपकर; ३३ चिय-भो अर्य; ४५ हरिणकमल्लीणोचन्द्रकमलीनः; ५५ वत्यसत्थे वस्तुशाने । ६. एकत्वसप्ततिकी कलह टीका प्रस्तुत ग्रन्थका चतुर्थ प्रकरण एकत्व-सप्ततिकी अपेक्षाकृत अधिक प्रसिद्धि रही है, उसकी स्वतंत्र प्राचीन प्रतियां भी उपलभ्य होती हैं, और उसके अन्य ग्रन्थकारों द्वारा उद्धरण भी पाये जाते हैं। इस प्रकरणपर कनड भाषामक एक टीका भी उपलब्ध है जिसके लगभग ५० पद्य संस्कृत टीका सहित सन् १८९३ में पं. पमराज द्वारा सम्पादित होकर काल्याम्बुधि नामक अन्यमालामें प्रकाशित हुए थे। डॉ. उपाध्येजी ने इसका तथा तीन हस्तलिखित प्राचीन प्रतियोंका अवलोकन किया है । इस कनादी टीकाकी शैली दार्शनिक व समास-बहुल है । उसमें संस्कृत व प्राकृत के अनेक अवतरण मी पाये जाते हैं जो कुन्दकुन्द और अमृतचन्द्र आचार्योंकी रचनाओंसे लिये गये सिद्ध होते हैं। टीकाकारका नाम है पद्मनन्दी । इस नामके साथ पंडितदेव, व्रती व मुनिकी उपाधियां पाई जाती है। सौभाग्यसे उन्होंने अपना जो परिचय दिया है वह ऐतिहासिक दृष्टि से बड़ा महत्त्वपूर्ण है। वे शुभचन्द्र राधान्तदेवके अमशिष्य थे और उनके विद्यागुरु थे कनकनन्दी पण्डित । उन्होंने अमृतचन्द्रकी वचनचन्द्रिकासे आध्यात्मिक प्रकाश प्राय किया था, और निम्बराजके संबोधनार्थ एकत्व-सप्तति वृत्तिकी रचना की थी। टीकाकी प्रशस्तिमें पानन्दी और निम्बराज दोनोंकी खूब प्रशंसा की गई है । अनुमानतः ये निम्बराज ये ही है जो पार्धकविकृत 'निम्ब-सावन्त-चरिते' नामक ५०६ षट्पदी पापात्मक कन्नड काव्यके नायक है । इस काव्यकी उपलभ्य एक मात्र प्राचीन प्रति वि. सं. १७९३ की है। काव्यके वृत्तान्तसे सिद्ध होता है कि निम्बराज Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पभनन्दि-पञ्चविंशतिः शिलाहारवंशीय गण्डरादित्य नरेशके सामन्त थे। उन्होंने कोल्हापुरमें अपने अधिपतिके नामसे 'रूपनारायणअसदि' नामक जैन मन्दिरका निर्माण कराया था तथा कार्तिक वदि ५ शक सं. १०५८ (वि. सं. ११९३) में कोल्हापुर व मिरजके आसपासके ग्रामोंकी आयका दान भी दिया था । मूलमन्धकार व टीकाकारके नाम-साम्य व रचनाकालको देखते हुए यह भी प्रतीत होता है कि वे एक ही व्यक्ति हों, किन्तु न तो उनके दीक्षा व शिक्षा गुरुओं के नाम एकसे मिलते और न वृत्तान्तमें इसका कोई स्पष्ट संकेत प्राप्त होता । इस कारण उनका एकत्व सन्देहात्मक ही है। ७. पद्मनन्दि-पंचविंशतिकी हिन्दी वचनिका ___ ऊपर 'च' प्रतिके परिचयमें उस प्रतिके साथ उपलभ्य 'वचनिका'का परिचय दिया जा चुका है। यह वचनिका दुढारी ( राजस्थानमें जयपुरके आसपास बोली जानेवाली ) हिन्दी भाषामें लिखी गई है । उक्त प्रतिकी प्रशस्तिके अनुसार दुंढाहर देशवर्ती जयपुर नगरके राजा रामसिंहके राज्यकालमें सांगानेर बाजारमें स्थित खिन्दुकाके जैन मन्दिरमै पानन्दि-पंचविंशतिका स्वाध्याय व उसपर धर्मचर्चा चला करती यी। एक वार सब पंचोंके हृदयमें यह भावना उत्पन्न हुई कि इस प्रन्यकी भाषा-वचनिका लिखी जाय । यह कार्य वहाँके ज्ञानचन्द्रके पुत्र जौहरीलालको सौंपा गया । किन्तु वे आठवें प्रकरण 'सिद्धस्तुति' तककी वनिका लिखकर स्वर्गवासी हो गये । तब शेष ग्रन्थको पूरा करनेका कार्य हरिचन्द्रके पुत्र मनालालको सौंपा गया और उन्होंने उसे संवत् १९११ मृगशिम मार, मुबारको समाप्त किया । इस प्रकार यह हिन्दी टीका केवल एक सौ तीन वर्ष पुरानी है और उसे जौहरीलाल और मन्नालाल इन दो विद्वानोंने क्रमसे रचा है। इस रचनामें प्रथम मूल संस्कृत या प्राकृत पध, उसके नीचे हिन्दीमें शब्दार्थ और तत्पश्चात् उसका भावार्थ लिखा गया है। ८. विषय-परिचय 'पअनन्दि-पञ्चविंशति' इस ग्रन्यनामसे ही सूचित होता है कि प्रस्तुत प्रन्थमें श्रीमुनि पद्मनन्दीके द्वारा रचित पच्चीस विषय समाविष्ट हैं, जो इस प्रकार है.--- १. धर्मोपदेशामृत-इस अधिकारमें १९८ श्लोक हैं । यहां सर्वप्रथम (लोक ६) धर्मके उपदेशका अधिकारी कौन है, इसको स्पष्ट करते हुए यह बतलाया है कि जो सर्वज्ञ होकर क्रोधादि कषायोंकी वासनासे रहित हो चुका है वह निर्वाध सुखके देनेवाले उस धर्मका उपदेश या व्याख्यान किया करता है और वही इस विषयमें प्रमाण माना जाता है। हेतु इसका यह बतलाया है कि लोकमें असत्यभाषणके दो ही कारण देखे जाते हैं— अज्ञानता और कषाय । जो भी कोई किसी विषयका असत्य विधेचन करता है बह या तो तद्विषयक पूर्ण ज्ञानके न रहनेसे वैसा करता है या फिर क्रोध, मान अथवा लोभ आदि किसी कषायविशेषके वशीभूत होकर वैसा करता है । इसके अतिरिक्त उस असत्यभाषणका अन्य कोई कारण हष्टिगोचर नहीं होता । इसीलिये जो इन दोनों कारणोंसे रहित होकर सर्वत्र और वीतराग बन चुका है वही यथार्थ धर्मका वक्ता हो सकता है और उसे ही इसमें प्रमाण मानना चाहिये । कोई यात्री जब एक देशसे किसी दूसरे देश अथवा नगरको जाता है तब वह अपने साथ पाथेयकोमार्गमें खानेके योग्य सामग्रीको-अवश्य रख लेता है । इससे उसकी यात्रा सुखसे समास होती है-उसे Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावमा ३९ मार्ग में कोई कष्ट नहीं होता । यह सावधानी इस लोककी यात्रा के लिये है । फिर भला बब प्राणी इस लोकको छोड़कर दूसरे लोकको (गत्यन्तरको ) जाता है तब क्या उसे इस लम्बी यात्रा के लिये पाथेयकी आवश्यकता नहीं है? है और अवश्य है। यह पाथेय है धर्म, जो उस परलोककी यात्राको सरल व सुखद बनाता है । उस धर्मका स्वरूप यहां ( ७ ) व्यवहार और निश्वय इन दोनों दृष्टियोंसे दिखलाया गया है। उनमें प्रथमतः व्यवहारके आश्रय से जीवदयाको - अशरणको शरण देने व उसके दुखमें स्वयं दुखके अनुभव करनेकोधर्म कहा हैं । उसके गृहस्थधर्म और मुनिधर्मकी अपेक्षा दो मेद, रत्नत्रय - सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान एवं सम्यक्चारित्रको अपेक्षा तीन की अपेक्षा दस मेद निर्दिष्ट किये गये हैं । यह सब धर्म व्यवहारोपयोगी है और इसे शुभ उपयोगके नामसे कहा जाता है। यह जीवको दुर्गतिसे - नरक व तिच योनियोंके दुखसे-- बचाकर उसे मनुष्य और देवगतिके सुखको प्राप्त कराता है । इसलिये यह अपेक्षाकृत उपादेय है, किन्तु सर्वथा उपादेय तो वही धर्म है जो जीवको चतुर्गतिके दुखसे छुटकारा दिलाकर उसे अजर-अमर बना देता है । तब जीव शाश्वत पदमें स्थित होकर सदा निर्वाध सुखका अनुभव किया करता है। इस धर्मको शुद्धोपयोग या निश्वय धर्मके नामसे कहा गया है। इसके स्वरूपका निर्देश करते हुए यहां यह बतलाया है कि मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले समस्त संकल्प-विकल्पोंसे रहित होकर जो शुद्ध आनन्दमय आत्माकी परिणति होती है उसे ही यथार्थ धर्म समझना चाहिये । उसमें वचन और शरीरका संसर्ग नहीं रहता । पूर्वोक्त व्यवहार धर्मको जो यहां उपादेय बतलाया है वह इस निश्वय धर्मका साधक होनेकी दृष्टिसे है । किन्तु जो प्राणी सांसारिक सुखको अभीष्ट विषयोपभोगजनित क्षणिक व सवाध इन्द्रियतृप्तिको - डी अन्तिम सुख मानकर उक्त व्यवहार धर्मको उसीका साधन समझते हैं और यथार्थ धर्मसे विमुख रहते हैं, उन अज्ञानी व कवाग्रही जनको लक्ष्यविन्दु बनाकर उस व्यवहार धर्मको मी हेय बतलाया गया है, क्योंकि, वह मोक्षका साधन नहीं होता। यहां (८) धर्मवृक्षकी मूलभूत उस जीवदयाको समीचीन चारित्रकी उत्पादक व मोक्ष-महलपर आरोहण करानेवाली नसैनी कहा गया है। साथ ही धर्मारमा जनोंके लिये यह प्रेरणा भी की गई है कि उन्हें निरन्तर अन्य प्राणियों के विषयमें दयार्द्र रहना चाहिये, क्योंकि, प्राणीमें समस्त व्रत, शील एवं अन्यान्य उत्तमोत्तम गुण एक मात्र उसी जीवदया ही आश्रयसे रहते हैं। स्वस्थ प्राणीके विषयमें तो क्या, किन्तु जो रोगाक्रान्त है उसे भी यदि सम्पत्ति आदिका प्रलोभन देकर कोई मारना चाहे तो वह उसे स्वीकार न करके उसकी अपेक्षा एक मात्र अपने जीवनको ही प्रिय समझता है। वह उस जीवनके आगे तीनों लोकोंके भी राज्यको तुच्छ समझता है। बस, यही कारण है जो इस जीवितदानके आगे अन्य सब दानोंको तुच्छ गिना गया है (१०) । इस जीवदया के बिना तप व त्याग आदि सच ही व्यर्थ होते हैं । उपर्युक्त गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म में अधिक श्रेष्ठ तो मुनिधर्म ही है, फिर भी चूंकि मोक्षके मार्गमूत रत्नत्रयके धारक साधु ही होते हैं और उनके शरीरकी स्थिति उन गृहस्थोंके द्वारा भक्तिपूर्वक दिये गये मोजनके आश्रित होती है, अत एक उन गृहस्थोंका धर्म (गृहिधर्म ) भी अमीष्ट माना गया है (१२) । जो धर्मवत्सल गृहस्थ अपने छह आवश्यकोंका परिपालन करता हुआ मुनिधर्मको खिर रखनेके लिये मुनियोंको निरन्तर आहारादि दिया करता है उसीका गृहस्थजीवन प्रशंसनीय है। इसके विपरीत जो गृहस्व धर्मसे Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानन्दि-पञ्चविंशतिः विमुख होकर-जिनपूजन और पात्रदानादिसे रहित होकर-केवल धनके अर्जन और विषयोंक भोगनेमें ही मस्त रहते हैं उनके गृहस्थजीवनको एक प्रकारका बन्धन ही समझना चाहिये (१३)। गृहिधर्ममें श्रावकके दर्शन व प्रत आदिके भेदसे ग्यारह स्थान (प्रतिमायें ) निर्दिष्ट किये गये हैं। इनके पूर्वमें सात व्यसनोंका परित्याग अनिवार्य है, क्योंकि, उसके विना व्रत आदि प्रतिष्ठित नहीं रह सकते हैं । व्यसन वे हैं जो पुरुषोंको कल्याणके मार्गसे भ्रष्ट करके उन्हें अकल्याणमें प्रवृत्त किया करते हैं । यहां (१६-३१) उन यूतादि व्यसनोंका पृथक् पृथक् स्वरूप बतलाकर उनमें रत रहनेसे जिन युधिष्ठिर आदिको कष्ट भोगना पड़ा है, उनका उदाहरणके रूपमें नामोल्लेख भी किया गया है । हिंसा, असत्य, चोरी, मैथुन और परिग्रह, इन पापोंका परित्याग जहां श्रावक एक देशरूपसे करता है, वहां मुनि उनका परित्याग पूर्ण रूपसे किया करते हैं । इसीलिये गृहस्थके धर्मको देशचरित्र और मुनिके धर्मको सकलचारित्र कहा जाता है। इस सकल चारित्रको धारण करनेवाले मुनि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यश्चारित्ररूप रसत्रयके साधनमें तत्पर होकर मूलगुण, उत्तरगुण, पांच आचार और दस धर्मोका परिपालन किया करते हैं। इसमें वे प्रमाद नहीं करते तथा जीवनके अन्तमें समाधि ( सल्लेखना ) को धारण करनेके लिये सदा उत्सुक रहते हैं (३८)। उनमें मूलगुणों के परिपालनकी प्रमुखता है। जो तपस्वी मूलगुणोंका परिपालन न करके उत्तरगुणों के परिपालनका प्रवल करता है उसका यह प्रयत्न उस मूर्खके समान बतलाया गण है जो अपने शिके खेतों में दात मात्र से अपने शिरोरक्षणका तो प्रयत्ल नहीं करता, किन्तु अंगुलिके रक्षण मात्रमें संलग्न हो जाता है (४०)। वे मुनिके मूलगुण २८ है जो इस प्रकार हैं-पांच महावत, पांच समितियां, पांचों इन्द्रियोंका निरोध, समता आदि छह आवश्यक, लोच, वस्त्रका परित्याग, सानका परित्याग, भूमिशयन, दन्तघर्षणका त्याग, स्थितिभोजन और एकभक्त' ( एक बार भोजनप्रहण )। इन मूलगुणोंमेंसे यहां प्रन्थकार श्री मुनिपग्रनन्दीने अचेलकत्य ( वस्त्रत्याग ), लोच, स्थितिमोजन और समताका ही मुख्यतासे स्वरूप दिखलाया है । वे दिगम्बरत्वकी आवश्यकताको प्रगट करते हुए कहते हैं कि जब वन मैला हो जाता है तब उसे स्वच्छ करनेके लिये जलादिका आरम्भ करना पड़ता है, और जहां आरम्भ है वहां संयमकी रक्षा सम्भव नहीं है। दूसरे, जब वह जीर्ण-शीर्ण होकर फट जाता है तो मनमें व्याकुलता होती है तथा दूसरोंसे उसके लिये याचना करना पड़ती है । इससे आत्मगौरख नष्ट होकर दीनताका भाव उत्पन्न होता है। फिर यदि किसीने उसका अपहरण कर लिया तो क्रोध भड़क उठता है। इस प्रकारसे वस्त्रको मुनिमार्गमें बाधक समझकर दिगम्बरत्वको खीकार करना ही योग्य है (११)। कुछ मुनियोंकी भोगाकांक्षाको देखकर यहां यह कहा गया है कि जब साधुके लिये शथ्याके हेतु घासको भी स्वीकार करना लज्जाजनक व निन्ध माना जाता है, तब भला गृहस्थके योग्य रुपये-पैसे आदिको स्वीकार करना या १. जामीनकषायकर्कशमनस्कारार्पितैर्दुष्कृतश्चैतन्य तिर्यतमस्तरदपि चूतादि अच्छेयसः । पुंसो भ्यस्यति तद्विदो व्यसनमित्याख्यान्त्यतस्तद्वतः कुर्वीतापि रसादिसिद्धिपरतो तरसोदरौं दूरगाम् ॥ सा. ध. ३,१८. २. पंच य महम्ययाई समिडीओ पंच जिणवहिष्टा । पंचेविंदियरोहा छरिप य आवासया लोचो ॥ भवेलकमगाणं खिदिसयणमदतर्घसणं चेव । हिदिभोयणेयभन्ने मूलगुण भट्टवीसा तु ।। मूला. १, २-३. Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उससे ममता रखना उनके लिये कहां तक योग्य है ! यह तो उस मुनिमार्गसे पतनकी पराकाष्ठा है। यदि आज निर्धन्य कहे जानेवाले उन साधुओंकी यह दुरवस्था हो गई है तो इसे कलिकालके प्रभावके सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? (५३)। ___ इस प्रकार सामान्यसे साधुके स्वरूपको दिखला कर आगे आचार्य और उपाध्यायोंका मी पृयक् पृथक् (५९-६१) स्वरूप बतलाया गया है । तत्पश्चात् समीचीन साधुओंकी प्रशंसा करते हुए उनसे अपने कल्याणकी प्रार्थनाकी गई है (६२-६६) । वर्तमानमें इस भरतक्षेत्रके भीतर केवलज्ञानियोंका अस्तित्व नहीं पाया जाता, फिर भी परम्परासे उनकी वाणी (जिनागम) प्राप्त है और उसके आश्रयभूत ये रत्नत्रयके धारक साधु ही हैं, अत एव उनकी उपासना करना श्रावकका आवश्यक कर्म है । इस प्रकार उन समीचीन साधुओं की पूजा-भक्तिसे साक्षात् जिन और उस जिनागमकी भी पूजा हो जाती है (६८)। ऐसे महात्माओंके जहांपर चरण-कमल पड़ते हैं वह भूमि तीर्थका रूप धारण कर लेती है और उनकी सेवामें नम्रीभूत हुए देव भी किंकरके समान उपस्थित रहते हैं। पूजा और स्तुति आदि तो दूर ही रही, किन्तु उनके नामस्मरणसे भी प्राणी पापसे मुक्त हो जाते हैं ( ६८-६९)। ये मुनिजन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र स्वरूप जिस रत्नत्रयमें दृढ़ होते हैं उसका स्वरूप इस प्रकारसे निर्दिष्ट किया गया है- तत्त्वार्थ, देव और गुरुके श्रद्धानका नाम सम्यग्दर्शन है। स्व और पर दोनोंको सन्देह व विपरीततासे रहित होकर यथावत् जानना, इसे सम्यग्ज्ञान कहते हैं। प्रमादनिमित्तक कर्मके आसबसे विरत होनेको चारित्र कहा जाता है। इन तीनोंका ही नाम मोक्षमार्ग है और वह जन्म-मरणरूप संसारका नाशक है (७२)। यह व्यवहार रत्नत्रयका स्वरूप है। निश्चय रत्नत्रयका स्वरूप निम्न प्रकार है- आत्मा नामक निर्मल ज्योति के निर्णयका नाम सम्यग्दर्शन, तद्विषयक बोधका नाम सम्यग्ज्ञान और उसी में स्थित होनेका नाम सम्यछचारित्र है। यह निश्चय रत्नत्रय समुदित रूपमें कर्मबन्धको निर्मूल करनेवाला है। परन्तु व्यवहार रत्नत्रय बाझ पदार्थोको विषय करनेके कारण पर है जो शुभाशुभ बन्धका ही कारण है । इस प्रकार व्यवहार रनत्रय संसारका कारण और निश्चय रखत्रय मोक्षका कारण है (८१)। ___ मुमुक्षु तपखियोको अज्ञानी जनके द्वारा पहुंचायी गई बाधाको शान्तिके साथ सहन करते हुए उनके ऊपर कोध नहीं करना चाहिये, इसीका नाम उत्तम क्षमा है । ये उत्तम क्षमा आदि दस धर्म संवरके कारण हैं। इनका यहां पृथक् पृथक् वर्णन किया गया है ( ८२-१०६)। सब ही प्राणी दुरखसे भयभीत होकर सुखको चाहते हैं और निरन्तर उसीकी प्राप्तिके लिये प्रयत्न भी करते हैं । परन्तु यथार्थमें सबको उस सुखका लाभ नहीं हो पाता । इसका कारण उनका सुख-दुःखविषयक अविवेक है। उन्हें सातावेदनीयके उदयसे जो कुछ कालके लिये वेदनाके परिहारस्वरूप सुखका आभास होता है उसे ही वे यथार्थ सुख मान लेते हैं जो वस्तुतः स्थायी यथार्थ सुख नहीं है (१५१), क्योंकि वे जिस इष्ट सामग्रीके संयोगमें सुखकी कल्पना करते हैं वह संयोग ही स्थायी १. प्रस्तुत प्रन्थमें इनका स्वरूप अनेक स्थानपर देखा जाता है। जैसे-लोक ४-४ और 11, १२-१४ आदि । २. स मुप्ति-समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परिषजयन्चारित्रः ।. स. १-१. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्धि-पत्रपिंशतिः नहीं है । अत एव जब उस अभीष्ट सामग्रीका वियोग होता है सब पुनः वह संताप उत्पन होता है। इस प्रकार जिस संयोगसे सुखकी कल्पना की जाती है वह अन्ततः दुख ही है। सुख तो माकुलताके अभावमें है, जो मोक्षमें ही उपलब्ध होता है। वहां दिव्य ज्ञानमय आमा अनन्त काल तक निराकुल व बाधारहित शाश्चतिक सुखका उपभोग करता है (१०९)। ___ आत्मस्वरूपके व्याख्यानमें उसके वचनोंको प्रमाण माना जा सकता है जो सर्वज्ञ होकर राग-द्वेषादि से रहित होता हुआ वीतराग भी हो चुका है। उसने जो अंग और अंगवामरूप जिस समस्त श्रुतकी प्ररूपणा की है उसमें एक मात्र आत्मतत्वको उपादेय और अन्य सबको हेय बतलाया गया है। चूंकि वर्तमान कालमें आयु और बुद्धिके हीन होनेसे समस्त श्रुतके पढ़नेकी शक्ति नहीं है, अत एव मुक्तिके साधक मात्र श्रुतका ही अभ्यास करना उचित है ( १२४-२७)। ___ आत्माके सम्बन्धमें विभिन्न संप्रदायोंमें अनेक प्रकारकी कल्पनायें की गई है। यथा-माध्यमिक यदि उसे शून्य मानते हैं तो चार्वाक पृथिव्यादि भूतोंसे उत्पन्न हुआ उसे जड मानते हैं। इसी प्रकार सांख्य उसे अकर्ता (भोक्ता ), सौत्रान्तिक क्षणिक तथा वैशेषिक नित्य व व्यापक मानते हैं। इन मत-मतान्तरोंका भी यहां संक्षेपमें विवेचन किया गया है ( १३४-३९) । तत्पश्चात् उस आत्माके यथार्थ स्वरूपको दिखलाकर यह बतलाया है कि यह मनुष्य पर्याय अन्धकवर्तकीय न्यायसे करोड़ों कल्पकालोंके वीत जानेपर बड़ी फठिनतासे प्राप्त होती है। फिर उसके प्राप्त हो जानेपर मी यदि प्राणी मिथ्या उपदेशादिको पाकर विषयों में मुग्ध रहा तो प्राप्त हुई वह मनुष्य पर्याय यों ही नष्ट हो जाती है । अथवा, मनुष्य पर्यायके प्राप्त हो जानेपर भी यदि उत्तम कुल और बुद्धिकी चतुरता आदि प्राप्त नहीं हुई तो भी वह व्यर्थ ही जानेवाली है, क्योंकि, ये सब साधन उत्तरोतर दुर्लभ हैं। सौभाग्यसे इस सब सामग्रीको पा करके भी जो मनुष्य सुखप्रद धर्मका आराधन नहीं करता है वह उस मूखके समान है जो हाथमें आये हुए अमूल्य रलको यों ही फेंक देता है । कितने ही मनुष्य यह विचार किया करते हैं कि अभी हमारी आयु बहुत है, शरीर व इन्द्रियों भी पुष्ट हैं, तथा लक्ष्मी आदिकी अनुकूलता भी है; फिर मला अभी धर्मके लिये क्यों व्याकुल हों, उसका सेवन भविष्यमें निम्विन्तता पूर्वक करेंगे, इत्यादि । परन्तु उनका यह विचार अज्ञानतासे परिपूर्ण है, क्योंकि, मृत्यु किस समय आकर उन्हें अपना पास बना लेगी; इसका कोई नियम नहीं है (१६७-७०)। इस प्रकार मृत्युके अनियत होनेपर बुद्धिमान् मनुष्य वे ही समझे जाते हैं जो इस दुर्लभ साधन-सामग्रीको पा करके विषयतृष्णासे मुक्त होते हुए आत्महितको सिद्ध करते हैं ( १७१-७८) । अन्तमें ( १७९-९८) अनेक प्रकारसे धर्मकी महिमाको दिखलाकर इस प्रकरणको समाप्त किया गया है। २.दानोपदेशन-इस अधिकारमें ५४ लोक हैं। यहां प्रथमतः प्रततीर्थके प्रवर्तक आदि जिनेन्द्र और वानतीर्थ के प्रवर्तक श्रेयांस राजाका स्मरण किया गया है । पश्चात् दानकी आवश्यकता और महत्त्वको प्रगट करते हुए यह बतलाया है कि श्रावक गृहमें रहता हुआ अपने और अपने आश्रित कुटुम्बके १. संयोगतो दुःखमनेकमेदं यतोऽश्नुते जन्मदने शरीरी । ततलिचासौ परिवर्जनीयो यियामुना नितिमात्मनीनाम् ॥ वानिधिस २८. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भरण-पोषण आदिके लिये जो अनेक प्रकारके आरम्भ द्वारा धनका उपार्जन करता है, उसमें उसके हिंसा आदिके कारण अनेक प्रकारके पापका संचय होता है । इस पापको नष्ट करनेका यदि कोई साधन उसके पास है तो वह दान ही है । यह दान श्रावकके छह आवश्यकों (६,७ ) में प्रमुख है। जिस प्रकार पानी बस्लादिमें लगे हुए रुधिरको घोकर उसे स्वच्छ कर देता है उसी प्रकार सत्पात्रदान श्रावकके कृषि व बाणिज्य आदिसे उत्पन्न पाप-मलको धोकर उसे निष्पाप कर देता है। (५-७,१३ ) । इस दानके निमित्तसे दाताके जो पुण्य कर्मका अन्ध होता है उसके प्रभावसे उसे भविष्यमें भी उससे कई गुणी लक्ष्मीकी प्राप्ति होती है । उदाहरण स्वरूप यदि छोटे-से भी वटके बीजको योग्य भूमिमें बो दिया जाता है तो वह एक विशाल वृक्षके रूपमें परिणत होकर वैसे असंख्यात बीजोंको तो देता ही है, साथ ही वह उस महती छायाको भी देता है जिसके आश्रित होकर सैकड़ों मनुष्य शान्ति प्राप्त करते हैं (८,१४,३८)। रत्नत्रयके साधक मुमुक्षु जनोंको आहारादि प्रदान करनेवाला सद्गृहस्थ न केवल साधुको ही उन्नत पदमें स्थित करता है, बल्कि वह स्वयं भी उसके साथ उन्नत पदको प्राप्त होता है। उदाहरणके लिये राज जब किसी ऊंचे भवनको अनाता है तब वह उस भवनके साथ साथ स्वयं भी क्रमशः ऊंचे स्थानको प्राप्त करता जाता है (९! जो गृहस्थ सम्पन्न होता हुआ भी पात्रदान नहीं करता, उसे वस्तुतः धनवान् नहीं समझना चाहिये, वह तो किसी अन्यके द्वारा धनके रक्षणार्थ नियुक्त किये गये सेवकके समान ही है। कोषाध्यक्ष सब धनकी सम्हाल और आय-व्यायका पूरा पूरा हिसाब रखता है, परन्तु वह स्वयं उसमेंसे एक पैसेका भी उपभोग नहीं कर सकता (३६)। पात्रदानादिके निमित्तसे जिस गृहस्थकी लोकमे कीर्ति नहीं फैलती उसका जन्म लेना और न लेना बराबर है । वह धनसे सम्पन्न होता हुआ भी रंकके समान है (४०)। कृपण मनुष्य यह तो सोचता है कि प्रथम तो मुझे धनका कुछ संचय करना है, भवनका निर्माण कराना है, तथा पुत्रका विवाह भी करना है, तत्पश्चात् दान करूंगा आदि; परन्तु वह यह नहीं सोचता कि मैं चिरकाल तक स्थित रहनेवाला नहीं हूं: न जाने कब मृत्यु आकर इस जीवनलीलाको समाप्त कर दे। जिसका धन न तो भोगनेमें ही आता है और न पादानमें भी. लगता है उसकी अपेक्षा तो वह कौवा ही अच्छा है जो कांव कांद करता हुआ अन्य कौवोंको बुलाकर ही बलिको खाता है ( ४५-४६) । अन्तमें उत्तम, मध्यम व जघन्य पात्र, कुपात्र और अपात्रके स्वरूपको तथा उनके लिये दिये जानेवाले दानके फलको भी बतलाकर (४८-४९) इस प्रकरणको समाप्त किया गया है। ३. अनित्यपञ्चाशत्-इस अधिकारमें ५५ श्लोक है। यहां शरीर, स्त्री, पुत्र एवं धन आदिकी स्वाभाविक अस्थिरताको दिखलाकर उनके संयोग और वियोगमें हर्ष और विषादके परित्यागके लिये प्रेरणा की गई है। आयुकर्मके अनुसार जिसका जिस समय प्राणान्त होना है वह उसी समय होगा। इसके लिये धर्म न करके शोक करना ऐसा है जैसे सर्पके चले जानेपर उसकी लकीरको पीटते रहना (१०)। जिस प्रकार रात्रिके होनेपर पक्षी इधर उधरसे आकर किसी एक पूक्षके ऊपर निवास करते १. गृहकर्मणापि निचितं कर्म चिमार्टि खळ गृहावमुक्तानाम् । अतिधीनां प्रतिपूजा रुधिरमलं धावते वारि ॥ र. था. ११४. क्षितिगतमिव बटबीजं पात्रगत दानमल्पमपि काले । फलतिच्याविभवं बहुफलमिष्ट शरीरभृताम् ॥र. श्रा, 198. . अकील तप्यते तश्वतस्तापोऽशुभारुवः । तमत्प्रसादाय सदा धेयसे कीर्तिमर्जयेत् ॥ सा ध. २, ८५. Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि-पशितिः और फिर प्रमातके हो जानेपर पुनः अनेक दिशाओंमें चले जाते हैं उसी प्रकार पाणी अनेक योनियोंसे आकर विभिन्न कुलों में उत्पन्न होते हैं और फिर आयुके समाप्त होनेपर उन कुलोंसे अन्य कुलोंमें चले जाते हैं। ऐसी अवस्थामै उनके लिये शोक करना अज्ञानताका घोतक है (१६) । इस प्रकारसे अनेक विशेषताओं के द्वारा मृत्युकी अनिवार्यता और अन्य सभी चेतन-अवेतन पदार्थोकी अस्थिरताको दिखलाकर यहां इष्टवियोगमें शोक न करनेका उपदेश दिया गया है। ४. एकात्वसप्तति- इस अधिकारमें ८० श्लोक है । यहां चिदानन्दस्वरूप परमात्माको नमस्कार कर यह बताया है कि वह चित्स्वरूप यद्यपि प्रत्येक प्राणिके भीतर अवस्थित है, फिर भी अपनी अज्ञानता के कारण अधिकतर प्राणी उसे जानते नहीं है। इसीलिये वे उसे बास पदामि खोजते हैं। जिस प्रकार अधिकतर प्राणी लकड़ीमें अन्यक स्वरूपसे अवस्थित अनिको नहीं ग्रहण कर पाते उसी प्रकार कितने ही प्राणी अनेक शासोंमें उलझकर उसे नहीं प्राप्त कर पाते । वह चेतन तत्त्व अनेक-धर्मात्मक है । परन्तु कितने ही मन्दबुद्धि उसे जात्यन्धहस्ती न्यायके अनुसार एकान्तरूपसे ग्रहण करके अपना अहित करते हैं। कुछ मनुष्य उसको जान करके भी अभिमानके वशीभूत होकर उसका आश्रय नहीं लेते हैं । जो धर्म वास्तवमें प्राणीको दुससे बचानेवाला है उसे दुईद्धि जनोंने अन्यथा कर दिया है । इसीलिये विवेकी जीवोंको उसे परीक्षापूर्वक ग्रहण करना चाहिये (१-९)। जो योगी शरीर व कर्मसे पृथक् उस ज्ञानानन्दमय परप्रमको जान लेता है वही उस स्वरूपको प्राप्त करता है । जीवका राग-द्वेषके अनुसार जो किसी पर पदार्थसे सम्बन्ध होता है वह बन्धका कारण है तथा समस्त बाय पदार्थोसे भिन्न एक मात्र आत्मस्वरूपमें जो अवस्खान होता है, यह मुक्तिका कारण है । बन्ध-मोक्ष, राग-द्वेष, कर्म-आत्मा और शुभ-अशुभ इत्यादि प्रकारसे जो द्वैत (दो पदार्थोके आश्रित) बुद्धि होती है उससे संसारमें परिप्रमण होता है, तथा इसके विपरीत अद्वैत (एकत्व) बुद्धिसे जीव मुक्तिके सन्मुख होता है । शुद्ध निश्चयनयके आश्रित इस अद्वैत बुद्धिमें एक मात्र अखण्ड आत्मा प्रतिभासित होता है। उसमें दर्शन, ज्ञान और चारित्र तथा क्रिया-कारक आदिका कुछ भी मेद प्रतिभासित नहीं होता । और तो क्या, उस अवस्थामें तो 'जो शुद्ध चैतन्य है वही निश्चयसे मैं हूँ इस प्रकारका भी विकल्प नहीं होता । मुमुक्षु योगी मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाली मोक्षविषयक इच्छाको भी उसकी प्राप्तिमें बाधक मानते हैं। फिर मला वे किसी अन्य बाम पदार्थकी अभिलाषा करें, यह सर्वथा असम्भव है ( ५२-५३)। जिनेन्द्र देवने उस परमात्मतत्त्वकी उपासनाका उपाय एक मात्र साम्यको बतलाया है। स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोग; ये सब उसी साभ्यके नामान्तर है। एक मात्र शुद्ध चैतन्यको छोरकर आकृति, अक्षर, वर्ण एवं अन्य किसी भी प्रकारका विकल्प नहीं रहना; इसका नाम साम्य है (६३-६५)। आगे इस साम्यका और भी विवेचन करके यह निर्देश किया है कि कर्म और रागादिको हेय समझकर छोड़ देना चाहिये और उपयोगस्वरूप परंश्योतिको उपादेय समझकर प्रण करना चाहिये (७५.) । अन्तमें इस आत्मतत्त्वके अभ्यासका फल शाश्धतिक मोक्षकी प्राप्ति बतलाकर इस प्रकरणको समाप्त किया गया है। १. दिग्देशेभ्यः खगा एप संवन्ति नगे नगे । खखकार्यवशायान्ति देशे वितु प्रो प्रमे ॥ इटोपदेश ९. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना ५. यतिमावनाष्टक-इस अधिकारमें ९ श्लोक हैं । यहाँ उन मुनियोंकी स्तुति की गई है जो पांचों इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त करके विषयभोगोंसे विरक्त होते हुए ऋतुविशेषके अनुसार अनेक प्रकारके कष्टको सहते हैं और भयानक उपसर्गके उपस्थित होनेपर भी कभी समाधिसे विचलित नहीं होते। ६. उपासकसंस्कार--- इस अधिकारमे ६२ श्रोक है। यहां सर्वप्रथम प्रत और दानके प्रथम प्रवर्तक आदि जिनेन्द्र और राजा श्रेयांसके द्वारा धर्मकी स्थितिको दिखलाकर उसका स्वरूप बतलाया है। पश्चात् सम्पूर्ण और देशके भेदसे दो भेदरूप उस धर्मके स्वामियोंका निर्देश किया है। उनमें देशतः उस धर्मको धारण करनेवाले श्रावकोंके ये छह कर्म आवश्यक बतलाये गये हैं-देवपूजा, निर्ग्रन्थ गुरुकी उपासना, स्वाध्याय, संयम, सप और दान (७)। तत्पश्चात् सामायिक व्रतके स्वरूपका दिग्दर्शन कराते हुए उसके लिये सात व्यसनौका परित्याग अनिवार्य निर्दिष्ट किया गया है (९)। आगे यथाक्रमसे (१४-१७, १८-१९, २०-२१, २२-२५, २५-३०, ३१-३६ ) गृहस्थके उन देवपूजा आदि छह आवश्यकोंका विवेचन करके जीवदया (३७-४१) की आवश्यकता दिखलायी गई है । तत्पश्चात् कर्मशयकी कारण होनेसे पारह अनुप्रेक्षाओंके स्वरूपको यतलाकर उनके निरन्तर चिन्तनकी प्रेरणा की गई है (४२.५८) । अन्तमें जो उत्तमक्षमादिरूप दस धर्म. मुनियों के लिये निर्दिष्ट किये गये हैं उनका सेवन यथाशक्ति आगमोक्त विधिसे श्रावकोंको मी करना चाहिये, यह निर्देश करते हुए विशुद्ध आत्मा और जीवदया इन दोनोंके संमेलनको मोक्षका कारण बतलाकर इस अधिकारको पूर्ण किया गया है । ७. देशवतोद्योतन-इस अधिकारमें २७ श्लोक है । यहां अनेक मिथ्यादृष्टियोंकी अपेक्षा एक सम्यग्दृष्टिको प्रशंसाका पात्र बतलाया है तथा उस सम्यग्दर्शनके साथ मनुष्यभवके प्राप्त हो जानेपर तएको ग्रहण करनेकी ही प्रेरणा की है। यदि कदाचित् कुटुम्ब आदिके मोह अथवा अशक्तिके कारण उस तपका अनुष्ठान करना सम्भव न हो तो फिर सम्यग्दर्शनके साथ छह आवश्यकों, आठ मूल्यगुणों व पांच अणुव्रतादिरूप बारह उसरगुणोंको तो धारण करना ही चाहिये । साथ ही रात्रिभोजनका परित्याग करते हुए पवित्र व योग्य यससे छाने गये जलका पीना तथा शक्ति के अनुसार मौन आदि अन्य नियमोंका पालन करना भी श्रावकके लिये पुण्यका वर्षक है ( ४-६)। चूंकि श्रावक अनेक पापप्रचुर कार्योंको करके धनका उपार्जन करता है, अत एव इस पापसे मुक्त होनेके लिये उसके लिये दानकी आवश्यकता और उसके महत्त्वको दिखलाकर सत्पात्रके लिये आहारादिरूप चार प्रकारके दानकी विशेष प्रेरणा की गई है (७-१७)। • श्रावकके छह आयश्यकोंमें देवदर्शन व पूजन प्रथम है। देवदर्शनादिके विना उस गृहस्साश्रमको पत्थरकी नाव जैसा निर्दिष्ट किया गया है (१८)। इसके लिये चैत्यालयका निर्मापण अतिशय पुण्यवर्धक है। कारण यह कि उस चैत्यालयके सहारे मुनि और श्रावक दोनोंका ही धर्म अवस्थित रहता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष; इन चार पुरुषार्थोमें सर्वश्रेष्ठ मोक्ष ही है । यदि धर्म पुरुषार्थ उस मोक्षके साधक रूपमें अनुष्ठित होता है तो वह भी उपादेय है । इसके विपरीत यदि वह भोगादिककी अभिलाषासे क्रिया जाता है तो वह धर्म पुरुषार्थ भी पापरूप ही है । कारण यह कि अणुव्रत या महानत दोनोंका ही उद्देश एक मात्र मोक्षकी प्राप्ति है, इसके विना वे भी दुखके ही कारण हैं ( २५-२६)। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः ८. सिद्धस्तुति—इस अधिकारमें २९ श्लोक हैं। यहां प्रथमतः सिद्धोंको नमस्कारपूर्वक उनसे अपने कश्याणकी प्रार्थना करते हुए ज्ञानावरणादि आठ कर्मोके क्षयसे क्रमशः सिद्धोंके कौन-से गुण प्रादुर्भूत होते हैं, इसका निर्देश किया गया है (६)। तत्पश्चात् उनके ज्ञान-दर्शन एवं सुखादिकी विशेष प्ररूपणा की गई है। ९. आलोचना– इस अधिकारमें ३३ श्लोक हैं। यहां जिनेन्द्रके गुणोंका कीर्तन करते हुए यह बतलायां है कि मन, वचन और काय तथा कृत, कारित व अनुमोदन; इनको परस्पर गुणित करनेपर जो नौ स्थान (मनकृत, मनकारित और मनानुमोदित आदि) प्राप्त होते हैं उनके द्वारा प्राणीके पाप उत्पन्न होता है । उसे दूर करनेके लिये जिनेन्द्र प्रभुके आगे आत्मनिन्दा करते हुए 'बह मेरा पाप मिथ्या हो ऐसा विचार करना चाहिये । अज्ञानता या प्रमादके वशीभूत होकर जो पाप उत्पन्न हुआ है उसे निष्कपट भावसे जिनेन्द्र व गुरुके समक्ष प्रगट करना, इसका नाम आलोचना है । यद्यपि जिनेन्द्र भगवान् सर्वज्ञ होनेसे उस सम पापको स्वयं जानते हैं, फिर भी आत्मशुद्धिके लिये दोषोंकी आलोचना करना आवश्यक है। कारण कि साधुके मूल और उत्तर गुणों के परिपालनमें जो दोष दृष्टिगोचर होते हैं, उनकी आलोचना करनेसे हृदयके भीतर कोई शल्य नहीं रहता ( ७-९)। आगे यहां यह भी कहा गया है कि प्राणीके असंख्यात संकल्प-विकल्प और तदनुसार उसके असंख्यात भी होते हैं ऐसी अदरको नागोमा हिगिरी उन सब पापोंका प्रायश्चित्त करना सम्भव नहीं है । अत एव उन सबके शोधनका एक प्रमुख उपाय है अपने मन और इन्द्रियोंको बाह्य पदार्थोकी ओरसे हटाकर उनका परमात्मस्वरूपके साथ एकीकरण करना । इसके लिये मनके ऊपर विजय प्राप्त करना आवश्यक हैं। कारण कि उस मनकी अवस्था ऐसी है कि समस्त परिग्रहको छोड़कर वनका आश्रय ले लेनेपर भी वह मन बाह्य पदार्थों की ओर दौड़ता है । अत एव उसके ऊपर विजय प्राप्त करनेके लिये उसे परमात्मस्वरूपके चिन्तनमें लगाना श्रेयस्कर है। इस प्रकार विवेचन करते हुए अन्तमें यह निर्दिष्ट किया गया है कि सर्वज्ञ प्रभुने जिस चरित्रका उपदेश दिया है उसका परिपालन इस कलि कालमें दुष्कर है । अत एव जो भव्य जीव इस समय तन्मय होकर उस सर्वज्ञ वीतराग प्रभुकी केवल भक्ति ही करता है वह उस दृढ़ भक्तिके प्रसादसे संसार-समुद्रके पार हो जाता है (३०)। १०. सद्बोधचन्द्रोदय-- इस अधिकारमें ५० श्लोक हैं। यहां भी चित्स्वरूप परमात्माकी महिमाको दिखलाफर यह निर्दिष्ट किया है कि जिसका चित्त उस चित्स्वरूपमें लीन हो जाता है वह योगी समस्त जीवरा शिको आत्मसदृश देखता है । उसे अज्ञानी जनके कर्मकृत विकारको देखकर किसी प्रकारका सोभ नहीं होता । यहाँ यह भावना की गई है कि यह प्राणी मोहनिद्राके वशीभूत होकर बहुत काल तक सोया है । अब उसे इस शास्त्रको पढ़कर प्रबुद्ध (जागृत ) हो जाना चाहिये। ११. निश्चयपश्चाशत्-इस अधिकारमें ६२ श्लोक हैं । यहां प्रथमतः मन व वचनकी अविषयभूत (अचिन्त्य व अवर्णनीय) परंज्योति एवं गुरुके जयवंत रहनेकी प्रार्थना करके यह निर्देश किया है कि संसारमें सब प्राणियोंने जन्म-मरणके कारणभूत विषयोंको सुना है तथा उनका परिचय व अनुभव भी प्राप्त किया है, किन्तु मुक्तिको कारणभूत यह परंज्योति उन्हें प्राप्त नहीं हुई। इसका कारण यह है कि उसका ज्ञान प्राप्त होना दुर्लभ है, और उससे भी अधिक दुर्लभ है उसका अनुभव (१-७)। Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना उसके जाननेमें हेतुभूत जो नय है वह दो प्रकारका है-शुद्ध नय और व्यवहार नय । इनमें व्यवहार नय तो अज्ञानी जनको प्रबोध करनेके लिये है, कर्मक्षयका कारण यथार्थमें शुद्ध नय ही है। व्यवहार नय यथावस्थित वस्तुको विषय न करनेके कारण अभूतार्थ और शुद्ध नय यभावस्थित वस्तुको विषय करनेके कारण भूतार्य कहा जाता है । वस्तुका यथार्थ स्वरूप अनिर्वचनीय है, उसका वर्णन जो वचनों द्वारा किया जाता है वह व्यवहारके आश्रयसे ही किया जाता है । चूंकि मुख्य और उपचार के आश्रित किया जानेवाला सब विवरण उस व्यवहारके ऊपर ही निर्भर है, अत एव इस दृष्टिसे उसे भी पूज्य माना गया है ( ८-११)। आगे शुद्ध नयके आश्रयसे रखत्रयके स्वरूपको बतलाकर यह निर्देश किया है कि जिसने समस्त परिग्रहको छोपकर जंगलका आश्रय ले लिया है तथा जो वहां स्थित रहकर सब प्रकारके उपद्रवोंको भी सह रहा है, वह यदि सम्यग्ज्ञानसे रहित है तो फिर उसमें और वनके पृक्षमें कोई भेद नहीं समझना चाहिये, क्योंकि, वह भी तो विवेकसे रहित होकर इसी प्रकारके कष्टोंको सहता है (१६) । इस प्रकारसे सम्यग्ज्ञान और उस चित्स्वरूपकी महिमाको बतलाकर निश्चयसे मैं कौन ब कैसा हूं तथा मेरा कर्म व तत्कृत राग-द्वेषादिसे क्या सम्बन्ध है; इत्यादि विचार किया गया है । जो आत्माको बद्ध देखता है वह संसारमें बद्ध ही रहता है और जो उसे मुक्त देखता है वह मुक्त ही हो जाता है, अर्थात् जन्म-मरणरूप संसारसे छूट जाता है । जब जीवको विशुद्ध आस्माका अनुभवन होने लगता है तब वह इन्द्रकी भी विभूतिको तृणके समान तुच्छ समझता है । १२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्ति-इस अधिकारमें २२ श्लोक हैं। यहां प्रथमतः दुर्जेय काम-सुभटको जीत लेनेवाले मुनियोंको नमस्कार करके ब्रह्मचर्यके स्वरूपका निर्देश करते हुए यह कहा है कि प्रश्न का अर्थ विशुद्ध ज्ञानमय आत्मा होता है, उस आत्मामें चर्य अर्थात् रमण करनेका नाम प्रमचर्य है। यह निश्चय ब्रह्मचर्यका स्वरूप है । वह उन मुनियोंके होता है जो स्त्रियोंकी तो बात ही क्या, किन्तु अपने शरीरसे भी निर्ममत्व हो चुके हैं। ऐसे जितेन्द्रिय तपस्वी सब खियोंको यथायोग्य माता, बहिन व बेटीके समान देखते हैं। इस प्राचर्यके विषयमें यदि कदाचित् खममें दोष उत्पन्न होता है तो ये रात्रिविभागके अनुसार आगमोक्त विधिसे उसका प्रायश्चित्त करते हैं। उस प्रमचर्यके रक्षणका मुख्य उपाय यद्यपि मनका संयम ही है, फिर भी गरिष्ठ व कामोद्दीपक भोजनका परित्याग भी उसके संरक्षणमें सहायक होता हैं। (१-३) इस प्रमचर्यको सुरक्षित रखनेके लिये यहां सियोंके निन्ध रूप व लावण्य आदिकी अस्थिरताको दिखलाफर (१२-१५) रागपूर्ण दृष्टिसे उनके अंगोपांगोंको देखना, उनके समीपमें रहना, उनके साथ वार्तालाप करना और उनका स्पर्श करना; इस . सबको अनर्थपरम्पराका कारण बतलाया गया है (९)। १३. ऋषभस्तोत्र- यह प्रकरण प्राकृत भाषामें रचा गया है। इसमें ६० गाथायें हैं। यहां प्रन्यकर्ता नाभिराय एवं मरुदेवीके पुत्र भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रकी स्तुति करनेमें इस प्रकार अपनी असमर्थताका अनुभव करते हैं जिस प्रकार कुऍमें रहनेवाला क्षुद्र मेंदक समुद्रके विस्तार आदिका वर्णन नहीं कर सकता । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः वे भगवान् जब सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर माता मरुदेवीके गर्भमें आनेवाले थे, उसके छह महिने पूर्वसे ही नाभिरायके धरपर रनोंकी वर्षा प्रारम्भ हो गई । उस समय देवोंने आकर मरुदेवीके चरणों में नमस्कार किया। तत्पश्चात् प्रभुका जन्म हो जानेपर जब सौधर्म इन्द्रने उन्हें मेरु पर्वतपर अभिषेकार्थ ले जानेके लिये अपनी गोदमें लिया तब उन्हें देखकर उसमें अपने निर्निमेष हजार नेत्रोंको सफल समझा (६-९)। __इस अवसर्पिणी कालके चतुर्थ पर्वमें जब चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रहे थे तब भगवान् ऋषभ देवका जन्म हुआ था। यह परिवर्तनका समय था- भोगभूमिका अन्त होकर कर्मभूमिकी रचना प्रारम्भ होनेवाली थी । उस समय कल्पवृक्ष धीरे धीरे नष्ट होते जा रहे थे । इससे प्रजाजन भूख आदिसे पीड़ित होने लगे थे। तब भगवान् ऋषभदेवने उन्हें यथायोग्य खेती आदिकी शिक्षा दी। इस प्रकार उन्होंने बहुत-से कल्पवृक्षोंके कार्यको अकेले ही पूरा कर दिया (१३)। उनकी आयु चौरासी लाख पूर्वकी थी । इसमेंसे गृहस्थ अवस्थामें उनके तेरासी लाख पूर्व बीत चुके थे। एक समय वे सभाभवनमें सुन्दर सिंहासनके ऊपर स्थित होकर इन्द्रके द्वारा आयोजित नीलांजना अप्सराके नृत्यको देख रहे थे। इसी बीच नीलांजनाकी आयुके क्षीण हो जानेसे वह क्षणभरमै अदृश्य हो गई । यद्यपि इन्द्रने उसके स्थानपर उसी समय दूसरी अप्सराको खड़ा कर दिया, फिर भी यह बात भगवान्की दिव्य दृष्टिके ओझल नहीं रही। फिर क्या था, उन्होंने उस नीलांजनाकी क्षणनश्वरताको देखकर राजलक्ष्मीके भी क्षणनश्वर स्वरूपको जान लिया । तब उन्होंने उस राजलक्ष्मीको जीर्ण तृणके समान छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली (१५-१६)। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए उनके एक हजार वर्ष बीत गये तब उन्होंने अनुपम समाधिके द्वारा चार धातिया कोको नष्ट करके केवलज्ञानको प्राप्त किया (१९)। __इस प्रसंगमें यहां समवसरणमें विराजमान भगवान् आदि जिनेन्द्रके सिंहासनादि आठ प्रातिहार्योंका वर्णन किया गया है ( २३-३४) । उस समय भगवान्ने अपनी दिव्य वाणीके द्वारा विश्वको हितकारी मोक्षमार्गका उपदेश दिया । उसको सुनकर मुमुक्षु जन मोहसे रहित होते हुए उस मार्गपर निराकुलतापूर्वक इस प्रकार चलने लगे जिस प्रकार कि चोरादिकी बाधासे रहित मार्गपर व्यवहारी जन निश्चिन्ततापूर्वक चला करते हैं ( ३७) । इस प्रकार तीर्थकर प्रकृतिके उदयकी महिमाको प्रगट करते हुए ग्रन्थकार मुनि पद्मनन्दीने इस स्तुतिको समाप्त किया है। १४. जिनदर्शनस्तवन---यह प्रकरण भी प्राकृत भाषामय है और उसमें ३४ गाथाओंके द्वारा जिनदर्शनकी महिमाको दिखलाया गया है । १५. श्रुतदेवतास्तुति- इस प्रकरणमें ३१ श्लोकोंके द्वारा जिनवाणीकी स्तुति की गई है। १ मुगमदुसमम्मि गामे सेसे यउसीदिलक्खपुत्राणि । दासतए अडमासे इगिपक्से उसहरप्पत्ती ॥ ति. प. ४,५५३. २ प्रजापतियः प्रथम जिजीविषुः शशास कुष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । : प्रबुद्धतस्वः पुनर तोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ।। वृहत्त. २. ३ ति. प. ४-५८३,५९० (कुमारकाल २० लासपूर्व+राज्यकाल ६३ लाखपूर्व-८३ लाखपूर्व) आ.पु. १५, ११.५ति. प. ४,६७५. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. खयंभूस्तुति- इस प्रकरणमें २४ सोकेक हाय ऋमसे कामादि २४ तीर्थकलेकी स्तुति की गई है। १७. सुप्रभाताष्टक- यह ८ श्लोकोंकी एक स्तुति है । प्रान्त कालके होनेवर रात्रि कन्चार नष्ट होकर सब ओर सूर्यका प्रकाश फैल जाता है । तथा उस समय अारामी विद्या मंत्र होकर उनके नेत्र खुल जाते हैं। ठीक इसी प्रकारसे मोहनीवर्मका सब हो बने नि मनानकी निद्रामोहनिर्मित जड़ता – नष्ट हो जाती है तथा ज्ञानावरण, वर्षनाकरण और अन्तसय मोके निर्मक र हो जानेसे उनके अनन्त ज्ञान-दर्शनका प्रकाश सर्वत्र फैल जाता है । इस प्रकार उन्हें उस समय सर्व ही उधम प्रभातका लाभ होता है । १८. सन्माइसौन----यहां ९ औ द्वारा तीन च वादिरूस अाठ प्रतिक्षामा उलेखा करके भगवान् शान्तिनाथ तीर्थकर की स्तुति की गई। १९. जिनपूजाष्टक-यहां १० श्लोकोंमें ऋसे जम्बदनादि बाट लोके य किन भगवान्की पूजा की गई है। २०. करुणाष्टक-इस ८ श्लोकोंके प्रकरणमें अपनी दाना दिसनार बिन्द्र देवसे कयाकी याचना करते हुए संसारसे अपने उद्धारकी प्रार्थना की गई है। २१. क्रियाकालिका- इस प्रकरण में १८ लोक है।समें प्रथम ९ कोषों में सबका दो बोस रहित और सम्यग्दर्शनादि अनेक गुणोंसे विभूषित बिन मगवान स्तुति करते हुए उनसे यह प्रस्त की गई है कि मैं अनन्त गुणोंसे सम्पन्न मापकी स्तुति नहीं कर सकता। साथ ही मुझे इस सम्मका योजना कारणभूत समस्त आगमज्ञान व चारित्र भी नहीं प्राप्त हो सकता है। अत एव में वापसे कही बसस्तक हूं कि मेरी भक्ति सदा आपके विषयमें बनी रहे और मैं इस स्व और परफरमें मी वाले चम्सुमकी सेवा करता रहूं । आप मुझे अपूर्व रखत्रय प्रदान करें। तत्पश्चात् जिन भगवान् से यह प्रार्थना की गई है कि स्वासंग व उन सुमों सर्दिक सम्बन्ध अभिमान व प्रमादके वश होकर जो मुझसे अपराध हुआ है तब कान, प्रम और त, कारित, अनुमोदनासे जो मैंने प्राणिपीडन भी किया है र उससे मन का हुजा है वह सब को चरण-कमलके मरणसे मिथ्या हो । अन्तमें जिनवाणीका सारण करते हुए इसे विकास कतारमा पत्र बताकर उसके जयकी प्रार्थना की गई है और इस पिकलिलाके को की पोल भी की गई है। २२. एकबभावनादशक-इस प्रकरणमें ११ लोक है। यहां रजोतिलापसे प्रसिद्ध एकत्वरूप अद्वितीय पदको प्राप्त आत्मतत्त्वका विवेचन करते हुए यह कहा गया है कि जो उस बालक तत्त्वको जानता है वह स्वयं दूसरों के द्वारा पूजा जाता है, उसका बाराध रिबन कोई नहीं रहता । उस एकत्वका ज्ञान दुर्लभ अवश्य है, पर मुक्तिको प्रदान नही करता है। और मुदिमें जो निषोष मुल प्रान्ड है वह संसारमें सर्वत्र दुर्सभ है। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः २३. परमार्थविंशति इस प्रकरणमें २० श्लोक है। यह पर भी शुद्ध चित्रप ( अद्वैत ) की प्रशंसा करते हुए यह कहा गया है कि जो जानता देखता है वही मैं हूं, उसको छोड़कर और कोई भी दूसरा स्वरूप मेरा नहीं है । यदि मेरे अन्तःकरणमें शाश्वतिक सुखको प्रदान करनेवाले गुरुके वचन जागते है तो फिर मुझसे कोई स्नेह करे या न करे, गृहस्ख मुझे मोजन दें चाहे न दें, तथा जनसमुदाय यदि मुझे नम देखकर जिम्दा करता है सो मही करता थे फिर भी मुझे उससे कुछ भी खेद नहीं है । सुख और दुख जिस कर्म के फल हैं वह कर्म आत्मासे पृथक् है, यह विवेकबुद्धि जिसे प्राप्त हो चुकी हैं। उसके 'मैं सुली हूं अथवा दुखी हूं' यह विकल्प ही नहीं उत्पन्न होता। ऐसा योगी कभी ऋतु आदिके कष्टको कष्ट नहीं मानता । P ―― २४. शरीराष्टक यहां ८ श्लोकोंके द्वारा शरीरकी स्वाभाविक अपवित्रता और अस्थिरताको दिखाते हुए उसे नाडीव्रणके समान भयानक और कछुवी तूंनड़ीके समान उपभोगके अयोग्य बतलाया गया है । साथ ही यह भी कह दिया है कि एक ओर जहां मनुष्य अनेक पोषक तत्त्वोंके द्वारा उसका संरक्षण करके उसके स्थिर रखनेमें उद्यत होता है वहीं दूसरी ओर वृद्धत्व उसे क्रमशः जर्जरित करनेमें उद्यत होता है और अन्तमें वही सफल भी होता है- प्राणीका वह रक्षाका प्रयत्न व्यर्थ होकर अन्तमें यह शरीर कीड़ोंका स्थान या भस्म बन जाता है । २५. स्नानाष्टक — यहां ८ श्लोकोंमें यह कहा गया है कि मलसे परिपूर्ण धके समान निरन्तर मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण रहनेवाला यह शरीर कभी जलखानके द्वारा पवित्र नहीं हो सकता है। उसका वयार्थ खान तो विवेक है जो जीवके चिरसंचित मिथ्यात्व आदिरूप अन्तरंग मलको धो देता है । इसके विपरीत उस जलके खानसे तो प्राणिहिंसाजनित केवल पाप-मलका ही संचय होता है। जो शरीर प्रतिदिन ज्ञानको प्राप्त होकर भी अपवित्र बना रहता है तथा अनेक सुगन्धित लेपनों से लिप्त होकर भी दुर्गन्धको ही छोड़ता है उसको शुद्ध करनेवाला संसार में न कोई जल है और न वैसा कोई तीर्थ मी है । २६. ब्रह्मचर्याष्टक - इस नौ श्लोकभय प्रकरणमें यह निर्देश किया गया है कि विषयसेवनके लिये चूंकि अधिकतर पशुओंका मन ही लालायित रहता है, अत एव उसे पशुकर्म कहा जाता है । वह विषयसेवन जब अपनी ही खीके साथ भी निन्ध माना जाता है तब भला परस्त्री या वेश्या के सम्बन्धमें तो कहना ही क्या है ? यह विषयोपभोग एक प्रकारका वह तीक्ष्ण कुठार है ओ संयमरूप वृक्षको निर्मूल कर देता है । Vidi Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 10 १. धर्मोपदेशामृत १-१९८, पृ.१ | दुर्जनकी संगतिकी मझा तो मरना अच्छा है | मुनिधर्मका स्वरूप मावि जिनेन्द्रका सरन बेतम मामाको छोड़कर परमें मनुराग जान्तिमायका मरण कर्मबन्धका कारण है भोप देता जिभदेवका कारण मूलगुणोंके बिना उत्तरगुति पराकमका प्रयत्न अर्मका स्वरूप व उसके मेव घातक है धमकी भूबन दयाके धारणकी प्रेरणा वमके दोषोंको दिखकाकर दिगम्बरलको प्रकला " प्राणियों के वधमें पित्रादिके वधका दोष सम्भव है ९ केसोका कोच वैशम्पादिको बढ़ानेवाला है २ जीवितका वान समेत पार है स्थितिमोखामकी प्रतिज्ञा दयाके बिना काम, वप प ध्यानदि निरर्थक है।" समतामाव ११-१५ मुनिधर्मके मालम्बन सगृहस्प है प्रमादरहित होकर एकान्तबासकी प्रतिज्ञा गृहस्थाश्रमका सरूप गृहस्थधर्मके ग्यारह स्थानों का निर्देश संसारके स्वरूपको देखकर इ-विषादको म्यर्थता - समस विधायसनोंके परित्यागपर निर्भर है १५ राग-प्रेषके परित्यागके बिना संवर व निरा सम्भव नहीं है महापापवरूप सात पसनोका नामनिर्देश ६ संसारसमुनसे पार होने की सामग्री चूत सर म्पसमों में प्रमुख है 10-14 मोहको कश करने के निमा सप भाविका लेश मौसका स्वरूप व उसके भक्षक नियंपता १९-२० सहना म्म है मका सहप व उसके पीनेसे हानि २१-२२ मायोका निष्ट नहीं करता है उसका बोनीकी शिक्षा समान पेक्ष्माय भरसका हार है २२-२४, परीषहसान भावाचार है मावोट (शिकार) में लिदंपतरसे दीम हीम समय भनोंका कारण भय (धन) ही है ५१ प्राणिमोका म्पर्म किया जाता है २५-२६ झय्याके लिये पास माविकी भी अपेक्षा करनेपर। परवध और धोखादेहीका का परमवमें उसी निर्धन्यता मा होती है ५५ __ प्रकारसे भोगना पड़ता है २७-१८ धादिसे कावाधिक पौर परिप्राइसे शातित परची और परमनके अनुरागसे होनेवाली कर्मका बाब होता है हालियो .२९-३० मोक्षकी भी मिळावा उसकी प्राप्तिमें बाधक है ५५ उक्त तादि साम्यसमो कारक करको प्रास परिप्रहादिकी निन्दा हुप युधिहिर भाविक उदाहरण म्मलन सात ही नहीं, और भी बहुत-से है । साधुमासा पाचापका स्वरूप ग्मसनोंसे होनेवाली हानिको दिलकाकर उनसे विमुख रानेकी प्रेरणा उपाध्यायका खत्म मिष्यादि भाविकी संगतिको गोवार साधुनोंका स्वरूप व उनकी सहनशीकता १२-१६ सम्पुकोंकी संगति के लिये प्रेरणा मारमझानके बिना किया गया काप लेवा पाम्प कलिकासमें दुष्टोंके मध्ममें साधुवाका जीवित (फसल) से रहित खेतकी रक्षाके समान . सन्त कठिन Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नदि पवापिंशतिः मुनियोंकी एला जिनागम गौर जिनकी पूजाके नतीनिय मात्माके सम्मानमें न कहनेकी समानरूपद प्रब्हिा सीका वरूप अंगाराविधान काब्य और उनकी रचना करनेवाले रमवयधारा मुनिका तिरस्कार करनेवाले बरकत कवियोंकी मिन्दा पात्र होते है बीशरीरका स्वरूप 1-14 मुनियोंकी स्तुति मसम्भव है | सीकी मयंकरता 1-10 व्यवहार सम्यग्दर्शनाविका सरूप उन दोनों | मोहकी महिमाको विकास उसके लापका विना मुक्तिकी नसम्भावना .२- उपदेश 1९-२५ सम्पग्दर्शन के बिना हान पौर चरित्र मिया कडे वीवराण व सर्वश नाका ही पचन प्रमाण हो सकता है, इसके वचनमें सन्देश प्रवा हमनवप्रशंसा मूखता है १५-२५ उक्त सम्यग्दर्शनादि बास्मसाप है ममेक मेद-ममेदरूप समस्त मुतमें नाल्माको ही गुदमयका भात्मवत भसम है पादेय कहा गया है निय सम्पग्दर्शनाविका वल्प | परोक्ष पदार्षके विषयमें जिनवचनको प्रमाण उत्तम झामाका स्वरूप मानना चाहिये १२८ कोष मुनिधर्मका विधायक है शानकी महिमा कोपके कारणों के उपस्थित होनेपर मुविजन मर्थपरिज्ञानकी कारण जिनवाणी चा विचार करते है भारमाका ही नाम धर्म है मादेष धर्मका स्वरूप माध्यमिकमावि मान्य वादियों द्वारा कपित मानव धर्मका रूप ८९-९० नामाके स्वरूपका निर्देश करके उसके सस्य का स्वरूप व उसकी उपादेयता ५१-५५ यथार्य स्वरुपका दिग्दर्शन शौच धर्मका स्वरूप र बाम शौरकी मामाके अनिवकी सिदि १५-१९ अकिचिकरवा बन्द पादियों के द्वारा परिवरिपत मामाके संघमा सरूप व उसकी उपादेयता व्यापकत्व माविका निराकरण सपका सस्पर उसकी उपादेवता ९४-1.0 नात्माका कप और मोक्तत्व स्याग व आपिका सम्प । उस मारमाके स्वरूपको नव-प्रमाणाविक नामयले सुनियोंकी बुरुमा प्रहण करना चाहिये मालमभावमें शरीर व शाब माविको रागशेषके परित्यागका उपदेश 11०-४५ परिरहनहीं कहा जा सकता परमारुमा इसी पारीके भीतर स्थित है मामाचर्या स्वरूप प उसके धारकोंकी मशंसा 10-५ पर पदार्यों में इटानिष्ट कल्पनाका निषेध दे इस धर्म मोक्ष-महकपर चरने के लिये सैलीके तत्ववित् कौन है पादखानोंके समान है सुख-दुस्खका अभिषेक खास्यका सारूप भास्माने परसे मित्र समझना, पही समस्या चिपका स्वरूप १०८ उपदेशका रहस्य है मुक्तिका स्वरूप | योगीका रूप M ८५- Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ . ओक । होक फरले मिच बारमवत्वका विचार व उसका पर 1५४-1] दानके बिना विभूतिकी नियन्यादाहरण १५ गुमाउपदेश विम्म बस्य समान है पर बागपशीकरममंत्र के समान है पोनि-पपिकोका समय समको नमस्कार ! वानजनित पुण्यकी राजलक्मीसे हुकमा २. उस धर्मका वर्णन केवली ही कर सकते हैं । दानके बिना मनुष्यभवकी विफलता २१-२२ पह धर्मसायन मिथ्यात्वादि कामकारबोंका हानसे रहित भूतिकी अपेक्षा वो निधनसा ही परिवाग करनेपर ही प्रास हो सच्ची १६५ · मनुष्य पर्याय व उत्तम ऊस भावि दुर्लभ है, फिर दानके बिमा गृहत्यामकी म्यर्थता २५-१५ सानो पाक कमानी -13 पासवान परफोकपात्रा नाश्ता के समान है २॥ शारीरको स्वास्प व मायुको वीर्ष समझकर भविष्य में बानमा संकल्प मात्र मी पुग्मवर्षक है २७ चर्मक माचरणका विचार करना नितान्त पात्रके मानेपर दामाविले उसका सम्मान करना जाता है अभिश्ता है पदस्माके साथ प्रायः तृष्णा मी पम्ती ही है 01-२ वानसे रहित दिन पुनके मरणदिनसे भी धरा है १९ परिवीनशील संसार में जीवित और धन धर्म लमित्त होनेवाले सब विकल्प दागले ही माविको नवरता सा होवे हैं मृत्यु मानिचार्य होनेपर निकी जम सके वान बिना भी मपनेको पानी प्रगट करनेवाला सिने शोर नहीं करते है महान् दुमका पात्र होता है धर्मका एक भनी सम्पसिके अनुसार गृहस्थको पोकाम धर्मकी रक्षाले शी भामरक्षा सम्भव १८२-३ बोका पान देना ही चाहिये २२ धर्मकी महिमा १८५-१६ दानकी अनुमोदनासे मिष्याची पा भी शतम प्रकरण मन्समें प्रम्बकारकी गुपसे परपावना १९७ भोगभूमिको प्राप्त करता है ५ भोपदेशामुतके पास के लिये प्रेरणा वानसे रहित मनुष्यकी अविवेकताके बाहरण ३४-१५ जो न दानके उपयोगमें भाता है वही बन रस्ता २. दानोपदेशन १-५४, पृ. ७८ धनका क्षय पुण्यके क्षमसे होता है, न कि वानसे ३४ मक्तीर्षके प्रवर्तक मार जितेन्द्र और दाम लोभ सही उत्तम गुणोंका पासक है ९ तोके प्रवर्तक श्रेयांस राबाका सरण ।। दानले जिस्की कीर्तिका प्रसार नहीं हुमा र प्रेमांस राधाकी प्रसप्ता जीवित रहकर भी सुतके समान है । कोमी जीवों के उदारार्थ दानोपदेशकी प्रतिज्ञा . मनुष्यभवकी सफलता दान है, मन्मथा ग्दरको सत्पात्रदान मोहको ना करके मनुष्यको सहरून पूर्ण वो कुत्ता भी करता है ॥ बनाता है दानको छोड़कर मम्म प्रकारसे किया जानेवाला धनकी सफलता दानमें है बनका उपयोग कारकी २ सपासवानसे दम्प बडबीजके समान पढ़ता ही है। प्राणीके साथ परोको धर्म हो जाता है किन भक्तिसे दिया गया दान दाता और पान दोनोंके सब अमीट सामग्री पानवानसे ही प्रास होती है । लिये हितकर होता है जो व्यक्ति धनके संस्य व पुत्रविमाहाविको दानकी महिमा पक्ष्यमें रखकर भविष्य में बानकी मापना सत्पात्रवान के बिना गृहस्थ जीवन निष्फल है . । रखता है इसके समान मू दूसरा नहीं है १५ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ पानम्बि-पविशतिः रुपण गृहस्से वो कौमा ही परण है संयोग-वियोग बनम्म-मरमादि पिनामाषी है ५५ कृपणके धनकी स्थिरतापर प्रग्यकारकी कल्पमा ७ देवकी प्रबलताको देखकर धर्म रत होना उत्तम पान्न माविका स्वरूप व उनके लिये दिये ५१-५५ गये दानका फल १४-५९/नित्यपबाशत् अपत होने दानके बार मेद जिनालयके लिये किया गया भूमिदान संस्कृतिकी ४. एकत्यससति १-८०, पृ. १११ स्थिरता का कारण है , परमारमा विदात्मक ज्योतिको समस्कार कुपनको दामका उपदेश नहीं रखता, यह तो - माससमयके लिये ही प्रीतिकर होता है ५२-५३ पितच प्रत्येक प्राणीमें है, पर मशाली उसे प्रकरणके अन्तमें गुरु वीरनन्दीके वरकारका स्मरण ५५ । जानते नहीं | मनेक शाबाश मी उसे काहमें स्थित मनिके ३. अनित्यपश्चाशत् १-५५, पृ. ९३| समान नहीं जानते हैं प्रकरणके प्रारम्भमें बिनका सरण कितने ही समझाये आमेपर मी उसे सीकर मही करते शरीरका स्वरूप व उसकी मस्थिरता शरीराविक स्वमावत: मस्थिर होनेपर उनके लिये। कितने ही मनेकान्तात्मक वस्तुस्वरूपको शोक व हर्षका मानना योग्य नहीं एकातरूपसे ग्रहणकर जामन पुरुषोंके __ समान न होते है पम सर्वत्र विद्यमान है | कितने ही थोड़ा-सा बानकर भी इसे गर्दके वश उदयप्राप्त कर्मका फल सभीको भोगना पड़ता है ३२ ग्रहण नहीं करते दैवकी प्रबलताका उदाहरण लोगोंने धर्मके स्वरूपको विकृत कर दिया है ९ मृत्युफे मास बनते हुए भी मज्ञानी जन स्थिरता कौन-सा धर्म यथार्थ है का अनुभव करते है २५-१ चैतन्यका ज्ञान और उसका संयोग पुलम है संसारकी परिवर्तनशीलताको देखकर गर्षके भम्प जीव पांच कम्धियों को पाकर मोक्षमार्गमें लिये अवसर नहीं रहता स्थित होता है मनुष्य सम्पत्ति के लिये कैसा भमर्थ भरवा है । मुक्तिके कारणभूत सम्पग्दर्शनादिका सरूप -" शोकसे होनेवाली हानिका दिग्दर्शन मुद निश्चयमयकी मपेक्षा के सम्बग्दर्शनादि मिर भापतिमाप संसारमें विवाद फरना उचित नहीं है। होकर मसग भारमखरूप है जीवित माविको नश्वर देखकर भी थारमाहित प्रमाण, नप और निक्षेप अर्वाचीन पदमें नहीं करमा पागलपमका सूचक है उपयोगी है मास्युके मागे कोई भी प्रयत्न नहीं चलता ५८ निमय मौर व्यवहार पटिमें माल्मावलोकन मनुष्य ची-पुत्रावि में 'मे-मे' करता हुमा ही जो एक मखर मामाको जानता है वही काका प्रास बन जाता है मुक्तिको प्राप्त होता है १८-१९ दिनोंको मत्युके द्वारा विभक भाषुके खण्ड केवलज्ञाम-दर्शनसरूप मात्मा ही जानने देखने ही समझना चाहिये योग्य है गारोफी तो बात क्या, इन्द्र और चाय मी योगी गुरुपदेशले भारमको जानकर कृतकृत्य हो मृत्यु के पास बनते हैं ४२-१३ . . Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोर विषय-सूची रोक जो प्रेमसे उस परमज्योतिकी बात मी सुनवा ५. गतिभावनाष्टल -९, स. १२५ है उसे मुक्तिका भाजण माम समासमा मोहर्मजमित विकल्पोंसे रहित मुनि जयवंत हो । मुनि क्या विचार करते हैं जो कर्मले पृषक पकनामाको जानता है वह कृती कौन कहा जाता है उसके सस्पको पा लेता है विशेषके अनुसार कष्ट सहनेवाले शास्त परका सम्बाब पन्धका कारण है । मुनियों के मार्गसे आनेकी भमिलाषा । कर्मके मभावमें भामा ऐसा गाम्न हो जाता है उत्कृष्ट समाधिका वस्प व उसके धारक जैसा वायु सभाबमें समुद्र २६ तस्वरवके शाता ये मुनि हमारे लिये शान्तिके बाम-पाका विचार २४-10. निमित्त हो। वही नामज्योति ज्ञान-दर्शमाविकप सबकुछ है १९-५२ | यतिभाषनाहरके पढ़ने का फक मोक्षकी मी इच्न मोमपाक्षिमें बाधक है . मम्बबीवको तम्यस्थम मामात्र विचार ६. उपासकसंस्कार १-६२, पृ. १२८ कर समपरम्पराको गहना चाहिये ५४.५० मनेक रूपोंको मात उस परमज्योतिका वर्णन | धर्मस्थिति के कारणभूत मावि चिनेन्न श्रेषोस राजाका सारण करना सम्भव नहीं है ५८-41 भर्मा स्वरूप जो बीच इस मारमतलका विचार ही करता है दीर्घतर संसार किनका है वह देवों के द्वारा पूजा जाता है धर्मके दो भेद और उनके सामी सच देखने यस परमज्योतिकी प्राक्षिका उपाय गृहस्थ धर्मके हेतु म्यों माने जाते हैं साम्मभावको बताया है। कलिकाममें बिनालय, मुनियोंकी स्थिति और साम्पके समानार्थक मामय उसका स्वरूप दानधर्मके मूल कारण प्रावक है । समता सरोवर के माराधक मामा-सके लिये .. गृहस्पोंके षट् कर्म नमस्कार सामाणिकपणा वरूप शानी बीवको तापकारी मृत्यु भी भगत (मोस) सामायिके लिये सास म्पसनोका स्वाग मावश्यक ९-.. संगके लिये होती है म्यसनीके धर्मान्वेषणकी योग्यता नहीं होती " विवेकके बिना मनुष्य पर्याय पतिकी बर्थता र सात मरकोंने अपनी सदिके लिये मानो पिका स्वरूप एक एक व्वसमको नियुक किया है । विकी बीजके लिये संसारमें सब ही दुमका | पापमय राजाने धर्म-शबुके विनाशाय अपने प्रतिमासित होता है राज्यको सात व्यसनोंसे सांगतरूप विचको यो लिये देव त्या और सपादेवलाई में किस खास भकिसे जिनपरोनादि करनेवाले समं पदनीष पायसहसके लिये गंगा मदीकी उपमा से बाते पर पावनति संसार-समुदसे पार होमेमें जिवदर्शनादि सामनेवालों का जीन्स म्य। १५ प्रकके समान है उपासकोंको मातकाक और वसा मोम और बाहर निकति मावि स्व मामासे क्या करना चाहिये मिण प्रतिभासित होते है हाम-कोचमकी प्राक्षिक कारणभूव गुरुपोंकी पकत्वममति के सम्मान माविका फल पालमा १२ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह समें २७ पमनम्ति पञ्चशितिः श्लोक । लोक नमुनों और कानोंसे संयुक्त हरेकर भी बम्बे देशातको किस अबस्थामें ग्रहण करना योग्य है . बबाहरे कौन है २०-21 | उपासकके द्वारा अनुप समातविधान ५ देशात साल का होता है ती गइलाका स्वरूप भाउ मूल गुणों और बाद उत्तर गुणोंका संदेश २३-२३ देशातीके वेधाराधनादि कार्योंमें दाग प्रमुख है . पों में स्पा करना चाहिये श्रावकको ऐसे देशाविका भाम नहीं करमा आहारादि चतुर्विध दामका स्वरूप व उसकी चाहिये जहा सम्बसवात सुरक्षित में भावश्यकता | सब दामों में समयवाल मुल्य क्यों है भोगोपभोगपनिमाणको विधेयता पापसे अपार्जित धनका सदुपयोग दाम है - रत्लनमका पालन इस प्रकार करे जिससे जन्मावरमें पात्रों के सपयोगमें मानेवाला बन ही सुखद है १५ तवडाम वृद्धिंगत हो। पाम परम्पराले मोक्षका मी कारण है -" उपासाचे अथायोग्य परमेष्ठी, रमन्त्रय और उसके पारकोकी बिनध करना चाहिये २९ जिनदानापि बिना गृहस्थाश्रम परपरकी नाम बिनक्को मोक्षका द्वार कहा जाता है उपासकको दान भी करना चाहिये दाता गृहस्स चिन्तामणि नादिल मे है वामके विमा गृहस्थ जीवन कैसा है १३-१५ | धर्मस्थितिकी कारणभूत निमातिमा नौर सापर्मियों में वास्सत्यके पिना धर्म सम्भव नहीं है जिनमवन निर्माणकीमावस्यकता पाके बिना धर्म सम्भव नहीं मानों के धारणसे साग-मोक्ष प्राप्त होता है २७ दयाकी महिमा चार पुरुषापोंमें मोक्ष उपादेय व शेष हेप है १५ मुनि और भावकोंके पत एक मात्र पहिंसाकी गणुनचों और महावतोंसे एक मात्र मोक्ष दी। सिद्धि के लिये है साध्य है वक प्राणिपीमन ही पाप नहीं, बल्कि उसका | देशमतोड्योतन अपर्वत हो संथप भी पाप है पारह गनुपेक्षानोंका स्वस्थ व सनक चिन्तनकी ८. सिद्धस्तुति १-२९, पृ. १४७ ५२-५४ बस मेदरूप धर्मके सेवनकी प्रेरणा अवभिहानियों के भी माविषयभूत सिद्धोका वर्णन मोक्षमासिके लिये भम्तव मौर बहिस्तत्व दोनोंका ही भाश्रय लेना चाहिये | नमस्कारपूर्वक सिद्धोसे मंगरूपाचना मामाका स्वरूप उसके चिन्तनकी प्रेरणा मामाको सम्मारक पयों कहा जाता है बासकासंस्कारके अनुहानसे भतिवाय निर्मल माठ कौके भयसे प्रगट होनेवाले गुणों का धर्मकी प्राप्ति होती है निश काँकी हुनप्रदता ७. देशवतोयोतन १-२७, पृ. १३९ | २१ जब एकेन्धियादि जीव मी उत्तरोत्तर हीन गर्माधर्मोपदेशमें सबके ही बचन प्रमाण है माणसे अधिक सुमनले संयुक्त है सम्मष्टि एक भी प्रशंसनीय है, सब कर्मसे सर्वथा रहित तिर क्यों न न कि मिप्यारधि बहुत भी __पूर्ण सुख व शामसे संयुक्त होंगे । मोक्ष-पक्षका बीज सम्यग्दर्शन और संसारसमका कर्मजाय भा भाषिके ममा में सिर सदा बीज मिमावर्शन है प्रेरणा २-४ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची " सिबज्योतिके माराधनसे योगी स्वयं भी सिद्ध हो एक मात्र परमात्माकी शरणमें जानेसे सब FA जाता है १२ सिद होता है सिदज्योतिको विपिघल्पता मन, वचम, काप व त, कारित, अनुमोदमा भनेकान्त सिद्धान्तका भवगाहन कामेवा ही रूप नौ स्थानों हारा किया गया पाप सिद्धाधमाके रहस्यको मान सकता है १४ मिय्या दो सर्व बिनके जामनेपर भी दोषोंकी पालोचना तयार भतवशकी रष्टि किस प्रकारसे हुर भावमशुदिके लिये की जाती है और मशुद्ध पदको करती है भागमानुसार भसंख्यात दोषोंका प्रायश्रित सांगोपांग भुतके मभ्यासका फळ सिदत्वकी सम्भव नहीं प्राप्ति है जो निस्पृहतापूर्वक भगवानको देखता है। या सिदोका वर्णम मेरे लिबे मोक्षप्रासादपर भगवाम्के निकट पहुंच जाता है बढ़ने के लिये नसैनी जैसा है मनका नियन्त्रण अतिशय कठिन है मुकास्मरूप सेनका खरूप मन भगवान्को छोड़कर बाम पदार्थोंकी भोर अप-निमाविक माशिव विवरणसे रहित सिड क्यों पाता है सब कामें मोह ही अतिशय बारूपान् है सिव नानकार धानालाको सहम जगत्को झणभंगुर देखकर मनको पामात्माची समान तुच्छ समझते हैं मोर लगाना चाहिये । सिझोंका मरण करनेवाले भी वंदनीय हैं २३ | मधुम, शुभ और शुरपयोगका कार्य इहिमानों में अग्रणी कौन है, इसके लिये बापका | मैं जिस ज्योतिःस्वरूप है वह कैसी है उदाहरण जीव और परमात्माके बीच मेद करनेवाला कर्म है २० सिद्धारमशानसे शून्य शाबान्तरोंका शान स्पर्ष है २५ शरीर और उससे सम्बद्ध इन्द्रियां समा रोग मादि पुद्गलस्वरूपो भास्मासे जमत हान-वर्षानसे सम्पर सिमोसे शिवसुसकी। सर्वथा भित्र है भर्मादिक पांच इयों में एक पुद्गल ही राग-रेषके मारमाको गृहकी उपमा मा कम-नोकर्मरूप होकर जीवका हित सिरोकी ही गति मादिभीर है २४ किया करता है सियोकी मह पति केवल मकिके वश की गई है २९ सबा सुख माय निस्पोंको शेलकर नारमोन्मुख होनेपर प्राप्त होता है १४-१८ ९. आलोचना १-३३, पृ. १२८ वासनमें वैतबुद्धि ही संसार मौर भईत ही मोक्ष है मनसे परमात्मस्वरूपका चिन्तन करनेपर | इस कलिकासमें चारित्रका परिपाकन न हो नभीरकी प्राक्षिमें बाधा नहीं पा सकती । सकनेसे नापक्री मलि ही मेरा संसारखे सत्पुन जिनपरोकी भाराधमा क्यों करते हैं २ ३० जिनसेवासे संसार-शत्रुका भय नहीं रहता है मुक्किमप मोक्षमार्गके पूर्ण करने की प्रार्थना टीमों कोकों में सारभूत एक परमात्मा ही है । वीरमादी गुरुके सदुपदेशसे मुझे तीन कोकका ममन्तचतुष्टमस्वरूप परमात्माके जान लेनेपर । राज्य मी ममीर नहीं है फिर बानने के लिये शेष नहीं रहता ५ | मालोचनाके पडनेका फल Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पालनवि-पशितिः १५-१. १०. सदोषचन्द्रोदय १-५०, पृ. १६९ अपरिमित मानिनीय बनेकनर्मात्मक जिपबर दो मुस्सिी नमिणी इसके शिवे नमस्कार । लिस्पकी महिमा मन सपने मरणके भयले परमात्मामें सित गुम्ने गरोगन प्रभात पोगतिविका कारण साम्बार परमात्माका केवमाममरण भी बनेकसम्मोंक पापको गारवा पोशिलाम कौन पोयोको सौर परको समान देखना चाहिये बानी विकारों को देखकर योगी मुन्ध । समालोले मोर जात होनेवाला । पानापीका पादसे की गई रमणीयता होनेपर योगीका खल्प गुरुके रा उपदिड कपल मुझे लसीका भव नहीं है | सोधचन्द्रोदय जपर्वत हो १६-२. ..... .. ११. निधयपश्चाशद १-१२, पृ. १८१ निमयज्मोति मर्मत हो मोहम्मकारका नामक गुरु जपतो सबा सुखदुखाम मुक्ति है मुर नास्मयोतिकी उपविध मुडम नहीं है । भारमगोषकी अपेक्षा असा मनुभव और मी नमानी बामगर को भवन बन प्रतीतिसे रहित सो नाटकके पास जैसे? " मजनमनका कारण बनेकानिक -दकि बायसे तिलको जानना भास्माकी भनेकास्मिकता - सामाजिक चेतनाके पानापसे बीच निज सम्मको माटर लेता है मामलापकी प्रालिका पाव योगीके सुल-पुलकी सपना क्यों नहीं होती . मनकी गतिक निरामय होनेपर भज्ञान बाधक मही होता रोग और खरा मावि सरीर मामिल है, नामाके नहीं बोगकी महिमा बामाका रमणीय पद शुद्ध बोध बाल्मबोधल्य वीमें बान करनेसे सम्बन्तर माना होता है निव-समुद्र तट के समापनसे पोंका संचय भवस्व होता है सम्बदमनादिरूप रस निमसे कही। सम्यग्दर्शनादिरूप दानोंका पर मुनिकी पति कैसी होती है ३२ समीचीन समाविका का पोगकी परमसे सम्मानवा मक परमात्मबोध नहीं होता तब कही भुखका परिशीकन होता है । चित्यदीप मोहाग्यकारको का मारता ३. पास शामों में मिलनेवाली बुरि पुराचारिणी " म्पबहार और रमका सस्प बसनका प्रपोजन -.. मुल्बसपचार विवरणों के सामनेका उपायभूत होनेसे ही मवहार पूरुम है " रतत्रका सरूप व उसकी बाबासे अमित्रता 8-10 सम्यगायनाविरूपाणॉकी सफलता सम्पबान विमा साधु में स्थित एसके समान सिद नहीं हो सकता अशनपतिौन होता है गुडगनशुर नोंका कार्य रामजयकी पूर्णता होनेपर सम्मपरम्परा चाद नहीं रह सकती पित-पक्के गागका उपाय कप की मेषज्ञामरूप कातक पास मा । दाता Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोक । शरीर, सवामित रोगादि एवं कर्मकृत कोषादि | बीज भरिसर सौदर्य के लिये विकारोंकी मास्मासे भिन्नता १२-१४ मानवजनक होता है ३-11 सर्व चिम्ता त्याज्य है, इस दुखिके द्वारा जानित | स्त्रीका शरीर घृणास्पद है वय चैतन्य समुनको शीघ्र बढ़ाता है ५ बीके विषय में मनुरागवर्धक सम्पको रखनेवाग मेरा सल्प ऐसा है कवि से प्रशंसनीय कहा जाता है -" पथके कारणभूत ममके निपत्रणसे वह उस | जय परधन-सीकी अभिलाषा करनेवाका बन्धनसे मुक्त कर देगा गृहस देव मामाता सब मुनि पोन मनुष्य-तकको पाकर मस्त-फलको महण करना देवोंका देव होगा योग्य सुख और सुखाभास योगियों का निदोष मन ज्ञानाम्भकारको नर सीका परित्याग करनेवाले सालोंको पुजारमा करता है जन भी नमस्कार करते है। योगी का सिर होता है संपका मनुशान मनुम्य पायमें ही सम्भव है २७ अन्धकार द्वारा कामरोग की पासक यति मास्मसरूपका विचार (पचरक्षावर्ति) के सेवनकी प्रेरणा २१ निश्चयपचारके रचनेका उल्लेख रित्तमें मारमतवके स्थित होनेपर इनकी १३. ऋषमस्तोत्र १-६१, पृ. २०१ सम्पदासे भी प्रयोजन नहीं रहता १९ नाभिराजके पुत्र सम जिनेन्द्र मान हो । १२, प्रमचर्यरक्षावर्ति १-२२, पृ. १९३ अपम जिनेन्द्रका दर्शनावि पुष्परमा जनोंके ही द्वारा किया जाता है कामविजेता बतियों के लिये नमस्कार ! जिनदर्शनका माहाल्म अमाप वाचारीका स्वरूप जिनेन्द्रकी स्मृति मना मालम्भव है यदि मसके विषयमें सममें कोई दोष गला | जिनके नामस्मरणसे मी मीमी प्रास हो तो भी रात्रिविभागके अनुसार मुनिको उसका प्रावधित करना चाहिये । अपम जिनेन्द्र के सर्विसिरिसे अवतीर्थ अवर्षकी रक्षा मनके संयमसे ही होती है । होनेपर उसका सौभाग्य नष्ट हो गया था । बाझ और मभ्यस्तर मानका सरूप व पुविधीक 'वसुमती' मामकी सार्थकता सनका कार्य पुनक्वी वियोंमें मवेवीकी श्रेला अपनी प्रतनिधिके रमणार्य मुनिको बी मानका इनके निनिमेष बहुत मेत्रों की पहल परिमाग करना चाहिये पूर्व मावि ज्योतिषी मेकी प्रवक्षिणा बाकी मार्ग भी मुनिधर्मको ना करनेवाली है . किया करते है सापूर्वक का मुखावलोकन । स्मरण प्रतिशत, | मेले पर जिनजम्माभिषेक पर एक सप मादिको ना करनेवाला है -९ कम्पकोंक मह हो मानेपर उनके कार्यों मुक लिने किसी भी श्रीकी प्रासिकी सम्भावना एकपम जिनेन्द्रने ही पूरा किया गरहने तद्विपमा मनुरागको छोडना ही प्रविपरीकी रोमांचता अपम जिनेन्द्रकी बिकिन मितीका परित्वाम १५-१६ पाक पीरूप ग्राम गृहल्ल, सपा मुनि उसके । म्यानमें अवस्थित एवम बिन्दकी सोमा 1-16 परित्यागसे पहचारी (मगार) होन" पातिकका शाब और केवमहालकी सत्पति १५ १-१२ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यातिचतुष्कके अभाव में समादिचतुष्ककी अवस्था २० स्मरण और वहां स्थित जिनेन्द्रकी सोभा माठ त्रातिहायोंकी शोभा रचना सुने चन्द्र (मृगांक ) का आश्रय क्यों लिया कमका कम नहीं, किन्तु जिनचरणोंमें रहती है जिनेन्द्र के द्वेषियोंका अपराध खुदका है। जिनेन्द्रकी स्तुति और नमस्कारका प्रभाव मा विष्णु कादि नाम आपके ही हैं जिनेन्द्रकी महिमा पद्ममधि-पत्राविंशतिः जिनवाणीकी महिमा नयोंका प्रमाथ ३५ बनेकी स्तुतिमें बृहस्पति नादि भी असमर्थ हैं ३६ प्रभुके द्वारा प्रकाशित पथके पचिक निरुपद्मक मोक्षका काम करते हैं ३० मोनिधिके सामने अन्य सब निधियां तु जिनेन्द्रो धर्मकी अन्य धर्मोले विशेषता जिनके बढ़ने में पा ११ हैं ३८ ३९-४० सीमों कोकोंके जन व इत्रकेद्वारा जिनेन्द्रदर्शन देवों द्वारा प्रभुचरणों मीचे सुवर्णकमकों की चिनेकी स्तुति शक्य नहीं है स्तुति में जिलचरणोंके प्रसादकी प्रार्थना १४. जिनदर्शनस्तवन की महिमा सरसादीकी दीपकले विशेषता सरस्वती मार्गकी विशेषता लोक सरस्वतीकी प्रसता बिना तत्वनिश्वय नहीं होता ११ ११-१२ | मोक्षपद सरस्वती के भाश्रवसे ही प्राप्त होता है १२ - १३ २३- ३०| सरस्वतीकी जन्म भी महिमा १४-२८ ३१-३१ काम्मरचनायें सरस्वतीका प्रसाद ही काम करता है २१ सरस्वतीके इस क्षेत्रके पढ़नेका फस्ट ६. सरस्वतीके वन में असमर्थ होनेसे क्षमायाचना ३१ १५. श्रुतदेवास्तुति सरस्वती के चकमक अमबन्ध हो सरसीके प्रसादसे उसके सनकी प्रतिज्ञा मीर नचनी नसमर्थता लोक सरस्वती प्रभावसे मोक्षपद भी शीघ्र प्राप्त हो जाता है सरस्वतीके विना ज्ञानकी प्राप्ति सम्मद नहीं सरस्वती के बिना प्राप्त मनुष्य पर्याय में ही नष्ट हो जाती है ४२-४३ ४१ ४५ ०५ 90 ४८-५० ५१ ५२-५७ ५८-६० 11 १८. शान्तिनाथस्तोत्र तीन छत्रादिरूप माठ प्रातिहायोंके भावयसे भगवान् वनाथ तीर्थंकरकी स्तुति १-३४, पृ. २१४ जिस स्तुतिको इन्द्रादि भी नहीं कर सकते हैं उसे मैंने भक्तिवचा किया है १-३४ १- ३१, प्र. २१९ | १९. जिनपूजाष्टक 1 १-१ ५ 6 १६. स्वयंभूस्तुति १–२४, पृ. २२७ भावि महाबीरात २४ तीर्थकरोंका गुणकीर्तन १-१४ ८-५ १० १७. सुप्रभाताष्टक धातिक्रमको नष्ट करके स्थिर सुप्रभातको प्राप्त करनेवाले जिनेन्द्रोंको नमस्कार जिनके सुप्रभात स्तवनकी प्रतिक्षा भई परमेष्ठी के सुप्रभातका स्वरूप व उसकी स्तुति १–८, पू. २३३ 43 ३-८ १–९, पृ. २३७ - चन्दना माठ वन्मोंसे पूजा व उसके फ का 1-6 १-१०, पृ. २४० पुष्पांजलि देना वीतराग जिनकी पूजा केवळ आत्मकल्याणके लिये की जाती हैं " 1-6 १० २०. करुणाष्टक १-८, पृ. २४३ अपने ऊपर दया करके जन्म परम्परासे सुक करनेकी प्रार्थना 9-6 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोक २१. क्रियाकाण्डचूलिका १-१८, पृ. २४५ दोघोंने जिनेन्द्र में स्थान न पाकर मानो गर्भले ही उन्हें छोड़ दिया है। १ स्तुति करनेकी असमर्थताको प्रगट करके भक्तिकी प्रमुखता व उसका कक रत्नमकी याचना जापके चरण-कमलको पाकर मैं कृतार्थ हो गया भमान या प्रमादके वक्ष होकर जो हमन भादिके विषय में पराध हुआ है वह मिथ्या हो सम, वचन, काथ और कृद्र, कारित, अनुमोदनसे जो प्राणिपादन हुआ है वह मिथ्या हो मन, बचन, व कायके द्वारा उपाजित मेरा कर्म आपके पादकारणले नाशको प्राप्त हो सर्वज्ञका वचन प्रमाण है विषय-सूची ܙ जिन भगवान्की शरणमें जानेसे संसार मट होता है मैंने आपके मागे वह बाचाचा केव भक्तिवश की है 19 १२ मन, वचन व काकी विकलता से जो स्तुतिमें म्यूनता हुई है उसे हे बाणी ! क्षमा कर १४ यह अभीष्ट फलको देनेवाला किमाकाण्डरूप कम्पका एक पत्र है शिवाकाण्ड सम्बन्धी इस चूलिकाके पढ़नेसे अपूर्ण क्रिया पूर्ण होती है १५ १६ 10 14 २२. एकत्वदर्शक परमज्योतिके कथनकी प्रतिक्षा जो मामवश्वको जानता है वह दूसरोंका स्व माराष्य बन जाता है एकत्वका शाता बहुत सी कर्मोसे नहीं डरता है १ चैतन्यकी एकताका शान दुर्लभ है, पर का दाता नही है जो यथार्थ सुख असम्भव है मोक्षमें है वह संसारमै गुरुके उपदेशले हमें मोक्षपद ही प्रिय है ४ मस्विर स्वर्गसुख मोहोदयरूप विवसे व्याप्त है इस कोकमें जो मामोन्मुख रहता है वह erateमें भी जैसा रहता है ५ ६ वीतरागपथमें प्रवृत्त योगी के लिये मोक्षसुखकी प्रतिमें कोई भी बाधक नहीं हो सकता ९ इस मामनापद चिन्तनसे मोक्ष मास होता है " धर्मके रहनेपर मृत्युका भी मन नहीं रहता 19 'गुक्के द्वारा प्रकाशित पथपर पकने निर्वाणपुर प्राप्त होता है १-११, पू. २५१ कर्मको आत्माले पृथक समझनेवालों को सुख-दुखका विकल्प ही नहीं होता देव व जिनप्रतिमा नादिका माराधन ब्यबहारमागमें भी होता है २३. परमार्थविंशति माका मद्वैत जयवंत हो मनन्तचतुश्वस्वरूप स्वस्थताकी बन्दना एकमकी स्थिति लिये होनेवाली बुद्धि भी मानन्दजनक होती है मवीर ऐप नष्ट हो जाती है। मैं चेतनस्वरूप हूँ, कर्मजनित कोधादि मिश्र है ५ यदि एकत्वमें मन संकर है तो सीम तपके भ होनेपर भी अभी सिद्धि होती है कर्मके साथ एकमेक होनेपर भी मैं उस परज्योतिस्वरूप ही हूं १-२०, पृ. २५२ हृदयमें गुरुवचनों जागृत रहनेपरमापति छेद नहीं होता लक्ष्मी मदसे जन्मच राजानोंकी संगति मृत्युसे भी मानक होती है। फोक 10 यदि मुक्तिकी जोर बुद्धि का गई है तो फिर कोई कितना भी कह दे, जसका नहीं रहवा सर्वशक्तिमान् नात्मा प्रभु संसारको मटके समान देखता है मामाकी एकताको जाननेवाला पापसे लिस नहीं होता ६१ t የ १० 15 ११ 11 19 १५ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पयनन्दि-पञ्चविंशतिः भोक गुरुके पाइप्रसादसे निर्मन्यताको प्राप्त कर लेनेपर | जिन्होंने शामरूप समुबको नहीं देता है कही इलियसुख दुखरूप ही प्रतीत होता है । __मा मादि तीर्थभासों में बात करते हैं ५ मिन्यवाजम्य मानन्द के सामने इन्द्रियसुखका मनुष्करीम में गुद कर सकनेवाका कोई भी कारण भी नहीं होता है तीर्थ सम्भव नहीं मोहके निमितसे होनेवाली मोक्षको भी भमिकामा प्राविका लेपन करनेपर मी सरीर सभावसः सिधिमें बाधक होती है दुगन्धको ही धोखा है विपके चिम्तममें भौर तो मा, शरीरसे भी मग जीव इस बामाको सुगम सुची हो । प्रीति नहीं रहती २६. अनचर्याष्टक १-९, पृ. २६८ पुद नपसे तस मनिर्वचनीय है मैथुन संसारिका कालो । २४. शरीराष्टक १-८, पृ. २६० | मैथुनकर्ममें पामोंके रस रहनेसे रसे पार्म । शरीरके स्वभावका लिस्पण हा जाता है ! । यदि मैथुन अपनी पीके भी साथ न होता तो उसका पोंमें त्याग बों कराया जाता है २५. स्वानाष्टक १-८, पृ. २६४ पवित्र मैथुनसुल विकी जीवको बुराग मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण पारीह सदा मावि और नहीं होता भारमा स्भावसे पवित्र है, पस एवं पवित्र मैथुनमें ममुरागका कारण मोर ५ दोनों प्रकारसे ही ग्राम प्य है -१ मैथुन संयमका विधायक है सत्पुरुषोंका घाम विक है जो मिन्यायाविरुप मेधुनमें प्रवृत्ति पापके कारण होती है सम्वन्तर मनको नष्ट करता है ३ | विषयसुख विपके सरह है समीचीन परमात्मारूप द्वीप में मान करना ही । इस समारकका निरूपम मुमुधु वनोंके लिये दिया गया है Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।ॐ नमः सिद्धेभ्यः। पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [१. धर्मोपदेशामृतम्] 1) कायोत्सर्गायताको असि सोगपतिभिरूकाहाया मध्यावे यस्य भास्वानुपरि परिगतो राजति लोप्रमूर्तिः । चक्र कोधनानामतिपहु बहतो दूरमौदास्यवात स्फूर्जरसत्यानयोरिव चिरतरः मोदतो विस्फुलिङ्गः ॥१॥ 2) मो किंचित्करकार्यमस्ति गमनप्राप्यं न किंचित् हशो संश्य यस्य न कर्णयोः किमपि हि श्रोतव्यमप्यस्ति में। सेनालम्बितपाणिज्झितगति सामाष्टी रहा संमाशो ऽतिनिराकुलो विजयते ध्यान कतानो जिनः ॥२॥ 1 [संस्कृत टीका] सजिनपतिः' अयति । कर्यभूतो जिनपतिः । नामिसनुः नाभिएनः । पुनः कथंभूतः । महात्मा महाबासौ आत्मा महात्मा । पुनः किलझणः । कायोत्सर्गायताः कायोत्सर्गेण भायत प्रसारितम् मा यस्य सः। मध्याहे मध्याहकाले । यस्म जिनपतेः उपरि । परिगतः प्राप्तः । माखान सूर्यः । राजति स्म शुशुमे । कपभूतो भाखान् । चप्रमूर्तिः । तत्रोप्रेक्षते-सूर्यः क इव । औदास्यवातस्फ़र्जत्सल्यानवः विस्फुलि इवें । उदासस्य भावः बौदास्पम् उदासीनता व वातः तेन भौदास्पवावेन पूर्जाना विस्फुरितः सध्यानमेव वहिः तस्य सद्ध्यामबारे विस्फुलियः । प्रोद्रतः उत्समः । कर्वभूतो विस्फुलितः । पिरतरः दीतिमान् । कर्वभूतस्य बढे । कर्माण्यवेधनानि कमेन्धनानि सेषा कमेंन्धनानाम् । प* समूहम् । प्रतिवहु बहुतरम् । दूरम् अतिशयेन । दहतः मसपीकुर्वतः इत्यर्थः॥जिनः विजयते कर्मारातीन कर्मशवन् अयति इति जिनः विजयते। यस्य जिनस्य । किंचित्करकार्य नोऽस्ति करोभ्यां कार्य करकाय नोऽस्ति । तेन हेतुना । स मिनः आलम्बितपाणिः आलम्बितौ पाणी यस न मालम्मितपामिः । यस्य जिनस्स किंचिद्गमनप्राप्य न गमनेन किंचिलभ्य न। तेन हेतुना । उजितगतिः उत्रिमता गतिर्येन स उशितगतिः । [हिन्दी अनुवाद] . कायोत्सर्गके निमित्तसे जिनका शरीर लम्पायमान हो रहा है ऐसे वे नाभिरायके पुत्र महात्मा आदिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होर्वे, जिनके ऊपर प्राप्त हुआ मध्याह (दोपहर ) का तेजस्वी सूर्य ऐसा सुशोभित होता है मानो कर्मरूप इन्धनोंके समूहको अतिशय जलानेवाली एवं उदासीनतारूप वायुके निमित्तसे प्रगट हुई समीचीन ध्यानरूपी अमिकी दैदीप्यमान चिनगारी ही उत्पन्न हुई हो । विशेषार्थ – भगवान् आदिनाथ जिनेन्द्रकी ध्यानावस्थामे उनके ऊपर जो मध्याह कालका तेजस्वी सूर्य आता था उसके विषयमें ग्रन्थकार उठोक्षा करते हैं कि वह सूर्य क्या था मानो समताभावसे आठ कर्मसपी इन्धनको जलानेके इच्छुक होकर भगवान् आदिनाथ जिनेन्द्र के द्वारा किये जानेवाले ध्यानरूपी अमिका विस्फुलिंग ही उत्पन्न हुआ है ॥१॥ हाथोंसे करने योग्य कोई भी कार्य शेष न रहनेसे जिन्होंने अपने दोनों हाथोंको नीचे लटका रक्खा था, गमनसे प्राप्त करनेके योग्य कुछ भी कार्य न रहनेसे जो गमनसे रहित हो चुके थे, नेत्रोंके देखने योग्य कोई मी वस्तु न रहनेसे जो अपनी दृष्टिको नासाके अग्रभाग पर रखा करते थे, तथा कानोंके सुनने योग्य कुछ भी शेष न रहनेसे जो आकुलतासे रहित होकर एकान्त स्थानको प्राप्त हुए थे; ऐसे वे ध्यानमें एकाम मश राजते । २मश स्फूर्यत् । सक। ४ श स जिनः1 ५श पिनः! ६ कथम्भूतः। ५ श मध्यो वासरमध्यका। ८8 राजते। रास्फूर्यत् । १०पा व नास्ति। ११ स्फूर्यत् । १२ भदीप्तिवान् श दीप्तवान् । १३ मरावी कार्य करकाय नोऽस्ति' इलय पाठो मास्ति। *-we- in .. -..- -- -- - -- - Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३:१-३ पवनन्दि-पञ्चविंशतिः 3) रागो यस्य न विपते कचिवपि प्रध्वस्तसंगमहात् अनादेः परिवर्जनाच पदुषो ऽपि संभाव्यते । तस्मात्साम्यमथात्मबोधममतो जातः यः कर्मणा मानन्दादिगुणाश्रयस्तु नियतं सोऽहम्सदा पातु वः ।। ३ ।। 4) इन्द्रस्य प्रणतस्य शेखरशिवारलाभासा नख श्रेणीतेक्षणविपशुम्भवालिसाहूरोलसपाटलम्। maraman यस्य जिनस दृशोः नेत्रयोः किंचिद् दृश्यं नास्ति । तेन हेतुना। नासाडष्टिः नासाग्रे मारोपितष्टिः । यस्य जिनस्य कर्णयोः किमपि प्रोतव्यं न मस्ति । तेन हेतुना। रह एकान्ते । प्राप्तः । पुनः मिलक्षणो जिनः । अविनिराकुलः भाकुलतारहितः । पुनः कथंभूतो जिनः। ध्यानकतानः याने एकाप्रपितः । एतादृशः जिनः विजयते इत्यर्थः ॥ २ ॥ स भईन् जिनः । वः युष्मान् । सदा । पातु रक्षतु । यस्य जिनस्य । नियत निश्चितम् । कतिदपि । रागो न विद्यते । कस्माद् । प्रभवस्तसंगमहात् प्रवस्तः स्फेटित': संप्रहः पिशाचः यत्र तस्मात् परिमहरयजनात् ।।यस्य जिनस्य सुदेषोऽपि न समाध्यते । कस्मात् । अखादा परिवर्जनात् अवरहितत्वात् । तस्मात् रागद्वेषाभावात् साम्यं जातम् । साम्मारिक जातम् । आत्मयोपनं जातम् । भतः आत्मबोधनात् कि जातम् । कर्मणां क्षयो जातः । कर्मणां क्षयाकिं जाता। भानन्दादिगुणाश्रयः जातःआमन्दादिगुणाना आधयः स्थानम् । एवंभूतः जिनः वः युष्मान् पातु सदा रक्षतु ॥३॥ जिनस्य वीतरागमा । भणियुग चरणकमलयुगम् । न अस्माकम् । चेतोऽर्पित वित्त अर्पित मनति स्थापितम् । शर्मगे सुखाय भवतु । कथंभूतम् प्रियुगम् । जाम्यहरं जहस्य भाषः जा मूर्खस्वस्फेटकम् । पुनः किलक्षणम् । अम्भोजसाम्यं दधत् कमळ्याहस्य दपदा पुनः किलक्षणम् । रजस्यक रजसा त्यक रजस्त्यणम् । अपि निषितम् । पुनः किंलक्षण चरणयुगम् । श्रीसद्म श्रीः लक्ष्मीपाश्रीः शोभा तस्याः लक्ष्म्याः गई तथा तस्याः शोभायाः गृहम् । पुनः किलक्षणम् । प्रणतस्प चित्त हुए जिन भगवान् जयवन्त होवें ॥ विशेषार्थ- अन्य समस्त पदार्थोकी ओरसे चिन्ताको हटाकर किसी एक ही पदार्थकी ओर उसे नियमित करना, इसे ध्यान कहा जाता है । यह ध्यान कहीं एकान्त स्थानमें ही किया जा सकता है । यदि उक्त ध्यान कार्योत्सर्गसे किया जाता है तो उस अवस्थामें दोनों हाथोंको नीचे लटका कर दृष्टिको नासाके ऊपर रखते हैं। इस ध्यानकी अवस्थाको लक्ष्य करके ही यहां यह कहा गया है कि उस समय जिन भगवानको न हाथोंसे करने योग्य कुछ कार्य शेष रहा था, न गमनसे प्राप्त करनेके योग्य धनादिककी अभिलाषा शेष थी, न कोई भी दृश्य उनके नेत्रोंको रुचिकर शेष रहा था, और न कोई गीत आदि भी उनके कानोंको मुग्ध करनेवाला शेष रहा था ॥२॥ जिस अरहंत परमेष्ठीके परिग्रह रूपी पिशाचसे रहित हो जानेके कारण किसी मी इन्द्रियविषयमें राग नहीं है, त्रिशूल आदि आयुधोंसे रहित होनेके कारण उक्त अरहंत परमेष्ठीके विद्वानोंके द्वारा द्वेषकी भी सम्भावना नहीं की जा सकती है । इसीलिये राग-द्वेपसे रहित हो जानेके कारण उनके समताभाव आविर्भूत हुआ है, और इस समताभावके प्रगट हो जानेसे उनके आत्मावबोध तथा इससे उनके कर्मोंका वियोग हुआ है । अत एवं कर्मोक क्षयसे जो अर्हत् परमेष्ठी अनन्त सुख आदि गुणोंके आश्रयको प्राप्त हुए हैं वे अर्हत् परमेष्ठी सर्वदा आप लोगोंकी रक्षा करें ॥३॥ जो जिन भगवान्के श्रेष्ठ उभय चरण नमस्कार करते समय नम्रीभूत हुए इन्द्र के मुकुटकी शिखामें बड़े हुए वरूपी सूर्यकी प्रभासे कुछ धवलताके साथ लाल वर्णवाले हैं, तथा जो नवपंक्तियोंमें प्राप्त हुए इन्द्रके नेत्रप्रतिबिम्वरूप प्रमरोंको धारण करते हैं, तथा जो शोभाके स्थानभूत हैं, इसीलिये जो कमलकी उपमाको १श किंचिए दृश्यं न द्रष्ट योग्य। २% आशयितदृष्टिः आरोपिता दृष्टिः। ३ स्पेटिवः। ४ जाय। Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܪ -6 : १-६] १. धर्मोपदेशामृतम् श्री नाङ्गियुगं जिनस्य दधदप्यम्मोजसाम्यं रजस्त्यक्तं जाज्यहरं परं भवतु मयेतो ऽर्पितं शर्मणे ॥ ४ ॥ 5 ) जयति जगवधीशः शान्तिनायो यदीयं स्मृतमपि हि जनानां पापतापोपशान्त्यै । विबुधकुलकिरीटप्रस्फुर श्रीलरत्नयु तिचलमधुपालीचुम्बितं पादपद्मम् ॥ ५ ॥ 6 ) स जयति जिनदेवः सर्वविद्विश्वनाथ वित्तधवचनहेतुको घलोभादिमुक्तः । शिबपुरपथपान्थप्राणिपाथेयमुचैर्जनितपरमशर्मा येन धर्मो ऽभ्यधायि ॥ ६ ॥ ३ नमस्कारं कुर्वतः इन्द्रस्य शेखर शिखारनार्कभासा कृष्णा पाटकम् इन्द्रस्य शेखरः मुकुटः तस्य मुकुटस्य शिखारनं स एव अर्कः सूर्यः तस्य शेखर शिखारकार्कस्य भा दीप्तिः तथा शेखरशिखारनार्कभासा कृष्णा पाटलम् । 'वेतरक्तस्तु पाटलम् इत्यमरः । पुनः किंण । नखश्रेणीवेक्षणमित्रशुम्भदनिभृत्, नखानां श्रेण्यः नलश्रेण्यः पहूयः तासु नस्वत्रेणीषु इतांनि प्राप्तानि यानि इन्द्रस्य ईक्षणविम्बानि तान्येव शुम्भम्सः अलयः मृताः तान् भलीन् विभर्ति इति भृत् नखश्रेणीते क्षणविम्बशुम्भदळिमृत् । पुनः किंलक्षणम् अभियुगम्। रोकसत् दूरम् अतिशयेन उल्लसत् प्रकाशमानम् । एवंभूतम् अतियुगं भवतां सुखाय भवतु ॥ ४ ॥ स श्री शान्तिनाथः जयति । किंलक्षणः श्रीशान्तिनाथः । जगदधीशः जगतः अधीशः जगदधीशः हि निश्चितम्। यवीय पादपद्मं स्मृतममपि । जनानां लोकानाम् । पापतापोपशान्यै भवति पापतापस्ये उपशान्तिः तस्यै पापतापोपशान् भवति । किंलक्षणं पादपद्मम् । विषकुख किरीटप्रस्फुरभील रमद्युतिचलमधुपासीचुम्बितं विबुधकुलाना देवसमूहान! किरीटे मुकुटे प्रस्फुरती या नीरणतिः सेव चञ्चला मधुपाना हाणो बाधी पतिः तया चुम्बितं स्पर्शितं पादपद्मम् ॥ ५ ॥ स जिनदेवो जयति । किंलक्षणो जिनदेवैः । सर्ववित् सर्व वेत्तीति सर्ववित् । पुनः किंलक्षणः । विश्वनाथः त्रैलोक्यप्रभुः । पुनः किंलक्षणः । वितथवचन हेतु कोषकोभादिमुक्तः असत्यवचनहेतुः क्रोधलेोभादिः तेन मुक्तः रहितः । येन जिनदेवेन धर्मः अभ्यधामि अधि । किंलक्षणो धर्मः । शिवपुरपथपान्वप्राणिपाथेयं मोलनगर मार्गपथिकमीवान पावेयं सम्बलम् । पुनः किलक्षणो I 1 धारण करते हुए भी धूलिके सम्पर्कसे रहित होकर जड़ता ( अज्ञान ) को हरनेवाले हैं; वे उभय चरण हमारे चितमें स्थित होकर सुखके कारणीभूत होवें ॥ विशेषार्थ - यहां जिन भगवान्के चरणोंको कमलकी उपमा देते हुए यह बतलाया है कि जिस प्रकार कमल पाटल (किंचित् सफेदी के साथ लाल) वर्ण होता है उसी प्रकार जिन भगवान के चरणों में जब इन्द्र नमस्कार करता था तब उसके मुकुटमें बड़े हुए रलकी छाया उनपर पड़ती थी, इसलिये वे भी कमलके समान पाटल वर्ण हो जाते थे । यदि कमलपर अमर रहते हैं तो जिन भगवान्के पादनखोजें भी नमस्कार करते हुए इन्द्रके नेत्रप्रतिबिम्बरूप अमर विद्यमान थे । कमल यदि श्री(लक्ष्मी) का स्थान माना जाता है तो वे जिनचरण भी श्री (शोभा) के स्थान थे । इस प्रकार कमलकी उपमाको धारण करते हुए भी जिनचरणोंमें उससे कुछ और भी विशेषता थी । यथा- कमल तो रज अर्थात् परागसे सहित होता है, किन्तु जिनचरण उस रज( धूलि) के सम्पर्कसे सर्वथा रहित थे। इसी प्रकार कमल जड़ता ( अचेतनता ) को धारण करता है, परन्तु जिनचरण उस अड़ता ( अज्ञानता ) को नष्ट करनेवाले थे ॥ ४ ॥ देवसमूहके मुकुटोंमें प्रकाशमान नील रनोंकी कान्तिरूपी चंचल भ्रमरोंकी पंक्तिसे स्पर्शित जिन शान्तिनाथ जिनेन्द्रके चरण-कमल स्मरण करने मात्र से ही लोगोंके पापरूप संतापको दूर करते हैं वह लोकके अधिनायक भगवान् शान्तिनाथ जिनेन्द्र जयवन्त होवें ॥ ५ ॥ जो जिन भगवान् असत्य भाषणके कारणीभूत क्रोध एवं लोभ आदिसे रहित है तथा जिसने मुक्तिपुरीके मार्गमें चलते हुए पथिक जनोंके लिये पाथेय ( कलेवा ) स्वरूप एवं उत्तम सुखको उत्पन्न करनेवाले ऐसे धर्मका उपदेश दिया है वह समस्त पदार्थोंको जाननेवाला तीन १ शान्यै मापताप । २ री ३ देवः । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनवि-पञ्चविंशतिः 7 ) धर्मो जीवदया गृहस्वामिनोर्भेदाद्विधा व प्रयं रमान परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः । मोहोत विकल्पजालरहिता वागङ्गसंगोज्झिता शुखानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥ ७ ॥ 8) आद्या सदतसंचयस्य उनी सौम्य सां मूलं धर्मतरोरनश्वरपदारोहनिःश्रेणिका । कार्या सद्भिरिहानिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः freeनामाप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥ ८ ॥ [7:3-9 धर्मः । उचैः अतिशयेन जनितपरमशर्मा जानेतम् उत्पादितं परमशमं सुखं येनासी जनितपरमशर्मा । एवंविधो जिनदेवो जयति ॥६॥ जीवश्या धर्मः । गृहस्थशमिनोः द्वयोः भेदाद् द्विधा धर्मः कथ्यते च । रमानां त्रयं विविधं धर्मः दर्शनशान चारित्राणि धर्मः । तथा दशविधो धर्मः उत्कृष्टक्षमादिः उत्तमक्षमादिः । ततः पश्चात् आत्मनः परिणतिः । धर्माख्यया धर्मनाम्ना कृत्वा आत्तमनः परिणतिः । गीयते कथ्यते । किंलक्षणा परिणतिः । मोहोद्भूतविकल्प जालरहिता मोहोद्भूतविकल्पजालेन रहिता । पुनः किलक्षणा । वागशसंगो सिता वचनकाय संगरहिता । पुनः किंलक्षणा शुद्धानन्दमया [य] ॥ ७ ॥ इह लोके । सद्भिः पण्डितैः भयैः । प्रथमतः । निषु जीयेषु दया कार्या । नित्यं सदैव । धार्मिकैः कार्या किलक्षणा दया । सद्व्रतसंचयस्य आया जननी माता । सौख्यस्य जननी माता पुनः किंलक्षणा दया । सत्संपदा मूलम् । पुनः धर्मत रोः धर्मवृक्षस्य मूलम् । पुनः किलक्षणा दया । अनश्वरपदा रोई कनिः श्रेणिका अनश्वरपदस्य मोक्षपदस्यारोहक निःश्रेणिका । तस्य अदयस्य नामापि धिक् । च " लोकका अधिपति जिन देव जयवन्त होवे || ६ || प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखना, यह धर्मका स्वरूप है । वह धर्म गृहस्थ (श्रावक) और मुनिके भेदसे दो प्रकारका है। वहीं धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप उत्कृष्ट रत्नत्रयके मेदसे तीन प्रकारका तथा उत्तम क्षमा एवं उत्तम मार्दव आदिके मेदसे दस प्रकारका भी है । परन्तु निश्चयसे तो मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले मानसिक विकल्पसमूहसे तथा वचन एवं शरीरके संसर्गसे भी रहित जो शुद्ध आनन्दरूप आत्माकी परिणति होती है उसे ही 'धर्म' इस नामसे कहा जाता है ॥ विशेषार्थ प्राणियोंकि ऊपर दयाभाव रखना, रत्नत्रयका धारण करना, तथा उत्तमक्षमादि दस धर्मोका परिपालन करना; यह सब व्यवहार धर्मका स्वरूप है । निश्चय धर्म तो शुद्ध आनन्दमय आत्माकी परिणतिको ही कहा जाता है || ७ || यहां धर्मात्मा सज्जनोंको सबसे पहिले प्राणियोंके विषयमें नित्य ही दया करनी चाहिये, क्योंकि वह दया समीचीन व्रतसमूह, सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदाओंकी मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक है; धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है, तथा अविनश्वर पद अर्थात् मोक्षमहलपर चढ़नेके लिये अपूर्व नसैनीका काम करती है । निर्दय पुरुषका नाम लेना भी निन्दाजनक है, उसके लिये सर्वत्र दिशायें शून्य जैसी हैं ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार जड़के विन्ध वृक्षकी स्थिति नहीं रहती है उसी प्रकार प्राणिदयाके बिना धर्मकी स्थिति भी नहीं रह सकती । अत एव वह धर्मरूपी वृक्षकी जड़के समान है। इसके अतिरिक्त प्राणिदयाके होनेपर ही चूंकि उत्तम व्रत, सुख एवं समीचीन संपदायें तथा अन्तमें मोक्ष भी प्राप्त होता है; अत एव धर्मात्मा जनोंका यह प्रथम कर्तव्य है कि वे समस्त प्राणधारियोंमें दयाभाव रक्खें । जो प्राणी निर्दयतासे जीवघातमें प्रवृत्त होते हैं उनका नाम लेना भी बुरा समझा जाता है। सुखसामग्री प्राप्त होनेवाली नहीं है । इसीलिये सत्पुरुषोंके लिये यह प्रथम उपदेश है I I उनके लिये कहीं भी वे समस्त प्राणियों में १ अ श परिणतिः कथ्यते । २ सत्संपदा मूला अथवा धर्मतः सूला पुनः । У Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aanamanmannapuramanawwwwwwwanm -10:१-१०] १. धर्मोपदेशामृतम् 9) संसारे भ्रमधिरं तनुभृतः के के न पित्रावयो जातास्तवधमाश्रितेन खलु से सर्षे भवन्स्थाहताः। पुंसात्मापि' हतो यदा निहतो जम्मान्तरेषु ध्रुवम् हन्तारं प्रतिन्ति हन्त बहुशः संस्कारतो तु कुषः ॥ ९ ॥ 10) त्रैलोक्यमभुभावतो ऽपि सहजो ऽप्येक निजं जीवितं प्रेयस्तेन विना स कस्य भवितेत्याकांक्षतः प्राणिनः। निःशेषनतशील निर्मलगुणाधारासतो निश्चित जन्तोर्जीवितदानतत्रिभुवने सर्षप्रदान लघु ॥१०॥ पुनः । सर्वत्र शत्या दिशः। अत एव दया कार्या ॥ ८॥ तनुभृतः प्राणिनः । संसारे चिरं चिरकाल भ्रमतः के के पित्रादयो न जाताः। तेषां प्राणिनो वधम् आश्रितेन पुंसा पुरुषेण । ते सर्वे पित्रादयः आइताः भवन्ति । ननु अहो। पारमापि हतः। यत् यस्मात् कारणात् । अत्र संसारे। यः निहतः । धुवं निश्चितम् । जन्मान्तरेषु । हन्त इति खेद । नु इति वितर्क । हन्तारं पुरुषम् । बहुशः बहुधारीन् । प्रतिदन्ति मारयति । कमात् । क्रुधः संस्कारप्तः क्रोषस्म स्मरणात् ॥ ९ ॥ सतः कारणात् । निश्चितम् । त्रिभुवने संसारे । जन्तोः जीवस्म । जीवितदानतः सकाशात् अन्यत्सर्वप्रदानं लघु । निःशेषयतशीलनिर्मलगुणाधारात निःशेषाः संपूर्णाः व्रतशीलनिर्मलगुणाखेषाम् भाधारस्तस्मात् । प्राणिनः जीवस्य । त्रैलोक्यप्रभुभावतः प्रभुत्वतः अपि एक निज जीविलं प्रेयः वामम् । किलक्षणस्य । सरुजोऽपि रोगयुक्तस्य पुरुषस्य । पुनः किलक्षणस्य दयायुक्त आचरण करें ॥ ८॥ संसारमें चिर कालसे परिभ्रमण करनेवाले प्राणीके कौन कौनसे जीव पिता, माता व माई आदि नहीं हुए हैं ! अत एव उन उन जीवोंके घातमें प्रवृत्त हुआ प्राणी निश्चयसे उन सबको मारता है । आश्चर्य तो यह है कि वह अपने आपका भी घात करता है। इस भवमें जो दूसरेके द्वारा मारा गया है वह निश्चयसे भवान्तरोंमें कोधकी वासनासे अपने उस घातकका बहुत बार घात करता है, यह खेदकी बात है | विशेषार्थ- जन्म-मरणका नाम संसार है । इस संसारमें परिभ्रमण करते हुए प्राणीके भिन्न भिन्न भवोंमें अधिकतर जीव माता-पिता आदि सम्बन्धोंको प्राप्त हुए हैं । अत एव जो प्राणी निर्दय होकर उन जीवोंका घात करता है वह अपने माता-पिता आदिका ही घात करता है। और तो क्या कहा जाय, क्रोधी जीव अपना आत्मघात भी कर बैठता है । इस क्रोधकी वासनासे इस जन्ममें किसी अन्य प्राणीके द्वारा मारा गया जीव अपने उस घातकका जन्मान्तरों में अनेकों वार घात करता है। इसीलिये यहां यह उपदेश दिया गया है कि जो कोष अनेक पापोंका जनक है उसका परित्याग करके जीवदयामें प्रवृत्त होना चाहिये ।। ९ । रुग्ण प्राणीको भी तीनों लोकोंकी प्रमुताकी अपेक्षा एक मात्र अपना जीवन ही प्रिय होता है । कारण यह कि यह सोचता है कि जीवनके नष्ट हो जानेपर वह तीनों लोकोंकी प्रभुता भला किसको प्राप्त होगी। निश्चयसे वह जीवनदान चूंकि समस्त व्रत, शील एवं अन्यान्य निर्मल गुणोंका आधारभूत है अत एव लोक, जीयके जीवनदानकी अपेक्षा अन्य समस्त सम्पत्ति आदिका दान भी तुच्छ माना जाता है । विशेषार्थ-प्राणों का घात किये जानेपर यदि किसीको तीन लोकका प्रभुत्व भी प्राप्त होता हो तो यह उसको नहीं चाहेगा, किन्तु अपने जीवितकी ही अपेक्षा करेगा। कारण कि वह समझता है कि जीवितका घात होनेपर आखिर उसे भोगेगा कौन ! इसके अतिरिक्त प्रत, शील, संयम एवं तप आदिका आधार चूंकि उक्त जीवनदान ही है अत एव अन्य सब दानोंकी अपेक्षा जीवनदान ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है ॥१०॥ ११ ननु । २० नन्वारमापि। देश बहुशः बारान् । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पग्रनम्दि-पञ्चविंशतिः [11:१-११1! स्वर्गायाप्रतिनो ऽपि साईमनसः श्रेयस्करी केवला सर्वप्राणिश्या तया तु रहितः पापस्तपस्स्थो ऽपि षा। तहानं बहु दीयता तपलि पा चेतधिर धीयतां ... ध्यान या क्रियता जना न सफलं किंचियावर्जितम् ॥ ११ ॥ 12) सन्तः सर्पसुरासुरेन्द्रमहितं मुक्तेः परं कारणं रजानां दधति प्रय त्रिभुवनप्रद्योति काये सति । पतिस्तस्य यवतः परमया भवस्थापिताजायते तेषां सवगृहमेधिनां गुणवतां धर्मो न कस्प प्रियः ॥ १२ ॥ 13 ) आराध्यन्ते जिनेन्द्रा गुरुषु च विनतिर्धार्मिक प्रीतिरुचैः पात्रेभ्यो दानमापनिछतजनकृते तब कारुण्पबुद्धया । प्राणिनः । तेन मीविलेन बिना स राज्यभाषः कस्य भविता इति आकारतः वाष्छतः ॥ १०॥ सर्वप्राणिदया । साईमनसः क्षमासहितजीवस्य । खर्गाय भवति । किलक्षणस्य प्राणिनः। अवविनोऽपि सतरहितस्यापि । किलक्षणा दया। केवला । श्रेयस्करी सुस्वकारिणी । तया जीवदयया रहितः तपस्स्थोऽपि तपःसहितोऽपि। पापः पापिष्ठः । तद्विना दान बहु दीयताम् । वा अथवा । तपसि विषये चिरं चिरकालम् । चेतः धीयतामारोप्यताम् । भो जनाः च्यानं का क्रियताम् । भो जनाः दयावर्जित किंचित् सफलं न फलदायकं न ।। ११॥ सन्तः साधकः । रमानां त्रयम् । दधति धारयन्ति । किसक्षम रमानां त्रयम् । सर्वसुरासुरेनमहितं सर्व सुरेन्द्रा असुरेन्द्राः तैः । महित पूजितम् । पुन: किलक्षण रमानां त्रयम् । मुकः परे कारणम् । पुनः किलक्षणम्। त्रिभुवनप्रद्योति त्रिभुवनं प्रद्योतयति तत् त्रिभुवनप्रयोति । सन्तः सति धारयन्ति रजानां प्रयम् । काये सवि शरीरे सति । ततः पशात् नस्य शादीरमा अनि यते प्रवर्तनं जायसे । किलक्षणात् अमतः। तैः राहस्थैः परमया अंतरया भत्या कृत्वा अर्पितस्तस्मात् । तेषां सद्ग्रहमेधिनां गुणवता गुणयुकाना धर्मः कस्म जीवस्य प्रियः न । अपि तु सर्वेषां प्रियः श्रेष्ठः ॥ १२॥ इह लोके संसारे । तदाहस्थ्य बुधानो जुधैः पूज्यं यत्र गाईस्थ्ये जिनेन्दा माराध्यन्ते। च पुनः । गुरुक्षु विनतिः क्रियते। धार्मिकैः पुरुषैः। उौः अतिशयेन प्रीतिः क्रियते। यत्र गृहपदे पात्रेभ्यो दानं दीयते। च पुनः। तदान आपभिहतजनकृते भापत्पीडितमनुष्ये । कारुण्यमुख्या दीयते । यत्र गृहपये तत्त्वाभ्यासः क्रियते । यत्र गृहपदे खकीयनतरतिः स्वकीयमते अनुरागः जिसका चित्त दयासे भीगा हुआ है वह यदि व्रतोंसे रहित भी हो तो भी उसकी कल्याणकारिणी एक मात्र सर्वप्राणिदया स्वर्गप्राप्तिकी निमित्तभूत होती है। इसके विरुद्ध उक्त प्राणिदयासे रहित प्राणी तपमें स्थित होकर भी पापिष्ठ माना जाता है । अत एव हे भव्य जनो! चाहे आप बहुत-सा दान देवें, चाहे चिर काल तक चित्तको तपमें लगावें, अथवा चाहे ध्यान भी क्यों न करें, किन्तु दयाके बिना यह सब निष्फल रहेगा ॥११॥जो खत्रय (सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र) समस्त देवेन्द्रों एवं असुरेन्द्रोंसे पूजित है, मुक्तिका अद्वितीय कारण है तथा तीनों लोकोंको प्रकाशित करनेवाला है उसे साधु जन शरीरके स्थित रहनेपर ही धारण करते हैं। उस शरीरकी स्थिति उत्कृष्ट भक्तिसे दिये गये जिन सद्गृहस्थों के अनसे रहती है उन गुणवान् सदगृहस्थों (श्रावकों) का धर्म भला किसे प्रिय न होण? अर्थात् समीको प्रिय होगा ॥१२॥ जिस गृहस्थ अवस्थामें जिनेन्द्रोंकी आराधना की जाती है, निम्रन्थ गुरुओंके विषयमें विनय युक्त व्यवहार किया जाता है, धर्मात्मा पुरुषोंके साथ अतिशय वात्सल्य भाव रखा जाता है, पात्रोंके लिये दान दिया जाता है, वह दान आपचिसे पीड़ित प्राणीके लिये मी दयाबुद्धिसे दिया जाता है, तत्त्वोंका परिशीलन . किया जाता है, अपने व्रतोंसे अर्थात् गृहस्थधर्मसे प्रेम किया जाता है, तथा निर्मल सम्यग्दर्शन धारण किया १. सर्वसुरेन्नमसुरेन्द्रस्तैमेरितम् , क सर्वसुरेन्द्रासुरेन्द्रास्त्रमैहितम् । २श सकाशत् शरीरस्म । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -14:१-२४] १. धर्मोपदेशामृतम् तत्त्वाभ्यासः स्वकीयबतरतिरमले दर्शनं यत्र पूज्य समाईस्थ्य बुधानामितरदिह पुमर्दुम्खदो मोहपाशः ॥१३॥ 14) आदी पर्शनमुन्नत प्रतमितः सामापिकं प्रोषेष स्यागष सचित्तवस्तुनि दिवाभुकै तथा ब्रह्म च । नारमोद परिणाहो ऽन्नुमसिनोद्दिष्टमेकादश स्थामानाति गृहिवते व्यसमितास्यागस्तवापः स्मृतः ॥ २४॥ क्रियते । यत्र गृहपदे अमलं दर्शनं भवति । तद्गाहपद पुरैः पूज्यम् । पुनः इतरत् द्वितीय क्रियादानरहितं गृहपदं दुःखदः मोहपाशः ॥ १३ ॥ गहिवते गृहस्थधर्म इति एकादशस्थानानि सन्ति । धर्मार्थ सान्येव दर्शयति । भादौ प्रपमतः । दर्शन दर्शनप्रतिमा १। इतः पश्चात् ब्रतं व्रतप्रतिमा । सतः सामायिकं सामायिकप्रतिमा ३ । ततः प्रोषध प्रोषधोपदासप्रतिमा ४ र पुनः । एष निश्चयेन । सपित्तरखनि त्यागः ५। ततः विवाभुकं रात्री स्त्री असेच्या (1) ६ । तथा ब्रह्म ब्रह्मचर्यप्रतिमा । मारम्भो न । परिग्रहो न । अनुमतिर्न १० । उहि न 111 हिधर्म एकादश स्थानानि कचितानि । तासां प्रतिमाना आधखदायः व्यसनिता जाता है वह गृहस अवस्था विद्वानोंके लिये (पूज्य ) पूजनेके योग्य है। और इससे विपरीत गृहख अवस्था यहां लोकमें दुःखदायक मोहजाल ही है ॥ १३॥ सर्वप्रथम उन्नतिको प्राप्त हुआ सम्यग्दर्शन, इसके पश्चात् त, तत्पश्चात् क्रमशः सामायिक, प्रोषधोपवास, सचित्त वस्तुका त्याग, दिनमें भोजन करना अर्थात् रात्रिभोजनका त्याग, तदनन्तर चर्यका धारण करना, आरम्भ नहीं करना, परिग्रहका न रखना, गृहस्पीके कार्योंमें सम्मति न देना, तथा उद्दिष्ट भोजनको ग्रहण न करना; इस प्रकार ये आपकधर्ममें म्यारह प्रतिमायें निर्दिष्ट की गई है। उन सबके आदिमें भूतादि दुर्व्यसनोका त्याग स्मरण किया गया है अर्थात् बतलाया गया है ।। विशेषार्थ- सकलचारित्र और विकलचारित्रके मेदसे चारित्र दो प्रकारका है। इनमें सकलचारित्र मुनियोंके और विकलचारित्र श्रावकोंके होता है। उनमें श्रावकोंकी निम्न म्यारह श्रेणियां (पतिमायें) हैंदर्शन, व्रत, सामायिक, प्रोषधोपवास, सचिचत्याग, दिवामुक्ति, ब्रह्मचर्य, आरम्भत्याग, परिग्रहत्याग, अनुमतित्याग और उद्दिष्टत्याग । (१) विशुद्ध सम्यग्दर्शनके साथ संसार, शरीर एवं इन्द्रियविषयभोगोंसे विरक्त होकर पाक्षिक श्रावकके आचारके उन्मुख होनेका नाम दर्शनप्रतिमा है। (२) माया, मिथ्या और निदानरूप तीन शस्योंसे रहित होकर अतिचार रहित पांच अणुव्रतों एवं सात शीलवतोंके धारण करनेको व्रतमतिमा कहा जाता है । (३) नियमित समय तक हिंसादि पांचों पापोंका पूर्णतया त्याग करके अनित्य व अशरण आदि भावनाओंका तथा संसार एवं मोक्षके स्वरूप आदिका विचार करना, इसे सामायिक कहते हैं। तृतीय प्रतिमाधारी आवक इसे प्रातः, दोपहर और सायंकालमें नियमित स्वरूपसे करता है। (४) प्रत्येक अष्टमी और चतुर्दशीको सोलह पहर तक चार प्रकारके भोजन ( अशन, पान, खाध और लेड) के परित्यागका नाम प्रोषधोपवास है। यहां प्रोषध शब्दका अर्थ एकाशन और उपवासका अर्थ सच प्रकारके भोजनका परित्याग है । जैसे- यदि अष्टमीको प्रोषधोपवास करना है तो सप्तमीके दिन एकाशन करके अष्टमीको उपवास करना चाहिये और तत्पश्चात् नवमीको भी एकाशन ही करना चाहिये । प्रोषधोपवासके समय हिंसादि पापोंके साथ शरीरश्रृंगारादिका मी त्याग करना अनिवार्य होता है । (५) जो वनस्पतियां निगोदजीवोंसे व्याप्त होती हैं उनके त्यागको सचित्तत्याग कहा जाता है । (६) रात्रि में भोजनका परित्याग १ श प्रौषधः । १४ क दिवाभवम् । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानम्बि-पञ्चविंशतिः (15) यत्प्रोकं प्रतिमामिराभिरभितो विस्तारिभिः सूरिभिः शातव्यं तदुपालकाध्ययनतो हितं विस्तरात् । तत्रापि व्यसनोजनं यदि तदप्यासूयते ऽत्रैव यत् [ 15 : १-१५ तन्मूलः सकलः सतां प्रतविधिर्याति प्रतिष्ठां पराम् ॥ १५ ॥ 16) मसुराच्या सेटचीर्यपराङ्गमाः । महापापानि सप्तेति व्यसनानि त्यजेदुधः ॥ १६॥ 17 ) भवनमिदमब्धौर्यवेश्यादिसर्वध्यसम पतिरशेषापश्चिचिः पापबीजम् । विषमनरकमार्गेष्वप्रप्रायीति मत्वा कर विशदबुद्धिमङ्गीकरोति ॥ १७ ॥ त्यागः स्मृतः कथितः ॥ १४ ॥ मोहितम् । सूरिभिः अभितः समन्ताय । आभिः प्रतिमाभिः विस्तारिभिः प्रोकम् । तहितम्' उपासकाव्यमनतः स्तमाङ्गात्। विस्तरात् शातव्यम् । तत्रापि उपासकाध्ययने । यदि आदी व्यसनोजनं मर्त कथितम्' यस नोज्नम् । अत्रैव पद्मनन्दिग्रन्थे । आसूक्ष्यते कथ्यते । यद्यतः । तद्वशसनोजने सतां व्रतविधेः मूलः स व्रतविधिः परो प्रतिष्ठा यावि गच्छति ।। १५ ।। इति हेतोः । युधः । सप्त व्यसनानि त्यजेत् । इतीति किम् । यतः महापापानि महापापयुकानि । तान्येव दर्शयति । धूर्त मांसं सुरा वेश्या आखेटः चौर्य पराना इति ॥ १६ ॥ इह लोके संसारे । इति मत्वा । कः विशदबुद्धिः निर्मलबुद्धिः द्यूतम् अभी करोति । इतीति किम् । इदं यूतम् । अकीर्तः अपयशसः । भवनं गृहम् । पुनः किंलक्षणं द्यूतम् । चौर्यनेश्यादि सर्व व्यसनपतिः । पुनः किंलक्षणं धूतम् । अशेषापनिधिः समस्तापदा स्थानम् । पुनः किंलक्षणम् । पापभीजम् । पुनः किंलक्षणम् इदं द्यूतम् । विषमनरकमार्गेषु अप्रमाथी अमेसरः । इति पूर्वोक्तम् । मस्वा ः धूतम् अङ्गीकरोति करके दिनमें ही भोजन करनेका नियम करना, यह दिवामुक्तिप्रतिमा कही जाती है । किन्हीं आचार्यक अभिप्रायानुसार दिनमें मधुनके परित्यागको दिवामुक्ति ( षष्ठ प्रतिमा ) कहा जाता है। ( ७ ) शरीरके स्वभावका विचार करके कामभोगसे विरल होनेका नाम ब्रह्मचर्य प्रतिमा है । ( ८ ) कृषि एवं वाणिज्य आदि आरम्भके परित्यागको आरम्भत्यागप्रतिमा कहते हैं । ( ९ ) धन-धान्यादिरूप इस प्रकारके बा परिग्रहमें ममत्वबुद्धिको छोड़कर सन्तोषका अनुभव करना, इसे परिग्रहत्यागप्रतिमा कहा जाता है । (१०) आरम्भ, परिग्रह एवं इस लोक सम्बन्धी अन्य कार्यों के विषय में सम्मति न देनेका नाम अनुमतित्याग ह । (११) गृहवासको छोड़कर भिक्षावृत्तिसे भोजन करते हुए उद्दिष्ट भोजनका त्याग करनेको उद्दिष्टत्याग कहा जाता है । इन प्रतिभाओंमें पूर्वकी प्रतिमाओंका निर्वाह होनेपर ही आगेकी प्रतिमामें परिपूर्णता होती है, अन्यथा नहीं ॥ १४॥ इन प्रतिमाओंके द्वारा जिस गृहस्थनत ( विकलचारित्र) को यहां आचार्योंने विस्तारपूर्वक कहा है उसको यदि अधिक विस्तार से जानना है तो उपासकाध्ययन अंगसे जानना चहिये। वहां पर भी जो व्यसनका परित्याग बतलाया गया है उसका निर्देश यहां पर भी कर दिया गया है। कारण इसका यह है कि साधु पुरुषोंके समस्त व्रतविधानादिकी उत्कृष्ट प्रतिष्ठा व्यसनोंके परित्यागपर ही निर्भर है ॥ १५ ॥ जुआ, मांस, मध, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री; इस प्रकार ये सात महापापरूप व्यसन हैं । बुद्धिमान् पुरुषको इन सबका त्याग करना चाहिये ॥ विशेषार्थ-व्यसन बुरी आदतको कहा जाता है । ऐसे व्यसन सात हैं१ जुआ खेलना २ मांस भक्षण करना ३ शराब पीना ४ वेश्यासे सम्बन्ध रखना ५ शिकार खेलना (मृग आदि पशुओंके घातमें आनन्द मानना ) ६ चोरी करना और ७ अन्यकी स्त्रीसे अनुराग करना । ये सात व्यसन चूंकि महापापको उत्पन्न करनेवाले हैं, अत एव विवेकी जनको इनका परित्याग अवश्य करना चाहिये ॥ १६ ॥ यह जुआ निन्दाका स्थान है, चोरी एवं वेश्या आदि अन्य सब व्यसनों में मुख्य है, समस्त १ श इति । २श प्रोक्तः सद्वेदितम् एशव्यसनोम्झन फलं कबितं । ४ म कथ्यते यतः तत् वसनोजनम्, श कथ्यते यत तवः व्यसनोशनम् । 1 Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्मोपदेशामृतम् 18) काकीर्तिः क दरिद्रता के विपदः क कोधलोमादयः चौर्यादिव्यसनं क च क नरके दुःखं मृतानां नृणाम् । पेरुमोतो न रमते ते वदन्युनत प्रज्ञा यषि दुर्जयेषु निखिलेध्येतदुरि स्मर्यते ॥ १८ ॥ 19 ) बीभत्सु प्राणघातोद्भवमशुचि मिस्वानमन्लाष्यमूल इस्तेमाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं' च । तम अक्षरसेराहाम दर्ज गर्हितं यस्य साक्षात् पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः ॥ १९ ॥ -18:1-19] अपि तु ज्ञानवान्नाङ्गीकरोति ॥ १७ ॥ उन्नतज्ञा विवेकिनः । इति वदन्ति । इतीति किम् । चेत् यदि चेतः मनः । छूते न रमते । कुतः । गुरुमोहतः । खूबे न रमते तदा अकीर्तिः क अपयशः । क्र-शब्दः महदन्तरं सूचयति । चेन्मनः गुरुमोदतः पूते न रमते तदा' क दरिद्रता । क विपदः । क क्रोधलोभादयः । क्र चौर्यादिव्यसनम् । क मृतानां नृणी मनुष्याणां नरके दुःखम् । जेम्मनः द्यूते न रमते । यद् यस्मात् । सुषि पृथिव्याम् । निश्चिकेषु व्यसनेषु । एतद् भूतम् । धुरि आदौ । समर्वते कथ्यते ॥ १८ ॥ यन्मा बीभत्सु भयानकं घृणास्पदम् । यन्मर्स प्राणिघातोषं प्राणिनवोत्पलम् । मन्मासे मशुचि अपवित्रम् । जन्मसि मिस्मानम् । मन्मा अश्वाभ्यमूलम् । इह लोके । महता पुरुषाणा हस्ते स्पष्टुं स्पर्शितुं शक्यं न । महता ममापि मात्रे किंतु " न तत् तस्मात्कारणात्। भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं निन्यं भवति । मन्त्र भुवि पृथिव्याम् । यस्य पुरुषस्य मार्च म भवति तस्य मांसभक्षकस्य पुंसः । साक्षात् केवलम् । किपत्पापं भवति तस्य का गतिर्भवति वयं न विद्यः वयं न जानीमः ॥ १९ ॥ जापत्तियोंका स्थान है, पायका कारण है, तथा दुःखदायक नरकके मागौनें अप्रगामी है; इस प्रकार जानकर यहाँ लोकमें कौन-सा निर्मल बुद्धिका धारक मनुष्य उपर्युक्त जुआको स्वीकार करता है! अर्थात् नहीं करता। जो दुर्बुद्धि मनुष्य हैं वे ही इस अनेक आपत्तियोंके उत्पादक जुआको अपनाते हैं, न कि विवेकी मनुष्य ॥ १७ ॥ यदि चित्त महामोहसे जुआ में नहीं रमता है तो फिर अपयश अथवा निन्दा कहांसे हो सकती है ? निर्धनता कहां रह सकती है ! विपत्तियां कहांसे आ सकती हैं ? क्रोष एवं लोभ आदि कषायें कहांसे उदित हो सकती हैं? चोरी आदि अन्यान्य व्यसन कहां रह सकते हैं ? तथा मर करके नरकमें उत्पन्न हुए मनुष्योंको दुःख कहांसे प्राप्त हो सकता है ? [ अर्थात् जुमासे विरत हुए मनुष्यको उपर्युक्त आपत्तियोंमेंसे कोई भी आपत्ति नहीं प्राप्त होती |] इस प्रकार उन्नत बुद्धिके धारक विद्वान् कहा करते हैं। ठीक ही है, क्योंकि समस्त दुर्व्यसनों में यह जुआ गाड़ीके चुराके समान मुख्य माना जाता है ॥ १८ ॥ जो मांस घृणाको उत्पन्न करता है, मृग आदि प्राणियोंके घातसे उत्पन्न होता है, अपवित्र है, कृमि आदि क्षुद्र कीड़ोंका स्थान है, जिसकी उत्पत्ति निन्दनीय है, तथा महापुरुष जिसका हाथसे स्पर्श नहीं करते मौर जांखसे जिसे देखते भी नहीं हैं ' वह मांस खानेके योग्य है' ऐसा कहना मी सज्जनोंके लिये निन्दाजनक है । फिर ऐसे अपवित्र मांसको जो पुरुष साक्षात् खाता है उसके लिये यहां लोकमें कितना पाप होता है तथा उसकी क्या अवस्था होती है, इस बासको हम नहीं जानते ॥ विशेषार्थ- मांस चूंकि प्रथम तो मृग आदिक मूक प्राणियों के वधसे उत्पन्न होता है, दूसरे उसमें असंख्य अन्य त्रस जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं जिनकी हिंसा होना अनिवार्य है। इस कारण उसके भक्षण में हिंसाजनित पापका होना अवश्यंभावी १ क मा कोकित। २ परमतेला कुतः १ अतो यद्वन्तः पाठवितो जातः । ४ मुवि मेदिन्या चिया । ५ । पहा २ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दिपञ्चविंशतिः [20:१-२०20) गयो शातिः सचिवहरपि न यति सहसा शिरो हत्वा हत्या कलुषितमना रोदिति अनः । परेषामुत्कस्य प्रकटितमुखं खादति पलं कले रे निर्विमा वयमिह भवविश्वरितः ॥ २०॥ 21) सकलपुरुषधर्मकार्यत्र जन्मन्यधिकमधिकमने यस्परं दुःलहेतुः। सवपि न यदि मय खज्यते बुखिमद्भिः स्वहितमिह किमन्यत्कर्म धर्माय कार्यम् ॥२१॥ 22) मास्तामेतदिह जननी बल्ला मम्यमाना किन्याद्य विवधति अना निझापा: पीतमद्याः । सबित् शानिः स्वगोत्री जनः। बहिपि मतः प्रामान्तरे यतः। यदि सहसा शीघ्रं न एति नागच्छति । तदा जमः शिरो इवा इत्वा रोदिति सिलवणो जनः । नुवेतमनापरको रवानां मगानाम् । पलं मासम् । उत्कृत्य छिरवा छेदायित्वा प्रकटितमुख प्रसास्सियस सातवा खादति। एवंविधा मूर्यलोकः। रेसले भो पबमकाल। इह संसारे । अप इदानीम् असिपखावे मवविचरितः कवं विविपाः २.५ सम्मयम् । अब बन्मनि । सबलपुरुषधर्मभ्रंशकारि सकलाः ये पुरुषधर्माः तेथी भवनमानां ग्रंशसार विमरमहीलम् । मधम् । अग्रे परजन्मनि। अधिकमधिकं पर दुःखहेतुः कारणम् । तदपि । दिम रखतः। मयं मंदिन राज्यते । इह लोके खहितम् खारमहितम् । धर्माय अन्यतिक कार्य करणीयम् ॥११॥ इबोकेपीलमचा- जमानिन्धाबेष्टाः लिदपति कुर्वन्ति । सत् अननी बालभा मन्यमानाः जनाः । एतत् आखा रे तिस्तु । है । अत एव सज्जन पुरुष उसका केवल परित्याग ही नहीं करते, अपि तु उसको वे हाथसे स्पर्श करना और आंखसे देखना भी बुरा समझते हैं। मांसमक्षक जीवोंकी दुर्गति अनिवार्य है ॥ १९ ॥ यदि कोई बपन्न सम्बन्धी स्वकीय तानसे बाहिर मी आकर सीघ्र नहीं आता है तो मनुष्य मनमें व्याकुल होता हुआ चिरको बार बार पीटकर रोता है । वही मनुष्य अन्य मृग आदि प्राणियोंके मांसको काटकर अपने मुखको पड़ता हुआ खाता है । हे कलिकाल ! यहाँ हम लोग तेरी इन विचित्र प्रवृत्तियोंसे निर्वेदको प्राप्त हुए हैं। विशेषार्थ-जब अपना कोई इष्ट बन्धु कार्यवश कहीं बाहिर जाता है और यदि वह समयपर घर रापिस नहीं आता है तब यह मनुष्य अनिष्टकी आशंकासे व्याकुल होकर शिरको दीवाल आदिसे मारता हुआ रुदन करता है। फिर वही मनुष्य जो अन्य पशु-पक्षियोंको मारकर उनका अपनी माता आदिसे सदा के लिये वियोग कराता हुआ मांसभक्षणमें मनुरक्त होता है, यह इस कलिकालका ही प्रभाव है । काल्की ऐसी प्रवृत्रियों से विवेकी जनोंका विरक होना स्वाभाविक है ॥ २०॥ जो मय इस जन्ममें समस्त पुरुषार्थों (धर्म, अर्थ और काम ) का नाश करनेवाला है और आगेके जन्ममें अस्यधिक दुःखका कारण है उस मधको यदि बुद्धिमान् मनुष्य नहीं छोड़ते हैं तो फिर यहा लोकमें धर्मके निमित्त अपने लिये हितकारक दूसरा कौन-सा काम करने के योग्य है! कोई नहीं । अर्थात् मद्यपायी मनुष्य ऐसा कोई भी पुण्य कार्य नहीं कर सकता है जो उसके लिये आत्महितकारक हो ॥ विशेषार्थ- शराबी मनुष्य न तो धर्मकार्य कर सकता है, न अर्थोपार्बन कर सकता है, और न यथेच्छ भोग भी भोग सकता है। इस प्रकार वह इस मदमें तीनों पुरुषार्थोसे रहित होता है । तथा परभवमें वह मद्यजनित दोषोंसे नरकादि दुर्गतियोंमें पड़कर असंख दुखको भी मोगता है। इसी विचारसे बुद्धिमान् मनुष्य उसका सदाके लिये परित्याग करते हैं ॥२१॥ मद्यपायी अन निर्लज्ज होकर यहां जो माताको पनी समझ कर निन्दनीय चेष्टायें (सम्भोग आदि) करते हैं १०मूखलोकैः। २. सकलाले पनि पुरुषमौणि वेषाम् । शरिषयकरणशीलम् । ४ समर्थ न । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -25:१-२५] १. चोपदेशास्तम् ताधिक्य पथि निपतिता' यत्किरत्सारमेयात् अपने मूर्च मधुरमधुरं भाषमाणाः पिबन्ति ॥ २२ ॥ 23) या खादन्ति पल पिबन्ति यमुर्रा जस्पन्ति मिथ्यापथः नियन्ति प्रषिणार्थमेष विदघस्यर्षभतिष्ठाम सिम् । नीचानामपि तुरषकमनसः पापात्मिका कुर्वते लालारानमहर्निशं न नरक वेश्या विहायापरम् ॥ २३ ॥ 24) रजकशिलासहशीमिः कुकुरकर्परसमानचरितामिः। गणिकामियदि संगः कृतमिह परलोकवार्वाभिः ॥ २४ ॥ 25) या दुर्दे कविता पममधिवसति त्रातुसंवन्धहीना। मीतिर्यस्यां स्वभाषाइशनवृतमा नापराधं करोति । सत्र मद्यपाने । अन्यत् आधिक्यं वर्तते । पचि मार्गे निपतिता (1) अनानाम् । वस्ने मुखे । सारमेयात्किरन्मयम् । मधुरमधुर मि मिष्ठं भाषमाणाः पिबन्ति ॥ २२ ॥ वेश्या विहाय अपरं नरकं न वर्तते । याः पले मांस खादन्ति । च पुनः । सुरो मदिरा पिवन्ति । या वेश्माः मिथ्यावचः असल्य जल्पन्ति । या केश्याः द्रविणार्थ द्रव्यार्थ द्रव्ययुकं पुरुषम् । नियन्ति मेई कुर्वन्ति । एव निधयेन । या वेश्याः अयप्रतिष्ठाक्षति अर्थप्रतिष्ठाविनाशं कुर्वन्ति । या वेश्या बइनिर्श दिवारात्रम् । लालापान कुर्वते । फेवाम् । नाचानामपि । किंलक्षणा: वेश्याः। टूरवकमनसः मतिशयेन वक्रमनसः । पुनः किंलक्षणाः वेश्याः। पापालिकाः। इति हेतोः। वेश्यां विहाय त्यक्त्वा अपर नरकंन । किन्तु वेश्या एव भरकम् ॥ २३ ।। इह लोके संसारे। यदि चेत् । गणिकामिः वेश्याभिः । संगः कुतः. तदा परलोकवार्तामिः त पूर्यता (1) पूर्णम् । कि लक्षणाभिः वेश्यामिः। रक्षिलासहशीभिः पूरैकरसमानचरिताभिः ॥ २४ ॥ मनु महो । अस्मिन् आवेटे । रताना बीवानाम् । अद्विरूप यत्पापम् इह लोके भवति तस्पाप केन वर्ण्यते । अधिकं पाप किमु न भवति । अप्ति तु बहुतर पाप भवति । अन्यत्र परजन्मनि कि पाप न भवति । अपि तु भवति । रसियाकेटे । मांसपिणाप्रोमाद मा सुगवनिता हरिमी अपि । बलम् अत्यर्थम् । वभ्या हन्सव्या। यह तो दूर रहे। किन्तु अधिक खेदकी बात तो यह है कि मार्गमें पड़े हुए उनके मुखमें कुत्ता मूत देता है और में उसे अतिशय मधुर बतलाकर पीते रहते हैं ॥ २२॥ मनमें अत्यन्त कुटिलताको धारण करनेवाली जो पापिष्ठ वेश्यायें मांसको खाती हैं, मद्यको पीती हैं, असत्य वचन बोलती हैं, केवल घनप्राप्तिके लिये ही कह करती है, धन और प्रतिष्ठा इन दोनोको ही नष्ट करती है, तथा बो पेल्मायें नीच पुरुषोंकी मी लारको पीती हैं उन वेश्याओंको छोड़कर दूसरा कोई नरक नहीं है, अर्थात् थे वेश्यायें नरकगतिप्राप्तिकी कारण हैं ॥ २३ ॥ जो वेश्यायें धोषीकी कपड़े धोनेकी शिलाके समान हैं तथा जिनका आचरण कुरोके कपालके समान है ऐसी वेश्याओंसे यदि संगति की जाती है तो फिर यहा परमयकी बातोंसे बस हो ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार घोबीके पत्थरपर अच्छे बुरे सब प्रकारके कपड़े पोये जाते हैं तथा जिस प्रकार एक ही कपालको अनेक कुत्ते खींचते हैं उसी प्रकार जिन वेश्याओंसे ऊंच और नीच सभी प्रकारके पुरुष सम्बन्ध रखते हैं उन वेश्याओंमें अनुरक्त रहनेसे इस भवमें धन और प्रतिष्ठाका नाश होता है तथा परभक्में नस्कादिका महान् कष्ट भोगना पड़ता है। अत एव इस भव और पर मैक्में आत्मकल्याणके चाहनेवाले सत्पुरुषोंको वेश्याव्यसनका परित्याग करना ही चाहिये ॥ २४ ॥ जो हरिणी दुःखदायक एक मात्र शरीररूप धनको धारण करती हुई वनमें रहती है, रक्षकके सम्बन्धसे रहित है अर्थात् जिसका कोई रक्षक नहीं है, प्रतिपाठोध्यम् । मका निपतिता। ५७ पूर्ण नास्ति। न कुबरकुकर। कुकर, ब अक्कार, परजन्मनि पाप। ८ पर। सरसा। ४मक अदनिश लालापानम् । मपि तु अई। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पश्चन्दि-पथिति [25:१२५ वभ्याल सापि यस्मिन् ननु मृगमितामांसपिडालोमात् आखेटे ऽस्मिन् रवानामिह किमु न किसम्पत्र बो यविरूपम् ॥ २५॥ 26) तनुरपि यदि लमा कीटिका स्यारीरे भवति तरलचक्षुाकुलो यः स लोका। कथमिह मृगयातानन्दमुखातलो मृगमकृतविकार शावालो ऽपि दन्ति ॥ २६ ॥ 27 ) यो येनैव हतः स हि दुशोहम्स्येव यैञ्चितो नूनं पश्यते स तानपि भृशं जम्मान्तरे ऽप्यत्र । स्त्रीबालादिजनादपि स्फुटमिदं शाबादपि सूयते निस्य पश्चनहिंसमोसनविधौ लोकार कुतो मुहात ॥२७॥ किलक्षणा मगर। या दुर्दैहै कविता दुर्देहम्मेव शरीरमेव वित्तं धनं यस्याः सा दुर्दे कविता । धुनः सिक्षणा मृगी । बनमधिवसति वन तिष्ठति । पुनः किलामा मृगी। प्रातृसंवन्धहीला रक्षारहिता । यस्यां मृगवनितायाम् । खभावात् मीतिर्मय स्तंते। पुनः किलक्षणा मनी । दशनकृततृणा दक्षनेषु त तृणं यया सा दक्षनभूततृणा । सा मृगी कस्यापि अपराध न करोति ॥ २५॥ यदि चेत् । सनुरपि समापिकीटिका पिपीलिका । शरीरे रूमा स्यात् तदा । यः अयं लोकः व्याकुल: तरलनाः पन्नल रष्टिः भवति स लोकः । इह जगति संसारे। उत्खातशत्रः नाशनः । मातविकार मृग कथं हन्ति । मृगया आखेटककृत्या आमानन्द प्राप्तानन्दं यथा स्वात्तबा। शाताखोऽपि लोकः अकृतविकारं भूर्ग इन्ति ॥ २६॥ यः कचित् । येन पुंसा पुरुषेण हतः । एव निश्वयेन हि यतः पुमान् । हन्तारं नरम् । बहुशः बहबारान् । इन्ति । यःमनुष्यः। यःकषित् । वचिता छविगतः । स पुमान् । तान् याकान् । अत्र कोके । शमत्यर्थम् । जन्मान्तरे परजन्मनि । बहुशः बहुवारान् । यस यते । इद मालाविजनात शाखादपि भयते । इति मत्ता। भो लोकाः निर्स सदा । बबनसिनोजानाविधौ । कुतो मापस जिसके स्वभावसे ही भय रहता है, तथा जो दातोंके मध्यमें तृणको धारण करती हुई अर्थात् घास खाती हुई किसीके अपराधको नहीं करती है। आश्चर्य है कि वह भी मृगकी स्त्री अर्थात् हरिणी मांसके पिण्डके लोभसे जिस मृगया व्यसनमें शिकारियोंके द्वारा मारी जाती है उस मृगया (शिकार) में अनुरक्त हुए जोंके इस लोकमें और परलोकमें कौनसा पाप नहीं होता है ! ॥ विशेषार्थ- यह एक प्राचीन पद्धति रही है कि जो शत्रु दांतोंके मध्य में तिनका दमाकर सामने आता था उसे वीर पुरुष विजित समझकर छोड़ देते थे, फिर उसके ऊपर वे शखप्रहार नहीं करते थे। किन्तु खेद इस बातका है कि शिकारी जन ऐसे भी निरपराध दीन मृग आदि प्राणियोंकर घात करते हैं जो घासका भक्षण करते हुए मुखमें तृण दबाये रहते हैं । यही भाव 'दशनधृतवृणा' इस पदसे अन्धकारके द्वारा यहां सूचित किया गया है ॥२५ ।। जब अपने शरीरमें छोटा-सा भी बीटी मादि कीड़ा लग जाता है तब वह मनुष्य व्याकुल होकर चपल नेत्रोंसे उसे इधर उधर ढूंढ़ता है। फिर वही मनुष्य अपने समान दूसरे प्राणियोंके दुःखका अनुभव करके मी शिकारसे प्राप्त होनेवाले आनन्दकी खोजमें कोधादि विकारोंसे रहित निरपराध मृग आदि प्राणियोंके ऊपर शस्त्र चल कर कैसे उनका वष करता है ! ।।२६ ॥ जो मनुष्य जिसके द्वारा मारा गया है वह मनुष्य अपने मारनेवाले उस मनुष्यको भी अनेकों वार मारता ही है। इसी प्रकार जो प्राणी जिन दूसरे लोगोंके द्वारा ठगा गया है वह निश्चयसे उन लोगोंको मी जम्मान्तरमें और इसी जन्ममें भी अवश्य ठगता है । यह बात स्त्री एवं नाला आदि जनसे तथा शास्त्रसे भी स्पष्टतया सुनी जाती है । फिर लोग हमेशा धोखादेही और हिंसाके छोड़नेमें ११ उखातदानः अकृतविकार। Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. -30:1-10] १. धमोपदेशामृतम् 28) अर्थादौ प्रभुरप्रपञ्चरखनैये पश्चयम्ते परान् नूनं ते मरकं ब्रजन्ति पुरतः पापवजादम्यतः । प्राणाः प्राणिषु तमियम्धनसया तिष्ठम्ति नरे धने यापान दुखमरो नरे म मरणे तावानिह प्रायशः॥ २८ ॥ 29 ) चिन्ताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशासिदाम क्षुदृष्णाहतिरोगदुःखमरणान्येताम्यहो आसताम् । याम्यत्रैष पराङ्गनाहितमतेस्तदूरि दु:खं चिर श्यो भाषि यदग्निदीपितवपुलौहासनालिङ्गनात् ॥ २९ ॥ 30) पिक सरपौरुषमासतामनुचितास्ता बुझ्यस्ते गुणाः मा भून्मित्रसहायसंपदपि सा तज्जन्म यातु भयम् । लोकानामिह येषु सरसु भवति व्यामोहमुशातित समे ऽपि स्थितिलानात्परधनस्लीषु प्रसक्तं मनः ॥ ३० ॥ wamannanovrwww... करमाम्मोहं पछत ॥ २७ ॥ ये नराः। भर्यादी विषये । प्रचुरप्रफश्वरचनः बहुलपाखण्डविशेषः रचनाविशेषः । परान लोकान् वमयन्ते । वे नराः । नून निक्षितम् । अन्यतः पापनजात् पापसमूहात् पुरतः नरकं ब्रजन्ति । प्राणिषु जीयेषु । प्राणाः । तनिबन्धनतया तस्य व्यस्ये साधारत्वेन तिष्ठन्ति । इह लोके संसारे । नरे मनुष्ये। थावान्दुःखमरः धने नष्टे सति प्रायशः बाहुल्येन भवति तावान्दुःसमरः भरणे न भवति ॥ २८॥ अहो इत्याचमें। पराशनाहिसमतेः पुरुषस्य पराउनासु आहिता मतिन स तस्य पराजनहितमतेः । एतानि दुःसानि । आसतां तिष्ठन्तु । तान्येव दर्शयति । चिन्ताव्याकुलताभयारतिमतिभ्रंशातिदाइभ्रमशुभाइविरोगदुःखमरणानि । एतानि दुःसानि आसतो पूरे तिछन्तु । यानि एतानि । अत्रैव जन्मनि भवन्ति । परजन्ममि भने नरके । पिरं चिरकालम् । तदति दुभाषि यद् दुःखम् अप्रिवीपितवपुलोंहासनालिजनात् भवति ॥ २९ ॥ तत्पौवर्ष धिक् । ता युदयः मनुविताः अयोम्याः। ते मुणाः आसतो दूरे तिष्ठन्तु । सा मित्रसहायसंपत् मा भूत् । तजन्म क्षयं यातु । येषु पौरुषादिधनेषु सत्सु विद्यमानेषु। इद्द संसारे। लोकाना मनः खमेऽपि परधन-श्रीषु । प्रसत्तम् आसकं भवति । कस्मात् । स्पितिलनात् । किलक्षणं ममः । व्यामोहमुद्रादितम् ॥ ३० ॥ इह लोके । इति अमुना प्रकारेण । हठात् । एकैकव्यसनाहताः एक क्यों मोहको प्राप्त होते हैं! अर्थात् उन्हें मोहको छोड़कर हिंसा और परवंचनका परित्याग सदाके लिये अवश्य कर देना चाहिये ॥ २७ ॥ जो मनुष्य धन आदिके कमानेमें अनेक प्रपंचोंको रचकर दूसरोंको उगा करते हैं वे निश्चयसे उस पापके प्रभावसे दूसरोंके सामने ही नरकमें जाते हैं। कारण यह कि प्राणियों में प्राण धनके निमित्तसे ही ठहरते हैं, धनके नष्ट हो जानेपर मनुष्यको जितना अधिक दुःख होता है उतना प्रायः उसे मरते समय भी नहीं होता ॥ २८ ॥ परस्त्रीमें अनुरागबुद्धि रखनेवाले व्यक्तिको जो इसी जन्ममें चिन्ता, आकुलता, भय, द्वेषभाव, बुद्धिका विनाश, अत्यन्त संताप, प्रान्ति, भूख, प्यास, आघात, रोगदेवना और मरण रूप दुःख प्राप्त होते हैं; ये तो दूर रहें। किन्तु परस्त्रीसेवनजनित पापके प्रभावसे जन्मान्तरमें नरकगतिके प्राप्त होनेपर अमिमें तपायी हुई लोहमय नियोंके आलिंगनसे जो चिरकाल तक बहुत दुःख प्राप्त होनेवाला है उसकी ओर भी उसका ध्यान नहीं जाता, यह कितने आश्चर्यकी बात है ॥ २९ ॥ बिस पौरुष आदिके होनेपर लोगोंका व्यामोहको प्राप्त हुआ मन मर्यादाका उलंघन करके स्वप्नमें भी परधन एवं परस्त्रियोंमें आसक होता है उस पौरुषको विकार है, वे अयोग्य विचार और वे अयोग्य गुण दूर ही रहें, ऐसे मित्रोंकी सहायता रूप सम्पत्ति मी न माप्त हो, तथा बह जन्म मी नाशको प्राप्त हो जाय । रतस्य तद्रव्यस। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि-पश्चविंशतिः [31:१-३१31) पूताधर्मसुतः पलादिह वको मद्याचदोन्धनाः चामा कामुकया मृगानाकसया स प्रादचो नृपः। धौर्यस्वाच्छिवभूतिरम्यवनितादोषाशास्यो हठात् एफैकण्यसनाहता इति जना सधैर्न को नश्यति ॥ ३१ ॥ एकल्पसनेन पीडिताः जनाः कु:खिता जाताः । सबैयसमैः कः पुमान् म मश्यति । अपि तु नश्यति । तात् धर्मसुतः युधिष्ठरः नष्टः । पलात् मासाद बको नाम राजा नष्टः । मद्यारहरापानात् यवोः जन्दनाः नष्टयः । चारः चारुदतः कामुक्या बेश्यया मतः । स ब्रह्मदत्तः नृपः मृगान्तकतया आहेटककृत्या नष्टः । चौर्यत्वात् शिवभूतिमिणः नष्टः । अन्यवनितादोषात् परखीसतात पशायः रावणः नष्टः । तत्र सबै व्यसनैः कान मश्यति ॥ ३१ ॥ पर केवलम् । व्यसनानि इयन्ति म भवन्ति । अपराध्यपि अभिप्राय यह है कि यदि उपर्युक्त सामग्रीक होनेपर लोगोंका मन लोकमर्यादाको छोड़कर परधन और परस्त्रीमें आसक्त होता है तो वह सब सामग्री धिक्कारके योग्य है ॥ ३० ॥ यहां जुआसे युधिष्ठिर, मांससे अक राजा, मथसे यादव जन, वेश्यासेवनसे चारुलत, मृगोंके विनाश रूप शिफारसे अभवत्त राजा, चोरीसे शिवभूति प्रामण तथा परदोषस राक्षण; इस प्रकार एक एक व्यसनके सेवनसे ये सातों जन महान् कष्टको प्राप्त हुए हैं। फिर भला जो समी व्यसनोंका सेवन करता है उसका विनाश स्यों न होगा.? अवश्य होगा। विशेषार्थ - 'यत् पुंसः श्रेयसः व्यस्पति तत् व्यसनम्' अर्थात् जो पुरुषोंको कल्याणके मार्गसे प्रष्ट करके दुःखको प्राप्त कराता है उसे व्यसन कहा जाता है। ऐसे व्यसन मुख्य रूपसे सात हैं। उनका वर्णन पूर्वमें किया जा चुका है। इनमेसे केवल एक एक व्यसनमें ही तत्पर रहनेसे जिन युधिष्ठिर आदिने महान् कष्ट पाया है उनके नामोंका निर्देश मात्र यहां किया गया है। संक्षेपमें उनके कथानक इस प्रकार है। १ युधिष्ठिरहस्तिनापुरमें धृतराज नामका एक प्रसिद्ध राजा था। उसके अम्बिका, अम्बालिका और अम्बा नामकी तीन रानियां थीं। इनमेंसे. अम्बिकासे धृतराष्ट्र, अम्बालिकासे पाण्डु और अम्बासे विदुर उत्पन्न हुए थे। इनमें घृतराष्ट्रके दुर्योधन आदि सौ पुत्र तथा पाण्डके युधिष्ठिर, अर्जुन, मीम, नकुल और सहदेव नामक पांच पुत्र थे । पाण्डु राजाके स्वर्गस्य होनेपर फौरवों और पाण्डयोंमें राज्यके निमित्से परस्पर विवाद होने लगा था। एक समय युधिष्ठिर दुर्योधन के साथ द्यूतक्रीया करने में उधत हुए। वे उसमें समस्त सम्पत्ति हार गये । अन्तमें उन्होंने द्रौपदी आदिको भी वायपर रख दिया और दुर्योधनने इन्हें भी जीत लिया। इससे द्रौपदीको अपमानित होना पड़ा तथा कुन्ती और द्रौपदीके साथ पांचों भाइयोंको बारह वर्ष तक बनवास भी करना पड़ा। इसके अतिरिक्त उन्हें धूतव्यसनके निमित्से और भी अनेक दुःख सहने पड़े। २ पकराजा-कुञ्यामपुरमें भूपाल नामका एक राजा था। उसकी पत्नीका नाम लक्ष्मीमती था। इनके बक नामका एक पुत्र था जो मांसभक्षणका बहुत लोलुपी था । राजा प्रतिवर्ष अष्टाझिक पर्वके प्राप्त होनेपर जीवहिंसा न. करनेकी घोषणा कराता था । उसने मांसमक्षी अपने पुत्रकी प्रार्थनापर केवल एक प्राणीको हिंसाकी छूट देकर उसे मी द्वितीयादि प्राणियोंकी हिंसा न करनेका नियम कराया था। तदनुसार ही उसने अपनी प्रवृत्ति चालू कर रखी थी। एक समय रसोइया मांसको रखकर कार्यवश कहीं बाहर चला गया था। इसी बीच एक बिल्ली उस मांसको खा गई थी। रसोइयेको इससे बड़ी चिन्ता हुई । वह व्याकुल होकर मांसकी खोजमें नगरसे बाहिर गया। उसने एक मृत बालकको जमीनमें गाढ़ते हुए देखा | अवसर पाकर वह उसे निकाल लाया और उसका मांस पकाकर थक राजकुमारको खिला दिया । उस दिनका मांस उसे बहुत स्वादिष्ट लगा। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -31:१-३१] १. धर्मोपदेशामृतम् स्कने जिस किसी प्रकार रसोइयेसे यथार्थ स्थिति जान ली। उसने प्रतिदिन इसी प्रकारका मांस सिलानेके लिये रसोइएको बाध्य किया। वेचारा रसोइया प्रतिदिन चना एवं लड् आदि लेकर जाता और किसी एक बालकको फुसला कर ले आता । इससे नगरमें बच्चोंकी कमी होने लगी। पुरवासी इससे बहुत चिन्तित हो रहे थे । आखिर एक दिन वह रसोइया बालकके साथ पकड़ लिया गया । लोगोंने उसे लात-घूसोंसे मारना शुरु कर दिया। इससे धबड़ा कर उसने यथार्थ स्थिति प्रगट कर दी। इसी बीच पिताके दीक्षित हो आनेपर बकको राज्यकी मी प्राप्ति हो चुकी थी। पुरवासियोंने मिलकर उसे राज्यसे भ्रष्ट कर दिया । वह नगरसे बाहिर रहकर मृत मनुष्यों के शवोंको खाने लगा ! जब कभी उसे यदि जीवित मनुष्य भी मिलता तो वह उसे मी वा जाता था । लोग उसे राक्षस कहने लगे थे । अन्तमें वह किसी प्रकार वसुदेवके द्वारा मारा गया था । उसे मांसभक्षण व्यसनसे इस प्रकार दुःख सहना पड़ा । ३ यादवकिसी समय भगवान् नेमि जिनका समवसरण गिरनार पर्वत आया था । उस समय अनेक पुरवासी उनकी वंदना करने और उपदेश श्रवण करनके लिये गिरनार पर्वतपर पहुंचे थे । धर्मश्रवणके अन्तमें बलदेवने पूछा कि भगवन् ! यह द्वारिकापुरी कुबेरके द्वारा निर्मित की गई है । उसका विनाश कब और किस प्रकारसे होगा ! उत्तरमें भगवान् नेमि जिन बोले कि यह पुरी मद्यके निमित्तसे बारह वर्षमै द्वीपायनकुमारके द्वारा भस की जावेगी । यह सुनकर रोहिणीका भाई द्वीपायनकुमार दीक्षित हो गया और इस अवधिको पूर्ण करनेके लिये पूर्व देशमें जाकर तप करने लगा । तत्पश्चात् वह द्वीपायनकुमार प्रान्तिवश 'अब बारह वर्ष बीत चुके' ऐसा समझकर फिरसे वापिस आगया और द्वारिकाके बाहिर पर्वतके निकट ध्यान करने लगा। इधर जिनवचनके अनुसार मद्यको द्वारिकादाहका कारण समझकर कृष्णने प्रजाको मद्य और उसकी साधनसामग्रीको भी दूर फेक देनेका आदेश दिया था । तदनुसार मद्यपायी जनोंने मद्य और उसके साधनोंको कादम्ब पर्वतके पास एक गड्डेमें फेक दिया था । इसी समय शंब आदि राजकुमार वनक्रीड़ाके लिये उधर गये थे । उन लोगोंने प्याससे पीड़ित होकर पूर्वनिक्षिप्त उस मद्यको पानी समझकर पी लिया । इससे उन्मत्त होकर वे नाचते गाते हुए द्वारिकाकी ओर वापिस आरहे थे। उन्होंने मार्गमें द्वीपायन मुनिको स्थित देखकर और उन्हें द्वारिकादाहक समझफर उनके ऊपर पत्थरों की वर्षा आरम्भ की, जिससे क्रोधवश मरणको प्राप्त होकर वे अमिकुमार देव हुए । उसने चारों ओरसे द्वारिकापुरीको अमिसे प्रज्वलित कर दिया । इस दुर्घटनामें कृष्णा और बलदेवको छोड़कर अन्य कोई भी प्राणी जीवित नहीं बच सका । यह सब मद्यपानके ही दोषसे हुआ था । ४ चारुदत्त-चम्पापुरीमें एक भानुदत्त नामके सेठ थे । उनकी पनीका नाम सुभद्रा था । इन दोनोंकी यौवन अवस्था विना पुत्रके ही व्यतीत हुई । तत्पश्चात् उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम चारुदत्त रखा गया । उसे बाल्य कालमें ही अणुव्रत दीक्षा दिलायी गयी थी। उसका विवाह मामा सर्वार्थकी पुत्री मित्रवतीके साथ सम्पन्न हुआ था । चारुदत्तको शास्त्रका व्यसन था, इसलिये पनीके प्रति उसका किंचित् भी अनुराग न था । चारुदत्तकी माताने उसे काममोगमें आसक्त करने के लिये रुद्रदत्त ( चारुदत्तके चाचा) को प्रेरित किया । वह किसी बहानेसे चारुदत्तको कलिंगसेना वेश्याके यहां ले गया । उसके एक वसन्तसेना नामकी सुन्दर पुत्री थी। चारुदत्तको उसके प्रति प्रेम हो गया । उसमें अनुरक्त होनेसे कलिंगसेनाने वसन्तसेनाके साथ चारुदत्तका पाणिग्रहण कर दिया था । वह वसन्तसेनाके यहां बारह वर्ष रहा । Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनवन्दि-याविंशतिः [18-३१ उसमें अत्यन्त आसक्त होनेसे जब चारुदत्तने कमी माता, पिता एवं पत्रीका भी सरम नहीं किया तब मला अन्य कार्यके विषयमें क्या कहा जा सकता है। इस बीच कलिंगसेनाके यहां चारुदत्तके घरसे सोलह करोड़ दीनारें आचुकी थी । तत्पश्चात् जब कलिंगसेनाने मित्रवतीके आभूषणोंको भी आते देखा तब उसने वसन्तसेनासे धनसे हीन चारुवत्तको अलग कर देनेके लिये कहा । माताके इन बचनोंको सुनकर वसन्तसेनाको अत्यन्त दुःख हुआ । उसने कहा हे माता। चारुदत्तको छोड़कर - मैं कुबेर जैसे सम्पत्तिशाली भी अन्य पुरुषको नहीं चाहती । माताने पुत्रीके दुराग्रहको देखकर उपायान्तरसे चारुदतको अपने घरसे निकाल दिया। तत्पश्चात् उसने घर पहुंचकर दुःखसे कालयापन करनेवाली माता और पतीको देखा । उनको आश्वासन देकर चारुदत धनोपार्जनके लिये देशान्तर चला गया । वह अनेक देशों और द्वीपोंमें गया, परन्तु सर्वत्र उसे महान् कष्टोंका सामना करना पड़ा । अन्तमें यह पूर्वोफ्कृत दो देवोकी सहायतासे महा वितिके साथ चम्पापुरी में बापिस आ गया । उसने वसन्तसेनाको अपने घर बुला लिया । पश्चात् मित्रवती एवं वसन्तसेना आदिके साथ सुखपूर्वक कुछ काल विताकर चारुदल्ने जिनदीक्षा लेली । इस प्रकार तपश्चरण करते हुए यह मरणको प्राप्त होकर सर्वार्थसिद्धिमें देव उत्पन्न हुआ । जिस वेश्याव्यसनके कारण चालतको अनेक कष्ट सहने पड़े उसे विवेकी जनोंको सदाके लिये ही छोड़ देना चाहिये। ५अादरउज्जयिनी नगरीमें एक ब्रह्मदत्त नामका राजा था । वह मृगया (शिकार) व्यसनमें अत्यन्त आसक्त था । किसी समय वह मृगयाके लिये बनमें गया था। उसने वहां एक शिस्त्रातलमर ज्यानावसित मुनिको देखा । इससे उसका मृगया कार्य निष्फल हो गया । वह दूसरे दिन मी उत्त वनमें मृगयाके निमित्त गया, किन्तु मुनिके प्रभावसे फिर भी उसे इस कार्यमें सफलता नहीं मिली । इस प्रकार वह कितने ही दिन यहां गया, किन्तु उसे इस कार्यमें सफलता नहीं मिल सकी । इससे उसे मुनिके ऊपर अतिशय क्रोध उत्पन्न हुआ । किसी एक दिन जब मुनि आहारके लिये नगरमें गये हुए थे। तब अक्षावरने अवसर पाफर उस शिलाको अमिसे प्रज्वलित कर दिया। इसी बीच मुनिराज भी वहां वापिस आ गये और शीघ्रतासे उसी जलती हुई शिलाके अपर बैठ गये। उन्होंने ध्यानको नहीं छोड़ा, इससे उन्हें केवलज्ञानकी प्राप्ति हुई । वे अन्तःकृत् केवली होकर मुक्तिको प्राप्त हुए । इधर ब्रह्मवत राजा मृगया व्यसन एवं मुनिप्रद्धेषके कारण सातवें नस्कमें नारकी उत्पन्न हुआ। तत्पश्चात् बीच बीचमें कर हिंसक तियेच होकर कमसे छठे और पांचवें आदि शेष नरकोंमें भी गया । मृगया व्यसनमें आसक्त होनेसे प्राणियोंको ऐसे ही भयानक कष्ट सहने पड़ते हैं । ६ शिवभूति -- बनारस नगरमें राजा जयसिंह राज्य करता था । रानीका नाम जयावती था । इस राजाके एक शिवभूति नामका पुरोहित था जो अपनी सत्यवादिताके कारण पृथिवीपर 'सत्मशेषा इस नामसे प्रसिद्ध हो गया था । उसने अपने यज्ञोपवीतमें एक छुरी बांध रक्सी थी । वह कहा करता था कि यदि मैं कदाचित् असत्य बोलं तो इस कुरीसे अपनी बिहा काट डालंगा । इस विश्वाससे बहुतसे लोग इसके पास सुरक्षार्थ अपना धन रखा करते थे। किसी एक दिन पसपुरसे एक धनपाल नामा सेठ आर्या और इसके पास अपने वेसकीमती चार रन रखकर व्यापारार्थ देशान्तर चला गया। वह बारह वर्ष विदेशमें रहकर और बहुत-सा धन कमाकर वापिस आ रहा था। मार्गमें उसकी नाव डूब गई और सब धन नह हो गया। इस प्रकार वह धनहीन होकर बनारस वापिस पहुंचा। उसने शिवभूति पुरोहितसे अपने पार Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -31:१-३१] १. धर्मोपदेशामृतम् AawanwwwnnMAHANA रत्न वापस मांगे। पुरोहितने पागल बतलाकर उसे घरसे बाहिर निकलवा दिया । पागल समझकर ही उसकी बात राजा आदि किसीने भी नहीं सुनी। एक दिन रानीने उसकी बात सुननेके लिये राजासे आग्रह किया । राजाने उसे पागल बतलाया जिसे सुनकर रानीने कहा कि पागल वह नहीं है, किन्तु तुम ही हो। तत्पश्चात् राजाकी आज्ञानुसार रानीने इसके लिये कुछ उपाय सोचा । उसने पुरोहितके साथ जुवा खेलते हुए उसकी मुद्रिका और छुरीयुक्त यज्ञोपवीत भी जीत लिया, जिसे प्रत्यभिज्ञानार्थ पुरोहितकी स्लीके पास भेजकर वे चारों रख मंगा लिये । राजाको शिवभूतिके इस व्यवहारसे बड़ा दुख हुआ । राजाने उसे गोबरभक्षण, मुष्टिपात अथवा निज द्रव्य समर्पण से किसी एक दण्डको सहनेके लिये बाध्य किया । तदनुसार वह गोवरभक्षण के लिये उद्यत हुआ, किन्तु खा नहीं सका । अत एव उसने मुष्टिधात (धूंसा मारना) की इच्छा प्रगट की । तदनुसार मल्लों द्वारा मुष्टिधात किये जानेपर वह मर गया और राजाके भाण्डागारमें सर्प हुआ । इस प्रकार उसे चोरी व्यसनके वश यह कष्ट सहना पड़ा । ७ रावण- किसी समय अयोध्या नगरीमें राजा दशरथ राज्य करते थे। उनके ये चार पलियां थी- कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी और सुप्रभा । इनके यथाक्रमसे ये चार पुत्र उत्पन्न हुए थे-- रामचन्द्र, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न । एक दिन राजा दशरथको अपना माल सफेद दिखायी दिया । इससे उन्हें बड़ा बैराग्य हुआ । उन्होंने रामचन्द्रको राज्य देकर जिनदीक्षा ग्रहण करनेका निश्चय किया । पिताके साथ भरतके मी दीक्षित हो जानेका विचार ज्ञात कर उसकी माता कैकेयी बहुत दुखी हुई । उसने इसका एक उपाय सोचकर राजा दशरथसे पूर्वमें दिया गया वर मांगा । राजाकी खीकृति पाकर उसने भरतके लिये राज्य देनेकी इच्छा प्रगट की । राजा विचारमें पड़ गये। उन्हें खेदलित देखकर रामचन्द्रने मंत्रियोंसे इसका कारण पूछा और उनसे उपर्युक्त समाचार सातकर स्वयं ही भरतके लिये प्रसन्नतापूर्वक राज्यतिलक कर दिया। तत्पश्चात् 'मेरे यहां रहनेपर भरतकी प्रतिष्ठा न रह सकेगी' इस विचारसे वे सीता और लक्ष्मणके साथ अयोध्यासे आहिर चले गये । इस प्रकार जाते हुए वे दण्डक बनके मध्यमें पहुंच कर वहां ठहर गये । यहाँ वनकी शोभा देखते हुए लक्ष्मण इधर उधर घूम रहे थे। उन्हें एक बांसों के समूहमें लटकता हुए एक खड्ग (चन्द्रहास ) दिखायी दिया। उन्होंने लपककर उसे हाथमें ले लिया और परीक्षणार्थ उसी बांससमूहमें चला दिया । इससे बांससमूहके साथ उसके मीतर बैठे हुए शम्बूककुमारका शिर कटकर अलग हो गया । यह शम्बूककुमार ही उसे यहां बैठकर बारह वर्षसे सिद्ध कर रहा था । इस घटनाके कुछ ही समयके पश्चात् खरदूषणकी पत्नी और शम्बूककी माता सूर्पनला वहां आ पहुंची । पुत्रकी इस दुरवस्थाको देखकर वह विलाप करती हुई इधर उधर शत्रुकी खोज करने लगी। वह कुछ ही दूर रामचन्द्र और लक्ष्मणको देखकर उनके रूपपर मोहित हो गयी । उसने इसके लिये दोनोंसे प्रार्थना की । किन्तु अब दोनोंमेंसे किसीने भी उसे स्वीकार न किया तब वह अपने शरीरको विकृत कर खरदूषणके पास पहुंची और उसे युद्ध के लिये उत्तेजित किया । खरदूषण भी अपने साले रावणको इसकी सूचना करा कर युद्धके लिये चल पड़ा । सेनासहित खरदूषणको आता देखकर लक्ष्मण भी युद्धके चल दिया । वह जाते समय रामचन्द्रसे यह कहता गया कि यदि मैं विपत्तिमस्त होकर सिंहनाद करूं तभी आप मेरी सहायताके लिए आना, अन्यथा यही खित रहकर सीताकी रक्षा करना । इसी बीच पुष्पक विमानमें आरूढ होकर रावण भी खरदूषणकी सहायतार्थ लंकासे इधर आरहा था । वह यहां सीताको बैठी देखकर उसके सफ्पर मोहित हो पान.३ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मनन्द- पञ्चविंशति 32 ) न परमियति भवन्ति व्यसनाम्यपराण्यपि प्रभूतानि । त्यक्त्वा सत्पथमपथप्रवृत्तयः क्षुद्रबुद्धीनाम् ॥ ३२ ॥ 98) सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथाः स्वर्गापवर्गलाः पर्वतेषु विषमाः संसारिणां रात्रयः । प्रारम्भे मधुरेषु पाककतुकेष्येतेषु सखीधनैः कर्तव्या न मतिर्मनागपि हितं वाञ्छद्भिरत्रात्मनः ॥ ३३ ॥ वाणि [ 8४:१-३२ I प्रभूतानि उत्पन्नानि भवन्ति । ये अपप्रवृत्तमः कुमार्गे गमनशीलाः सत्पर्य त्यत्वा अपये चलन्ति तेषां दबुद्धीनां बहूनि व्यसनानि सन्ति ॥ ३२ ॥ सर्वाणि व्यसनानि दुर्गतिपथाः सन्ति । स्वर्गगमने अपवर्ग -मोक्षगमने अर्गलाः । पुनः व्रतपतेषु बज्राणि सन्ति । पुनः किंक्षा यसमानि । संसारिणां जीवानां विषमाः कठिनाः शत्रवः वर्तन्ते । एतेषु निन्धव्यसनेषु । सद्धीधनैः विवेकिभिः । मनागपि मतिर्न कर्तव्या । विलक्षणेषु व्यसनेषु प्रारम्मे मधुरेषु पाककटुकेषु किंलक्षणेः सद्धीधनैः । भत्र जगति भात्ममः गया और उसके हरणका उपाय सोचने लगा । उसने विद्याविशेषसे ज्ञात करके कुछ दूरसे सिंहनाद किया । इससे रामचन्द्र लक्ष्मणको आपरिप्रस्त समझकर उसकी सहायतार्थ चले गये । इस प्रकार रावण अवसर पाकर सीताको हरकर ले गया । इधर लक्ष्मण खरदूषणको मारकर युद्धमें विजय प्राप्त कर चुका था । वह अकस्मात् रामचन्द्रको इधर आते देखकर बहुत चिन्तित हुआ । उसने तुरन्त ही रामचन्द्रको वापिस जाने के लिये कहा । उन्हें वापिस पहुंचने पर वहां सीता दिखायी नहीं दी । इससे वे बहुत व्याकुल हुए । थोड़ी देरके पश्चात् लक्ष्मण भी वहां आ पहुंचा । उस समय उनका परिचय सुग्रीव आदि विद्याधरोंसे हुआ । जिस किसी प्रकारसे हनुमान लंका जा पहुंचा। उसने वहां रावणके उद्यानमें स्थित सीताको अत्यन्त व्याकुल देखकर सान्त्वना दी और शीघ्र ही वापिस आकर रामचन्द्रको समस्त वृत्तान्त कह सुनाया । अन्तमें युद्धकी तैयारी करके रामचन्द्र सेनासहित लंका जा पहुंचे ! उन्होंने सीताको वापिस देनेके लिये रावणको बहुत समझाया, किन्तु वह सीताको वापिस करनेके लिये तैयार नहीं हुआ । उसे इस प्रकार परस्त्रीमें आसक्त देखकर स्वयं उसका भाई विभीषण भी उससे रुष्ट होकर रामचन्द्रकी सेनामें आ मिला । अन्तमें दोनोमें घमासान युद्ध हुआ, जिसमें रावणके अनेक कुटुम्बी जन और स्वयं वह भी मारा गया । परस्त्रीमोहसे रावणकी बुद्धि नष्ट हो गई थी, इसीलिये उसे दूसरे हितैषी बनोंके प्रिय वचन भी अप्रिय ही प्रतीत हुए और अन्तमें उसे इस प्रकारका दुःख सहना पड़ा || ३१ || केवल इतने (सात) ही व्यसन नहीं हैं, किन्तु दूसरे मी बहुत-से व्यसन हैं । कारण कि अल्पमति पुरुष समीचीन मार्गको छोड़कर कुत्सित मार्ग में प्रवृत्त हुआ करते हैं ॥ विशेषार्थ - जो असत्प्रवृतियां मनुष्यको सन्मार्गसे भ्रष्ट करती हैं उनका नाम व्यसन है । ऐसे व्यसन बहुत हो सकते हैं। उनकी वह सात संख्या स्थूल रूपसे ही निर्धारित की गई है। कारण कि मन्दबुद्धि जन सन्मार्गसे च्युत होकर विविध रीतियोंसे कुमार्गमें प्रवृत्त होते हैं। उनकी ये सब प्रवृत्तियां व्यसनके ही अन्तर्गत हैं । अत एव व्यसनों की यह सात (७) संख्या स्थूल रूपसे ही समझनी चाहिये ||३२|| सभी व्यसन नरकादि दुर्गतियोंके कारण होते हुए स्वर्ग और मोक्षकी प्राप्तिमें अर्गला ( बेड़ा ) के समान हैं, इसके अतिरिक्त ये व्रतरूपी पर्वतों को नष्ट करने के लिये वज्र जैसे होकर संसारी प्राणियोंके लिये दुर्दम शत्रुके समान ही हैं। ये व्यसन यद्यपि प्रारम्भमें मिष्ट प्रतीत होते हैं, परन्तु परिणाम में वे कटुक ही हैं। इसीलिये यहां आत्महितकी इच्छा रखनेवाले बुद्धिमान् पुरुषोंको इन व्यसनों में जरा भी बुद्धि नहीं करनी चाहिये ॥ ३३ ॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -37:१-३५ 1. पपपेशामुक्त 84) मिथ्यादृशां विसरशी च पथच्युतानां मायाविना व्यसनिना च खलास्मनां च । संगं विमुञ्चत युधाः कुसोत्तमानां गन्तुं मतियदि समुन्नतमार्ग एवं ॥ ३४ ॥ 35) सिग्धैरपि मजत मा सह संगमेभिर क्षुदैः कदाचिदपि पश्यत सर्वपाप्याम् । बेहोऽपि संगतिकता लताश्रितानां लोकस्य पातयति निधितमक्षु नेत्रान् ॥ ३५ ।। 36) कलावेकः साधुर्भवसि कथमप्यत्र भुवने स चाम्रातः क्षुद्रः कथमकरुणैर्जीयति चिरम् । अतिग्रीष्मे शुष्यत्सरसि पिचरयचचरतां बकोटानामने तरलशफरी गच्छति कियत् ॥ ३६ ॥ 37 ) यह रमनुभूतं भूरि दारिधःखं घरमतिषिकराले कालषको प्रवेश। __ भवतु यरमितोऽपिलेशजाळं विशाल न च खलजनयोगाजीवितं वा धनं पा ॥३७॥ हित पाशिः हिततिबाच्छकैः ॥ ३३॥ भो बुधाः भो गण्डिताः । यदि चेत् । उनतमार्गे एक निश्चयेन गन्तु मतिरस्ति तदा मिथ्याशा संग चिमुच्चत । विसदृशा विपरीतानां संग बिमुघत । चकारप्रणात् पचरयुताना संग विमुञ्चत। व्यसनिना संगै विमुश्वत । मायाविना संग बिमुन्नत । खलास्मना संग विमुम्चत । मो जनाः उत्तमान संग कुरुत॥३४॥ भो बुधाः। एमिः शुरैः सह कदाचिदपि संग मा व्रजत । किलक्षणैः औः । निग्रैरपि बेइयुकेरपि । भो भव्याः । पश्यत । खलताश्रिताना सर्पपाणां बहोऽपि संगतिकृतः निश्चितं लोकस्य नेत्रादश्रु पातयति ॥ ३५॥ अत्र भुवने संसारे । कली पासमकाले । कथमपि एकः साधुर्भवति । स च साधुः । दैः आघ्रातः पीडितः । चिरं चिरकाल कथं जीवति । किलक्षणैः खः। अकरणैः दयारहितः । अतिप्रीष्मे ज्येष्ठावाडे [ज्येष्ठापाठयोः] । शुष्यत्सरसि शुष्कसरोवरे । बकोटानां बकानाम् अग्ने। तरलशफरी चलमत्सिका। कियद दूरे गच्छति । किलक्षणाना पकानाम् । विवरवधुबरताम् ॥३॥ इह संसारे। भूरिदाखियकुःखम् अनुभूतम् । वर श्रेष्ठम् । अतिविकराले अतिरहे । कालनको कालमुम्खे। प्रदेशः बरे शुभम् । इचः संसारात् । विशाल शिजाल भवत वरम्। यदि उत्तम मार्गमें ही गमन करनेकी अभिलाषा है तो बुद्धिमान पुरुषोंका यह आवश्यक कर्तव्य है कि वे मिध्यादृष्टियों, विसदृशों अर्थात् विरुद्ध धर्मानुयायियों, सन्मार्गसे प्रष्ट हुए, मायाचारियों, व्यसनानुरागियों तथा दुष्ट जनोंकी संगतिको छोड़कर उत्तम पुरुषोंका सत्संग करें ॥ ३४ ॥ उपर्युक्त मिथ्याइष्टि आदि क्षुद्र जन यदि अपने खेही भी हों तो भी उनकी संगति कभी भी न करना चाहिये । देखो, खलता ( तेल निकल जानेपर प्राप्त होनेवाली सरसोंकी खल भागरूप अवस्था, दूसरे पक्षमें दुष्टता) के आश्रित हुए क्षुद्र सरसोंके दानोंका खेह (तेल) भी संगतिको प्राप्त होकर निश्चयतः लोगों के नेत्रोंसे अक्षुओंको गिराता है ।। विशेषार्थजिस प्रकार छोटे भी सरसोंके दानोंसे उत्पन्न हुए मेह (तेल) के संयोगसे उसकी तीक्ष्णताके कारण मनुष्यकी आँखों से आंसू निकलने लगते हैं उसी प्रकार उपर्युक्त क्षुद्र मिथ्यादृष्टि आदि दुष्ट पुरुषोंके मेह (प्रेम, संगति) से होनेवाले ऐहिक एवं पारलौकिक दुखका अनुभव करनेवाले प्राणीकी भी आंखोंसे पश्चात्तापके कारण आंसू निकलने लाते हैं। अत एव आत्महितैषी जनोंको ऐसे दुष्ट जनोंकी संगतिका परित्याग करना ही चाहिये ॥ ३५ ॥ इस लोकमै कलिकालके प्रभावसे बड़ी कठिनाईमें एक आध ही साधु होता है । वह भी जब निर्दय दुष्ट पुरुषों के द्वारा सताया जाता है तब भला कैसे चिरकाल जीवित रह सकता है ! अर्थात् नहीं रह सकता । ठीक ही है-जब तीक्ष्ण श्रीष्मकालमें तालाबका पानी सूखने लगता है तम चोंचको हिलाकर चलनेवाले बगुलोंके आगे चंचल मछली कितनी देर तक चल सकती है। अर्थात् बहुत अधिक समय तक वह चल नहीं सकती, किन्तु उनके द्वारा मारकर खायी ही जाती है ॥ ३६ ॥ संसारमें निर्धनताके भारी दुखका अनुभव करना कहीं अच्छा है, इसी प्रकार अत्यन्त भयानक मृत्युके मुखमें प्रवेश करना भी कहीं अच्छ है, इसके अतिरिक्त यदि यहा और भी अतिशय कट प्राप्त होता है तो मह भी भले हो; परन्तु दुष्ट जनोंके सम्बन्धसे जीवित Ruleli Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० पद्मनन्दि - पञ्चविंशतिः 88 ) आचारो दशधर्मसंयमतपोमूलोतराच्या गुणाः मिथ्यामोहमादोजानं शमदमध्यानाप्रमादस्थितिः । वैराग्यं समयोंणा रनत्रयं निर्मल पर्यन्ते च समाधिरक्षयपदानन्दाय धर्मो यतेः ॥ ३८ ॥ 39) एवं शुद्धं प्रविधाय चिद्गुणमयं भ्रन्स्याणुमात्रे ऽपि यत् संबन्धाय मतिः परे भवति सन्धाय मूढात्मनः । वस्मास्याज्यमशेषमेष महतामेतच्छरीरादिकं तादिविनादियुक्ति इदं सरयागकर्म व्रतम् ॥ ३१ ॥ [ 38 : १-३८ व पुनः । खसजनयोगात् दुष्टजनसंयोगात् । जीवितं वा धनं वा न वरं न श्रेष्ठम् ॥ ३७ ॥ इति गृहिधर्मप्रकरणं समाप्तम् ॥॥ यः मुनीश्वरस्म धर्मः अक्षयपदानन्दाय भवति मोक्षाय भवति । तमेव धर्म दर्शयति । आचारो धर्माय भवति । दशधर्मसंयम- तपोमूलोतराख्याः गुणाः धर्माय भवन्ति । आचारस्तु पचप्रकारः ज्ञानाचारः दर्शनाचारः चारित्राचारः तपा[] प ]चारः श्रीर्माचारः । धर्मः दशभेदः दशलाक्षणिकः' । संयमस्तु द्वादशभेवकः । तपस्तु द्वादशभेदकम्। मूलगुणास्तु अष्टाविंशतयः [ विंशतिः ] । उत्तरगुणास्तु महकः सन्ति । सर्वे पूर्वोक्ताः गुणाः धर्माय भवन्ति । मिध्यामोहमायोजनं धर्माय भवति । शमः उपशमः दमः इन्द्रियदमनं ध्यानं तन्मध्ये द्वयं श्रेष्ठं धर्मशुको अप्रमादस्थितिः प्रमादरहित स्थितिः घर्मा भवति । वैराग्यं च धर्माय भवति । समयोपबृंहणगुणाः सिद्धान्तवर्धनस्वभावगुणाः धर्माय भवन्ति । निर्मलं रनन्त्रयं धर्माय भवति । पर्यन्ते च अन्तावस्थाया समाधिमरणं धर्माय भवति यतेः सर्व धर्म [ सर्वो धर्मः ] मोक्षाय भवति । दर्शनेन विना सम्यानेन बिना स्वर्गीय भवति ॥ १८ ॥ ययस्मात्कारणात्। मूढात्मनः मतिः मूढयतेः मतिः भ्रान्त्या कृत्वा अणुमात्रेऽपि परे मन्ये परवस्तुनि । संवन्धाय भवति । किं कृत्वा शुद्धं खमात्मानम् । चिह्नणमयं ज्ञानगुणमयम् । प्रविश्य त्यक्त्वा । तत्तस्मात्कारणात् । सा मतिः बन्धाय *मेबन्धाय भवति । तस्मात्कारणात्। एतच्छरीरादिकम् अशेषम् । एर्वे निश्चयेन । त्याज्यम् । महतां मुनीश्वरैः । तत्कालादिविना तस्य शरीरस्य कालक्रिया आहारकिया विना व्याज्यम् । शरीरे यन्ममत्वं वर्तते तन्ममत्वं स्फेटनीय भोजनादिकं न त्याज्य 1 अथवा धनका चाहना श्रेष्ठ नहीं है ॥ ३७ ॥ ज्ञानाचारादिस्वरूप पांच प्रकारका आचार; उत्तम क्षमादिरूप दस प्रकारका धर्मः संयम, तप तथा मूलगुण और उत्तरगुण; मिध्यात्व, मोह एवं मदका परित्यागः कषायका शमन, इन्द्रियोंका दमन, ध्यान, प्रमादरहित अवस्थान; संसार, शरीर एवं इन्द्रियविषयोंसे विरक्ति; धर्मको चढ़ानेवाले अनेक गुण, निर्मल रत्नत्रय तथा अन्तमें समाधिमरण; यह सब मुनिका धर्म है जो अविनश्वर मोक्षपदके आनन्द ( अव्याबाध सुख ) का कारण है ॥ ३८ ॥ चैतन्य गुणस्वरूप शुद्ध आत्माको छोड़कर आन्तिसे जो अज्ञानी जीवकी बुद्धि परमाणु प्रमाण भी बाह्य वस्तुविषयक संयोगके लिये होती है वह उसके लिये कर्मबन्धका कारण होती है । इसलिये महान् पुरुषों को समस्त ही इस शरीर आदिका त्याग कालादिके बिना प्रथम युक्तिसे करना चाहिये । यह त्यागकर्म व्रत है विशेषार्थ – इसका अभिप्राय यह है कि शरीर आदि जो भी बाच पदार्थ हैं उनमें ममत्वबुद्धि रखकर उनके संयोग आदिके लिये जो कुछ भी प्रयत्न किया जाता है उससे कर्मका बन्ध होता है और फिर इससे जीव पराधीनता को प्राप्त होता है। इसके विपरीत शुद्ध चैतन्य स्वरूपको उपादेय समझकर उसमें स्थिरता प्राप्त करनेके लिये जो प्रयत्न किया जाता है उससे कर्मबन्धका अभाव होकर जीवको स्वाधीनता प्राप्त होती है । इसीलिये यहां वह उपदेश दिया गया है कि जब तक उपर्युक्त शरीर आदि रक्षत्रयकी परिपूर्णता में सहायता करते हैं तब तक ही ममवबुद्धिको छोड़कर शुद्ध आहार आदिके द्वारा उनका रक्षण करना चाहिये । किन्तु जब वे असाध्य रोगादिके कारण उक्त रत्नत्रयकी ॥ - १ इति गृचमपकरण पूर्ण व गृहियः, माइति गृहि मे प्रकरणं । २ अ श वीर्याचारः देशभेदस्तु दशलक्षणकः । भा ४ क एवं विज्ञाय Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -42:१-४२] १. अमोपदेशामृतम् 40) मुक्त्वा मूलगुणान् यतेविदधतः शेषेषु यज पर दण्डो मूलहरो भवत्यविरतं पूजादिकं वाग्छतः। एकं प्राप्तमरे। प्रहारमतुलं हिस्वा शिरएछेदक रक्षत्यकुलिकोटिखण्डनकर को ऽन्यो रणे पुचिमान् ॥ ४० ॥ 41 ) म्लाने क्षालनतः कुतः कृतजलाधारम्भतः संयमो नष्टे व्याकलचित्तताथ महतामप्यन्यता प्रार्थनम। कौपीने ऽपिते परैश्च झटिति क्रोधः समुत्पद्यते तन्नित्यं शुचि रागहत् शमवता वलं ककुम्मण्डलम् ॥ ४ ॥ 42) काकिन्या अपि सही न विविध कार पास चित्तक्षेपकदखमात्रमपि षा तस्सिद्धये नाश्रितम् । हिंसाहेतुरहो जटायपि तथा यूकाभिरप्रार्थनैः वैराग्यादिविषर्धनाय यतिभिः केशेषु लोया कृतः ॥ ४२ ॥ मित्यर्थः । आवियुजितः तं रक्षणीयम् । इद त्यागकर्मव्रतम् ॥ ३९ ॥ यतेः मुनीश्वरस्य । मूलहरो दण्डो भवति । किंलक्षणस्य यतेः। मूलगुणान् मुक्त्वा शेषेषु उत्तरगुणेषु पर यक्षं विदधतः यनं कुर्वतः । पुनः किंलक्षणस्य मुनेः। पूजादिकं बाञ्छतः। तन्न दृष्टान्तमाह । अरेः शत्रो । एकमदिलीयम् । अतुल प्रहार धात शिरछेदक प्रातं हित्वा को बुद्धिमान् नरः। रणे संपामे । अन्य द्वितीय प्रहार रक्षति । किलक्षणम् अन्य द्वितीय प्रहारम् । अङ्गुलिकोटिखण्डनकरम् ॥ ४० ॥ तत्तस्मात्कारणात् । शमवतो मुनीश्वराणाम् । ककुम्मण्डल दिशासमूहम्.] । मलं वर्तते। कौपीने गृहीते सति तत्कौपीनं म्लान भवति । म्लाने सति क्षालनतः प्रक्षालनात् कृतजलाधारम्भतः संथमः कुतः भवति । अथ कौपीने नष्टे सति । महतामपि मुनीनां व्याकुलाचतता भवति । अथान्यतः प्रार्थनं भवति । ब पुनः । परः दुष्टैः। कोपीने हतेऽपि बारितेऽपि। सटिति कोषः समुस्पयते । तस्मादिसमूह[:] बवं मुनीनाम् ॥1॥ यतिभिः केशेषु लोचः कृतः । कस्मै देल्वे । वैराग्याविविवर्धमाय वैराग्यवादिहेतवे। यैः यतिभिः । काकिन्या बराटिकायाः अपि । संग्रहः संचयः । मविहितः न एतः । यया कपर्दिकया। क्षौर मुण्डनम् । कार्यते क्रियते । वा अथवा । तस्सिमये वैराम्यसिद्धये(?) । अत्रमात्रमपि नानित शस्त्रसंग्रहः न पूर्णतामें बाधक बन जाते हैं तब उनके नष्ट होनेके काल आदिकी अपेक्षा न करके धर्मकी रक्षा करते हुए सल्लेखनाविधिसे उनका त्याग कर देना चाहिये । यही त्याग कर्मकी विशेषता है ॥३९॥ मूलगुणोंको छोड़कर केवल शेष उत्तरगुणोंके परिपालनमें ही प्रयत्न करनेवाले तथा निरन्तर पूजा आदिकी इच्छा रखनेवाले साधुका यह प्रयत्न मूलघातक होगा । कारण कि उत्तरगुणों में दृढ़ता उन मूलगुणोंके निमित्तसे ही प्राप्त होती है। इसीलिये यह उसका प्रयन इस प्रकारका है जिस प्रकार कि युद्धमें कोई मूर्ख सुभट अपने शिरका छेदन करनेवाले शधुके अनुपम प्रहारकी परवाह न करके केवल अंगुलिके अग्रभागको खण्डित करनेवाले प्रहारसे ही अपनी रक्षा करनेका प्रयत्न करता है । ४० ॥ वस्त्रके मलिन हो जानेपर उसके धौनेके लिये जल एवं सोड़ासाबुन आदिका आरम्भ करना पड़ता है, और इस अवस्थामें संयमका घात होना अवश्यम्भावी है । इसके अतिरिक्त उस वस्त्रके नष्ट हो जानेपर महान पुरुषोंका भी मन व्याकुल हो उठता है, इसीलिये दूसरोंसे उसको प्राप्त करनेके लिये प्रार्थना करनी पड़ती है। यदि दूसरोंके द्वारा केवल लंगोटीका ही अपहरण किया जाता है तो झटसे क्रोध उत्पन्न होने लगता है । इसी कारणसे मुनिजन सदा पवित्र एवं रागभावको दूर करनेवाले दिमण्डल रूप अविनश्वर वस्त्र(दिगम्परत्व)का आश्रय लेते हैं ।। ११ ॥ मुनिजन कौड़ी मात्र भी धनका संग्रह नहीं करते जिससे कि मुण्डन कार्य कराया जा सके; अथवा उक्त मुण्डन कार्यको सिद्ध करनेके लिये थे १ तबलापारम्भः भवति सतः संवमः । २कस दिग्समूई। Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ पद्ममन्दि-पञ्चविंशतिः 43 ) पावन्मे स्थितिभोजने ऽस्ति दृढता पाण्योध संयोजने भुजे तावदहं रहाम्यथ विधावेषा प्रतिक्षा यतेः । काये ऽप्यचेतसो ऽन्त्यविधिषु प्रोल्लासिनः सन्मतेः न होतेन दिवि स्थितिर्न मरके संपद्यते तद्विना ॥ ४३ ॥ 44 ) एकस्यापि ममत्वमात्मवपुषः स्यात्संसृतेः कारणं का बाह्यार्थकथा प्रधीयति तपस्याराध्यमाने ऽपि च । तद्वास्यां हरिचन्दने ऽपि च समः संश्लिष्टतो ऽप्यतो मनं स्वयमेकमात्मनि धृतं पश्यत्यजन्तं मुनिः ॥ ४४ ॥ 45 ) तुषार वा रिपुरथ परं मित्रमथषा सुखं वा दुःखं वा पितृषनमहो सोधमथषा । [ 48 : १-४३ I कृतः । किंलक्षणमत्रम् । चिराक्षेपकृत् तिष्याकुळावरम्। तथा अहो जटादिरपि हिंसाहेतुः । कामिः यूकादिभिः । ततः प्रार्थनेयाचनरहितैः यतिभिः । केशेषु छोचः कृतः ॥ ४२ ॥ यावत्कालम् । मे मम । स्थितिभोजने दृढता अति यावत्कालं पाण्योः हस्तयोः संयोजने बढता अस्ति तावदहम् । भोजनं भुझे आहार गृहामि । अथ अन्यथा दृढता न भवति शरीरे तदआहार रहामि त्यजामि । विधौ विधिविषये क्रियाविधौ । यतेः एषा प्रतिज्ञा । पुनः किलक्षणस्य यतेः । अन्त्यविधिषु भरणा विधिषु कायेऽपि शरीरेऽपि निस्स्पृहचेतसः । प्रोष्टासिनः आनन्दधारिणः । सन्मतेः यतेः । एवेन पूर्वोकेन विधिना । दिवि स्वर्गे । स्थितिर्न अपि तु अस्ति । तद्विना सेन पूर्वोक्तेन विधिना बिना। नरके स्थितिर्न अपि तु नरके स्थितिरस्ति ॥ ४३ ॥ एकस्यापि मिध्यारः जीवस्य । आत्मवपुषः आत्मशरीरस्य । ममत्वम् । संसृतेः संसारस्य कारणं स्याद्भवेत् । बाह्यार्थकथा का बाह्यपदार्थे कथा काय पुनः । तपसि आराध्यमानेऽपि ममत्वं संसारकारणम् । तस्मात्कारणात् । मुनिः अजस्रं निरन्तरम् । खयम् आरममा कृत्वा । एक खम् आत्मानम् । अन्नतः शरीरात् । भिनम् । किंलक्षणो सुनिः । समः । कस्मात् । मास्या फुठारिकायाम् । हरिचन्दनेऽपि । च पुनः । संष्टितः भाभ्रेषतः । भङ्गतः शरीरतेः । स्वं भिनं पश्यन् आत्मानं भि पश्यन् ॥ ४४ ॥ अहो इति कोमलवाक्ये । शान्तमनसा निर्धन्यानां मुनीनाम् । स्फुटं व्यक्तम् । तृणं वा रक्षं वा द्वयमपि स उस्तरा या कैंची आदि औजारका भी आश्रय नहीं लेते, क्योंकि, उनसे चित्तमें क्षोभ उत्पन्न होता है । इससे वे जटाओंको धारण कर लेते हों सो यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि, ऐसी अवस्थामें उनमें उत्पन्न होनेवाले जूं आदि जन्तुओंकी हिंसा नहीं टाली जा सकती है । इसीलिये अयाचन वृत्तिको धारण करनेवाले साधु जन वैराम्य आदि गुणोंके बढ़ानेके लिये बालोंका लोच किया करते हैं ।। ४२ ।। जब तक मुझमें खड़े होकर भोजन करनेकी दृढ़ता है तथा दोनों हाथोंको जोड़ने की भी दृढ़ता है तब तक मैं भोजन करूंगा, अन्यथा भोजनका परित्याग करके बिना भोजनके ही रहूंगा; इस प्रकार जो यति प्रतिज्ञापूर्वक अपने नियम छड़ रहता ह उसका चित्त शरीरमै निःस्पृह (निर्ममत्व ) हो जाता है । इसीलिये वह सद्बुद्धि साधु समाधिमरण के नियमोंमें आनन्दका अनुभव करता है । इस प्रकारसे मरकर वह स्वर्ग में स्थित होता है, तथा इसके विपरीत आचरण करनेवाला दूसरा नरकमें स्थित होता है ॥ ४३ ॥ मद्दान् तपका आराधन करनेपर भी जब एक मात्र अपने शरीरमें ही रहनेवाला ममत्वभाव संसारका कारण होता है तब भला प्रत्यक्षमें पृथक् दिखनेवाले अन्य या पदार्थों के विषय में क्या कहा जाय ? अर्थात् उनके मोहसे तो संसारपरिभ्रमण होगा ही । इसीलिये भुनि जन निरन्तर वसूला और हरित चन्दन इन दोनोंमें ही समभावको धारण करते हुए आत्मासे संयोगको प्राप्त हुए शरीरले नि एक मात्र आत्माको ही आत्मामें धारणकर उसकी मिन्नताका स्वयं अवलोकन करते हैं ।॥ ४४ ॥ जिनका मन शान्त हो चुका है ऐसे निर्भन्थ मुनियोंकी तृण और रन, शत्रु और उत्तम मित्र, सुख और १ संचितः केषतः शरीतः पाटितः शरीरतः आगतः । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -48:10] १. धर्मोपदेशामृतम् स्तुतिर्वा मिन्दा या मरणमधवा जीवितमय स्फुटं निर्मस्थानां वयमपि समं शान्तमनसाम् ॥ ४५ ॥ 46) षयमिह मिजयूथभ्रष्टसारङ्गकरपाः परपरिचयभीताः कापि किंधिवरामः । विजानामिह वसामो न बजामा प्रमाद स्वतमनुभवामो यत्र तत्रोपषियः॥४६॥ 47) कतिन कति न वारान्भूपतिर्भूरिभूतिः । कति म कति न वारानत्र जातो ऽसि कोटः। नियतमिति न कस्याप्यस्ति सौख्य न दुवं जगति तरलरूपे कि मुदा कि शुचा या ७ ॥ 48 ) प्रतिक्षणमिदं दि स्थितमतिप्रशाम्तात्मनो मुनेर्भवति संपरः परमशुखिहेतुर्भुषम् । तुल्यम् । अथ । रिपुः शत्रुः । अथ पर मित्रम् । मुनीनां द्वयमपि समम् । मुखं वा दुई वा द्वयमपि समं सदृशम् । वा पितृक्नं स्मशानभूमि भयषा सबि मान्धरम् । सुबमा समम् । मुमोना स्मृतिर्वा निन्दा वा द्वयमपि समम् । अथवा मरणं अथवा जीवितं यमपि समम् ॥४५॥ इह संसारे। वयम् । कापि स्थाने । किषित खोकम् । चरामः भुवामहे । मिलक्षणाः वयम् । निजयुपत्रासारशकल्पाः खकीययभ्रष्टमृगसरशाः। पुनः किलक्षणाः वयम् । परपरिचयभीताः परपदार्यसंगेन मीताः वयम् । विजन जमरहितं स्थानम्। अधिवसामः । वये प्रमाद न बजामः प्रमाई म गरछामः 1 यत्र तत्रोपविष्ठाः यस्पिस्तस्मिन् स्थाने उपविष्ठा निषण्या स्थिताः । स्वकृतं आत्महितम् । अनुभवामः रामः ॥४६ ।। अत्र संसारे । कति न कति न वारान् भूपतिआंतोऽसि । किंलक्षणो भूपतिः। भारेभतिः बहुलविभूतिः । अत्र संसारे। कति न कति न वारान् कीटः जातोऽसि । प्रति हेतोः । नियत निश्चितम् । कस्मापि सौख्य नास्ति वा दुःख न । तरलरूपे जगति चञ्चलरूपे संसारे। मुदा हर्षेण किम् । वा अथवा । शुचा शोकेन किम् । न किमपि ॥४७॥ इद पूर्वोक्त(१) विचारः । प्रतिक्षण क्षणक्षण प्रति समय समय प्रति । अतिप्रशान्तास्मनः मुनेः हृदि स्थितम् । भुवं निश्चितम् । संवरः भवति । किलक्षणः संवरः । परमशनिदेवः परमशुद्धिकारणम् । संवरेण कृत्या। दुःख, श्मशान और प्रासाद, स्तुति और निन्दा, तथा मरण और जीवन; इन इष्ट और अनिष्ट पदार्थों में स्पष्टतया समबुद्धि हुआ करती है। अभिप्राय यह कि वे तृण एवं शत्रु आदि अनिष्ट पदार्थो में द्वेषबुद्धि नहीं रखते तथा उनके विपरीत रस एवं मित्र आदि इष्ट पदार्थोंमें रागबुद्धि मी नहीं रखते, किन्तु दोनोंको ही समान समझते हैं ॥ ४५ ॥ मुनि विचार करते हैं कि यहां हम लोग अपने समुदायसे पृथक् हुए मृगके सदृश हैं। अत एवं उसीके समान हम भी दूसरोंके परिचयसे भयमीत होकर कहीं भी (किसी श्रायकके यहाँ) किंचित् भोजन करते हैं, यहां एकान्त स्थानमें निवास करते हैं, प्रमादको नहीं प्राप्त होते हैं, तथा जहां कहीं भी स्थित होकर अपने द्वारा किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मका अनुभव करते हैं ॥ ४६ ।। मैं कितनी कितनी बार बहुत सम्पत्तिशाली राजा नहीं हुआ इं! अर्थात् बहुत बार अत्यन्त विभवशाली राजा भी हुआ हूं । इसके विपरीत कितनी कितनी बार मैं क्षुद्र कीड़ा मी नहीं हुआ हं! अर्थात् अनेकों भवोंमें मैं क्षुद्र कीड़ा भी हो चुका हूं। इस परिवर्तनशील संसारमें किसीके भी न तो मुख ही नियत है और न दुःख भी नियत है। ऐसी अवस्थामें हर्ष अथवा विषाद करनेसे क्या लाम है ! कुछ भी नहीं ॥ विशेषार्थअभिप्राय यह है कि यह प्राणी कभी तो महा विभूतिशाली राजा होता है और कभी अनेक कष्टोंका अनुभव करनेवाला क्षुद्र कीटक भी होता है । इससे यह निश्चित है कि कोई भी प्राणी सदा सुखी अथवा दुखी ही नहीं रह सकता | किन्तु कभी वह सुखी भी होता है और कभी दुखी भी । ऐसी अवस्थामें विवेकी जन न तो सुखमें राग करते हैं और न दुसमें द्वेष भी ॥ १७ ॥ जिसकी आत्मा अत्यन्त शान्त हो चुकी है ऐसे मुनिके हृदय में सदा ही उपर्युक्त विचार स्थित रहता है। इससे उसके निश्चित ही अतिशय विशुद्धिका Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पानन्दि-पञ्चविंशतिः रजः खलु पुरातनं गलति नो नये कसे aat sतिनिकटं भवेवसृतधाम दुःखोज्झितम् ॥ ४८ ॥ 49) प्रबोधो नीरन् प्रणममन्दं पृथुतपः वायुर्वैः प्राप्तो गुरुमणसहायाः प्रणयिनः । कियन्मानस्तेषां भवजलधिरेषी थप कियद्दूरे पारः स्फुरति महतामुद्यमयुताम् ॥ ४९ ॥ 50 ) अभ्यस्थतान्तरशं किमु लोकभया मोहं कृशीकुरुत किं धपुषा कशेन । एतद्द्वयं यदि न किं बहुभिर्नियोगैः रौ किं किमपरैः प्रचुरैस्तपोभिः ॥ ५० ॥ 51) जुगुप्सते संसृतिमत्र मायया तितिक्षते प्रातपरीहानपि । न वेन्मुनिर्दष्ट कषाय निग्रहाश्चिकित्सति स्वान्तमधप्रशान्तये ॥ ५१ ॥ [ 48 : १-४८ स्वछ पुरातर्न रकः पार्थ गलति । नवं पापं न ढोकते न भागच्छति । ततः कारणात् अमृतधाम मोक्षपदम् । अति निकटं भवेत् । किंलक्षणं मोक्षम् । दुःखोक्तिं दुःखरहितम् ॥ ४८ ॥ यैः यतिभिः । प्रबोधः प्रवहणं प्राप्त ज्ञानप्रवहणं प्राप्तम् । किंलक्षणे प्रवद्दणम्। नीरन्ध्र छिद्ररहितम्। पुनः किंलक्षण प्रोहणम् । अमन्दं वेगयुक्तम् । यैः यतिभिः । पृथुतप: विस्तीर्ण तपः सुधायैः प्राप्तः । यैः यतिभिः । गुरुगण सहायाः प्रणयिनः स्नेहकारिणः । तेषां मुनीनाम् । एषः भवजलधिः संसारसमुद्रः कियन्मात्रः । उद्यमयुतां उद्यमयुक्तानां मुनीनाम् । अस्य संसारसमुद्रस्य पारः कियद्दूरे स्फुरति परः प्रकृष्टः ॥ ४९ ॥ अन्तर्दृशं शाननेत्रम् । अभ्यस्यताम् 1 लोकभक्त्या किमु । भो मुनयः मोहं कृशीकुल्त । वपुषा क्षेम किमू । यदि चेत् । एतद्द्वयं न अन्तर्दृष्टिमहं कुशं न । तदा बहुभिः नियोगैः अतादिकरणैः किम् । च पुनः । क्लेशः कायक्लेशः किम् । अपरैः प्रसुरैः तपोभिः किम् । न किमपि ॥ ५० ॥ अत्र संसारे चेत् यदि । मुनिः । अवप्रशान्तये पापप्रशान्तये । दुष्टकषायकारणभूत संवर होता है, जिससे कि नियमतः पूर्व कर्मकी निर्जरा होती है और नवीन कर्मका आगम भी नहीं होता । अत एव उक्त मुनिके लिये दुःखोंसे रहित एवं उत्तम सुखका स्थानभूत जो मोक्षपद है वह अत्यन्त निकट हो जाता है || ४८ || जिन मुनियोंने सम्यग्ज्ञानरूपी छिद्ररहित एवं शीघ्रगामी जहाज प्राप्त करलिया है, जिन्होंने विपुल तपस्वरूप उत्तम वायुको भी प्राप्त कर लिया है, तथा स्नेही गुरुजन जिनके सहायक हैं; ऐसे उद्यमशील उन महामुनियोंके लिये यह संसार-समुद्र कितने प्रमाण हैं ? अर्थात् वह उन्हें क्षुद्र ही प्रतीत होता है । तथा उनके लिये इसका दूसरा पार कितने दूर है ? अर्थात् कुछ भी दूर नहीं है ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार अनुभवी चालकोंसे संचालित, निश्छिद्र, शीघ्रगामी एवं अनुकूल वायुसे संयुक्त जहाज से गमन करनेवाले मनुष्योंके लिये अत्यन्त गम्भीर एवं अपार भी समुद्र क्षुद्र ही प्रतीत होता है उसी प्रकार मोक्षमार्ग में प्रयत्नशील जिन महामुनियोंने निर्दोष उत्कृष्ट सम्यग्ज्ञानके साथ विपुल तपको भी प्राप्त कर लिया है तथा स्नेही गुरुजन जिनके मार्गदर्शक हैं उनके लिये इस संसार समुद्रसे पार होना कुछ भी कठिन नहीं है ॥ ४९ ॥ हे मुनिजन ! सम्यग्ज्ञानरूप अभ्यन्तर नेत्रका अभ्यास कीजिये, आपको लोकभक्तिसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है। इसके अतिरिक्त आप मोहको क्रश करें, केवल शरीरके कृश करनेसे कुछ भी म नहीं है । कारण कि यदि उक्त दोनों नहीं हैं तो फिर उनके बिना बहुत से यम-नियमों से, कायक्लेशोंसे और दूसरे प्रचुर लपोंसे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता है ॥ ५० ॥ यदि मुनि पापकी शान्तिके लिये दुष्ट कषायका निग्रह करके अपने मनका उपचार नहीं करता है, अर्थात् उसे निर्मल नहीं करता है, तो यह १ शानोहणं तपः सुबायुः । + Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्मोपदेशामृतम् 52) हिंसा प्राणिषु करमपं भवति सा प्रारम्भतः सोऽपता तस्मादेव भयावयो ऽपि नितरां दीर्घा ततः संहतिः। सपासासमशेषतर्थतमत्वेति यस्त्यवान मुरुयर्थी पुनरर्थमाश्रितवता तेनाहता सत्पथः ॥५२॥ 58) दुामार्थमवद्यकारणमहो निन्धताहान शग्याहेतु णाद्यपि प्रशमिना लज्जाकर स्वीकृतम् । यसरिकन गृहस्थयोग्यमपरं स्वर्णादिकं सांप्रतं निर्धन्येष्यपि सदस्ति भितरां प्रायः प्रविष्ठः कलिः ॥ ५३॥ 54) कावाचिस्को पन्धः क्रोधादेः कर्मणः सदा संगात् । ___माप्तः कापि कदाचिस्परिप्रहप्राइवता सिजिः ॥ ५४ ॥ निग्रहात खान्त मनः । न चिकित्सति निर्मल न करोति । समुनिः । मायया कृत्वा । संभाति संसार । जगप्सते निन्यति'।स मानिः प्रक्षिपरोषाहानपिलिपासवाना माया तिसहते । तदा प्रशान्तये कार्य भवति ॥५१॥ यत्र प्राणिष हिंसा धर्तते तत्र करमर्ष पाए भवति । सा हिंसा प्रारम्भतो भवति । स आरम्भः अर्थतः इव्यतः भवति । तस्माइग्यात् नितरामतिशयेन भयादयोऽपि भवन्ति । ततः मयात् । दीर्घा संमृतिः दीर्घसंसारः भवति । तत्र संसारे। अशेष परिपूर्णम् । असास दु:खं भवति । मुत्तयर्थी मुक्तिवान्छेकः मुनिः इति इदं पूर्वो पापम् । अर्थतः द्रव्यतः । मत्वा ज्ञात्वा । द्रव्य लकवान् । पुनः तेन समाश्रितक्ता द्रव्यं आश्रितबता मुनिना । सत्पथः आइतः ।। ५२अहो इति है। यद्यस्मात्कारणात् । प्रशामिनः मुनीनाम् । शय्यादेनुः तृणापि स्वीकृतमयीकृत बुानार्थ भवति । पुनः अवद्यकारणं भवति । पुनः निन्धताहानये भवति। पुनः तृगादि अङ्गीकृत लब्बाकर भवति । तत्तस्मात्कारणात् । अपरं गृहस्थयोग्य स्वर्णादिकं कि न । अपि तु गृहपद स्वर्णादियोग्य वर्तते । यदि तद्व्य म् । निर्मन्थेषु मुनिषु सोप्रतम् । मस्त्रि वर्तते । तदा नितरामतिशयेन । प्रायः बाहुल्येन । कलिः प्रविधः ।। ५३ ॥ कोषादेः सकाशात् । कोऽपि बन्धः । कदाचिद्भवति। संयात्परिप्रहात् । सदा सर्वदा कन्धः भवति । अतः कारणात् 1 कापि कस्मिस्थाने । कदाचित् कस्सिन्समये । परिमहनवता परिग्रह एवं प्रहः राक्षसः वर्तते येषा ते परिप्रमहवन्तः तेषां परिप्रह समझना चाहिये कि वह जो संसारसे घृणा करता है तथा परीषहोंको भी सहता है वह केवल मायाचारसे ही ऐसा करता है, न कि अन्तरंग प्रेरणासे ।। ५१ ॥ प्राणियोंकी हिंसा पापको उत्पन्न करती है, वह हिंसा प्रकृष्ट आरम्भसे होती है, वह आरम्भ धनके निमित्तसे होता है, उस धनसे ही भय आदिफ उत्पन्न होते हैं, तथा उक्त मय आदिसे संसार अतिशय लंबा होता है । इस प्रकार इस समस्त दुखका कारण धन ही है, ऐसा समझकर जिस मोक्षाभिलाषी मुनिने घनका परित्याग कर दिया है वह यदि फिरसे उक्त धनका सहारा लेता है तो समझना चाहिये कि उसने मोक्षमार्गको नष्ट कर दिया है ॥ ५२ ॥ जब कि शय्याके निमित्त स्वीकार किये गये लज्जाजनक तृण (प्याल) आदि भी मुनियों के लिये आर्त-ौद्रस्वरूप दुर्ध्यान एवं पापके कारण होकर उनकी निर्मन्यता ( निष्परिग्रहता) को नष्ट करते हैं तब फिर गृहस्तके योग्य अन्य सुवर्ण आदि क्या उस निर्घन्धताके घातक न होंगे! अवश्य होंगे । फिर यदि वर्तमानमै निर्गन्ध कहे जानेवाले मुनियोंके भी उपर्युक्त गृहस्थयोग्य सुवर्ण आदि परिग्रह रहता है तो समझना चाहिये प्रायः कलिकालका प्रवेश हो चुका है ।। ५३ ॥ क्रोधादि कषायोंके निमित्से जो बन्ध होता है वह सादायिक होता है, अर्थात् कभी होता है और कभी नहीं भी होता है । किन्तु परिग्रहके निमिउसे जो बन्ध होता है वह सदा काल होता है । इसलिये जो साधुजन परिग्रहरूपी ग्रहसे पीड़ित हैं उनको कहींपर भौर कभी असतार जुगुप्सते संसार निन्यति । २ समुचिमान्छिकः। ३ मिक्ते । पवन: Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनदि-पविशतिः 5618458) मोक्षे ऽपि मोहादभिलाषदोयो विशेषतो मोक्षमिवेधकारी। यतस्ततोऽध्यात्मरतो मुमुक्षुर्भवेत् किमन्यत्र कृताभिलाषः॥ ५५ ॥ 56) परिग्रहवतां शिवं यदि तदानलः शीतलो यदीन्द्रियमुखं सुखं तदिह कालकुटा सुधा। स्थिरो यदि तनुस्तदा स्थिरतरं तविम्बर भवे ऽत्र रमणीयता यदि तदिन्द्रजाले ऽपि च ॥५६॥ 57 ) समरमपि हदि येषां ध्यानवनिमदीते सकलभुवनमलं दखमानं विलोक्य। कृतभिय इव नशस्ते कषाया न तस्मिन् पुनरपि हि समीयुः साधषस्ते जयन्ति ॥ ५७॥ 58) अनर्घ्यरजत्रयसंपदो ऽपि निर्घन्धतायाः पवमद्वितीयम् । अपि प्रशान्ताः स्मरवैरिवल्या वैधव्यदास्ते गुरखो नमस्याः ॥ ५८॥ प्रहवताम् । कदाचिन्न सिद्धिः परिग्रहपिशाचपीडिताना मुनीनां सिद्धिर्न ॥५४॥ यतः यस्मात्कारणात् । मोझेऽपि मोहात् भभिलाषदोषः विशेषतः मोक्षनिषेधकारी भवति। ततः कारणात् अध्यात्मरतः मुमुक्षुः मुनिः अन्यत्र वस्तुनि कूतामिलापः कि भवेत् । अपि तु अन्यत्र वस्तुनि कृताभिलाषः न भवेत् ॥ ५५ ॥ यदि चेत् परिप्रहवा जीवानां शिवं भवेत् तदानलः शीतलो भवति । यदि घेत् । इन्द्रियमुखं सुखं भवेत् तदा इह जगति विषये कालकूटः बिषः सुधा अमृतं भवेत् । यदि चेत् । इयं तनुः स्थिरा भवेत् तदा तडित् विद्युदयुक्तम् अम्बरे स्थिरतरं भवति । यदि अत्र भवे संसारे रमणीयता भवेत् तदा इन्द्रजालेऽपि रमणीयता भवति ।। ५६॥ हि यतः। ते साधको जयन्ति । येषां मुनीश्वराणाम् । ध्यानवहिनदी ध्यानवहिप्रचलिते छवि । समर कामम् । दामानम् । विलोक्य हा ते कषाया नटाः। कृतमियः इव कृता भी भयं यः वे कृतभियः । किंलक्षण कामम् । सकलभुवनमालम् । ते करायाः तथा नष्टाः यथा पुनरपि तस्मिन् मुनीन इति । न समीयुः न प्राप्ताः। ते साधनो जयन्ति ॥ ५५ ॥ ते गुरवः । नमस्याः नमरकरणीयाः। ये अनपरतत्रयसंपदोऽपि निर्मन्यतायाः अद्वितीय पद प्रामाः । प्रशान्ता भी सिद्धि प्राप्त नहीं होती ॥ ५४ ॥ जब अज्ञानतासे मोक्षके विषयमें भी की जानेवाली अभिलाषा दोषरूप होकर विशेष रूपसे मोक्षकी निषेधक होती है तब क्या अपनी शुद्ध आत्मामें लीन हुआ मोक्षका अमिलाषी साधु स्त्री-पुत्र-मित्रादिरूप अन्य बाल वस्तुओंकी अभिलाषा करेगा। अर्थात् कभी नहीं करेगा ॥ ५५ ॥ यदि परिग्रयुक्त जीवोंका कल्याण हो सकता है तो अग्नि भी शीतल हो सकती है, यदि इन्द्रियजन्य मुख वास्तविक सुख हो सकता है तो तीन विष मी अमृत बन सकता है, यदि शरीर स्थिर रह सकता है तो आकाशमें उदित होनेवाली बिजली उससे भी अधिक स्थिर हो सकती है, तथा इस संसारमें यदि रमणीयता हो सकती है तो वह इन्द्रजालमें भी हो सकती है। विशेषार्थ-इसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार अमिका शीतल होना असम्भव है उसी प्रकार परिग्रहसे कल्याण होना भी असम्भब ही है। इसी प्रकार जैसे विष कभी अमृत नहीं हो सकता, आकाशमें चंचल बिजली कभी स्थिर नहीं रह सकती, तथा इन्द्रजाल कभी रमणीय नहीं हो सकता है; उसी प्रकार क्रमशः इन्द्रियसुख कभी सुख नहीं हो सकता, शरीर कभी स्थिर नहीं रह सकता, तथा यह संसार कभी रमणीय नहीं हो सकता है ॥ ५६ ॥ जिन मुनियोंके ध्यानरूपी अमिसे प्रज्वलित हृदयमें त्रिलोकविजयी कामदेवको भी जलता हुआ देखकर मानो अतिशय भवभीत हुई कषायें इस प्रकारसे नष्ट हो गई कि उसमें वे फिरसे प्रविष्ट नहीं हो सकी, वे मुनि जयवन्त होते हैं ॥ ५५ ॥ जो गुरु अमूल्य रसत्रयस्वरूप सम्पत्तिसे सम्पन्न होकर भी निर्ग्रन्थताके अनुपम पदको प्राप्त हुए हैं, तथा जो अत्यन्त शान्त होकर भी कामदेवरूपाधुकी पनीको १ स्थिरो। २ क श तमिदम्बरम् । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amann -man १. धमापदेशामृतम् 59) मे स्वाधारमपारसौल्यमुतरोवीज परं पञ्चधा सबोधाः स्वयमाचरन्ति परामाचारवस्येव था। अन्यग्धिविमुक्तमुक्तिपदवीं प्राप्तास या प्रापिता। ते रसत्रयधारिणः शिषमुखं कुर्वन्तु नः सूरयः ॥ ५९॥ 60) भ्रान्तिपदेषुषावम॑सु अम्मको पन्थानमेकममृतस परं नवन्ति । ये लोकमुषतधियः प्रणमामि सेभ्यः तेनाप्य जिगमिर्गुरुनायकेभ्यः ॥ ६ ॥ 81) शिष्याणामपहाय मोइपटक कालेन दीघेण य ज्जातं स्यास्पदलामिछतोज्यलयचोदिव्याजनेन स्फुटम् । ये कुर्वन्ति इशं परामतितरा सर्वावलोकक्षमा लोके कारणमन्तरेण भिषजास्ते पान्तु मो ऽभ्यापकाः ॥ ३१॥ बपि हारवैश्विषाः पश्य रण्डाल ददतीति षष्यवाः । वे गुरवः जयन्ति ॥ ५८॥ ते सूरयः । नः अस्माकं । शिबसूखं कुर्वन्तु । ये मुनमः परषा । खाचार सकीयमाचारम् । स्वयम् माचरन्ति । किंलक्षणमाचारम् । अपारसौख्यसतरोबीजम् । परम् उत्कृष्टम् । य पुनः । पगन् शिष्यादीन् आचारयन्ति । ये प्रत्यान्धिविमुकमुक्तिपदवी प्राप्ताः. पन्धस्स या प्रन्थिः प्रन्यमन्धिः तेमय तया विमुका था मुक्तिपदवी ता विमुक्तमुक्तपदवी प्राप्ताः । यः मुनीश्वरैः । अन्ये मुक्तिपदवी प्रापिताः । पुनः किलक्षमाः सूरमः । रजत्रयधारिणः । एवंभूताः मुनयः नः अस्माकं शिवसुखं कुर्वन्नु ॥ ५९ ।। ये गुरवः । जन्मको संसारवने। प्रान्तिप्रदेषु बहुवर्मा बहुमिथ्यात्वमार्गेषु सत्सु । लोकम् । अमृतस्य मोक्षस्य । एक पन्धा मार्गम् । नयन्ति । शिलक्षगाः गुरवः । उमतधियः । तेभ्य आचार्येभ्यः प्रणमामि । किंलक्षणेभ्यः आचार्येभ्यः । गुरुनायकेभ्यः । तेन पथा अहमपि जियामिपुः यातुमिछुः ॥ १॥ ते अध्यापकाः । मः अस्मान् । पान्तु रक्षन्तु । ये शिष्याणां दशं नेत्रम् । अतितराम् । परां श्रेयम् । सन्ति । कित्ता। मोहपटलम्सापडाय स्फेटयित्वा । केन। स्यात्पदलामिछतोचलबचोदिव्याजनेन । सिक्षण मोहपटलमा यहीय कान जातम् उत्पन्नम् । किंलक्षणा दशम् । सर्वावलोकक्षमा सर्वपदा वोकनक्षमाम् । पुनः ये अध्यापकाः । कारणमन्तरंग वैधव्य प्रदान करनेवाले हैं, वे गुरु नमस्कार करने योग्य हैं । विशेषार्थ- जो अमूल्य तीन रनोंसे सम्पन्न होगा वह निर्मन्थ (दरिद्र) नहीं हो सकता, इसी प्रकार जो प्रशनत होगा- क्रोधादि विकारोंसे रहित होगा-बह शत्रुपक्षीको विषवा नहीं बना सकता है। इस प्रकार यहां विरोधाभासको प्रगट करके उसका परिहार करते हुए प्रन्पकार यह बतलाते हैं कि जो गुरु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप अनुपम रजत्रयके धारक होकर निर्मन्ध-मू रहित होते हुए दिगम्बरत्य- अवस्थाको प्राप्त हुए है; तथा जो अशान्तिके कारणभूत क्रोधादि कषायोंको नष्ट करके कामवासनासे रहित हो चुके हैं उन गुरुओंको नमस्कार करना चाहिये ॥ ५८॥ जो विवेकी आचार्य अपरिमित सुखरूपी उत्तम वृक्षके बीजभूत अपने पांच प्रकारके (ज्ञान, दर्शन, तप, वीर्य और चारित्र) उत्कृष्ट आचारका स्वयं पालन करते हैं तथा अन्य शिष्याविकोंको भी पालन कराते हैं, जो परिमहरूपी गांठसे रहित ऐसे मोक्षमार्गको स्वयं प्राप्त हो चुके हैं तथा जिन्होंने अन्य धात्महितैषियोंको भी उक्त मोक्षमार्ग प्राप्त कराया है, वे रजत्रयके धारक आचार्य परमेष्ठी. हमको मोजमुल प्रदान करें ॥ ५९ ॥ जो उन्नत बुद्धिके धारक आचार्य इस जन्म मरणस्वरूप संसाररूपी वनमें भ्रान्तिको उत्पक करनेवाले अनेक माकि होनेपर भी दूसरे जनोंको केवल मोक्षके मार्गपर ही ले जाते हैं उन अन्य मुनियोंको सन्मार्गपर ले जानेवाले आमायाँको मैं भी उसी मार्गसे जानेन इच्छुक होकर नमस्कार करता हूं ॥ ६ ॥ जो लोकमें अकारण (निस्वार्थ) वैयके समान होते हुए शिष्योंके चिरकालसे उत्पन्न हुए प्रशानसमूहको हटाकर 'स्पात' पदसे चिड़ित अर्थात् अनेकान्तमय निर्मक वचनरूपी दिव्य अंजनसे उनकी अत्यन्त श्रेष्ठ दृष्टिको स्पष्टतया समस्त पदाकि देखने में समर्ष समीति वदति है। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनासशितिः [2:१-६१62) उन्मुख्यालयबन्धनादपि रहाकाये ऽपि बीतसृहा विते मोहविकस्पतालमपि यदु धमम्सस्तमा । मेदायास्य हि साधयन्ति तदहो ज्योतिर्जिताप्रभ ये सोधमयं भवन्तु भवतां ते साधषः श्रेयसे ॥ १२ ॥ 68) को पतत्पपि मयनुतविश्वलोकमुक्तावनि प्रशमिमो म चलम्ति योगात् । बोधप्रदीपहतमोहमहान्धकाराः सम्यगाया किमुत शेषपरीपहेषु ॥ ६३ ॥ 64) प्रोत्तिमकरोप्रतेजाले सारडानिलोधदिशे स्फारीभूतसुतप्तभूमिबसि प्रमाणनधम्मसि।। प्रीष्मे ये गुरुमेदिनीनशिरसि ज्योतिर्निचायोरसि। ध्वान्तवसकर बसन्ति मुनयस्ते सन्तु नः श्रेयसे ।। ६४ । कारण विना । भिषाः वैद्याः ते मः अस्मान् पातु ॥११॥ अहो इति आचर्य । ते साधवः । भवताम् । श्रेयसे कम्मापाय। भान्द्र। ये साधना । खात् । वायवन्धनात गृहबन्धनात् । उन्मुच्य भिशीभूय । कायेऽपि शरीरेऽपि । मीतस्पृहा जाता नि:स्पृहा जाताः । शुभेयं दुःखेन भेद्यम् इति दुर्मेध मोहविकल्पजालम् अन्तस्तमः । हिदि । वर्तते। ये मुनयः । अस्म अन्तरसमस । भेदाय स्फेटमाय । ज्योतिः सापयन्ति । किंलक्षणं ज्योतिः । जिताप्रभम् । पुनः किंलक्षण ज्योतिः । सवोधमय शानमयम् । वे साश्वः । सुखाय मोक्षाय भवन्तु ।। ५२ ॥ प्रशमिनः मुनयः । योगात् न चलम्ति ! क सति । पले पतसपि । पुनः भयहतविश्वकोपमुक्तापनि भयेन हताः पीडिताः ये विश्वलोकाः तेः भगतविश्वलोकै मुक्तः अध्या मार्गः यत्र तस्मिन् मयतविश्वलोकमुचावनि सति । प्रशमिनः योगाच बहन्ति । उत महो। शेषपरीपहेषु किं का कथा। किलक्षणा मुनयः। बोभप्रदीपहतमोहमहान्धकाराः शानप्रदीपेन स्फेटितमिध्यान्धकाराः । पुनः किंलक्षणा मुनमः । सम्यमशः।। ६३॥ ते मुनयः । मः अस्माकम् । श्रेयसे । सन्तु भवन्तु । ये मुनयः 1 श्रीष्मे । गुरुमेविनीध्रतिरसि गरिऽपर्षतमस्तके । बसन्ति तिष्ठन्ति । चान्वबस लिथ्यात्वविनासकारे ज्योतिः चरसि निधाय संस्थाप्य : किलक्षणे प्रीष्मे । प्रोयतिम्मफरोप्रतेजसि तीक्णसूर्यकरैः उपतेजति । पुनः किलो । लसणानिस्प्रेषरिधि प्रचण्डपनेन पूरितहिनि । पुनः विलक्षणे प्रौम्मे । स्फारीभूत ततभूमिरवसि । कर देते हैं ये उपाध्याय परमेष्ठी हमारी रक्षा करें ॥ ६१ ।। जो मजबूत गृहरूप बन्धनसे छुटकारा पाकर अपने शरीरके विषयमें भी निस्पृह (ममत्वरहित ) हो चुके हैं तथा जो मनमें स्थित दुर्मेध (कठिनतासे नष्ट किया जानेवाला) मोहजनित विकल्पसमूहरूपी अभ्यन्तर अन्धकारको नष्ट करनेके लिये सूर्यकी प्रभाको भी जीतनेवाली ऐसी उत्तम ज्ञानरूपी ज्योतिके सिद्ध करनेमें तत्पर हैं वे साधुजन आपके कल्याणके लिये होवें ।। ६२॥ मयसे शीघ्रतापूर्वक भागनेवाले समस्त जनसमुदायके द्वारा जिसका मार्ग छोड़ दिया जाता है ऐसे वजके गिरनेपर भी जो मुनिजन समाधिसे विचलित नहीं होते हैं के झानरूपी दीपकके द्वारा अज्ञानरूपी घोर अन्धकारको नष्ट करनेवाले सम्यग्दृष्टि मुनिजन क्या शेष परीषहोंके आनेपर विचलित हो सकते हैं ! कभी नहीं ॥ ६३ ॥ जो ग्रीष्म काल उदित होनेवाले सूर्यको किरणोंके तीक्ष्ण तेजसे संयुक्त होता है, जिसमें तीक्ष्ण पवन (ल.) से दिशायें परिपूर्ण हो जाती हैं, जिसमें अत्यन्त सन्तप्त हुई पृथिवीकी धूलि अधिक मात्रामें उत्पन्न होती है, तथा जिसमें नदियोंका जल सूख जाता है। उस प्रीष्म कालमें जो मुनि जन हृदयमें अज्ञानान्धकारको नष्ट करनेवाली ज्ञानज्योतिको धारण करके महापर्वतके शिखरपर मक महो इति से। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -67 : १-६७] १. धर्मोपदेशामृतम् 65 ) से छः पान्तु मुमुझसः कवरघरदैरविश्यामलो माक्षरितमझिनियासालाहोमादिय: काले मआदिले पतद्विरिकुले धाबडुनीसंकुले सम्झावातषिसंस्थुले तस्तले तिष्ठन्ति से साधवः ॥ १५॥ 66) म्लायस्कोकादे गलत्कपिमदे अश्यद्रुमौरच्छदे हर्षद्रोमदरिदके हिमऋतावस्यम्त दुःखदे।। ये तिष्ठन्ति चतुष्पये पृथुतपासौधस्थिताः साधवः ध्यानीमनहतोप्रशैल्यविधुरास्ते मे विषम्युः श्रियम् ॥ १६ ॥ 67 ) कालत्रये बहिरपस्थितिजातवर्षाशीतातपप्रमुखसंघटितोमरखे। आत्मप्रषोपविकले सकलो ऽपि कायक्लेशो वृथा वृतिरिवोतिशालिवने ॥ १७॥ पुमः सिक्षणे प्रीध्ये । प्रक्षीणनद्यम्भसि खोकनदीज। एवंभूते प्रीष्मे ये पर्वते विश्वन्ति ते मुनयः बदन्ति ॥ ६४ ते सातः । का युष्मान् । पान्तु रक्षन्तु । ये मुमुक्षवः मुनयः । वर्षाकाले तहतले तिष्ठन्ति । विलक्षणे वर्माया। सवैः मेवैः । मगरले मजन्ती इला भूमियत्र तस्मिन् मदिले । किंलक्षणैः मेधैः । स्तरवः शन्दयुकैः । पुनः मिलनः मन्दः । अनिश्शाम मेवैः । किं कुर्वद्विरित । अधिक्षारत्वदोषात्समुद्रसवन्धिक्षारसदोषात् । शवदारिमद्रिनि निरन्तरवतापनीले। पुनः मिलने वर्षाकाले । पतद्रिरिकुले पतन्ति गिरिकुलानि यत्र तस्मिन् पतद्रिरिकुले । पुनः किलक्ष पश्चि । धाकदुनीसको मुजनकीसंकले। पनाविलक्षणे वर्षाकाले । अमावातविसंस्एले भयानकवातयके। एविध वाले तमतले मनमः दिन्ति५. ते सापवः । मे मम । श्रियम् । विदयुः कुर्युः । ये साधवः । हिमऋतौ चतुष्पचे तिष्ठन्ति । विलक्षणे हिमसतौ। म्लाककोकमरे कमले। पुनः किंलक्षणे हिमऋतौ । गलकपिमदे विगलितवानरमदे । पुनः किलक्षणे हिमऋतौ । प्रश्यामौषमकने पतिसमूहपत्रे । पुनः किलक्षणे हिमती । हर्षदोमदरिद्रके कम्पितरोमदायके । पुनः किलको हिमऋतौ मसान्तसमये । एवंभूते हिमाती मुनयतुष्पथे तिष्ठन्ति । किंलक्षणा मुमयः । पृथुतपःसौधस्थिताः तपोमन्दिरे स्थिताः । पुनः बिलझमाः। थानोमप्रातोप्रशत्यधिधराः च्यानामिना प्रहतः स्फटितः उप्र शैत्यविधर-चीतको तेजवन्ति ॥१॥ आत्मप्रमोपविकले पसि पुरुषे । सकलोऽपि काययः । वृषा निष्फलम् । किलक्षणे। बात्मप्रभोधनिकले। कानयाये श्रीतोसम्वनिळे । गहिरनस्थितिबासवर्षाशीताताप्रमुखसंघटितोमःख कालत्रये' वमतिधनेन (३) जातः उपचः वर्शभीतापपरीपहश्युबेन संघटितम् पावं पत्र निवास करते हैं वे मुनिजन हमारे कल्याणके लिये होवें ॥६४|| बिस वर्षा कालमें गर्जना करनेवाले, अतिशय काले, तथा समुद्रविषयक क्षारत्व (खारापन) के दोषसे ही मानो निख ही पानीको उगलनेवाले (गिरानेवाले) ऐसे मेघोंके द्वारा पृथिवी जलमें डूबने लगती है। जिसमें पानीके प्रबल प्रवाहसे पर्वतोंका समूह गिरने लगता है, जो वेगसे बहनेवाली नदियोंसे व्याप्त होता है, तथा जो शंशावातसे (जलमिश्रित तीक्ष्ण वायुसे) संयुक्त होता है, ऐसे उस वर्षा कालमें जो मुमुक्षु साधु वृक्षके नीचे स्थित रहते हैं वे आप लोगोंकी रक्षा करें ॥६५॥ जिस ऋतु, कमल मुरझाने लगते हैं, बन्दरोंका अभिमान नष्ट हो जाता है, वृक्षसमूहसे पत्ते नष्ट होने लगते हैं, तथा शीतसे दरिद्र जनके रोम कम्पायमान होते हैं; उस अत्यन्त दुखको देनेवाली हिम (शिशिर) ऋतुमें विशाल तपरूपी प्रासादमें स्थित तथा ध्यानरूपी उष्णतासे नष्ट किये गये तीक्ष्ण शैल्यसे रहित बो साधु चतुष्पथमें स्थित रहते हैं वे साधु मेरी लक्ष्मीको करें ॥६६|| साधु जिन तीन कालोंमें घर छोड़कर बाहिर रहनेसे उत्पन्न हुए वर्षा, शैत्य और धूप आदिके तीन दुखको सहता है वह यदि उन तीन कोंमें अध्यात्म ज्ञानसे रहित होता है तो उसका यह सब ही कायक्लेश इस प्रकार व्यर्थ होता है जिस प्रकार कि चवस वर्ष। २ क धाधुनीसंकुले पुनः। स एवंविषे काले। ससासमूहे। ५ लित। काकत्रया Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anwar vie-पशिक्षित 68:१-4068) संप्रस्वस्ति न केवली फिल फलो त्रैलोक्यचूडामणिः सराचा परमासतेऽत्र भरतकोने जगद्योतिकाः। सद्रामारिणो पतिपरास्तासां समालम्बन तत्पूजा जिमघाचि पूजनमतः साक्षाजिनः पूजितः॥१८॥ 69) स्पृष्टा या मही तवधिकमलैस्तौति सतीर्थता तेभ्यस्से ऽपि सुराः रुवाबलिपुटा नित्यं नमस्कुर्षते । सधामस्मृतिमात्रतो ऽपि जनता निष्कल्मषा जायते ये जैना यतयचिदात्मनि परं स्नेह समातम्यते । ६९ ॥ 70) सम्यग्दर्शनधोधपतनिचितः शाम्तः शिवैषी मुनि मन्दः स्थाववधीरितोऽपि विशदः साम्यं यदालम्बते। तस्मिन् संघटितोपदुःखे। तत्रोप्रेक्षते। कस्मिन् केन। उज्झितशालियो धान्यरहितक्षेचे वृतिरिव निष्फलम् ॥६॥ किम इति सस्ते। अत्र भरतोये। कलौ पचमकाले। संप्रति इदानीम् । केबली न अस्ति । किंलक्षणः केवली । प्रैलोक्यचूर केवलम् । तदावः तस्य जिनस्य बायः । बासते तिष्ठन्ति । विलक्षणा वाचः । जगढ्योतिकाः । तासां वाणीनां समालम्बनम् । सहभत्रयषारिणो यतिवराः तिष्ठन्ति । तेषां यतीना पूजा तत्पूजा कता जिनवापि पूजन कृतम् । मतः जिनवाचि पूजनात् साक्षाजिनः पूजितः ॥१८॥ ये जैमा यतयः । परम् उत्तम् । मिदात्मनि विषये झेई समातन्वते आरमनि प्रीति विस्तारयन्ति । सदनिकमलैः तेषो यतीनां चरणकमलैः कृत्वा । यत्र प्रदेशे । या मही पृथ्वी। स्पृष्टा स्थर्शिता भवति। तत्र प्रदेशे । सा मही। सत्तीर्थताम् एति गच्छति । तेभ्यः मुनिभ्यः। तेऽपि ताजलिपुटाः सुराः। निर्य सदेव नमः नमस्कार कुर्वते तमामस्मृति मात्रतोऽपि तेषां मुनीनो नामस्मरणमात्रतः । जनता जनसमुः । निश्कल्मषा जायते पापरहिता जायते ॥ ६॥ मन्दः मूलैः । अवधीरितोऽपि अपमानितोऽपि । यस्साभ्यम् उपशमम् मालम्पते तदा विशवः स्यात् भवेत् । किलक्षणो मुनिः । सम्यग्दर्शनबोधतिनिधितः। पुनः शान्तः। पुनः शिवैषी मोक्षामिलायी। तै- मन्दैः दुष्टः। भात्मा विहतः । अत्र जगति । तेषाम् अकल्याणिना धान्याचुरोंसे रहित खेतमें वांसों या कांटों आदिसे बढका निर्माण करना ।। ६७ ॥ इस समय इस कलिकाल (पंचम काल) में भरतक्षेत्रके भीतर यद्यपि तीनों लोकोंमें श्रेष्ठभूत केवली भगवान् विराजमान नहीं हैं फिर मी लोकको प्रकाशित करनेवाले उनके वचन तो यहां विद्यमान हैं ही और उन वचनकि आश्रयभूत सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्ररूप उत्तम स्नत्रयके धारी श्रेष्ठ मुनिराज हैं। इसीलिये उक्त मुनियोंकी पूजा वास्तवमें जिनवचनोंकी ही पूजा है, और इससे प्रत्यक्षमें जिन भगवानकी ही पूजा की गई है ऐसा समझना चाहिये ।। विशेषार्थ-इस पंचम कालमें भरत और ऐयवत क्षेत्रोंकि मीतर साक्षात् केवली नहीं पाये जाते हैं, फिर भी जनोंके अज्ञानान्धकारको हरनेवाले उनके वचन (जिनागम ) परम्परासे प्राप्त है ही। चूंकि उन वचनोंके ज्ञाता श्रेष्ठ मुनिजन ही हैं अत एव वे पूजनीय है। इस प्रकारसे की गई उक्त मुनियोंकी पूजासे जिनागमकी पूजा और इससे साक्षात् जिन भगवान्की ही की गई पूजा समझना चाहिये ।।६८॥ जो जैन मुनि ज्ञान-दर्शन स्वरूप चैतन्यमय आत्मामै उलूट लेहको करते हैं उनके चरण कमलोंके द्वारा जहां पृथिवीका स्पर्श किया जाता है यहांकी वह पृथिवी उत्तम तीर्थ बन जाती है, उनके लिये दोनों हाथोंको जोड़कर वे देव मी नित्य नमस्कार करते हैं, तथा उनके नामके स्मरणमात्रसे ही जनसमूह पापसे रहित हो जाता है ॥ ६९ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्रसे सम्पन्न, शान्त और आत्मकल्याण (मोक्ष) का अभिलाषी मुनि अज्ञानी जनोंके द्वारा तिरस्कृत होकर भी चूंकि समता (वीतरागता ) का ही सहारा लेता है अत एव वह तो निर्मक ही १काधि। २ जनसमूहा। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A -78:१७ चमोपदेशानवम् आत्मा सविहीवच विषयासalive संपातो भवितोमदुम्सनरके तेषामकल्याणिनाम् ॥७॥ 71) मानुष्य प्राप्य पुण्यात्मशममुपगता रोगवयोगजात भरखा गत्वा धमान्तं इशि विदि चरणे ये स्थित संगमुक्ताः। का सोता वाक्पथातिकमणपद्गुणैराश्रिताना मुनीनां स्तोतय्यास्ते महर्भुिवि य ह तवप्रिय भलिभाजः ॥५॥ 72) तत्त्वार्थाप्ततपोभूता यतिवराः भवानमाहुरंश पार्न जानदनूनमप्रतिहत स्वार्थावसंदेहवत् । चारित्रं विरतिः प्रमावपिलसत्कर्माधवायोगिना एतन्मुक्तिपथलायं च परमो धर्मो भवच्छेदकः ॥ २॥ 73) इदयभुवि हगेकं बीजमुप्त स्वशङ्कामभूतिगुणसवम्भःसारणी सिकमुः। मन्दानाम् । निश्चितम् । उपदुःखनरके संपात्तः भविता सेषां नरकपतमै भविष्यति । किलक्षणे नरके। भिषमध्यान्सात्रिते अन्धकारयुक्त ॥..॥ मुनीना स्तोता कः मुनीना स्वबनकर्ता का। भपि तुन कोऽपि। किंलक्षणाना मुनीनाम्। वाक्पथातिक्रमणपटुगुणैराश्रितानां वयनातीत-त्रयनागोचरश्रेष्ठगुणयुक्तानाम्। ये मुनयः पुण्यान्मानुष्यं मनुष्यपदम् । प्राप्य । प्रशममुपगताः । भोगजाले भोगसमूहम् । रोगवन्मत्वा बनान्तं गत्वा । ये मुनयः । दृशि विवि वरणे दर्शनझामचारित्रे स्थिताः। परिनहर हिताः । जगति विषये। भषि प्रथिव्याम् । ते मुनयः। महद्धिः पपिद्धतः । खोसण्याः। किलक्षणाः पण्डिताः । तेषां मुनीना अद्रितये भक्तिभाजः । तेऽपि स्वोतव्याः ॥ ॥ इति पत्याचारधी॥ सत्त्वार्याप्ततपोमृता सिद्धान्ताईन्मुनीना श्रद्धान यतिवरा दर्श दर्शनमाहुः कथयन्ति । स्वार्थों जागत् भान आहुः खपरप्रकाशक शानम् आहुः कथयन्ति । किंलक्षणे ज्ञानम् । अप्रतिहतं न केनापि इतम् । पुनः अन्न पूर्ण ज्ञानम् । पुनः किलक्षण ज्ञानम् । असन्वेहवत् सन्देहरहितम् । योगिना मुनीनाम् । प्रमादविलसत्कर्मातवाद विरतिः चारित्रम् । प्रमादरहित बारित्रं कपयन्ति । एतत्रयं मुक्तिपथः दर्शनशानवारित्रं मुक्तिपथः कारणमिति शेषः । च पुनः । अयं परमो धर्मः । भवच्छे विनाशकः ॥ ४२ ॥ एकम् । एक् दर्शनं बीजम् । हृदयभुवि हृदयभूमौ । उतं वापितम् । किलक्षण दर्शनम् । स्वशाराप्रमृतिगुणरहता है । किन्तु वैसा करनेसे वे अज्ञानी जन ही अपनी आत्माका घात करते हैं, क्योंकि, कल्याणमार्गसे भ्रष्ट हुए उन अज्ञानियोंका गाढ़ अन्धकारसे व्याप्त एवं तीन दुःखोसे संयुक्त ऐसे नरक, नियमसे पतन होगा ॥ ७० ॥ जो मुनि पुण्यके प्रभावसे मनुष्य भवको पाकर शान्तिको प्राप्त होते हुए इन्द्रियजनित भोगसमूहको रोगके समान कष्टदायक समझ लेते हैं और इसीलिये जो गृहसे वनके मध्यमें जाकर समस्त परिग्रहसे रहित होते हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यकचारित्रमें स्थित हो जाते हैं; वचनके अगोचर ऐसे उत्तमोत्तम गुणोंके आश्रयभूत उन मुनियोंकी स्तुति करनेमें कौन-सा स्त्रोता समर्थ है। कोई मी नहीं। जो जन उक्त मुनियोंके दोनों चरणों में अनुराग करते हैं वे यहां पृथिवीपर महापुरुषों के द्वारा स्तुति करनेके योग्य हैं ॥ ७१ ॥ इस प्रकार मुनिके आचारधर्मका निरूपण हुआ ॥ सात सत्त्व, देव और गुरुका श्रद्धान करना; इसे मुनियोंमें श्रेष्ठ गणघर आदि सम्यग्दर्शन कहते हैं । स्व और पर पदार्थ दोनोंकी न्यूनता, बाधा एवं सन्देहसे रहित होकर जो जानना है इसे ज्ञान कहा जाता है । योगियोंका प्रमादसे होनेवाले कर्मास्रवसे रहित हो जानेका नाम चारित्र है । ये तीनों मोक्षके मार्ग हैं । इन्हीं तीनोंकोही उत्तम धर्म कहा जाता है जो संसारका विनाशक होता है ॥७२॥ हृदयरूपी पृथिवीमें बोया गया एक सम्यग्दर्शनरूपी बीज निःशंकित आदि आठ अंगस्वरूप उत्तम जल्से परिपूर्ण शुद्र एक जालम् । २ व सारिणी। पति बलाचारभः पूर्णः, म इति यत्माचार सति बलाचारभमः । Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ पनष्टिपतिः [74:2-4 भयद्यगमशाखच्चादचारित्रपुष्पस्तदरमृतफलेन प्रीणयत्याशु भव्यम् ॥ ७३ ॥ 74) गमत्रालंकृत सिद्धिपात्रं लघुरपि न गुरुः स्यादन्यथात्वे कदाचित् । स्फुटमवगतमा याति भन्दो ऽपि गच्छभिमतपदमभ्यो नैव तूर्णो ऽपि जन्तुः ॥ ७४ ॥ 75) वनशिखिनि सृतो ऽन्यः संचरन् बाढमवि द्वितयविकल मूर्तिर्वीक्षमाणो ऽपि खजः । अपि सनयनपादो ऽधानञ्च तस्माद्वगवगमचरित्रैः संयुतैरेव सिद्धिः ॥ ७५ ॥ सदम्भः सारिणीतिः तु पुनः अशक्का आदिवष्टगुणाः सत्समीचीना एव अम्भःसारणी' जलधोरिणी' तथा सिकं सिश्चितम् बैः खातिशयेन । तरुः अमृतफळेन । आशु शीघ्रम् । भयं प्रीणयति पोषयवि । किंलक्षणस्तरुः । चादचारित्रपुष्पः । मध्यम् असफलेन मोक्ष फळेन पोषयति । पुनः विलक्षणस्तदः । भवदवगमशावः । भवद् उत्पद्यमानः अवगमः ज्ञानं तदेव शास्त्रा श्रस्य सः ॥ ७३ ॥ कश्विन्मुनिः लघुरपि तथा शिष्योऽपि यदि हगवगमचरित्रालङ्कृतो दर्शनशानचारित्रसहितः । सिद्धि पात्रं स्थाद्भवेत् । अन्यवात् गुरु परिथेऽपि दर्शनज्ञान चारित्ररहितः सिद्धिपात्रं न स्यात् मोक्षभोका न भवति । तत्र दृशन्तमाह । स्फुटं प्रगटम् 1 अवगतमार्गः शातमार्गः । जन्तुः जीवैः । मन्दोऽपि गच्छन् मन्दं मन्दं गरछन् । अभिमतपदं याति मभिलषितपदं याति । अन्यः शातमार्गः जीवः । सूर्योऽपि गच्छन् शीघ्रममनसहितः । अभिमतपदं न याति गच्छति न ॥ ७४ ॥ अन्धः । बनशिखिनि दवाओं । सृतः । किंलक्षणोऽन्यः । बाढम् अतिशयेन । संचरन् गच्छन् । पुनः स्वजः पशुः वनशिखिनि मृतः । किंलक्षणः खनः । वीक्षमाणोऽपि अनलोकमानोऽपि । पुनः किंलक्षणः खमः । मतिद्वितयविकलमूर्तिः चरणरहितः । च पुनः । सनयनपादः पुमान् वनशिखिनि मृतः । किंलक्षणः सनयनपादः । श्रद्दधानः भालस्यसहितः । तस्मात्कारणात् । रगवगमचरित्रेः नदीके द्वारा अतिशय सींचा जाकर उत्पन्न हुई सम्यग्ज्ञानरूपी शाखाओं और मनोहर सम्यक्चारित्ररूपी पुष्पों से सम्पन्न होता हुआ वृक्षके रूपमें परिणत होता है, जो भव्य जीवको शीघ्र ही मोक्षरूपी फलको देकर प्रसन्न करता है ॥ ७३ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र से विभूषित पुरुष यदि तप आदि अन्य गुणोंमें मन्द भी हो तो भी वह सिद्धिका पात्र है, अर्थात् उसे सिद्धि प्राप्त होती है । किन्तु इसके विपरीत यदि रत्नत्रयसे रहित पुरुष अन्य गुणोंमें महान् भी हो तो भी वह कभी भी सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता है। ठीक ही है—स्पष्टतया मार्गसे परिचित व्यक्ति यदि चलने में मन्द मी हो तो भी वह धीरे धीरे चरकर अभीष्ट स्थानमें पहुंच जाता है। किन्तु इसके विपरीत जो अन्य व्यक्ति मार्गसे अपरिचित है वह चलने में शीघ्रगामी होकर भी अभीष्ट स्थानको नहीं प्राप्त हो सकता है ।। ७४ ।। दावानलसे जलते हुए वनमें शीघ्र गमन करनेवाला अन्धा मर जाता है, इसी प्रकार दोनों पैरोंसे रहित शरीरवाला लंगड़ा मनुष्य दावानलको देखता हुआ भी चलने में असमर्थ होनेसे जलकर मर जाता है, तथा अमिका विश्वास न करनेवाला मनुष्य मी नेत्र एवं पैरोंसे संयुक्त होकर भी उक्त दावानलमें भस्म हो जाता है। इसीलिये सम्यग्दर्शन, सम्यन्हान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके एकताको प्राप्त होनेपर ही उनसे सिद्धि प्राप्स होती है; ऐसा निश्चित समझना चाहिये ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार उक्त तीनों मनुष्योंमें एक व्यक्ति तो असे अग्निको देखकर और भागने में समर्थ होकर भी केवल अविश्वासके कारण मरता है, दूसरा (अन्धा ) व्यक्ति अमिका परिज्ञान न हो सकनेसे मृत्युको प्राप्त होता है, तथा तीसरा ( लंगड़ा ) व्यक्ति अभिपर भरोसा रखकर और उसे जानकर मी चलनेमें असमर्थ होनेसे ही मृत्युके मुखमें प्रविष्ट होता है। उसी प्रकार ज्ञान और चारित्र से रहित जो प्राणी तत्त्वार्थका केवल श्रद्धान करता है, श्रद्धान और आचरणसे रहित जिसको एक मात्र तत्त्वार्थका परिज्ञान ही है, अथवा श्रद्धा और ज्ञानसे रहित जो जीव केवल चारित्रका ही परिपालन करता है; इन तीनोंमेंसे किसीको भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती । वह तो इन तीनों की १ बस न स एव अन्य २ वा सारिमी धारिणी । ४ ब झ अम्यया । ५ स ज्ञातमार्गः जीवः । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -79: १-७९] १. धर्मोपदेशामृतम् । २३ 76) बहुभिरपि किमन्यैः प्रस्तरै रत्नसहर्षपुषि जनितखेदैर्भारकारित्वयोगास् । हतदुरिततमोमिथायरत्नेरनलिभिरपि फुरुतात्मालंकृति दर्शनाधैः ॥ ६ ॥ 77) जति स्वखगिहा मेरी सकलमलघिमुक्त पर्शनं यद्विना स्यात् । मतिरपि कुमतिर्नु दुश्चरि चरित्र भवति मनुजसम्म प्राप्तममाप्तमेव ॥ ७ ॥ 78) भवभुजगनागदमनी दुःखमहादायशमनजलवृष्टिः। मुक्तिसुखामृतसरसी जयति गादित्रयी सम्यक ॥ ७८॥ 79) यचनविरचितैयोत्पद्यते भेदबुद्धिडंगवगमचरित्राण्यात्मनः स्वं स्वरूपम् । अनुपचरितमेतश्चेतनैकस्वभावं व्रजति विषयभावं योगिनो योगः ॥ ७९ ॥ त्रिभिः संयुतैः सिद्धिः । एव निश्चयेन ॥ ५५ ॥ भो यतिवराः । अन्यैः बहुभिः रत्नसंज्ञैरपि कि प्रयोजनम् । किलक्षणे रणसंझेः । प्रस्तरैः पाषाणमयैः । पुनः भारकारिरवयोगात् भारस्वभावात् । वपुषि शरीरे । जनितनेदैः उत्पादितखेदैः । इति हेतोः । भो मुनयः । त्रिभिः चारनैः दर्शनायैः । आत्मानं अलंकृतं मण्डितं कुरुत । किंलक्षणैः दर्शनायैः । हतदुरिततमोभिः स्फेटितपापैः ॥ ७६ ॥ वर्शनं जयति । किलक्षणं दर्शनम् । सुखनिधानम् । पुनः किलक्षणम् । मोक्षक्षकवीजम् । पुनः किलक्षण दर्शनम् । सकरमालविमुक्त मलरहितम् । यद्विना येन दर्शनेन विना मतिरपि कुमतिः । येन र्शनेन विना चरित्र दुखरित्रम् । पुनः येन दर्शनेन विना मनुजजन्म मनुष्यजन्म। प्राप्तम् अपि अप्राममेव निश्चयेन ॥ ७॥ सम्यक् निश्चयेन । गादित्रयी जयति । किलक्षणा गादित्रयी। भवभुजगनागदमनी संसारसपेस्फेटने औषधिः । पुनः किलक्षणा रगादित्रयी। दुःखमहादाकशमनजलवृष्टिः दुःखाग्निशमने जलबष | पुनः किलक्षणा त्रयी । मुस्किसुरक्षामृतसरसी मुक्तिसुरवामृतसरोवरी । त्रयी जयति ॥॥ भेदबुद्धिर्भेदविज्ञान बुद्धिः । वचनविरचिता उत्पद्यते एवं सुगनगमचरित्राणि आस्मनः खं स्वरूपम् अस्ति । किंलक्षण स्वरूपम् । अनुपचरितम् उपचाररहितम् । पुनः एतत्स्वरूपं चेतनेकखभावम् । योगिना योगदऐः विषमभावं गोचरभावं प्रगति योगीश्वरशान एकवामें ही प्राप्त हो सकती है 11 ७५ || 'रत्न' संज्ञाको धारण करनेवाले अन्य बहुत-से पत्थरों से क्या लाभ है ? कारण कि भारयुक्त होनेसे उनके द्वारा केवल शरीरमें खेद ही उत्पन्न होता है । इसलिये पापरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाले सम्यग्दर्शनादिरूप अमूल्य तीनों ही सुन्दर रनोंसे अपनी आत्माको विभूषित करना चाहिये । ७६ ॥ जिस सम्यग्दर्शनके विना ज्ञान मिथ्याज्ञान और चारित्र मिथ्याचारित्र हुआ करता है वह सुखका स्थानभूत, मोक्षरूपी वृक्षका अद्वितीय बीजस्वरूप तथा समस्त दोषोंसे रहित सम्यग्दर्शन जयवन्त होता है । उक्त सम्यग्दर्शनके विना प्राप्त हुआ मनुष्यजन्म भी अप्राप्त हुएके ही समान होता है [ कारण कि मनुष्यजन्मकी सफलता सम्यग्दर्शनकी प्राप्तिमें ही हो सकती है, सो उसे प्राप्त किया नहीं है ] ॥ ७७ ॥ओ सम्यग्दर्शन आदि तीन रन संसाररूपी सर्पका दमन करनेके लिये नागदमनीके समान हैं, दुखरूपी दावानलको शान्त करनेके लिये जलवृष्टिके समान हैं, तथा मोक्षसुखरूप अमृतके तालाबके समान हैं; वे सम्यग्दर्शन आदि तीन रस भले प्रकार जयवन्त होते हैं ॥७८॥ सम्यग्दर्शन, सम्यज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों आत्माके निज स्वरूप हैं। इनमें जो भिन्नताकी बुद्धि होती है वह केवल शब्दजनित ही होती हैवास्तवमें वे तीनों अमिन ही हैं । आत्माका यह स्वरूप उपचारसे रहित अर्थात् परमार्थभूत और चेतना ही है एक स्वभाव जिसका ऐसा होता हुआ योगी जनोंकी योगरूप दृष्टिकी विषयताको प्राप्त होता है, अर्थात् १च प्रतिपाठोऽयम्ब क कुतात्मालरकृत, कुस्तामारूति । स स स्फोटने। एक पधन.५ Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ चयन्दिश 80) निवत्वं स्वतामुपागता मतिः सतां शुद्धनयावलम्बिनी । मेकं विशदं विवात्मकं निरन्तरं पश्यति तत्परं महः ॥ co 81) हर्निर्णीतयस्माद्वयविशदमहस्यत्र बोधः प्रवरेधः शुद्धं चारित्रमत्र स्थितिरिति युगपन्धबिसकारि । बापाचार्थमेव त्रितयमपि परं स्याच्छुभो शशुभो वा बन्धः संसारमेयं श्रुतनिपुणधियः साधयस्तं वदन्ति ॥ ८१ ॥ 82) अजनकृतषाधाक्रोशदासाप्रियादा अपि सति न विकारं यन्मनो याति साधोः । [80:3 गोचरखरूपं वर्तते वचनरतम् ॥ ४९ ॥ ये साधवः । तत्त्वम् आत्मस्वरूपम् । निरूप्य कथयित्वा । स्थिरताम् उपागतः स्थिरभाव प्राप्ताः । तेषां सुमीनां मतिः । तत्पर मदः निरन्तरं पश्यति । किंलक्षणा बुद्धिः । शुद्ध नयावलम्बिनी । किंलक्षणं महः । म खण्डरहितम् एकम् । पुनः विशदं निर्मलं चिदात्मकम् । सुनयः पश्यन्ति ॥ ८० ॥ आत्माविशद्महसि निणत्तिः दृष्टिः निर्णयं दर्शनं भवति । अत्र आत्मनि बोधः प्रबोधः शामं मवति । वत्र आत्मनि स्थितिः शुद्धं चारित्रं भवति । इति त्रितयमपि । युगपत् बन्धविध्वंसकारी[ रि] कर्मबन्धस्टकम् । त्रितयं बाह्य रत्नत्रयं व्यवहाररात्र माह्यार्थसूचक जानीहि । पुनः बाह्य रमत्रयं परं वा शुभो या अशुभ या वन्यः स्यात् । श्रुतः ॥ इति रत्नत्रयस्वरूपम् ॥ व्यथोत्तमं क्षमामार्दवार्जव सत्यशौच संयमतपस्त्यागामिन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः इति दशधर्मं निरूपयति । सा उत्तमा श्रेष्ठा क्षमा । मा क्षमा । शिवपयपथिकानां मोक्षमार्गे प्रवर्तकाना (?) मुनीनाम् । आदौ प्रथमम् । सत्सहायत्वमेति सहायत्वं गच्छति । यत्र क्षमायाम् । साधोः मुनेः । यन्मनः विकारे न याति । क सति । अअगकृताघाकोशासाप्रियादी अपि सति जज्जनैः उसका अवलोकन योगी जन ही अपनी योग-दृष्टिसे कर सकते हैं ।। ७९ ।। शुद्ध नयका आश्रय लेनेवाली साधु जनोंकी बुद्धि तत्त्वका निरूपण करके स्थिरताको प्राप्त होती हुई निरन्तर अखण्ड, एक, निर्मल एवं चेतनस्वरूप उस उत्कृष्ट ज्योतिका ही अवलोकन करती है ॥ ८० ॥ आत्मा नामक निर्मल तेजके निर्णय करने अर्थात् अपने शुद्ध आत्मरूपमें रुचि उत्पन्न होनेका नाम सम्यग्दर्शन है । उसी आत्मस्वरूपके ज्ञानको सम्यग्ज्ञान कहा जाता है | इसी आत्मस्वरूपमें लीन होनेको सम्यक्चारित्र कहते हैं । ये तीनों एक साथ उत्पन्न होकर बन्धका विनाश करते हैं। बाह्य रत्नत्रय केवल नाथ पदार्थों (जीवाजीवादि ) को ही विषय करता है और उससे शुभ अथवा अशुभ कर्मका बन्ध होता है जो संसारपरिभ्रमणका ही कारण है । इस प्रकार आगमके जानकार साधुजन निरूपण करते हैं ! विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् - चारित्र इन तीनोंमेंसे प्रत्येक व्यवहार और निश्चयके मेदसे दो दो प्रकारका है। इनमें जीवादिक सात तत्वों के यथार्थ स्वरूपका श्रद्धान करना व्यवहार सम्यग्दर्शन कहलाता है । उनके स्वरूपके जाननेका नाम व्यवहार सम्यग्ज्ञान है | अशुभ क्रियाओंका परित्याग करके शुभ क्रियाओंमें प्रवृत्त होनेको व्यवहार सम्यक् - चारित्र कहा जाता है । देहादिसे भिन्न आत्मामें रुचि होनेका नाम निश्चय सम्यग्दर्शन है । उसी देहादिसे भिन्न आत्मा के स्वरूपके अवबोधको निश्चय सम्यग्ज्ञान कहा जाता है । आत्मस्वरूपमें लीन रहनेको निश्चय सम्यक् चारित्र कहते हैं । इनमें व्यवहार रलत्रय शुभ और अशुभ कर्मों के बन्धका कारण होनेसे स्वर्गादि अभ्युदयका निमित्त होता है । किन्तु निश्चय रत्नत्रय शुभ और अशुभ दोनों प्रकारके ही कर्मो के बन्षको नष्ट करके मोक्षसुखका कारण होता है ॥ ८१ ॥ इस प्रकार रत्नत्रय के स्वरूपका निरूपण हुआ | अज्ञानी जनके द्वारा शारीरिक बाबा, अपशब्दों का प्रयोग, हास्य एवं और भी अप्रिय कार्योंके किये जानेपर जो १. कारी । २ का कोष कोष वा स्कन् + Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -85:१-८५] १. धमारपेशामृतम् अमलविपुलविवेकसमा सा क्षमादौ शिवपथपविकाना सत्सहापत्वमेति ॥ 88) धामन्यपुण्यतरसगुणोपशाला पत्रप्रसूननिचितोऽपि फलाम्यवस्था । याति झर्य मणत पव घमोनकोप दावानलात् त्यसव त यतयो ऽतिदूरम् ॥ ८ ॥ 84) तिष्ठामो षयमुजवलेन मनसा रागादिवोचोजिसताः लोक किंचिदपि स्वकीयहदये खेच्छाधरो मम्यताम् । साध्या शुद्धिरिहात्मनः शमषतामत्रापरेण विषा मित्रेणापि किमु खषेष्टितफल स्वार्थी स्वयं लप्स्यते ॥ ४॥ 85) दोषामाधुष्य लोके मम भवतु सुखी बुर्जनमेवनार्थी तत्सर्वस राहीस्वा रिपरथ सहसा जीवितं स्थानमन्पः। मध्यस्यस्पमेधासिलामेह जगज्जायतां सौल्यराशिः मसो माभूदसौख्यं कथमपि भाविनः कस्यचिस्पूस्करोमि ॥ ८॥ मूर्खअनैः श्लोक (1) तेन कृता बाधा लोकतयाथों । आशा कठोरपवनम् । हास्यअप्रियअहितकरीबचनविद्यमानेऽपि सति ॥८३ ॥ धामण्यपुण्यतमः भ्रमणस्य भावः श्रामण्यं श्रमण्यपद मुनिपदम् एव पक्षः। फलानि अवरवा क्षणतः एव र मावि। किलक्षणः तरुः । उच्चगुणोघशाखापत्रप्रसूननिधितोऽपि गुणशाखापत्रपुष्पसवितः पक्षः। घमोपकोपदावानात् बहुमकोषाः सकाशात् । विनाश याति । भो यतयः तं कोधम् । अतिर लजत ॥ ८३३) कधिन्मुनिः बैराग्यं चिन्तयति । ववमुखपत्र मनसा तिष्ठामः । किंलक्षणाः वयम् । रागाविदोषोजिमताः रागादिदोषरहिताः । खेरछाचरः लोकः स्वकीयहरये विविवापि मन्यताम् । इह जगति विषये । शमवता मुनीनाम् । पात्मनः शुद्धिः साध्या । अत्रापि मुनी। अपरेण निषा शत्रुणा कार्यम् । मित्रेणापि किमु स्वाथ खप्रयोजनम् । खचेष्टितफलम् आत्मना उपार्जितम् । स्वर्य लप्स्यते यास्मना प्राप्यते ॥४॥ मुनिः उदास(?) बिन्तयति। दुर्जनः लोके मम दोषान् माधुष्प कथयित्वा सुखी भवत्। यदि देवमाषी बुर्जनः सदा तत्सर्वस समस्तद्रय गृहीत्वा सुखी भवतु । अथ रिपुः सहसा जीवितं गृहीत्वा सुखी भवतु। अन्यः जनः स्थाभ गृहीत्वा सुखी भवतु । तु पुनः । बई मध्यस्थः । इह मयि अखिलं अगत् सौख्यराधिआयताम् । मत्तः सकाचात् कस्पचित् भनिनः जीवस । असौख्वं निर्मल व विपुल शानके धारी साधुक्म मन क्रोधादि विकारको नहीं प्राप्त होता है उसे उत्तम क्षमा कहते हैं। वह मोक्षमार्ग में चलनेवाले पथिक जनों के लिये सर्वप्रथम सहायक होती है ॥ ८२ ।। मुनिधर्मसपी पवित्र पक्ष उन्नत गुणोंके समूहरूप शाखाओं, पसों एवं पुष्पोंसे परिपूर्ण होता हुआ भी फलोंको न देकर अतिशय तीन कोधरूपी दावामिसे क्षणभरमें ही नाशको प्राप्त हो जाता है । इसलिये हे मुनिजन ! आप उस कोषको दूरसे ही छोड़ दें ।। ८३॥ हम लोग रागादिक दोषोंसे रहित होकर विशुद्ध मनके साथ स्थित होते हैं। इसे यथेच्छ आचरण करनेवाला जनसमुदाय अपने हृदयमें कुछ भी माने । लोकमें शान्तिके ममिलापी मुनिजनों के लिये अपनी आत्मशुद्धिको सिद्ध करना चाहिये । उन्हें यहां दूसरे शत्रु अभदा मित्रसे भी क्या प्रयोजन है ! यह (शत्रु या मित्र) तो अपने किये हुए कार्यके अनुसार स्वयं ही फल प्राप्त करेगा ॥ ८४ ।। यदि दुर्जन पुरुष मेरे दोषोंकी घोषणा करके सुखी होता है तो हो, यदि धनका अभिलाषी पुरुष मेरे सर्वस्वको ग्रहण करके सुली होता है तो हो, यदि शत्रु मेरे जीवनको ग्रहण करके सुखी होता है तो हो, यदि दूसरा कोई मेरे खानको प्रहण करके सुखी होता है तो हो, और जो मध्यस्थ है- राग-द्वेषसे रहित है-यह ऐसा ही मध्यस बना रहे। र भकश चिते। २म समाजनभूजनलोक शिन बार, म.साचनमूमजन गोलीन ना गाया। Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Insmaanhannnnranaamanaanavarnanaha मानदि पानिशतिः [86 :१-८६86) किं जानासि न पीतराममखिलत्रैलोक्यचूडामणि कि त समाश्रितं न भवता किं वा न लोको जडः। . मिथ्यारम्भिरसज्जनैरपटुभिः किंचित्कृतोपद्रवात यत्कर्मार्जनहेतुमस्थिरतया वार्घा मनो मन्यसे ।। ८३ ॥ 87 ) धर्मानमेतदिह मार्ववनामधेयं जात्यादिगर्षपरिहारमुशन्ति सन्तः। सञ्चार्यते किमुत पोषरशा समस्तं स्वमेन्द्रजालसहर्श जगदीक्षमाणः ॥ ८॥ 88) कास्या सानि सुन्दरे ऽपि परितो दन्दह्यमानानिमिः कायादौ तु जरादिभिः प्रतिदिनं गच्छस्यवस्थान्तरम् । स्यालोषयतो हदि प्रशासन शश्वद्वियेकोजवले गर्षस्यावसरः कुतोऽत्र घटते भावेषु सर्वेष्वपि ।। ८८ ॥ दुःखम् । मा भूत मा भवतु कथमपि मा भवतु इति पत्करोमि ॥ ८५॥ हे मनः वीतराग कि न जानासि। किंलक्षण वीतरागम् । अखिलस्प्रेक्यघगमणिम् । तद्धर्म [4] किन समाश्रितं तस्य वीतरागस्य धर्म किन समाधितं भवता। वा अथवा । लोकः अन । अपितु अहोऽस्ति। यत् यस्मात्कारणात् सिध्यारम्भिः किंचित्कृतोपद्रवात् । मस्विरप्तया चचलतया । पाधां मन्यसे । किसक्षणैः। भराजनैः तुष्टैः । पुनः अपटुभिः मूर्तेः । किलक्षणां चाधाम् । कर्मार्जनहेतुं कर्मोपार्जनहेतुम् ॥ ६॥ सन्तः साघवः एतत् जात्यादिगःपरिहारम् । मार्दवनामधेमम् । शन्ति कथयन्ति । तन्मार्दवं धर्माजम् । समस्त जगत् । खगेन्द्रजालसदृशं स्वामतुल्पम् । ईक्षमाणः विलोकमानः पुरुषैः । बोपदृसा शानदृष्टया कृत्वा । मार्दव किमु न धार्यते । अपि तु धार्यते ॥ ८ ॥ अत्र संसारे। प्रशमिनः मुनेः । इदि हृदयविषये। सर्वेचपि भावेषु जातिकुलतपोशामादिअष्टमदादिषु पञ्चदशप्रमादादिषु विषये । गवस्य अवसरः कुतः घटते । किंलक्षणे इदि । शश्वद्भिवकोज्यले। किलक्षणस्य मुनेः । इत्यालोचयतः इति विचारयतः। इतीति किम् । सपनि गृहे । कास्था का स्थितिः को विश्वासः । किसक्षणे गृहे। सुन्दरेऽपि नेत्रानन्दकरेऽपि । परितः सर्वतः समन्तात् । भग्निमिः बन्दस्यमानेऽपि दग्धीभूते । तु पुनः । कायादौ शरीरे । कास्था को विश्वासः । किलक्षणे कायादौ । जरादिभिः प्रतिदिनम् यहाँ सम्पूर्ण जगत् अतिशय सुखका अनुभव करे । मेरे निमित्तसे किसी भी संसारी प्राणीको किसी भी प्रकारसे दुख न हो, इस प्रकार मैं ऊंचे स्वरसे कहता हूं ॥ ८५ ॥ हे मन ! तुम क्या पूरे तीनों लोकोंमें चूडामणिके समान श्रेष्ठ ऐसे वीतराग जिनको नहीं जानते हो! क्या तुमने वीतरागकथित धर्मका आश्रय नहीं लिया है ? क्या जनसमूह जड़ अर्थात् अज्ञानी नहीं है ! जिससे कि तुम मिथ्यादृष्टि एवं अज्ञानी दुष्ट पुरुषोंके द्वारा किये गये थोड़े से भी उपद्रवसे विचलित होकर बाधा समझते हो जो कि कर्मासबकी कारण है ॥ ८६ ॥ जाति एवं कुल आदिका गर्व न करना, इसे सज्जन पुरुष मार्दव नामका धर्म बतलाते हैं । यह धर्मका अङ्ग है । ज्ञानमय चक्षुसे समस्त जगत्को स्वप्न अथवा इन्द्रजालके समान देखनेवाले साधु जन क्या उस मार्दव धर्मको नहीं धारण करते हैं ! अवश्य धारण करते हैं ॥ ८७ ॥ सब ओरसे अतिशय जलनेवाली अमियोंसे खण्डहर (खडेरा ) रूप दूसरी अवस्थाको प्राप्त होनेवाले सुन्दर गृहके समान प्रतिदिन बुद्धत्व भादिके द्वारा दूसरी ( जीर्ण ) अवस्थाको प्राप्त होनेवाले शरीरादि बाह्य पदार्थोंमें नित्यताका विश्वास कैसे किया जा सकता है ! अर्थात् नहीं किया जा सकता । इस प्रकार सर्वदा विचार करनेवाले साधुके विवेकयुक्त निर्मक हृदयमें जाति, कुल एवं ज्ञान आदि सभी पदार्थोके विषयमें अभिमान करनेका अवसर कहांसे धर्मः। २५ विलोक्यमानैः। ३ महानवृष्टजय सत्या, का शानाष्टका बात रया। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -93:१२३ १. घमापदेशामृतम् 89) वि यत्तद्वाचि बहिः फलति तदेवार्जवं भवस्येतत् । धर्मों निकृतिरयमों द्वाविह सुरसानरकपथौ ॥ ८९॥ 90) मायित्वं कुरुते कृतं सदपि छायाविघातं गुणे वाजातेयमिनो ऽजितेनिह गुरुक्लेशैः समादिष्यलम् । सर्वे तग मारते सिमिततः क्रोधादयस्तस्वत स्तत्पापं बत येन दुर्गतिपथे जीपश्चिरं भ्राम्यति ।। ९० ॥ 91) स्वपरहितमेव मुनिभिर्मितममृतसमं सदैव सत्यं च । वक्तव्यं वचनमथ प्रविधेयं धीधनौनम् ॥ ११ ॥ 92) सति सन्ति तान्येव सनते वचसि स्थिते। भवत्याराधिता सद्भिर्जगत्पूज्या च भारती ।। ९२ ॥ 93) आस्तामैतवमुत्र सूनृतवचा कालेन यल्लप्स्यते सपस्वसुरवसंसूतिसरिस्पायप्तिमुख्य फलम् । अवस्थान्तर गच्छति अन्याम् अवस्था गच्छति सति । इति चिन्तयतः मुनेः गर्वावसरः कुतः ।। ८८ ॥ यत् इदि तत् पाचि वचसि वर्तते तदेव बहिः फलति एतदार्जेब भवति आर्जवधर्म(१) भवति । निकृतिः माया अधर्मः। इह जगति विषये । द्वौ भावधर्ममायाधर्मों सुरसमनरकपथौ स्तः ॥ ८९॥ यमिनः मुनीश्वरस्य । सकृदपि मायित्वं कृतम् । समादिषु गुणेषु छायाविधाले विमा कुरुते । किलक्षणेषु गुणेषु । इह जगति । आजातेः गुरुक्लेशः अजिसेषु दीक्षाम् आमयाचीकृत्य उपार्जितेषु। केः। गुरुलेशः। अलम् भत्सर्वम् । यत् तत्र मायासमूह । तत्वतः परमार्थतः । सर्वे क्रोधादयः । अतिनिभृताः पूर्णाः। आसते तिष्ठन्ति । यत इति खेदे। मायित्वेन तप्पा भयति येन पापेन जीवः दुर्गतिपथे। चिरं बहुकालम् । भ्राम्यति ।। ९. मुनिभिः सत्यं वचनं सदैव वक्तव्यम्। किलक्षणं वचनम् । खपरहितं आत्मपरहितकारकम् । पुनः किलक्षणं वचनम् । मितं मर्यादासहितम् । पुनः किंलक्षणम् । अमृतसमम् अमृततुल्यं वचः वक्तव्यम् । अथ धीधनैः मुनिभिः । मौनं प्रविधेयं मौनं कर्तव्यम् ।।९१॥ सूनृते सत्यै। वचसि स्थिते सति । सर्वाणि व्रतानि सन्ति तिष्ठन्ति । च पुनः । सद्धिः पण्डितः। भारती सत्यवाणी 1 आराधिता भवति। किंलक्षणा वाणी । जगत्ज्या ॥५२॥ मनतवचाः सत्यवादी पुमान् । अमुत्र परलोके । यत्फलं कालेन लप्स्यते । एतदास्ताम् एतत्फले दूरे तिष्ठत । किंलक्षण फलम् । सपत्त्रमुरत्वसंमृतिसरित्पाराप्तिमुख्य सद्भूपस्वराज्यपदं सुरत्वं देवपद संसारनदीपारप्राप्तिमोक्षपदसूचकै यत्फलम् । इहैव प्राप्त हो सकता है ? अर्थात् नहीं प्राप्त हो सकता ।। ८८ ॥ जो विचार हृदयमें स्थित है वही वचनमें रहता है तथा वही बाहिर फलता है अर्थात् शरीरसे भी तदनुसार ही कार्य किया जाता है, यह आर्जव धर्म है। इसके विपरीत दूसरोंको धोखा देना, यह अधर्म है । ये दोनों यहां क्रमसे देवगति और नरकगतिके कारण हैं ।। ८२ ॥ यहां लोकमें एक बार भी किया गया कपटव्यवहार आजन्मतः भारी कष्टोंसे उपार्जित मुनिके सम ( राग-द्वेषनिवृत्ति ) आदि गुणोंके विषयमें अतिशय छायाविघात करता है, अर्थात् उक्त मायाचारसे सम आदि गुणोंकी छाया भी शेष नहीं रहती-वे निर्मूलतः नष्ट हो जाते हैं । कारण कि उस कपटपूर्ण व्यवहारमें वस्तुतः क्रोधादिक सभी दुर्गुण परिपूर्ण होकर रहते हैं । खेद है कि वह कपटव्यवहार ऐसा पाप है जिसके कारण यह जीव नरकादि दुर्गतियोंके मार्गमें चिर काल तक परिश्रमण करता है ॥९०॥ मुनियोंको सदा ही ऐसा सत्य वचन बोलना चाहिये जो अपने लिये और परके लिये भी हितकारक हो, परिमित हो, तथा अमृतके समान मधुर हो । यदि कदाचित् ऐसे सत्य वचनके बोलनेमें बाधा प्रतीत हो तो ऐसी अवस्था बुद्धिरूप धनको धारण करनेवाले उन मुनियों को मौनका ही अवलम्बन करना चाहिये ॥९१॥ चूंकि सत्य वचनके स्थित होनेपर ही व्रत होते हैं इसीलिये सज्जन पुरुष जगत्पूज्य उस सत्य वचनकी आराधना करते हैं ॥ १२ ॥ सत्य वचन बोलनेवाला प्राणी समयानुसार परलोकमें उत्तम राज्य, देव पर्याय एवं संसाररूपी नदीके पारकी ... समाविषम् । २ क समारिषु। Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ पद्मनन्द-पश्चविंशतिः यत्प्रामोति यशः शशाङ्कविशदं शिष्टेषु यम्माम्यतां तत्साधुत्वमिव जन्मनि परं तत्वेन संवयते ॥ ९३ ॥ 94 ) यत्परदारार्थादिषु जन्तुषु निःस्पृहमहिंसकं खेत दुश्चान्तर्मलसदेश f 95) गङ्गासागरपुष्करादिषु सदा तीर्थेषु सर्वेष्वपि तस्यापि न जायते तनुभृतः प्रायो विशुद्धिः परा । मिथ्यात्वादिमलीमसं यदि मनो याचे ऽतिशुद्धोदकेधौतः किं बहुशो ऽपि शुद्ध्यति सुरापुरप्रपूर्णो घटः १ ९५ ॥ 96) अन्तुकृपादितमनसः समितिषु साधोः प्रवर्तमानस्य । प्राणेन्द्रियपरिहारं संयममा दुर्महामुनयः ॥ ९६ ॥ 97 ) मानुष्यं कि दुर्लभं भवभृतस्तत्रापि जात्याइयस्तेष्वेवाप्तवचः श्रुतिः स्थितिरतस्तस्याध म्बोधने । [93: १-९३ जन्मनि भगत । परम् उत्कृष्टम् । शशाङ्कविशदं यशः प्राप्नोति । यत् शिष्टेषु सज्जनेषु । मान्यता भवति । यत्साधुत्वं भवति । तत्फलै केन सेवते । अपि तु न केनापि ॥१३॥ यत्परदारार्थादिषु परस्त्री पर अर्थादिषु परद्रव्येषु निःस्पृहं वाञ्छारहितम् । चेतः । पुनः जन्तुषु प्राणिषु। अहिंसकं खेतः । सदेव परं शौचम् । किंलक्षणं शौचम् । दुच्छेयान्तर्मलत दुर्भेद्यान्तमलरफेटकम् । अन्यत् हिंसादिपरत्वं द्रव्यादिगृहा । शांचं न ||१४|| यदि चेत् । तनुभृतः जीवस्य । मनः । मेध्यात्वादिमलीमसं वर्तते मिध्यात्वेन पूर्ण वर्तते । सदा । प्रायः बाहुल्येन । परा विशुद्धिर्न जायते विशुद्धिर्न उत्पद्यते । किंलक्षणस्य तनुभृतः जीवस्य । गङ्गासागरपुष्करादिषु सर्वेषु तीर्थेपि सदा तस्य । स्रापूरप्रपूर्णः घटः बांधे अतिशुद्धोदकैः शुद्धजलैः । बहुशोऽपि धौतः प्रक्षालितः अपि किं शुद्ध्यति । अपि तु न शुखति ॥ ९५ ॥ महामुनयः योगीश्वराः । साधोः । प्राणेन्द्रियपरिहारं प्राणरक्ष जीवस्य रक्षां इन्दियविषयत्यागं संयमम्। आहुः कथयन्ति। किंलक्षणस्य साधोः । जन्तुकृपादितमनसः जन्तुषु कृपया कृत्वा साईमनसः कूपालु चित्तस्य । पुनः लक्षणस्य साधोः । समितिषु प्रवर्तमानस्य ॥ ९६ ॥ किल इति सत्ये । भवभूतः जीवस्य । मानुध्ये मनुष्यपदम् । दुर्लभम् । तत्रापि मनुष्ये जात्यादयः दुर्लभाः । तेषु जात्यादिषु समीचीनेषु प्रसिषु सत्सु । आमवचः श्रुतेः दुर्लभा सर्वज्ञत्रचनवर्ण दुर्लभम् । अतः प्राप्ति अर्थात् मोक्षपद प्रमुख फलको पावेगा; यह तो दूर ही रहे। किन्तु वह इसी भवमें जो चन्द्रमाके समान निर्मल यश, सज्जन पुरुषोंमें प्रतिक्ष और साधुपनेको प्राप्त करता है उसका वर्णन कौन कर सकता है ! अर्थात् कोई नहीं ॥ ९३ ॥ चित्त जो परस्त्री एवं परधनकी अभिलाषा न करता हुआ षट्काय जीवोंकी हिंसासे रहित हो जाता है, इसे ही दुर्भेय अभ्यन्तर कलुषताको दूर करनेवाला उत्तम शौच धर्म कहा जाता है। इससे भिन्न दूसरा कोई शौच धर्म नहीं हो सकता है ॥ ९४ ॥ यदि प्राणीका मन मिथ्यात्व आदि दोषोंसे मलिन हो रहा है तो गंगा, समुद्र एवं पुष्कर आदि सभी तीर्थोंमें सदा स्नान करनेपर भी प्राय: करके वह अतिशय विशुद्ध नहीं हो सकता है। ठीक भी है - मधके प्रवाहसे परिपूर्ण घटको यदि बाह्यमें अतिशय विशुद्ध जसे बहुत बार धोया भी जावे तो भी क्या वह शुद्ध हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता || विशेषार्थ --इसका अभिप्राय यह है कि यदि मन शुद्ध है तो खानादिके बिना भी उत्तम शौच हो सकता है । किन्तु इसके विपरीत यदि मन अपवित्र है तो गंगा आदिक अनेक तीर्थोंमें बार बार स्नान करनेपर भी शौच धर्म कभी भी नहीं हो सकता है ॥९५॥ जिसका मन जीवानुकम्पासे भीग रहा है तथा जो ईर्ष्या-भाषा आदि पांच समितियों प्रवर्तमान है ऐसे साधुके द्वारा जो षटुकाय जीवोंकी रक्षा और अपनी इन्द्रियोंका दमन किया जाता है उसे गणधरदेवादि महामुनि संयम कहते हैं ॥ ९६ ॥ इस संसारी प्राणी मनुष्य भयका प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है, यदि मनुष्य पर्याय प्राप्त भी हो गई तो उसमें भी उत्तम जाति आदिका १ स भवति । २ स्फोटकम् । ३ जायते नोपयते । ४ स प्राणस्व रक्षा 1 ५ जन्तुमया । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -981-२८] ६.धर्मोपदेशामृतम् प्राप्ते ते अतिनिर्मले अपि पर स्याता न येनोमिते स्वोचैकफलप्रदेस व कर्यनलाध्यते संयमः॥१७॥ 98) कर्ममलविलयहेसोर्योधरशा तप्यते सपा मोक्तम् । व वेधा द्वादशधा जम्माम्बुधियानपात्रमिदम् ॥ ९८ ॥ माप्तवचःश्रुतेः सकाशात् स्थितिः दुर्लभा । तस्याः स्थितेः । च पुनः : रग्बोधने दुर्लभे । ते वे भपि सम्बोधने प्रतिनिर्म प्राप्ते सति । येन संयमेन । उजिसवे के 1 परम् । स्त्रोकफलप्रदे । न स्याता न भवेताम् । च पुनः । म संयमः कप म झाप्यते । अपि तु काप्यते ॥ ९७ ॥ तत् तपः प्रोक्तम् । यत्तपः । बोधरशा ज्ञाननेत्रेण । कर्ममलविलपहेतोः तप्यते । इदं तपः देवा । मिलना कठिन है, उत्तम जाति आदिके प्राप्त हो जानेपर जिनवाणीका श्रवण दुर्लभ है, जिनवाणीका श्रवण मिलनेपर भी बड़ी आयुका प्राप्त होना दुर्लभ है, तथा उससे भी दुर्लभ सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है । यदि अत्यन्त निर्मल वे दोनों भी प्राप्त हो जाते हैं तो जिस संयमके विना वे स्वर्ग एवं मोक्षरूप अद्वितीय फलको नहीं दे सकते हैं वह संयम कैसे प्रशंसनीय न होगा ! अर्थात् वह अवश्य ही प्रशंसाके योग्य है ॥९७ ।। सम्यग्ज्ञानरूपी नेत्रको शरण करनेवाले साधुके द्वारा जो कर्मरूपी मैलको दूर करने के लिये तपा जाता है उसे तप कहा गया है । वह बाध और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका तथा अनशनादिके मेदसे बारह प्रकारका है । यह तप जन्मरूपी समुद्रसे पार होनेके लिये जहाजके समान है | विशेषार्थ-जो कोका क्षय करने के उद्देशसे तथा जाता है उसे तप कहते हैं। वह बाप और अभ्यन्तरके भेदसे दो प्रकारका है । जो तप शप द्रव्यकी अपेक्षा रखता है तथा दूसरों के द्वारा प्रत्यक्षमें देखा जा सकता है वह बाध तप कहलाता है। उसके निम्न छह भेद हैं। १ अनशन – संयम आदिकी सिद्धिके लिये चार प्रकारके (अन्न, पेय, खाद्य और लेप) के आहारका परित्याग करना । २ अवमौदर्य - बत्तीस पास प्रमाण स्वाभाविक आहारमेंसे एक-दो-तीन आदि ग्रासोको कम करके एक मास तक ग्रहण करना । ३ वृत्तिपरिसंख्यान - गृहप्रमाण तथा दाता एवं भाजन आदिका नियम करना । गृहप्रमाण --जैसे आज मैं दो घर ही जाऊंगा । यदि इनमें आहार प्राप्त हो गया तो ग्रहण करंगा, अन्यथा ( दोसे अधिक घर जाकर ) नहीं । इसी प्रकार दाता आदिके विषयमें भी समझना चाहिये । ४ रसपरित्याग-दूध, दही, घी, तेल, गुड़ और नमक इन छह रसोंमेंसे एक-दो आदि रसोंका त्याग करना अथवा तिक्त, कटुक, कषाय, आम्ल और मधुर रसमिसे एक-दो आदि रसोंका परित्याग करना । ५ विविक्तशय्यासन — जन्तुओंकी पीड़ासे रहित निर्जन शून्य गृह आदिमें शय्या (सोना) या आसन लगाना । ६ कायक्लेश --- धूप, वृक्षमूल अथवा खुले मैदानमें स्थित रहकर ध्यान आदि करना । जो तप मनको नियमित करता है उसे अभ्यन्तर तप कहते हैं । उसके भी निन्न छह भेद हैं । १ प्रायश्चित्तप्रमादसे उत्पन्न हुए दोषोंको दूर करना। २ विनय - पूज्य पुरुषों में आदरका भाव रखना । ३ वैयावृत्य-शरीरकी चेष्टासे अथवा अन्य द्रव्यसे रोगी एवं वृद्ध आदि साधुओंकी सेवा करना । ४ स्वाध्याय - आलस्यको छोड़कर ज्ञानका अभ्यास करना । वह वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेशके भेदसे पांच प्रकारका है-१ निर्दोष प्रन्थ, अर्थ और दोनोंको ही प्रदान करना इसे वाचना कहा आता है । २ संशयको दूर करनेके लिये दूसरे अधिक विद्वानोंसे पूछनेको पृच्छना कहते हैं । ३ जाने हुए पदार्थकम मनसे विचार करनेका नाम अनुप्रेक्षा है। ४ शुद्ध उच्चारणके साथ पाठका परिशीलन करनेका माम नाम है। ५ धर्मकथा आदिके अनुष्ठाचको धर्मोपदेश कहा जाता है । ५ युसर्ग ---- अहंकार और Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AunnnnnnnnnnnnnwwwmanmadrARMAnnnnnny पसनम्वि-पञ्चविंशतिः [99:१९९99) कषायविषयोदमपुरतस्करोघो छात् सपासुमटताडितो विघटते यती दुर्जयः। अतो हि निरुपद्रवश्चरति तेन धर्मनिया यति समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम् ॥ १९ ॥ 163) मिथ्यात्वापयदि मम्तिा दुग्धमुसपीभ्यो जातं तस्मादवककणिकैकेय सर्वाधिनीरात। स्तोकं तेन प्रभवमखिलं कृच्छ्रलब्धे नरत्वे यचेतर्हि स्खलति तदहो का क्षतिीष से स्यात् ॥ १००० 101) व्याल्या यत् क्रियते श्रुतस्य यत्तये यहीयते पुस्तक स्थाने संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा । पुनः । द्वादशधा । पुनः इदं तपः । जन्माम्बुधियानपात्र संसारसमुद्रसरणे प्रोहणम् ॥ ९८ ॥ यतः यस्मात्कारणात् । कषायविषयोद्भटप्रचुरतस्करोषः कषायविषयचौरसमूहः । दुर्जयः सुजीतः(1)। टासात् । तपःसुभदेन तारितः कषायविषयचौरसमूह। विषटवे विनाशं गच्छति। अतः कारणात् । हियतः। मुनिः। तेन तपसा । समुपल्लक्षितः संयुक्तः । पुनः धर्मश्रिया समुपलक्षितः युषः यतिः । विमुचिपुर्याः पथि मुक्तिमार्गे यथा स्यात्तथा । निरुपावः उपद्रवरहितः । चरति गच्छति ॥ ५९॥ बहो इति संबोधने। भो जीव इद्द जगति विषये । यदि चेत् । मिथ्यावादेः सकाशात् । र दुःखें । भविता भविष्यति । इह जगति। सपोभ्यः स्वोकं दुःखम् । जातम् उत्पनम् । तपोभ्यः दुःखं का इव । सर्वाधिनीरात् समुद्रजलात् । एका उदककणिका इव अन्लकणिका इव । एताह एतस्मिन् । कृष्ल मधे भरत्वे कोन प्रामे मनुष्यपदे। अखिलं प्रभवम् । उत्पन क्षमादिगुणं वर्तते। यदि एतस्मिन् नरत्वे स्खलसि सदा तम का हानिः का क्षतिः न स्यात् । अपितु सर्वधा प्रकारेण हानिः स्याद्भवेत् । इति हेतोः नरखे तपः करणीयम् ॥१०॥ सदाचारिणा मुनिना। यत् श्रुतस्य व्याख्या क्रियते । यत्पुस्तक स्थान संयमसाधनादिक ममकारका त्याग करना । ६ ध्यान-चित्तको इधर उधरसे हटाकर किसी एक पदार्थके चिन्तनमें लगाना ॥ ९८ ॥ जो क्रोधादि कषायों और पंचेन्द्रियविषयोंरूप उद्भट एवं बहुत-से चोरोंका समुदाय बड़ी कठिनता से जीता जा सकता है वह चूंकि तपरूपी सुभटके द्वारा बलपूर्वक ताड़ित होकर नष्ट हो जाता है, अत एवं उस तपसे तथा धर्मरूप लक्ष्मीसे संयुक्त साधु मुक्तिरूपी नगरीके मार्गमें सब प्रकारकी विन-बाधाओंसे रहित होकर सुखपूर्वक गमन करता है ॥ विशेषार्थ -- जिस प्रकार चोरोंका समुदाय मार्गमे चलनेवाले पथिक जनोंके घनका अपहरण करके उनको आगे जानेमें बाधा पहुंचाता है उसी प्रकार क्रोधादि कषायें एवं पंचेन्द्रियविषयभोग मोक्षमार्गमें चलनेवाले सत्पुरुषों के सम्यग्दर्शनादिरूप धनका अपहरण करके उनके आगे जानेमें बाधक होता है । उपर्युक्त चोरोंका समुदाय जिस प्रकार किसी शक्तिशाली सुमटसे पीड़ित होकर यत्र तत्र भाग जाता है उसी प्रकार तपके द्वारा वे विषय-कषायें भी नष्ट कर दी जाती हैं । इसीलिये चोरोंके न रहनेसे जिस प्रकार पथिक जन निरुपद्रव होकर मार्गमें गमन करते हैं उसी प्रकार विषय-कषायोंके नष्ट हो जानेसे सभ्यग्दर्शनादि गुणोंसे सम्पन्न साधु जन भी निर्बाध मोक्षमार्गमें गमन करते हैं ।। ९९ ॥ लोकमें मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे जो तीव्र दुःख प्राप्त होनेवाला है उसकी अपेक्षा तपसे उत्पन्न हुआ दुःख इतना अल्प होता है जितनी कि समुद्रके सम्पूर्ण जलकी अपेक्षा उसकी एक बूंद होती है। उस तपसे सब कुछ (समता आदि ) आविर्भूत होता है। इसीलिये हे जीव ! करसे प्राप्त होनेवाली मनुष्य पर्यायके प्राप्त हो जानेपर भी यदि तुम इस समय उस तपसे भ्रष्ट होते हो तो फिर तुम्हारी कौन-सी हानि होगी, यह जानते हो! अर्थात् उस अवस्थामें तुम्हारा सब कुछ ही नष्ट हो जानेवाला है ।। १०० ॥ सदाचारी पुरुषके द्वारा मुनिके लिये जो प्रेमपूर्वक आगमका व्याख्यान किया जाता है, पुस्तक दी जाती है, वथा १श पुनः । Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -104 : १-१०४ ] १. धर्मोपदेशामृतम् सस्यानो वपुरादिनिर्ममतया मो किंचनास्ते ययकिंचन्यमिदं च संसृतिहरो धर्मः सतां संमतः ॥ १०१ ॥ 102) विमोहा मोक्षाय स्वहितनिरता धादचरिता' गृदादि त्यक्त्वा ये विदधति तपस्ते ऽपि विरलाः । तपस्यन्तो ऽस्मिपि यमिनि शास्त्रादि ददतः सहायाः स्युर्य से जगति यतयो दुर्लभतराः ॥ १०२ ॥ 103) परं मत्या सर्व परिहृतमशेषं विदा नई वेदिति मतिः । ममत्वाभावे तत्सदपि न सदन्यत्र बढते जिनेन्द्राशाभङ्गो भवति च हटात्कल्मषसृपैः ॥ १०३ ॥ 104) परसंगाधारमेत चलति लघु व यतीक्ष्णदुःखौषभारं मृत्पिण्डीभूतभूर्त कृतबहुविकृतिभ्रान्ति संसारचक्रम् । 跨 J I प्रीत्या कृत्वा । यतये मुनीश्वराय वीयते । स लागः धर्मः कथ्यते । च पुनः । यतेः मुनीश्वरस्य । निर्ममतया पुराविलपरि उदासीनतया । किचन परिग्रहः नो आस्ते परिप्रहो न वर्तते । इदम् आकिंचन्यं धर्मः इति । संसृतिहरः संसारनाशनः । सत साधूनां मुनीश्वरैः संमतः कथितः ॥ १०१ ॥ ये जनाः गृहादि त्यक्त्वा मोक्षाय तपो विश्वति पुर्वन्ति । तेऽपि जनाः विरलाः स्वोकाः सन्ति । किंलक्षणा जनाः । विमोहाः मोहरहिताः । पुनः स्वहित निरता: आत्महिते लीनाः पुनः चारुचरिताः मनोहराचाराः । जगति विरलाः सन्ति । ये यतयः स्वयं तपस्यन्तः अन्यस्मिन् यमिनि सहायाः स्युः मन्युः शास्त्रादि ददतः तेऽपि यतयः जगति विषये दुर्लभतराः विरलाः वर्तन्ते ॥ १०२ ॥ श्रुतविदा श्रुतशामिना सुनना । सर्व परम् । मत्वा शाया । अशेषं समस्तम् । परिमहम् परिहृतं व्यकम् । तदपि वपुः पुस्ता पुस्तकादि निकटम् आस्ते घेत् इति मतिः ममत्वाभावे तत् पुस्तकादिपरिम सत् अपि विद्यमानमपि न सत् अविद्यमानम् । अन्यत्र अथवा शरीरादिषु पुस्तकादिषु ममरवे कृते सति । ऋषेः मुनेः जिनेन्द्र शाभनः घटते । सुनिधर्मस्य नाशो भवति । मुनीश्वरस्य हठात् । कल्मषे पापं भवति ॥ १०३ ॥ तत्परम् उत्कृष्टम् । ब्रह्मचर्य कभ्यते । यत् यतिः मुनिः। ताः क्रियः हरिणदृशः । नित्यं सदाकालम् । जामीः भगिनीः' । पुत्रौः । सवित्रीः जननीः । इष प्रपश्येत् । किंलक्षणो यतिः । मुमुक्षुः मोक्षाभिलाषी । पुनः किंलक्षणो यतिः । अमलमतिः संयमकी साधनभूत पीछी आदि भी दी जाती हैं उसे उत्तम त्याग धर्म कहा जाता है। शरीर आदिमें ममत्वबुद्धिके न रहनेसे मुनिके पास जो किंचित् मात्र भी परिग्रह नहीं रहता है इसका नाम उत्तम आकिंचन्य धर्म है । सज्जन पुरुषोंको अभीष्ट वह धर्म संसारको नष्ट करनेवाला है ॥ १०१ ॥ मोहसे रहित, अपने आत्महितमें लवलीन तथा उतम चारित्रसे संयुक्त जो मुनि मोक्षप्राप्तिके लिये घर आदिको छोड़कर तप करते हैं वे भी विरल हैं, अर्थात् बहुत थोडे हैं। फिर जो मुनि स्वयं तपश्चरण करते हुए अन्य मुनिके लिये भी शास्त्र आदि देकर उसकी सहायता करते हैं वे तो इस संसार में पूर्वोक्त मुनियोंकी अपेक्षा और भी दुर्लभ हैं ॥ १०२ ॥ आगमके जानकार मुनिने समस्त बाह्य वस्तुओंको पर अर्थात् आत्मासे भिन्न जानकर उन सबको छोड़ दिया है। फिर भी जब शरीर और पुस्तक आदि उनके पासमें रहती हैं तो ऐसी अवस्थामैं वे निष्यरिग्रह कैसे कहे जा सकते हैं, ऐसी यदि यहां आशंका की जाय तो इसका उत्तर यह है कि उनका चूंकि उक्त शरीर एवं पुस्तक आदिसे कोई ममस्वभाव नहीं रहता है अत एव उनके विद्यमान रहनेपर भी वे अविद्यमान ही समान हैं। हां, यदि उक्त मुनिका उनसे ममस्वभाव है तो फिर वह निष्परिमह नहीं कहा जा सकता है। और ऐसी अवस्थामें उसे समस्त परिमहके त्यागरूप जिनेन्द्रआज्ञाके मंग करनेका दोष प्राप्त होता है जिससे कि उसे बात् पापबन्ध होता है ।। १०३ ॥ जो तीव्र दुःखक समूहरूप धारसे सहित है, जिसके प्रभावसे प्राणी मृत्तिकापिण्डके समान घूमते हैं, तथा जो बहुत विकार I डागानि सविकः पाठः शि ०६ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ पचनन्दि-पश्चविंशतिः ता नित्यं यन्मुमुनुर्यतिरमलमतिः शान्तमोहः प्रपश्येखामीः पुत्रः सवित्रीरिव हरिणदशस्तत्परं ब्रह्मचर्यम् ॥ १०४ ॥ 105) अविरतमिह तात्पुण्यभाजो मनुष्याः हृदि विरचितरागाः कामिनीनां वसन्ति । कथमपि न पुनस्ता जातु येषां तदी प्रतिदिनमतिननास्ते ऽपि नित्यं स्तुवन्ति ॥ १०५ ॥ 106) वैराग्यत्यागाद्वयकृतरचना चारुनिश्रेणिका यैः पादस्थानैरुदारैर्दशभिरनुगता निश्चनः । arrer rates frवपवसवनं गन्तुमित्येषु केष नो धर्मेषु त्रिलोकी पतिभिरपि सदा स्तूयमानेषु दृष्टिः ॥ १०६ ॥ | नर्मलःपुनः लक्षणो यतिः । शान्तमोहः उपशान्तमोहः । यत्संगाधारं यासां स्त्रीणां संगाधारम् । एतत्संसारचक्रम् । लघु क्षीण । चलति । च पुनः । किंलक्षणे संसारचक्रम् तीक्ष्णदुःखौघधारं तीक्ष्णः खधारासहितम्। पुनः किंलक्षणं संसारचक्रम् । मृत्पिण्डीभूतभूतं मृतप्राणिपिण्डसदृशम् (१) । पुनः किंलक्षणं संसारचक्रम् । कृतबहुविकृति भ्रान्ति कृतबहुविकारस्वरूपम् एकेन्द्रियादिपञ्चेन्द्रियपर्यन्तम् ॥ ९०४ ॥ इद्द जगति विषये पुण्यभाजः मनुष्याः । कामिनीमां स्त्रीणाम् । हृदि । अविरतं निरन्तरम् । तावत् सदैव वसन्ति । पुनः येषां पुण्ययुक्तानाम् । हृदि । ताः विरचितरागाः । कामिन्यः श्रियः । जातु कदाचित्। कथमपि न वसन्ति । तेऽपि पुण्ययुक्ताः नराः । अविनम्राः । तदषी तेषां मुनीनाम् अघी चरणौ । नित्यं स्तुवन्ति ॥ १०५ ॥ इति एषु धर्मेषु केष जीवानां हृष्टिः दर्षः नो, तु सर्वेषाः। भेदधर्मेषु । त्रिलोकीपतिभिः इन्द्रधरणेन्द्रचक्रभिः । सदा स्तूयमानेषु स्तुत्यमानेषु (?) 1 यैः दशभिः निश्चलैः उदारैः उत्कटैः पादस्थानैः कृत्वा वैराग्यत्यागदा स्वकृतरचना चारुनिश्रेणिका अनुगता प्राप्ता । मनोज्ञा सा इयं निःश्रेणिका । चित्रपदसदनं गृहम् । गन्तुम् । आरक्षोः सुनेः चटितुमिच्छोः । ज्ञानदृष्टेः मुनीरूप भ्रमको करने वाला है, ऐसा यह संसाररूपी चक्र जिन स्त्रियोंके आश्रयसे शीघ्र चलता है उन हरिणके समान नेत्रवाली स्त्रियों को मोहको उपशान्त कर देनेवाला मोक्षका अभिलाषी निर्मलबुद्धि मुनि सदा बहिन, बेटी और माता के समान देखे । यही उत्तम ब्रह्मचर्यका स्वरूप है ॥ विशेषार्थ - यहां संसार में चक्रका आरोप किया गया है । वह इस कारण से - जिस प्रकार चक्र (कुम्हारका चाक ) कीलके आधारसे चलता है उसी प्रकार यह संसारचक्र ( संसारपरिभ्रमण ) स्त्रियोंके आधारसे चलता है । चक्रमें यदि तीक्ष्ण धार रहती है तो इस संसारचक्रमें जो अनेक दुःखों का समुदाय रहता है वही उसकी तीक्ष्ण धार है, कुम्हारके चक्रपर जहां मिट्टीका पिण्ड परिभ्रमण करता है वहां इस संसारचक्रपर समस्त देहधारी प्राणी परिभ्रमण करते हैं, तथा जिस प्रकार कुम्हारका चक्र घूमते हुए मिट्टीके पिण्डसे अनेक विकारोंको- -सकोरा, घट, रांजन एवं कुंडे आदिकोउत्पन्न करता है उसी प्रकार यह संसारचक्र मी अनेक विकारोंको जीवकी नरनारकादिरूप पर्यायोंको-उत्पन्न करके उन्हें घुमाता है । तात्पर्य यह है कि संसारपरिभ्रमणकी कारणभूत स्त्रियां हैं - तद्विषयक अनुराग है । उन स्त्रियोंको अवस्थाविशेषके अनुसार माता, बहिन एवं बेटी के समान समझकर उनसे अनुराग न करना; यह ब्रह्मचर्य है जो उस संसारचकसे प्राणीकी रक्षा करता है ॥ १०४ ॥ लोकमें पुण्यवान् पुरुष रागको उत्पन्न करके निरन्तर ही स्त्रियोंके हृदयमें निवास करते हैं। ये पुण्यवान् पुरुष भी जिन मुनियोंके हृदयमें वे स्त्रियां कभी और किसी प्रकारसे भी नहीं रहती हैं उन मुनियोंकि चरणोंकी प्रतिदिन अत्यन्त नम्र होकर नित्य ही स्तुति करते हैं ॥ १०५ ॥ वैराग्य और त्यागरूप दो कालखण्डोंसे निर्मित सुन्दर नसैनी जिन दस महान् स्थिर पादस्थानों (पैर रखनेके दण्डों ) से संयुक्त होकर मोक्ष-महल में जानेके लिये चढ़नेकी अभिलाषा रखनेवाले मुनिके लिये योग्य होती है तीन लोकों के अधिपतियों (इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती ) द्वारा I [ 104 : १-१०४ - Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + १. धर्मोपदेशामृतम् 107 ) निःशेषानलशील सगुणमयीमत्यन्तसाम्यस्थित 1 वन्दे तो परमात्मनः प्रणयिनी क्रुस्यान्तनां स्वस्थताम् यत्रानन्तचतुष्टयामृत सरित्यात्मानमन्तर्गतं न प्रामोति जरादिदुःसहशिखः संसारवावानलः ॥ १०७ ॥ 108) आयाते ऽनुभवं भवारिमथने निर्मुक्तमूर्त्याश्रये शुद्धे ऽम्यादृशि सोमसूर्यहुतभुक्कान्तेरनन्तप्रमे । यस्मिन्नस्तमुपैति चित्र मचिरान्निःशेषवस्त्वन्तरं तद्वन्दे विपुल प्रमोद सवनं चिद्रूपमेकं महः ॥ १०८ ॥ 109 ) जातियति तं यत्र यत्र च मृतो मृत्युर्जरा जर्जरा जाता यत्र न कर्मकायघटना नो वाग् न च व्याधयः । यत्रात्मैव परं चकास्ति विशदशाकमूर्तिः प्रभु नित्यं तत्पदमाश्रिता निरुपमाः सिद्धाः सदा पान्तु वः ॥ १०९ ॥ - 109 : १-१०९ ] ४३ श्वरस्य । योग्या स्याद्भवेत् । इति दशविधो धर्मः पूर्णः ॥ १०६ ॥ तो स्वस्थता वन्दे अहं नमामि । किंलक्षणां स्वस्थताम् । निःशेषा मलशील सगुण समीचीनगुणमयी । पुनः किंलक्षणां स्वस्थताम् । अत्यन्त साम्यस्थितां समतायुक्काम् । पुनः किंलक्षणा स्वस्थताम् । परमात्मनः प्रणयिनी वल्लभाम् पुनः कृत्यान्तनां कृतकृत्याम् । यत्र स्वस्थतायाम् । अन्तर्गत मध्यगतम् । आत्मानम् । सेसारदावानलः संसाराभिः न प्राप्नोति । पुनः किंलक्षणाय स्वस्थतायाम् । अनन्तचतुष्यामृत सरिति नद्याम् । किंलक्षणः संसारदावानलः। जरादिदुःसहधिखः जराआदिदुः सज्वालायुक्तः ॥ १०७ ॥ तत् एकम् । चिद्रूपं महः । वन्दे भई नमामि । किंलक्षणं महः । विपुलप्रमोदसदनं विपुलानन्दमन्दिरम्। यस्मिन् विद्रूपमहसि विषये । निःशेषवस्रमन्तरं विकल्परूपं खणाज्ञानम् । अचिरात् स्तोककाखेन । अस्तम् उपैति । चित्रं महदाश्चर्यकरम् । किंलक्षणे यस्मिन् । अनुभवम् आयाते पुनः किलक्षणे महसि । भवारिमथने संसारशत्रुनाशुकरे' । पुनः किंलक्षणे महसि । निर्मुक्तमूर्त्याश्रये रहितमूर्त्याश्रये । पुनः सिक्षणे मद्दति । ये निर्मले । पुनः किंलक्षणे महसि । अन्यादी असदशे । पुनः किंलक्षणे । सोमसूर्यहुतभुक्ान्तेः अनन्तप्रमे ॥ १०८ ॥ सिद्धाः | कः युष्मान् । सदा पातु रक्षन्तु । किंलक्षणाः सिद्धाः । निरुपमाः उपमारहिताः । पुनः किंलक्षणाः सिद्धाः । सत्यमाश्रिताः मोक्षपदम् आश्रिताः । यत्र मोक्षपदे । जातिः उत्पत्तिः न यत्र मोक्षपदे याविर्णमनं न । म पुनः । यत्र मृत्युः न समः न । यत्र भूतः मरण (2) न यत्रे मुक्ती जरा न यत्र मुक्तो जरया कृत्वा जर्जराः सिद्धाः न य कर्मका घटना न । च पुनः । यत्र । स्तूयमान उन दस धर्मो के विषयमें किन पुरुषोंको हर्ष न होगा ? ॥ १०६ ॥ जो स्वस्थता निर्मल समस्त शीलों एवं समीचीन गुणोंसे रची गई है, अत्यन्त समताभावके ऊपर स्थित है, तथा कार्यके अन्तको प्राप्त होकर कृतकृत्य हो चुकी है; उस परमात्माकी प्रियास्वरूप स्वस्थताको मैं नमस्कार करता हूं । अनन्त चतुष्टयरूप मृतकी नदीके समान उस स्वस्थताके भीतर स्थित आत्माको वृद्धत्व आदिरूप दुःसह ज्वालाओंसे संयुक्त ऐसा संसाररूपी दावानल ( जंगलकी आग ) नहीं प्राप्त होता है ॥ १०७ ॥ जो चैतन्यरूप तेज संसाररूपी शत्रुको मथनेवाला है, रूप-रस- गन्धस्पर्शरूप मूर्तिके आश्रयसे रहित अर्थात् अमूर्तिक है, शुद्ध है, अनुपम है तथा चन्द्र सूर्य एवं अग्रिकी प्रभाकी अपेक्षा अनन्तगुणी प्रभाले संयुक्त है; उस चैतन्यरूप तेजका अनुभव प्राप्त हो जानेपर आश्चर्य है कि अन्य समस्त पर पदार्थ शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं अर्थात् उनका फिर विकल्प ही नहीं रहता । अतिशय आनन्दको उत्पन्न करनेवाले उस चैतन्यरूप तेजको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १०८ ॥ जिस मोक्षपदमें जन्म नहीं जाता है, मृत्यु मर चुकी है, जरा जीर्ण हो चुकी है, कर्म और शरीरका सम्बन्ध नहीं रहा है, वचन नहीं है, तथा व्याधियां भी शेष नहीं रही हैं, जह १ म कति दशविधो धर्मः । २ अ महः आर्यककरं, क महाश्चर्यकरं । ३ क नाशकरणे ४ श कान्ते पुनः मनन्तमे । ५ क मरणं न न यत्र । ६ क जर्जराः जाताः सिद्धाः यत्र स जजैरा न यत्र Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारिवाति [110:१-११110) पुस्खे ऽपि सिदारमनि शुनपलात् किंचिरस्मसंवेदनात् नमः किंचिविध प्रबोधनिधिमियम किंचिलम् । मोहे पनि कर्मणामतितरी प्रौटान्तराये रिपो रम्योपावरपाये सति मरिणामलो मार 111) विन्मन्यतया सदस्यतितरामुरडवाडम्बराः भरमापदिरखैः ममोवजन न्यायानमातम्यते । येतेप्रतिसा सन्ति बहलो म्यामोहषितारिणो येभ्यस्तत्परमात्मवावविषय शान से दुर्लमा ॥१११ ॥ 112) मारखेतुपुरागरोपनितिमाये वोपेच्या मोहात्सर्वजनल रेतसि सदा सत्म समापदपि । समाचार संविदे च फलबरकाम्य कर्जायते पगारादिरस तु सर्वजगतो मोहाप साप च । ११२ ॥ मुल्लो नामले मात्र प्याथमः पुरुष-मीगः । यस मुक्ती भास्मा पर बकम् । काति शोभते ॥ 1.1॥ चिवाल्ममिनिषले। कचित् सुतरात् शासबलात् । किषित खसंवेदनात् सानुभवात् । प्रमः । विलक्षणे शिवात्मनि । दुर्मरेली इममिन् माझे । अशेषनिषिभिः शानधनैः। किचित् छदम् । म माझं न प्रहणीयम् । मारतो मनुष्याणाम् । हालत मतिः। कसति। मोहे सति । किलक्षणे मोहे। कर्मणाम् अतितराम् बतियायेन राजनि । पुनः प्रौद्यन्तराये सति । बोबावरणहये रिपो नियमाने सति ॥१॥ ये पण्डिताः । विशून्मभ्यतया पण्डितमन्यतया सदसि सभायाम् । बतितराम् अतिशयेन । सामामाम्बरा । प्राराविरसैःहत्या प्रमोदजनक म्याक्यानम् । बातम्यते विस्तारमन्ति । च पुनः। ते पण्डिताः। प्रतिसा रहे रहे। बहवः सन्ति बर्तन्ते । किमक्षणाखे पगिताः। म्यामोहविस्तारिणः । येभ्यः पबिबवेभ्यः । तत्परमात्मतरक विषय ज्ञान प्राप्यते।पुनः । ते दुर्लभाः बिरलाः स्तोकाः ॥११॥रागरोवनिकृतिप्रायेषु । बलम् अत्पर्यम् । दोषेषु मोहासर्वजनसससि सवा सभाबादपि सत्सु विद्यमानेषु । किलक्षणेषु भापदेतषु दुःसोतुषु सत्सु । तनाशाय तस्स मोइस्य माशाय। च पुनः संबिवे सम्यजामा । कोः काव्यम् । फलमत् सफल आयते । दू पुनः । यहारादिरसे सर्वजगतः मोहाम । र पुनः केवल निर्ममानरूप अद्वितीय शरीरको धारण करनेवाला प्रभावशाली आत्मा ही सदा प्रकाशमान है। उस मोक्ष पदको प्राप्त हुए अनुपम सिद्ध परमेशी सर्वदा आपकी रक्षा करें ॥ १०९॥ यधपि चैतन्यस्वरूप आत्मा अदृश्य है फिर भी शास्त्रके बलसे तथा कुछ स्वानुभवसे भी यहां उसके सम्बन्धमें कुछ निरूपण करते हैं। सम्यम्बानरूप निधिको धारण करनेवाले विद्वानोंको इसमें कुछ छल नहीं समझना चाहिये । कारम कि सब कर्मोके अधिपतिस्वरूप मोह, शक्तिशाली अन्तरायरूप शत्रु तथा दर्शनावरण एवं ज्ञानावरण इन चार पातिया कोंकि विद्यमान होनेपर मुझ जैसे अस्पहानियोंके वैसी उत्कृष्ट बुद्धि कहांसे हो सकती है।॥ ११॥ विद्वपके अमिमानसे सभामें अत्यन्त उण्ट वचनोंका समारम्म करनेवाले जो कवि शृंगारादिक रसों के द्वारा दूसरोंको बानन्दोत्पादक व्याख्यानका विस्तार करके उन्हें मुग्ध करते हैं वे कनि तो यहां पर परमें बहुत-से हैं । किन्तु बिनसे परमात्मतत्त्वविषयक ज्ञान प्राप्त होता है ये तो दुर्लभ ही हैं ॥ १११ ॥ जो सग, क्रोध एवं माया भादि दोष अत्यन्त दुःखके कारणम्त हैं तो मोहके पश समावसे ही सर्वदा सब जनोंके चिमें निवास करते हैं । उक्त दोषों को नष्ट करने तथा सम्यवान प्राप्त करने के उद्देशसे रचा गया कविका काम सफल होता है । इसके विपरीत शृंगारादिरसप्रधान सम्म तो मसा २.समापः न। म पम्वित मन्पाया। नाल। wwmarw Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मप (118) कालावपि तमोह महान्धकारे भार्ग न पश्यति जनो जगति प्रशस्तम् । क्षुद्राः क्षिपन्ति दशि दुःश्रुतिधूलिमस्य न स्वात्कथं मतिरनिचितदुःपथेषु ॥ ११३ ॥ 114) विण्मूत्रक्रिमिसंकुले कृतपुणैरश्रादिभिः पूरिते शुक्रासृग्वरयोषितामपि धनुर्मातुः कुरा ऽजनि । सापि विरसादिधातुकलिता पूर्णा महाभैरहो चित्र चन्द्रमुखीत जातमतिभिर्विद्वद्भिरावर्ण्यते ॥ ११४ ॥ 115) कच्चा कावासा मुखमजिनबद्धास्थिमिचयः कुचीमांसा जठरमपि विष्ठादिटिका । मलोत्सर्गे यां प्रधनमवलायाः क्रमयुर्ग तदाधारस्थूणे किमिह किल रागाय महताम् ॥ ११५ ॥ (116) परमधर्मनदानमीनकान् शशिमुलीबडिशेम समुद्धताम् । अतिसमुल्लसिते रतिमुर्मुरे पचति हा इतकः सरीवरः ॥ ११६ ॥ - 116 : १-११६] N 1 । 1 दुःखाय भवति ॥ ११२ ॥ जगति विषये । जमः सोकः । प्रशस्तं मार्ग न पश्यति किंमाने जगत का प्रभावात् । यपि । प्रसृतमोहमहान्धकारे विस्तारिता हानाम्धकारे । मुद्राः सरागजनाः । अस्म लोकस्य 1 दक्षिने दुःतिचूकिं कुशानभूतिम् । पिन्ति । ततः कारणात् । अनिखितः पथेषु निश्चयरहितमार्गेषु । गतिः गमनम् । कथं न स्यात् । अपितु दुःषु गमनं स्यात् ॥ ११३ ॥ वरयोषितां खीणाम् अपि । ततुः मातुः क्रुगमै निन्द्यगर्ने । अजनि उत्पन्ना बभूव । ने गर्ने । विष्णु प्रकृमिकुळे विष्ठामूत्रकृमिभरिते । पुनः लिने गर्ने । कृतभृणैः घृणायुकैः अन्त्रादिभिः पूर्ने । पुनः शुकमादकभरपूर गर्ने । इति संबोधने । विद्वद्भिः पण्डितैः सापि श्री चन्द्रमुखी इति भावयते । तत् चित्रम् किंलक्षणा श्री । क्लिष्टरसादिधातु कलिता मला थैः । पूर्णा भरिता । किंलक्षणेः विङ्गिः । वातमतिभिः उत्पबुद्धिभिः ॥ ११४ ॥ भबलायाः । रूचाः कुन्तलाः । यूकावासाः यूकास्थानाः 1 अबलायाः मुखम् । अजिनबद्धास्थिनिचयः चमवस्थिसमूहः । अबलायाः कुचो मासोच्छ्रायो मांसमन्धी अबलायाः जठरम् उदरम् अपि विष्ठा दिघटिका विष्ठाभाजनम् । अबलावा अपने मन्त्रेत्सर्गे मलमूत्रादित्यजने । यत्रं धारागृहम् । अबलायाः क्रमयुर्ग तवाधारस्थूणे तस्य मलव्यजनयत्रस्य स्तम्म । किम इति सत्ये । इह अनलाय विषये महतो रागाय किम् । अपि तु किमपि न ॥ ११५ ॥ हा इति कम् । स्मरभीवरः कामधीवरः । अजमीनकान् लोकमत्स्यकान् । रतिमुर्मुरे कामकरीषाभी । पचति । किंलक्षणः खारभीत्ररः । इतकः प्राणघातकः । किंणान् सर्व जनोंके लिये मोह एवं दुःखको ही उत्पन्न करनेवाला होता है ॥ ११२ ॥ कालके प्रभावसे जहां मोहरूप महान् अन्धकार फैला हुआ है ऐसे इस लोकमें मनुष्य उद्यम मार्ग नहीं देख पाता है। इसके अतिरिक्त नीच मिथ्यादृष्टि जन उसकी आंखमें मिथ्या उपदेशरूप धूलिको भी फेंकते हैं। फिर भला ऐसी अवस्थामे उसका गमन अनिश्चित खोटे मार्गेमें कैसे नहीं होगा ! अर्थात् अवश्य ही होगा ॥ ११३ ॥ जो माताकी कुत्सित कुक्षि विष्ठा, मूत्र एवं क्षुद्र कीडोंसे व्याप्त वया भृणाजनक आत आदिसे परिपूर्ण है ऐसी उस कुक्षिमें उद्यम स्त्रियोंका मी वीर्य एवं रजसे निर्मित शरीर उत्पन्न हुआ है। वह उत्तम स्त्री भी क्लेशजनक रस आदि धातुओंसे युक्त तथा मल आदिसे परिपूर्ण है। फिर भी आधर्म है कि उसे प्रतिभाशाली विद्वान् चन्द्रमुखी (चन्द्र जैसे मुखवाली ) बतलाते हैं ॥ ११४ ॥ विस सीके बाल तो जुओंके स्वानमूल हैं, मुख चमड़े से सम्बद्ध हड्डियोंके समूह से संयुक्त है, स्तन मांससे उन्नत हैं, उदर भी बिठा मादिके क्षुद्र बड़ेके समान है, जनन मल छोड़नेके य के समान है, तथा दोनों पैर उस बनके उभारभूत सम्मकि समान हैं; पेसी वह स्त्री क्या महान् पुरुषोंके लिये रामकी कारण हो सकती है ! अर्थात् नहीं हो सकती ॥ ११५ ॥ हत्यारा काभवेनरूपी पीवर उत्तम धर्मरूपी नदीले मनुष्योंरूप मछलियोंको स्त्रीरूप कोटेके द्वारा निकाल कर उन्हें अत्यन्त बनेवाली अनुरागरूपी आगने पकाता है, यह बड़े खेदकी बात है ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mannanoonam पभनम्वि-पश्चविंशतिः [117 : १-११117) येनेदं जगदापदम्बुधिगत कुर्षीत मोहो हठात् येनेते प्रतिजन्तु इन्तुमनसः क्रोधादयो दुर्जयाः । येम भ्रातरियं च संरतिसरित्संजायते दुस्तरा तज्जानीहि समस्तदोषविषम पीरूपमेतदुवम् ॥ ११७ ॥ 118) मोहळ्याधमटेन संसृतिवने मुग्धणबन्धापने पाशा पणालादिविषगाः सर्व समपन्नाः। मुग्धास्तत्र पतन्ति तानपि वरानास्थाय वाम्छन्स्यहो हा कर परजन्मने ऽपि न विदा कापीति विलमूर्खताम् ॥ ११८ ॥ 119) पतन्मोहकप्रयोगविहिवभ्रान्तिभ्रमश्चक्षुषा पश्यस्येष जनो ऽसमञ्जसमसदुद्धि वं व्यापदे । मप्येतान् विषयाननम्तारकफ्लेशप्रदानस्थिरान् । यत् शश्वस्मुखसागरामिव सतश्चेतःप्रियान् मन्यते ॥ ११९ ॥ लोकमरस्पकान् । परमधमैनदात् धर्मसरोवरात् । शशिमुखीबहिशेन शशिवन्मुखाः याः स्त्रियः ताः एष बडिशः तेन । समुस्तान समाकर्षितान् । किंलक्षणे रतिमुर्मुरेशभतिसमुसिते भतिप्रकाशिते॥११६॥ भो प्रातः भो जीव । एतत् श्रीस्पदम् । समस्तदोषविषम समस्यदोषभरितम् । जानीहियेन खीरूपेण । मोहः। छठात् बलात् मोइशक्तिः । इदं जगत् । आपदम्युधिगतं कुर्वीत । येन नीरूपेण । एते दुर्जयाः कोषादयः। अन्तु जन्तु प्रति हन्तुमनसः जाता:1 पुनः। येन श्रीरूपेण इर्य संसतिसरित संसारनी। दुस्तरा जायते ॥ ११॥ संमृतिवने संसारकने। मोहम्याधभटेन। मुग्धणपन्धापदे मुग्धजनमृगबन्धनाय । सर्वत्र । परजलोचनादिविषयाः बीरूपाविविषयाः। पाशाः बन्धनाः सजीकृताः। श्रहो इति संबोधने । तत्र पाशेषु । मुग्धाः जनाः पतन्ति । हा इति कष्टम् । तान् बन्धनान् परान् शास्वा । आस्थाय स्थित्वा । परजन्मनेऽपि परलोकाय । पाल्छन्ति । इति मूखेताम् (0)। कापि ययं न विदः (१) इवि' नेता विक् ॥११८॥ एषः असबुद्धिजनः क्षसमीचीनशिः लोकः । एतत् विषयसौख्यम् । मोहठकप्रयोगेण चूर्णेन विड़िता कृता या भ्रान्तिः तया भान्या भ्रमत् यपक्षुः तेन चक्षुषा । भसमजस रैपरीत्यं पश्यति । इन्द्रियविषयं परं पश्यति । ध्रुवं निश्येन । तद्विषयं व्यापदे कष्टाय भवति । तथापि धीवर कांटेके द्वारा नदीसे मछलियोंको निकालकर उन्हें आगमें पकाता है उसी प्रकार कामदेव (भोगाभिलाषा) भी मनुष्योंको त्रियोंके द्वारा धर्मसे भ्रष्ट करके उन्हें विषयभोगोंसे सन्तप्त करता है ॥ ११६ ।। जिस स्त्रीके सौन्दर्यके प्रभावसे यह मोह जगत्के प्राणियोंको बलात् आपत्तिरुप समुद्र में प्रविष्ट करता है, जिसके द्वारा ये दुर्जय क्रोध आदि शत्रु प्रत्येक प्राणीके घातमें तत्पर रहते हैं, तथा जिसके द्वारा यह संसाररूपी नदी पार करनेके लिये अशक्य हो जाती है, हे भ्राता ! तुम उस स्त्रीके सौन्दर्यको निश्चयतः समस्त दोषोंसे युक्त होनेके कारण कष्टदायक समझो ।। ११७ ॥ सुभट मोहरूपी व्याधने संसाररूप धनमें मूर्खजानरूपी मृगोको बन्धनजनित आपत्तिमें डालनेके लिये सर्वत्र कमलके समान नेत्रोवाली स्त्री आदि विषयरूपी जालोंको तैयार कर लिया है । ये मूर्ख प्राणी उस इन्द्रियविषयरूपी जालमें फंस जाते हैं और उन विषयभोगोंको उत्तम पर्व स्थायी समझ कर परलोकमें भी उनकी इच्छा करते हैं, यह बहुत खेदकी बात है । परन्तु विद्वान् पुरुष उनकी अभिलाषा इस लोक और परलोकमेंसे कहीं भी नहीं करते हैं। उस मूर्खताको धिकार है ।। ११८ ॥ यह दुर्बुद्धि मनुष्य मोहरूपी ठगके प्रयोगले की गई भान्तिसे प्रमको प्राप्त हुई चक्षुके द्वारा इस विषयसुखको विपरीत देखता है, अर्थात् उस दुखदायक विषयसुखको सुखदायक मानता है । परन्तु वास्तवमें वह निश्चयसे आपत्तिजनक ही है । जो ये विषयभोग नरक्रमें अनन्त दुख देनेवाले व १सके शशिमुखीनविशेन समुरवतान्। रश विदमः इति । Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ -1281१-१२२] १. धर्मोपदेशामृतम् 120) संसारे ऽत्र धनाढवीपरिसरे मोटका कामिनी क्रोधागाध तदीपपेटकमिदं सरसंनिधौ जायते । प्राणी तद्विहितप्रयोगविकलस्तरयतामागतो नवं चेतयते लभेत विपर्व हातुः प्रभोः कथ्यताम् ॥ १२० ॥ 121) ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशनतया मूढा हि ये कुर्षते सर्वेषां टिरिटिलितानि पुरतः पश्यन्ति नो व्यापदः । विपुलोलमपि स्थिरं परमपि ख पुषदारादिकं मन्यन्ते यदहो तदत्र विषम मोहपभोः शासनम् ॥ ११ ॥ 122) कयामः किं कुर्मः कथमिह सुखं किं च भविता कुतो लम्या लक्ष्मी का पतिः सेव्यत इति । विकल्पानां जालं जयति मनः पश्पत सता अपि हातार्थानामिह महदहो मोहचरितम् ॥ १२२ ॥ एतान् विषयान् । लोकस्य चेतः प्रियान् मन्यते । किलक्षणान् विषयान् । अनन्तनरकलेशप्रदान अस्थिरान् । सूतजनःशमुखसागरान् इव मन्यते। सतः विद्यमानान् ।। ११९॥ अत्र संसारे। मोहः ठकः वर्तते। किंलक्षणे संसारे। घनाटवीपरिसरे चतुर्गतिपरित्रमे। च पुमः । कामिनीकोधायाः। इदै तस्यै मोहस्य पेटक परिवारः । प्राणी जीवः । सत्संनिधौ तस्य मोहस्य निकटे। तद्विहित. प्रयोगविकल: मोहचर्णेन विकलः । जायते 1 किलक्षणः जीवः । तस्य मोहस्य वश्यताम् आगतः 1 खम्बात्मानम् । न चेतयते । विपदं लभेत आपदं लभेत । भो जीव । ज्ञातुः प्रभोः अग्रे सर्पज्ञस्य अग्रे कथ्यताम् ॥१२०॥ हि यतः । वे मूढाः मूर्खाः । सर्वेषां लोकानाम् 1 पुरतः अग्रेटिरिटिकितानि हास्य कुर्वते। लोकानां पुरतः अग्रे चेष्टितानि कुर्वन्ति । कया। ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशमतया लक्ष्मीगर्वेण । जनाः स्थापदः दुःखानि । नो पश्यन्ति । अहो इति आश्चर्ये। यत्पुत्रदारादिकम् । स्वम् आस्मानम् अपि परे द्रव्यादिकम् । स्थिर मन्यन्ते । किसक्षणं पुत्रादिकम् । सर्व विद्युायोल चाल बिनश्वरम् । तत् अत्र संसारे। मोहप्रभोः मोहराशः। शासन प्रभावः वर्तते ॥१२॥ महो इति संबोधने । मो भव्याः भो लोकाः । इह जगति संसारे । मोहचरितं पश्यत । किलक्षण मोहचरितम् । महद्भरितम् । इति विकल्पानां जालम् । सतां सत्पुरुषाणाम्। मनश्वितम् । जस्पति मूर्ख करोति । किलक्षणाना सताम् । शातार्थामाम् । इति किम् । वयं क यामः फुत्र गरछामः । अयं कि कुमः । इह संसारे कई मुखं भवति । व पुमः । किं भविता कि भविष्यति । लक्ष्मीः कुतः लभ्या । इह संसारे कः नृपतिः राजा सेव्यते। इति विकल्पानां जातं मनः जडयति। एतत्सर्व मोहअस्थिर हैं उनको यह सर्वदा चित्तको प्रिय लगनेवाले सुखके समुद्रके समान मानता है ।। ११९ ॥ सघन घनकी पर्यन्तभूमिके समान इस संसारमें मोहरूप उग विद्यमान है। ली और क्रोधादि कषायें उसकी पेटीके समान है अर्थात् वे उसके प्रबल सहायक हैं । कारण कि ये उसके रहनेपर ही होते हैं । उक्त मोहके द्वारा किये गये प्रयोगसे व्याकुल हुआ प्राणी उसके वशमें होकर अपने आत्मस्वरूपका विचार नहीं करता, इसीलिये वह विपत्तिको प्राप्त होता है। उस मोहरूप ठगसे प्राणीकी रक्षा करनेवाला चूंकि ज्ञाता प्रमु (सर्वज्ञ) है अत एव उस ज्ञाता प्रभुसे ही प्रार्थना की जाय ॥ १२० ॥ जो मूर्खजन अपने ऐश्वर्य आदि गुणोंको प्रगट करनेके विचारसे अन्य सब जनोंकी मजाक किया करते हैं वे आगे आनेवाली आपत्तियोंको नहीं देखते हैं। आश्चर्य है कि जो पुत्र एवं पत्नी आदि विजलीके समान चंचल (अस्थिर) हैं उन्हें वे लोग स्थिर मानते हैं तथा प्रत्यक्षमें पर (भिन्न) दिखनेपर भी उन्हें स्वकीय समझते हैं । यह मोहरूपी राजाका विषम शासन है ।। १२१ ॥ हम कहां जावें, क्या करें, यहां सुख कैसे प्राप्त हो सकता है, और क्या होगा, लक्ष्मी कहांसे प्राप्त हो सकती है, तथा इसके लिये कौन-से राजाकी सेवा की जाय; इत्यादि विकल्पोंका समुदाय यहां तत्वज्ञ सज्जन पुरुषोंके मी मनको जड़ बना देता है, यह शोचनीय है। कमोइक। २कक्रोधानाः तम्। १श महागरिवम् । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मनम्दि-पश्चर्षिशतिः 8128 १-२२123) विहाय व्यामोह घनसदमतम्यादिविषये कुरुध्वं तत्तूर्ण किमपि निजकार्य बत सुधार । न येवं जन्म प्रमषसि सुनृत्यादिघटना पुनः स्थान स्यावा किमपरवषोडम्बरशतः॥१२३ 124) वाचस्तस्य प्रमाणं यह जिनपतिः सर्वविद्वीतरागो रागद्वेषादिदोषैरुपहर्तमनसो नेतरस्यानृतस्यात् । पतशिश्चित्य चिचे धयत बत बुधा विश्वतस्योपलब्धी मुक्तर्मूलं तमेकं भ्रमत किमु बहुष्पन्धवर पथेषु ॥ १२४ ।। 125) यः फल्पयेत किमपि सर्वविदो ऽपि वाचि संदिह तत्वमसमञ्जसमात्मबुया। से पविणो विचरतां मुश्शेक्षितानां संख्या प्रति प्रविदधाति स वावमाधः ॥ १२५ ॥ चरितम् ॥ १२३ ॥ पत इति वेवे । मो बुधाः भो लोकाः। भपरस्यासम्बर के बचनसहनः किम् । तूर्ण शीघ्रम् । तस्कि मपि निजकार्य कुरुष्यम् । येन कर्मणा । इदं प्रन्म संसारः। न प्रभवति । धनसदनतन्यादिविषये म्यामोहं विहाय त्यक्त्वा । पुनः सनृत्यादिघटना पुनः स्यात् भवेत् । वान स्थान् म भवेत् ॥ ११॥ इह संसारे। तस्य वाचः प्रमाण श्रेष्ठम् । यः जिनपतिः मवति । यः सर्वविति ।यो वीतरागो भवति । इतरस्य देवस्य वाचः प्रमार्ग न स्यात् म भवेत् । कस्मात् । अमृतत्वात् असत्यस्वात् । विलक्षणस्य कुवेवस्य । रागद्वेषादिदोषः फुस्वा उपहृतमनसः रागद्वेषैः पीडितचित्तस्य । बत इति आहे । भो बुधाः एतपूर्वोकम् । विते निचित्य चिते स्याप्य । विश्वतत्वोपसन्धौ सत्याम् । एक तम् आत्मानं मुक्तेमूलं श्रयत नियत । बहुषु दुःपयेषु अन्धक्त् किमु भ्रमत ॥ १२४ ॥ यः मूर्खः आत्मबुया कृत्वा । तत्वं प्रति संदिस्य संदई गत्वा । सर्वविदः वाचि सर्वज्ञस्य वचने । किमपि असमझर्स वैपरीयं । फस्पयेत् असत्सं विचारयेत् । स मूर्खः अन्धः। से आकाशे। विचरतो गच्छताम् । पंत्रिगी पक्षिणाम् । संख्या प्रति । पार्द प्रविदयाति वादे करोति । किलक्षणामा पनिणाम् । सुदृशेक्षिताना दृष्टियुफेन जीवन यह सब मोहकी महती लीला है ।। १२२ ।। हे पण्डितजन ! धन, महल और शरीर आदिके विषय में ममत्व बुद्धिको छोड़कर शीघ्रतासे कुछ भी. अपना ऐसा कार्य करो जिससे कि यह जन्म फिरसे न प्राप्त करना पड़े। दूसरे सैकड़ों वचनोंके समारम्भसे सुम्हारा कोई भी अभीष्ट सिद्ध होनेवाला नहीं है । यह ओ तुम्हें उत्तम मनुष्य पर्याय आदि स्वहितसाधक सामग्री प्राप्त हुई है वह फिरसे प्राप्त हो सकेगी अथवा नहीं प्राप्त हो सकेगी, यह कुछ निश्चित नहीं है । अर्थात् उसका फिरसे प्राप्त होना बहुत कठिन है ॥ १२३ ।। यहां जो जिनेन्द्र देव सर्वज्ञ होता हुआ राग-द्वेषसे रहित है उसका वचन प्रमाण (सत्य) है। इसके विपरीत जिसका अन्तःकरण राग-द्वेषादिसे दूषित है ऐसे अन्य किसीका वचन प्रमाण नहीं हो सकता, कारण कि वह सत्यतासे रहित है। ऐसा मनमें निश्चय करके हे बुद्धिमान् सज्जनो ! जो सर्वज्ञ हो जानेसे मुक्तिका मूल कारण है उसी एक जिनेन्द्र देवका आप लोग समस्त तत्वोंके परिज्ञानार्थ आश्रय करें, अन्धेके समान बहुत-से कुमा!में परिभ्रमण करना योग्य नहीं है ।। १२४ ।। जो सर्वशके मी वचनमें सन्दिग्ध होकर अपनी बुद्धिसे सत्त्वके विषयमें अन्यथा कुछ कल्पना करता है वह अज्ञानी पुरुष निर्मल नेत्रोंवाले व्यक्ति द्वारा देखे गये माकाशमें विचरते हुए पक्षियोंकी संख्याके विषयमें विवाद करनेवाले अन्धेके समान आचरण करता है ॥ १२५ । जिन देवने अंगभुतके बारह तथा अंगबाधके अनन्त भेद बतलाये हैं । इस दोनों ही प्रकारके श्रुतमें चेतन आत्माको प्रामास्वरूपसे तथा उससे भिन्न पर पदार्थोंको १ उपदत। Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -128:2-18<] १. धर्मोपदेशामृतम् तं ततो वाह्यमनन्तभदम् । 126) उक्त जिनैर्द्वादशमेव तस्मिनुपादेयतया चिदात्मा ततः परं हेयतयाम्यधायि ॥ १२६ ॥ 127 ) अल्पायुषामत्पधियामिदानीं कुतः समस्तश्रुतपावशतिः । तत्र मुक्ति प्रति बीजमाश्रमभ्यस्यतामात्महितं प्रयमात् ॥ १२७ ॥ 128 ) निक्यो जिनेन्द्रस्तद्तुलवचसां गोचरे ऽर्ये परोसे कार्थः सो ऽपि प्रमाणं वदत किमपरेपालकोलाहले । अवलोकितानाम् ॥ १२५ ॥ जिनैः गणधर देवैः । द्वादशभेदम् अहं श्रुतम् उर्फ कथितम् । ततः । द्वादशाहादुजाड्यम् अनेकभेदम् । तस्मिन् द्विधाश्रुतेषु (?)। उपादेयतया चिदात्मा वर्तते । अभ्यधायि अकमि । ततः भ्रात्मनः सकाशात् । परं परवस्तु हेयतया अभ्यधायि जिनः कथितवान् ॥ १२६ ॥ तत्तस्मात्कारणात् । इदानीम् अल्पायुषाम् अल्पधियां मनुष्याणाम् समस्तपाटशक्तिः कुतः भवति । अत्र संसारे प्रयत्नात् किं प्रति बीजमात्रम् आत्महितं श्रुतम् अभ्यस्यताम् ॥ १२७॥ भो भो भव्याः जिनेन्द्रः निश्वेतव्यः । तस्य जिनेन्द्रस्य । अतुलवचसां गोचरे परोक्षे अर्थे निश्वयः सोऽपि विषयः प्रमाणं कार्यम् । भो लोकाः । इह आत्मति उपस्थताय सत्याम् अपरेण आल-मिथ्या कोलाइले पृथा किम् । वदल भो भव्याः भो समयपथस्वानुभूतिप्रबुद्धाः यस्वरूपसे निर्दिष्ट किया गया है ॥ विशेषार्थ - मतिज्ञानके निमिससे जो ज्ञान होता है उसे श्रुतज्ञान कहते हैं । इस श्रुतके मूलमें दो मेद हैं- अंगप्रविष्ट और मंगवाच । इनमें अंगप्रविष्ट निम्म बारह मेद हैं - १ आचारांग २ सूत्रकृतांग ३ स्थानांग ४ समवायांग ५ व्याख्याप्रज्ञत्वंग ६ ज्ञातुधर्मकभांग ७ उपासकाध्ययनांग ८ अन्तकृद्दशांग ९ अनुधरोपपादिकदशांग १० प्रश्नव्याकरणांग ११ विपाकसूत्रांग और १२ दृष्टिवादांग । इनमें दृष्टिबाद भी पांच प्रकारका है- १ परिकर्म २ सूत्र ३ प्रथमानुयोग ४ पूर्वगत और ५ चूलिका । इनमें पूर्वगत के भी निम्न चौदह मेद हैं- १ उत्पादपूर्वं २ अमायणीपूर्व ३ वीर्यानुप्रवाद ४ अस्ति नास्तिप्रवाद ५५ ज्ञानप्रवाद ६ सत्यप्रवाद ७ आत्मप्रवाद ८ कर्मप्रवाद ९ प्रत्याख्याननामधेय १० विद्यानुप्रवाद १.१ कल्याणनामधेय १२ प्राणावाय १३ क्रिमाविशाल और १४ लोकबिन्दुसार । अंगनाथ दशबैकालिक और उत्तराध्ययन आदिके भेदसे अनेक प्रकारका है। फिर भी उसके मुख्यतासे निम्न चौदह मेद बतलाये गये हैं- १ सामायिक २ चतुर्विंशतिस्तव ३ बन्दना ४ प्रतिक्रमण ५ वैनयिक ६ कृतिकर्म ७ दशवैकालिक ८ उत्तराध्ययन ९ कल्पव्यवहार १० कल्प्याकल्प्य ११ महाकम्प १२ पुण्डरीक १३ महापुण्डरीक और १४ निपिद्धिका (विशेष जिज्ञासा के लिये षट्स्वागम - कृतिअनुयोगद्वार (पु. ९) ४. १८७ - २२४ देखिये) । इस समस्त ही श्रुतमें एक मात्र आत्माको उपादेय बतलाकर अन्य सभी पदार्थोंको हेय बतलाया गया है । श्रुतके अभ्यासका प्रयोजन भी यही है, अन्यथा ग्यारह अंग और नौ पूर्वोका अभ्यास करके भी द्रव्यलिंगी मुनि संसारमें ही परिश्रमण किया करते हैं ।। १२६ । वर्तमान कालमें मनुष्योंकी आयु अरूप और बुद्धि अतिशय मन्द हो गई है । इसीलिये उनमें उपर्युक्त समस्त श्रुतके पाठकी शक्ति नहीं रही है। इस कारण उन्हें यहां उतने ही श्रुतका प्रयत्नपूर्वक अभ्यास करना चाहिये जो मुक्तिके प्रति बीजभूत होकर आत्माका हित करनेवाला है ॥ १२७ ॥ हे भव्य जीवो ! आपको जिनेन्द्र देवके विषय में निश्चय करना चाहिये और उसके अनुपम वचनोंके विषयभूत परोक्ष पदार्थके विषय में उसीको प्रमाण मानना चाहिये। दूसरे व्यर्थके कोलाहल्से क्या प्रयोजन सिद्ध होगा, यह आप ही बतलावें । अतएव छद्मस्थ ( अस्पज्ञ ) अवस्थाके विद्यमान १म किमपरेराको काहलेन, ब. किमपरेको आके २ अक्ष अपरैः माल्कोव्हकेन । पद्मनं० ७ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमान्दि-पशविंशति सपा छन्मस्थतायामिह समयपथस्वानुभूतिप्रघुद्धा भीमो माया यस गणानिधारमनि रियाः । १२८ ॥ 129 ) तयायत तात्पर्याज्योति सचिन्मयं विना यस्मात् ।। सदपि न सत् सति यस्मिन् निश्चितमाभासते विश्वम् ॥ १२९ ॥ 180 ) असो यदवकोटिमिः क्षपयति खं कर्म तसाद स्वीकुर्वन् कृतसंबर। स्थिरमना शानी तु तत्तत्क्षणात् । तीक्ष्णलेशहयाभिवोऽपि हि पदं नेष्ट तपास्यन्दनो नेयं तनयति प्रभु स्फुटतरणानेकस्तोजिमतः ॥ १३० ॥ सिद्धान्तपथानुभूतिजागरिताः । आत्मनि यतश्चम् । किलक्षणा मव्याः। गवगमनिधी रजनये। प्रातिभाजा रजत्रयम् आश्रिताः ॥११८॥ तात्पात् निश्चयेन । तत् विश्मय ज्योतिःभ्यायत । किलक्षणं ज्योतिः । सत् विद्यमानम् । निश्चितम् । यस्मात् ज्योतिषः विना । विश्व समस्खकोकम् । सत् भपि म सत् विद्यमानम् अपि अविद्यमानम् । यस्मिन् ज्योति प्रकाशे सति । विध समस्तम् । भाभासते प्रकाशवे ॥१२९॥ अशः मूर्खः । यत् सं कम : भवकोरिभिः पर्यामकोटिभिः कृत्वा सपयति । तस्मात् कर्मणः । बहु कर्म खीकुर्वन् अङ्गीकरोति । तु पुनः । कृतसंवरः स्थिरमनाः ज्ञानी पुमान् । तत् कर्म । तत्क्षणात् पयति । दृष्टान्तमाह 1 हि यतः। तपःस्पन्दनः तपोरयः । नेयं राजानम् आस्मान प्रमुम् । इष्टं पदं मोक्षपवम् । न नयति । किलक्षणः तपोरथः । स्फुटतरज्ञानेकसूतोज्झितः प्रकटशामसारथिरहितः । पुनः किंलक्षणः सपोरयः । तीक्ष्णलेषाहयाश्रितः अपि तीक्ष्णाक्लेशघोटकसहितोऽपि ॥ १३०॥ रहनेपर सिद्धान्तके मार्गसे प्राप्त हुए आत्मानुभवनसे प्रबोधको प्राप्त होकर आप सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानकी निधिस्वरूप आत्माके विषयमें प्रीतियुक्त होकर प्रयत्न कीजिये- उसकी ही आराधना कीजिये । विशेषार्थअस्पताके कारण हम लोग जिन परोक्ष पदार्थोके विषयमें कुछ भी निश्चय नहीं कर सकते हैं उनके विषयमें हमें जिनेन्द्र देवकों, जो कि राग द्वेषसे रहित होकर सर्वज्ञ भी है, प्रमाण मानना चाहिये । यद्यपि वर्तमानमें वह यहा विधमान नहीं है तथापि परम्पराप्राप्त उसके वचन (जिनागम) तो विद्यमान है ही। उसके द्वारा प्रबोधको प्राप्त होकर भव्य जीव आत्मकल्याण करनेमें प्रयाशील हो सकते हैं ॥ १२८॥ चैतन्यमय उस उत्कृष्ट ज्योतिका तत्परतासे ध्यान कीजिये, जिसके विना विद्यमान भी विश्व अविद्यमानके समान प्रतिभासित होता है तभा जिसके उपस्थित होनेपर वह विश्व निश्चित ही यथार्थस्वरूपमें प्रतिभासित होता है ॥ १२९॥ अज्ञानी जीव अपने जिस कर्मको करोड़ों जन्मोंमें नष्ट करता है तथा उससे बहुत अधिक ग्रहण करता है उसे ज्ञानी जीव स्थिरचित्त होकर संवरको प्राप्त होता हुआ तत्क्षण अर्थात् क्षणभरमें नष्ट कर देता है । ठीक है-तीक्ष्ण क्लेशरूपी घोड़ोंके आश्रित होकर भी तपरूपी रथ यदि अतिशय निर्मल ज्ञानरूपी अद्वितीय सारथिसे रहित है तो यह अपने ले जानेके योग्य प्रमु ( आमा और राजा) को अभीष्ट स्थानमें नहीं प्राप्त करा सकता है । विशेषार्थ-जिस प्रकार अनुभवी सारथी (चालक) के विना शीघ्रगामी घोड़ोंके द्वारा खींचा जानेवाला भी स्य उसमें बैठे हुए राजा आदिको अपने अभीष्ट स्थानमें नहीं पहुंचा सकता है उसी प्रकार सम्यग्ज्ञानके विना किया जानेवाला तप दुःसह कायझेशोंसे संयुक्त होकर भी आत्माको मोक्षपदमें नहीं पहुंचा सकता है । यही कारण है कि जिन फर्मोको अज्ञानी जीव करोड़ों भवोंमें भी नष्ट नहीं कर पाता है उनको सम्यग्ज्ञानी जीव क्षणभरमै ही नष्ट कर देता है। इसका भी कारण यह है कि अज्ञानी प्राणी के निर्जराके साथ साथ नवीन कोका आसव भी होता रहता है, अतः वह कर्मसे रहित नहीं हो पाता है। किन्तु इसके विपरीत ज्ञानी जीवके जहां नवीन कमोंका आस्रव रुक जाता है वहां पूर्वसंचित कर्मकी निर्जरा भी होती है। अतएव Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -183 : १-१३३] १. धर्मापवेशागतम् 131) कर्माधौ तविचित्रोदयलहरिमरज्याकुले म्यापन भ्राम्यनकादिकोणे मृतिजननलसवाडयावर्तगत। मुक्तः शक्रया हताः प्रतिगति स पुमान मजनोग्मजनाम्या मप्राप्य ज्ञानपोतं तदनुगतज पारगामी कर्थ स्यात् ॥ १३१ 132) शश्वमोहमहान्धकारकलिते त्रैलोक्यसामन्यसौ जैनी वागमलप्रदीपकलिका न स्याचदि चोतिका । भायानामुपलघिरेव न भवेत् सम्यक्तदिष्टेतर माप्तित्यागकते पुनस्तनुभृतां दूरे मतिस्तारशी ॥ १३२ ॥ 133) शान्ते कर्मण्युचितसकलक्षेत्रकालादिहेतौ । लवा स्वास्थ्यं कथमपि लसद्योगमुद्रावशेषम् । सपमान । कर्माब्धी कर्मसमुदे । शालपोतम अप्राप्य पारगामी कथं स्यात् भवेत् । फिलक्षणः पुमान् । तदनुगतः तस्य संसारसमुदस्य अनुगतः सहगामी। पुनः अष्टः मूर्खः । पुनः किलक्षणः जीवः । शत्तया मुक्तः रहितः। प्रतिगति गति गति प्रति । मजनं मुडमम् उन्मजनम् उछलनं द्वाभ्याम् । इताः विकलाशः पीडितशरीरः। किंलक्षणे कर्मसमरे। तद्विचित्रोदयलहरिमरव्याकुले रुख कर्मणः विचित्रोदयलहरिभरेण व्याकुले । पुनः किंलक्षणे कर्मसमुद्रे । व्यापतुपत्राम्यनकादिकीर्णे सघन-उपनमनदुराजलचरजीवरते। पुनः किलक्षणे कर्मसमुद। मतिजननलसद्वाडदावर्त गर्ने जन्मजरामृत्युवाढवामिमृते । 1३१॥ यदि चेत् । लोक्यसपनि त्रैलोक्यगृहे। असौ जैनी वाक् अमलप्रदीपकलिका । घोतिका प्रकाशनशीला । म स्यात् न भवेत् । फिलक्षणे लोक्यसपनि । पाश्चन्मोहमहान्धकारकलिते अनवरतमोहान्धकारमारते । संसारे यदि जैनी वाक्वीपिका म स्यात् तदा। तनुमा जीवानाम् । भाधानां सम्यक् उपलब्धिरेव न भवेत् । पुनखत्-इटेतरप्राप्तित्यागकृते उपादेयहेयबस्तुप्रासित्यागते कारणाय । तनुभृतो तादशी मतिः दूरे तिष्ठति १३२ ॥ यत् यस्मात् । अयम् आत्मा धर्मः । आत्मना। खम् आत्मानम् । असुखस्फीतसंसारगात् उपत्य सुखमयपदे। धारयति स्थापयति । कर्मणि शान्ते सति । उषितयोग्यसकलक्षेत्रकालादिपावसामग्रीहती सत्ता (1) वर्तमानायाम् । यह शीघ्र ही कर्मोसे रहित हो जाता है ॥ १३० ॥ जो कर्मरूपी समुद्र अपने विविध प्रकारके उदयरूपी लहरोंके भारसे व्याप्त है, आपत्तियोंरूप इधर उधर घूमनेवाले महान् मगर आदि जलजन्तुओंसे परिपूर्ण है, तथा भृत्यु व जन्मरूपी वड़वामि और भंवरोंके गड्डेके समान है; उसमें पड़ा हुआ वह अज्ञानी मनुष्य - जिसका शरीर प्रत्येक गतिमे ( पग-पगपर ) बार बार हूबने और ऊपर आनेके कारण पीड़ित हो रहा है तथा जो पार करानेरूप शक्तिसे रहित है - ज्ञानरूपी जहाजको प्राप्त किये विना कैसे पारगामी हो सकता है! अर्थात् जब तक उसे ज्ञानरूपी जहाज प्राप्त नहीं होता है तब तक वह कर्मरूपी समुद्रके पार किसी प्रकार भी नहीं पहुंच सकता है ।। १३१ ॥ जो तीनों लोकोंरूप भवन सर्वदा मोहरूप सघन अन्धकारसे व्याप्त हो रहा है उसको प्रकाशित करनेवाली यदि जिनवाणीरूपी निर्मल दीपककी लौ न हो तो पदार्थोंका भले प्रकारसे जब ज्ञान ही नहीं हो सकता है तब ऐसी अवस्थामें इष्टकी प्राप्ति और अनिष्टके परित्यागके लिये प्राणियोंके उस प्रकारकी बुद्धि कैसे हो सकती है ! नहीं हो सकती है ॥ १३२ ।। कर्मके उपशान्त होनेके साथ योग्य समस्त क्षेत्र कालादिरूप सामग्रीके प्राप्त हो जानेपर केवल ध्यानमुद्रासे संयुक्त स्वास्थ्य (आत्मस्वरूपस्थता) को जिस किसी प्रकारसे प्राप्त करके चूंकि यह आत्मा दुःखोंसे परिपूर्ण संसाररूप गड्डेसे अपनेको निकालकर अपने आप ही सुखमय पद अर्थात् मोक्षमें धारण कराता है अतएव वह आत्मा ही धर्म कहा जाता है ।। विशेषार्थ-- 'इष्टस्थाने धरति इति धर्मः' इस निरुक्तिके अनुसार जो जीवको संसारदुखसे निकालकर अभीष्ट पद ११ मुद्राविशेषम् । २भश उपलग्थिः कर्य स्वाद प्रामिः कयं भवेत्। वारितिलेतत्पदं नाति। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - ..- .... - . -- ..-...--- पनमन्दि-पश्चशितिः [183 : १-१९३. भास्मा धमों यदयममुखस्फीतसंसारगा दुइल्य वं सुखमयपदे धारयस्थात्मनैव ॥ १३॥ 134) मो शूभ्यो न जडो न भूतजनितो नो कर्वभावं गतो मैको न क्षणिको न विश्वविततो निस्यो न चैकान्ततः । कथमपि स्वास्थ्य काया प्राप्य । सद्योगमुद्रावशेष ध्यानमुबारहस्ययुकम् ॥ ११॥ आत्मा एकान्ततः शूत्यो न बोन भूतबनितः पृपिव्यादिजनितो न कर्तभावं गतः म । भास्मा एकान्ततः एकोम। भारमा क्षणिको म । मामा विश्वविततो न। भात्मा नियो न । म्यवहारेण आत्मा काममितेः कायप्रमाणः । सम्यक् विदेकनिलयः । व पुनः । कर्ता खमं भोक्ता । (मोक्ष) में प्राप्त कराता है उसे धर्म कहा जाता है। कोंके उपशान्त होनेसे प्राप्त हुई द्रव्य क्षेत्र-काल-भावरूप सामग्रीके द्वारा अनन्तचतुष्टयस्वरूप स्वास्थ्यका लाभ होता है । इस अवस्थामें एक मात्र ध्यानमुद्रा ही शेष रहती है, शेष सब संकल्प-विकल्प छूट जाते हैं । अब यह आत्मा अपने आपको अपने द्वारा ही संसाररूप गड्डेसे निकालकर मोक्षमें पहुंचा देता है। इसीलिये उपयुक्त निरुक्ति के अनुसार वास्तवमै आत्माका नाम ही धर्म है-उसे छोड़कर अन्य कोई धर्म नहीं हो सकता है॥ १३३ ॥ यह आत्मा एकान्तरूपसे न तो शून्य है, न जड़ है, न पृथिव्यादि भूतोंसे उत्पन्न हुआ है, न कर्ता है, न एक है, न क्षणिक है, न विश्वव्यापक है, भौर न नित्य ही है। किन्तु चैतन्य गुणका आश्रयभूत वह आत्मा प्राप्त हुए शरीरके प्रमाण होता हुआ स्वयं ही कर्ता और भोक्ता भी है। वह आत्मा प्रत्येक क्षणमें स्थिरता (प्रौव्य), विनाश (व्यय) और जनन (उत्पाद) से संयुक्त रहता है। विशेषार्थ-भिन्न भिन्न प्रवादियों के द्वारा आत्माके स्वरूपकी जो विविध प्रकारसे कल्पना की गई है उसका यहां निराकरण किया गया है । यथा - शून्यैकान्तवादी (माध्यमिक) केवल आत्माको ही नहीं, बल्कि समस्त विश्वको ही शून्य मानते हैं । उनके मतका निराकरण करनेके लिये यह! 'एकान्ततः नो शून्यः अर्थात् आत्मा सर्वथा शून्य नहीं है, ऐसा कहा गया है। वैशेषिक मुक्ति अवस्था बुझ्यादि नौ विशेष गुणोंका उच्छेत् मानकर उसे जड जैसा मानते हैं। संसार अवस्थामें भी वे उसे स्वयं वेतन नहीं मानते, किन्तु चेतन ज्ञानके समवायसे उसे चेतन स्वीकार करते हैं जो औपचारिक है। ऐसी अवस्थामें वह स्वरूपसे जड ही कहा जावेगा । उनके इस अभिप्रायका निराकरण करनेके लिये यहाँ 'न अब' अर्थात् वह जर नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है। चाफमसानुयायी आत्माको पृथिवी आदि पांच भूतोंसे उत्पन्न हुआ मानते हैं। उनके अभिप्रायानुसार उसका अस्तित्व गर्भसे मरण पर्यन्त ही रहता है-गर्भके पहिले और मरणके पश्चात् उसका अस्तित्व नहीं रहता । उनके इस अभिप्रायको दूषित बतलाते हुए यहां 'न भूतजनितः' अर्थात् वह पंच भूतोंसे उत्पन्न नहीं हुआ है, एसा कहा गया है । नैयायिक आत्माको सर्वथा कर्ता मानते हैं । उनके अभिप्रायको लक्ष्य करके यहाँ 'नो कर्तभावं गतः' अर्थात् वह सर्वथा कर्तृत्व अवस्थाको नहीं प्राप्त है, ऐसा कहा गया है। पुरुषाद्वैतवादी केवल परब्रह्मको ही स्वीकार करके उसके अतिरिक्त समस्त पदार्थोंका निषेध करते हैं । लोक, जो विविध प्रकारके पदार्थ देखनेमें आते हैं उसका कारण अविद्याजनित संस्कार है । इनके उपर्युक मतका निराकरण करते हुए यहाँ निका' अर्थात् आत्मा एक ही नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है। बौद्ध (सौत्रान्तिक) उसे सर्वथा क्षणिक मानते हैं । उनके अभिप्रायको सदोष बतलाते हुए यहां १. भूतमनितो न। २ मा कामितिः। PM कायरमाणम् । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्मोपदेशामृतम् आत्मा कायम विवेकनिलयः कर्ता च भोका स्वयं संयुक्तः स्थिरताविनाशजननैः प्रत्येकमेकक्षणे ॥ १३४ ॥ 135 ) कात्मा तिष्ठति कीदृशः स कलितः केमात्र यस्येशी तिस्तत्र विकल्प संभूतमना यः कोऽपि सहायताम् । किंवान्यस्य कुतो मतिः परमियं भ्रान्ताशुभांत्कर्मणो नीत्वा नाशमुपायतस्तदखिलं जानाति ज्ञाता प्रभुः ॥ १३५ ॥ -1851१-१३५ ] ५३ प्रत्येकं पद्द्रव्यम् । स्थिरता विनाशजननैः संयुक्तः । एकक्षणे क्षणं समयं समयं प्रति ।। १३४ || भारमा क तिष्ठति । आत्मा कीदृशः । स आत्मा अत्र संसारे फेन कलितः शातः । यरम ईदृशी भ्रान्तिः । तत्र भारमनि । विकल्पसमृतमनाः स कोऽपि आत्मा ज्ञायताम् । किं च । अन्यस्य पदार्थस्य । इयं मतिः कुतः परं केवलम् अशुभास्कर्मणः भ्रान्तौ । तत् भ्रमम् । 'न क्षणिकः' अर्थात् आत्मा सर्वथा क्षणक्षमी नहीं है, ऐसा कहा है। वैशेषिक आदि आत्माको विश्वव्यापक मानते हैं । उनके मतको दोषपूर्ण बतलाते हुए यहां 'न विश्वविततः' अर्थात् वह समस्त लोकमें व्याप्त नहीं है, ऐसा निर्दिष्ट किया है। सांख्यमतानुयायी आत्माको सर्वथा नित्य स्वीकार करते हैं । उनके इस अभिमतको दूषित ठहराते हुए यहां 'न नित्यः' अर्थात् वह सर्वथा नित्य नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है । यहां 'एकान्ततः ' इस पदका सम्बन्ध सर्वत्र समझना चाहिये । यथा - 'एकान्ततः मो शून्यः, एकान्ततः न जडः' इत्यादि । जैनमतानुसार आत्माका स्वरूप कैसा है, इसका निर्देश करते हुए आगे यह बतलाया है कि नयविवक्षाके अनुसार वह आत्मा प्राप्त शरीरके बराबर और चेतन है । वह व्यवहारसे स्वयं कर्मों का कर्ता और उनके फलका भोक्ता भी है। प्रकृति कर्त्री और पुरुष भोक्ता है, इस सांख्यसिद्धान्त के अनुसार कर्ता एक (प्रकृति) और फलका भोक्ता दूसरा ( पुरुष ) हो; ऐसा सम्भव नहीं है । जीवादि छह द्रव्योंमेंसे प्रत्येक प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय एवं धौव्यसे संयुक्त रहता है । कोई भी द्रव्य सर्वथा क्षणिक अथवा नित्य नहीं है ॥ १३४ ॥ आत्मा कहां रहता है, वह कैसा है, तथा वह यहां किसके द्वारा जाना गया है; इस प्रकारकी जिसके भ्रान्ति हो रही है वहां उपर्युक्त विकल्पोंसे परिपूर्ण चितवाला जो कोई भी है उसे आत्मा जानना चाहिये । कारण कि इस प्रकारकी बुद्धि अन्य ( जड ) के नहीं हो सकती है। विशेषता केवल इतनी है कि आत्मा उत्पन्न हुआ उपर्युक्त विचार अशुभ कर्मके उदयसे प्रान्तिसे युक्त है । इस भ्रान्तिको प्रयत्नपूर्वक नष्ट करके ज्ञाता आत्मा समस्त विश्वको जानता है || विशेषार्थ- आत्मा अतीन्द्रिय है । इसीलिये उसे अल्पज्ञानी इन चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकते । अढश्य होनेसे ही अनेक प्राणियोंको 'आत्मा कहां रहता है, कैसा है और किसके द्वारा देखा गया है' इत्यादि प्रकारका सन्देह प्रायः आत्माके विषयमें हुआ करता है । इस सन्देहको दूर करते हुए यहां यह बतलाया है कि जिस किसीके मी उपर्युक्त सन्देह होता है वास्तव में वही आत्मा है, क्योंकि ऐसा विकल्प शरीर आदि जड पदार्थ के नहीं हो सकता। वह तो 'अहम् अहम्' अर्थात् मैं जानता हूं, मैं अमुक कार्य करता हूं; इस प्रकार 'मैं मैं' इस उल्लेखसे प्रतीयमान चेतन आत्मा ही हो सकता है। इतना अवश्य है कि जब तक मिध्यात्व आदि अशुभ कर्मोंका उदय रहता है तब तक जीवके उपर्युक्त प्रान्ति रह सकती है । तत्पश्चात् वह तपश्चरणादिके द्वारा ज्ञानावरणा १ म श कायमिति । २ भान्तोऽशुभाव । १श भ्रान्तः । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानन्दि-पञ्चविंशतिः [136: १.१३६136) आत्मा मूर्तिविषार्जितो ऽपि वपुषि स्थित्वापि दुर्लक्षा प्राप्तोऽपि स्फुरति स्फुदं यदाहमित्युल्लेखतः संततम् । तरिक मुह्यत शासनावपि गुरोर्धान्तिः समुत्सृज्यता मन्तः पश्यत निश्चलेन मनसा तं तन्मुसाक्षमजाः ॥ १३६ ॥ 137) ध्यापी नैव शरीर पर यदलावात्मा स्फुरस्यन्वई भूतामायको न भूताननितो गादी माया माः । उपायतः नाशं नीत्वा। प्रभु अखिले जानाति शाता भात्मा ॥ १२५॥ यद्यस्मात्कारगात् । आत्मा मूर्ति विवर्जितोऽपि वपुषि स्थित्वापि दुर्लक्षता प्रामोति । सन्तत निरन्तरम् । स्फुट व्यकं प्रकटम् । स्फुरति । अहम् इति उलेखतः अहम् इति स्मरणमात्रतः। गुरोः शासभात् अपि गुरूपदेशादपि । तकि मुखत 1 भो लोकाः गुरूपदेशाद् प्रान्तिः समुत्सृज्यता स्यज्यताम् । निक्षलेन मनसा । तम् भात्मानम् । मन्तःकरणे पश्यत । भो लोकाः भो भव्याः। तस्मिन् वात्मनि मुखे सन्मुखे अक्षयजः इन्द्रियपरिणतिसमूहः येषा ते तन्मुखाक्षनजाः ॥ १३६ ॥ असो धात्मा । भन्दम् अनवरतम् । व्यापी नैव । यः शरीरे एव स्फुरति । अन्वयतः निश्चयतः । आत्मा भूतो न इन्दिरस्पो न । पृथ्मादिजनितो न भूतजनितो न । यवः प्रकृत्या ज्ञानी। दा निले अपवा क्षणिक । कथमपि अर्थक्रिया न युज्यते उत्पादश्यमधौम्यत्रयात्मिका क्रिया न युज्यते । अपि तु सर्वेषु प्रज्येषु धोत्र्यध्ययोत्पाददिकोंको नष्ट करके अपने स्वभावानुसार अखिल पदार्थोंका ज्ञाता (सर्वज्ञ) बन जाता है ।। १३५॥ आत्मा मूर्ति (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) से रहित होता हुआ भी, शरीरमें स्थित होकर भी, तथा अदृश्य अवस्थाको प्राप्त होता हुआ भी निरन्तर 'अहम्' अर्थात् 'मैं' इस उल्लेखसे स्पष्टतया प्रतीत होता है। ऐसी अवस्थामें हे भव्य जीवो ! तुम आत्मोन्मुख इन्द्रियसमूहसे संयुक्त होकर क्यों मोहको प्राप्त होते हो ! गुरुकी आज्ञासे भी भ्रमको छोड़ो और अभ्यन्तरमें निश्चल मनसे उस आरमाका अवलोकन करो।। १३६ । आत्मा ब्यापी नहीं ही है, क्योंकि, वह निरन्तर शरीरमें ही प्रतिभासित होता है । वह भूतोंसे उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, उसके साथ भूतोंका अन्वय नहीं देखा जाता है तथा यह स्वभावसे ज्ञाता भी है । उसको सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक स्वीकार करनेपर उसमें किसी प्रकारसे अर्थक्रिया नहीं बन सकती है । उसमें एकत्व भी नहीं है, क्योंकि, वह प्रमाणसे दृढ़ताको प्राप्त हुई भेदप्रतीति द्वारा बाधित है। विशेषार्थजो वैशेषिक आदि आत्माको व्यापी स्वीकार करते हैं उनको क्ष्य करके यहां यह कहा गया है कि 'आत्मा व्यापी नहीं है। क्योंकि, वह शरीरमें ही प्रतिभासित होता है । यदि आत्मा व्यापी होता तो उसकी प्रतीति केवल शरीरमें ही क्यों होती? अन्यत्र भी होनी चाहिये थी । परन्तु शरीरको छोड़कर अन्यत्र कहींपर भी उसकी प्रतीति नहीं होती । अतएव निश्चित है कि आत्मा शरीर प्रमाण ही है, न कि सर्वव्यापी । 'आत्मा पांच भूतोंसे उत्पन्न हुआ है। इस चार्वाकमतको दूषित बतलाते हुए यहाँ यह कहा है कि आत्मा चूंकि स्वभावसे ही ज्ञाता दृष्टा है, अतएव वह भूतजनित नहीं है । यदि वैसा होता तो आत्मामें स्वभावतः चैतन्य गुण नहीं पाया जाना चाहिये था। इसका भी कारण यह है कि कार्य प्रायः अपने उपादान कारणके अनुसार ही उत्पन्न होता है, जैसे मिट्टीसे उत्पन्न होनेवाले घटमें मिट्टीके ही गुण (मूर्तिमत्व एवं अचेनत्व आदि) पाये जाते हैं । उसी प्रकार यदि आत्मा भूतोंसे उत्पन्न होता तो उसमें भूतोंके गुण अचेतनत्व आदि ही पाये जाने चाहिये थे, न कि स्वाभाविक चेतनस्य आदि । परन्तु चूंकि उसमें अचेतनत्यके विरुद्ध चेतनत्य ही पाया जाता है, अतएव सिद्ध है कि वह आत्मा पृथिव्यादि मूतोंसे नहीं उत्पन्न हुआ है। आत्माको सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक माननेपर उसमें घटकी जलधारण आदि अर्थक्रियाके १ च प्रतिपाठोऽयम् स क श भूतो नान्ययतो । व भूत्येनावयतो। २* निश्चयेन । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्मोपदेशामृतम् मिथे वा क्षणिकेऽथषा न कथमप्यर्थक्रिया युज्यते तत्रैकत्वमपि प्रमाणया भेदप्रतीत्याहतम् ॥ १३७ ॥ 138) कुर्यात्कर्म शुभाशुभं स्वयमसौ भुङ्क्ते स्वयं तत्फलं सातासात गतानुभूतिफलनादात्मा न खाम्यादृशः । - 18 : १-१३८- 1 ५५ । क्रिया युज्यते (?) । तत्र नित्यानित्ययोर्द्वयोमध्ये | प्रमाणढया भेदप्रतीत्या कृत्या एकत्वम् आहतम् । निश्चयेन अभेदं भेदरहितम् । व्यवहारेण मेदयुक्त सत्त्वम् ॥१३७॥ असो आत्मा स्वयं शुभाशुभं कर्म कुर्यात् । च पुनः । स्वयम् । तत्फलं पुण्यपापफलम् । भुक्के | सातासात गतानुभूति चलनात, पुण्यपापानुभवनात् । आत्मा अन्यादृशः जडः न । अयम् आत्मा चिद्रूपः । भयम् आत्मा समान कुछ भी अर्थक्रिया न हो सकेगी। जैसे- यदि आत्माको कूटस्थ नित्य ( तीनों फालोंमें एक ही स्वरूपसे रहनेवाला ) स्वीकार किया जाता है तो उसमें कोई भी क्रिया ( परिणाम या परिस्पंदरूप) न हो सकेगी । ऐसी अवस्थामै कार्यकी उत्पत्तिके पहिले कारणका अभाव कैसे कहा जा सकेगा ? कारण कि जब आत्मामें कभी किसी प्रकारका विकार सम्भव ही नहीं है तब वह आत्मा जैसा भोगरूप कार्यके करते समय था वैसा ही वह उसके पहिले भी था । फिर क्या कारण है जो पहिले भी भोगरूप कार्य नहीं होता ? कारणके होनेपर वह होना ही चाहिये था । और यदि वह पहिले नहीं होता है तो फिर पीछे भी नहीं उत्पन्न होना चाहिये, क्योंकि, भोगरूप क्रियाका कर्ता आत्मा सदा एक रूप ही रहता है अन्यथा उसकी कूटस्थनित्यताका विधात अवश्यम्भावी है। कारण कि पहिले जो उसकी अकारकत्व अवस्था थी उसका विनाश होकर कारकत्वरूप नयी अवस्थाका उत्पाद हुआ है। यही कूटस्थ नित्यताका विधात है । इसी प्रकार यदि आत्माको सर्वथा क्षणिक ही माना जाता है तो भी उसमें किसी प्रकारकी अर्थक्रिया न हो सकेगी। कारण कि किसी भी कार्य करनेके लिये स्मृति, प्रत्यभिज्ञान एवं इच्छा आदिका रहना आवश्यक होता है। सो यह क्षणिक एकान्त पक्षमें सम्भव नहीं है । इसका भी कारण यह है कि जिसने पहिले किसी पदार्थका प्रत्यक्ष कर लिया है उसे ही तत्पश्चात् उसका स्मरण हुआ करता है और फिर तत्पश्चात् उसीके उक्त अनुभूत पदार्थका सारणपूर्वक पुनः प्रत्यक्ष होनेपर प्रत्यभिज्ञान भी होता है । परन्तु जब आत्मा सर्वथा क्षणिक ही है तब जिस चित्तक्षणको प्रत्यक्ष हुआ था वह तो उसी क्षण में नष्ट हो चुका है । ऐसी अवस्था में उसके स्मरण और प्रत्यभिज्ञानकी सम्भावना कैसे की जा सकती है ? तथा उक्त स्मरण और प्रत्यभिज्ञानके बिना किसी भी कार्यका करना असम्भव है । इस प्रकारसे क्षणिक एकान्त पक्षमें बन्ध-मोक्षादि की भी व्यवस्था नहीं बन सकती है। इसलिये आत्मा आदिको सर्वथा नित्य अथवा सर्वथा क्षणिक न मानकर कथंचित् (द्रव्यदृष्टिसे ) नित्य और कथंचित् (पर्यायदृष्टिसे ) अनित्य स्वीकार करना चाहिये । जो पुरुषाद्वैतवादी आत्माको परब्रह्मस्वरूपमें सर्वथा एक स्वीकार करके विभिन्न आत्माओं एवं अन्य सत्र पदार्थोंका निषेध करते हैं उनके मतका निराकरण करते हुए यहां यह बतलाया है कि सर्वथा एकत्वकी कल्पना प्रत्यक्षादि प्रमाणोंसे बाधित है। जब विविध प्राणियों एवं घट-पदादि पदार्थोंकी पृथक् पृथक् सत्ता प्रत्यक्षसे ही स्पष्टतया देखी जा रही है तब उपर्युक्त सर्वथा एकत्वकी कल्पना भला कैसे योग्य कही जा सकती है ? कदापि नहीं । इसी प्रकार शब्दाद्वैत, विज्ञानाद्वैत और चित्राद्वैत आदिकी कल्पना भी प्रत्यक्षादिसे बाधित होनेके कारण ग्राह्म नहीं है; ऐसा निश्चय करना चाहिये || १३७ ॥ वह आत्मा स्वयं शुभ और अशुभ कार्यको करता है तथा स्वयं उसके फलको भी भोगता है, क्योंकि, शुभाशुभ कर्म के फलस्वरूप सुख Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पवि पसनन्दिपचाविशतिः [138: १-१३८चिवूपः स्थितिजन्ममङ्गकलितः कर्माहतः संसृती मुक्तौ धानहबोकमूर्तिरमलबैलोक्यधूलामणिः ॥ १३८॥ 139) आत्मानमेषमधिगम्य नयप्रमाणनिक्षेपकादिभिरभिनयतैकचिताः । भन्या यदीच्छत भवार्णवमुत्तरीतुमुसुङ्गमोहमकरोप्रसरं गभीरम् ॥ १३९ ।। स्थितिजन्मभकलितः धौम्यव्ययउत्पादयुक्तः। संसृतौ मसारे। कर्मावृता आरमा । मुफो मोक्षे । शानइगैकमूर्तिः शामदर्शनकमूर्तिः। मात्मा भमलः त्रैलोक्यचूडामणिः ॥३८॥ भो भन्याः। यदि भवार्णवै संसारसमुद्रम् । उत्तरीतुम् इच्छत । किलक्षण संसारसमुरम् । अगमोहमकरोगतरम् उतुगमोहमत्स्यभृतम् । पुमः गमीरम् । भो एकचिसा खस्थचिता आत्मानम् एवम् अभिधयत । दुःखका अनुभव भी उसे ही होता है। इससे भिन्न दूसरा स्वरूप आत्माका हो ही नहीं सकता । स्थिति (प्रौव्य), जन्म (उत्पाद) और भंग (व्यय) से सहित जो चेतन आत्मा संसार अवस्थामें कर्मोके आवरणसे सहित होता है वही मुक्ति अवस्थामें फर्ममलसे रहित होकर ज्ञान-दर्शनरूप अद्वितीय शरीरसे संयुक्त होता हुआ तीनों लोकोंमें चूडामणि रखके समान श्रेष्ठ हो जाता है। विशेषार्थ-- माज्य प्रकृतिको की और पुरुषको भोक्ता स्वीकार करते हैं । इसी अभिप्रायको लक्ष्यमें रखकर यहां यह बतलाया है कि जो आत्मा काँका कर्ता है वही उनके फलका भोक्ता भी होता है । कर्ता एक और फलका भोका अन्य ही हो, यह कल्पना युक्तिसंगत नहीं है । इसके अतिरिक्त यहां जो दो बार 'स्वयम्' पद प्रयुक्त हुआ है उससे यह भी ज्ञात होता है कि जिस प्रकार ईश्वरकर्तृत्ववादियोंके यहाँ कोंका करना और उनके फलका भोगना ईश्वरकी प्रेरणासे होता है वैसा जैन सिद्धान्तके अनुसार सम्भव नहीं है। जैनमतानुसार आत्मा स्वयं कर्ता और स्वयं ही उनके फलका भोक्ता भी है । तथा वही पुरुषार्थको प्रगट करके कर्ममलसे रहित होता हुआ स्वयं परमात्मा भी बन जाता है। यहाँपर सर्वथा नित्यत्व अथवा अनित्यत्वकी कल्पनाको दोषयुक्त प्रगट करते हुए यह भी बतलाया है कि आत्मा आदि प्रत्येक पदार्थ सदा उत्पाद, व्यय और भौज्यसे संयुक्त रहता है । यथा-मिट्टीसे उत्पन्न होनेवाले घटमें मृत्तिकारूप पूर्व पर्यायका व्यय, घटरूप नवीन पर्यायका उत्पाद तथा पुद्गल द्रव्य उक्त दोनों ही अवस्थाओमें ध्रुवस्वरूपसे स्थित रहता है ।। १३८ ॥ इस प्रकार नय, प्रमाण एवं निक्षेप आदिके द्वारा आत्माके स्वरूपको जानकर हे भव्य जीवो ! यदि तुम उन्नत मोहरूपी मगरोंसे अतिशय भयानक व गम्भीर इस संसाररूप समुद्रसे पार होनेकी इच्छा करते हो तो फिर एकाममन होकर उपर्युक्त आत्माका आश्रयण करो । विशेषार्थ-ज्ञाताके अभिप्रायको नय कहते हैं । तात्पर्य यह कि प्रमाणके द्वारा ग्रहण की गई वस्तुके एकदेश (द्रव्य अथवा पर्याय आदि) में यस्तुका निश्चय करनेको नय कहा जाता है । वह द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयके मेदसे दो प्रकारका है । जो द्रव्यकी मुख्यतासे वस्तुको ग्रहण करता है वह द्रव्यार्थिक तथा जो पर्यायकी प्रधानतासे वस्तुको ग्रहण करता है वह पर्यायार्थिक नय कहा जाता है। इनमें द्रज्यार्थिक नयके तीन भेद हैं- नैगम, संग्रह और व्यवहार । जो पर्यायकलंकसे रहित सत्ता आदि सामान्यकी विवक्षासे सबमें अभेद (एकत्व) को ग्रहण करता है वह शुद्ध द्रव्यार्थिक संग्रहनय कहलाता है । इसके विपरीत जो पर्यायकी प्रधानतासे दो आदि अनन्त मेदरूप वस्तुको महण करता है उसे अशुद्ध द्रव्यार्थिक व्यवहारनय कहा जाता है । जो संग्रह और व्यवहार इन दोनों ही नयोंके परस्पर भिन्न दोनों (अभेद व भेद) विषयोंको ग्रहण करता है उसका नाम नैगम नय है। पर्यायार्थिक नय चार प्रकारका है-कजुसूत्र, छन्द, समभिरूद और एवम्भूत । इनमें Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -199: १९३९ १. पोपदेशामृतम् किं कृत्वा ! नयप्रमाणनिक्षेपकादिभिः । अधिगम्य शास्खा ॥ १३९ ॥ भो भास्मन् । इह अगति सारे । भवरिपुः संसारणत्रुः । जो तीन कालविषयक पर्यायोंको छोड़कर केवल वर्तमान कालविषयक पर्यायको ग्रहण करता है वह ऋजुसूत्रनय है । जो लिंग, संख्या (वचन), काल, कारक और पुरुष (उत्तमादि) आदिके व्यभिचारको दूर फरके वस्तुको ग्रहण करता है उसे शब्दनय कहते हैं । लिंगव्यभिचार-जैसे सीलिंगमें पुल्लिंगका प्रयोग करना । यथा- तारकाके लिये स्वाति शब्द का प्रयोग करना । इत्यादि व्यभिचार शब्दनयकी दृष्टि में अपाय नहीं है । जो एक ही अर्थको शब्दभेदसे अनेक रूपमें प्रहण करता है उसे शब्दनय कहते हैं । जैसे एक ही इन्द्र व्यक्ति इन्दन (शासन) क्रिया के निमित्तसे इन्द्र, शकन (सामर्थ्यरूप) क्रियासे शक, तथा पुरोके विदारण करनेसे पुरन्दर कहा जाता है । इस नयकी दृष्टिमें पर्यायशब्दोंका प्रयोग अमाध है, क्योंकि, एक अर्थका बोधक एक ही शब्द होता है- समानार्थक अन्य शब्द उसका बोध नहीं करा सकता है । पदार्थ जिस क्षण जिस क्रियामै परिणत हो उसको जो उसी क्षणमें उसी स्वरूपसे ग्रहण करता है उसे एवम्भूतनय कहते हैं । इस नयकी अपेक्षा इन्द्र जब शासन क्रियामें परिणत रहेगा सब ही वह इन्द्र शब्दका वाच्य होगा, न कि अन्य समयमें मी प्रमाण सम्यम्ञानको कहा जाता है । वह प्रत्यक्ष और परोक्षके भेदसे दो प्रकारका है । जो ज्ञान इन्द्रिय, मन एवं प्रकाश और उपदेश आदि बाग निमिसकी अपेक्षासे उत्पन्न होता है यह परोक्ष कहा जाता है। उसके दो भेद है- मतिज्ञान और भुतज्ञान । जो ज्ञान इन्द्रियों और मनकी सहायतासे उत्पन्न होता है उसे मतिज्ञान कहते हैं । इस मतिज्ञानसे जानी हुई वस्तुके विषयमें जो विशेष विचार उत्पन्न होता है वह श्रुतज्ञान कहलाता है । प्रत्यक्ष प्रमाण तीन प्रकारका हैअवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । इनमें जो इन्द्रिय आदिकी अपेक्षा न करके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी मर्यादा लिये हुए रूपी (पुरल और उससे सम्बद्ध संसारी प्राणी) पदार्थको ग्रहण करता है उसे अवधिज्ञान कहते हैं । जो जीवोंके मनोगत पदार्थको जानता है वह मनःपर्ययज्ञान कहलाता है। समस्त विश्वको युगपत् ग्रहण करनेवाला ज्ञान केवलज्ञान कहा जाता है । ये तीनों ही ज्ञान अतीन्द्रिय हैं। निक्षेप शब्दका अर्थ रखना है। प्रत्येक शब्दका प्रयोग अनेक अर्थोंमें हुआ करता है। उनमें से किस समय कौन-सा अर्थ अभीष्ट है, यह बतलाना निक्षेप विधिका कार्य है । वह निक्षेप नाम, स्थापना, द्रव्य और मादके भेदसे चार प्रकारका है। वस्तुमें विवक्षित गुण एवं क्रिया आदिके न होनेपर भी केवल लोकत्र्यवहारके लिये वैसा नाम रख देनेको नामनिक्षेप कहा जाता है जैसे किसी व्यक्तिका नाम लोकव्यवहारके लिये देवदत्त (देवके द्वारा न दिये जानेपर भी ) रख देना । काष्ठकर्म, पुस्तकर्म, चित्रकर्म और पांसों के निक्षेप आदिमें 'वह यह है इस प्रकारकी जो कल्पना की जाती है उसे स्थापना निक्षेप कहते हैं । यह दो प्रकारका है-सद्धावस्थापनानिक्षेप और असद्धावस्थापनानिक्षेप । स्थाप्यमान वस्तुके आकारवाली किसी अन्य वस्तुमें जो उसकी स्थापना की जाती है इसे सद्भावस्थापनानिक्षेप कहा जाता है-जैसे ऋषभ जिनेन्द्रके आकारभूत पाषाणमें ऋषभ जिनेन्द्रकी स्थापना करना । जो वस्तु स्थाप्यमान पदार्थके आकारकी नहीं है फिर भी उसमें उस वस्तुकी कल्पना करनेको असद्भावस्थापनानिक्षेप कहा जाता है-जैसे सतरंजकी गोटोंमें हाथीघोड़े आदिकी कल्पना करना । भविष्यमें होनेवाली पर्यायकी प्रधानतासे वस्तुका कथन करना द्रव्यनिक्षेप कहलाता है। वर्तमान पर्यायसे उपलक्षित वस्तुके कथनको भावनिक्षेप कहा जाता है । इस प्रकार इन t.. Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स aaiwwwwwnnnnnnn पचनदि-पश्चशितिर 11401१-२४०140) मवरिपुरिह वायदुःखदो याषवात्मन् तव विनिहितधामा कर्मसंश्लेषदोषः। स भवति किल रागद्वेषतोत्सदादी सटिति शिवसुखार्थी यजतस्सी जहीहि ॥ १० ॥ 141) लोकस्य त्वं न कधिन स सथ यदिह स्वार्जितं भुज्यते का संबन्धस्तेन साधं तदसति सति वा सत्र की रोषतोषी। काय अन्य अडत्वा धनुमतसुरम्पदावधि समाषा देवं निश्चिस्य हंस स्ववलमनुसर स्थाथि मा पश्य पार्श्वम् ॥ १४ ॥ 142) आस्सामन्यगतौ प्रतिक्षणलसहुःखाश्रितायामहो देवत्वे ऽपि न शान्तिरस्ति भवतो रम्ये ऽणिमादिनिया। तावत्कालम् दुःखदः वर्तते यावस्काले कर्मसंवदोष अस्ति । किलक्षणः कर्मसंश्लेषदोषः । तर विनिहितधामा आच्छादिततेजाः। किल इति सत्ये । स कर्मसंश्लेषदोषः रागद्वेषदेतोः सकाशात् भवति । तस्मात् पादौ प्रथमतः । झारिति शीघ्रण । यमतः शिवमुखापी । तौ रागद्वेषौ । अहीहि त्या ॥ १४॥ भो इस भो भास्मन् । एवं निश्चित्य । खबझम् अनुसर भात्मबल सार । पार्थ संसारनिकटम् । स्थायि स्थिरम् । मा पश्य । एवं कचम् । लोकस्य त्वं कश्चित् न । तवत लोकः कश्चिम । यत् यस्मात् । इह संसारे। खार्जित भुज्यते सकर्म मुज्यते । तेन लोकेन । सार्थ संबन्धः । तत् तस्मात् कारणात् । असति सति वा असाधी साधी वा । तत्र लोके । रोषतोषौ को हर्षविषादी को । काये शरीरे धपि । एवम् अमुना प्रकारेण । जडत्वात् । तदनुगतसुखादौ तस्य शरीरस्य संलमइन्द्रि यमुखादौ । अपि रोषतोषी को। कस्मात् । व्यसभावात् विनाशभावात् ॥ १४१ ॥ रे जीव भो बारमन् । तत्तस्मात्कारणात् । निस्यपदं प्रति मोक्षपदै प्रति । निक्षेपोंके विधानसे अप्रकृतका निराकरण और प्रकृतका प्रहण होता है ।।१३९॥ हे आत्मन् । यहां संसाररूप शत्रु तब तक ही दुःख दे सकता है जब तक तेरे भीतर ज्ञानरूप ज्योतिको नष्ट करनेवाला कर्मबन्धरूप दोष स्थान प्राप्त किये है। वह कर्मबन्धरूप दोष निश्चयतः राग और द्वेषके निमितसे होता है । इसलिये मोक्षसुखका अभिलाषी होकर तू सर्वप्रथम शीघ्रतासे प्रयापूर्वक उन दोनोको छोड़ दे ।। १४० ॥ हे आत्मन् ! न तो तुम लोक ( कुटुम्बी बन आदि) के कोई हो और न वह भी तुम्हारा कोई हो सकता है। यहां तुमने जो कुछ कमाया है वही भोगना पड़ता है। तुम्हारा उस लोकके साथ भला क्या सम्बन्ध है ? अर्थात् कुछ भी नहीं है। फिर उस लोकके न होनेपर विषाद और उसके विद्यमान होनेपर हर्ष क्यों करते हो! इसी प्रकार शरीरमें राग-द्वेष नहीं करना चाहिये, क्योंकि, वह जड़ (अचेतन) है। तथा शरीरसे सम्बद्ध इन्द्रियविषयभोग जनित सुखादिकमें भी तुम्हें रागद्वेष करना उचित नहीं है, क्योंकि, वह विनश्वर है। इस प्रकार निश्चय करके तुम अपनी स्थिर आत्मशक्तिका अनुसरण करो, उस निकटवर्ती लोकको स्थायी मत समझो ॥ विशेषार्थ-कुटुम्ब एवं धन-धानादि बाब सब पदार्थोंका आत्मासे कुछ भी सम्बन्ध नहीं है। वे प्रत्यक्षमें ही अपनेसे पृथक् दिग्पते हैं । अतएव उनके संयोगमें हर्षित और वियोगमें खेदखिन्न होना उचित नहीं है । और तो क्या कहा जाय, जो शरीर सदा आत्माके साथ ही रहता है उसका भी सम्बन्ध आत्मासे कुछ भी नहीं है। कारण कि आत्मा चेतन है और शरीर अचेतन है। स्पर्शनादि इन्द्रियोंका सम्बन्ध भी उसी शरीरसे है, न कि उस चेतन आत्मासे । इन्द्रियविषयभोगोंसे उत्पन्न होनेवाला सुख विनश्वर है - स्थायी नहीं है। इसलिये हे आत्मन् ! शरीर एवं उससे सम्बद्ध सुख-दुःखादिमें राग द्वेष न करके अपने स्थायी आरमरूपका अवलोकन कर ।। १४१ ॥ हे आस्मन् । क्षण-क्षणमें होनेवाले दुःखकी स्थानभूत अन्य १. गिरि। २० प्रथमः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्मोपदेशामृतम् यत्तस्मादपि मत्युमालकलयापसाखात्याय तत्तचित्यपद प्रति प्रतिदिन रे जीव यत्ने कुरु ॥ १४२ ॥ 148) यत् ट पहिरजनाविषु चिरं तवानुरागो ऽभवत् भ्रान्स्या भूरि तथापि ताम्यसि ततो मुक्त्वा तदन्तर्षिश । खेतस्तत्र गुरोः प्रबोधवसतेः किंचिवदाकर्ण्यते प्राते यत्र समस्तदुखविरमालभ्येत निर्त्य सुखम् ॥ १४ ॥ 144) किमालकोलाहलैरमलबोधसंपन्निधेः समस्ति यदि कौतुकं किल तवारममो दर्शने । निरुत्सकलेन्द्रियो रहसि मुक्तसंगप्रहः फियन्त्यपि दिनान्यतः स्थिरमना भवान् पश्यतु । १५४ ॥ 145) हे घेतः किमु जीव तिष्ठसि कथं चिन्तास्थित सा कुतो रागद्वेषपशाचयोः परिचया कस्मात जातस्तव। प्रतिदिन दिन दिन प्रति । यो कुरु । अहो अन्यगतौ दूरे भास्वाम् । किंलक्षणायाम् अन्यगतौ । प्रतिक्षणं समय समय प्रति । लसत् -प्रादुर्भूतदुःखेन युक्तायाम् । देवत्वे ऽपि देवपदे ऽपि। भवतः तव शान्तिः न आस्व । किनभने देवपरे । भरिमामहिमा आदिअष्टऋद्धिधिया कृत्वा । रम्येऽपि मनोहरे ऽपि । भो भात्मन् । यत्तस्मादपि स्वर्गादपि । मृत्युकालमा छात् अपवाद पालसे । ततः मुची मने कुरु ॥ १४२॥हे चेतः भो मनः । यत् बहिः बालादिषु । विरनिरालम् । एम् । वत्र अनादिनु भ्रान्या अनुरागः अभवत् । तथापि ततः तस्मात्कारणात् । भूरि बहुलं ताभ्यसि बेदं याति । तत् पव चेदं याति । तत् अनुराग प्रेम मुक्त्वा ! अन्तःकरणे विश प्रवेशं कुरु । तत्र अन्तःकरणे । गुरोः प्रशेधवसतेः तत् किंचित् भावार्यते । पत्र गुरुवचने प्राप्ते सति । समस्खदुःखविरमात् दुःखनाशात् निलं सुख लभ्येत ॥ १४३ ॥ माल करेला ले: किम् । यदि चेत् । किरक इति सत्ये। तवाश्मनः दर्शने । कौतुकम् अस्ति कौतुकं वर्तते। किंलक्षणस्य वात्मनः । अमलबोषसंपविधेः निर्मललामनियः। भवान् अन्तःकरणात् कियन्ति अपि दिनानि । रहसि एकान्ते पश्यतु । किंलक्षणः मवान् । निरुयसकलेन्द्रियः संबोधितनिवः। पुनः किलक्षणः भवान् । मुक्तसंगमहः रहित परिग्रहः । पुनः किलक्षणः भवान् । स्थिरमनाः ॥१४॥हेतः । किमु जीवनका तिष्ठति । चिन्तास्मिते चिन्तास्थाने विधानि । जीवः ब्रवीति । रे मनः सा चिन्ता कुतः तिष्ठति या सा चिन्ता कृतः मसाजता । रागद्वेषवशास् जाता । पुनः। तयोः रागद्वेषयोः परिचयः तव कस्मादभूत् । स परिचयः इष्टानिष्टसमागमाजातः । इति अमुना नरक, तिथंच और मनुष्य गति तो दूर रहे; किन्तु आश्चर्य तो यह है कि आणिमा आदिरूप लक्ष्मीसे रमणीय देवगतिमें भी तुझे शान्ति नहीं है। फारम कि वहांसे भी तू मृत्यु कालके द्वारा जबरन् नीचे गिराया जाता है । इसलिये तू प्रतिदिन उस नित्य पद अर्थात् अविनश्वर मोक्षके प्रति प्रयास कर ॥ १४२॥ हे चित्त ! तूने बास स्त्री आदि पदामि जो सुख देखा है उसमें तुझे प्रान्तिसे चिरकाल तक अनुराग हुआ है । फिर भी तू उससे अधिक सन्तप्त हो रहा है । इसलिये उसको छोड़कर अपने अन्तरात्मा प्रवेश कर । उसके विषयमें सम्यग्ज्ञानके आधारभूत गुरुसे ऐसा कुछ सुना जाता है कि जिसके प्राप्त होनेपर समस्त दुःखोंसे छुटकारा पाकर अविनश्वर (मोक्ष) सुख प्राप्त किया जा सकता है ॥ १४३ ।। हे जीव ! तेरे लिये यदि निर्मल ज्ञानरूप सम्पत्तिके आश्रयभूत आत्माके दर्शनमें कौतूहल है तो व्यर्थके कोलाहल (बकवाद) से क्या है अपनी समस्त इन्द्रियोंका निरोध करके तू परिग्रह-पिशाच को छोड़ दे । इससे स्थिरचित्त होकर तू कुछ दिनमें एकान्तमें उस अन्तरात्माका अवलोकन कर सकेगा ॥१४॥ यहां जीव अपने चित्तसे कुछ प्रश्न करता है और तदनुसार चित्त उनका उत्तर देता है-हे चित्र ! ऐसा संबोधन करनेपर चित कहता है कि हे जीव क्या है। इसपर जीव उससे पूछता है कि तुम कैसे स्थित हो! मैं चिन्तामें स्थित रहता है। वह चिन्ता किससे उत्पन हुई ह ! वह राग-द्वेषके वचसे उत्पन्न हुई है। उन राग-द्वेक्का Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एमनन्दि-पञ्चविंशतिः [145:१-३४५. इष्टानिष्टसमागमादिति यदि श्व तथा गती नोचेन्मुञ्च समस्तमेतदचिरादिष्टादिसंकल्पनम् ॥ १४५ ॥ 146 ) भानज्योतिरुदेति मोहतमसो भेदः समुत्पद्यते सानन्दा कृतकृस्यता च सहसा स्थान्ते समुन्मीलति । यस्यैफस्मृतिमात्रतो ऽपि मगवानव देहान्तरे देवस्तिष्ठति मृग्यता सरभसाइन्यत्र किं धावत ॥ १४६ ॥ 147) जीवाजीवविचित्रवस्तुविविधाकारद्धिरूपादयो । रागद्वेषकसो ऽत्र मोहवशतो दृष्टाः श्रुताः सेविताः। पाटार पटबधान चिलातो सार नयामि नूनं जानत एव कि पहिरसाषचापि धीर्घावति ॥ १४७ ॥ 148) भिन्नोऽहं वपुषो बहिर्मलकुताभानाधिकापौघतः शम्बादेव चिवकमूर्तिरमलः शान्तः सदानन्दभाक् । प्रकारेण यदि परिचयः जातः उत्पन्नः 1 भो मनः। तदादा द्वावपि । वन नरकम् । गती । मो चेत् । एतत्समस्तम् । इष्टाविसंकल्प नम् । मुन त्यज |१५|| देवः भास्मा । अत्रैव देहान्तरे तिष्ठति । स एव भगवान् परमेश्वरः। अन्यत्र किं घारत । भो लोकाः। स एव भगवान् परमेधरः। मूग्यताम् अवलोक्यताम् । यस्य एकभगवतः । स्मृतिमानतोऽपि शानज्योतिः उवेवि प्रक्टीभवति । यस्य मात्मनः स्मरणमात्रतः। मोहतमसः मिथ्यात्वान्धकारस्य । मेदः समुत्पद्यते । यस्य मात्मनः स्मरणमात्रतः । सानन्दा आनन्दयुक्ता । कृतकृत्यता विहितकार्यता । सहसा शीघेण । स्वान्ते अन्तःकरणे। समुन्मीलति विकसति ॥ १४६ ॥ भो भास्मन् । अन्न संसारे। जीव-अजीब विचित्र वस्तुविषिध-माकार-शरिरूपादयः मोहपशतः। चिरंजीचल टाः श्रुताः सेविताः । किलक्षणा रूपादयः। रागद्वेषकृताः तेहपादयः विषयाः स्वरन्धन जाताः । अतः कारणात् । नून निश्चितम् । तव इद दुःख जातम् । उत्पनम् । जानतः तव असो धीः एवं अद्यापि । बाहिः माझे। कि धापति । भूषेव ॥१७॥ बहम् । वपुषः शरीरात् । मिथः । पुनः। किंलक्षणात् पुषः । पहिः पाये। मलकृतात् मलकारिणः। महम् मात्मा । नानाविकल्पोषतः शब्दादेश्व मिनः । विलक्षणः भारमा चिवकमूर्तिः। पुनः समलः । पुनः शान्तः । पुनः सदानन्दमा भानन्दमयः। इति भास्था स्थिर oran परिचय तेरे किस कारणसे हुआ ! उनके साथ मेरा परिचय इष्ट और अनिष्ट वस्तुओंके समागमसे हुआ। अन्तमें जीव कहता है कि हे चिट ! यदि ऐसा है तो हम दोनों ही नरकको प्राप्त करनेवाले हैं। वह यदि तुझे अभीष्ट नहीं है तो इस समस्त ही इष्ट अनिष्टकी कल्पनाको शीघ्रतासे छोड़ दे ॥१४५॥ जिस भगवान् आत्माके केवल मरण मात्रसे भी ज्ञानरूपी तेज प्रगट होता है, अज्ञानरूप अन्धकारका विनाश होता है, तथा कृतकृत्यता अकस्मात् ही आनन्दपूर्वक अपने मनमें प्रगट हो जाती है। वह भगवान् आत्मा इसी शरीरके भीतर विराजमान है । उसका शीघ्रतासे अन्वेषण करो । दूसरी जगह (याम पदार्थोकी ओर) क्यों दौड़ रहे हो! ॥ १४६ ॥ हे आत्मन् यहां जो जीव और अजीवरूप विचित्र वस्तुएँ, अनेक प्रकारके आकार, ऋद्धियां एवं रूप आदि राग-द्वेषको उत्पन्न करनेवाले ह उनको तूने मोहके वश होकर देखा है, सुना है, तथा सेवन भी किया है । इसीलिये वे तेरेलिये चिर कालसे दृढ़ बन्धन बने हुए हैं, जिससे कि तुझे दुःख भोगना पड़ रहा है ! इस सबको जानते हुए भी तेरी वह बुद्धि आज भी क्यों बास पदार्थोकी ओर दौड़ रही है ! ॥ १४७ ॥ मैं याच मल ( रज-वीर्य) से उत्पन्न हुए इस शरीरसे, अनेक प्रकारके विकल्पों के समुदायसे, तथा शब्दादिकसे भी भिन्न हूं । स्वभावसे मैं चैतन्यरूप अद्वितीय शरीरसे सम्पन्न, कर्म-मलसे रहित, शान्त एवं सदा आनन्दका उपभोक्ता हूं। इस प्रकारके श्रद्धानसे जिसका चित्त स्थिरताको प्राप्त हो कविहिता सहसा Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -151:१-१५१] १. धर्मोपदेशामृतम् इस्यास्था स्थिरचेतसो इढतरं साम्यावनारम्भिणः संसारायमस्ति किं पदि तदप्यन्यत्र का प्रत्ययःn १४८॥ 149) किं लोकेन किमाश्रयेण क्रिमय ध्येण कायेन कि कि वाग्भिः किमुतेन्द्रियैः किमसुभिः किं तैर्विकल्पैरपि । सर्वे पुद्गलपर्यया पत परे त्वत्ता प्रमसो भवन् नात्मभिरभिश्रयस्यति तरामालेन किं बन्धनम् ॥ १४९ ॥ 150) सतताभ्यस्तभोगानामयसरमुखमात्मजम्। अप्यपूर्व सदित्यास्था चिसे यस्य स तत्वविद ॥ १५० ॥ 151) प्रतिक्षणमयं जनो लियामाहालातरः क्षुधादिभिरभिश्रयसदुपशान्तये सादिकम् । तदेव मनुते सुखं श्रमपशायदेवासुख, समुलसति कछुफावणि यथा शिलिखेदनम् ॥ १५१ ॥ चेतसः जीवस्य । साम्यातू । मनारम्भिणः परिम्मरहितस्य । संसाराद छतरं मयै कमस्ति । यदि तत् तव अन्यत्र परवस्तुनि। का प्रत्ययः कः विश्वासः ॥ १४ ॥बत इति खेदे। भो भास्मन् । लेकेन किं प्रयोजनम् । भो श्रात्मन् । बाश्रयेण कि प्रयोजनम् । भो आत्मन् द्रव्येण अथवा कायेन कि प्रयोजनम् । भो हंस । वाग्मिः वचने कि प्रयोजनम् । अत महो। इन्द्रियः कि प्रयोजनम् । भो बाल्मन् मसुभिः प्राणः कि प्रयोजनम् । भो आत्मन् तेर्षिकरुपैरपि प्रियोजनम् । अपि सर्वे पुद्रलपर्यायाः। भो भात्मन् स्वतः सकाशात् । परे सर्व पदार्शः भिकाः । भो आस्मन् त्वं प्रमत्तः भवन् सन् । एभिः पूर्वोक्तैः विकल्पैः कृत्वा । मतितराम् अतिशयेन । मालेन बुथैव । बन्धनं किम् भमिनयहि आभयसि ॥ १४९॥ सततं निरन्तम् । अभ्यस्तभोगाना मुखम् अपि । असद अविद्यमानम । बारम सुखम् अपूर्व सत् विद्यमानम् । यस्य वित्त इति आस्था स्थितिः अस्ति । स पुमान् । तत्त्ववित् तस्ववेत्ता स्यात् ॥ १५.॥लियते निश्चितम् । अयं जनः लोकः । प्रतिक्षणं समय समय प्रति । अधादिमिः अमःमातुरः । तपशान्तये चार-उपशान्तये । अन्नादिकं अभियन् । तदेव सुखं मनुते । कस्मात् । भ्रमवशात् । यदेव असुखं तदेव सुख मनुते । यथा कस्छुकान समुलसति सति शिलिखेइन सुखं मनुते ॥ १५१ ॥ पर मुनिः इति चिन्तयति । मारमा marmnanmamananmarne amannanaanana m गया है तथा जो समताभावको धारण करके आरम्भसे रहित हो चुका है उसे संसारसे क्या भय है ! कुछ भी नहीं । और यदि उपर्युक्त हड़ श्रद्धानके होते हुए भी संसारसे भय है तो फिर और कहां विश्वास किया जा सकता है। कहीं नहीं ॥ १४८ ॥ हे आत्मन् ! तुझे लोकसे क्या प्रयोजन है, आश्रयसे क्या प्रयोजन है, बन्यसे क्या प्रयोजन है, शरीरसे क्या प्रयोजन है, बचनोंसे क्या प्रयोजन है, इन्दियोंसे क्या प्रयोजन है, प्राणोंसे. क्या प्रयोजन है, तथा उन विकल्पोंसे मी तुझे क्या प्रयोजन है ? अर्थात् इन सबसे तुझे कुछ मी प्रयोजन नहीं है, क्योंकि, वे सब पुद्गलकी पर्यायें हैं और इसीलिये तुमसे भिन्न हैं। तू प्रमादको प्राप्त होकर व्यर्थ ही इन विकल्पोंके द्वारा क्यों अतिशय बन्धनका आश्रयण करता है ? ||१४१ ।। जिन जीवोंने निरन्तर भोगोंका अनुभव किया है उनका उन भोगौसे उत्पन्न हुआ सुल अवास्तविक (कल्पित) है, किन्तु आत्मासे उत्पन्न सुख अपूर्व और समीषीन है। ऐसा जिसके हृदयमें दृढ़ विश्वास हो गया है वह तत्त्वज्ञ है ॥ १५० ॥ यह प्राणी प्रतिसमय क्षुषा-तृषा आदिके द्वारा अत्यन्त तीन दुःखसे व्याकुल होकर उनको शान्त करनेके लिये अन्न एवं पानी मादिका आश्रय लेता है और उसे ही अमवश सुख मानता है। परन्तु वास्तवमै वह दुःख ही है। यह सुखकी कल्पना इस प्रकार है असे कि खुजलीके रोगमें अमिके सेकसे होनेवाला सुख ॥ १५१ ।। यदि १ ममतवेति योजना का नास्ति । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ पचनन्दि-पविशतिः (152) आत्मा स्वं परमीशते यदि समं तेनैव संचेष्टते तस्मायेव हितस्ततो ऽपि च सुखी तस्यैव संबन्धभाक् । तस्मिमेव गतो भवस्य विरतानन्दामृताम्भोनिधि किंचान्यत्सकलोपदेशनिवहस्यैतद्रहस्यं परम् ॥ १५२ ॥ 153) परमानन्दाञ्जरसं सकलविकल्पान्यसुमनसस्त्यक्त्वा । योगी स यस्य भजते स्तिमितान्तःकरणषट्चरणः ॥ १५३ ॥ 154) जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरे ऽपि च । जोषं वागपि धारयत्य विरता नन्यात्मशुद्धात्मनः चिन्तायामपि यातुमिच्छति समं दोषैर्मनः पञ्चताम् ॥ १५४ ॥ 155) आत्मैकः सोपयोगो मम किमपि ततो नान्यदस्तीति चिन्ताभ्यासास्ताशेषवस्तोः स्थितपरममुदा यहतिनों विकल्पे 1 [152: १-१५२ 1 1 1 पर स्वम् आत्मानम् ईक्षते । यदि चेत् । तेनैव आत्मनैत्र । समं चेष्टते व्यति मात्मा । तस्मै आत्मने हितः । ततः आत्मनः सकाशात् । आत्मा सुखी । आत्मा तस्म आत्मनः संवन्धभाक् सेवकः आत्मा तस्मिन् आत्मनि । मतः प्राप्तः । अविरत - आनन्द-अमृत-अम्भोनिधिः भवति । अभ्यत् किम् । सकलोपदेश निवहस्य एतत्परं रहस्यम् ॥ १५२ ॥ स योगी । यस्व मुनेः । खिमितान्तःकरणषट्चरणः मिम्यसान्तः करणभ्रमरः । परमानन्दाच्जरसम् आनन्वकमलरसम् । भजते । किं कृत्वा । सककविकल्पभन्यसुमनसः पुष्पाणि त्यक्त्वा ॥ १५३ ॥ अविरते-मानन्दशुद्धात्मनः चिन्तायां सत्य विचारणे । रसाः विरक्षाः जायन्ते । गोष्टीथाको विषयते । तथा विषयाः शीर्यन्ते शटन्ति । च पुनः । शरीरेऽपि प्रीतिः विरमति । वागपि जोषं धारयति वचनं मौन धारयति । मनः दोषैः । समं सार्धम् । पञ्चतां मृत्युताम् । यातुम् इच्छति ॥ १५४ ॥ श्रुतविशदभतेः भावश्रुतनिर्मलम से: यतेः । सा साक्षात् आराधना कचिता । अन्यत् समस्तम् । वा भिन्नम् । यत् स्थितपरममुदा हर्षेण । विकल्पे नो गतिः मस् मुर्विकल्प [रूप] 1 प्रामे वा कामने घा वने वा । निःसुखे सुखरहिते प्रदेशे वा जनजनितसुखे लोकहर्षितप्रदेशे । इति चिन्ताआत्मा अपने आपको उत्कृष्ट देखता है, उसीके साथ क्रीड़ा करता है, उसीके लिये हित स्वरूप है, उसीसे वह सुखी होता है, उसके ही सम्बन्धको प्राप्त होनेवाला है, और उसीमें स्थित होता है; तो वह आनन्दरूप अमृतका समुद्र बन जाता है। अधिक क्या कहा जाय ? समस्त उपदेशसमूहका केवल यही रहस्य है | विशेषार्थ - -इसका अभिप्राय यह है कि बाह्य सब पदार्थोंसे ममत्वबुद्धिको छोड़कर एक मात्र अपनी आत्मा में लीन होनेसे अपूर्वं सुख प्राप्त होता है । उस अवस्थामें कर्ता कर्म आदि कारकोंका कुछ भी भेद नहीं रहता - वही आत्मा कर्ता और वही कर्म आदि स्वरूप भी होता है। यही कारण है जो प्रन्थकर्ताने इस श्लोक क्रमशः उसके लिये सातों विभक्तियों (आत्मा, स्वम्, तेन, तस्मै, ततः, तस्य तस्मिन् ) का उपयोग किया है || १५२ || जिसका शान्त अन्तःकरणरूपी भ्रमर समस्त विकल्पोंरूप अन्य पुष्पोंको छोड़कर केवल उत्कृष्ट आनन्दरूप कमलके रसका सेवन करता है वह योगी कहा जाता है || १५३ || नित्य आनन्दस्वरूप शुद्ध आत्माका विचार करनेपर रस नीरस हो जाते हैं, परस्परके संलापरूप कथाका कौतूहल नष्ट हो जाता ६, विषय नष्ट हो जाते हैं, शरीरके विषय में भी प्रेम नहीं रहता, वचन भी मौनको धारण कर लेता है, तथा मन दोषोंके साथ मृत्युको प्राप्त करना चाहता है ॥ १५४ ॥ उपयोग ( ज्ञान- दर्शन ) युक्त एक आत्मा ही मेरा है, उसको छोड़कर अन्य कुछ भी मेरा नहीं है; इस प्रकारके विचार के अभ्यास से समस्त बाह्य पदार्थोंकी ओरसे जिसका मोह हट चुका है तथा जिसकी बुद्धि आगम के अभ्यास से निर्मल हो गई है ऐसे साधु पुरुषके १ अ क सेवकः संबन्धभाकू । २ क व्यविरत । Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 137 : १-१५७] १. धर्मोपदेशामृतम् प्रामे वा कानने या जनजनितसुखे निःसुखे वा प्रदेशे साक्षादाराधना सा श्रुतविशव मते र्षाश्यमन्यत्समस्तम् ॥ १५५ ॥ 156) यद्यन्तर्निहितानि खानि तपसा बाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्निहितानि खानि तपस्सा बाह्येन किं फल्गुना । यद्यन्तर्बहिरन्यवस्तु तपसा बाह्येन किं फल्गुना नैवान्तर्बहिरन्यवस्तु तपसा वाह्येन किं फल्गुना ॥ १५६ ॥ 157 ) शुद्धं धागतिवर्तितश्वमितरद्वाच्यं च तद्वाचकं शुद्धादेश इति प्रभेवजनकं शुद्धेतरत्कल्पितम् । ६३ 1 F अभ्यास-अस्त-अशेष- वस्तोः सुनेः इति चिन्तनम् । एकः आत्मा । मम सोपयोग आदेयः । ततः भात्मनः सकाशात् । अन्यत् किमपि मम न अस्ति ॥ १५५ ॥ यदि चेत् । खानि इन्द्रियाणि । अन्तः मध्ये निहितानि अन्तःकरणे आरोपितानि । तदा बान तमकरणेनैव निहितानि तदा बाधेन तपसा किम् । फल्गुना चैत्र । यदि चेत् अन्तर्बहिः अन्यवस्तु मिध्यात्वादि अस्ति । तदा बधेन तपसा किम् । फल्गुना वृथैव यदि श्वेत । अन्तर्षहिः अन्यवस्तु नैव मिध्यात्वादि नैव । आत्मविचारोऽस्ति । तदा यायेन तपसा किम्। फल्गुना वृथैव ॥ १५६ ॥ शुद्धं सत्वं वागतिपतिं वचनरहितम् । इतरत् अशुद्धतश्वम् । वाच्ये कथनीयम् । च पुनः । शुद्धादेशः तद्वाचकं भवति' इति प्रभेदजनकं शुद्धेमनकी प्रवृत्ति विकल्पों में नहीं होती। वह ग्राम और वनमें तथा प्राणीके लिये सुख उत्पन्न करनेवाले स्थानमें और उस सुखसे रहित स्थानमें भी समबुद्धि रहता है अर्थात् ग्राम और सुख युक्त स्थानमें वह हर्षित नहीं होता है तथा इनके विपरीत वन और दुःख युक्त स्थानमें वह खेदको भी प्राप्त नहीं होता । इसीको साक्षात् आराधना कहा जाता है, अन्य सब बाह्य है ॥ १५५ ॥ यदि इन्द्रियाँ अन्तरात्मा के उन्मुख हैं तो फिर व्यर्थ बातपसे कुछ भी प्रयोजन नहीं है। और यदि वे इन्द्रियां अन्तरात्मा के उन्मुख नहीं हैं तो भी बा तपका करना व्यर्थ ही है उससे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध होनेवाला नहीं है। यदि अन्तरंग और बाप अन्य वस्तुसे अनुराग है तो बाह्य तपसे क्या प्रयोजन है ? वह व्यर्थ ही है । इसके विपरीत यदि अन्तरंग और बाह्यमें भी अन्य वस्तुसे अनुराग नहीं है तो भी व्यर्थ बाध तपसे क्या प्रयोजन है ! अर्थात् कुछ भी नहीं ॥ विशेषार्थ – अभिप्राय यह है कि यदि इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति आत्मोन्मुख है तो अमीष्ट प्रयोजन इतने मात्र से ही सिद्ध हो जाता है, फिर उसके लिये बाह्य तपश्चरणकी कुछ भी आवश्यकता नहीं रहती । किन्तु उक्त इन्द्रियोंकी प्रवृत्ति आत्मोन्मुख न होकर यदि बाह्य पदार्थोकी ओर हो रही है तो बाच तपके करनेपर भी यथार्थ सुखकी प्राप्ति नहीं हो सकती। इसलिये इस अवस्था में भी वास तप व्यर्थ ही ठहरता है । इसी प्रकार यदि अन्तरंग में और बाह्यमें परवस्तुसे अनुराग नहीं रहा है तो बाथ तपका प्रयोजन इस समताभावसे ही प्राप्त हो जाता है, अतः उसकी आवश्यकता नहीं रहती । और यदि अन्तरंग व बाझमें परपदार्थोंसे अनुराग नहीं हटा है तो चित्तके राग-द्वेषसे दूषित रहनेके कारण बाह्य तपका आचरण करनेपर भी उससे कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा । अतः इस अवस्थामें भी बाह्य तपकी आवश्यकता नहीं रहती । तात्पर्य यह है कि बाच तपश्वरणके पूर्व इन्द्रियदमन, राग-द्वेषका शमन और मन वचन एवं कायकी सरल प्रवृत्तिका होना अत्यावश्यक है । इनके होनेपर ही यह बाह्य तपश्वरण सार्थक हो सकेगा, अन्यथा उसकी निरर्थकता अनिवार्य है || १५६ || शुद्ध तव वचनके अगोचर है, इसके विपरीत अशुद्ध तत्त्व वचनके गोचर है अर्थात् शब्दके द्वारा कहा जा सकता है। शुद्ध तत्त्वको जो ग्रहण करनेवाला 1 १वेशः पैावाचकं भवति । Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमनन्धि पञ्चविंशतिः [157:1१५५ तमाचं अयणीयमेष मुहशी शेषडयोपायतः सापेक्षा मयसंहतिः फलवती संजायते नान्यथा ॥ १४ ॥ 158) शान पर्शनमप्यशेषविषय जीवस्य मार्थान्तर शुथावेशभिवक्षया सहि तमिवूप इत्युच्यते । पर्यायच गुणैश्च साधु विदित तसिन् गिरा पहरो प्रति किन विलोकित न किमय प्राप्त न कि योगिमिः ॥१५८ ॥ 159) यबाम्तन बहिः स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्म पुमान नैव सीन नपुंसकं न गुरुतां प्राप्तं न यलाघवम् । कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणमाम्याहारवर्णोजित स्वानरगेकमार्मिसद ज्योतिः परं नापरम ॥ १५९॥ 160) जानम्ति स्वयमेव यद्विमनसचिपमानम्वषत् । प्रोच्छिामे यदनाघमन्वमसम्मोहान्धकारे हठात् । तरकल्पितं भवति । तत्र शुद्ध-अशुद्धमौर्बयोमध्ये । सुदृशा सुदृष्टिना भव्यपुरुषेण आर्य तत्त्वम् । आश्रयणीयम् । कृतः । अशेषद्वयो. पायतः व्यवहार-उपायतः। मयसंहतिः मयसमूहः । सापेक्षा । फलवती सफला । जायते । अन्यथा निश्चयतः म सफला ॥१५॥ अशेषविषयम् अशेषगोचरम्। ज्ञाने दर्शनमपि अशेषगोचर द्वयम् । जीवस्य अर्थान्तर स्पष्टं न । ससः कारणात् । स जीवः शुदावेशविवक्षया शुद्धादेश वस्तुम् इच्च्या कृत्या | चिपः इति उच्यते । तस्मिनास्मनि । सहरोः गिरा वाण्या । पर्यायेव गुणैश्व स्वा। साधु समीचीनम् । विदिते सति हाते सति । योगिभिः मुनीश्वरैः। किन सातम् । किं न पिलोकितम् । अव योगिमिः तस्मिन्त्रात्मनि प्रति सति किन प्राप्तम् ।। १५८ ॥ मुनिः अन्तानं चिन्तयति । तस्परज्योतिः अहम् आत्मा । अपरं न । यम्योतिः अन्तःस्थित न । बहिः बाये स्थितं न । यद पैतम्य । म पुनः । दिशि स्थित न । यम्योतिः स्थूलन । यत् ज्योतिः सूक्ष्म म । यत् ज्योतिः पुमान् म श्री न न सकेन । मज्योतिः गुरुता न प्राप्तम् । यज्योतिः लाधव न प्राप्तम् । यत् ज्योतिः कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणनाण्याहारवर्णोजिमतं फर्मपारीर-उबगन्धाविशम्दादिविषयं तैः विषयः उतितम् । यत् ज्योतिः वर्गः रहितम् । पुनः स्वच्छम् । यत् ज्योतिः शामदर्शनमूर्ति । तद महम् । अपरं न ॥ १५९ ॥ तदई शम्दामि महः सोहम् इति वार्य। है वह शुद्धादेश कहा जाता है तथा जो भेदको प्रगट करनेवाला है वह शुद्धसे इतर अर्थात् अशुद्ध नय कल्पित किया गया है । सम्यग्दृष्टि के लिये शेष दो उपायोंसे प्रथम शुद्ध तत्त्वका आश्रय लेना चाहिये । ठीक है-नयोंका समुदाय परस्पर सापेक्ष होकर ही प्रयोजनीभूत होता है। परस्परकी अपेक्षा न करनेपर वह निष्फल ही रहता है ॥ १५७ ॥ शुद्ध नयकी अपेशा समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला ज्ञान और दर्शन ही जीवका स्वरूप है जो उस जीवसे पृथक् नहीं है । इससे भिन्न दूसरा कोई जीवका स्वरूप नहीं हो सकता है। अतएव वह 'चिप' अर्थात् चेतनस्वरूप ऐसा कहा जाता है। उत्तम गुरुके उपदेशसे अपने गुणों और पर्यायोंके साथ उस ज्ञान-दर्शन स्वरूप जीवके भले प्रकार जान लेनेपर योगियोंने क्या नहीं जाना, क्या नहीं देखा, और क्या नहीं प्राप्त किया ! अर्थात् उपर्युक्त जीवके स्वरूपको जान लेनेपर अन्य सब कुछ जान लिया, देख लिया और प्राप्त कर लिया है। ऐसा समझना चाहिये ॥ १५८ ॥ मैं उस उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप ई जो न भीतर स्थित है, न बाहिर स्थित है, न दिशामें स्थित है, न स्थूल है, न सूक्ष्म है, न पुरुष है, न सी है, न नपुंसक है, न गुरु है, न लघु है; तथा जो कर्म, स्पर्श, शरीर, गन्ध, गणना, शब्द एवं वर्णसे रहित होकर निर्मल एवं ज्ञान-दर्शनरूप अद्वितीय शरीरको धारण करती है। इससे भिन्न और कोई मेरा स्वरूप नहीं है ॥ १५९ ॥ जिसे अनादिकालीन प्रचुर मोहरूप अन्धकारके बलात् नष्ट हो जानेपर मनसे १ च विदुषा २श शुगरपोर्मध्ये। ३ क कारणात जीव ! ४० मूर्तिः । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १.धोपरेशासक सूचनमसापतीस्य यपदो विश्वप्रकाशात्मक सजीयास्सहर्ज सुनिष्कलमई शम्दाभिधेयं महः ॥ १६०॥ 161) यजायते किमपि कर्मयशादसात सातं च यत्तनुयायि विकल्पजालम् । जातं मनागपि न यत्र पदं सदेष देवेन्द्रवन्दितमहं शरणं गतोऽसि ॥ ११ ॥ 162) धिक्कान्तास्तनमण्डलं धिगमलपालेयरोचिः करान थिक'रविमिनचन्दनरसं मील जलादानि । यत्मा न कदाचिदा तदिदं संसारसंतापहर लग्नं दतिशीतल गुरषचोविष्यामृतं मे हदि ॥ १६ ॥ 163) जित्या मोहमहाभट भवपथे दचोप्रदुम्सश्रमे विश्वाम्ता विजनेषु योगिपथिका दीधै घरम्तः कमात् । महा मीयात् । किलक्षण महः। सहजम् । पुनः सुनिष्कलं शरीररहितम् । यत् महः । विमनसः सर्वज्ञाः । स्वयं जानन्ति। यत् चिपम् आनन्दसहित वीतरागा जानन्ति । क सति । हठात् मोहान्धकारे प्रोच्छिने सति । किंलक्षण महः । असकृत् निरन्तरम् । अनादि । अमन्दम् ससायमानम् । भहो यत् ज्योतिः । सूर्याचन्द्रमसौ अतीत्य उल्लल्य अतिक्रम्य विश्वप्रकाशात्मकं वर्तते ॥१६॥ महं तदेव पदम् । शरणं गतोऽस्मि प्राप्तो भवामि। किलक्षण पदम् । देवेन्द्रवन्दितमू 1 यत्किषि कर्मवशात् । भसात दुःखमूच पुनः । सात सुखम् । जायते उत्पद्यते। यत्तदनुयागिविकल्पजालं तयोः सुखदुःखयोः अनुयायि विकल्पजालम् । यत्र मोक्षपदे । मनागपि न जात मुकौ सुखदुःखविकल्पादिन वर्तते ॥ १६१॥ यदि चेत् । तत् इदं गुरुवचः दिव्यामृत मे हदि लमम् अस्ति तदा मया सर्व प्राप्तम् । किंलक्षण चोमृतम् । संसारसंतापहत् संसारकष्टनाशनम् । धुनः अतिशीतलमा यस्य गुरोः वधः । भत्र संसारे.. कदापित्र प्राप्तम् । यदा गुरुवाः प्राप्त तदा । कान्तास्तनमण्डल चिक् । अमलपालेयरोपिःकरान् चन्द्रकरान् धिक् । करविमिश्रितरन्दनरस विक् वा जलाओं चलाईव विक् । एवं गुरुवयः अमृतम् अस्ति ॥ १६३॥ नेभ्यो मुनिभ्यो नमः । रहित हुए सर्वज्ञ मयं ही जानते हैं, जो चेतनस्वरूप है, आनन्दसे संयुक्त है, अनादि है, तीन है, निरन्तर रहनेवाल है, तथा जो आश्चर्य है कि सूर्य व चन्द्रमाको भी तिरस्कृत करके समस्त जगत्को प्रकाशित करनेवाला है। वह 'अहम्' शब्दसे कहा जानेवाला शरीर रहित स्वाभाविक तेज जयवन्त हो ॥ १६० ॥ कर्मके उदयसे जो कुछ भी दुःख और सुख होता है तथा उनका अनुसरण करनेवाला जो विकल्पसमूह भी होता है वह जिस पदमें थोड़ा-सा भी नहीं रहता, मैं देवेन्द्रोंसे वन्दित उसी (मोक्ष) पदकी शरणमें जाता हूं ॥११॥ जो पूर्वमें कभी नहीं प्राप्त हुआ है, ऐसा संसारके संतापको नष्ट करनेवाला अत्यन्त शीतल गुरुका उपदेशरूप दिव्य अमृत यदि मेरे हृदयमें संलम है तो फिर पत्नीके स्तनमण्डलको धिक्कार है, निर्मल चन्द्रमाकी किरणोको थियार है, कपूरसे मिले हुए चन्दनके रसको धिक्कार है, तथा अन्य जल आदि शीतल वस्तुओंको भी विकार है । विशेषार्थ-खीका स्तनमण्डल, चन्द्रकिरण, कपूरसे मिला हुआ चन्दनरस तथा और भी जो जल आदि शीतल पदार्थ लोकमें देखे जाते हैं. वे सब प्राणीके बाब शारीरिक सन्तापको ही कुछ समयके लिये दूर सकते हैं, न कि अभ्यन्तर संसारसन्तापको। उस संसारसन्तापको यदि कोई दूर कर सकता है तो वह सहरुका वचन ही दूर सकता है । अमृतके समान अतिशय शीतलताको उत्पन्न करनेवाला यदि वह गुरुका दिव्य उपदेश प्राणीको प्राप्त हो गया है तो फिर लोकमें शीतल समझे जानेवाले उन स्त्रीके स्तनमण्डल आदिको धिक्कार है। कारण यह कि ये सब पदार्थ उस सन्तापके नष्ट करने में सर्वथा असमर्थ हैं ।। १६२ ॥ अत्यन्त तीन दुःख - - १-प्रतिपाठोडसम्म क विश्ता जकातामा। २६ निपलं। भकिलक्षणं पचः संसार। ४५ मिमिनचन्दन। ५ गद्रों विपरिका जाप पिच Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनि पापियतिर मासा सामनाविरारमिस्तस्वास्योपसम्माको नित्यानन्दकलमसंगसुसिमो ये तर हेभ्यो नमः ॥१३॥ 164) स्थादिर्धर्म एषा शिसिपसुरसुसानमाणिक्यकोशा पाथो चुम्मानलानां परमपदलसम्घसोपानराजिः। एतन्माहास्यमीशः कथयति जगतां केषली सावधीता सर्वसिन वाळाये ऽय स्मरति परमहो मारशस्तस्य नाम ॥ १६४ । 165) शश्वजम्मजरातकालविलसालौघसारीभवत् संसारोप्रमहारजोपतये ऽनम्सप्रमोदाय च । एतद्धर्मरसायनं ननु बुधाः कर्तुं मतिश्चेत्तदा मिथ्यात्याविरसिप्रमादनिकर क्रोधादि संस्यज्यताम् ॥ १६५ ॥ 166) मई रमिषाम्बुधौ निधिरिव प्रचष्टेयथा योगो यूपशलाकयोश्च गतयोः पूर्वापरौ तोयधी। वे योगिपषिकाः मुभयः । मोहमहाभट जित्वा । भवपचे संसारपथे। चरन्तः गच्छन्तः । बिजनेषु स्थानेषु विश्रान्ता जाताः। किलक्षणे भवपथे। दत्तोप्रदुःखश्रमे दुःसप्रदे । पुनः किंलक्षणे भवपथे। दोर्षे गरिष्ठे। ये मुनयः। कमात् कमेण । चिरात् - मालमत् । अभिमत श्रेष्ठम् । खात्मोपलम्भालयम् मास्मगृहम् । प्राप्ताः । पुनः किलक्षणा मुनयः । शानधनाः। ये मुनमः । सत्र स्खास्मोपलभरहे। नित्यानन्दकलासंगमुखिमः वर्तन्ते । तेभ्यो नमः नमस्कारोऽस्तु॥१६॥ इत्यादिः एषः धर्मः। किलक्षणः धर्मः। 'क्षितिप-राजा-सुर-देवसुख-अनर्यमाणिक्यकोशः सुखमाण्डाः । पुनः किंलक्षणः चर्मः। दु:खानसाना दु:खामीनाम् । पापः बलम् । पुनः किंलक्षणो धर्मः। परमपदलसरसौषसोपानराजिः मोक्षगृहसोपामपति। एतस्य धर्मस्प माहात्म्य जगताम् शः केवली कथयति । किंलक्षणः फेवली । भव सर्वस्मिन् वाम्बये। साधु भचीता बका दावसामवक्ता । महो इति संबोधने । मादृशः जनः। तस्य धर्मस्य नाम स्मरति ॥ १६ ॥ मनु इति वितर्के । भो सुधाः । एतवमरसायन गर्नु बदि न्मतिः अस्ति। च पुनः। भवन्तसुखाय मनन्तसुझइतने अनन्तसुखभोक्तु मतिः अस्ति । पुनः । सच बलबरतम् । जन्मसंसारजरा-अन्तकारूविलसतुःखौघसबलसंसार-उप्रमहारुजः रोगस्य अपातये माशाय दूरी मतिः भति। तदा मिथ्यास्व. भविरतिप्रमावकाशयसमूह भोधादि संत्यज्यताम् । भो भव्याः संत्यज्यताम् ॥ १५॥ मत्र संसारे। नरत्त मनुष्यपर्व सपा दुर्लभम् । तथा कयाम् । यथा अम्बुषो समुन्ने नष्ट र दुर्लभं पुनः सिनेन (1) प्राप्यते । पुनः मम्मपद तथा दुर्लभ सका एवं परिश्रमको उत्पन्न करनेवाले लंबे संसारके मार्गमें क्रमशः गमन करनेवाले जो योगीरूप पविक मोहरूपी महान् योद्धाको जीतकर एकान्त स्थानमें विश्रामको प्राप्त होते हैं, तत्पश्चात् जो ज्ञानरूपी धनसे सम्पन्न होते हुए स्वात्मोपलब्धिके सानमूत अपने अभीष्ट स्थान (मोक्ष) को प्राप्त होकर वापर अविनावर सुख (मुत्ति) रूपी बीकी संगतिसे सुखी हो जाते हैं उनके लिये नमस्कार हो || १६३ ॥ इत्यादि (उपर्युक) यह धर्म राजा एवं देवोंके सुखरूप अमूल्य रलोंका खजाना है, दुलरूप अभिको शान्त करनेके लिये जलके समान है, तथा उचम पद अर्थात् मोक्षरूप प्रासादकी सीढ़ियोंकी पंक्तिके सहश है। उसकी महिमाका वर्णन वह केवली ही कर सकता है जो तीनों लोकोंका अधिपति होकर समस्त आगममें निष्णात है । मुझ जैसा अल्पज्ञ मनुष्य तो केवल उसके नामका स्मरण करता है ।। १६४ ॥ हे विद्वानो ! निरन्तर जन्म, जरा एवं मरण सर दुखोंके समूहमें सारभूत पेसे संसाररूप तीन महारोगको दूर करके अनन्त सुखको प्राप्त करनेके लिये यदि आपकी इस धर्मरूपी रसायनको प्राप्त करनेकी इच्छा है तो मिथ्यात्व, अविरति एवं प्रमादके समूहका तथा क्रोधादि कषायोंका परित्याग कीजिये ॥ १६५ ॥ जैसे समुद्रमें विलीन हुए रसका पुनः निकरः। २ पुस्खके विषः पार:-शिपिरो भूपतिः स राति पर दवावशी मुलायम शिपिलनशकर अम्बः मानन्दः स रायमामिमाविममूस्यपपरागारबानि षा कोशःमानव विवाद। . Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. अमापदेशामृतम् संसारे ऽष तथा नरस्वमसकःखप्रदे दुर्लभ लम्बे तत्र च अम्म निर्मलकुले तत्रापि धर्मे मतिः ॥ १६ ॥ 167) न्यायादन्धकवर्तकीयकजनाख्यानस्य संसारिणां प्राप्त था बहुकल्पकोटिमिरिद कछछ्रामरत्वं यदि । मिथ्यादेवगुरूपदेशविषयव्यामोहनीयान्वय प्रायैः प्राणभृतां तदेव सहला वैफल्यमागच्छति ॥ १६७ ॥ 168) लब्धे कर्थ कथमपीह मनुष्यजन्मन्या प्रसंगवशतो हि कुरु स्वकार्यम् । माप्त तु कामपि गति कुमते तिरन्नो कस्वां भविष्यति वियोधयितुं समर्थः ॥ १८ ॥ 135) ज य मधु निर्मापुरले मान्मतः पाटवं __ भकि जैनमते कथं कथमपि प्रागर्जितश्रेयसः। प्रश्रपद अवस्य निधिरिव अन्धस्य समीः दुर्लभा । यथा पूर्वापरौ तोयी पूर्वपश्चिमसमुझौ । र पुनः । गतयोः यूपशकाकयोः यूपशामिलयोः । योगः एकत्र मिलनं कठिनं तथा मनुष्यपदं कठिनम् । किलक्षणे संसारे । असकदुःखप्रदे। तत्र ससिन् । मरत्वे लम्धे सति । च पुनः । निर्मलाले जन्म दुर्लभम् । तत्र तस्मिन् निर्मलफूले प्राप्त सति अपि धर्मे मतिः दुर्लभा ॥ १६६ ॥ मदि चेत् । संसारिक जीवानाम् । संसारिजीवैः । इदं नरत्वं पच्छ्रात् । ला प्राप्तम् । वा बहुकल्पकोटिभिः प्राप्तम् । अन्धकभर्तकीयजनाण्यानस्य न्यायात् इन-अन्धकस्य हस्तयोः मध्ये यथा बटेरिपक्षिणः आगमन दुर्लभ तथा नरत्वं प्राणभूता बाबानाम् । तदेव भास्वम् । सहसा। वैफल्ये निष्फलमू। आगमछति । के। मिध्यादेवगुरूपदेशविषयष्यामोहप्रेमनीचअन्नयप्रायः नीचक्रायः कृत्वा मरत्वं विफले याति ॥ १६॥ अङ्ग इति संबोधने । हे कमते । इह मनुष्यजन्मनि । प्रसाशतः पुण्यवशतः । कथ मपि सम्धे सति। हि यतः । तदा स्वकार्य कुरु । यदा तिरखां कामपि गति प्राप्तम् । तदा त्वां विनोधयितु का समर्थः भवियति। अपितुन कोऽपि ॥१६८॥ये पुमासः निर्मलकुले नरेषु जन्म प्राप्य देशात मतेः पाटवं दक्षत्व प्राप्मक रुपमपि कष्टेन अप्य । प्रार अर्जितश्रेयसः पुण्यात् । जैनमते भाकं प्राप्य । संसारसमुद्रतारक सुखकर धर्म न कुर्वते । ते मूगा हुईद्वयः प्राप्त करना दुर्लभ है, अन्धेको निधिका मिलना दुर्लभ है, तथा पृथक् पृथक् पूर्व और पश्चिम समुद्रको प्राप्त हुई यूप (जुआं अथवा यज्ञमें पशुके बांधनेका काठ ) और शलाका (जुएंमें लगाई जानेवाली खूटी) का फिरसे संयोग होना दुर्लभ है, वैसे ही निरन्तर दुःखको देनेवाले इस संसारमें मनुष्य पर्यायको प्राप्त करना भी अतिशय दुर्लभ है। यदि कदाचित् यह मनुष्य पर्याय प्राप्त भी हो जावे तो मी निर्मल कुलमें जन्म लेना और वहांपर भी धर्ममे बुद्धिका लगना, यह बहुत ही दुर्लभ है ।। १६६ ॥ संसारी प्राणियोंको मह मनुष्य पर्याय 'अन्धकवर्तकीयक' रूप जनाख्यानके न्यायसे करोड़ों कल्पकालोंमें बड़े कष्टसे प्राप्त हुई है, अर्थात् जिस प्रकार अन्धे मनुष्यके हाथोंमें वटेर पक्षीका आना दुर्लभ है उसी प्रकार इस मनुष्य पर्यायकर प्राप्त होना भी अत्यन्त दुर्लभ है । फिर यदि वह करोड़ों कल्प कालोंमें किसी प्रकारसे प्राप्त भी हो गई तो वह मिथ्या देव एवं मिथ्या गुरुके उपदेश, विषयानुराग और नीच कुलमें उत्पत्ति आदिके द्वारा सहसा विफलताको प्राप्त हो जाती है ॥ १६७ ॥ हे दुर्बुद्धि प्राणी ! यदि यहां जिस किसी भी प्रकारसे तुझे मनुष्यजन्म प्राप्त हो गया है तो फिर प्रसंग पाकर अपना कार्य (आत्महित) कर ले । अन्यथा यदि तू मरकर किसी तिर्यच पर्यायको प्राप्त हुआ तो फिर तुझे समझानेके लिये कौन समर्थ होगा ! अर्थात् कोई नहीं समर्थ हो सकेगा ॥ १६८ ॥ जो लोग मनुष्य पर्यायके भीतर उसम कुलमें जन्म लेकर कष्टपूर्वक बुद्धिकी भरताको प्राप्त हुए है तथा जिन्होंने पूर्वोपार्जित पुण्य कर्मके उदयसे जिस किसी भी प्रकारसे जैन मतमें एक प्रसंगाना कममाए। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमन्दि-पञ्चर्षिशतिर [169:१.२१९ संसारार्णवतारकं सुखकर धर्म न ये कुर्वते हस्तपातमनर्व्यरनमपि ते मुञ्चन्ति दुर्बुद्धयः ॥ १९ ॥ 170) तिष्ठत्यायुरतीव दीर्घमखिलान्यङ्गामि दूर रखा न्येषा श्रीरपि मे वशं गतवती किं व्याकुलत्वं मुषा। आयत्या निरवग्रहो मतवया धर्म करिष्ये भरा दिस्येष बत चिन्तयमपि जडो यात्यन्तकपासताम् ॥ १७॥ 171) पलितैकदर्शनादपि सरति सतश्चिसमाशु वैराग्यम् । प्रतिदिनमितरस्य पुनः सह जरया वर्धते शुष्णा ॥ १७१ ॥ 172) आजाते स्त्वमसि वयिता नित्यमासन्नगासि प्रौदास्याशे किमथ बहुना स्त्रीस्वमालम्बितासि । भस्मशानणरमतरते बरेच मर्षस्पेतम्मम च इतके खेहलाद्यापि चित्रम् ॥ १७२ ॥ मनरनमपि हस्सप्राप्तम् । मुखन्ति त्यजन्ति ॥१६॥ रत इति खेदे । जडः मूर्खः । एवम् इति । विस्तयन् अपि । भन्तकमासा याति यमबदन याति । किचिन्तयति 1 आयुः अतीव ही तिष्ठति । अखिलानि हानि । दूरम् अतिशयेन हतानि सन्ति । एषा श्री लक्ष्मी मे मम वशं गतवती वर्तते। मुधा व्याकुलवं कथम् । बायल्याम् उत्तरकाले वृक्षकाले। निरकप्रहः खस्छन्दः । गतवया गतयोवनभरात् । धर्म करिष्ये 1 भरात् अतिशयेन । चिन्तयन मूढः मरण याति ॥१७॥ सतः साशेः । पितं मनः। पलितक दर्शनात् अपि श्वेतकेशवशनास्। आशु शीघ्रण । प्रतिदिन वैराग्यं सरति गरछति । पुनः इतरस्म असाधोः नीवपुरुषस्य । श्वतकेशदर्शनात् जरया सह तृष्या वर्धते ॥ ११॥ हे आशे हे सृष्णे । त्वम् । माजातेः जन्म का मर्यापीकल्यै । नः अस्माकम् । दयिता श्री। असि भवसि । नित्यं सदैव । आसनगा निकटस्था असि । प्रौडा असि । अब बहुना किम् । श्रीस्वम् बालम्बिता मसि श्रीलं गता अपि । इयं जरा। ते तब सपनी । ते तव अपतः । अस्मस्केरामहणम् अस्माकं फेशपहणम् । मकरोत् । हे इतके भक्ति भी प्राप्त कर ली है, फिर यदि वे संसार-समुद्रसे पार कराकर सुखको उत्पन्न करनेवाले धर्मको नहीं करते हैं तो समझना चाहिये कि वे दुर्बुद्धि जन हाथमें प्राप्त हुए भी अमूल्य रक्षको छोड़ देते हैं ।। १६९।। मेरी आयु बहुत लंबी है, हाथ-पांव आदि सभी अंग अतिशय रद हैं, तथा यह लक्ष्मी मी मेरे वशमें है फिर मैं व्यर्थमें व्याकुल क्यों होऊ ? उत्तर कालमें जब वृद्धावस्था प्राप्त होगी तब मैं निश्चिन्त होकर अतिशय धर्म करूंगा। खेद है कि इस प्रकार विचार करते करते यह मूर्ख प्राणी कालका ग्रास बन जाता है ॥ १७० ॥ साधु पुरुषका चित्त एक पके हुए ( श्वेत ) बालके देखनेसे ही शीघ्र वैराग्यको प्राप्त हो जाता है। किन्तु इसके विपरीत अविवेकी जनकी तृष्णा प्रतिदिन वृद्धत्वके साथ बढ़ती जाती है, अर्थात् जैसे जैसे उसकी वृद्ध अवस्था बढ़ती जाती है वैसे वैसे ही उत्तरोत्तर उसकी सृष्णा भी बढ़ती जाती है ॥ १७१ ॥ हे तृष्णे ! तुम हमें जन्मसे लेकर प्यारी रही हो, सदा पासमें रहनेवाली हो और वृद्धिको प्राप्त हो । बहुत क्या कहा जाय ! तुम हमारी पनी अवस्थाको प्राप्त हुई हो । यह जरा (बुढ़ापा) रूप अन्य स्त्री तुम्हारे सामने ही हमारे बालोंको ग्रहण कर चुकी है । हे घातक तृष्णे ! तुम मेरे इस बालग्रहण रूप अपमानको सहते हुए आज भी स्नेह करनेवाली बनी हो, यह आश्चर्यकी बात है | विशेषार्थ-लोकमें देखा जाता है कि यदि कोई पुरुष किसी अन्य शीसे प्रेम करता है तो चिरकालसे खेह करनेवाली भी उसकी ली उसकी ओरसे विरक्त हो जाती है-उसे छोड़ देती है। परन्तु खेद है कि वह तृष्णारूप स्त्री अपने प्रियतमको अन्य जरारूप नारीमें आसक्त देख कर भी उसे नहीं छोड़ती है और उससे अनुराग ही करती है। यत्पर्य भ समयविकल । २श बहुना स्त्रीत्वं । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. धर्मोपदेशामृतम् 178) रायते परिदृढोऽपि दृढोऽपि मृत्युमभ्येति देवयशसः क्षणतो ऽत्र लोके । तत्कः करोति मदमम्बुजपत्रवारिविन्दूपमैर्धनकले. परजीविताद्यैः ॥ १७३ ॥ 174) प्रातर्भदलामकोटि घटितावश्यायबिन्दूत्कर 173 : १-१७५] प्रायाः प्राणधनाज प्रणयिनीमित्रादयो देहिनाम् । अक्षर्णा सुखमेतविषष विहाय स्फुटं सर्व भङ्गुरमत्र दुःखमहो मोहः करोत्यन्यथा ॥ ९७४ ॥ 175 ) तालाति वैरिणां प्रति चमूस्तावत्परं पौष तीक्ष्णस्तावदसिर्भुजौ दृढतरी तावच कोपोङ्गमः । भूपस्यापि यमो न यावदव्यः क्षुत्पीडितः सन्मुखं धावत्यन्तरिदं विचिन्त्य विदुषा तद्बोधको मृग्यते ॥ १७५ ॥ 1 हे मे । एतरकेशग्रहणापमानम्। त्वं मर्षसि सहसे। च पुनः 1 मम त्वं अद्यापि बेहला अहकारिणी असि । एतचित्रम् आर्यम् ॥ १७२ ॥ अत्र लोके संसारे । परितोऽपि राजा अपि । रङ्कायते । दृढोऽपि कठिनोऽपि । देववशतः कर्मयोगात् । क्षणतः । मृत्युम् अभ्येति मरणं याति । ततस्मात्कारणात् । अम्बुजपत्रवारिविन्दूपमैः कमलपोपरि जलबिन्दुसमानैः । धनकस्वर - शरीर जीविताद्यैः कृत्वा । म गर्वम् । कः करोति । भव्यः गर्व न करोति ॥ १७३ ॥ देहिनां प्राणिनाम् प्राणवनारूगजपुत्रप्रणयिनी स्त्रीशोत्रादयः प्रातःकालीन दर्भ आपको स्थित अवश्यायबिन्दु उत्कर समूहसदृशाः सन्ति । एतत् अक्षा सुखम् उप्रविषवत् जानीहि । अत्र संसारे स्फुटं प्रकटम् । धर्म विहाय सर्वम् । भगुरं विनश्वरम् । विद्धि । पुनः सर्व दुःखदं विद्धि । अहो मोहः अन्यथा करोति ॥ १७४ ॥ यावत् । अदयः श्रुत्पीडितः सन् यः सन्मुखं न धावति । तावद्भूरस्य राशः । चमूः सेना | वैरिणां प्रति वल्गति। भूपस्य अपि परं पौरुषं तावत् । भूपस्य असिः तीक्ष्णः तावत् । भूषस्य दृढतरौ भुज तावत् । * पुनः । कोपोद्रमः क्रोधोत्पत्तिः तावत् । यावत् यमः सन्मुखं न धावति । अन्तःकरणे इदं विचिन्त्य । विदुष! भव्यजीवेन । यह है कि वृद्धावस्थाके प्राप्त होनेपर पुरुषका शरीर शिथिल हो जाता है व स्मृति भी क्षीण हो जाती है। फिर भी वह विषयतृष्णाको छोड़ कर आत्महितमें प्रवृत्त नहीं होता, यह कितने खेद की बात है ॥ १७२ ॥ यहां संसारमें राजा भी दैवके वश होकर रंक जैसा बन जाता है तथा पुष्ट शरीरवाला भी मनुष्य कर्मोदयसे क्षणभर में ही मृत्युको प्राप्त हो जाता है। ऐसी अवस्था में कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष - कमलपत्रपर स्थित जलबिन्दुके समान विनाशको प्राप्त होनेवाले धन, शरीर एवं जीवित आदिके विषयमें अभिमान करता है ! अर्थात् क्षण में क्षीण होनेवाले इन पदार्थोक विषय में विवेकी जन कभी अभिमान नहीं करते || १७३ ॥ प्राणियोंके प्राण, धन, पुत्र, स्त्री और मित्र आदि प्रातःकालमें डाभ ( कांस ) के पत्रके अग्र भागमें स्थित ओसकी बूंदों के समूहके समान अस्थिर हैं । यह इन्द्रियजन्य सुख तीक्ष्ण विषके समान परिणाममें दुःखदायी है । इसीलिये यह स्पष्ट है कि यहां धर्मको छोड़ कर अन्य सच पदार्थ विनश्वर व कष्टदायक हैं ! परन्तु आश्चर्य है कि यह संसारी प्राणी मोहके वश होकर इन विनश्वर पदार्थोंको स्थिर मान उनमें अनुराग करता है और स्थायी धर्मको भूल जाता है || १७४ | जब तक क्षुधासे पीड़ित हुआ निर्दय यमराज (मृत्यु) सामने नहीं आता है तभी तक राजाकी भी सेना शत्रुओंके ऊपर आक्रमण करनेके लिये प्रस्थान करती है, तभी तक उत्कृष्ट पुरुषार्थ भी रहता है, तभी तक तीक्ष्ण तलवार भी स्थित रहती है, तभी तक उभय बाहु भी अतिशय दृढ़ रहते हैं, और तभी तक क्रोध भी उदित होता है । इस असनं २ पीडितः यमः । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०० पचनन्वि पञ्चविंशतिः 176) मा मृत्युकैवर्तहरुःशुधन जालमध्ये । निकटमपि न पश्यस्यापदां चक्रमुद्रं भवसरसि घराको लोकमीनीय एषः ॥ १७६ ॥ [ 176 : १-१७३ 177 } स्टडपीह शीतलजलाद्भूतादिका मन्तः सामरहितो गाइद्गणः शान्तिं नुमिनियते । मो मृत्युस्तु सुरैरपीति हि सुते मिधे ऽपि पुत्रे ऽपि वा शोको न क्रियते बुधैः परमहो धर्मस्ततस्तज्जयः ॥ १७७ ॥ 178) स्वक्त्या दूरं विधुरपयसो दुर्गतिक्लिष्ट कृच्छ्रान् वानं सुचिरममरश्रीसरस्यां रमन्ते । एत्यैतस्यानुपपत्सरस्यक्ष धर्मपक्षा याम्येतस्मादपि शिषपदं मानसं भव्यहंसाः ॥ १७८ ॥ 1 तोकः तस्य यमस्य रोधकः निषेधकारी मोक्षस्थानकः । मृग्यते विचार्यते ॥ १७५ ॥ एषः पराकः । लोकभीनीषः स्ोकमीनसमूहः । भवसरखि संसारसरोवरे । रविजळे । रममाणः क्रीडमाणः । उप्रम् आपदां चक्रं निकटम् अपि न पश्यति । किसने भवरसि । मृत्युकैवर्तहस्तेन यमधीवरहस्तेन प्रसूतं प्रसारितं घननिबिड जरा-उस-प्रोलमध्ये यस्य स तस्मिन् ॥ १७६ ॥ इह संसारे । नृभिः मनुष्यैः कृत्वा । क्षुधा । भुकेभोजनात्। शान्ति नीयते । मृभिस्तृट् तृषा अपि शीतलजलात् शान्ति नीयते । भिर्भूतादिका मन्तः शान्ति नीयन्ते । नृभिरहितः शत्रुः सामादेः कोमलवचनात् शान्ति नीयते । तृभिः गदगणः रोगसमूहः । नवगणात औषधसमूहात् । शान्ति नीयते । तु पुनः । मृत्युः । सुरैः अपि देवैः अपि । शान्ति नो नीयते । हि मतः । इवि हेतोः । मित्रे मा पुत्रे मृते सति बुधैः शोको न क्रियते । अहो इति संबोधने । परं धर्मः क्रियते । ततः तज्जयः धर्मः मृत्युविनाशकारी || १७७ ॥ भम्यहंसाः दुर्गतिशिष्टकृच्छ्रान् दुर्गतिक्लेशदुःखग्रालि क्षेत्रविशेषान् । दूरं त्यक्त्वा । अमरश्रीः देवश्रीः । सरत्या स्वर्गधीसरोवरे । ध्यानन्दम् । सुचिरं चिरकालम् । रमन्ते कीवन्ति । किंलक्षणान् क्षेत्रान् । विधुरपयसः विभु तदेव पयः पानीयं यत्र तान् । धर्मपक्षाः भव्यहंसाः । एतस्याः देवश्रीसरस्याः सकाशात् । एत्य आगत्य । नृपपदसरसि राजपदसरोवरे रमन्ते । पुनः भव्यहंसाः । एतस्मात् नृपपदसरोवरात् । शिवपदं मानससरोवरम् । यान्ति । कक्ष शिवपदम् । प्रकारसे विचार करके विद्वान् पुरुष उक्त यमराजका निग्रह करनेवाले तप आदि की खोज करता है ॥ १७५ ॥ जिसके मध्य में मृत्युरूपी मल्लाहने अपने हाथोंसे सघन जरारूपी विस्तृत जालको फैला दिया है ऐसे संसाररूपी सरोवरके भीतर रागरूपी जलमें रमण करनेवाला यह वेचारा जनरूपी मीनों का समुदाय समीपमें आई हुई महान् आपत्तियोंके समूहको नहीं देखता है ॥ १७६ ॥ संसारमें मनुष्य भोजनसे क्षुधाको, शीतल जलसे प्यासको, मंत्रसे भूत-पिशाचादिको, साम दान दण्ड व मेदसे शत्रुको, तथा औषषसे रोगसमूहको शान्त किया करते हैं । परन्तु मृत्युको देव भी शान्त नहीं कर पाते। इस प्रकार विचार करके विद्वज्जन मित्र अथवा पुत्रके भी मरनेपर शोक नहीं करते, किन्तु एक मात्र धर्मका ही आचरण करते हैं और उसीसे वे मृत्युके ऊपर विजय प्राप्त करते हैं ।। १७७ ॥ धर्मरूपी पंखोंको धारण करनेवाले भव्य जीवरूप हंस नरकादिक दुर्गतियोंके क्रेशयुक्त दुःखरूप जल्दीन जलाशयोंको दूरसे ही छोड़कर आनन्दपूर्वक देवोंकी लक्ष्मीरूप सरोवर में चिर काल तक रमण करते हैं। वहांसे आ करके वे राज्यपदरूप सरोवर में रमण करते हैं । अन्तमें वे वहांसे भी निकल करके अविनश्वर मोक्षपदरूपी मानस सरोवरको प्राप्त करते हैं ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार उत्तम पुष्ट पंखोंसे संयुक्त हंस पक्षी जलसे रिक्त हुए जलाशयोंको छोड़कर किसी अन्य सरोवरमै चले जाते हैं और फिर अन्तमें उसको भी छोड़कर मानस सरोवरमें आ पहुंचते हैं उसी प्रकार धर्मात्मा भव्य जीव उस धर्मके प्रभावसे नरकादिक दुर्गतियोंके कष्टसे बचकर क्रमशः देवपद Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ manna PSta १. भोपाल 179) जायन्ते जिमयकवतिरबारोगाबाप्यारो धर्माधव दिगणनाङ्गविलसरुवधशचन्दनाः । सद्धीना नरकादियोनिषु नरा : साइम्ते वर्ष पापेनेति विजामता किमिति नो धर्मः सत्ता सेव्यते ॥ १७९ ॥ 180) स स्वर्गः सुखरामणीयकपदं ते से प्रदेशाः पराः सारा सा च विमानराजिरतुलप्रेडस्पताकापटो। ते देवाध पदातयः परिलससमन्दनं तालिया शकत्वं सदनिन्धमेतदखिलं धर्मस्य बिस्फूर्जितम् ॥ १८ ॥ 181) यत्पनण्डमही नवोदनिधयो शिसप्तरत्नानि यत् तुक्का यद्विरदा रथाश्व चतुराशीति लक्षाणि यत् । यबाटावशकोटयश्च तुरगा योषिस्सहस्राणि यत् पयुक्ता नवतिर्यदेकषिभुता तद्धाम धर्मप्रभोः॥ १८१॥ 182) धर्मो रक्षति रक्षितो ननु हतो हन्ति ध्रुवं देहिनां हन्तव्यो नमः का कब शमग सारिणः हर्गमा ! मकर्य शाश्वतम् ॥ १८ ॥ अत्र संसारे। धर्मादेव जिनचक्रवातेपलभाभोगीन्द्र-धरणेन्द्रकृष्णादयः । जायन्ते उत्पान्ते। किंलक्षणाः जिनमकवर्तिमल भदादयः । दिगानाविलसावधशचन्दनाः। पुनः सीना नराः तेन धर्मम हीनाः रहिताः मराः । पापेन मुर्द नरकादिषु योनिषु । दुःख सहन्ते कुस प्राप्नुवन्ति । इति विजानता सता ससुश्वेण । इति हेतोः । भनेः किन सेव्यते ॥ १९ ॥ एतत् । अखिल समस्तम् । धर्मस्य । विस्फूर्जितं माहात्म्यम् । तदेव दर्शयति । स स्वर्गः। विलक्षण: खगेः । सुखरामणीयपदम् । ते से प्रदेशाः। पराः कृशः सन्ति । च पुनः । सा विमानराजिः। सारा समीचीना वर्तते। शिलक्षणा भिमानराजिः। भलोपताकापटा । ते देवाः ते अश्वरूपा देवाः। ते पदातयः । तत् परिक्सजन्दन वनम् । साः सुरानाः श्रियः। तद् अनिन्द शरवम् इन्द्रपवम् । एतत् अखिल धर्मस्य माहात्म्म विधि ॥१८॥ भो भव्याः। सन् धर्मप्रभोः धर्मराशः)। बाम तेजः । तस्किम् । यत् षट्खण्डमहीराज्यम् । यत् नव-उरूवारिनिधयः । याद दिःसप्तरमानि। यतमा हिरदा हसिनः पुनः । रथाः चतुरनीतिलक्षाणि । पुनः । यत् मष्टादशभेटमः दुरगाः । कर बड्युका नयति मोपित्सहस्राणि । यत् भूमण्य । एकविभुता एकछत्रराज्यम् । तदर्ममहात्म्यम् ॥ १८ ॥ ननु पनि बित। धर्मः और राजपदके सुखको मोगते हुए अन्तमें मोक्षपदको भी पालेते हैं ॥ १७८ ॥ जिनका यशरूपी पन्दन सदा दिशाओंरूप खियोंके शरीरमें सुशोभित होता है अर्थात् जिनकी कीर्ति समस्त दिशाओं में फैली हुई है ऐसे तीर्थकर, चक्रवर्ती, बलदेव, नागेन्द्र और कृष्ण ( नारायण ) आदि पद धर्मसे ही प्राप्त होते हैं। धर्मसे रहित मनुष्य निश्चयतः पापके प्रभावसे नरकादिक दुर्गतियोंमें दुखको सहते हैं। इस बातको जानता हुआ सज्जन पुरुष धर्मकी आराधना क्यों नहीं करता। ॥ १७९ ॥ सुखके द्वारा रमणीयताको प्राप्त हुआ यह स्वर्ग पद, वे वे उत्कृष्ट स्थान, फहराते हुए अनुपम ध्वजवस्त्रोंसे सुशोभित यह श्रेष्ठ विमानपंकि, वे देव, वे पादचारी सैनिक, शोभायमान वह नन्दन कानन, वे स्त्रियां, तथा वह अनिन्य इन्द्र पद, यह सब धर्मक प्रकाशमें प्राप्त होता है ।। १८० ॥ छड् खण्ड ( पूरा भरत, ऐरावत या कच्छा आदि क्षेत्र) रूप पृथिवीका उपभोग; महान् नौ निधियां, दो बार सात (७४२) अर्थात् चौहद रस, उन्नत चौरासी लाल हाथी और उतने ही रथ, अठारह करोड़ घोड़े, छह युक्त नब्बै अर्थात् छयाननै हजार स्त्रियां, तथा एक छत्र राज्य, यह जो चक्रवर्तित्वकी सम्पत्ति प्राप्त होती है वह सब धर्मप्रभुके ही प्रतापसे प्राप्त होती है ।। १८१ ।। यदि धर्मकी रक्षा की जाती है तो वह भी धर्मात्मा प्राणीकी नरकादिसे रक्षा करता है । इसके विपरीत यदि पः। ३ को 'अनि न सेभ्यते' लर्षिक रा! पताका पटाः त सत्यताका पहातयः है। लाशा। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rammama -aamana पनि परिराति धर्मः प्रापयतीह तत्पदमपि न्यायन्ति योगिनो मोधर्मास्मादस्ति नैव सुखी नो पण्डितो पार्मिकात् ॥ १८२० 183) मानायोनिजलौघलहितविशिकेशोर्मिजालाकुले मोतानुसभूरिकर्ममकरमालीकृतमाणिनि । दुपर्यन्तगभीरमीषणतरे जम्माम्बुधी मजा मो धावपरोऽस्ति तारक इहानान्तं यतध्वं बुषार १८॥ 184) अन्मोकुल एच संपदधिके लावण्यधारानिधि नीरोग धपुरादिरायुरखिलं धर्मावं जायते। साम श्रीरथवा अगस्सुम सुख त म शुमा गुणाः वैरुत्कण्डितमानमैरिव नरोमानीयते धार्मिकः॥१८४॥ रक्षितः । पुर्व रहिना जीवाना रयति । धर्मः हतो औबामा हन्ति । ततः कारणात् । धर्मः हस्तभ्यः न । स एव धर्मः संसारिणा मीवानाम् । सनया शरणम् । इह जगति संसारे। अमः तत्पदं प्रापयति अपि । यस्पदम् । योगिनो प्यायन्ति । मोक्षपदं प्रापयति । धर्मात्महत मित्रम् अपरः । र पुनः । धार्मिकात् पुरुषात् अपरः मुखी न । सचमी (1) पुरुषात् अपर: पतिः न। सर्वया धर्मः शरणं जीवानाम् ॥ १८२ ॥ जन्माम्बुधौ संसारसमुदे। मबतो बुडताम् । प्राणिना जीशनाम् । भर्मात अपरः तारकः अस्ति । लियो सारसमो: नासोनेरीनामित दिक्षि। एक मिजाला । पुनः किंलक्षणे संसारसमुद्रे । प्रोद्त-उत्पन्न मतभार बहुल-कर्ममकर-मत्स्यैः प्रासीहताः प्राणिनः यत्र से तस्मिन् । पुनः मिलक्षणे संसारसमुद्र । दुःपर्यन्सगभीरभीषणतरे । मो बुधाः भोर भव्याः । इह धर्मे अश्रान्त निरन्तरम् । यदर्थ को कामम् ॥ १८ ॥ भो भल्याः भूपताम् । धर्मात् बुवम् उचैः कुळे जन्म । एव निवयेन । संजायते । बिसहने कले। सम्पदमिक समीयु । धर्मात् । लापण्यवारानिधिः लावण्यसमुद्रनिधिः (1)। वपुः शरीरम् । नीरोगं बायते । धर्मात् मधिलं पूर्णम् । बायुः संजायते । भश्वा जगस्त मा श्रीः न जगत्सु ससुसं न जगम ते शुधा गुणाः म। । मुगुणेः पार्मिक पुमान नरः । म बाधीयते। मिलक्षणैः गुणैः । धार्मिक पुरुष प्रति उत्पठितमानसरिव ॥ १४ ॥ उस धर्मका पात किया जाता है तो वह भी निश्चयसे प्राणियोंका घात करता है अर्थात् उनें नरकादिक योनियों में पहुंचाता है । इसलिये धर्मका घात नहीं करना चाहिये, क्योंकि, संसारी प्राणियोंकी सब प्रकारसे रक्षा करनेवाला वही है। धर्म यहां उस ( मोक्ष) पदको भी प्राप्त कराता है जिसका कि ध्यान योगी जन किया करते हैं। धर्मको छोड़कर दूसरा कोई मित्र (हितेषी ) नहीं है तथा धार्मिक पुरुषकी अपेक्षा दूसरा कोई न तो सुखी हो सकता है और न पण्डित मी ॥ १८२ ॥ जिसने अनेक योनिरूप जलके समूहसे दिशाओंका अतिक्रमण कर दिया है, जो क्लेशरूपी लहरोंके समूहसे व्याप्त हो रहा है, जहापर प्राणी प्रगट हुए आश्चर्यजनक बहुत-से कर्मरूपी मगरोंके ग्रास बनते हैं, जिसका पार बहुत फठिनतासे प्राप्त किया जा सकता है, तथा जो गम्भीर एवं अतिशय भयानक है; ऐसे जन्मरूपी समुद्रमें डूबते हुए प्राणियोंका उद्धार करनेवाला धर्मको छोड़कर और कोई दूसरा नहीं है। इसलिये हे विद्वजन ! आप निरन्तर धर्मके विषय में प्रयन करें ॥१८३॥ निश्चयतः धर्मके प्रभावले अधिक सम्पत्तिशाली उप कुलमें ही जन्म होता है, सौन्दर्यरूपी समुद्र प्राप्त होता है, नीरोग शरीर आदि प्राप्त होते हैं तथा आयु परिपूर्ण होती है अर्थात् मकालमरण नहीं होता । अथवा संसारमें ऐसी कोई लक्ष्मी नहीं है, ऐसा कोई सुख नहीं है, और ऐसे कोई निर्मल गुण नहीं है, जो कि उत्कण्ठितमन होकर पार्मिक पुरुषका आश्रय न लेते हों । अभिप्राय यह कि उपर्युक समस्त ससकी सामरी चूंकि एक मात्र धर्मसे ही प्राप्त होती है अत एवं विवेकी जनको सदा ही उस धर्मका आचरण समालेकपातीता wnAmManAmar Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 187:1-120] १. धर्मोपदेशात 185) ङ्गाः पुष्पितकेतकीमिव सुगा बन्धामिव स्वस्थ नद्यः सिन्धुमिवाम्बुजाकरमिष श्वेतच्छदाः पक्षिणः । शौर्यस्यागविवेक विक्रमयशः संपत्सहायादयः सधै धार्मिकमाश्रयन्ति न हितं धर्मे विना किंचन ॥ १८५ ॥ 186) सौभागीयसि कामिनीयसि सुतश्रेणीयसि श्रीपति प्रासादीयसि यत्सुखीयसि सदा रूपीयसि प्रीयसि । यज्ञानन्तसुलामृताम्बुधिपरस्थानीयसीद्द भुषं निर्धूताखिलदुःखदापदि हमें मतिर्धार्यताम् ॥ १८६ 187) संछ कमलैर्मरावपि सः सौधे वने ऽप्युक्तं कामित्यो गिरिमस्तके ऽपि सरसाः साराणि रक्षानि च । जायन्ते ऽपि च लेप[ प्य]कानुघटिताः सिद्धिप्रदा देवताः धर्मवेदिह वातिं तनुभृतां किं किं न संपद्यते ॥ १८७ ॥ ७५ I यो भव्याः भूयताम् । प्राणिर्मा धर्म बिना किंचन हितं सुखकरं न शोर्यभटसाल्यागमिवैश्वविक मयशः संपत्सहामात्यः स गुणाः । धार्मिकं नरम् आनयन्ति । तत्रोत्प्रेक्षते । को के इव । पुष्पितकेतकी सृजा इव । वन्यां वनोना बन्मातरम् । चरी कुणावर पथक सरोवर श्वेतच्छदाः पक्षिणः ईसा इव । तथा धार्मिकं नरे गुणाः श्राश्रयन्ति ॥ १८५ ॥ भो सुहृत् । इह संसारे ध्रुवं धर्मे मतिः । धार्यता क्रियताम् छिक्षणे धर्मे निर्धूताि दुःखदापवि स्फेटिर्त - आपदुःखे नेत् । सौभागीयसि सौभाग्यं वानसि । चेत् यदि । कामिनीयसि कामिनीं श्रीं वाि यदि । सुतणीयसि पुत्रसमूहं वाछति । यदि चेत् श्रीयसि लक्ष्मी वाञ्छसि । यदि चेत् । प्रासादयसि मन्दिरं मासि यदि चेत् । सुखीयसि सुखं वाञ्छसि । यदि सदा रूपीयति रूपे वान्छसि। यदि प्रीयसि सर्वजनप्रियो भवितुमिच्छसि । यदी अनन्तसुख- अमृत- अम्बुधि-समुद्रे । परं केवलं स्थानीयसि स्वानुं धासि तदा धर्म कुरु ॥ १८५ ॥ इह संसारे । वनुसृता जीवानाम् । चेत् यदि धर्मः अस्ति । तदा किं किं वा न संपद्यते । यपि तु सर्वं प्राप्यते । पुम्येन मरौ मस्थळे अपि । कमलैः संख्णम् आच्छादितम् । सरः संपयते । पुण्येन बने अपि च सोधे मन्दिरम् । पद्यते । पुण्येन गिरिमस्तके अपि कामिन्यः स्त्रियः संपयन्ते । किंलक्षणाः स्त्रियः । रसाः रसयुक्ताः । च पुमः । पुण्येन साराणि । करना चाहिये ॥ १८४ ॥ जिस प्रकार अमर फूले हुए केतकी वृक्षका आश्रय लेते हैं, मृग जिस प्रकार अपने जंगली स्थानका आश्रय लेते हैं, नदियां जिस प्रकार समुद्रका सहारा लेती हैं, तथा जिस प्रकार हंस पक्षी सरोवरका आलम्बन लेते हैं; उसी प्रकार वीरता, त्याग, विवेक, पराक्रम, कीर्ति, सम्पत्ति एवं सहायक आदि सब धार्मिक पुरुषका आश्रय लेते हैं। ठीक है- धर्मको छोड़कर और दूसरा कोई प्राणीके लिये हितकारक नहीं है ॥ १८५ ॥ हे मित्र ! यदि तुम यहां सौभाग्यकी इच्छा करते हो, सुन्दर स्त्रीकी इच्छा करते हो, सुतसमूहकी इच्छा करते हो, लक्ष्मीकी इच्छा करते हो, महलकी इच्छा करते हो, सुखकी इच्छा करते हो, सुन्दर रूपकी इच्छा करते हो, प्रीतिकी इच्छा करते हो, अथवा यदि अनन्त सुखरूप अमृतके समुद्र जैसे उत्तम स्थान (मोक्ष) की इच्छा करते हो तो निश्वयसे समस्त दुखदायक आपत्तियोंको नष्ट करनेवाले धर्ममें अपनी बुद्धिको लगाओ ॥ १८६ | धर्मके प्रभावसे मरुभूमिमें भी कमलोंसे व्याप्त सरोवर प्राप्त हो जाता है, जंगलमें भी उन्नत प्रासाद बन जाता है, पर्वतके शिखरपर भी आनन्दोत्पादक वल्लभायें तथा श्रेष्ठ रत्न मी प्राप्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त उक्त धर्मके ही प्रभावसे भित्तिके ऊपर अथवा काउसे निर्मित देवता मी सिद्धिदायक होते हैं। ठीक है- धर्म यहां प्राणियोंके लिये क्या क्या अभीष्ट पदार्थ नहीं प्राप्त कराता है? सब कुछ १. स्फोटित २ क प्रियो भवधि र यहा । पचनं०] [१०] Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्दि पविशतिः [188kce188) पदमीरमभिगच्छति पुग्ययोगात पुण्याविना करतलस्थमपि प्रयाति । अस्यत्परं प्रमवतीह निमित्तमात्र पात्र बुधा भषात निर्मलपुण्यराशेः ॥ १८८ ॥ 189 ) कोप्यधो ऽपि सुलोचनो ऽपि जरसा प्रस्तो ऽपि लावण्यवान् निःप्राणोऽपि हरिविरूपततुरप्यापुज्यते' मन्मथः । उद्योगोभितष्टितो ऽपि नितरामालिजयते व चिया पुण्यावस्यमपि प्रशस्तमखिलं जायेत यहुर्घटम् ॥ १८९ ॥ 190) बम्बस्कन्धसमाश्रितो सृणिभृतामारोहकाणामले पृष्ठे भारसमर्पणं कृतवता संचालन तारनम् । दुर्वाचं वदतामपि प्रतिदिन सर्व सहन्ते गजा निःस्थाम्नां मलिनो ऽपि यचखिल पुष्टो विधिवते । १९० ।। रमानि आयन्वे । पुण्येन छेपकावटता देवसाः सिक्षिपदा जायन्ते । धर्मेण सर्व प्राप्यते ॥ १७ ॥ मो बुधाः भो मध्या। निर्मलपुण्यराशेः पात्रे भवत । इह संसारे । पुण्मयोगात् । अभी वाछितम् । दूरात् अभिगस्यति मागच्छति । पुण्याविना करतलस्थमपि प्रयाति । अन्यत् कम्बित् । परं निमित्तमात्रम् । प्रभवति ।। १८८॥ भो भम्याः । मयतां पुण्यमाहात्म्यम् । पुण्यात् कोऽपि अन्यः सुरोचनो भवति । कश्चित् बरसा प्रस्तोऽपि पुण्यालावण्यवान् भवति । कबित् निःप्रागोऽपि बनरहितोऽपि । पुण्यात् हरिः सिंहः भाति । कश्चित् विरूपतनुः निन्धशरीरः अपि पुण्यात मन्मथः शपुम्पवे । र पुनः । उद्योगोजितचेष्टितोऽपि उपमरहितोऽपि । नितराम् अतिशयेन । पुण्यात् श्रिया लिम्पवे । शुट बख तत् पुण्यात् प्राप्यते ।। १६ भो ना मत पा . गहा गया। मलिनः अपि बलिया अपि । यत् निःस्वाप्नो बमरहितामाम्। भारोहकाणगजरक्षकाणाम् । सबैमू उपहन सहन्ते । तदखिलम् । दुष्टो विधिबेष्टते पापकर्म-उदये जानीहि । तत् तपादक बन्धकम्पसमाश्रितां स्कन्धे प्रामामाम् । सुमिमृताम् अस्कुशधारकाणाम् । पञ्चीयोगे सीवा (1)।तेः बहुध धारक त्वा । मालम् अतिशयेन । पृष्ठे भारसमर्पणम्। किंलक्षणानाम् अशधारकागाम् 1 प्रतिदिन संचालन कृतवताम् । पुन दिनं दिन प्रति तारनं दुर्षाचे वदताम् । गजाः सहन्ते ॥ १९ ॥ भो भव्याः सूया पुण्यप्रभावम् । यस्स गरस्य। ममः अस्ति। तस्प धर्मिणः । सर्पः हारलता भवति । तस्य धर्मिणः । मसिलता सहलता। सत्पुष्पदामायसे । सधर्मिणः पुरुषस्य विषमपि प्राप्त कन्यता है ॥ १८७ ॥ पुण्यके योगसे यहां दूरवर्ती मी अमीष्ट पदार्थ प्राप्त हो जाता है और पुष्पके विना हायमें खित पदार्थ भी चला जाता है । दूसरे पदार्थ तो केवल निमित्त मात्र होते हैं। इसलिये हे पण्डित जन ! निर्मल पुष्प राशिके भाजन होओ, अर्थात् पुण्यका उपार्जन करो ॥ १८८॥ पुण्यके प्रभावसे कोई अन्धा मी प्राणी निर्मल नेत्रोंका धारक हो जाता है, वृद्धावस्खासे संयुक्त मनुष्य मी लावण्ययुक्त (सुन्दर) हो जाता है, निर्बल प्राणी भी सिंह जैसा बलिष्ठ बन जाता है, विकृत शरीरवाला भी कामदेवके समान सुन्दर घोषित किया जाता है, तथा उद्योगसे हीन चेष्टावाला भी जीव लक्ष्मीके द्वारा गाढ़ आदिगित होता है अर्थात् उद्योगसे रहित मनुष्य भी अत्यन्त सम्पसिचाली हो जाता है । जो मी प्रशंसनीय मन्य समस्त पदार्थ यहां दुर्सम प्रतीत होते हैं वे भी सब पुण्यके उदासे प्राप्त हो जाते हैं॥ १८९ ।। जो महावत हाथीको बांधकर उसके कंधेपर आरूढ़ होते हैं, अंकुशको धारण करते हैं, पीठपर मारी बोझा लादते है, संचालन व साइन करते हैं। तया दुष्ट वचन भी बोलते हैं, ऐसे उन पराक्रमहीन भी महावोंके समस्त दुर्व्यवहारको जो बलवान होते हुए भी हाथी प्रतिदिन सहन करते हैं यह सब दुर्दैवकी लीला है, अर्थात् इसे पापकर्मका ही फल समझना चाहिये ॥ १९० ॥ धर्माला प्राणीके लिये विषैला सर्प हार बन जाता है, १-प्रतिप्रपाठोऽयम, पाप आयुष्यते । २ च पापकर्मादयं । AAAAAM Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -1941-] परेशान 191) सणेवारसवा भवत्पसिळता सत्पुष्पदामापते संपत रसायन विचमपि प्रीति विष रिपुर । पेचा पान्ति व प्रसन्मनसा किमामहे धर्मा पस्य नमोऽपि तस्य सततं रतौर परेवति । १९५॥ 192) उपग्रीपरविप्रतापदहमज्वालामितसविर पापितमतिर्मरी सूबुतर पान्यः पया पीडितः। तदनाम्लग्घडिमाद्रिकवरचितमोरामायबोलसव. पारावस्मसमो हि संससिपये धर्मो भवेदेहिनः ॥ १९२ ॥ 198) संक्षारोपसमीरसहतिहतमोद्भूतमीरोजसत् तुलोमिभ्रमितोतनकमकरप्राहादिमिर्मीषणे । अम्मोषौ विधुतोमवारवशिक्षिज्यालाकराले पत. अन्तोऽपि विमाममाशु फुरते धर्मः समालम्बनम् ॥ १९ ॥ 194) उझान्ते हे शिरोभिः सुरपतिभिरपि स्तूयमानाः सुरोधे गीयन्ते किरीमिर्ललितपवलसनीतिमिर्मकिरागात् । रसायनम् अमूर्त संपद्यते गायते । सधार्मिणो नरस्य । रिपुः प्रीति बिभत्ते । धर्मयुगपुरुषस्व प्रसन्नमणसः देवाः यस गान्ति । वा भया । पाकिमहे पार पार कि कथ्यते । नमः आकाशः सतत परैः रसै वर्षति ॥ ७॥ यः कपिम्पः पान्यः । मूत्तर कोमलः । उनीप्मरविप्रतापवहनज्वालभितः ग्यशाबाबसूर्येण पीडितः । पित्तप्रातः 1 मरी मस्पले । चरुन् गच्छन् । पषा मार्गेण। पीडितः । तस्म पत्रिकस्य । देहिनः जीरस । संसतिपये संसारमामें। धर्मः बार मीत्रम् । लम्बाहिमादि-हिमाचल के रचितप्रोहामयचोबसमारनेरमसमो भवेत् ॥ १५२ ॥ भो मण्याः भूपता पुष्यमाहात्म्यम् । धर्मः अम्भोधी समुद्रे । पतजन्तोः जीवस्य आशु भीग्रेण।बामाको अपि । समालम्बम विमानम्। कुरुते । किनभने समुदे। संहार: प्रमयकामा तस प्रलयस्य उपसमीरसंहतिः पानसमूहः तेन समान हतप्रोजूतपीडित-महतं नी जलं तस जलस्य ये टासाः कर्मयः तः कर्मिभिः प्रामिताः उसनकपकरमाहादयः तैः अचरजीवः मीषणे मयानके । पुमः किलक्षणे समझे। विधुत-कम्पित[वम उचालितवावशिवाजाला तया कराने हदे ॥ १९३ ॥ ये मनुजा नराः । सहा एक धर्मम् । विषाति कुर्वन्ति । से समर्मिणः । झुरमतिमिः शिरोभिः मस्तक । उपन्ते पार्यन्ते । ते सधर्मिणः । पुरोः वेक्समूहः स्तूपमानाः अपि तलवार सुन्दर फूलोंकी माला हो जाती है, विष मी उत्तम औषधि बन जाता है, शत्रु प्रेम करने लगता है, तथा देव प्रसाचित होकर आज्ञाकारी हो जाते हैं। बहुत क्या कहा जाय ! जिसके पास धर्म है उसके ऊपर आकाश मी निरन्तर रलोंकी वर्षा करता है ॥ १९१ || मरुभूमि (रेतीली पृथिवी-मारवार) में चलनेवाला जो पित्तप्रकृतिवाला सुकुमार पथिक प्रीष्ण अनुके तीक्ष्य सूर्यके प्रकृष्ट ताफ्लप अमिकी ज्वालासे संतप्त होकर चिरकालसे मार्गके भमसे पीडाको प्राप्त हुआ है उसको जैसे शीघ्र ही हिमालयकी लताओंसे निर्मित एवं उत्कृष्ट यंत्रों (फुब्बारों ) से शोभायमान पारागृहके प्राप्त होनेपर अपूर्व मुखका अनुभव होता है वैसे ही संसारमार्गमें चलते हुए प्राणीके लिये धर्मसे अमूतपूर्व मुलका अनुभव होता है॥ १९२॥ जो समुद्र घातक तीवण वायु ( प्रलयपवन ) के समूहसे ताड़ित हुए जलमे उठनेवाली उन्नत लहरोंसे इभर उधर उछलते हुए नक, मगर एवं प्राह आदि हिंसक जलजन्तुओंसे भयको उत्पन्न करनेवाला है तथा कम्पित तीक्ष्ण वाडवामिकी ज्वालासे भयानक है ऐसे उस समुद्रमें गिरनेवाले जन्तु के लिये धर्म शीघ्रतापूर्वक भाकाशमें भी आलबनभूत विमानको कर देता है ।। १९३ ॥ जो मनुष्य सदा अद्वितीय धर्मका आभय करते हैं उन्हें इन्द्र मी शिरसे धारण करते हैं, देवोंके समूह उनकी स्तुति करते हैं, किनरियां ललित पदोंसे श्रोमायमान Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [194: १-१९४ पसनद पवार्षिणतिः बम्सम्यन्ते च तेषां दिशि दिशि पिशवा कीर्तयः कान पा स्यात् लक्ष्मीस्तेषु प्रशस्ता विषषति मनुजा ये सवा धर्ममेकम् ॥ १९४ 195) धर्मः श्रीवशमका एष परमो धर्मब कस्पदमो धर्मः कामगवीप्सितप्रदमणिर्षमः परं देवतम् । धर्मः सौल्यपरंपरामृतनासंभूसिखलपणे धर्मों मातरुपास्यतो किमपरैः क्षुदरसत्कल्पनैः ॥ १९५॥ 196) भारतामस्य विधानतः पपि गतिमस्य वार्तापिये। श्रुत्था चेतसि धार्यते विमुषने तेषां न कार संपदा । दूरे सजलपानमजनसुख शीतः सरोमायतैः प्रात पसरजः सुगन्धिभिरपि प्रान्त जन मोदयेत् ॥ १९ ॥ विभीभिः भक्तिरामात् ललितपदलसाहीतिभिः पीयन्ते । पुनः तेषां सपर्मिणाम् । विशदाः कीर्तयः । दिशि विशि बंधम्यन्ते। वेषु सामिषु । वा अपवा । का लक्ष्मीः न स्यात् न भवेत् । मत एव धर्मः कर्तव्यः ॥ ९९४ ॥ भो प्रातः । धर्मः उपास्यता सेप्यताम् । अपरैः दैः । असत्कल्पनेः मिथ्यावादिमिः किम् । एष मर्मः श्रीवधीकरणमाः । पुनः । एषः परमपमः कल्पामः । एषः धर्मः कामगधीप्सितप्रदमणिः कामधेनुः चिन्तामणिः । एषः धर्मः पर देवतम् । एषः धर्मः सौरवपरम्परामृतमीसभूति-उत्पत्तिसपर्यतः । अतः हेतोः धर्मः सेम्पताम् ॥ १९५॥ मस्स भनेरस । परि मागे । विधानतः सम्यतः युस्तितः । गतिः नास्ता पूरे तिष्ठतु । यः नरैः तस्य धर्मस्य । वार्ता अपि भुत्वा चेतसि धार्यवे । वेषा नराणां त्रिभुवने' काः सम्पदः न भवन्ति । दृष्टान्तमाह 1 सजापानमजनमुखं पूरे विचन । पतिः सरोमावतैः प्राप्त वृतम् । वन मोवसेत् । किसक्षणः पवनः । पदरजसा सुगन्धिभिः । फिलमर्ग जनम् । श्रान्त खिनम् ॥ ११६ ॥ स मुनिः वीरनमी गुरु श्रीमहावीरः । मे मय मुनिपचनन्दिन । मोई विगत ददात । यत्पादपरमरजोमिः यस महावीरस्य वरपरजोभिः करवा । भम्पात्ममा जीवापास् । गीतोंके द्वारा उनका भक्तिपूर्वक गुणगान करती है, तथा उनका यश प्रत्येक दिशामें वार बार भ्रमण करता है अर्थात् उनकी कीर्ति सर ही दिशाओंमें फैल जाती है । अपवा उनके लिये कौन-सी प्रशस्त लक्ष्मी नहीं प्राप्त होती है ! अर्थात् उन्हें सब प्रकारकी ही श्रेष्ठ लक्ष्मी प्राप्त हो जाती है॥ १९४ ॥ यह उत्कष्ट धर्म लक्ष्मीको वश करनेके लिये वशीकरण मंत्रके समान है, यह धर्म कल्पवृक्षके समान इच्छित पदार्थको देनेवाला है, वह कामधेनु अथवा चिन्तामणिके समान अभीष्ट वस्तुओंको प्रदान करनेवाला है, वह धर्म उख्म देवताके समान है, तथा वह धर्म सुखपरम्परारूप अमृतकी नदीको उत्पन्न करनेवाले उत्तम पर्वतके समान है। इसलिये हे प्रातः । तुम अन्य क्षुद्र मिय्या कल्पनाओंको छोड़कर उस धर्मकी आराधना करो ॥ १९५॥ इस धर्मक अनुष्ठानसे जो मोक्षमार्गमें प्रवृधि होती है वह तो दूर रहे, किन्तु जो मनुष्य उस धर्मको पातको मी सुनकर वित्तमें धारण करते हैं उन्हें तीन लोकमें कौनसी सम्पदायें नहीं प्राप्त होती ! ठीक है- उच्न बळके पीने और उसमें गान करनेसे प्राप्त होनेवाल सुख सो दूर रहे, किन्तु वानवकी शीतल एवं सुगन्धित वायुके द्वारा माप्त हुई कमलकी भूलि मी थके हुए मनुष्यको मानन्दित कर देती है ॥ १९६ ॥ नमस्कार करते समय शिरमें लगी हुई जिनके चरण-कमलों की धूलिसे मव्य जीवों को तत्काल ही निर्मक सम्बवानरूप कमी १० सममें। मुमने। . परवन्।ि रचनने। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -198 : १-१९८] 197) यत्पावपरकजरजोमिरपि प्रणामात लः शिरस्यमलबोषकलावतारः। भण्यात्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्ष स श्रीगुरुर्दिशतु मे मुनिवीरनन्दी ॥ १९७ ॥ 198) पचानम्बमपारसंमृतिपथभ्रान्समध्छेदकत् मायो दुर्लभमत्र कर्णपुटकव्यात्मभिः पीयताम् । निर्यातं मुनिपसनन्निवदनपालेयरइमेः परं स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम् ॥ १९८ ॥ - इति धर्मोपदेशामृत समाप्ठम् ॥ १॥ तरक्षणमेव अमलयोधकलावतारः भवति । किलक्षणः रजोभिः। प्रणामान् शिरमि लप्रैः ॥ १७ ॥ भो भम्याः। दं धर्मोपदेशामृतं भव्यात्मभिः कर्णपुटकैः कर्णाजलिमिः पीयताम् । किलक्षणम् अमृतम् । दप्तानन्दम् । पुनः किलक्षणम् अमृतम् । अपारससति-संसारपयधान्तधमनछेदकत् संसारपथमार्गस्थश्रमविनाशकम् । पुनः किलक्षणम् अमृतम् । धर्मोपदेशामृतम् । प्रायः बाहुल्येन । अत्र संसारे दुर्लभम् 1 पुनः कि लक्षणं धर्मोपदेशामृतम् । मुनिपप्रनन्दिनदनपायरश्मेः मुनिपानन्दिवदनचन्द्रमसः । निर्यातम् उत्पलम् । पुनः किलक्षणम् । परम् उत्कृष्टम् । यद्यपि स्वोक तथापि सारताधिक समीरीनम् ॥ १८ ॥ इति धर्मोपदेशामृतं समाप्तम् ॥ १ ॥ प्राप्ति होती है वे श्रीमुनि वीरनन्दी गुरु मेरे लिये मोक्ष प्रदान करें ॥ १९७ ॥ जो धर्मोपदेशरूप अमृत आनन्दको देनेवाला है, अपार संसारके मार्गमे थके हुए पथिकके परिश्रमको दूर करनेवाला है, तथा महुत दुर्लभ है, उसे भव्य जीव कानोंरूप अंजुलियोंसे पीवे अर्थात् कानोंके द्वारा उसका श्रवण करें । मुनि पभनन्दीके मुखरूप चन्द्रमासे निकला हुआ यह उपदेशामृत यद्यपि अस्प है तथापि श्रेष्ठताकी अपेक्षा वह अधिक है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार अमृतका पान करनेसे पथिकके मार्गकी थकावट दूर हो जाती है और उसे अतिशय आनन्द प्राप्त होता है उसी प्रकार इस धर्मोपदेशके सुननेसे भव्य जीवोंके संसारपरिभ्रमणका दुख दूर हो जाता है तथा उन्हें अनन्तसुखका लाम होता है, जैसे दुर्लभ अमृत है वैसे ही यह उपदेश भी दुर्लभ है, अमृत यदि चन्द्रमासे उत्पन्न होता है तो यह उपदेश उस चन्द्रमाके समान मुनि पमनन्दीके मुखसे प्रादुर्भूत हुआ है, तथा जिस प्रकार अमृत थोड़ा-सा भी हो तो मी वह लाभकारी अधिक होता है उसी प्रकार अन्धप्रमाणकी अपेक्षा यह उपदेश यद्यपि थोता है फिर भी वह लाभप्रद अधिक है । इस प्रकार इस उपदेशको अमृतके समान हितकारी जानकर भव्य जीवोंको उसका निरन्तरमनन करना चाहिये ।। १९८।। इस प्रकार धर्मोपदेशामृत समाप्त हुआ ॥ १॥ औरणन्तिः । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२. वानोपदेशनम् ] 199 ) जीयाजिनो जगति नामिनरेन्बुस्खःमेयो उपम कुल्गोत्रगृहप्रदीपः । पाम्बा बभूवधि नवदामतीय सारको परमधर्मरयस्य च ॥१॥ 200) योमिषस्य नपतेः शरवमशुबमाम्पयशोस्तजगत्रितपस्य तस्य । किंववामि मनु समनि पस्स मुकं त्रैलोक्सवन्दितपदेन लिनेश्वरेण ॥२॥ 201) श्रेयार यो अवति यस्य रहेकदा बादेकानवम्धमुनिपुंगवारणायाम् । साखटिरमारनगवेकचिचहेतुवा बसमतीत्वमिता परिती ॥३॥ निः सर्वसम्मति जीवात् । नियमः बिगः । मामिरेलसमः नाभिराजपुत्रः । पुनः। श्रेयोमपः जीपात: मिमक्षगः शेतपः । कुरुगोत्रछे प्राधिपः कुलपयेवमहामासने पः। गाभ्यां द्वाभ्यां भीनाभिसूनुषेशेनपाभ्याम् । स मरताझे। मतदानती बाम गवानी है। सरकये। पुनः बिसवणे तदानी । परमधर्म-धारमीनम-मानवमरणस्य च ॥ मबु इति बित। तस्य योमिषस नाना नपचे मावर्णयामि । किमसग आयोमियम । परत्वातीन-अन-मेक-सरणाशुभ-उसनमाम्मवात-परिवेकवितवस्य । रस्व सम्पनि अवसः गो। विनेबारेण शषभदेन । मुख मोजन स्तम् । पक्षानेन देन विकोपबन्दिकपदेन इनपरलेनएकातिरन्दितवरमेन ॥ २ ॥भेयाम् पपः पयति । रस श्रेयसः रहे। ता। जिनके द्वारा उत्तम रीतिसे चलनेवाले मेष्ठ धर्मस्पी रखके चाकके समान व्रत और वान रूप दो तीर्थ यहाँ मावित हुए हैं वे नामिराजके पुत्र आदि जिनेन्द्र तथा कुरुवंशरूप गृहके दीपकके समान राजा श्रेयान् भी जयवन्त होवें। विशेषार्थ-इस भरत क्षेत्रमें प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय कालोंमें भोगममिकी अवस्था रही है। उस समय आर्य कहे जानेवाले पुरुषों और सियोंमें न तो विवाहादि संस्कार ही थे और न प्रतादिक मी। वे दस प्रकारके कस्पवृक्षोंसे प्राप्त हुई सामग्रीके द्वारा यथेच्छ मोग भोगते हुए कालयापन करते थे। कालकमसे जब तृतीय कालमें पल्पका आठवा भाग (1) शेष रहा तब उन कल्पवृक्षोंकी दानशक्ति क्रमशः क्षीण होने लगी थी। इससे बो समय समयपर उन आर्योको कष्टका अनुभव हुआ उसे यथाक्रमसे उत्पन होनेवाले प्रतिश्रुति आदि चौदह कुलकरोंने बूर किया था। उनमें अन्तिम कुलकर नाभिराज थे। प्रपम तीर्थकर भगवान् आदिनाथ इन्हींके पुत्र थे। अमी तक जो व्रतोंका प्रचार नहीं था उसे भगवान् आदिनाथने स्वयं ही पांच महावतोंको ग्रहण करके प्रचलित किया । इसी प्रकार अभी तक किसीको दानविधिका मी परिज्ञान नहीं था। इसी कारण छह मासके उपवासको परिपूर्ण करके भगवान् आदि जिनेन्द्रको पारणाके निमित्त और मी छह मास पर्यत घूमना पड़ा । अन्तमें राजा श्रेयानको आतिस्मरणके द्वारा आहारदानकी विधिका परिज्ञान हुआ । तदनुसार तब उसने भक्तिपूर्वक भगवान् आदिनाथको इक्षुरसका आहार दिया । बस यहांसे आहारादि दानोंकी विधिका भी प्रचार प्रारम्भ हो गया । इस प्रकार भगवान् आदिनाथने व्रतोंका प्रचार करके तथा राजा श्रेयान्ने दानविधिका प्रचार करके जगत्का कल्याण किया है । इसीलिये अन्धकार श्री मुनि एप्रनन्दीने यहां व्रततीर्थके प्रवर्तक स्वरूपसे भगवान् आदि जिनेन्द्रका तथा दावतीर्थके प्रवर्तक स्वरूपसे राजा भेयान्का भी स्मरण किया है।॥ १ ॥ जिस रेषान् राजाके गृहपर तीनों लोकोंसे वन्दित चरमोवाले भगवान् ऋषम जिनेन्द्रने आहार ग्रहण किया और इसलिये जिसका शरत्कालीन मेघोंके समान धवल यञ्च तीनों लोकों में फैला, उस भेयान् राजाफा कितना वर्णन किया जाय ! ॥२॥ जिस श्रेयान् राजाके घरपर नाम्यवन-पूरित। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. पानोपदेशनम् 202) माते ऽपि दुर्लभतरे ऽपि ममुख्यभाये खमेमसालसरशे ऽपि हि जीबितायौ। ये लोभकूपकुहरे पतिताः प्रवक्ष्ये कारुण्यता खत्यु तदुहरणाय किंचित् ।। 208) काम्तात्मजनविणमुल्यपदार्थसार्थप्रोत्थातिघोरधनमोहमहासमुन्द्रे । पोतायते गृहिणि सर्वगुणाधिकस्याहानं परं परमसाविकमाषयुक्तम् ॥५॥ 204) नानाजनाश्रितपरिग्रहसंभृतायाः सत्पात्रदानविधिरेव गृहस्पतायाः। हेतुः परः शुभगतेविषमे भवे ऽस्मिन् नायः समुद्र व कर्मठकर्णधारः॥ ६॥ सात् आकाशात् । एका अद्वितीया । पाश्चन्यमुनिपुंगवारणार्या श्रीवृषभदेवभोजनसमये । सा साहिः अभवत् । मी अगदेकचित्र-भाश्चर्य हेतुः । यया रस्लष्टया । धरित्री भूमिः । बहमतीत्वम् इता प्राप्ता बसुमतीनाम प्राप्ता ॥ ३॥ ये स्काः । मोभकूपकुहरे बिले । पतिताः । क सति । दुर्लभतरे मनुष्यभावे प्राप्ते सति । हि यतः । खगेन्द्रमामा जीवितादी प्राप्ते सति । ये भविक पतिताः । खलु निषितम् । तदुद्धरणाय तेषो जीवानाम् उद्धरणाय । साम्यतः दयातः । [विद] प्रवक्ये मिकि हानोपदेशकपयिष्यामि ॥ भो भष्याः श्रयता दानफलाम । गृहिणि गृहस्थे । पर केवलमा दान पोतावते पोत-प्रोरष इब थाचरति पोतामते । कस्मात् । सर्वगुणाधिकलात् । सर्वगुणानो मध्ये दानगुण प्रधानम् अधिकं तस्मात्सर्षगुणाषिकत्वात् । कि याणे वामम् । परमतत्वमाययुम् धौदायगुमनुका । किलक्षणे गृहस्थपदे। कान्ता-खी-आत्मत्र-पुत्र-द्रविण-द्रव्य-मुख्यपदार्यसमूहः तेभ्यः पदार्थसमूहेभ्यः । प्रोत्यम् उत्पन्नम् । घोरपनमोइमहासमुहप्राय समुसहशे। गृहपदे दाने प्रधानम् ॥५॥ मस्मिन् विषमे भवे संसारे । गृहस्थतायाः गृहस्थपदस्य । शुभगते. शुभपदस्य । परः उस्छः । हेतुः सत्पात्रदानविधिः अस्ति । एष निबयेन। किसक्षणामाः गृहस्थतायाः नामावनाश्रितपरिगृहसंमृतायाः नानाविधकुटुम्ब-नानाविधपरिगृहयुषयाः । यथा समुद्र कर्मठकर्णधारः चतुरखेटः । नापः प्रमहणस्य । शुभगतेः कारणम् अस्ति पारंगतकरणे समर्थ: 1 तथा धर्मः संसारसारणे समर्थः ॥॥ इन्बादिकोसे वन्दनीय एक प्रथम मुनिपुंगव ( तीर्थकर ) के पारणा करनेपर उस समय लोकको अभूतपूर्व भआश्चर्यमें डालनेवाली आकाशसे वह रहवृष्टि हुई कि जिसके द्वारा यह प्रधिकी 'वसुमती (धनवाली ) इस सार्थक संज्ञाको माप्त हुई थी; वह राजा श्रेयान् जयन्त होवे । विशेषार्थ- यह आगममें भली भांति प्रसिद्ध है कि जिसके गृहपर किसी तीर्थकरकी प्रथम पारणा होती है उसके यहां ये पंचाधर्म होते हैं-(१) रतवर्षा (२) दुंदुभीवादन (३) जय जय शब्दका प्रसार (४) सुगन्धित वायुका संशर और (५) पुष्पोंकी वर्षा ( देखिये ति. प. गाथा ४, ६७१ से ६७४)। तदनुसार भगवान् आदिनाथने जब राजा श्रेयान्के गृहपर प्रभम पारणा की थी तब उसके घरपर भी रनोंकी वर्षा हुई थी । उसीका निर्देश- यहां मी मुनि पमनन्दीने किया है ॥ ३ ॥ जो मनुष्य पर्याय अतिशय दुर्लम है उसके प्राप्त हो जानेपर मी तथा जीवित आदिके स्वम आर इन्द्रजालके सदृश विनश्वर होनेपर भी जो प्राणी लोमरूप अन्धकारयुक्त कुएंमें पड़े हुए हैं उनके उद्धारके लिये दयाल बुद्धिसे यहां कुछ दानका वर्णन किया जाता है ॥ ४ ॥ ओ गृहस जीवन स्त्री, पुत्र एवं धन आदि पदार्थोके समूहसे उत्पन्न हुए अत्यन्त भयानक व विस्तृत मोहके विशाल समुद्र के समान है उस गृहस्थ जीवनमें उत्तम सात्त्विक भावसे दिया गया उत्कृष्ट दान समस्त गुणोंमें श्रेष्ठ होनेसे नौकाका काम करता है । विशेषार्थ- इस गृहस जीवनमें प्राणीको बी, पुत्र एवं धन आदिसे सदा मोह बना रहता है, जिससे कि वह अनेक प्रकारके आरम्भोंमें प्रवृत्त होकर पापका संचय करता रहता है । इस पापको नष्ट करनेका यदि उसके पास कोई उपाम है तो वह दान ही है । यह दान संसाररूपी समुदसे पार होनेके लिये जहाजके समान है ॥५॥ इस विषम संसारमें नाना कुटुम्बी आदि जनोंके भावित परिप्रइसे परिपूर्ण ऐसी गृहस्य अवस्थाके शुभ प्रवर्तनका उत्कृष्ट कारण एक मात्र सत्पात्रदानकी १ मिच२ कर्मचारः। स 'म' नास्ति । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ammmmmunmunawrawaimanoram पानविपणिति 205) मायासकोटिभिरुपार्जितमरजेभ्यो यजीवितादपि मिजाइपितं जनामाम् । वित्तस्य तस्य सुगति। खलु दानमेकमन्या विपत्तय इसि प्रवदन्ति सम्तः ॥ 206) भुस्यादिभिः प्रतिविनं गृहिणो न सम्यवनष्टा रमापि पुनरेति कदाधिवत्र। सत्पात्रदानविधिना तु गताप्युदेति क्षेत्रस्थवीममिव कोटिगुणं बटस्य ॥ ८॥ 207) यो दप्सवानिह मुमुक्षुजनाय भुति भत्याश्रितः शिषपथे न घृतः स पक्ष । आत्मापि तेन विदधस्सुरसम नूनमुथैः पदं अजति सत्साहितो ऽपि शिस्पी ॥९॥ क्षलु इति निश्चितम् । तस्य वित्तस्य सुगतिः एकं दानम् । यत् द्रव्यम् भावासकोटिमिः उपार्जितम् । अनाना लोकानाम् । : अपि । निजात् जीविताद् अपि । दयित बचभम् । तस्यव्यस्था अन्यागविः विपत्तयः। सन्तः सापक इति प्रवदन्ति कषयन्ति ॥७॥ अगसारे । गृहिण: रावस । : प्रीति वादिभिः सम्यक नाही । पुनरपि कदाचित् न एति नागच्छति । इ पुनः । ससानदानविधिना गता लक्ष्मीः । उदेति भागच्छति। यथा बटव क्षेत्रका बीच कोटिगुणम् उदेति ॥ ८ ॥ इह संसारे । यः स्मः । भत्याश्रितः । मुमुक्षुअमाय मुनये । भुकिम् बाहारम् । वदान् । तेन विधि ही है, जैसे कि समुद्रसे पार होनेके लिये चतुर खेवट ( मल्लाह ) से संचालित नाव कारण है ।। विशेषार्थ-जो दान देनेके मोम्य है उसे पात्र कहा जाता है। वह उत्तम, मध्यम और जघन्यके मेदसे तीन प्रकारका है । इनमें सकल चारित्र (महावत ) को धारण करनेवाले मुनिको उत्तम पात्र, विकल चारित्र (देशनत ) को धारण करनेवाले श्रावकको मध्यम पात्र, तथा अतरहित सम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र समझना चाहिये । इन पात्रोंको यदि मिध्यादृष्टि जीव आहार आदि प्रदान करता है तो वह यथाक्रमसे (उत्तम पात्र आदिके अनुसार ) उत्तम, मध्यम एवं बधन्य भोगभूमिके सुखको भोगकर तत्पश्चात् यथासम्भव देव पर्यायको प्राप्त करता है। किन्तु यदि उपर्युक्त पात्रोंको ही सम्यम्हष्टि जीव आहार आदि प्रदान करता है तो वह नियमतः उत्तम देवोंमें ही उत्पन्न होता है। कारण यह है कि सम्यम्दृष्टि जीवके एक मात्र देवायुका ही बन्ध होता है। इनके अतिरिक्त जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित होकर मी ब्रतोंका परिपालन करते हैं वे कुपात्र कहलाते हैं । कुपात्रदानके प्रभावसे प्राणी कुभोगमूमियों ( अन्तरद्वीपों ) में कुमानुष उत्पन होता है । जो प्राणी न तो सम्यग्दृष्टि है और न व्रतोंका भी पालन करता है वह अपात्र कहा जाता है और ऐसे अपात्रके लिये दिया गया दान व्यर्थ होता है-उसका कोई फल प्राप्त नहीं होग, नैसे कि ऊसर भूमिमें बोया गया बीज । इतना अवश्य है कि अपात्र होकर भी जो प्राणी विकलांग (लंगडे व अन्ये आदि ) अथवा असहाय हैं उनके लिये दयापूर्वक दिया गया दान ( दयादत्ति ) व्यर्थ नहीं होता। किन्तु उससे भी यथायोग्य पुष्य फर्मका बन्ध अवश्य होता है ।। ६ ।। करोड़ों परिश्रमोंसे संचित किया हुआ जो धन प्राणियोंको पुत्रों और अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय प्रतीत होता है उसका सदुपयोग केवल दान देनेमें ही होता है, इसके विरुद्ध दुर्व्यसनादिमें उसका उपयोग करनेसे प्राणीको अनेक कष्ट ही भोगने पड़ते हैं। ऐसा साधु जनोंका कहना है ॥ ७ ॥ लोकमें प्रतिदिन भोजन आदिके द्वारा नाशको प्राप्त हुई गृहस्थकी लक्ष्मी ( सम्पत्ति ) यहां फिरसे कभी भी प्राप्त नहीं होती । किन्तु उत्तम पात्रोंक लिये दिये गये दानकी विधिसे व्ययको प्राप्त हुई वही सम्पत्ति फिरसे भी प्राप्त हो जाती है । जैसे कि उत्तम भूमिमें बोया हुआ वट वृक्षका बीज करोड़गुणा फल देता है॥ ८ ॥ जिस श्राक्कने यहां मोक्षाभिलाषी मुनिके लिये भक्तिपूर्वक आहार दिया है उसने केवल उस मुनिके लिये ही मोक्षमार्गमें प्रवत नहीं किया है, परिक १ क श क्षेत्रस्य । २ क विपत्तथे । ३ + क्षेत्रस्य । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. डानोपवेशनम् 208) या शाकपिण्डमपि मकिरसानुविद्धबुद्धिः प्रयच्छति यो मुनिपुंगवाय । स स्पाइनन्तफलभागच वीजमुतं क्षेत्रे न किं भवति मूरि कभीवलस्य ॥ १०७ .209) साझाम्मनो वचनकायविशुविशुद्धः पात्राय यच्छति जनो मनुं भुतिमात्रम् । यस्तस्य संसृतिसमुचरणैकमीजे पुण्ये हरिर्भवति सोऽपि कृतानिलाः ॥ ११ ॥ 210) मोक्षस्य कारणममितमत्र लोके तद्धार्यते मुनिभिरङ्गक्लासद्मात् । -a11: २१३] तीयते स गृहिणा गुरुभकिभाजा तस्माद्भूतो गृहिजनेन विमुक्तिमार्गः ॥ १२ ॥ 211 ) नासाग्रहष्यतिकरार्जितपापपुः खञ्जीकृतानि गृहिणो न तथा प्रतानि । धति फलं हि वयविशुद्ध मनसा कृतपादानम् ॥ १३ ॥ गृहस्थेन । स मुमुक्षुजनः मुनिः । शिषपये एव निखयेन । न तः अपि तु मुनिः सुमिचेः (१) । नूनं निवितम् । यथा शिल्पी गृहकारः । सुरसय विदधत् । तत्सुरसा सहिः अपि उचैः पदं व्रजति गच्छति ॥ ९ ॥ नः श्रवजनः । सुनिपुंगवान । शाकपिण्डमपि वनोद्भवम् अक्षम् । प्रयच्छति ददाति । किंलक्षणः जनः मतिरसादिबुद्धि भनेः रसैन अनुविका याचिता बुद्धिर्यस्य स भक्तिरसानुषिद्धबुद्धिः । स दाता अनन्तफलभाक् स्यात् स दाता अनन्तफलभोका स्वात् मयेत् । अवी बीजं क्षेत्रे उप्तम् । भूरि बहुलम् । किं न भवति । अपि तु नवले ॥ १० ॥ ननु इति विसकें । यः जनः । पात्रा मुनये । मुक्तिमा च्छति ददाति । किंलक्षणो जनः साक्षान्मनोव च नामविशुविशुद्धः मनोषचनकायानां द्धिः तमा शुखः। दस्य जनस्म पुण्ये । सोऽपि इरिः इन्द्रः । कृताभिलाकः भवति । किंलक्षणे पुण्ये संवतिसमुत्तरने कीजे संसारतर कमी करने L ॥ ११ ॥ अत्र पचनन्दिन्ये । मया पद्मनन्दिमुनिना । मोक्षस्य कारणं पूर्वम् अभितं मतम्। लोके सारे तन्मोक्ष कारणं रमत्रयम् । मुनिभिः धार्यते । कस्मात् । अवलाद शरीरबलात् । तत् भई कस्सत् धार्मते । भचात् उद् श्रीयते । च पुनः गुरुमतिभाजा गुरुमतियुकेन गृहिणा मते । तस्मात् कारणात् । ग्रहिबनेन मोक्षमार्गः ॥ १२ ॥ इह संसारे । गृहिणः गृहस्थस्य । एकदा अपि एकवारमपि । प्रीत्या अविशुद्धमनसा पात्रदानम् । यथा उचैःश्रे करोति । तथा गृहिणः गृहस्थस्य । अतानि उबेः फलम्। न विदति न कुनैन्दि फिक्षणानि तानि । नानाग्रहपकिरेन अपने आपको भी उसने मोक्षमार्गमें लगा दिया है। ठीक ही है- देवालयको बनानेवाला कारीगर भी निश्वयसे उस देवालय के साथ ही ऊंचे स्थानको चला जाता है ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार देवामको बनानेवाला कारीगर जैसे जैसे देवालय ऊंचा होता जाता है वैसे वैसे वह मी ऊंचे स्थानपर चढ़ता व्याता हैं। ठीक उसी प्रकारसे मुनिके लिये भक्तिपूर्वक आहार देनेवाला गृहस्थ भी उक्त मुनिके साथ ही मोक्षमार्ग में प्रवृत्त हो जाता है || ९ || भक्तिरससे अनुरंजित बुद्धिवाला जो गृहस्व श्रेष्ठ मुनिके लिये शाक के आहारको भी देता है वह अनन्त फलको भोगनेवाला होता है। ठीक है-उसम खेतमें दोगा गया बीज क्या किसान के लिये बहुत फलको नहीं देता है ? अवश्य देता है ॥ १० ॥ मन, वचन और कामकी शुद्धिसे विशुद्ध हुआ जो मनुष्य साक्षात् पात्र ( मुनि आदि) के लिये केवल आहारको ही देता है उसके संसारसे पार उतारने में अद्वितीय कारणस्वरूप पुण्यके विषयमें वह इन्द्र भी अभिलाषा युक्त होता है । अभिप्राय यह है कि इससे जो उसको पुण्यकी प्रप्ति होनेवाली है उसको इन्द्र भी चाहता है ॥ ११ ॥ लोकमें मोक्षके कारणीभूत जिस रत्नत्रयकी स्तुति की जाती है वह मुनियोंके द्वारा शरीरकी शक्तिसे धारण किया जाता है, वह शरीरकी शक्ति भोजनसे प्राप्त होती है, और वह भोजन अतिशम मक्तिसे संयुक्त गृहपके द्वारा दिया जाता है । इसी कारण वास्तवमें उस मोक्षमार्गको गृहस्वजनोंने ही धारण किया है ॥ १२ ॥ लोकमें अत्यन्त विशुद्ध मनवाले गृहस्वके द्वारा प्रीतिपूर्वक पात्रके लिये एक बार मी किया गया दान जैसे उन्नत फलको करता है वैसे फलको गृहकी अनेक झंझटोंसे उत्पन्न हुए पापसमूहोंके द्वारा कुमदे १ एकवारमपि अवि- । पानं-११ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Manianmanaanema vardhannnnr पानिपचितिः [18:- 212) मूले सुखानु भापति वर्षमाना भावाि सरिविवानिशमासमुद्रम् । भरपी सररिपुवक्रम यतीन्द्रदामपुण्यात्पुरः सह यशोभिरतीसफेनैः ॥ १४ ॥ 318) माया कुतो एहगते परमात्मबोध शुशात्मनो भुवि यतः पुरुषार्थसिदिः। पागम्युनगंड पनुर्विषता करता सा लीलये रुतपायजमानुषंगात् ॥ १५ ॥ 14) मामापिपासारति मोक्षपथस्य साचोराशु मयं मजति तारित समस्तम् । पो ममेषजमठादिकतोपकारा संसारमुचरति सोऽभ नरोम चिनम् ॥ १६ ॥ 215) कि ग्रहाः किमिह रे गहिणोतुषामतर्मनस्तु मुनयो न हि संचरन्ति । साक्षापय स्थतिवशाचरणोदकेन नित्यं परिणितपराप्रशिराप्रदेशाः ॥ १७॥ गाम्यापारेष । भर्षितानि पापानि तेषी पापाना पुचः । खचीकतानि कुपीकतानि ॥ १३॥ लक्ष्मीः मुझे तनुः खोच । सक्नु पथात् बगोमिमा अनिबर्षमाना । सरधिपस्वस भव्यजीवस्य । पुरस्बप्रे। शिव मावत मोक्षपर्यन्तम् । पावति गच्छति । अमाव। यतीनवानपुयात् + सा कामीः। मेव । सरिदिन मरी इस । भिक्षणा सरित् । मूरे तनुः सम्बी । सद्ध पवात् । भवीय सह पनि वर्षमभा। पावत्या समुद्रावति समुद्रपर्यन्त गच्छति ॥ १४ ॥ भुवि षिष्याम् । गृहगते पहस्वजने। प्रायः बास्केन । परमात्मबोषः परमात्मज्ञानम् । कुतः। बतः पुश्वार्थसिदिः । शुद्धात्मनः मुनेः भवति । मनु की विस। पुनः सर्विषतः वानात् । सा पुलाधिषिः । लीलया एकरस्वागता माता लक्षगात् दानात् । तराशनामुषमात् छतः पानयन सु गति येन बानेन तत्तस्मात् ॥ १५ ॥ यः भन्यः भावकः । मोक्षपवस सापोः मोक्षपस्क्तिव मुनापरले । गानापि स्मरी । तस श्रावकत्व । समय पुरित पापम् । भाणु मीश्रेण । क्षर जगति । र भावकः भवमेषमहावितोपर मज-भोजन-मेषज-मोषध-मह-सानावित-सपकारसबुकमबर नरः। संसारम् उत्तरतिपत्र संसार परमे।विन मावन १६॥ मनु इति वितः । वे कि पक्षः । स नरोके । ते रहियः गस्वरः । मेवा खाणाम् । भाव लिहीन किये गये गृहसके प्रत नहीं करते हैं॥ १३ ॥ सम्यग्दृष्टि पुरुषकी लक्ष्मी मूल्में अस्प होकर भी तत्पमात् मनिराजको दिये गये दानसे उत्पन्न हुए पुण्यके प्रभावसे कीर्तिके साथ निरन्तर उपरोज वृद्धिको प्राप्त होती हुई मोमपर्यन्त जाती है। जैसे-नदी मूल्में इञ्च होकर भी अतिशम दीप्त फेनके साब समोर एडिंगत होकर समुद्र पर्यन्त जाती है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार नदीके उगमस्थानमें उसका विस्तार सबपि बहुत ही मोबा रहा है, फिर भी वह समुखपर्यन्त पहुंचने तक उपरोर बढ़ता ही बास्य है। इसके साथ साब नदीका फेन मी उसी कमसे बढ़ता जाता है। उसी प्रकार सम्बम्हष्टि पुरुषकी पन-सम्पति मी यचपि मूसमें बहुत थोड़ी रहती है तो भी वह आगे भक्तिपूर्वक किये गये पात्रदानसे जो पुष्पकम होता है उसके प्रभावसे मुक्ति प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर वृद्धिंगत ही होती जाती है। उसके साथ ही उक दास श्राराकी कीर्तिका प्रसार मी बढ़ता जाता है ॥ १४ ॥ जगत्में जिस उत्कृष्ट मात्मखलपके शानसे शुद्ध आत्माके पुरुषार्थकी सिधि होती है वह आत्मज्ञान गृहम खित मनुष्य के प्रायः कहांसे हो सकता है। अर्थात् नहीं हो सकता । किन्तु वह पुरुषार्थकी सिद्धि पात्र जनोंमें किये गये चार प्रकारके पानसे अनायास ही हस्तगत हो जाती है ।॥ १५ ॥ जो मनुष्य मोक्ष मार्गमें स्थित साधुके केवल मामका भी सरण करता है उसका समस्त पाप चीन ही नाशको प्रास हो जाता है। फिर जो मनुष्य उक साधुका भोजन, भौषषि और मठ ( उपाश्रय ) आदिके द्वारा उपकार करता है वह यदि संसारसे पार हो जाता है तो इसमें मला आश्चर्य ही क्या है। कुछ भी नहीं ॥ १६॥ जो मुनिजन साक्षात् अपने पादोदकसे गृहगत पूपिवीके मममागको सदा पवित्र किया करते है ऐसे मुनिजन जिन गृहकि मीतर १करनानुस्वाप । सरक। महसक्ने। मनुस्वः। स पलितानीवरम । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ -2186२-२०] २. वानोपदेशनम् 216) देषः स किं भवति यत्र विकारभावो धर्मः स किं न करुणाशिषु यत्र मुख्या । तत् किं तपो गुरुरथास्ति न यत्र बोधः सा किं विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम् ॥१८॥ 217) किं ते गुणाः किमिछ तत्पुनमस्ति लोके सा किं विभूसिरथ यान शं प्रयाति । दानवतादिजनितो यदि मानवस्य धर्मो अगधयवशीकरणैकमनः ॥ १९॥ 218) सत्पात्रदानजनितोन्नतपुण्यराशिरेका वा परजने नरनाथलक्ष्मीः। आधात्परस्तदपि दुर्गत एष यस्मादागामिकालफलदायि न तस्य किंचित् ॥ २० ॥ अन्तः मध्ये । येषां गृहिणा गृहस्थानां मनस्सु मुनमः । हि यतः । न संचरन्ति प्रवेश न कुर्वन्ति । किलक्षणाः गृहोः । केन चरणअलेन 1 निस्यं पवित्रितं घराप्रप्रदेश येषां ते पवित्रितपराप्रप्रदेशाः। अथ शिलक्षणाः गृहस्थाः। मुनेः स्मृतिवशात् स्मरणवशात् निल्यं पविनितशिरःप्रदेशाः ।।१७n यत्र यस्मिन् थे। विकारभावः अस्ति म कि देवः । अपितु देवः न। यत्र धर्म । अशिषु दयाम प्राणिषु करुणा मुख्यान। स किं धर्मः अपि तु धर्मःन। तहिं तपः स कि गुरुः । यत्र तपसि यत्र गुरी बोधः झानं न । अथ सा कि विभूतिः । यत्र विभूत्या पात्रदान न ॥ १८ ॥ यदि चेर । मानवस्य नरस्य । धर्मः अस्ति । किंलक्षणः धर्मः। दानवतादिजनितः दानेन व्रतेन उत्पादितः । पुनः किंलक्षणः धर्मः। जगत्रयवशीकरणक्रमः। इह लोके वे गुणाः कि ये गुणाः धर्मयुक्तस्य नरस्य पर्श न आयान्ति । इह लोके तत्सुस कि यत्सुसं धर्मयुक्तस्य नरस्य नास्ति । इहलोके सा विभूतिः किम् । अथ या विभूतिः धर्मयुक्तस्य पुषस्य पर्श न प्रयाति ॥ १९ ॥ एकत्र एकस्मिन् जने । सत्पात्रदानेन अनिता सत्पाविता या पुण्यराशिः सा पुण्यराशिः एकमने वर्तते। वा अपवा । परजने दितीयजने । मरनाथलक्ष्मीः वर्तते । तदपि आद्यात् पुण्यराशिसहितजनात् । परः द्वितीयः नरनाथलक्ष्मीवान् । दुर्गतः दरिद्री । एवं निष्चयेन । यद्यस्मात्कारणात् । तस्य साक्षात् संचार नहीं करते हैं वे गृह क्या है ! अर्थात् ऐसे गृहका कुछ भी महत्त्व नहीं है । इसी प्रकार सरणके बशसे अपने चरणजलके द्वारा श्रावकोंके शिरके प्रदेशोंफो पवित्र करनेवाले वे मुनिजन बिन श्रावकोंके मनमें संचार नहीं करते हैं वे श्रावक भी क्या है। अर्थात् उनका मी कुछ महत्त्व नहीं है ।। विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिन घरोंमें आहारादिके निमित्त मुनियोंका आवागमन होता रहता है ये ही घर वास्तवमें सफल हैं । इसी प्रकार जो गृहस्थ उन मुनियोंका मनसे चिन्तन करते हैं तथा उनको आहार आदिके देनेमें सदा उत्सुख रहते हैं वे ही गृहस्य प्रशंसाके योग्य है ॥ १७ ॥ जिसके क्रोधादि विकारमाव विद्यमान हैं यह क्या देव हो सकता है ! अर्थात् वह कदापि देव नहीं हो सकता ! जहां प्राणियों के विषयमें मुख्य दया नहीं है वह क्या धर्म कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता । जिसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है वह क्या तप और गुरु हो सकता है ! नहीं हो सकता । जिस सम्पत्रिमेंसे पात्रोंके लिये दान नहीं दिया जाता है वह सम्पत्ति मया सफल हो सकती है। अर्थात् नहीं हो सकती ॥ १८ ॥ यदि मनुष्यके पास तीनों लोकोंको वशीभूत करनेके लिये अद्वितीय वशीकरणमंत्रके समान दान एवं व्रत आदिसे उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौन-से गुण है जो उसके दशमें न हो सके, वह कौन सा सुख है जो उसको प्राप्त न हो सके, तथा वह कौन-सी विभूति है जो उसके अधीन न होती हो ! अर्थात् धर्मात्मा मनुष्य के लिये सब प्रकारके गुण, उसम सुख और अनुपम विभूति भी स्वयमेव प्राप्त हो जाती है ॥ १९ ॥ एक मनुष्य के पास उत्तम पात्रके लिये दिये गये दानसे उत्पन्न हुए उन्नत पुण्यका समुदाय है, तथा दूसरे मनुष्पके पास राज्यलक्ष्मी विद्यमान है। फिर भी प्रथम मनुष्यकी अपेक्षा द्वितीय मनुष्य दरिद्र ही है, क्योंकि, उसके पास आगामी कालमें फल देनेवाला कुल भी शेष नहीं है । विशेषार्थ अभिप्राय यह कि मुखका कारण एक मात्र पुण्यका संचय ही होता है। यही कारण है कि जिस व्यक्तिने पात्रदानादिके द्वारा १साला! मधि । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [219:२२१219) दानाय यस्य न धनं न वपुर्वताय नैवं श्रुतं च परमोपशमाय नित्यम् । तझन्म केवलमलं मरणाय भूरिसंसारदुःखमृतिजात्तिनिवन्धनाय ॥२१॥ 220) प्राप्ते नृजन्मनि तपः परमस्तु जन्तोः संसारसागरसमुत्तरणैकसेतुः । मा भूविभूतिरिह बन्धनहेतुरेव देवे गुरौ शमिनि पूजनदानहीना ॥ २२॥ 221) भिक्षा वर परिहताखिलपापकारिकार्यानुबन्धविधुराधिसचित्तवृत्तिः । सत्पात्रदानरहिता विततोप्रदुःखदुर्लयदुर्गतिकरी न पुनर्विभूतिः ॥ २३ ॥ 222) पूजा न चेजिनपते पदपङ्कजेषु दान न संयतजनाय व भक्तिपूर्वम् । 'नो दीयते क्रिमु ततः सदनस्थितायाः शीघ्रं जलाअलिरगाधजले प्रविश्य ।। २४ ।। 223) कार्य तपः परमिह भ्रमता भवान्धौ मानुष्यजन्मनि चिरादतिदुःखलब्धे । संपद्यते न तवणुतिनापि भाव्यं जायेत चेदहरहः किल पात्रदानम् ॥ २५ ॥ लक्षम्याश्रितस्य । आगामिकालफलदायि किश्चित् न । अतः कारणात् पुण्यरावियुकः नरः श्रेष्ठः ॥ २०॥ यस्य श्रावकस्य : धनं दानाय न। यस्य श्राक्षकस्य वा मुनेः । वपुः शरीरं बताय न । एवम् अमुना प्रकारेण । यस्य धावकस्य 1 श्रुतं शानश्रवणम् । नित्यम् । उपशमाय उपशमनिमित्तं नाच पुनः। तस्य नरस्य जन्म मनुष्यपर्यायः। केवलम् अलम् अत्यधम् । मरणाय भवति। भरि-बहरू-संसारतुःखमृत्ति-मरण-जाति-निबन्धनाय कारणाय भवति ॥ २१॥ इह संसारे। अन्तोः जीवस्य । नृजन्मनि प्राप्ने सति । परं तपः मस्तु । किलक्षणं तपः । संसारसागरसमुत्तरणकसेतुः संसारतरणे प्रोहणम्। पुनः देवे गुरौ । शमिनि मुनौ । पूजनदानहींना विभूतिः मा भूत् । किंलक्षणा विभूतिः । बन्धनहेतुः कर्मबन्धनकारिणी ॥ २२ ॥ भिक्षा । पर श्रेष्ठम् । पुनः सत्पात्रदानरहिता विभूतिः न बरा न श्रेष्ठा । किं लक्षणा भिक्षा । परिहतात्यक्ता-अखिलपापकारिकार्यानुबन्ध-विधुराश्रितचित्तवृत्ति: मया सा । किंलक्षण विभूतिः । वितता विस्तीर्णा । उप्रदुःखदुर्लक्यदुर्गतिकरी पुनः विभूतिः न कार्या ॥ २३ ॥ चेत् जिनपतेः पदपरमेषु पूजा न क्रियते। च पुनः। संयतजनाथ मुनये । दानं भकिपूर्व न दीयते । ततः कारणात् । सदनस्थितायाः गृहस्थतायाः। शीघ्र जलाइलिः किमु नो दीयते । अपि तु हीयते । किं कृत्वा । अगाधनले प्रविश्य ।। २४ ॥ इह जगवि । भषाम्धौ संसारसमुद्रे । ऐसे पुण्यका संचय कर लिया है वह आगामी कालमें सुखी रहेगा। किन्तु जिस व्यक्तिने वैसे पुण्यका संचय नहीं किया है वह वर्तमानमें राज्यलक्ष्मीसे सम्पन्न होकर भी भविष्यमें दुःखी ही रहेगा ॥ २० ॥ जिसका धन दानके लिये नहीं है, शरीर व्रतके लिये नहीं है, इसी प्रकार शाखाभ्यास कषायोंके उत्कृष्ट उपशमके लिये नहीं है; उसका जन्म केवल सांसारिक दुःख, मरण एवं जन्मके कारणमूत मरणके लिये ही होता है ॥ विशेषार्थ-जो मनुष्य अपने धनका सदुपयोग दानमें नहीं करता, शरीरका सदुपयोग व्रतधारणमें नहीं करता, तथा आगममें निपुण होकर भी कषायोंका दमन नहीं करता है वह बार बार जन्म-मरणको धारण करता हुआ सांसारिक दुःखको ही सहता रहता है ।। २१ ॥ मनुष्यजन्मके प्राप्त हो जानेपर जीवको उत्तम तप ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, वह संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये अपूर्व पुलके समान है। उसके पास देव, गुरु एवं मुनिकी पूजा और दानसे रहित वैभव नहीं होना चाहिये; क्योंकि, ऐसा वैभव एक मात्र बन्धका ही कारण होता है ॥ २२ !! पापोत्पादक समस्त कार्योंके सम्बन्धसे रहित ऐसी चित्तवृत्तिका आश्रय करनेवाली मिक्षा कहीं श्रेष्ठ है, किन्तु सत्पात्रदानसे रहित होकर विपुल एवं तीव्र दुखोंसे परिपूर्ण दुर्लव्य नरकादिरूप दुर्गतिको करनेवाली विभूति श्रेष्ठ नहीं है ।। २३ ।। जिस गृहस्य अवस्थामें जिनेन्द्र भगवान्के चरण-कमलोंकी पूजा नहीं की जाती है तथा भक्तिपूर्वक संयमी जनके लिये दान नहीं दिया जाता है उस गृहस्थ अवस्थाके लिये अगाघ जलमें प्रविष्ट होकर क्या शीघ्र ही जलसंजलि नहीं देना चाहिये । अर्थात् अवश्य देना चाहिये ॥ २४ ॥ यहां संसाररूप समुद्रमें परिश्रमण करते हुए यदि चिर १२ क यः। २ कवभि। ३ श सा कायाः निलाक्षणा । ४ विवतविस्तीर्णाः, कवितविस्तीर्ण। Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -227 : २-२९] २. दानोपदेशनम् 224) प्रामान्तरं प्रजति यः स्वगृहाइहीत्या पाथेयमुलततरं स सुखी मनुष्यः। जन्मान्तरं प्रविशतोऽस्य तथा व्रतेन दानेन चार्जितशुभं सुखहेतुरेकम् ॥ २६ ॥ 225) यत्नः कृतोऽपि मदनार्थयशोनिमित्तं देवादिक्ष प्रजति निष्फलता कदाचित् । संकल्पमात्रमपि दानविधौ तु पुण्यं कुर्यादसत्यपि हि पात्रजने प्रमोबात् ॥ २७ ॥ 226) सद्मामते किल विपक्षजने ऽपि सन्तः कुन्ति मानमतुलं बसनासनाधैः । यत्तत्र चारगुणरत्ननिधानभूते पात्रे मुदा महति किं क्रियते न शिष्टः ॥२८॥ 227 ) सूनोर्मुतेरपि दिन न सतस्तथा स्याद् वाघाफर बन यथा मुनिदानशूम्यम् । __दुर्यारदुष्टविधिना न कृते हकार्ये पुंसा कृते तु मनुते मतिमाननिष्टम् ॥ २९ ॥ भ्रमता जीवन । चिरात् चिरकालम् । अतिदुःखेन लब्धे मानुष्यजन्मनि प्राप्ते सति । पर श्रेष्ठम् । तपः कार्य कर्तव्यम् । यदि । तत्तपः न संपयते । तदा । किल इति सत्ये। पात्रदानं जायेत भवेत् । सत्पात्रदानम् । अणुव्रतिना। बहः अहः दिन दिन प्रति । भाळ करणीयम् ॥ २५॥ यः कश्चित् । स्वगृहात्। उत्सत्तरग । पार्टी मुंबल । महीनशमन्तरं ब्रजति। स मनुष्यः सुखी भवति । तथा जन्मान्तरे प्रवासितः(1) भस्स जीवस्य चलितस्य अस्य प्राणिनः । व्रतेन । च पुनः । दानेम अर्जितं शुभं पुष्य संबलम् । एक सुखहेतुर्भवति ॥ २६ ॥ इह नरलोके । मदनार्थयशोनिमित्तं यनः कृतोऽपि । दैवात् कर्मयोगात् । स्वाचिनिष्फलता व्रजति । तु पुनः । हि यतः । दानविधी। प्रमोदात् दर्षात् । संकल्पमात्रमपि विकल्पम् । पुण्यं कुर्यात् । सति। अविद्यमानेऽपि दाने । असत्यपि हि पायजने । प्रमोदात् हर्षात् । संकल्पमात्रं कुर्यात् ॥ २७॥ किल इति सत्यै । यदि विपक्षजने शत्रुजने । समागते गृहागते सति । अपि । सन्तः साधवः । वचन-आसनायैः अतुलं मानं कुर्वन्ति । तत्र गृहे। महति गरिष्ठे। पाने आगते सति । शिटः सबनैः । मुदा हर्षेण | अतुल मानं किं न क्रियते। अपितु क्रियते । कि लक्षणे पात्रे। चारुगुणरमनिधानभूते रत्नत्रयमण्डिते ॥ २८ ॥षत इति खेदे । सतः सत्पुरुषस्य । सूनोः पुत्रस्य । मृतेः अपि दिनं मरणस्य दिनम् । तथा बाधाकर न स्यात् न भवेत् । यथा मुनिदामशल्यं दिन मुनिदानरहित दिनम् । सत्पुरुषस्य भाषाकर भवेत् । हि यतः । मतिमान नरः । दुरदुष्टविधिना कर्मणा । कृते अकार्ये । अनिष्ट दुःखं । न मनुते । । पुनः । पुंसा पुरुषेण । कृते अकायें। कालमें बड़े दुःखसे मनुष्य पर्याय प्राप्त हो गई है तो उसे पाकर उत्कृष्ट तप करना चाहिये । यदि कदाचित वह तप नहीं किया जा सकता है तो अणुवती ही हो जाना चाहिये, जिससे कि प्रतिदिन पात्रदान हो सके ।। २५ ॥ जो मनुष्य अपने गृहसे बहुत-सा नाश्ता (मार्गमें खानेके योग्य पकान आदि) ग्रहण करके दूसरे किसी गांवको जाता है वह जिस प्रकार सुखी रहता है उसी प्रकार दूसरे जन्ममें प्रवेश करनेके लिये प्रशस करनेवाले इस प्राणी के लिये व्रत एवं दानसे कमाया हुआ एक मात्र पुण्य ही सुखका कारण होता है ।॥ २६ ॥ यहां काम, अर्थ और यशके लिये किया गया प्रयल भाग्यवश कदाचित् निष्फल भी हो जाता है । किन्तु पात्र जनके अभावमें भी हर्षपूर्वक दानके अनुष्ठानमें किया गया केवल संकल्प भी पुण्यको करता है ॥२७ || अपने मकानमें शत्रु जनके भी आनेपर सज्जन मनुष्य पचन एवं आसनपदा नादिके द्वारा उसका अनुपम आदार-सत्कार करते हैं । फिर भला उत्तम गुणोंरूप रनोंके आश्रयभूत उत्कृष्ट पात्रके वहां पहुंचनेपर सज्जन हर्षसे क्या आदर-सत्कार नहीं करते हैं ? अर्थात् अवश्य ही वे दानादिके द्वारा उसका यथायोग्य सम्मान करते हैं ।। २८ ।। सज्जन पुरुषके लिये अपने पुत्रकी मृत्युका भी दिन उतना बाधक नहीं होता जितना कि मुनिदानसे रहित दिन उसके लिये बाधक होता है। ठीक है-दुर्निवार दुष्ट दैवके द्वारा कुत्सित कार्यके किये जानेपर बुद्धिमान् मनुष्य उसे अनिष्ट नहीं मानता, किन्तु पुरुषके द्वारा ऐसे किसी कार्यके किये जानेपर विवेकी प्राणी उसे अनिष्ट मानता है | विशेषार्थ-यदि किसी विवेकी मनुष्यके घरपर १-प्रतिपाठोऽयम् । मसितो। २ क पावे वानं। २ क क सवि असल्पपि। 'प्रमोदात् ...' इत्यादिपाठोत्र नारिख। Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [228: 2-40228) ये धर्मकारण समुल्ललिता विकल्पास्त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्याः । स्पृष्टाः शशाङ्ककिरणैरमृतं क्षरन्तन्द्रोपलाः किल लभन्त इह प्रतिष्ठाम् ॥ ३० 229) मन्दायते यद दानविधौ धने ऽपि सत्यात्मनो पति धार्मिकतां च यत् । माया हृदि स्फुरति सा मनुजस्य तस्य या जायते तडित्रमुत्र सुखावलेषु ॥ ३१ ॥ 230 ) सातवर्धमपि देयमथार्धमेव तस्यापि संततमणुवतिना यथा । इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सत्तमदानहेतुः ॥ ३२ ॥ अनिष्टं मनुते । सत्यम् ॥ २९ ॥ धनयुतस्यै घनवतः पुरुषस्य । ये विकल्पाः । धर्मकारणे समुचिताः उत्पन्नाः । ते विकल्पाः । त्यामेन दानेन । सत्याः सफलाः भवन्ति । किल इति सत्ये । यथा चन्द्रोपलाः चन्द्रकान्तमणयः । शशाङ्ककिरणैः चन्द्रकिरणैः स्पृष्टाः स्पर्शिताः । अमृतं क्षरन्तः । इद्द जगति । प्रतिष्ठां शोभाम् । लभन्ते ॥ ३० ॥ यः नरः । इह जगति संसारे । दानविधी । मन्दायते नियद्यमो भवति सति । धनेऽपि सति भने बिद्यमाने सति । यत् आत्मनः धार्मिकता वदति भई धर्मवान् इति कथयति । तत्तस्य मनुजस्य मरस्य । हृदि सा माया स्फुरति । या माया । अमुत्र मुखाचकेषु परलोकसुखपर्वतेषु । तद्ि विद्युत् जायते उत्पद्यते ॥ ३१ ॥ इह संसारे अणुव्रतिना गृहस्थेन प्रायः देयः । कस्मै । पात्राय । तस्य प्रासस्य अर्थ देयम् । यथाशकि । तस्य प्रासार्थस्यापि अर्थ यथा यथाशधि देयम् । अत्र लोके इच्छानुरूपं द्रव्यं कस्य कदा पुत्रका मरण हो जाता है तो यह शोकाकुल नहीं होता है । कारण कि वह जानता है कि यह पुत्रवियोग अपने पूर्वोपार्जित कर्मके उदयसे हुआ है जो कि किसी भी प्रकारसे टाला नहीं जा सकता था । परन्तु उसके यहां यदि किसी दिन साधु जनको आहारादि नहीं दिया जाता है तो वह इसके लिये पश्चाताप करता है। इसका कारण यह है कि वह उसकी असावधानीसे हुआ है, इसमें देव कुछ बाघक नहीं हुआ है । यदि वह सावधान रहकर द्वारापेक्षण आदि करता तो मुनिदानका सुयोग उसे प्राप्त हो सकता था ॥ २९ ॥ धर्मके साधनार्थ जो विकल्प उत्पन्न होते हैं वे धनवान् मनुष्यके दानके द्वारा सत्य होते हैं। ठीक हैयहां प्रतिष्ठाको प्राप्त होते हैं ॥ विशेषार्थचन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंसे स्पर्शित होकर अमृतको बहाते हुए। अभिप्राय यह है कि पात्र के लिये दान देनेवाला श्रावक इस भवमें उक्त दानके द्वारा लोकमें प्रतिष्ठाको प्राप्त करता है । जैसे- चन्द्रकान्त मणिसे निर्मित भवनको देखते हुए भी साधारण मनुष्य उक्त चन्द्रकान्त मणिका परिचय नहीं पाता है। किन्तु चन्द्रमोका उदय होनेपर जब उस भवन से पानीका प्रवाह बहने लगता है तब साधारणसे साधारण मनुष्य भी यह समझ लेता है कि उक्त भवन चन्द्रकान्त मणियोंसे निर्मित है । इसीलिये वह उनकी प्रशंसा करता है। ठीक इसी प्रकारसे विवेकी दाता जिनमन्दिर आदिका निर्माण कराकर अपनी सम्पत्तिका सदुपयोग करता है । वह यद्यपि स्वयं अपनी प्रतिष्ठा नहीं चाहता है फिर भी उक्त जिनमन्दिर आदिका अवलोकन करनेवाले अन्य मनुष्य उसकी प्रशंसा करते ही हैं । यह तो हुई इस जन्मकी बात । इसके साथ ही पात्रदानादि धर्मकार्यों के द्वारा जो उसको पुण्यलाभ होता है उससे वह पर जन्ममें भी सम्पन्न व सुखी होता है ॥ ३० ॥ जो मनुष्य घनके रहनेपर भी दान देनेमें उत्सुक तो नहीं होता, परन्तु अपनी धार्मिकताको प्रगट करता है उसके हृदयमें जो कुटिलता रहती है वह परलोकमें उसके सुखरूपी पर्वतों के विनाशके लिये बिजलीका काम करती है ॥ ३१ ॥ अणुव्रती श्रावकको निरन्तर अपनी सम्पत्तिके अनुसार एक ग्रास, आधा ग्रास अथवा उसके भी आघे भाग अर्थात् प्रासके चतुर्थीशको भी देना चाहिये। कारण यह कि यहां लोकमें अपनी इच्छानुसार द्रव्य किसके किस समय होगा जो कि उत्तम पात्रदानका कारण 1 १ क यथार्थम् च वन्युतस्य ३ व अमात्य अपि अर्थ यथामति । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --888 : २-१५ २. पामोपदेशन 231) मिथ्यावशो ऽपि सचिरेष मुनीन्द्रवाने पचात् पशोरपि हि जन्म सुमोगभूमी। कल्पारिपा दवति यत्र लदेपिसतानि सर्वाणि तब विदधाति न कि सुहष्टेः ॥ ३३॥ 232) मान सम्माइने मनीण तयोग्यसपदि हामिमुले व पात्रे । प्राप्त खनावतिमहार्यतेर विहाय रकं करोति विमतिलभूमिमेवम् ॥ ३४॥ 283) नया मणीरिव चिराजलधौ भवे ऽसिमासाच चाहनरतार्थ जिनेश्वराक्ष दान न यस्य स जना प्रविशेत् समुद्र सच्छिद्रनावमषिवध ग्रहीतरकः ॥ ३५॥ भविष्यति । [इति] जानाति । समदानहेतुः उत्तमवानयोम्यं द्रव्यं कदा भविष्यति ॥ ३२ ॥ यतः। मिप्यारशः पशोः भपि मुनीन्द्रदाने रुतिः । एव निश्चयेन । एभोगभूमौ । अन्म उत्पत्तिः । दधात् कर्यात् । भपि। यत्र भोगभूमौ । पाधिपाः कल्पाक्षाः। सदा सर्वदा । सर्वाणि । ईप्सितानि वाणिशानि फलानि । ददति प्रयच्छन्ति । तत्र मोगभूमौ । सुरः भन्यजीवस्य । सर्व वाष्पितफलम् । किन विदयातिन करोति । भपितु विदधाति ॥ ३४॥ यस्य परस्य वारकरस्य । मनीषा इदि । दानाम । न समुसहते वरसाई न करोति । क सल्याम् । तयोरसंपवि सत्या तस्स दानप योम्मा या संपत् सा तस्मा सोम्योपदि । क सति । व पुनः । पात्र उमापारे । गृहाभिमुरे सति गईसन्मुखे वागते सति । यो वान' गयादि । स विमतिः मूढः । सनौ भाकरे। मतिम हार्यतरे पाहुमूल्यम् । र प्राप्तम् । बिहाम त्यत्वा । तमभूमिभेद करोति ॥ १४ ॥ अस्थिम् भवे संसारे। पार-मनोशा-भरता-मनुष्यपद-ग-अग्य-जिनेश्वरमाहाम भासाद्य प्राप्य । चिरात् । जलधौ समुदे । नहा मणीः इव यथा दुर्लभा तथा नरत दुर्लमम् । यस्य पान न सका ग्रहीतरमः । समिछानावम् हो सके, यह कुछ कहा नहीं जा सकता है ॥ विशेषार्थ-जिनके पास अधिक द्रव्य नहीं रहता ये प्रायः विचार किया करते हैं कि जब उपयुक्त धन प्राप्त होगा तब हम दान करेंगे। ऐसे ही मनुष्योंको लक्ष्य करके यहां यह कहा गया है कि प्रायः इच्छानुसार द्रव्य कमी किसीको भी प्राप्त नहीं होता है । अत एव अपने पास जितना भी द्रव्य है तदनुसार प्रत्येक मनुष्यको प्रतिदिन थोड़ा-बहुत दान देना ही चाहिये ॥ ३२ ॥ मिप्याष्टि पशुकी मी मुनिराजके लिये दान देने में ओ केवल रुचि होती है उससे ही वह उस उत्तम भोगभूमिमें जन्म लेता है जहांपर कि कल्पवृक्ष सवा उसे सभी प्रकारके अभीष्ट पदार्थोंको देते हैं। फिर मला यदि सम्यादष्टि उस पात्रदानमें रुचि रक्खे तो उसे क्या नहीं प्राप्त होता है ! अर्थात् उसे तो निश्चित ही वांछित फल प्राप्त होता है ॥ ३३ ॥ दानके योग्य सम्पत्तिके होनेपर तथा पात्रके भी अपने गृहके समीप आ जानेपर जिस मनुष्पकी बुद्धि दानके लिये उत्साहको प्राप्त नहीं होती है वह दुर्मुद्धि खानमें प्राप्त हुए अतिशय मूल्यवान् रलको छोड़कर पृथिवीके तलभागको व्यर्थ खोदता है ।। ३४ ! चिर कालसे समुद्र में नष्ट हुए मणिके समान इस मवमें उत्तम मनुष्य पर्याय, धन और जिनवाणीको पाकर जो दान नहीं करता वह मूर्ख रत्नोंको ग्रहण करके छेदवाली नावमें चढ़कर समुद्र में प्रवेश करता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार समुद्रमें गये हुए मणिका फिरसे प्राप्त होना अतिशय कठिन है उसी प्रकार मनुष्य पर्याय आदिका भी पुनः प्राप्त होना अतिशय कठिन है। वह यदि भाग्यवश किसीको प्राप्त हो जाती है, और फिर भी यदि वह दानादि शुम कार्योंमें प्रवृत्त नहीं होता है तो समझना चाहिये कि जिस प्रकार कोई मनुष्य बहुमूल्य रोको साथमें लेकर सच्छिद्र नावमें सवार होता है और इसीलिये वह उन रत्नोंके साथ स्वयं भी समुद्र में डूब जाता है, इसी प्रकारकी अवस्था उक्त मनुष्यकी भी होती है। कारण कि भविष्य सुखी होनेका साधन जो दानादि कार्योसे उत्पन होनेवाला पुण्य था उसे प्रतिपाठोऽपम् । नापति महायता । २-प्रतिपाठोऽयम् । विनेषराशा, बजिनेश्वराजा ।। गो। ४पाने । ५बिनेश्वरमावा. कविनेश्वराया। Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ VA पचनन्दि-पशितिः 1234:-- 234) यस्यास्ति नो घमवतः किल पात्रदानमसिम् परत्र व मवे पशले मुखाय । अन्येन फेमचिदन्नसुपुण्यमाजा शितःस सेवकनरोधमरक्षनाथ ३६॥ 235) चैत्यालये जिमसरिखुधार्यमे व दाने व संयतमनस्य सुदुःखिते। पश्चात्मनि स्वभुपयोगि तदेव नूममारमीयमन्यविद कस्यचिदन्यपुंसः ॥ ३७ ॥ 236 ) पुण्यक्षयारक्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरसः कुक्त संतप्तपात्रदानम् । कृपेम पश्यत जाले गृहिणः समन्तादारुष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम् ॥ ३८॥ 237 ) सर्वान गुणानिह पर वहन्ति लोभः सर्षस्य पूज्यजनप्मनहानिहेतुः।। मन्यत्र तत्र विहिते ऽपि हि दोषमानमेकत्र जन्मनि परे प्रययन्ति लोकाः ॥ ३९॥ अधिरुह्य भारुयं पठित्वा । समुई प्रविशेत् ॥ ३५ ॥ किल इति शानोको लोकोको भूयते । यस्य धनवतः पुत्रस्म । पात्रदान न मस्ति । यस्पात्रदानम् । अस्मिन् भने पर्याये । यायसे वशोनिमितं भवति । परत्र अन्यमवे सुखाय भवति । स अदः । अन्येन नचित् । अनूनसुपुण्यभाजा पूर्णपुण्ययुकेन । धमरक्षणाय मदतः सेवकनरः । क्षिप्तः स्थापितः॥३६॥ इह लोके यत् खं बम्बम् । पैसामन्ये चैत्यालयनिमित्तं भवति । च पुनः । यद्भाव्यं जिनसूतिपुधार्थने देवगुरुशास्त्रार्थने पूजानिमितं भवति । पुनः। संगतजनस्य दाने दाननिम्मित भवति । य पुनः । सदमिते बने । मध्यम । भात्मनि आत्मनिमिते उपयोगि वाशितजना मारमनिमितं भवति । नूनं तदेव इष्पम् आत्मीयम् । यत् अन्यत् इव्यम् । दानाय म भुजये न ताम्यम् । कस्पचित अन्यपुंसः अन्यपुस्खस्स विदि ॥ ३७॥ मो गृहिणः भो गृहस्थाः । लक्ष्मीः पुण्यश्चात् पुण्यविनाशात् । क्षयं माशम् । उपैति । सूक्ष्मीः रमाना बिनाशम्।। उपैसि न गच्छति। अतः कारणात् । संततं निरन्तरम् । पात्रदानं कुरुत। मो लोकाः । कूपे पविषये। जले न पश्यत समन्तात् माकम्पमाणम् अपि । निस्य सदैव । वर्षते । एघ निश्चयेन ॥ ३८॥ भो लोकाः भूपताम् । इह जन्मनि । र पुनः । पत्र उसने मनुष्य पर्यायके साथ उसके योग्य सम्पतिको पाकर भी किया ही नहीं है ॥ ३५ ॥ जो पात्रदान इस मवमें यशका कारण तथा परमयमें सुखका कारण है उसे ओ धनवान् मनुष्य नहीं करता है वह मनुष्य मानो किसी दूसरे भतिशय पुण्यशाली मनुष्यके द्वारा धनकी रक्षाके लिये सेवकके रूपमें ही रखा गया है ।। विशेषार्थ-यदि भाम्यवश्व धन-सम्पत्तिकी प्राप्ति हुई तो उसका सदुपयोग अपनी योग्य आवश्यकताकी पूर्ति करते हुए पात्रदानमें करना चाहिये । परन्तु जो मनुष्य प्राप्त सम्पछिका न तो स्वयं उपभोग करता है और न पात्रदान भी करता है वह मनुष्य अन्य नयान मनुष्यके द्वारा अपने धनकी रक्षार्थ रखे गये दासके ही समान है । कारण कि जिस प्रकार धनके रक्षणार्थ रखा गया दास (मुनीम आदि) स्वयं उस धनका उपयोग नहीं कर सकता, किन्तु केवल उसका रक्षण ही करता है; ठीक इसी प्रकार वह धनवान् मनुष्य मी अब उस धनको न अपने उपभोगमें खर्च करता है और न पात्रदानादि भी करता है तब भला उक्त दासकी अपेक्षा इसमें क्या विशेषता रहती है। कुछ भी नहीं ॥ ३६ ॥ लोकमें जो धन जिनालयके निर्माण करानेमें; जिनदेव, आचार्य और पण्डित अर्थात् उपाध्यायकी पूजाम; संयमी जनोंको दान करनेमें, अतिशय दुःखी प्राणियोंफो मी दयापूर्वक दान करनेमें, तथा अपने उपमोगमें भी काम आता है; उसे ही निश्चयसे अपना धन समझना चाहिये । इसके विपरीत जो धन इन उपर्युक कामोंमें खर्च नहीं किया जाता है उसे किसी दूसरे ही मनुष्यका धन समझना चाहिये ॥ ३७॥ सम्पत्ति पुण्यके क्षयसे क्षयको प्राप्त होती है, न कि दान करनेसे । अत एव हे श्रावको ! आप निरन्तर पात्रदान करें। क्या आप यह नहीं देखते कि कुएंसे सब ओरसे निकाला जानेवाला भी जल नित्य बढ़ता ही रहता है ॥ ३८ ॥ पूज्य जनोंकी पूजामें बाधा पहुंचानेवाला लोम इस लोकमें और परलोकमें भी सबके समी संयतजनस्य च दाने। Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दानोपदेशनम् 238) जातो ऽप्यजात इव स प्रियमाश्रितो ऽपि रङ्गः कलङ्करहितो ऽप्यगृहीतनामा । कम्बोरिवाश्रितमृतेरपि यस्य पुंसः शब्दः समुचलति नो जगति प्रकामम् ॥ ४० ॥ 239) वापि क्षितेरपि विभुर्जठरं स्वकीयं कर्मोपनीतविधिमा विदधाति पूर्णम् । किंतु प्रशस्यनुभवाविवेकितानामेतत्फलं यदिह संवतपात्रदानम् ॥ ४१ ॥ 240 ) आयासकोटिभिरुपार्जितमङ्गजेभ्यो यजीवितादपि निजाहयितं जनानाम् । वित्तस्य तस्य मितं विहाय या विपतय इति प्रवदन्ति सन्तः ॥ ४२ ॥ -240:2-42] परजन्मनि। लोमः। सर्वस्य यतेः वा सबैस्य जनस्य । सर्वान् गुणान् हन्ति स्फेटयति । किंलक्षणः लोभः । ज्जभपूजनहानिहेतुः उत्तमजन पूजन हानिहेतुः । अन्यत्र धर्मे (!)। तत्र तस्मिन् लोमे । विहितेऽपि कृतेऽपि । भो लोकाः । परं केवलम् । एकत्र जन्मनि दोषमात्रम् । प्रथयन्ति विस्तारयन्ति ॥ ३९॥ स पुमान् जातः उत्पन्नः । अपि । अजातः अनुत्पञ्चः । स पुमान् श्रियम् आश्रितोऽपि रहः । स पुमान् कडरहितोऽपि अगृहीतनामा निर्नामा सः । यस्य पुंसः पुरुषस्य शब्दः जगति विषये । प्रकामम् अत्यर्थम् । भो समुचलति । कस्य इव । कम्पोः इव शङ्खस्य इव । किंलक्षणस्य शङ्खस्य । आश्रितभृतेः जीवरहितस्य ॥ ४० ॥ श्रा अपि कुर अपि । कर्मोपनीत विधिना कर्मनिर्मित विधानेन । स्वकीय [ जठरं ] उदरम् । पूर्ण करोति । क्षिके भुवः । विभुः अपि राजा । स्वकीयं जठरं कमपनीतविधिना स्वार्जितकर्मणा । पूर्णम् । विदधाति करोति। किंतु इड् जगति विषये । प्रशस्पनुभव - श्रेष्ठमनुष्यपद - अर्थ-व्य-विवेकितानां विवेकानाम् । एतत्फलम् । यत् । संततं निरन्तरम् । पात्रदानं क्रियते ॥ ४१ ॥ मो भव्याः । तस्य उपार्जितवित्तस्यै नियतं निखितम् । वानम् । प्रविहाय त्यक्त्वा । अन्या विपत्तयः । सन्तः साधवः । इति । प्रमदन्ति कथयन्ति यत् इष्मम् आयास- प्रवास कोटिभिः उपार्जितम् । यत् द्रव्यम् । जनानां लोकानाम् । मनसेभ्यः पुत्रेभ्यः गुणोंको नष्ट कर देता है । वह लोग यदि गृह सम्बन्धी किन्हीं विवाहादि कार्योंमें किया जाता है तो लोग केवल एक जन्ममें ही उसके दोषमात्रको प्रसिद्ध करते हैं | विशेषार्थ-यदि कोई मनुष्य जिनपूजन और पात्रदानादिके विषयमें लोभ करता है तो इससे उसे इस जन्म में कीर्ति आदिका लाभ नहीं होता, तथा भवान्तर में पूजन-दानादिसे उत्पन्न होनेवाले पुण्यसे रहित होनेके कारण सुख भी नहीं प्राप्त होता है। इस प्रकार जो व्यक्ति धार्मिक कार्यों में लोभ करता है वह दोनों ही लोकोंमें अपना अहित करता है। इसके विपरीत जो मनुष्य केवल विवाहादिरूप गार्हस्थिक कार्योंमें लोभ करता है उसका मनुष्य कृपण आदि शब्दक द्वारा केवल इस जन्ममें ही तिरस्कार कर सकते हैं, किन्तु परलोक उसका सुखमय ही वीतता है । अत एव गाईस्थिक कामों में किया जानेवाला लोभ उतना निन्ध नहीं है जितना कि धार्मिक कामोंमें किया जानेवाला लोभ निन्दनीय है ॥ ३९ ॥ मृत्युको प्राप्त होनेपर शंखके समान जिस पुरुषका नाम संसारमें अतिशय प्रचक्ति नहीं होता वह मनुष्य जन्म लेकर भी अजन्मा के समान होता है अर्थात् उसका मनुष्य जन्म लेना ही व्यर्थ होता है । कारण कि यह लक्ष्मीको प्राप्त करके भी दरिद्र जैसा रहता है, तथा दोषोंसे रहित होकर भी यशस्वी नहीं हो पाता ॥ ४० ॥ अपने कर्मके अनुसार कुत्ता भी अपने उदरको पूर्ण करता है और राजा भी अपने उदरको पूर्ण करता है । किन्तु प्रशंसनीय मनुष्यभव, धन एवं विवेकबुद्धिको प्राप्त करनेका यहां यही प्रयोजन है कि निरन्तर पात्रदान दिया जाये || ४१|| करोड़ों परिश्रमोंके द्वारा कमाया हुआ ओ धन पुत्रों और अपने जीवनसे भी लोगों को अधिक प्रिय होता है निश्वयसे उस धनके लिये दानको छोड़कर जन्य सब विपत्तियां ही हैं, ऐसा साधुजन कहते हैं। विशेषार्थ मनुष्य भनको बहुत कठोर परिश्रमके द्वारा प्राप्त करते हैं । इसीलिये वह उन्हें अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय प्रतीत होता है। यदि वे उसका सदुपयोग ४ जनाकोटिभिः । १ बेला टीका बाि २ कुरः। 9 Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पअनन्दि-पचार्विशतिः 24 241) मा पदास्पदमपि मजति त्वदीयो ग्यावर्तते पिषनामनु बन्धुवर्गः । दीधै पथि प्रयसतो भवतः सबैकं पुण्य भविष्यति ततः क्रियतां तदेव ॥४३॥ 242) सौभाग्यशौर्यसुखरूपरिवेकिताद्या विद्यावधनगृहाणि कुलं च जन्म । संपचते ऽखिलमिर्ष किल पात्रवानात् तस्मात् किमत्र सततं क्रियते न यतः ॥४४॥ 249) म्यासस समय करमहणं च सूनोरथेम तापदिह कारमितव्यमास्ते। धर्माय दानमधिकाग्रतया करिष्ये संचिन्तयमपि गृही मृतिमेति मूढः ॥ ४५ ॥ 244) किं जीवितेन रुपणस्य मरस्य लोके निर्भोगदामधनबन्धमबद्धमूर्तेः । तस्मादरं बलिभुगुमतभूरियाग्मियातकाककुल एवं बलिं स मुझे ४६ ॥ सकामातू । दवित बालभम् । निजात् जीविताह मपि । दमित वामम् । तस्य व्यस्य दानं फलं श्रेष्ठम् ॥४१॥ ननु अहो । स्वदीयः सायकः । भर्षः पदात्पदमपिन ब्रजति। स्वकीयः बभुवर्गः पितृवनात् मावर्तते । भवतः तव। एक पुण्य सही भविष्यति । किलक्षणस्य भवतः । स । पथि भागें। प्रवसतः भन्यगतिमार्गे चलितस्प पुण्य मित्रं भविश्यति । ततः तदेव पुण्य क्रियताम् ॥ ४३ ॥ किल इति सले। इदम् अखिलं पात्रदानात् । सपचते उत्पद्यते । इदं किम् । सौभाग्यशौर्य-बलसुखरूपविवेकवाचा विधावःमगृहाणि। य पुनः। कुळे जन्म इत्यादि । तस्मात् । अत्र पात्रमाने । सततं निरन्तरम् । यकिन क्रियते ॥४|| इह संसारे। मूतः गृही। इति संचिन्तयन् मृति मेरणम्। एति गरछति। इति किम् । तावत् प्रथमतः । एतेन भर्थेन । न्यास: निक्षेपः । एवेन अर्थेन सम गृहम् । च पुनः । एतेन अर्थेन सूनोः करप्रवर्ण पुत्र विवाह कारितम्यम् बाखे। अभिकायतया धर्माय दानं करिष्ये इविं चिन्तयन् मरणम् एति गच्छति ॥ ४५ ॥ इह लोके संसारे । कृपणस्य नरस्य जीविटेन किम् । म किमपि । किरक्षणस्य कृपणस्य । निर्भोगदान-भोगरहित-दानरहित-धन-सन्धनबद्धमः भदत्तमुर्तेः । तस्मात् । रुपणनरात् । पविभुक काकपक्षी । वर श्रेष्ठम् [श्रेष्ठः । स काकः उन्नतभूनिवाग्भिः भूरिलचनैः । म्याहूतकाकुलः आइतबार antaramanna पात्रदानादिमें करते हैं तब तो वह उन्हें फिरसे भी प्राप्त हो जाता है। किन्तु इसके विपरीत यदि उसका दुरुपयोग दुर्व्यसनादिमें किया जाता है, अथवा दान और भोगसे रहित केवल उसका संचय ही किया जाता है, तो वह मनुष्योंको विपत्तिजनक ही होता है । इसका कारण यह है कि सुखका कारण जो पुण्य है उसका संचय उन्होंने पायदानादिरूप सत्कायोंके द्वारा कभी किया ही नहीं है ।। ४२ ।। तुम्हारा धन अपने स्थानसे एक कदम भी नहीं जाता, इसी प्रकार तुम्हारे बन्धुजन श्मशान तक तुम्हारे साथ जाकर वहाँसे वापिस आ आते हैं। लंबे मार्गमें प्रवास करते हुए तुम्हारे लिये एक पुण्य ही मित्र होगा । इसलिये हे भव्य जीव ! तुम उसी पुण्यका उपार्जन करो ॥ ४३ ॥ सौभाम्य, शूरवीरता, सुख, सुन्दरता, विवेकबुद्धि आदि, विधा, शरीर, धन और महल तथा उत्तम कुलमें जन्म होना; यह सब निश्चयसे पात्रदानके द्वारा ही प्राप्त होता है। फिर हे भव्य जन ! तुम उस पात्रदानके विषयमें निरन्तर प्रयक क्यों नहीं करते हो ! ॥४॥ प्रथमतः यहां धनसे कुछ निक्षेप, (भूमिमें रखना), भवनका निर्माण और पुत्रका विवाह करना है; तत्पश्चात् यदि अधिक धन हुआ तो धर्मके निमित्त दान करूंगा । इस प्रकार विचार करता हुआ ही यह मूर्ख गृहस मरणको प्राक्ष हो आता है॥४५॥ लोकमें जिस कंजूस मनुष्यका शरीर भोग और दानसे रहित पेसे धनरूपी बन्धनसे बंधा हुआ है उसके जीनेका क्या प्रयोजन है ! अर्थात् उसके जीनेसे कुछ भी काम नहीं है । उसकी अपेक्षा तो वह कौवा ही अच्छा है जो उन्नत बहुत वचनों (कांव कांव) के द्वारा १ शभभिमाव तथा। २ क चिन्तबन् मूर्ति । ५ श एक सखा। ४ - 'मपि तु क्रियते' इत्यधिकः पाठः । ५ संचिन्तयन् सन् मूर्ति। ६शकरमरण करिये पुजाक मरणं गच्छति। नामानित । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -3483 ] २. पानोपवेशनम् 245) भौवार्ययुक्तजनहस्तपरम्परातल्यावर्तनप्रपतवमरातिलिभार। अर्था पताः कृपणहमनन्तसौल्यपूर्णा यानिशमबापमतिस्वपन्ति ॥ ७ ॥ 246) उस्कापात्रमनगारमणुनताख्यं मध्य प्रतेन रहित सुदर्श समयम् । निदर्शनं नवनिकाययुत कुपाचं युग्मोजिसवं नरमपात्रमिदं च विवि ॥४८॥ 247 ) तेभ्यः प्रचमिह वामफलं जमानामेतविशेषणविशिष्टमदुएभावात् । अन्याहशे ऽथ हदये तदपि खमावाबुवाषवं भवति किं पहुमिचोमिः ॥४९॥ 248) स्वारि धान्यमयभेषभुकिशानदानानि ताने कषितानि महाफलानि ।। नाम्यानि गोकनकभूमिरयागनादिदामानि निमितमवयकराणि यमात् ॥ ५० ॥ सम् । बलि भुढे बलिभोजन करोति ॥ ६ ॥ अर्थाः रूपणगेई गताः । विलक्षणा अर्थाः । औदार्ययुक्तजनहस्तपरम्परा:-- भागम-म्पावर्तन-प्यापुम्नप्रसतणेदभरेण अतिखिमाः कृपभगेहम् । नार्थ सदारहितम् । भनिर्श सपन्ति । मनन्तसौरवपूर्णा व ॥ ४० ॥ इदम् पनगारम् उत्कृष्टपात्रं विधि मुनीम उत्तापात्र विति । मधुमवेन भाव मत मलमपात्र बानीहि । व्रतेन रहितं [ मदर्स ] दर्शनयुकं जपन्यपात्र आनीहि । निर्वर्शन दर्शनरहितम् । मतैनिकाययुतं व्रतसमूहसहितम् । अपात्र जानीहि । मुमोजिमात मर दर्शनरहित प्रतरहितम् । अपाय विमि जानाहि ।। ४८ ॥ रह जगति संसारे । तेभ्यः पूर्वोचपात्रेभ्यः । तम् अक्षम् । अनागो लोकानाम् । दानफल भवति । एतद्विशेषगविशिक्षा अयुष्टभावारप्रदत्तम् 1 उपात्रात् सरसफलम् । मप्परपात्रात् मध्यमफलम् । अघन्धपात्राजघन्यफलम् । कुपात्रात् कुत्सितफलम् । अपात्रात् अफलम् । मष भन्मादये। खभावात् खस मारममो भादः खमायः तस्मात् खमावात् । तदपि दानम् । चारवम् भनेकप्रकारम् । भवति । यो भनेकप्रकार स्तं भवति । बहुमिः मनोमिः किम् ॥४॥ यानि बसार अभयमेषजभुफिशावदामानि तानि महाफलानि कषितानि । निधितम् मन्यानि गोकनक-खण-भूमि-रव-गाना-नी-मादि-दामानि महाफलवायकानि न भवन्ति । सम्बत् । मायकसपि अन्य कौओंके समूहको बुलाकर ही बलि (बाद में अर्पित द्रव्य ) को खाता है ।।४६॥ वानी पुरुषों के हाथों द्वारा परम्परासे प्राप्त हुए जाने-आनेके विपुल खेदके मारसे मानो अत्यन्त व्याकुल होकर ही वह धन कंजूस मनुष्यके घरको पाकर अनन्त-सुखसे परिपूर्ण होता हुआ निरन्तर निर्वावस्वरुपसे सोता है ।। विशेषार्थ- दानी जन प्रास धनका उपयोग पात्रदानमें किया करते हैं । इसीलिये पात्रदानजनित पुण्यके निमित्तसे वह उन्हें मार बार प्राप्त होता रहता है । इसके विपरीत कंजूस मनुष्य पूर्व पुण्यसे प्राप्त हुए उस धनका उपयोग न तो पात्रदान करता है और न निजके उपमोगमें मी, यह केवल उसका संरक्षण ही करता है। इसपर अन्धकार उठोक्षा करते हैं कि वह घन यह सोच करके ही मानो कि "मुझे दानी जनोंके यहां बार बार जाने-आनेका असीम कष्ट सहना पड़ता है' कंजूस मनुष्यके घरमें आ गया है। यहां आकर वह बार बार होनेवाले गमनागमनके कष्टसे बचकर निश्चिन्त सोता है ॥४७॥ गृहसे रहित मुनिको उत्तम पात्र, अणुप्रतोंसे युक्त श्रावकको मध्यम पात्र, अविरत सम्यदृष्टिको जपन्य पात्र, सम्यग्दर्शनसे रहित होकर व्रतसमूहका पालन करनेवाले मनुष्यको कुपात्र, तशा दोनों ( सम्यग्दर्शन और व्रत ) से रहित मनुष्यको अपात्र समझो ॥ ४८ ॥ उन उपयुक्त पात्रोंके लिये दिये गये दानका फल मनुष्यों को इन्हीं (उच्चम, मध्यम, जघन्य, कुरिसत और अपात्र ) विशेषणोंसे विशिष्ट प्राप्त होता है ( देखिये पीछे श्लोक २०४ का विशेषार्थ) { अथवा बहुत कहनेसे क्या ! अन्य प्रकारके अर्थात् दूषित हृदयमें भी वह दानका फल स्वभावसे अनेक प्रकारका प्राप्त होता है ।। ४९ ।। अभयदान, औषपदान, आहारदान और शाल (ज्ञान ) दान ये जो चार दान कहे गये हैं वे महान् फलको देनेवाले हैं । इनसे मिन्न गाय, सुवर्ण, १को योचनं। २ मा निदर्शनं । । मुगमेक्सितं वसनं। ४ बिना। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ nanAmAnanArinandamrimmoranranamannamanna पसनन्दि पञ्चविंशतिः 249) यहीयते जिनगृहाय धरादि किंचित् तत्तत्र संस्कृतिनिमितमिह प्रकृतम् । आस्ते ततस्तदतिदीर्घतर हि कालं जैनं च शासनमतः समस्ति यातुः ॥५१॥ 250) दानप्रकाशनमशोभनकर्मकार्यकार्पण्यपूर्णहवयाय न रोचते ऽदः। दोषोजिम सकललोकसुखप्रदायि तेजो रवरिष सदा हतकौशिकाय ।। ५२ ॥ 251) दानोपदेशनमिदं कुरुते प्रमोदमासनमव्यपुरुषस्य न घेतरस्य। जातिः समुल्लति पार न भूसंगादिन्दीवरं हसति चन्द्रकरैर्न चाइमा ॥ ५३॥ 282 ) रसत्रयाभरणवीरमुनीन्द्रपादपायलरणसंजनितप्रभावः। श्रीपनन्दिमुनिराश्रितयुग्मदानपञ्चाशतं ललितवर्णचर्य चकार ॥ ५४॥ पापकारकाणि ॥ ५० ॥ यत् किंचित परादिः । जिनगृहाय चैत्यालयनिमित्तम् । शेयठे । तसरादिकम् । तत्र चैस्यालये । संस्कृतनिमितम सपकरणादिनिमित्तम् (१)। तत् उपकरणादिकम् । इह जगति । प्ररूले प्रादुर्भूत प्रकटम् । भाते तिष्ठति । ततः चैत्यालयात् । हि यतः । जनै शासनम् । भतिवीर्षतरं कालम् । मास्ने वर्तते । अतः कारणात् । तत् जैन शासनै दातुः कृतम् पति । जैनं शासन. दात्रा निर्मापित वर्तते ॥ ५१ ॥ अक्ष दानप्रकाशनम् । अशोभनकर्मकार्य पापकर्मकार्य कापण्यं च ताभ्यां पूर्ण दयं यस्य सः तस्मै अशोभनकर्मकार्यकार्पण्यपूर्णहृदयाय अदत्ताय । न रोचते कृपणस्य नरस्य म रोचत इस्पर्षः 1 किलक्षणं दानप्रकायानम् । दोषेण उजिमतं रहितम् । पुनः किलक्षणं दानप्रकाशनम् । सकललोकसुखप्रदायि । यश सदा इतकौशिकाय नियोलकाय । रवेः सूर्यस्य तेज इव न रोचते। तथा कृपणस्य दान न रोचते ॥५२॥ इदं दानोपदेशनम् आसन्नभव्यपुरुषस्य । प्रमोदम् मानन्दम् । कुरुते । च पुनः । इतरस्म पूरभव्यस्य । प्रमोदं न कुरुते । यथा भूसंगात् । जातिः आतिपुष्पम् । समुहमति । दाइ काठम् । म समाजसति । यथा चन्द्रकरैः चन्द्रकिरणैः । इन्दीवर कुमुदम् । हसति । न चास्मा पाषाणः न हसति ॥५३॥ श्रीपयनन्दिमुनिः आश्रितयुममदानपञ्चाशतं चकार । लोकद्वयाधिकपाशतं दानप्रकरण चकार अकरोत् । किलक्षण: मुनिः । रमत्रयामरणयुकवीरमुनीन्द्रः तस्य वीरमुनीन्द्रस्य पादपप्रवयस्मरणेन संजनितप्रभावो यस्मिन् सः। किलक्षणं दानपाचापतम् । ललितवर्णचर्य ललित-अक्षरयुक्तम् ॥ ५४ ॥ इति श्रीवानपञ्चाशत् समाप्तम् ॥ पृथिवी, रथ और सी आदिके दान महान् फलको देनेवाले नहीं हैं। क्योंकि, वे निश्चयसे पापोत्पादक हैं ॥५०॥ जिनालयके निमित्त जो कुछ पृथिवी आदिका दान किया जाता है वह यहां धार्मिक संस्कृतिका कारण होकर अंकुरित होता हुआ अतिशय दीर्घ काल तक रहता है । इसलिये उस दाताके द्वारा जैनशासन ही किया गया है ।। ५१ ॥ जो निर्दोष दानका प्रकाश समस्त लोगोंको सुख देनेवाला है वह पाप कर्मकी कार्यभूत कृपणता (कंजूसी) से परिपूर्ण हृदयवाले प्राणी ( कंजूस मनुष्य ) के लिये कभी नहीं रुचता है। जिस प्रकार कि दोषा अर्थात् रात्रिके संसर्गसे रहित होकर सम्पूर्ण प्राणियोंको सुख देनेवाला सूर्यका तेज निन्दनीय उल्लके लिये रुचिकर प्रतीत नहीं होता ।। ५२ ॥ यह दानका उपदेश आसन्नभव्य पुरुषके लिये आनन्दको करनेवाला है, न कि अन्य ( दूरभव्य और अभव्य ) पुरुषके लिये । ठीक है- भ्रमरोंके संसर्गसे मालतीपुष्प शोभाको प्राप्त होता है, किन्तु उनके संसर्गसे काष्ठ शोभाको नहीं प्राप्त होता । इसी प्रकार चन्द्रकिरणोंके द्वारा श्वेत कमल प्रफुल्लित होता है, किन्तु पत्थर नहीं प्रफुल्लित होता ।। ५३ ।। रत्नत्रयरूप आमरणसे विभूषित श्री वीरनन्दी मुनिराजके उभय चरण-कमलोंके स्मरणसे उत्पन्न हुए प्रभावको धारण करनेवाले श्री पमनन्दी मुनिने ललित वर्गों के समूहसे संयुक्त इस दो अधिक दानपंचाशत् अर्थात् बावन पोंवाले दानप्रकरणको किया है ॥ ५४ ।। इस प्रकार दानपंचाशत् प्रकरण समाप्त हुआ । १मा संसहन Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [३. अनित्यपश्चाशत् ] 253) जयति जिनो धृतिधनुषामिषुमाला भवति योगियोधानाम् । यद्वाकरुणामय्यपि मोहरिपुमहतये तीक्ष्णा_॥ १॥ 254) यधेकत्र दिने विभुतिर कटान समाये विद्रात्यम्युजपत्रवहनतो ऽभ्यासस्थिताधङ्घषम् । अत्रव्याधिजलादितोऽपि सहसा यश क्षयं गच्छति भ्रातः कात्र शरीरके स्थितिमति शे ऽस्य को विस्मयः॥२॥ 255 ) दुर्गन्धाशुचिधातुभिसिकलितं संछादितं चर्मणा विमूत्रादिभृतं श्रुधादिविलसाहुःखाखुमिश्छिद्रितम् । क्लिष्ट कायकुटीरकं स्वयमपि प्राप्त अराषद्विना चेदेतत्तदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते ॥३॥ 256) अम्भोबुबुदसंनिभा तमुरियं श्रीरिन्द्रजालोपमा दुर्वाताहतधारिवाहसरशार कान्तार्थपुनादयः। जिनः जयति । यद्वाक् यस्य जिनस्य वाक् वाणी। प्रतिधनुषां धर्मधनुषयुकानाम् । कोमियोपाना बेमिसुमटानराम् । इमाम भवति बाणपकिर्भवति । किसक्षणा वाणी । करुणामयी दयायुका मपि । मोहरिपुदतवे कश्या यत् यसकन् । एच दिने। विभुक्तिः न कृता भोजन न कृतम् । तदा रात्रौ निशा न भवेत् निद्रा न आगच्छति । का शरीर के विवाति म्बानं मच्छी । किंवत् । दहनतः अभ्यासस्थितात् समीपस्थितात् अपितः अम्बुजपत्रक्त । अमितः काठयत् । पुनः। यत् सौरम् । अझ ज्याधिजलसंयोगतः भपि सहसा । क्षयं विनाशम् । गच्छति । भो प्रातः बत्र शरीरे स्थितिमति सावट मुरिका मानि। अथ अस्य शरीरस्य नाशे सति । कः विस्मयः च आश्चर्यः किमावर्यम् ॥२॥ चेत् यदि । एतस्वामकुटीरम् । नव अखटीरकम् । दुर्गन्धाशुविधातुमित्तिकलित व्यासम् । पुनः किलक्षणे कायटीरकम् । चर्मना संमदितम् । पुनः निशिान्तादिमृतम् । पुनः किलक्षणं कायकुटीरकम् । क्षुत् क्षुधा आदिदुःखानि तान्येव मूषकाः ते शुषाकुसानमः । छिरितम् । पुनAaक्ष काकइटीरकम् । स्वयमपि जराबजिना। ग्लिट भस्मीभार्व प्राप्तम् । तदपि मूढजनः स्थिरं शक्ति भीर मन्यते ॥३॥ मंतक मोबाद जिस जिन भगवान्की वाणी धीरतारूपी धनुषको धारण करनेवाले बोगिकारूपी योद्धाओंके लिये बाणपंक्तिके समान होती है, तथा जिसकी वह वाणी दयामयी होकर मी मोहरूपी शत्रुका पात रनेके लिये तीक्ष्ण तलवारका काम करती है वह जिन भगवान् जयवंत होवे ॥१॥ यदि किसी एक दिन भोजन प्राप्त नही होता या रात्रिमें निद्रा नहीं आती है तो जो शरीर निश्चयसे निकटवर्ती अमिसे सन्तप्त हुए कमलपत्रके समान ग्लानताको प्राप्त हो जाता है तथा जो अस्त्र, रोग और जल आदिके द्वारा अकस्मात् नाशको प्रास होता है। हे भातः । उस शरीरके विषयमें स्थिरताकी बुद्धि कहांसे हो सकती है, तथा उसके नष्ट हो जानेपर अधर्व ही क्या है ? अर्थात् उसे न तो स्थिर समझना चाहिये और न उसके नष्ट होनेपर कुछ आवर्य मो होना चाहिये ॥२॥ जो शरीररूपी झोंपड़ी दुर्गन्धयुक्त अपवित्र धातुओंरूप भित्तियों (दीवालों) से सहित है, मड़ेसे ढकी हुई है, विष्ठा एवं मूत्र आदिसे परिपूर्ण है, तथा भूख-प्यास आदिके दुःखोरूप चूहोंक द्वारा किये गये छिद्रोंसे (बिलोंसे ) संयुक्त है। वह क्लेश युक्त शरीररूपी झोपड़ी जब से ही पद्धत्व (बुदाब ) सर अमिसे आक्रान्त हो जाती है तब भी यह मूर्ख प्राणी उसे स्थिर और अतिशय पवित्र मानता है ॥ ३ ॥ यह शरीर जलबुदुदके समान क्षणक्षयी है, लक्ष्मी इन्द्रजालके सदृश विनश्वर है। मी, पन एवं पुत्र आदि मनुभक्तानाम् । २ श अग्नितः यथा अम्ज! इस शव। फिटकरियम् । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि-पविशतिर [2580सौल्य वैषणिक सदैव तरल मत्तानापासपत् तस्मादेतापनवाप्तिविषये शॉकन किं किं भुवा ॥४॥ 257) बुध वा समुपखिते ऽय मरणे शोको म कायों दुपैः संपन्धो यदि विप्रहेण यदयं संभूतिपाध्येतयोः। तस्माचरपरिचिन्तनीयमनिश संसारखमयो येनास्य प्रमषः पुरः पुनरपि प्रायो न समान्यते ॥५॥ 258) धुरार्जितकर्मकारणवशादिष्टे प्रणष्टे भरे यच्छोकं कुरते तदा नितरामुन्मत्तलीलामितम् । परमात्र ते न सिध्यति किमप्पेसत्परं जायते नश्यन्स्येव नरस्य मूढमनसो धर्मार्थकामादयः ॥ ६॥ "259) उदेति पाताय रविर्यथा तथा शरीरमेत्तमनु सर्वदेहिनाम् । स्वकालमासाच निजे ऽपि संस्थिते करोति का शोकमतः प्रचुरधीः॥७॥ maanmmmm m munnamrawren- - सनिमा जनानुदसदशा । इयं भीः इन्द्रजालोपमा । अब सारे धीः ममीः इनवजालसदृशा । म सारे शान्तापत्रादयः । कीरशाः। दुर्वाताहतवारिवाह-मेघपटमसायाः । अत्र संसारे सौख्यं वैषयिकं सदैव । तरळं चञ्चलम् । किंवत् मनाङ्गनापाजावत् मत्सबीच्यावत यमलमा तस्मात्कारणात्। एतस्मिन्पूर्वोचरखे। उपनवे सति विनाशे सति। शोकेन किमान किमपि। एतस्मिन्मुचे माप्तिविषये प्राप्ते सति 1 मुषा हर्षेण गण किम् । न किमपि इत्यर्थः ॥४॥ यदि चेत् । विग्रहण शरीरेण सह । संबन्धः अस्ति। राखे । समुपस्थिते प्राप्ति सति । अप मरणे प्राप्ते सति । षैः चतुरैः । शोकः न कार्यः न कर्तव्यः । यत् यस्मात्कारणात् । अयं थिमहः शरीरः । एतयोः दुःसशोकयोः वयोः । भूविधात्री जन्मभूमिः । तस्मात्कारणात् । अनिशम् । तत् भास्लखरूपम् । परिचिन्तनीय विचारणीयम् । येन विचारेण भास्मचिन्तनेन । पुरः अप्रे । पुनरपि मस्स पारीरस्य । प्रायः उत्पणि । प्रायः बाहुल्येन । न संभाव्यते म प्राप्यते । किलक्षणः प्रभवः । संसारखुःसप्रवः ॥ ५ ॥ दुर्वार-निवार-मर्जित-तपाणितकर्मकारणवशाविष्टे मरे । प्रणा सति बिनाशे सति । अत्र संसारे । नितराम् भतिशयेन । यद्यस्मात् । मरः शोक करते । तत् उन्मत्तलीलायितं वातूलदेष्टितमस्ति । यस्मात्कारणात् । तत्र तस्मिन् शोके कृते सति । कि सिप्पति किमपि न । पर केवलम् । एतत् आयते । एतत्तिम् । मूढमनसः नरस्य । धर्म-अर्यकामादयः नश्यन्ति । एवं निधयेन ॥ ९॥ ननु इति बितकें । यथा रविः । Kuanrum.arur. दुष्ट वायुसे ताड़ित मेघकि सदृश देखते देखते ही विलीन होनेवाले हैं; तथा इन्द्रियविषयजन्य मुख सदा ही कामोन्मत स्त्रीके कटाक्षोंके समान चंचल है । इस कारण इन सबके नाशमें शोकसे तथा उनकी प्राप्तिके विषयमें हर्षसे क्या प्रयोजन है! कुछ भी नहीं। अमिप्राय यह है कि जब शरीर, धन-सम्पत्ति, स्त्री एवं पुत्र आदि समस्त चेतन-अचेतन पदार्थ खभावसे ही अस्थिर हैं तब विवेकी जनको उनके संयोग, हर्ष और वियोगमे शोक नहीं करना चाहिये ।। ४ ॥ यदि शरीरके साथ सम्बन्ध है तो दुःखके अथवा मरणके उपस्थित होनेपर विद्वान् पुरुषोंको शोक नहीं करना चाहिये । कारण यह कि वह शरीर इन दोनों (दुःख और मरण) की जन्मभूमि है, अर्थात् इन दोनोंका शरीरके साथ अविनाभाव है । अत एव निरन्तर उस आत्मस्वरूपका विचार करना चाहिये जिसके द्वारा आगे प्रायः संसारके दुःखको देनेवाली इस शरीरकी उत्पत्तिकी फिरसे सम्भावना ही न रहे ॥५॥ पूर्वोपार्जित दुर्निवार कर्मके उदयवश किसी इष्ट मनुष्यका मरण होनेपर जो यहां शोक किया जाता है वह अतिशय पागल मनुष्यकी चेष्टाके समान है । कारण कि उस शोकके करनेपर कुछ भी सिद्ध नहीं होता, बल्कि उससे केवल यह होता है कि उस मूढबुद्धि मनुष्यके धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ आदि ही नष्ट होते हैं॥६॥ जिस प्रकार सूर्यका उदय अन्न १क मनाङ्गनाम्नीमपाइनए कानार नेत्रक्ट रचलम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -262: ३-१०] ३.भनित्यपश्चाशत् 260) भवम्ति वृक्षेषु पतन्ति नूनं पचाणि पुष्पाणि फलानि यत्। कुलेषु तद्वत्पुरुषाः किमत्र हर्षेण शोकेन च सन्मतीनाम् ॥ ८॥ 261) दुर्लभयानवितव्यताव्यतिकरारष्टे प्रिये मानुषे यच्छोका क्रियते तदा तमसि प्रारभ्यते नर्तनम् । सर्व नश्वरमेय वस्तु भुवने मत्वा महल्या दिया निर्धूताखिल खसंततिरहो धर्मः सदा सेव्यताम् ॥९॥ 202) पूर्वोपार्जितकर्मणा विलिखितं यस्यावसामं यदा सजायेत तदैव तस्य भविमो शात्वा तदेतदक्षुषम् । शोक मुश्च मृते प्रिये ऽपि सुखद धर्म कुरुष्वादरात् सर्प दरमुपागते किमिति भोस्तवृष्टिराइन्यते ॥ १० ॥ पाताय पतनार्थम् । उति उदयं करोति । तथा सर्वदेहिनाम् एतत् शरीर पाताय पतनार्थम् । उदेति उदयं करोति । अतः कारणात् 1 स्वकालम् । भासाद्य प्राप्य । निजे स्वकीये मित्रादौ गोत्रजने वा 1 सेस्थिते मृते सति । कः प्रबुद्धधीः शोक करोति। न कोऽपि ॥७॥ यत् यथा । प्रक्षेषु पत्राणि पुष्पाणि फलानि भवन्ति नूनम् । पुनः स्वकाले प्राप्य पतन्ति । तद्वतया । अमु पुरुषाः भवन्ति । च पुनः पतन्ति । अत्र लोके । सन्मतीनों भम्यानाम् । हर्षेण किम् । पुनः। शोकेन किम् । न किमपि ॥ ८ ॥ अत्र संसारे । दुर्लक्षात् दुर्निवारात भवितव्यतास्वरूपात । प्रिये मानुषे नष्टे सति । यत् शोकः क्रियते तत् । तमसि अन्धकारे । नर्दनं प्रारभ्यते । अहो इति संयोधने । भो भव्याः । भुबने संसारे । सर्व वस्तु । नश्वर विनश्वरम् । मत्वा शाला। महत्या पिया गरिष्ठबुद्धधा । सदा धर्मः सेव्यताम् । किंलक्षणो धर्मः। निधूता स्फेटिता अखिमदु:ससंततिः येन सः ॥५॥ यस्य भविनः जीवस्य । पूर्वोपार्जिवकर्मणा । यदा यस्मिन्नमये । अवसानम् अन्तः नाशः । बिलिखितम् । तस्स मसिनः बोरस । होनेके लिये होता है उसी प्रकार निश्चयसे समस्त प्रामियोंका यह शरीर भी नष्ट होनेके लिये उत्पन्न होता है। फिर कालको पाकर अपने किसी बन्धु आदिका भी मरण होनेपर कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष उसके लिये शोक करता है ! अर्थात् उसके लिये कोई भी बुद्धिमान् शोक नहीं करता ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार सूर्यका उदय अस्तफा अविनाभावी है उसी प्रकार शरीरकी उत्पत्ति भी विनाशकी अविनाभाविनी है। ऐसी स्थितिमें उस विनश्वर शरीरके नष्ट होनेपर उसके विषयमें शोक करना विवेकहीनताका घोतक है ॥ ७॥ जिस प्रकार वृक्षोंमें पत्र, पुष्प एवं फल उत्पन्न होते हैं और वे समयानुसार निश्चयसे गिरते भी हैं, उसी प्रकार कुलों (कुटुम्ब ) में जो पुरुष उत्पन्न होते हैं वे मरते भी हैं । फिर बुद्धिमान् मनुष्यों को उनके उत्पन्न होनेपर हर्ष और मरनेपर शोक क्यों होना चाहिये ? नहीं होना चाहिये ॥८॥ दुर्निवार दैवके प्रभावसे किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर जो यहां शोक किया जाता है वह अंधेरेमें नृत्य प्रारम करनेके समान है । संसारमें सभी वस्तुएं नष्ट होनेवाली हैं, ऐसा उत्तम बुद्धिके द्वारा जानकर समत दुःखोंकी परम्पराको नष्ट करनेवाले धर्मका सदा आराधन करो ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार अन्धकारमें नृत्यका प्रारम्भ करना निष्फल है उसी प्रकार किसी प्रियजनका वियोग हो जानेपर उसके लिये शोक करना भी निष्फल ही है । कारण कि संसारके सब ही पदार्थ स्वभावसे नष्ट होनेवाले हैं, ऐसा विवेकबुदिसे निश्चित है । अत एव जो धर्म समस्त दुःखोंको नष्ट करके अनन्त सुख (मोक्ष) को प्राप्त करानेवाला है उसीका आराधन करना चाहिये ॥ ९॥ पूर्वमें कमाये गये कर्मके द्वारा जिस प्राणीका अन्त जिस समय लिला गया है उसका उसी समयमै अन्त होता है, यह निश्चित जानकर किसी प्रिय मनुष्यका मरण हो जानेपर भी शोकको छोड़ो और विनयपूर्वक सुखदायक धर्मका आराधन करो। ठीक है- अब सर्प दूर चला जाता है Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [388R१ पचनन्दि-पचार्षिशतिः 268) ये भूय भुवितेऽपि बुसाइतये म्यापारमातम्यते सा माभूतथवा स्वकर्मषशतस्तमात्र ते तायशाः। मान मूर्वनियमचीन मनु वयं वानेच मन्यामहे पति चुनते सति मिजे पापाय दुम्लाय च ॥ १५ ॥ 264) किं जामानिमणिोनिमम कि प्रत्यक्षमेवेक्षसे मिशेष जगदिन्द्रजालसाशं रम्मेष लारोजितम् । किं शोक कुरपे ऽत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे तरिकचिरकुर येन नित्यपरमायागार गच्छति। १० तत् अवसानं विनाशः । तदा तस्सिन्तमये। जायते उत्पद्यते । तदेतदुर्व निषितम् । हावा । प्रियेऽपि मृते। झोकम् 1 मुध सब । बादराव सुखद धर्म करुण । मो भम्पाः । सपै । दूरम् उपागचे सति । सस्य सर्पल । पृष्टिः नीहा । माइन्यते यष्टिमिः पीच्यते । इति भिम् । इति मूलत्वम् ॥१.n भुवि भूमण्डले । मपि मूर्खाः। ये शठाः दुःखहतये दुःखविनाशाय । म्यापारम् भातन्वते विखारयन्ति । तस्मास्त्रकर्मवशतः । सा दुःखहतिः । मा अभूत् । अथवा ते मूखः तादृशाः। ननु इति वित। वर्य तान् एष मूनि मूलसिरोमणीन् मन्यामहे ये शुर्य लोकं कुर्वन्ति । क सति । निजे बटे। मृते सति । तत् शोकं पापाय पुनः । दुःशाप भवति ॥ ११॥ भो मानुषपयो । निःशेवं अगत् इन्द्रजालसदृशम् । रम्भा व सदसगर्भवत् । पारोमिततम् । किन भानाति । किंग शुगोवि । म बसे । पत्र संसारे । बिजे इटे। सोकान्तरस्बे मृते सति । तब उसकी रेखाको कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष साठी आदिके द्वारा ताइन करता है ! अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् वैसा नहीं करता है ।।१०॥ इस पृथिवीपर जो मूर्ख जन हैं वे भी दुःखको नष्ट करनेके लिये प्रयास करते हैं। फिर यदि अपने कर्मके प्रभावसे वह दुःखका विनाश न भी हो तो भी वे वैसे मूर्ख नहीं हैं । हम तो उन्ही मूखौंको मूखोंमें श्रेष्ठ अर्थात् अतिशय मूर्ख मानते हैं जो किसी इष्ट जनका मरण होनेपर पाप और दुःखके निमितभूत शोकको करते हैं। विशेषार्थ-लोफमें जो प्राणी मूर्स समझे जाते हैं वे मी दुःखको दूर करनेकन प्रया करते हैं। यदि कदाचित् दैववशात् उन्हें अपने इस प्रयत्नमें सफलता न भी मिले तो भी उन्हें इतना अधिक बब नहीं समझा आता । किन्तु ओ पुरुष किसी इट जनका वियोग हो आनेपर शोक करते हैं उन्हें मूर्ख ही नहीं बल्कि मूर्सशिरोमणि (अतिशय बर) समझा जाता है। कारण यह कि मूर्ख समझे जानेवाले के प्राणी तो आये हुए दुःसको दूर करनेके लिये ही कुछ न कुछ प्रयास करते हैं, किन्तु ये मूर्खशिरोमणि इष्टवियोगमै शोकाकुल होकर और नवीन दुःसको मी उत्पन्न करनेका प्रयत्न करते हैं । इसका मी कारण यह है कि उस शोकसे "दुःल-शोक तापक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म-परोभयखान्यसद्वेधस्म" इस सूत्र (त. सू. ६-११)के अनुसार असातावेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है, जिससे कि भविष्यमें भी उन्हें उस दुःखकी प्राप्ति अनिवार्य हो जाती है।॥ ११॥ हे अज्ञानी मनुष्य ! यह समस्त जगत् इन्द्रजालके सदृश विनाधर और केलेके स्वम्भके समान निस्सार है। इस बातको तुम क्या नहीं जानते हो, क्या आगममें नहीं सुनते हो, और क्या प्रत्यक्षमें ही नहीं देखते हो! अर्थात् अवश्य ही तुम इसे जानते हो, सुनते हो और प्रत्यक्षमें भी देखते हो। फिर मा यहाँ अपने किसी सम्बन्धी अनके मरणको प्राप्त होनेपर क्यों शोक करते हो ! अर्थात् शोकको छोड़कर ऐसा कुछ प्रयत करो जिससे कि शाधतिक उत्तम सुखके सानभूत मोक्षको प्रास हो सको ॥१२॥ सूमण्डले लाप। Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -268:1-11] ३. अनिस्पपश्चाशत् ९७ 265 ) जातो तो नियत पत्र दिने च मृत्योः प्राप्ते पुनस्त्रिभुवनेऽपि न रक्षको इस्ति 1 सद्यो मृते सति निजे ऽपि शुखं करोति पूत्कृस्य रोदिति बने विजने स मूढः ॥ १३ ॥ यो वि से यदमियोगः पापेन तद्भषति जीव पुराकृतेन । शोकं करोषि किमु तस्य कुरु प्रजाशं पापस्य तौ न भवतः पुरतो ऽपि येन ॥ १४ ॥ 267 ) मधे वस्तुमि शोभने ऽपि हि तदा शोकः समारभ्यते 266 ) लामो ऽय यशोऽथ सौम्यमथ वा धर्मो ऽथ वा स्याद्यदि । यथेको ऽपि न जायते कथमपि स्फारैः प्रयचैरपि प्रायस्तत्र सुधीर्मुधा भगति कः शोकोप्ररक्षोषशः ॥ १५ ॥ 268) एकमे निशि वसन्ति यथा शकुन्ताः प्रातः प्रयान्ति सहसा सकलालु दिक्षु | स्थित्वा कुले बत तचान्यकुलामि सृत्या लोकाः भयन्ति विदुषा खलु शोच्यते कः ॥ १६ ॥ लोकं किं कुरु । तत्किंचित्स्वकार्य शुरु । येन कार्येण । निश्यपरमानन्द - मास्पदं स्थानं गच्छसि ॥ १२ ॥ जातः उत्पचः । अभः नरः । च पुनः । मृत्योः दिने प्राप्ते सति। भिमते । एवं निश्चयेन । पुनः त्रिभुवने कोऽपि रक्षकः न अस्ति । तत्तस्मात्कारणात् यः जनः । निजेऽपि इष्टे मृते सति । शुभं करोति शोकं करोति । स मूढः । विजने अमरहिते । बने प्रकल्प रोदिति ॥ १३ ॥ भो जीव । इह संसारे । यत् अनिष्ठयोगः अनिष्टसँगः । यत् इष्टयः इष्टविनाशः । तत्पापेन भवति पुराकृतेन पापेन भवति । भो जीव । शोकं किमु करोषि । तस्य पापस्य प्रणाशं कुरु येन पापप्रणाशेन पुरतः व्याक्तः । तौ द्वौ मनिसंयोग- इष्टषियोगौ । न भवतः ॥ १४ ॥ हि यतः । शोभने अपि वस्तुनि नने सति तदा शोकः समारभ्यते । यदि चेत् । तमः तस्म वस्तुनः लाभः भवेत् । अथ यशः भवेत् । अथवा सौख्यं भवेत् । अथवा धर्मः भवेत् । यदि तत्र चतुर्मा मध्ये एकः अपि कथमपि । स्फारैः दिल्लीः न जायते आणि न उत्पते। तदा सुधीः ज्ञानवान् । सुधा क्षोकराक्षसमशः भवति । अपि तु न भवति ॥ १५ ॥ यथा शकुन्ताः पक्षिणः । निधि रात्रौ एकडमे बसन्ति । प्रातः सुप्रभाते सहसा सकला दिक्षु । प्रयान्ति गच्छन्ति । बत इति वेदे । तथा लोकाः । अन्यकुळे स्थित्वा । देवा मन्यकुलानि जो जन उत्पन्न हुआ है वह मृत्युके दिनके प्राप्त होनेपर मरता ही है, उस समय उसकी रक्षा करनेवाला तीनों लोकोंमें कोई भी नहीं है। इस कारण जो अपने किसी इष्ट जनके मरणको प्राप्त होनेपर शोक करता है वह मूर्ख निर्जन वनमें चिल्ला करके रोता है । अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार जनशून्य नमें रूदन करनेवाले के रोनेसे कुछ भी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता है उसी प्रकार किसी इष्टजनके मरणको प्राप्त होनेपर उसके लिये शोक करनेवाले के मी कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता, बल्कि उससे दुःखदायक नवीन कर्मोंका की जन्ध होता है || १३|| हे जीव ! यहां जो तेरे लिये इष्टका वियोग और अनिष्टका संयोग होता है वह तेरे पूर्वकृत पापके उदयसे होता है । इसलिये तू शोक क्यों करता है ? उस पापके ही नाश करनेका प्रयत्न कर जिससे कि आगे भी वे दोनों (इष्टवियोग और अनिष्टसंयोग ) न हो सकें ॥ १४ ॥ मनोहर वस्तुके नष्ट हो जानेपर यदि शोक करनेसे उसका लाभ होता हो, कीर्ति होती हो, सुख होता हो, अथवा धर्म होता हो; तब तो शोकका प्रारम्भ करना ठीक है । परन्तु जब अनेक प्रयत्नोंके द्वारा भी उन चारोंमेंसे प्रायः कोई एक भी नहीं उत्पन्न होता है तब भला कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य व्यर्थमें उस शोकरूपी महाराक्षसके अधीन होगा ? अर्थात् कोई नहीं ॥ १५ ॥ जिस प्रकार पक्षी रात्रिमें किसी एक वृक्षके ऊपर निवास करते हैं और फिर सबेरा हो जानेपर वे सहसा सब दिशाओंमें चले जाते हैं खेद है कि उसी प्रकार मनुष्य भी किसी एक कुलमें स्थित रहकर पश्चात् मृत्युको प्राप्त होते हुए अन्य झुर्लोका आश्रय करते हैं । इसीलिये १ स्थित्या अम्यकुलानि । पद्मनं० १३ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एनपिचविंशतिः [269380269) दुखण्यालसमाकुल भवन जान्याम्पकाराधित यस्मिन् दुर्गतिपल्लिपातिकुपधैर्धाम्यन्ति सर्वे ऽशिनः । तम्मध्ये गुरुवाक्प्रदीपममलं ज्ञानप्रमामासुर प्राप्यालोक्य च सत्पथ सुखपद याति प्रबुदो धुवम् ॥ १७ ॥ 270) येव स्वकर्मकृतकालकलाय जन्तुस्तत्रैव पाति मरणं न पुरो म पधात् ।। मूढास्तथापि हम स्वजन विधाय शोक परं प्रचुरदुःखभुजो भवन्ति ॥ १८ ॥ 271) वृक्षावृक्षमिवाण्डमा मधुलिहः पुष्पाच पुष्पं यथा जीवा यान्ति भवानवाम्सरमिहाधान्त तथा संसृती। तजाते ऽथ मृते ऽथ षा न हि मुवं शोकं न कसिपि प्रायः प्रारमते ऽभिगम्य मतिमानस्थैर्यमित्यहिनाम् ॥ १९ ॥ भानमन्ति । सस निवितम् । विदुषा पणिवेन ! कस्य कृते कारणाम शोध्यते । अपि तु न शय्यते ॥१६॥ भववन संसारपनम् । दुसव्याला इस्विमः तैः समाकुल भरितम् । पुनः कलक्षण भववनम् । जाम्पान्धकार-मूर्खतान्धकार-भाषितम् । तस्मिन्भववरे संसारवने। दुर्गतिपहिलपातिकुपीः दुर्गतिभिलवसतिकागमनशीलकुमार्गः। म मङ्गिमः जीवाः । भ्राम्यन्ति । तन्मध्ये संसारवनमध्ये । गुरुवार गुप्लनने प्रदीप प्राप्य | च पुनः । सत्पषम् । भालोम्म दृष्टा । प्रजुसः शानवान्। सुखपद मोक्षपदम् । माति गच्छति । विलक्षणं गुरुवरनम् । अमल निर्मलम् । शानप्रभाभासुरे प्रकाशमानम् ॥ १७॥ अत्र संसारे । मा स्वकर्मातकालकला स्खकोपार्जितकालाला मरणवेला । अस्ति । तत्रैव वेलायाम् । अन्नुः जीवः। मरण याति गच्छति । न पुरोन भने । न पश्चात् । हि यतः । मूडाः जनाः । तथापि खजने बछे । मृवे सति । पर केवलम् । शोक विधाय स्वा । प्रचुरतुःसभोकारः भवन्ति ॥ १८ ॥ इह संसारे । गीवाः यथाबधान्त निरन्तरम् । भवात् भवान्तर यान्ति । पर्यायात् पोयान्तर गच्छन्ति । तत्रान्तमाह। यथा अण्णाजाः पक्षिणः । वृक्षारक्ष यान्ति । यथा मालिहः महाः । पुष्पात् अन्यत्पुष्प विद्वान् मनुष्य इसके लिये कुछ भी शोक नहीं करता ॥१६॥ जो संसाररूपी वन दुःखोंरूप सोसे व्याप्त एवं अज्ञानरूपी अन्धकारसे परिपूर्ण है उसमें सब प्राणी दुर्गतिरूप भीलोंकी वस्तीकी ओर जानेवाले खोटे मासे परिश्रमण करते हैं। उस (संसार-वन) के बीच विवेकी पुरुष ज्ञानरूपी ज्योतिसे देदीप्यमान निर्मल गुरुके वचन (उपदेश) रूप दीपकको पाकर और उससे समीचीन मार्गको देखकर निश्चयसे सुखके स्थानभूत मोक्षको प्राप्त कर लेता है । विशेषार्थ-जिस प्रकार कोई पथिक साँसे भरे हुए अन्धकारयुक्त बनमें भूलकर खोटे मार्गसे भीलोंकी वस्तीमें जा पहुंचता है और कष्ट सहता है । यदि उसे उक्त वनमें किसी प्रकारसे दीपक प्राप्त हो जाता है तो वह उसके सहारेसे योग्य मार्गको खोजकर उसके द्वारा अभीष्ट स्थानमें पहुंच जाता है । ठीक उसी प्रकारसे यह संसारी प्राणी भी दुःखोंसे परिपूर्ण इस अज्ञानमय संसारमें मिथ्यादर्शनादिके वशीभूत होकर नरकादि दुर्गतियों में पहुंचता है और वहां अनेक प्रकारके कष्टोंको सहता है । उसे जर निर्मल सहरुका उपदेश प्राप्त होता है तब वह उससे प्रबुद्ध होकर मोक्षमार्गका आश्रय लेता है और उसके शरा मुक्तिपुरीमें जा पहुंचता है ।।१७|| इस संसारमें अपने कर्म के द्वारा जो मरणका समय नियमित किया गया है उसी समयमें ही प्राणी मरणको प्राप्त होता है, वह उससे न तो पहिले मरता है और न पीछे भी । फिर मी मूर्सजन अपने किसी सम्बन्धीके मरणको प्राप्त होनेपर अतिशय शोक करके बहुत दुःखके भोगनेवाले होते हैं ॥ १८ ॥ जिस प्रकार पक्षी एक वृक्षसे दूसरे वृक्षके ऊपर तथा प्रमर एक पुष्पसे दूसरे पुष्पके ऊपर जाते हैं उसी प्रकारसे यहां संसारमें जीव निरन्तर एक पर्यायसे दूसरी पर्यायमें १० भवबने दुर्गवि । एक गुरुवयनं । तया । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. अनित्यपधाराव 72) भ्राम्यन् कालममन्तमत्र जनने प्रामोति जीवोनस मानुष्यं यदि दुष्कुले सदधतः प्रासं पुनश्यति। सजाताषय सत्र पासि विलय गमे ऽपि जन्मन्पपि द्वाग्माश्ये जप ततोपनो पूष हात भात अपलोर॥२०॥ 273) स्थिरं सदपि सर्वदा मृशमुदेत्यषस्थान्तर: प्रतिक्षणमिदं जगजलद कटवनश्यति । तब भषमाश्रिते मसिमपागतेषा जने प्रिये ऽपि किमहो मुषा किमु शुथा प्रबुद्धात्मनः । २१ 274) लायन्से जलराशयः शिखरिणो ऐशास्तटिन्यो जमा सा बेला तु मृते पक्मवलनस्तोकापि देवैरपि । तस्कमित्रपि संस्थिते सुखकर श्रेयो विहाय धुवं का सर्वत्र दुरन्तबुरखजनक शोक विवभ्या सुपीः। २२ ॥ यान्ति । तथा जीवा इत्पर्यः । तत्तस्मात्कारप्पात् । मविमान् शानवान् भन्दः । इति अमुना प्रकारेन । महिला जीवावाम् । अस्थैर्य विनश्वरत्वम् । अधिगम्य शात्वा । कस्मिन् इष्टे । जाते सति उत्पन्चे सति । मुदं न प्रारमते हर्ष न स्तेि । मला कस्मिनिष्टे । मृते सन्धि । शोक न प्रारमते । प्रायः बाहुल्पेन । शोक म करते ॥ १९॥ बा बनने सारे । जनतासं भ्राम्यन् जीवः । मानुष्य मनुष्यपदम् । प्राम्रोति वा में प्राप्नोति । यदि येत् । दुष्पके सिन्ध। क्त् मरत्व प्राप्तम् । अतः पायतः । पुनः तमरत्वम् 1 नश्यति । अय । सज्जाती समीचीनकुळे प्राप्तेऽपि । तत्र सरो। विन विनाशम् । गाति । ततः कारणात् । पुषे धर्म प्राने सति । इति । वरः श्रेष्ठः । प्रयत्नः नो क्रियते । अपि में मलः क्रियते ॥१॥ जयत् । सर्वदा काके । स्पिरं साधतम् । सत् सत्तारूपम् । व्यम् । अपि । प्रतिक्षणं समय समय प्रति । स्वान्तः पर्षयान्तरः । मुशम् माल्यर्थम् । उदेति। पुनः पश्यति । किरन । जलदकटक्त मेषपटमबत् । तत्तस्माकरणात पत्र संसारे । प्रिवेसे बने। भवम् आश्रिते जन्म प्राप्त सति । प्रबुद्धात्मनः । मुदा हग किम् । न किमपि । मा प्रिये हो जने । मृति मरणम् । उपागटे सति। अहो इति संबोधने । प्रबुद्धात्मनः शानयुगपुरुषस्य । शुवा किस । योकेन किम् । म किमपि ॥ २१ अनैः करायवः समुद्राः । सामन्ते । शिम्हरिणः पर्वताः । सायन्ते । जनैः देशाः लामन्ते । अनैः तटिन्यः नमः मान्ने । पुनः । जाते हैं। इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्य उपर्युक्त प्रकारसे प्राणियोंकी अस्थिरताको जानकर प्रायः करके किसी इष्ट सम्बन्धीके जन्म लेनेपर हर्षको प्राप्त नहीं होता तथा उसके मरनेपर शोकको मी नहीं प्राप्त होता है ॥ १९॥ इस जन्म-मरणरूप संसारमें अनन्त कालसे परिश्रमण करनेवाला जीन मनुष्य पर्यायको प्राप्त करता है अथवा नहीं भी, अर्थात् उसे वह मनुष्य पर्याय बड़ी कठिनतासे प्राप्त होती है। यदि कदाचित वह मनुष्यभवको प्राप्त भी कर लेता है तो मी नीच कुलमें उत्पन्न होनेसे उसका वह मनुष्यभव पापाचरणपूर्वक ही नष्ट हो जाता है। यदि किसी प्रकारसे उत्तम कुलमें मी उत्पन्न हुआ तो भी यहां वह या तो गर्भमें ही मर जाता है या जन्म लेते समय मर जाता है, अश्वा बाल्यावस्खामें भी शीर मरणको प्राप्त हो जाता है । इसलिये भी धर्मकी प्राप्ति नहीं हो पाती। फिर यदि आयुष्यकी अधिकतामें वह धर्म प्राप्त हो जाता है तो उसके विषयमें उत्कृष्ट प्रयत्न करना चाहिये ।। २० ॥ यह जगत् द्रव्यको अपेक्षा स्थिर (ध्रुव) होकर भी पर्यायकी अपेक्षा प्रत्येक क्षणमें मेघपटलके समान अन्यान्य अवस्थाओंसे उत्पन भी होता है और नष्ट भी अवश्य होता है । इस कारण यहां ज्ञानी जनको किसी प्रिय जनके उत्पन्न होनेपर हर्ष और उसके मरणको प्राप्त होनेपर शोक क्यों होना चाहिये ।। अर्थात् नहीं होना चाहिये ॥ २१ ॥ मनुष्य समुद्रों, पर्वतों, देशों और नदियोंको लोध सकते हैं; किन्तु मृत्युके निश्चित समयको देव मी निमेश १८ प्राण्यापे। हास्या हटे। Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. पचनदि-पविशतिः [215:३२:275) आनन्दं कुरुते यवन जनता नष्टे निजे मानुषे जाते या मुदं तदुखतधियो अल्पन्ति वातूलताम् । यजास्यास्तदुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रवन्धोदयात् मृत्युत्पत्तिपरम्परामयमिदं सर्व जमत्सर्वदा ॥२३॥ 216) गुर्वी भ्रान्तिरिय जडत्वमथ वा लोकस्य यस्माइसन् संसारे बहुवुःखजालजटिले शोकीभवत्यापदि । भूतप्रेतपिशायफेरपचितापूर्णे श्मशाने गृह का कृत्वा भयदायमङ्गलकूते भावाद्भवेच्छतिः ॥२४॥ 277) अमति नभसि चन्द्रः संस्तौ शश्वदङ्गी लभत उदयमस्तं पूर्णता हीनतां । कलुषितहदयः सन् याति राशि च राशेस्तनुमिह तनुतस्तरकात्र मुस्कल शोकः ॥२५॥ मृतेः मरणस्य । सा घेला येवैरपि । भूपक्ष्मबलनस्तोका भपि मनुष्यनेत्रपलकसदृशापि । न लपते । तत्तस्मात्कारणात् । कस्मिन् हो। सैस्थिते सति मृते सति । सुखकरम् । श्रेयः पुण्यम् । विहाय त्यक्त्वा । कः सुधीः सानवान् । शोकं विदध्यात् शोक कुर्यात् । किलक्षणं शोकम् । सर्वत्र सदैव दुरन्तदुःखजनकम् उत्पादकम् ॥ २२॥ अत्र संसारे । जनता जनसमूहः 1 निजे मानुषे नष्टे सति मृते सति यत् आकन्दं रोदनम् । कहते । च पुनः । निजे इष्टे जाते सति उत्पने सति । मुदं इर्षम् । कुहले । तत् । उन्नतधियः गणधरदेवाः । वातूलताम् । जस्पन्ति कथयन्ति । यत् यतः । इदं सर्व जगत् । सर्वदा सदैव । जाण्यास्कृततुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रबन्धोदयात् उपार्जितकर्मविपाकात्। मृत्यूत्पत्तिपरम्परामयं सर्व जगत् इत्यर्थः ॥ २३ ॥ लोकस्य इयं गुबी श्रान्तिः गुरुतरप्रमः । अथवा जडत्वं यस्मात् संसारे। वसन् तिछन् सन् । आपवि सत्याम् । कोशीमबति घोकं करोति । किलक्षणे संसारे। बहुःखजालजटिले बहुलदुःखपूर्णे । श्मशाने गृहं हवा । मयदात् भावाद पदार्थात् । - पुमान् शक्तिः भवेत् । किलक्षणे श्मशाने। भूतप्रेतपिशाचफेरवफेत्कारमाम्दचितापूर्ण । पुनः किंलक्षणे श्मशाने । अमाल इते अम्ल खस्पे ॥ २४ ॥ मथा चन्द्रः शश्वत् । नभसि भाकाशे । भ्रमति । तथा संसतौ संसारे। अनी जीवः । भ्रमति । च (पलककी टिमकार ) के बराबर थोड़ा-सा भी नहीं लांध सकते। इस कारण किसी मी इष्ट जनके मरणको प्राप्त होनेपर कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य सुखदायक कल्याणमार्गको छोड़कर सर्वत्र अपार दुःखको उत्पन्न करनेवाले शोकको करता है ? अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् शोकको नहीं करता ।। २२ ॥ संसारमें जनसमुदाय अपने किसी सम्बन्धी मनुष्यके मरणको प्राप्त होनेपर जो विलापपूर्वक चिल्लाकर रुदन करता है तथा उसके उत्पन्न होनेपर जो हर्ष करता है उसे उन्नत बुद्धिके धारक गणधर आदि पागलपन बतलाते हैं। कारण कि मूर्खतांवश जो दुष्प्रवृत्तियां की गई हैं उनसे होनेवाले कर्मके प्रकृष्ट बन्ध व उसके उदयसे सदा यह सब जगद् मृत्यु और उत्पसिकी परम्परास्वरूप है ।। २३ ।। बहुत दुःखोंके समूहसे परिपूर्ण ऐसे संसारमें रहनेवाला मनुष्य आपत्तिके आनेपर जो शोकाकुल होता है यह उसकी बड़ी भारी प्रान्ति अथवा अज्ञानता है। ठीक है-जो व्यक्ति भूत, प्रेत, पिशाच, शृगाल और चिताओंसे मरे हुए ऐसे अमंगलकारक श्मशानमें मकानको बनाकर रहता है वह क्या भयको उत्पन्न करनेवाले पदार्थ से कभी शंकित होगा ! अर्थात् नहीं होगा ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार भूत-प्रेतादिसे व्याप्त श्मशानमें घर बनाकर रहनेवाला व्यक्ति कमी अन्य पदार्थसे भयभीत नहीं होता, उसी प्रकार अनेक दुःखोंसे परिपूर्ण इस जन्म-मरणरूप संसारमें परिग्रमण करनेवाले जीवको भी किसी इष्टवियोगादिरूप आपचिके प्राप्त होनेपर व्याकुल नहीं होना चाहिये ! फिर यदि ऐसी आपत्तियोंके आनेपर प्राणी शोकादिसे संतप्त होता है तो इसमें उसकी अज्ञानता ही कारण है, क्योंकि, जब संसार स्वभावसे ही दुःखमय है तब आपत्तियोंका आना जाना तो रहेगा ही। फिर उसमें रहते हुए भला हर्ष और विवाद करनेसे कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा। ॥ २४ ।। जिस प्रकार चन्द्रमा साक म्हनं। २ क इलर नाति। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -280: ₹२८] १. अमिस्थपवारा 278) तडिदिव चलमेतस्पुत्रदारादि सर्व किमिति तदमिधाते सियते पुसिमनिः। . स्थितिजननविनाशं नोष्णतेवानलस्य व्यभिचरति कदाचिस्सर्वमावेषु नूनम् ॥ २६ ॥ 279) प्रियजनमृतिशोका सेव्यमानो ऽतिमात्र जनयति तवसातं कर्म यमाप्रतो ऽपि। प्रसरति शतशाख देहिनि क्षेत्र उप्तं वट हव तनुबीजं त्यज्यतां स प्रयनात् ॥ २७ ॥ 280) आयुःक्षतिः प्रतिक्षणमेसम्मुखमन्तकस्य तत्र गताः। सर्वे जनाः किमेका शोधयत्ययं मृतं मूढः ॥ २८॥ पुनः । यथा चन्द्रः उदयम् अस्तं पूर्णता हीनता लभते । तथा प्राणी उदयम् मस्त्र पूर्णता हीमती लभते । पुनः । यथा मनः कलषितहदयः सन् । राशेः सकाशात् राशिं याति । इह संसारे। तथा प्राणी ! तनुतः शरीरात् । तनुं धारीरम् । याति। तत्तस्मात् । अत्र संसारे । मुत् का हः कः । च पुनः । शोकः कः । न च शोको न च इर्षः ॥ २५॥ भो भव्याः । एतत्पुत्रदारादि सर्वम् । तडिदिव चलं विद्युत् इव चपलम् । इति शात्वा । तदभिघाते सत्पुत्रादिक अभिधाते सति मूते सति । बुद्धिमतिः कि खिद्यते । मपि सुन खिद्यते । नून निश्चितम् । सर्वभावेषु पदार्येषु षद्रव्येषु । स्थितिजननविनाशं कदाचित् नो व्यभिचरति । यथा अनलस्य अमेः । उष्णता न व्यमिचरति अमेः उष्णता न दीभवति ॥ २६॥ प्रियजनमृतिशोकः। अतिमात्रम अतिशयेन । सेव्यमानः । तत् अत्र असास कर्म जनयति पापकर्म उत्पादयति । च पुनः । यत्कर्म । अप्रतः अमे। देहिनि बीथे। शतशाख प्रसरति । यथा वटवी सनुरपि लघुरपि बीजम् । क्षेत्रे उर्स कपितम् । शतशाल प्रसरति । इति मत्वा स शोषः। प्रयत्नात त्यज्यताम् ॥ २७॥ मायुःक्षतिः भायुर्विनाशः । प्रतिक्षण समय समयं प्रति । एतत् अन्तकस यमस्म मुखम् । आकाशमें निरन्तर चकर लगाता रहता है उसी प्रकार यह प्राणी सदा संसारमें परिभ्रमण करता रहता है; जिस प्रकार चन्द्रमा उदय, अस्त एवं कलाओंकी हानि वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है उसी प्रकार संसारी प्राणी भी जन्म, मरण एवं सम्पत्तिकी हानि वृद्धिको प्राप्त हुआ करता है। जिस प्रकार चन्द्रमा तथा मध्यमें कल्लषित (काला) रहता है उसी प्रकार संसारी प्राणीका हृदय भी पापसे कलुषित रहता है, तथा जिस प्रकार चन्द्रमा एक राशि ( मीन-मेष आदि) से दूसरी राशिको प्राप्त होता है उसी प्रकार संसारी प्राणी भी एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको ग्रहण किया करता है । ऐसी अवस्थाके होनेपर सम्पत्ति और विपतिकी प्राप्तिमें प्राणीको हर्ष और विषाद क्यों होना चाहिये ? अर्थात् नहीं होना चाहिये ।।२५|| ये सब पुत्र एवं स्त्री आदि पदार्थ जब बिजलीके समान चंचल अर्थात् क्षणिक हैं तब फिर उनका विनाश होनेपर बुद्धिमान् मनुष्य खेदखिन क्यों होते हैं । अर्थात् उनके नश्वर स्वभावको जानकर उन्हें खेदखिन्न नहीं होना चाहिये । जिस प्रकार उध्यता अग्निका व्यभिचार नहीं करती, अर्थात् वह सदा अमिके होनेपर रहती है और उसके अभावमें कभी भी नहीं रहती है। ठीक उसी प्रकारसे स्थिति (ध्रौव्य), उत्पाद और व्यय भी निश्चयसे पदार्थोंके होनेपर अवश्य होते हैं और उनके अभावमें कभी भी नहीं होते हैं ।। २६ ।। प्रियजनके मरनेपर जो शोक किया जाता है वह तीत्र असातावेदनीय कर्मको उत्पन्न करता है जो आगे ( भविष्यमें) भी विस्तारको प्राप्त होकर प्राणीके लिये सैकड़ों प्रकारसे दुःख देता है । जैसे-योग्य भूमिमें बोया गया छोटा-सा मी वटका बीज सैकड़ों शाखाओंसे संयुक्त वटवृक्षके रूपमें विस्तारको प्राप्त होता है । अत एव ऐसे अहितकर उस शोकको प्रयक्षपूर्वक छोड़ देना चाहिये ॥२७॥ प्रत्येक क्षणमें जो आयुकी हानि हो रही है, यह यमराजका मुख है। उसमें ( यमराजके मुखमें ) सब ही प्राणी पहुंचते हैं, अर्थात् समी प्राणियोंका भरण अनिवार्य है। फिर एक प्राणी दूसरे प्राणीके मरनेपर शोक क्यों करता है! अर्थात् जब समी संसारी प्राणियोंका मरण Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानव पचपियतिः [2811३५१-- 181) पो नाश गोचर मृत्योर्गतो याति न पास्यति । सहि शोक मृते कुर्षन शोभते नेतरः पुमान् ॥ २९॥ 282) प्रथममुदयमुधरमारोहलक्ष्मीमनुभपति व पातं सोऽपि वो दिनेशः। यदि किल दिनमध्ये सत्र केषां नराणां वससि इदि विषादः सत्स्ववस्थान्तरेषु ॥३०॥ 283) आकाश एष शशिसूर्यमयत्वगाधाः भूपृष्ठ पष शकटप्रमुखाश्चरन्ति । मीनादयश्च जल एवं यमस्तु याति सर्वत्र कुत्र भनिनां भवति प्रयकर ॥ ३१ ॥ 284) किं देवः किमु देवता किमगदो विधास्ति किं किं मणिः किं मनं किमुताश्रयः किमु सुहत् किंवा स गम्भोऽस्ति सः । तत्र यममुके। सर्वे जमा गताः । एकः भूतः मन्यस्त किशोरयति ॥२०॥ मात्र संसारे । यः नरः । मृत्योः ममस्म । गोचर न गतः । म पुमान्मृत्योः गोचरं न याति । यः पुमान्मृत्योः गोचर न मास्थति । हि अतः । ७ पुमान् । मृते सति । शोक ऊन् सन शोभते । इतरः यमानीनः । पुमान् । घोकं कुर्वन् न शोभते ॥२७॥ यत्र संसारे । सोऽपि देवः । विनेशः सूर्यः । यदि चेत् । किल इति सो। दिनमध्ये एकदिनमध्ये । प्रथमम् । उौः अतिशयेन । सदयम् मारोहलक्ष्मीम् । अनुभवति प्राप्नोति । र पुनः । पात पतनाम् भनुभवति । तत्र संसारे । सवस्थान्तरेषु सत्सु मृतेषु सत्सु । केया नराणां इदि विषादः वसति । अपि तुम बसति ॥३०॥ शचिपूर्वमसत्वगाया । एक निश्चयेन । आकाशे । घरन्ति गन्ति । शकटप्रमुखाः भूसष्टे । बरन्ति गष्यन्ति । प पुनः ले चरन्ति गच्छन्तिातु पुनःयमः सर्वत्र याति। भविना जीवाना। प्रयत्नः भवति । मुकि बिना न प्रापि ॥३॥देशः किम अलि। देवता किम अस्ति। अगदः वैद्यः ओषेध या किम् अस्ति। सा विद्या किम् अस्ति। समान किम् अस्ति । स कि मन्त्रम् अस्ति । सत अहो । स आश्रयः किम् अस्ति । स सहन किम् काखे । रा स गन्धः किम् अस्ति। अवश्यम्भावी है तब एक दूसरेके मरनेपर शोक करना उचित नहीं है ।। २८ ॥ जो मनुष्य यहा मृत्युकी विषयताको न तो भूतकालमें प्राप्त हुआ है, न वर्तमानमें प्राप्त होता है, और न भविष्यमें मी प्राप्त होगा; अर्थात् जिसका मरण तीनों ही कालोंमें सम्भव नहीं है वह यदि किसी प्रिय जनके मरनेपर शोक करता है तो इसमें उसकी शोभा है। किन्तु जो मनुष्य समयानुसार स्वयं ही मरणको प्राप्त होता है उसका दूसरे किसी प्राणीके मरनेपर सोकाकुल होना अशोभनीय है । अभिप्राय यह कि जब सभी संसारी प्राणी समयानुसार मृत्युको प्राप्त होनेवाले हैं सब एकको दूसरेके मरनेपर शोक करना उचित नहीं है ॥ २९ ॥ जो सूर्यदेव एक ही दिनके भीतर प्रातःकालमें उद्यका अनुभव करता है और तत्पश्चात् मध्याहमें अतिशय ऊपर चढ़कर लक्ष्मीका अनुभव करता है वह भी जब सार्यकालमें निश्चयसे अस्तको प्राप्त होता है तब जन्ममरणादिस्वरूप मिन्न भिन्न अवस्थाओंके होनेपर किन मनुष्योंके हृदयमें विषाद रहता है ! अर्थात् ऐसी अवस्थामें किसीको भी विषाद नहीं करना चाहिये ॥ ३०॥ चन्द, सूर्य, वायु और पक्षी आदि आकाशमें ही गमन करते हैं; गाड़ी आदिकों का आवागमन पृथिवीके ऊपर ही होता है; तथा मत्स्यादिक जलमें ही संचार करते हैं । परन्तु यम ( मृत्यु) आकाश, पृथिवी और जलमें सभी स्थानोंपर पहुंचता है । इसीलिये संसारी प्राणियोंका प्रयल कहांपर हो सकता है ! अर्थात् काल जब सभी संसारी प्राणियोंको कवलित करता है तब उससे बचनेके लिये किया जानेवाला किसी भी प्राणीका प्रयत्न सफल नहीं हो सकता है 11 ३१ ॥ यहां तीनों लोकोंमें क्या देव, क्या देवता, क्या औषधि, क्या विद्या, क्या मणि, क्या मंत्र, क्या आश्रय, क्या मित्र, क्या वह सुगन्ध, अथवा क्या अन्य राजा आदि भी ऐसे शक्तिशाली हैं जो सब ही अपने गच्छन्ति परन्ति ! जनौल। Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. अनित्यपञ्चाशत् अम्ये वा किमु भूपतिप्रभृतयः सम्स्यत्र लोकत्रये यैः सर्वैरपि देहिनः स्वसमये कर्मोदितं वार्यते ॥ ३२ ॥ 285) गीर्वाणर अणिमादिस्वस्थ मनसा शक्ताः किमत्रोच्यते यस्तास्ते ऽपि परम्परेण स परस्तेभ्यः कियान् राक्षसः । रामाण्येन च मानुषेण निहतः प्रोल्ल सो ऽप्यम्बुधि रामो ऽप्यन्तकगोखराः समभवत् को उम्यो बलीयान् विधेः ॥ ३३ ॥ 286) सर्वदा बहनव्या जगत्काभन - 287 : ३-३५] मुग्धास्तत्र वधूमृगीगतधियस्तिष्ठन्ति लोकैणकाः । कालव्याध इमान निहन्ति पुरतः प्राप्तान् सदा निर्दयः तस्माज्जीवति नो शिशुर्न च युवा वृद्धो ऽपि नो कम्पन ॥ ३४ ॥ 287 ) संपण्यासलतः प्रियापरिलसल्ली मिरालिङ्गितः पुत्रादिमिपो रतिसुखप्रायैः फलैराधितः । १०३ I या अन्ये भूपतिप्रमृतयः किमु सन्ति । अत्र लोके यैः सर्वैरपि देहिनः जीवसर । स्वसमये कर्मेति वार्यते निवार्यते ॥ ३२ ॥ मो भव्याः । गीर्वाणाः देवाः । शताः समर्थाः सन्ति । अत्र लोके । तेषां देवानां किं बलम् उच्यते । किं कथ्यते । किंन्दमाः देवाः । भणिमादिस्वस्थैमनसः अणिमादिवियुकाः । तेऽपि देवाः । परं केवलम् । परेण शत्रुणा रावणेन । व्यस्ताः पीडिताः । तेभ्यः वेवेभ्यः । स राक्षसः रावणः । विवान् कियन्मात्रम् । स परः रावणः । च पुनः । अम्बुधिं समुद्र प्रोज रामाख्येन मानुषेण निहतः माहितः । रामः अपि अन्तकगोवरः यमगोचरः समभवत संजातः । विके कर्मणः सकाशात् अन्वः कः बलीयान् बलिष्ठः । न ब्रेऽपि ॥ २३ ॥ जनकाननं संसारवनम् । सर्वत्र उद्रतशोक-उत्पन्नशोक - दावदद्दनेन व्याप्तम् । तत्र संसारवने । मुग्धाः सूर्खाः । लोकैणकाः लोकसुगाः । वधूहगीतचिनः श्रीभूमीविषये प्राप्तबुद्धनः । कालव्यामः यमध्यार्थः । यदा इमान् लोकान् । निहन्ति मारयति । किंलक्षणान् लोकयुगान् । पुरतः अत्रे प्राप्तान् । किंलक्षणः कालव्याधः । सदा निर्दयः दयारहितः । तस्मात् कालभ्याघात । शिशुः बालः । नो जीवति । च पुनः । युवा न जीवति । कथन वृद्धोऽपि न जीवति ॥३४॥ संसतिकानने संसारवने । जनतः लोकवृक्षः । जातः उत्पन्नः । किंलक्षणः जनतरुः । संपच्चारुतः । विभूतिलतायुक्तः । लोके डालिः । पुनः किंलक्षणः जनतः । प्रिया खीभिः आफिशितः । पुनः मिणः अनतकः । पुत्राविप्रिय सुप समयमें उदयको प्राप्त हुए कर्मको रोक सकें ! अर्थात् उदयमें आये हुए कर्मका निवारण करनेके लिये उपर्युक्त देवादिकों में से कोई भी समर्थ नहीं है ॥ ३२ ॥ यहां अधिक क्या कहा जाय ! अणिमा-महिमा आदि ऋद्धियोंसे स्वस्थ मनवाले जो शक्तिशाली इन्द्रादि देव थे ये भी केवल एक शत्रुके द्वारा नासको प्राप्त हुए हैं। वह शत्रु भी रावण राक्षस था जो उन इन्द्रादिकी अपेक्षा कुछ भी नहीं था। फिर वह रावण राक्षस भी राम नामक मनुष्यके द्वारा समुद्रको लांघकर मारा गया । अन्तमें वह राम भी यमराजका विषय हो गया अर्थात् उसे भी मृत्युने नहीं छोड़ा । ठीक है- दैवसे अधिक बलशाली और कौन है ? अर्थात् कोई भी नहीं है || ३३ || यह संसाररूपी वन सर्वत्र उत्पन्न हुए शोकरूपी दावानल ( जंगलकी आग ) से व्याप्त है । उसमें मूढ़ जनरूपी हिरण श्रीरूपी हिरणी में आसक होकर रहते हैं । निर्दय काल (मृत्यु) रूपी व्याध (शिकारी) सामने आये हुए इन जनरूपी हिरणोंको सदा ही नष्ट किया करता है। उससे न कोई बालक बचता है, न कोई युवक बचता है और न कोई वृद्ध भी जीवित बचता है ॥ ३४ ॥ संसाररूपी वनमें उत्पन्न हुआ जो मनुष्यरूपी वृक्ष सम्पतिरूपी सुन्दर - लतासे सहित बीरूपी शोभायमान वेळोंसे बेष्टित, 4 २ क समस्याथः श्मान् । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ पान्वि-पश्चिति [28813-11 मातः संदविकालने जनक कामोप्रदान माय मला बस दुबैरम्पतिकमायोज्यते ॥ ३५॥ 288) वाम्मरलेष सुमन विपिना र पर प्राप्यते जून मृत्युमुणस्यन्ति मनुजासावायवो विम्यति । इत्यं पायवप्रसपलया मोहान्मुषेष एवं बुसोमित्रपुरे पति कृषिमा संसारमोय ३६ ॥ 289) स्वमुमण्मासि दरम्यान्मृत्युकपर्तहस्तमस्तपनजरोकमोलसबालमन्ये । निकटमपि न पश्यत्वापदां वसुनं भवसरसि बराको लोकमीनौष एपः ॥ ३७ ॥ 290) पयासमोर मतक्या पक्ष्याचा गातो मोहादेव मनावपि मजुते सर्व पर शात्मनः । परमः रवि बाविताईरमिषः बनतात । कारोवापानमा ने भक्त तदा। बन इतिः कीदते भासते। न किमपि च सारे। मनुम्पाः मुख बाल्छन्ति । तस्सुसम् । परमलम् । विपिना संगाल प्रायते । तत्र संसारे । नून निषितम् । मृत्युम् सपाधयन्ति प्रामुवन्ति । मतः मृत्योः सका. सातारःनिम्बाति महिलालम् यमुना प्रकारे । सममयप्रस-पासकड्दयाः मोकाः । कृषियः मिन्यइस्यः । मोहान् । मुलगा मुसारकोरी भयो पन्ति । किनको संघारम्भरे। सोर्मिप्रचुरे दुःशलहरीमुटे ॥३६॥ एषः बरामेमानौर मेर मास संसारसरोवरे । सूत्-चम-चैवत-धीवरसेन प्रसारित-प्रसारितसरा-तमोगासवाव्यासपातारकर । उनम् मापदाम् । समाम् । निकटम् अधि न पश्यति ॥३॥ जनः लोपः। क्तको खोरम्बासीबार । ग्रान् जनः वान गच्यतः पनन् । तथापि मोहात् एव भात्मनः परम् । स्पैर्य रिलम् । मनु । के यात्री प्राक- मानेन । पर्मान। न हरति न बासति । तत् खम् बात्मानम् । पुस्पैदिसपी मनोहर पसे स्मनीम तमा विश्यमोगबनित मुख जैसे फलोंसे परिपूर्ण होता है; वह यदि मृयुरूपी तीन वापानसे बास न होता तो विद्वान् बन और अन्य क्या देखें? अर्थात् वह मनुष्यरूप वृक्ष म कलाए दावानरसे ना होता ही है। यह देखते हुए भी विद्वजन आत्महितमें प्रवृत्त नहीं होते, यह सेदकी अत है ।। ३५ ॥ संसारमें मनुष्य सुखकी इच्छा करते ही हैं, परन्तु वह उन्हें केवल कर्मके द्वारा दिया गया प्राप्त होब है। वे मनुष्य निमबसे मृत्युको तो प्राप्त होते हैं, परन्तु उससे डरते हैं । इस प्रकार वे दुईदि मनुप बदर इच्छा (सुखामिलपा) और मय ( मृत्युमय ) को धारण करते हुए अज्ञानतासे अनेक दुःसोरूप म्हरोंवाले संसाररूपी मयानक समुद्र में व्यर्थ ही गिरते हैं ॥ ३६ ॥ यह विचारा समापी मतियों समुदाय संसाररूपी सरोवरके भीतर अपने सुखरूप जलमें क्रीडा करता हुआ मृत्युरूपी पीसके हासे लिये गये धने वृद्धत्वरूपी विस्तृत जालके मध्येमें फंसकर निकटवर्ती भी तीव्र यापत्तियों के समूहको नहीं देखता है। विशेषार्य-जिस प्रकार मछलियां सरोवरके भीतर जलमें कीड़ा करती हुई उसमें इतनी आसक हो जाती है कि उन्हें धीवर के द्वारा अपने पकड़नेके लिये फैलाये गये यला मी धान नहीं रहना इसीलिये उन्हें उसमें फंसकर मरम्पका कष्ट सहना पड़ता है । ठीक इसी प्रकार निवारा यह पानीसमूह भी संसारले मीतर सातावेदनीयजनित अल्प सुखमें इतना अधिक मग्न हो जाता है उसे मृत्युको प्राप्त करनेवाले वृद्धत्व (बुढ़ापा) के प्राप्त हो जाने पर उसका भान नहीं होता और इसनि मतमे वह काका ग्रास बनकर उसप दुःखको सहता है | ३७ !! मनुष्य मरणको प्राप्त हुए बीजोंकि सम्बन्ध सुनता है, त्या वर्तमानमें उक्त मरणको प्राप्त होनेवाले बहुत से जीवोंको स्वयं देखता भी मादमा । २४मा गाए । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०५ ---293 : ३-४१ ३. अमिलपशाच संप्राप्ते ऽपि व वार्धक सहमति प्रायो न धर्माय यत् तभास्यधिकाधिक सामसकरपुवादिमियने ।। 291) दुधेयाकतकर्मशिल्पिरचितं पुम्सन्धि दुर्वधर्म सापायस्थिति दोषधातुमलषस्सर्वन यावरम् । आधिव्याधिजरामृतिप्रभृतयो यबान चिन तत् तधि स्थिरता पुषैरपि वपुष्यत्रापि यम्मृम्यते ॥ ३९ ॥ 294 ) लम्पा भीरिह पाविता वसुमती भुक्ता समुद्रावधिः प्राप्तास्ते विषया मनोहरतराः खर्गे ऽपि ये दुर्लमा।। पश्चाचेम्मृतिरागमिष्यति ततस्तात्सर्वमेतविषा श्लिष्ट भोज्यमिवातिरम्यमपि पिग्मुक्तिः परं सम्यताम् ॥ ४० ॥ 293 ) युखे ताबदल त्येभतुरगा वीराव रसा मुश मंत्रः शौर्यमसिभ तावदतुला कार्यस्य संसाधकार। पुत्रादिभिर्वन्धनैः । मसात् वारवारम् । अधिकाधिक प्रभाति ॥ ३८ ॥ यत् शरीरम् । बुबहाक्तम्मकिल्पिरचितं पापकर्म शिल्पी विज्ञानी तेन रचितम् । यत् शरीरम् । दुःसन्धि दुर्वन्धनम् । यत् सरीरम् । सापायस्थिति । पोषधातुमनवत् मलभूतम् । यत शरीरम् । पारं विनश्वरम् अस्ति । अत्र संसारे । यत् आधिः मानसी-म्यया । व्याधिः शारीरव्यथा । जरा-मृति-मरमप्रमतयः महयः रोगाः सन्ति । तत् चित्रं न अस्ति । बुधैः भव्यैः । अपि । अत्र । वपुवि शरीरे । यत् सिरता । सम्पते अवलोक्यते। तत् चित्रम् भाश्चर्यम् ॥ ३९ ॥ इह संसारे । श्रीः लामीः सम्भा । वामिकता वसुमती समुदायषिः मुका। ते विषयाः मनोहर. तराः प्रामाः ये विषयाः मार्गेऽपि दुर्मभाः । , पथात् मृतिः भागमिष्यति । सतः कारणात् । एतत्सर्वम् । रम्म मुखम् अपि धिक् । मिलक्षणं सुखम् । विषाकिट भोज्यम् इव । पर केवलम् । मुकि मम्यतां विचार्यताम् । ॥ ४ ॥ राशः रपेभरगाः तावत् । युद्धे सङ्क्रामे । अल समर्थाः । वीराश्च । भृशम् प्रत्ययम् । तावत् दसाः सगर्वाः सन्ति । मः तावस्फुरति । शौम च। असिव भगः । तावस्कार्मस्य संसाधकास्वायत्सन्ति यापत् यमः कुखः को प्राप्तः। सम्मुख नैव भावति । किमक्षणो है; तो भी वह केवल मोहके कारण अपनेको अतिशय स्थिर मानता है। इसीलिये वृद्धत्वके प्राप्त हो जानेपर भी चूंकि वह प्रायः धर्मकी अभिलाषा नहीं करता, अत एव अपनेको निरन्तर पुत्रादिरूप बन्धनोंसे अत्यधिक बांध लेता है ॥ ३८ ॥ जो शरीर दुष्ट आचरणसे उपार्जित कर्मरूपी कारीगरके द्वारा रचा गया है, जिसकी सन्धियां व बन्धन निन्ध है, जिसकी स्थिति विनाशसे सहित है अर्थात् जो विना है। जो रोगादि दोषों, सात घातुओं एवं मलसे परिपूर्ण है; तथा जो नष्ट होनेवाला है, उसके साथ यदि आधि ( मानसिक चिन्ता ), रोग, बुढ़ापा और मरण आदि रहते हैं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं है। परन्तु आश्चर्य तो केवल इसमें है कि विद्वान् मनुष्य भी उस शरीरमें स्थिरताको खोजते हैं ।। ३९ ।। हे आत्मन् ! तूने इच्छित लक्ष्मीको पा लिया है, समुद्र पर्यन्त पृथिवीको भी भोग लिया है, तथा जो विषय स्वर्गमें मी दुर्लभ हैं उन अतिशय मनोहर विषयोंको मी प्राप्त कर लिया है। फिर भी यदि पीछे मृत्यु आनेवाली है तो यह सब विषसे संयुक्त आहारके समान अत्यन्त रमणीय होकर भी पिकारके योग्य है। इसलिये तू एक मात्र मुक्तिकी खोज कर ॥४०॥ युद्ध में राजाके रथ, हापी, पोडे, अमिमानी सुभट, मंत्र, शौर्य और तलवार; यह सब अनुपम सामग्री तभी तक कार्यको सिद्ध कर सकती है जब तक कि दुष्ट भूखा यमराज (मृत्यु) क्रोधित होकर मारनेकी इच्छासे सामने नहीं दौड़ता है। इसलिये विद्वान् पुरुषोंको उस यमसे १.मात्राः। कयामत यमः सन्मुस। पचन. १४ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पनवन्धि-पचार्षिशतिः [293 :राम पि क्षुपिता दियभाना थार्यालयमा कुखोपापति मैव सम्मुखमिवो यचो विधेयो र ॥४१॥ 294 ) राजापि क्षणमाइतो विषिषशाशयते निश्चित सर्वष्याधिषिवर्जितो ऽपि तरुणो ऽप्याशु क्षयं गच्छति । अन्यः किं किल सारतामुपगते श्रीजीषिसे दे तयोः संसारे स्थितिरीहशीति विदुषा काम्यत्र कार्यो मवः ॥४२॥ 295) इन्ति व्योम स मुष्टिनाथ सरितं शुष्को तरस्याकुलः तृष्णातो ऽथ मरीचिकाः पिबति च प्रायः प्रमतो भवन् । प्रोत्तुजाखलचूलिकागतमयत्प्रेडत्प्रदीपोपमैः यः सम्पत्सुतकामिमीप्रभृतिभिः कुर्यान्मर्व मानवः ।। ४३॥ 296 ) लक्ष्मी व्याधमृगीमतीव चपलामाभिस्य भूषा मृगाः पुत्रादीमपरान् मृगानतिरपा निम्ति सेर्थे किल । यमः। बुधितः भतिनियमनाः । पुनः किंलक्षणः समः । जिषासुः प्रसिद्धम् इच्छुः जिपस्सुः । बुधैः पण्डितैः । इतः यमात् । यनः विश्यः कर्तव्यः ॥४१॥ राजा अपि । विधिवशात् कर्मवशात् । क्षणमात्रतः क्षणतः । निवितम् । रहायते स इव पाचरति। सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुप्पः आशु क्षयं गच्छति । अन्यैः किम् । किल इति सत्ये । श्रीजीविते हे सारताम् उपगते । सयोः दयोः श्रीमीषितयोः । इसी स्थितिः । इति ज्ञात्वा । विदुषा पण्डितेन । अन्यत्र । क कस्मिन् विषये। मदः कार्यः । अपितु मदः म कर्सम्यः ॥ ४२ ॥ अन्न संसारे । यः मानवः सम्पत्सुतकामिनीप्रभृतिमिः । मदं गर्वम् । कुर्यात् । किलक्षणः संपामुतकामिनीप्रतिभिः । प्रकर्षेण उतुझा अचलपूलिका तस्यां गतः मरुत् तेन प्रेशतः वे प्रवीपाः तस्समानैः । यः मद करोति स मूर्खः मुष्टिना ध्योम हन्ति मारयति । मथ भाकुलः शुष्काम् । सरित मदरीम् । तरति । अब पुमः । प्रायः पाहल्येन । प्रमत्तः भवन तृष्णातः मरीचिकाः पियति । इति ज्ञात्वा । मदः न कार्यः न कर्तव्यः ॥३॥ भूपाः मृगाः। अपनी रक्षा करनेके लिये अर्थात् मोक्षप्राप्तिके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४१॥ भाग्यवश राजा भी क्षणभरमें निश्चयसे रंकके समान हो जाता है, तथा समस्त रोगोंसे रहित युवा पुरुष भी शीघ्र ही मरणको प्राप्त होता है । इस प्रकार अन्य पदार्थोके विषय में तो क्या कहा जाय, किन्तु जो लक्ष्मी और जीवित दोनों ही संसारमै श्रेष्ठ समझे जाते हैं उनकी भी जब ऐसी (उपर्युक्त) स्थिति है तब विद्वान् मनुष्यको अन्य किसके विषयमें अभिमान करना चाहिये ! अर्थात् अभिमान करनेके योग्य कोई भी पदार्थ यहां सायी नहीं है॥४२॥ सम्पति, पुत्र और स्त्री आदि पदार्थ ऊंचे पर्वतकी शिखरपर स्थित व वायुसे चलायमान दीपकके समान शीघ्र ही नाशको प्राप्त होनेवाले हैं। फिर भी जो मनुष्य उनके विषयमें स्थिरताका अभिमान करता है वह मानो मुट्ठीसे आकाशको नष्ट करता है, अथवा व्याकुल होकर सूखी ( जलसे रहित ) नदीको तैरता है, अथवा प्याससे पीड़ित होकर प्रमादयुक्त होता हुआ वालको पीता है। विशेषार्थ- जिस प्रकार मुट्ठीसे आकाशको ताड़ित करना, जलरहित नदीमें तैरना, और प्याससे पीड़ित होकर वालुका पान करना; यह सब कार्य असम्भव होनेसे मनुष्यकी अज्ञानताका घोतक है उसी प्रकार जो सम्पत्ति, पुत्र और स्त्री आदि पदार्थ देखते देखते ही नष्ट होनेवाले हैं उनके विषयमें अभिमान करना भी मनुष्यकी अज्ञानताको प्रगट करता है । कारण कि यदि उक्त पदार्थ चिरस्थायी होते तो उनके विषयमें अमिमान करना उचित कहा जा सकता था, सो तो हैं नहीं ॥ ४३ ॥ राजारूपी मृग अत्यन्त चंचल ऐसी लक्ष्मीरूपी ज्याधकी हिरणीका आश्रय लेकर ईर्ष्यायुक्त होते हुए अतिशय क्रोषसे पुत्रादिरूपी दूसरे मृगोंका घात करते हैं। वे जिस यमरूपी व्याधने बहुत सी १च न मरता मैखंतः। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -298 : ३-४६ ] ३. अनित्यपश्चाशत् सखीभूतघनापवुन्नतधनुः संलग्नहर नो पश्यन्ति समीपमागतमपि शुद्धं यमं लुब्धकम् ॥ ४४ ॥ 297) मृत्योर्गोरमागते निजजने मोहेन यः शोक नो गन्धो ऽपि गुणस्य तस्य बहवो दोषाः पुनर्निचितम् । पर्यंत पक्ष नवशितुः पापं रुक च मृति दुर्गतिरथ स्याद्दीर्घसंसारिता ॥ ४५ ॥ 298) आपन्यसंसारे क्रियते विदुषा किमापदि विषादः । कस्यत्ति लङ्घनसः प्रविधाय वतुष्पथे सदनम् ॥ ४६ ॥ लक्ष्मीम् । व्याषमृगी भिमृगीम् । अतीव चपलाम् भाश्रित्य पुत्रादीन् परान मृगान् । अतिरुषा कोपेन । सेर्व्यम् ईर्ष्यायुक्तं गथा स्यात्तथा । निघ्नन्ति मारयन्ति । किल इति सत्ये । क्रुद्धं गर्म कुब्धकं समीपम् आगतम् अपि न पश्यन्ति । किंलक्षण यमव्याधम् । सज्जीभूतघनापदुतधनुः संहृत् शरं वाणम् ॥ ४४ ॥ अत्र लोके । निजजने । मृत्योगोचरं यमस्य गोचरम् । भागते सति । यः मूद्रः । मोहेन शोषकृत् भवति । तस्य जनस्य । गुणलेशोऽपि गन्धोऽपि वासनामात्रम् अपि नो अस्ति । पुनः निश्चित दोषा बहवः सन्ति । तस्य शोकी[कि ] जनस्य दुःखं वर्धते । एक निश्चितम् । चतुर्वर्गः धर्मार्थकाममोक्षाः । नश्यति' तस्य मत्तेः विभ्रमः । स्माद्भवेत् । तस्य पार्थ भवति । तेन पापेन रुकु रोगं भवति । तेन रुजा सृतिः मरणं भवति । च पुनः । दुर्गतिः भवति । अथ तथा दुर्गल्या कीर्षसंसारिता । स्वाद्भवेत् ॥ ४५ ॥ आपन्मयसेसारे आपदि सत्याम् । विदुषा पण्डितेन । विवादः किं क्रियते । अपि तु न क्रियते । च पुनः । चतुष्पथे । सदर्भ गृहं वा शयनम् । प्रविधाय कृत्वा । अतः उपद्रवात् । I आपत्तियरूपी धनुषको सुसज्जित करके उसके ऊपर संहार करनेवाले माणको रख लिया है तथा जो अपने समीपमें आ चुका है ऐसे उस क्रोधको प्राप्त हुए यमरूपी व्याधको भी नहीं देखते हैं || विशेषार्थ - जिस प्रकार हिरण व्याघके द्वारा पकड़ी गई ( मरणोन्मुख ) हिरणी के निमित्तसे ईर्ष्या युक्त होकर दूसरे हिरणोंका तो घात करते हैं, परन्तु वे उस व्याधकी ओर नहीं देखते जो कि उनका वध करनेके लिये धनुष-बाणसे सुसज्जित होकर समीपमें आ चुका है। ठीक उसी प्रकारसे राजा लोग चंचल राज्यलक्ष्मीके निमित्तसे क्रुद्ध होकर अन्यकी तो बात क्या किन्तु पुत्रादिकोंका भी घात करते हैं, परन्तु वे उस यमराज (मृत्यु) को नहीं देखते जो कि अनेक आपत्तियोंमें डालकर उन्हें ग्रहण करनेके लिये समीपमें आ चुका है । तात्पर्य यह कि जो धन-सम्पत्ति कुछ ही समय रहकर नियमसे नष्ट हो जानेवाली है उसके निमित्तसे मनुष्योंको दूसरे प्राणियों के लिये कष्ट नहीं पहुंचाना चाहिये । किन्तु अपने आपको भी नश्वर समझकर कल्याणके मार्ग में लग जाना चाहिये ॥ ४४ ॥ अपने किसी सम्बन्धी पुरुषका मरण हो जानेपर जो अज्ञानके वश होकर शोक करता है उसके पास गुणकी गन्ध (लेश मात्र) भी नहीं है, परन्तु दोष उसके पास बहुत-से हैं; यह निश्चित है । इस शोकसे उसका दुख अधिक बढ़ता है; धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप चारों पुरुषार्थ नष्ट होते हैं; बुद्धिमें विपरीता आती है, तथा पाप (असातावेदनीय ) कर्मका बन्ध भी होता है, रोग उत्पन्न होता है, तथा अन्तर्मे मरणको प्राप्त होकर वह नरकादि दुर्गतिको प्राप्त होता है । इस प्रकार उसका संसारपरिभ्रमण लंबा हो जाता है ॥ ४५ ॥ इस आपत्तिस्वरूप संसार में किसी विशेष आपत्तिके प्राप्त होनेपर विद्वान् पुरुष क्या विषाद करता है ? अर्थात् नहीं करता । ठीक है-चौरस्तेमें ( जहां चारों ओर रास्ता जाता है ) मकान बनाकर कौन-सा मनुष्य कांवे जानेके श्रवसे दुखी होगा ? अर्थात् कोई नहीं होगा || विशेषार्थ - जिस प्रकार चौरस्तेमें स्थित रहकर यदि कोई मनुष्य गाड़ी आदिके द्वारा कुचले जानेकी आशंका करता है तो यह १ चतुः नश्यति । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ पद्ममन्विपचविंशतिः [299: ३-४७ 299) वातूल पष किमु किं ग्रहसंगृहीतो भ्रान्तो ऽथ वा किसु जनः किमथ प्रमत्तः । जानाति पश्यति शृणोति च जीवितादि विद्युच्चलं तदपि मो कुरुते स्वकार्यम् ॥ ४७ ॥ 300 ) व मौषधमस्य नैव कथितः कस्याप्ययं मन्त्रिणो नो कुर्याच्छुचमेवमुतमतिर्लोकान्तरस्थे निजे । यज्ञा यान्ति यतो ऽङ्गिः शिथिलता सर्वे मृतेः संनिधौ बन्धाधर्मविनिर्मिताः परिलस वर्षाम्बुसिका इव ॥ ४८ ॥ 301) स्वकर्मव्याघ्रेण स्फुरितनिजकालादिमहसा समाघ्रातः साक्षाच्चरणरहिते संस्तुतिबने । प्रिया मे पुत्रा मे द्रविणमपि मे में गृहमिदं घवयं मे मे पशुरिव जनो याति मरणम् ॥ ४९ ॥ 1 कः श्रस्यति कः भयं करोति । न कोऽपि ॥ ४६ ॥ एषः जनः किमु चातुलः । किं वा प्रहेण संगृहीतः । अथवा किमु भ्रान्तः। अप किं प्रमत्तः । च पुनः । एषः जनः जीवितादि शिशुवलं जानाति पश्यति शृणोति । तदपि खकार्य नो कुरुते ॥ ४७ ॥ उमतमत्तिः ज्ञानवान् । निजे इष्टे । लोकान्तरस्थे सति भृते सति । एवं शुचं शोकं नो कुर्यात् । एवं कथम् । अस्य रोगिणः पुरुषस्य ओषधं नो दत्तम् । अयं कस्यापि मन्त्रिणः नैव कथितः । एवं शुभं शोकं नो कुर्यात् । यतः अग्निः जीवस्य । सृतेः यमस्य । संनिधौ समीपे । सर्वे यत्नाः शिथिलतां यान्ति । यथा चर्मविनिर्मिताः बन्धाः परिलसद्वर्षाम्बुसिता इव जलेन सिकाः चर्मबन्धाः शिथिलता यान्ति ॥ ४८ ॥ जनः लोकः । संस्कृतिवने संसारवने । स्वकर्मव्याघ्रेण साक्षात् समाभासः गृहीतः। भरणे याति । किंलक्षणे संसारे । शरणरहिते । किंलक्षणेन स्वकर्मव्याघ्रेण । स्फुरितनिजकालादिमइसा । एवं वदन् मरणं याति । एवं उसकी अज्ञानता ही कही जाती है। ठीक इसी प्रकारसे जब कि संसारका स्वरूप ही आपत्तिमय है तब मला ऐसे संसार में रहकर किसी आपत्तिके आनेपर खेदखिन्न होना, यह भी अतिशय अज्ञानताका द्योतक है ॥ ४६ ॥ यह मनुष्य क्या वातरोगी है, क्या भूत-पिशाच आदिसे ग्रहण किया गया है, क्या भ्रान्तिको प्राप्त हुआ है, अथवा क्या पागल है ? कारण कि वह ' जीवित आदि बिजलीके समान चंचल है' इस बातको जानता है, देखता है और सुनता भी है; तो भी अपने कार्य ( आत्महित) को नहीं करता है || ४७॥ किसी प्रियजन मरणको प्राप्त होनेपर विवेकी मनुष्य 'इसको औषध नहीं दी गई, अथवा इसके विषयमें किसी मात्रिक के लिये नहीं कहा गया' इस प्रकारसे शोकको नहीं करता है। कारण कि मृत्युके निकट आनेपर प्राणियों के सभी प्रयत्न इस प्रकार शिथिलताको प्राप्त होते हैं जिस प्रकार कि चमड़ेसे बनाये गये बन्धन वर्षा के मल्में भीगकर शिथिल हो जाते हैं । अर्थात् मृत्युसे बचने के लिये किया जानेवाला प्रयत्न कभी किसीका सफल नहीं होता है ||४८|| जो संसाररूपी वन रक्षकोंसे रहित है उसमें अपने उदयकाल आदिरूप पराक्रमसे संयुक्त ऐसे कर्मरूपी व्याघ्रके द्वारा ग्रहण किया गया यह मनुष्यरूपी पशु 'यह प्रिया मेरी है, ये पुत्र मेरे हैं, यह द्रव्य मेरा है, और यह घर भी मेरा है' इस प्रकार 'मेरा मेरा' कहता हुआ मरणको प्राप्त हो जाता है । विशेषार्थ - जिस प्रकार वनमें गन्धको पाकर बीतेके द्वारा पकड़े गये बकरे आदि पशुकी रक्षा करनेवाला वहां कोई नहीं है - वह 'मैं मैं' शब्दको करता हुआ वहीं पर मरणको प्राप्त होता है उसी प्रकार इस संसार में कर्मके आधीन हुए प्राणीकी भी मृत्युसे रक्षा करनेवाला कोई नहीं है। फिर भी मोहके वशीभूत होकर यह मनुष्य उस मृत्युकी ओर ध्यान न देकर जो खी-पुत्रादि वाद्य पदार्थ कभी अपने नहीं हो सकते उनमें ममत्वबुद्धि रखकर 'मे में' ( यह स्त्री मेरी है, ये पुत्र मेरे हैं आदि ) करता हुआ व्यर्थ में संक्केशको प्राप्त होता Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 9 –304 : ३-५२ ] ३. अनित्यपश्चाशत् 302 ) दिनानि खण्डानि गुरुणि मृत्युना विहन्यमानस्य निजायुषो भृशम् । पतन्ति पश्यन्नपि नित्यमप्रतः स्थिरत्वमात्मन्यभिमन्यते जडः ॥ ५० ॥ 303 ) कालेन प्रलयं व्रजन्ति नियतं ते ऽपीन्द्र चन्द्रादयः का वार्तान्यजनस्य कीटसदृशो ऽशक्तेरदीर्घायुषः । तस्मान्मृत्युमुपागते प्रियतमे मोहं मुधा मा कृथाः कालः क्रीडति नात्र येत सहसा तत्किचिदन्विष्यताम् ॥ ५१ ॥ 304) संयोगो यदि विप्रयोगविधिना जन्म तन्मृत्युना सम्पचेद्विपदा सुखं यदि सदा दुःखेन भाव्यं ध्रुवम् । संसारे ऽत्र मुहुर्मुहुर्भदुविधा यस्यान्तरशेलसद्वेषाम्यत्यनीकृतानि सतः शोको न हर्षः क्वचित् ॥ ५२ ॥ १०९, 1 कथम् । प्रिया मे पुत्रा मे द्रविणमपि में इदं गृई मे । एवं वदन् पशुरिव अजशिशुरिव मरणं याति ॥ ४९ ॥ निजायुषः । गुरूणि बहुतराणि । खण्डानि दिनानि । नित्यम् अग्रतः पतन्ति । किंलक्षणस्य निजायुषः । मृत्युना विहन्यमानस्य यमेन पीव्यमानस्य । जय : मूर्खजनः । पश्यन् अपि आत्माने विषये स्थिरत्वम् अभिमन्यते ॥ ५० ॥ भो भव्याः श्रूयताम् । कालेन कृत्वा । तेऽपि इन्द्रचन्द्रादयः । नियतं नि नार्थ गच्छति अन्यजनका किंलक्षणस्स अन्यजनस्य । कीटसदृशः पतनसमानस्य । पुनः किंलक्षणस्य अन्यजनस्य । श्रशक्तेः असमर्थस्य । पुनः किलक्षणस्य अन्यजनस्य । rete: स्तोकायुर्जनस्य । तस्मात्कारणात् । प्रियतमे इष्टे जनै मृत्युम् उपागते सति । सुधा वृथा । मोहं मा कृथाः । सहसा तत्किचित् । अन्विष्यताम् अवलोकयताम् । येन आत्मावलोकनेन । अत्र कालः न श्रीडति ॥ ५१ ॥ यत्र संसारे । तं निखितम् । मदि सुखम् अस्ति तदा दुःन भाव्यं व्याप्तम् अस्ति । खेत् यदि । संपत् मस्ति तदा विपदा भाष्यम् अस्ति । अत्र संसारे । यदि चेत् । जन्म । तत् जन्म । मृत्युना भाग्यम् अस्ति । यदि चेत् । संयोगः इष्टमिलनम् अस्ति । तदा विप्रयोगविधिना वियोगेन । है ।। ४९ ।। यह अज्ञानी प्राणी मृत्युके द्वारा खण्डित की जानेवाली अपनी आयुके दिनरूप दीर्घ खण्डों को हुआ भी अपनेको स्थिर मानता है ॥ ५० ॥ जब वे इन्द्र और चन्द्र मृत्युको प्राप्त होते हैं तब मला कीड़ेके सदृश निर्बल एवं अल्पायु अन्य जनकी तो बात ही क्या है ? अर्थात् वह तो निःसन्देह मरणको प्राप्त होवेगा ही। इसलिये हे भव्य जीव ! सदा सामने गिरते हुए देखता आदि भी समय पाकर निश्चयसे । किसी अत्यन्त प्रिय मनुष्यके मरणको प्राप्त होनेपर व्यर्थ में मोहको मत कर जिससे कि वह काल (मृत्यु) सहसा यहां क्रीड़ा न कर सके ॥ ५१ ॥ प्रकारकी अवस्थाओं रूप वेपोंकी भिन्नतासे नटके समान आचरण करते हैं संयोग होता है तो वियोग भी उसका अवश्य होना चाहिये, यदि जन्म है तो मृत्यु भी अवश्य होनी चाहिये, यदि सम्पत्ति है तो विपत्ति भी अवश्य होनी चाहिये, तथा यदि सुख है तो दुख भी अवश्य होना चाहिये । इसीलिये सज्जन मनुष्यको इष्टसंयोगादिके होनेपर तो हर्ष और इष्टवियोगादिके होनेपर शोक भी नहीं करना चाहिये || विशेषार्थ - जिस प्रकार नट ( नाटकका पात्र ) आवश्यकतानुसार राजा और रंक आदि अनेक प्रकारके वेषोंको तो ग्रहण करता है; परन्तु वह संयोग और वियोग, जन्म और मरण, सम्पत्ति और विपत्ति तथा सुख और दुख आदिमें अन्तःकरणसे हर्ष एवं विषादको प्राप्त नहीं होता। कारण कि वह अपनी यथार्थ अवस्था और ग्रहण किये हुए उन कृत्रिम वेषोंमें भेद समझता है । उसी प्रकार विवेकी मनुष्य भी उपर्युक्त संयोग-वियोग एवं नर-नारकादि अवस्थाओंमें कभी हर्ष और विषादको नहीं प्राप्त होता १ कपचरिक मरणं । कीटशः पुनः । किन्तु ऐसा कुछ उपाय खोज, जहांपर प्राणी बार बार बहुत ऐसे उस संसार में यदि इष्टका Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन्ननन्दि-पञ्चविंशतिः [905 : २५१805) छोकावेतसि सिम्सयास्यनुदिनं कल्याणमेवात्मनः कुर्यात्सा भवितव्यतागतषती तत्सत्र यद्रोचते। मोहोल्लासपशादतिप्रसरतो हित्वा विकल्पान् बहून् रागद्वेषषियोज्झितैरिति सप्ला सद्धिालुस स्थीयताम ॥ ५३॥ 306) लोका गृहप्रियतमासुतजीवितादि पाताहतध्वजपटामचलं समस्तम् । व्यामोहमत्र परिहस्य धनादिमित्रे धर्मे मतिं कुरुत किं बहुमिपंचोभिः ॥ ५४॥ 307) पुत्रादिशोकशिखिशान्तिकरी यतीन्द्रश्रीपमनन्दिवदनाम्बुधरप्रसूतिः । सबोधसस्यजननी जयतादनित्यपश्चाशदुन्नत धिराममृतकवृष्टिः ॥ ५५ ॥ व्या पीडितम् अस्ति । फिलक्षणे संसारे। मुहुर्मतुः वारंवारम् । बहुविधावस्थान्तरमोकासद्वेषान्यत्वैनटीकृताजिनि बहुविधगत्यन्तर ः नर्तितजीनगणे। सप्तः सत्पुरुषस्य । क्वचित्काले शोकः न कार्यः चिरकाले हर्षः न कार्यः ॥५२॥ रागद्वेषषिोज्झितैः रागद्वेषर हितैः । सद्भिः चतुरैः । सदा काछे। सुखम् । स्वीयता तिछताम् । इति बिकल्पान् बहून् । हित्वा त्यक्त्वा । किंलक्षणान् विकल्पान् । मोहोबासक्शात् मोहप्रभावात् । अतिप्रसरतः । लोकाः जनाः। चेतसि विषये। अनुदिनं दिन दिन प्रति । भात्मनः कल्याणम् एव चिन्तयन्ति । सा मागतपक्षी भवितव्यता । तत्र लोकरोचने । यहोचते तत्कुर्यात् ॥ ५३ ॥ भो लोकाः गृहप्रियतमा-श्री सुत-पुत्र-जीवितादि बातेन पचनेन भाइत पीडित वजपटामं तद्वत् चलं वपलम् । समस्तम् । विजानीत । यत्र धनादिषु धनादिमित्रे म्यामोहम् । परिहस्य परित्यक्त्वा । धर्मे मतिं कुरुत । बहुभिर्यचोभिः किम् । न किमपि ॥ ५४॥ अनित्यपश्चाशत् जयतात् । किलक्षणा अनिस्यपश्चाशत् । समतधियाम् उन्नतबुद्धीनाम् । अमृतकप्रष्टिः । पुनः किंलक्षणा अनित्यपश्चाशत् । पुत्रादिशोक [शिम्ति अधि-शान्तिकी । पुनः किंलक्षणा अनित्यपश्चाशत् । यतीन्द्रश्रीपयनन्दिवदनाम्बुधर-मेषः तस्मात् प्रसूतिः उत्पना । पुनः विलक्षणा अनित्यपञ्चाशत् । सोधसस्यअननी मोघान्यजन्मभूमिः ॥ ५५ ॥ इति अनित्यपश्चाशत ॥ ३ ॥ । -- - कारण कि वह समझता है कि संसारका स्वरूप ही जन्म-मरण है। इसमें पूर्वोपार्जित कर्मके अनुसार प्राणियोंको कभी इष्टका संयोग और कभी उसका वियोग भी अवश्य होता है। सम्पत्ति और विपत्ति कभी किसीके नियत नहीं है- यदि मनुष्य कभी सम्पत्तिशाली होता है तो कभी वह अशुभ कर्मके उदयसे विपत्तिमस्त भी देखा जाता है। अतएव उनमें हर्ष और विपादको प्राप्त होना बुद्धिमत्ता नहीं है ॥ ५२ ॥ मनुष्य मनमें प्रतिदिन अपने कल्याणका ही विचार करते हैं, किन्तु आई हुई भवितव्यता (देव) वही करती है जो कि उसको रुचता है। इसलिये सज्जन पुरुष राग-द्वेषरूपी विषसे रहित होते हुए मोहके प्रभावसे अतिशय विस्तारको प्राप्त होनेयाले बहुतसे विकल्पोंको छोड़कर सदा सुखपूर्वक स्थित रहें ॥५३ ॥ हे भव्य जनो ! अधिक कहनेसे क्या ? जो गृह, स्त्री, पुत्र और जीवित आदि सब वायुसे ताड़ित ध्वजाके वस्त्रके अग्रभागके समान चंचल हैं उनके विषयमें तथा धन एवं मित्र आदिके विषयमें मोहको छोड़कर धर्ममें बुद्धिको करो ।। ५४ | श्री पमनन्दी मुनीन्द्रके मुखरूपी मेघसे उत्पन्न हुई जो अनित्यपश्चाशत् (पचास श्लोकमय अनित्यताका प्रकरण ) रूप अद्वितीय अमृतकी वर्षा विद्वज्जनोंके लिये पुत्रादिके शोकरूपी अमिको शान्त करके सम्यक्षानरूप सस्य ( फसल) को उत्पन्न करती है वह जयवंत होवे ॥ ५५॥ इस प्रकार अनित्यपञ्चाशत् समाप्त हुआ ॥ ३ ॥ भक वेषान्यथ। अत्र धनादिमित्र। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४. एकत्वसप्ततिः] 308) चिदानन्दैकसदार्य परमात्मानमव्ययम् । प्रणमामि सदा शाम्त शान्तये सर्वकर्मणाम् ॥१५ 309 ) खादिपञ्चकनिर्मुक्तं कर्माष्टकविवर्जितम् । चिदात्मकं पर ज्योतिषन्ते देकेन्द्र पूजितम् ॥२॥ 310) यदव्यक्तमयोधानां व्यक्त सद्बोधचक्षुषाम् । सारं यत्सर्ववस्तूनां नमस्तस्मै चिदात्मने ॥३॥ 311) चितत्त्वं तत्प्रतिप्राणिदेह एवं व्यवस्थितम् । तमश्छन्ना न जानन्ति भ्रमन्ति च रहिहिम्मत 312) भ्रमन्तोऽपि सदा शास्रजाले महति चिन । न विदन्ति परं तत्त्वं दारुणीव हुताशनम् ॥५॥ 313) केचित्फेनापि कारुण्यात्कथ्यमानमपि स्फुटम् ।न मन्यन्ते न शृण्वन्ति महामोइमलीमसाः। _314) भूरिधर्मात्मकं तत्त्वं दुःश्रुतेमन्दबुद्धयः । जात्यन्धहस्तिरूपेण शास्वा नश्यन्ति केचन ॥७॥ अई पद्मनन्दाचार्यः। सदा सर्वदा ! प्रणमामि । कम् । परमात्मानम् । किलक्षणं परमात्मानम् । विदानन्दैकसदार्थ ज्ञान-आनन्दैकखभावम् । पुनः किंलक्षणे परमात्मानम् । भम्ययं विनापारहितम् । पुनः किमाणं परमात्माकम् । भात सर्वोपाधिवर्षितम् । एवंविध परमात्मा सदा प्रणमामि । फले । सर्वकर्मणां शान्तये ॥1॥ चिदात्म ज्योतिः भई पन्दे । रिलक्षणे ज्योतिः । सादिपकनिर्मुक्तम् भाकाशादिपञ्चदम्यरहित वा पाइन्द्रियरहितम् । पुनः किलक्षणं ज्योतिः । कर्मारकविवर्जितम् । परम् उस्कृष्ठम् । वन्दे । पुनः किलक्षणं ज्योतिः । देवेन्द्रपूजितम् ॥ ३ ॥ तस्मै चिदात्मने नमः। यत्परंज्योतिः। अबोचाना गोधरहितानाम् 1 भव्यक्तम् मप्रकटम् । यत्परज्योतिः । सदोमाम सोपयुकानाम । म प्रायः यत्पांज्योतिः सर्ववस्तुना पदार्थानां सारम। तस्मै चिदात्मने नमः॥३॥ तस् । चितवं चैतन्यतस्वमा प्रतिप्राणिदो प्राणिना दो। एव निषितम । व्यवस्थितम् अस्ति । तत् चैतन्यतस्वम् । समयका मिथ्यास्य-अन्धकारेण भाच्छादिताः । न जानम्ति । र पुनः । पहिली भ्रमन्ति ॥४॥ केचन मूर्खः । सदा सर्वदा। महति शाखजाने भ्रमन्तोऽपि । पर तस्वम् भास्मवलम् । म विदन्ति न बभन्। यया दारण काछे। हुसाशन प्राप्त पुसभम् ॥ ५ ॥ कारुण्यात् दयाभावात् । केनापि स्फुट पर प्रबलम् । म्प्यमानम् अपि । केचित् मूर्खाः । न मन्यन्ते न घण्वन्ति । किंलक्षणाः मूर्ताः । महामोहमस्ीमसाः महामोहेन म्यासाः || देश मन्दबुस्यः । भूरिधर्मात्मकं तस्यै जात्यन्धहस्तिरूपेण झाल्या नात्यन्ति । विलक्षणा मूर्खः । एवे. दुर्गबहसाबप्रमाणात् मन्द ___ जिस परमात्माके चेतनस्वरूप अनुपम आनन्दका सद्भाव है तथा जो अविनश्वर एवं शान्त है उसके लिये मैं (पद्मनन्दी मुनि) अपने समस्त कमाको शान्त करनेके लिये सदा नमस्कार करता हूं ॥ १ ॥ जो आकाश आदि पांच (आकाश, वायु, अमि, जल और पृथिवी) द्रव्योंसे अर्थात् शरीरसे तथा ज्ञानावरणादि आठ कर्मोसे भी रहित हो चुकी है और देवोंके इन्द्रोंसे पूजित है ऐसी उस चैतन्यस्वरूप उत्कृष्ट ज्योतिको मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥ जो चेतन आत्मा अज्ञानी प्राणियों के लिये अस्पष्ट तथा सम्यग्ज्ञानियोंके लिये स्पष्ट है और समस्त वस्तुओंमें श्रेष्ठ है उस चेतन आत्माके लिये नमस्कार हो ॥३॥ वह चैतन्य तत्त्व प्रत्येक प्राणीके शरीरमें ही स्थित है । किन्तु अज्ञानरूप अन्धकारसे व्याप्त जीव उसको नहीं जानते हैं, इसीलिये वे बाहिर बाहिर घूमते हैं अर्थात् विषयभोगजनित सुखको ही वास्तविक सुख मानकर उसको प्राप्त करनेके लिये ही प्रयनशील होते हैं ॥ ४ ॥ कितने ही मनुष्य सदा महान् शाखसमूहमें परिप्रमण करते हुए मी, अर्थात् बहुत से शास्त्रोंका परिशीलन करते हुए भी उस उत्कृष्ट आत्मतत्त्वको काष्ठमें शक्तिरूपसे विद्यमान अनिके समान नहीं जानते हैं !॥ ५॥ यदि कोई दयासे प्रेरित होकर उस उत्कृष्ट तत्त्वका स्पष्टतया कथन भी करता है तो कितने ही प्राणी महामोहसे मलिन होकर उसको न मानते हैं और न सुनते भी हैं ।। ६ ॥ जिस प्रकार जन्मान्ध पुरुष हाथीके यथार्थ स्वरूपको नहीं ग्रहण कर पाता है, किन्तु उसके किसी एक ही अंगको पकड़कर उसे ही हाथी मान लेता है, ठीक इसी प्रकारसे कितने ही मन्दगुद्धि मनुष्य एकान्तवादियों शशान्त एवंविष । वन्दे खादि। ३ प्रापितुं । Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ -.-- .. पानम्बि-याविशतिः [315:04315) फेचित् किंचित्परिहाय कुतनिर्षिताशयाः । अगम्मद प्रपश्यम्तो नाश्रयन्ति मनीषिणः IION 316) जन्तुमुखरते धर्मः पतन्तं दुःखसंकटे । अन्यथा स तो भान्स्था लोकैर्मानापरीक्षितः ॥९॥ 317) सर्व विधीतरागोजो धर्मः सूनूतता प्रजेत् । प्रामाण्यतो यतः पुंसो वाबः प्रामाण्यमिप्यते ॥ बुदयः ॥ ७॥ केबिज्जीवाः । कुश्चित् शानात् । किचित्तत्वम् । परिशाय शास्वा । बगन्मन्दं मूलम् । प्रपत्यन्तः । मनीषिणः पण्डिताः । परमात्मतत्वमाश्रयन्ति न प्रामुवन्ति । किंलक्षणाः पण्डिताः। गर्विताशयाः गर्वितरिताः॥८॥ धर्मः दुःखसंकटे पतन्तम् । जन्तु मीनम् । उसरते । स दयाधर्मः आरमधर्मः । लोकै प्रान्त्या अन्यथा कृता । साधुषनः परीक्षितः परीक्षा फूल्ला । प्रायः प्रहणीयः ॥ ९ ॥ सर्पमित सर्वशः वीतरागः तेन उक्तः धर्मः समृता प्रोत् सत्यता प्रजेत् । यतः कारणात् । के द्वारा प्ररूपित खोटे शानोंके अभ्याससे पदार्थको सर्वथा एकरूप ही मानकर उसके अनेक धर्मात्मक (अनेकान्तात्मक) स्वरूपको नहीं जानते हैं और इसीलिये वे विनाशको प्राप्त होते हैं । विशेषार्थ-जिस प्रकार किसी एक ही पुरुषमें पितृत्व, पुत्रस्व, भागिनेयत्व और मातुलत्य आदि अनेक धर्म भिन्न भिन्न अपेक्षासे रहते हैं तभा अपेक्षाकृत होनेसे उनमें परस्पर किसी प्रकारका विरोध भी नहीं आता है। इसी प्रकारसे प्रत्येक पदार्थमें अनेक धर्म रहते हैं। किन्तु कितने ही एकान्तवादी उनकी अपेक्षाकृत सत्यताको न समझकर उनमें परस्पर विरोध बतलाते हैं। उनका कहना है कि जिस प्रकार किसी एक ही पदार्थमें एक साथ शीतता और उष्णता ये दोनों धर्म नहीं रह सकते हैं उसी प्रकारसे एक ही पदार्थमें नित्यत्व-अनित्यत्व, पृथक्त्वापृथक्त्व तथा एकत्वानेकस्य आदि परस्पर विरोधी धर्म भी एक साथ नहीं रह सकते हैं । परन्तु यदि इसपर गम्भीर इष्टिसे विचार किया जाय तो उस बक रहना किसी प्रकारका विरोष प्रतिभासित नहीं होता है। जैसेकिसी एक ही पुरुषमें अपने पुत्रकी अपेक्षा पितृत्व और पिताकी अपेक्षा पुत्रत्व इन दोनों विरोधी धर्मों के रहनेमें । एक ही वस्तुमें शीतता और उष्णताके रहने में जो विरोध बतलाया जाता है इसमें प्रत्यक्षसे बाधा आती है, क्योंकि, चीमटा आदिमें एक साथ वे दोनों (अग्रभागकी अपेक्षा उष्णत्व और पिछले भागकी अपेक्षा शीतता) धर्म प्रत्यक्षसे देखे जाते हैं। इसी प्रकार घट-पटादि सभी पदामि द्रव्यकी अपेक्षा नित्यत्व और पर्यायकी अपेक्षा अनित्यत्व आदि परस्पर विरोधी दिखनेवाले धर्म भी पाये जाते हैं। कारण कि जब घटका विनाश होता है तब वह कुछ निरन्वय विनाश नहीं होता । किन्तु जो पुल द्रव्य घट पर्यायमें था उसका पौलिकत्व उसके नष्ट हो जानेपर उत्पन्न हुए ठीकरों में भी बना रहता है । अत एव पर्यायकी अपेक्षा ही उसका नाश कहा जावेगा, न कि पुद्गल द्रव्यकी अपेक्षा भी । इसी प्रकार अन्य धर्मोके सम्बन्धमें भी समझना चाहिये । इस प्रकार जो जड़बुद्धि पदार्थमें अनेक धर्मों के प्रतीतिसिद्ध होनेपर भी उनमेंसे किसी एक ही धर्मको दुराप्रहके वश होकर स्वीकार करते हैं वे स्वयं ही अपने आपका अहित करते हैं ।। ७ ॥ कितने ही जीव किसी शास्त्र आदिके निमित्तसे कुछ थोड़ा-सा ज्ञान पा करके इतने अधिक अभिमानको प्राप्त हो जाते हैं कि वे सभी लोगोंको मूर्ख समझकर अन्य किन्हीं भी विशिष्ट विद्वानोंका आश्य नहीं लेते IMC दुखरूप संकुचित मार्गमें (गड्डेमें ) गिरते हुए प्राणीकी रक्षा धर्म ही करता है । परन्तु दूसरों के द्वारा इसका स्वरूप प्रान्तिके वश होकर विपरीत कर दिया गया है । अत एव मनुष्योंको उसे (धर्मको) परीक्षापूर्वक ग्रहण करना चाहिये ।। ९ ॥ जो धर्म सर्वज्ञ और वीतरागके द्वारा कहा गया है वही यथार्थताको प्राप्त हो सकता है, क्योंकि पुरुषकी प्रमाणतासे ही वचनमें प्रमाणता मानी जाती है ॥ विशेषार्थ-वचनमें असत्यता या तो अल्पज्ञताके कारणसे होती है या फिर हृदयके रागद्वेषसे दूषित होनेके कारण । इसीलिये जो पुरुष १ सर्ववित् सर्ववेत्ता सशाता मीतरगः । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -319:४१२] ७. एकस्वसप्ततिः ११३ 318) बहिर्षिषयसंबन्धः सर्वः सर्वस्य सर्वदा । अतस्तनितम्यबोधयोगौ तु पुलभौ ॥१॥ 319) लब्धिपश्चकसामग्रीविशेषास्पात्रां गतः । मध्यः सम्यगरगादीनां यः स मुक्तिपथे खितः॥१२॥ पुंसः पुरुषस्य । प्रामाण्यतः वाचः प्रामाण्यम् । इष्यते कथ्यते ॥ १० ॥ बहिर्विषयसंबन्धः पायविषयसैबन्धः सर्वः । सर्वस्म लोकस्म । सर्वदा सदैव वर्तते । अतः बासंबन्धात् वा अत: करणात् । तद्भिमतन्यबोधयोगौ तस्मात् बाहासंबन्धात् भित्री यौ चैतन्यबोधयोगौ। तु पुनः । दुर्लभो ॥ ११॥ यः भन्यः लम्विपञ्चकसामप्रीविशेषात्पात्रतां गतः । पक्षकसामग्री किम् । खयउवसम्मविसोही देसणपाओग्गकरणलद्धीए । चत्तारि व साम करणे सम्माचारस दामोश हरिः । हयाः लक्षणम् । एकेन्द्रियाविपचेन्द्रियपर्यन्तं श्रावककुलजन्म भनेकवार प्राप्तः सम्यक्त्वेन विना ।। द्वितीया विशुदिलधिः । तस्याः कि लक्षणम् । दानपूजादिके परिणाम निर्मल अनेक वार भये सम्परदर्शन विना। तृतीया देशनालब्धिः । तस्याः लक्षणम् । गुरुको उपवेश सप्त तस्व नव पदार्थ पचारिखकाय षट् द्रव्य अनेकदार सुनी बकाणी सम्मग्दर्शन बिना, अभ्यन्तरकी छवि बिना ३ । चतुर्थी प्रायोग्यलन्धिः। तस्याः लक्षण सर्व कर्मनुकी स्थिति एक एक भाग आणि राखी तपकेबल कर सम्पदर्शन विना पुनरपि सर्व कर्मनुकी सर्वदेशस्थिति बाधी ४ । करणकन्धिः पञ्चमी। सस्थाः कि लक्षणम् । वह करमलब्धि सम्पष्टि जीवोंके होती है। करणलब्धेव भेदात्यः अषःकरणम् अपूर्वकरणम् अनिवृत्तिकरगं का अधःकरण किम् । सम्परत्वक परिणाम मिथ्यात्वके परिणाम समान करै । द्विसीयगुणस्थाने । भपूर्वकरणे किम् । सम्यक्त्व के परिणाम अपूर्व चवहि। भनिरक्तकरणं किम् । सम्यक्त्वके परिणामनिकी नियुक्ति माही दिन दिन चढते जाहि । इस संसारी बीपने बिना सम्यत्वके वार सन्धि तो अनेकवार पाई। परन्तु पञ्चमी करणलम्धि दुर्लभ है, क्योंकि वह संसारी जीवमि सम्पष्टिको ही होती है। यः मम्मः पञ्चसामग्रीविशेषास्पात्रता गतः । शाम् । सम्पगगाडीनाम् । स मम्मः मुक्लिपये स्थितः ॥ १२॥ सम्पन्दम्बोधचारित्रत्रिदय अल्पज्ञ और राग-द्वेषसे सहित है उसका कहा हुआ धर्म प्रमाण नहीं हो सकता, किन्तु जो पुरुष सर्वश होनेके साथ ही राग-द्वेषसे रहित भी हो चुका है उसीका कहा हुआ धर्म प्रमाण माना जा सकता है ।।१०।। सब याम विषयोंका सम्बन्ध समी प्राणियोंके और वह भी सदा काल ही रहता है ! किन्तु उससे मिल चैतन्य और सम्यग्ज्ञानका सम्बन्ध ये दोनों दुर्लभ हैं ॥ ११ ॥ जो भव्य जीव क्षयोपशम, विशुद्धि, देशना, प्रायोग्य और फरण इन पांच लब्धियों रूप विशेष सामग्रीसे सम्यग्दर्शन, सम्पन्शान और सम्यक्चारित्ररूप रखत्रयको धारण करनेके योग्य बन चुका है वह मोक्षमार्गमें स्थित हो गया है ॥ विशेषार्थ-प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति जिन पांच लब्धियोंके द्वारा होती है उनका स्वरूप इस प्रकार है-१. क्षयोपशमलन्धिजर पूर्वसंचित कोंके अनुभागस्पर्धक विशुद्धिके द्वारा प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर अनन्तगुणे हीन होते हुए उदीरणाको प्राप्त होते हैं तर क्षयोपशमलब्धि होती है। २. विशुद्धिलब्धि-प्रतिसमय अनन्तगुणी हीनताके क्रमसे उदीरणाको प्राप्त कराये गये अनुभागस्पर्धकोंसे उत्पन्न हुआ जो जीवका परिणाम सातावेदनीय आदि पुण्य प्रकृतियोंके बन्धका कारण तथा असातावेदनीय आदि पाए प्रकृतियोंके अवधका कारण होता है उसे विशुद्धि कहते हैं । इस विशुद्धिकी प्राप्तिका नाम विशुद्धिलब्धि है । ३. देशनालन्धि- जीवादि छह द्रव्यों तथा नौ पदार्थोके उपदेशको देशना कहा जाता है । उस देशनामें लीन हुए आचार्य मादिकी प्राप्तिको तथा उनके द्वारा उपदिष्ट पदार्थके महण, धारण एवं विचार करनेकी शक्तिकी प्राप्तिको भी देशनालब्धि कहते हैं। ४. प्रायोग्यलन्धि- सन कोकी उत्कृष्ट स्पितिको घासकर उसे अन्तःकोदाकोकि मात्र स्थितिमें स्थापित करने तथा उक्त सब कोंके उत्कृष्ट अनुभागको पातकर उसे दिखानीय (पातियाकर्मोके लता और दारुरूप तथा अन्य पाप प्रकृतियोंके नीम और कांजीर रूप) अनुभागमें स्वापित करने को प्रायोग्यलब्धि कहा जाता है। ५. अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरण इन तीन प्रकारके परिणामोंकी या पुनः तरिकासन्यमोपयोगी दुर्बभौ । पयन.१५ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । । पन्नमन्दि-पशितिः [320 :-- 320) सम्यग्हायोषचारित्रत्रितयं मुक्तिकारणम् । मुस्तावेव सुख सेन तत्र यसो विधीयताम् ॥ १३ ॥ 321 ) पर्शनं निक्षयः पुंसि पोधस्सबोध दम्यते। स्थितिरत्रैव चारित्रमिति योगा शिवाभयः ॥ १४ ॥ 322 ) एकमेव हि चैतन्य शुद्ध निश्चयतोऽथया । कोऽयकाशो विकल्पाना तराखण्डेकवस्तुनि ॥१५॥ 323) प्रमाणनयनिक्षेप अर्षाचीने पदे स्थिता । फेवलेच पुनस्तसिस्तदेकं प्रतिभासते॥ १५॥ 324) निश्चयकरशा नित्यं तदेवैकं चिदात्मकम् । प्रपश्यामि गतभ्रान्तिव्यवहारहशा परम् ॥ १७ ॥ मुक्तिकारणं मोक्षकारणम् । वेन कारणेन । मुची मोझे एवं पुखम् । तत्र मुक्ती मोझे । यमः विधीयता क्रियताम् ॥ १३ ॥ पुसि आत्मनि निश्चयः दर्शनम् । तस्सिन यात्मनि पोषः तदोषः । इष्यते कथ्यते । अत्रैव भात्मनि स्थितिः चारित्रम् । इति त्रयम् । शिवायः योगः त्रये मोशकारणम् ॥ १४॥ अषा। हि यतः । असनियमतः एक चैतन्य तत्वम् एक मस्ति । तत्र असायक | विषये। विकल्पानाम भबकायाः अपितु अवकाशः नास्ति ॥१५॥ पुनः । प्रमाणनयनिक्षेपाः । अर्वाचीनपने व्यवहारपये। स्थिताः । तस्मिन् केबने । तत् एक चैतन्यम् । प्रतिभासते शोभते ॥11॥ निश्चयकरशा । निर्व सदैव । एकम् । [तत् चिदात्मक ] चैतन्यतत्वम् । प्रतिभासते। चैतम्यतत्वं गसम्रान्तिः प्रपश्यामि । व्यवहारमशा व्यवहार नेत्रेण । अपर दर्शनशानचारित्रखमं प्रतिभासवे ॥ १७॥ यः भास्मनि विषये आत्ममा कृत्वा आस्मना शाला स्थिरः तिचेत् स प्राप्तिको करणलब्धि कहते हैं। जिन परिणामोंमें उपरितनसमयवर्ती परिणाम अधस्तनसमयवर्ती परिणामों के सदृश होते हैं उन्हें अधःप्रवृत्तकरण कहा जाता है (विशेष जाननेके लिये देखिये पदवण्डागम पु. ६, पृ. २१४ आदि) । प्रत्येक समयमें उत्तरोत्तर जो अपूर्व अपूर्व ही परिणाम होते हैं वे अपूर्वकरण परिणाम कहलाते हैं। इनमें भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम सर्वथा विसदृश तथा एक समयवर्ती जीवोंके परिणाम साल और विसी होते है जो परिणाम एक समयवर्ती जोवोंके सर्वथा सदश तथा भिन्न समयवर्ती जीवोंके सर्वथा विसदृश ही होते हैं उन्हें अनिवृत्तिकरण परिणाम कहा जाता है। प्रथमोपशम सम्यक्त्वकी प्राप्ति इन तीन प्रकारके परिणामोंके अन्तिम समयमें होती है। उपर्युक्त पांच लब्धियोंमें पूर्वकी चार लब्धियां भत्र्य और अभव्य दोनोंके भी समान रूपसे होती हैं। किन्तु पांचवी करणलब्धि सम्यक्त्वके अभिमुख हुए भव्य जीबके ही होती है ॥ १२ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ये तीनों एकत्रित स्वरूपसे मोक्षके कारण हैं। और वास्तविक सुख उस मोक्षमें ही है । इसलिये उस मोक्षके विषय प्रयत्न करना चाहिये ॥ १३ ॥ आत्माके विषयमें जो निश्चय हो जाता है उसे सम्यग्दर्शन, उस आत्माका जो ज्ञान होता है उसे सम्यग्ज्ञान, तथा उसी आत्मामें स्थिर होनेको सम्यरुचारित्र कहा जाता है। इन तीनोंका संयोग मोक्षका कारण होता है ।। १४ ॥ अथवा शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षासे ये (सम्यग्दर्शनादि) तीनों एक चैतन्यस्वरूप ही हैं। कारण कि उस अखण्ड एक वस्तु (आत्मा) में भेदोंके लिये स्थान ही कौन-सा है ! ।। विशेषार्थ- ऊपर जो सम्यग्दर्शन आदिका पृथक् पृथक् स्वरूप बतलाया गया है वह व्यवहारनयकी अपेक्षासे है। शुद्ध निश्चयनयसे उन तीनों में कोई भेद नहीं है, क्योंकि वे तीनों अखण्ड आत्मासे अमिका हैं । इसीलिये उनमें भेदकी कल्पना भी नहीं हो सकती है ।। १५॥ प्रमाण, नय और निक्षेप ये अर्वाचीन पदमें स्थित है, अर्थात् जब व्यवहारनयकी मुख्यतासे वस्तुका विवेचन किया जाता है तभी इनका उपयोग होता है। किन्तु शुद्ध निश्चयनयकी दृष्टिमें केवल एक शुद्ध आत्मा ही प्रतिभासित होता है। वहां के उपर्युक्त सम्यग्दर्शनादि तीनों भी अमेदरूपमें एक ही प्रतिभासित होते हैं ॥ १६ ॥ मैं निश्चयनयरूप अनुपम नेत्रसे सदा प्रान्तिसे रहित होकर उसी एक चैतन्य स्वरूपको देखता हूं। किन्तु व्यवहारनयरूप नेत्रसे १ सव' पति नास्ति। रमा तम्पताल । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -381:२४] ५. एकत्यसततिः 325 ) अजमेक परं शाम्त सर्वोपाधिविधर्जितम्। आत्मालमात्मना ज्ञात्वा तिहेदात्मनियास्थिरः॥१८॥ 326) स एषामृतमार्गस्या स एवामृतमभुते । स एवाईन जगाथा: स एष प्रभुरीश्वर ॥ १९॥ 327 ) केवलज्ञानरक्सौस्यस्वभावं तत्परं महः । तष शान किंवात भुते सुतम् ॥२०॥ 329 ) इति शेयं तदेवक अषणीयं तदेव हि । इष्टव्यं च तदेवैकं नान्यचियतो पुरै २१॥ 829) गुरूपदेशतो ऽभ्यासावराग्यादुपलभ्य यत् । कृतात्यो मवेयोगी तदेवकन चापरम् ॥२२॥ 330 ) सत्प्रतिप्रीतिचिन येन वार्तापि हि श्रुता। निखितं स भवेम्यो भाविनिर्वाणमाजनम् ॥२३॥ 331) जानीते यः परं ब्रह्म कर्मणः पृथगेकताम् । गतं सइतबोधात्मा तत्सकस गाति ।। २४॥ शामयाम्। किलक्षणम् भास्मानम्। अर्ज जन्मरहितम् । एकम् भक्त्तिीयम् । परम् उत्तमम्। शाम्तम् । सपॉपाणिनितिम् ॥१०॥ यः आत्मनि विषये स्थिरः म स एव अभूतमार्गस्थः। स एव अमृतम् गते मात्मानम् भनुभवति । स पर ईन् यः । स एव जगनाथः। स एव प्रभुः । स एवं ईश्वरः ।। १५॥ तत्पर महः केवलझानस्सोमपसमा बर्वदे। तस्मिन् महसि । झाते सति किन हातम् । तत्र तस्मिन् स्वभाव दृष्टे सति किं न दृष्टम् । तत्र तस्मिन् भास्मनि भुते सति किन मुतम् । सर्व सात सर्व भुतं सर्व दहम् ॥ ३०॥ इति पू! ग ग: पुरः पनाही । देतापमान : नातम्यम् । हि मतः । तदेव भात्मतत्व अयणीयम् । पुनः । तदेव आत्मतत्वं वृष्टयं निश्चयतः 1 अन्यत्न ॥ २१ ॥ बोगी मुनीबारः । पर आत्मतत्वम् । गुरुपदेशातः । उपलभ्य प्राप्य । वा अभ्यासात भात्मतरी प्राप्य । अवमा राम्या बास्मतावम् उपसा प्राप्य । कृतकृत्सः कर्मरहितः भवेत् । तदेव एकम् आत्मतत्त्वम् अपरं न ॥ २२॥ यतः । ये मात्मनः मार्मा अपि भुसा भवति । लक्षणेन पुरुषेण । तस्मतिप्रतिषितेन तस्य भास्मनः प्रति प्रतिषिोल । निविनम् । स भव्या मोत् भामि भागामिनिर्वाणभाजने मोक्षपात्रं भवेत् ॥ १३ ॥ यः परम् सम् । अम बानीले । बदतरोधात्मा तस्मिन् आत्मनि गतः प्राप्तः बोधात्मा। तत्स्वरूप तस्य भारमनः स्वरूपम् । गछति । न मनः सकाशात् । पृषक भिनम् । भात्मनि एकता पतं प्राप्तम् ॥ १४ ॥ हि यतः । केनापि परेण परवस्तुमा सह संबन्ध बम्बकारणम् । animaaranawranninnarnamnanirrorninrmanner उक्त सम्पन्दर्शनादिको पृथक् पृथक् स्वरूपसे देखता हूं ॥ १७ ॥ जो महात्मा अन्म-मरणसे रहित, एक, उत्कृष्ट, शान्त और सब प्रकारके विशेषणोंसे रहित आत्माको आत्माके द्वारा जानकर उसी मालामें सिर रहता है वही अमृत अर्थात् मोक्षके मार्गमें स्थित होता है, वही मोक्षपदको प्राप्त करता है। तथा वही अरहन्त तीनों लोकोंका स्वामी, प्रभु एवं ईश्वर कहा जाता है ।। १८-१९॥ केवलज्ञान, केवलदर्शन और अनन्स सुखस्वरूप जो वह उत्कृष्ट तेज है उसके जान लेनेपर अन्य क्या नहीं जाना गया, उसके देख लेनेपर अन्य क्या नहीं देखा गया, तथा उसके सुन लेनेपर अन्य क्या नहीं सुना गया ! अर्थात् एक मात्र उसके जान लेनेपर सब कुछ ही जान लिया गया है, उसके देख लेनेफ्र सब कुछ ही देखा जा चुका है, तथा उसके सुन लेनेपर सभी कुछ सुन लिया गया है॥ २० ॥ इस कारण विद्वान् मनुष्योंके द्वारा निश्चय से वही एक उत्कृष्ट आसतेज जाननेके योग्य है, वही एक सुनने के योग्य है, तका वही एक देखनेके योग्य है; उससे भिन्न अन्य कुछ भी न जाननेके योम्प है, न सुननेके योग्य है, और न देखने के योग्य है ॥२१ । योगीजन गुरुके उपदेशसे, अभ्याससे और वैराग्यसे उसी एक आस्मतेत्रको प्राप्त करके रुतकृत्य (मुक्त) होते हैं, न कि उससे भिन्न किसी अन्यको प्राप्त करके ।। २२ ।। उस आत्मतेजके प्रति मनमें प्रेमको धारण करके जिसने उसकी बात भी सुनी है वह निश्चयसे भव्य है व भविष्यमें प्राप्त होनेवाली मुक्तिका पात्र है ।। २३ ॥ जो ज्ञानस्वरूप नीव कर्मसे पृथक् होफर अमेद अवस्थाको प्राप्त हुई उस उत्कृष्ट आत्माको जानता है और उसमें लीन होता है वह स्वयं ही उसके स्वरूपको प्रास हो जाता है १ माभयमीयम् । २ सात्यो भवेत्। २फ बोभारमा स्वरूप Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ पादि-पञ्चविंशतिः [393882392) नापि हि परेण स्वासंबन्धो पन्धकारणम् । परैकरवपने शाम्ते मुक्तये स्थितिरात्मनः ॥२५॥ 393) विकरपोर्मिमरस्यक्तः शान्तः कैवल्यमाश्रितः । कर्माभावे भषेदारमा पाताभावे समुद्रवत् ॥२६॥ 384) संयोगेन यदायात मत्तस्तत्सकलं परम् । तरपरित्यागयोगेन मुक्तोऽहमिति मे मतिः ॥ २७ ॥ 995) किं में करिष्यता करी शुभाशुभनिशाबरी । रागद्वेषपरित्यागमहामकोण कीलितौ ॥ २८॥ 336) संपन्येऽपि सति स्याज्यौ रागद्वेषौ महात्मभिः। विना सेनापि ये कुर्युस्ते कुर्युः किंनपातुलाः॥ 997) मनोवाकायचेशाभिस्तशिर्ष फर्म वृम्भते । उपास्यते तदेव ताभ्यो मिर्म मुमुक्षुमिः ॥ ३०॥ साकेत् । पर-श्रेष्ठ-एक्लपदे शान्ते बास्मनः स्थितिः । मुच्ये मोक्षाय भवति ॥ २५ ॥ आत्मा शान्तः मवेत् । किलक्षण भास्मा। विकल्प-मिभरत्यकः रहितः । विम्यम् आश्रितः । शान्तः भवेत् । क सति । कर्माभावे सति । किंवत् । वाताभावे पानाभावे । समुद्रवत् ॥ २६॥ यत् संयोगेन आयात रस्तु तत्सकलं पस्तु मत्तः सकाशात् । परं भिषम् । तत्परित्यागयोगेन तस्य बस्तुनः परित्यागयोगेन । मई मुफः इति मे मतिः ॥ १७॥ शुभाशुभनिशाचरी पुण्यपापराक्षसी दौ। मे कि करिष्यतः । किलमणी पुण्यपापराक्षसी। रागद्वेषपरित्यागमहामश्रेण कीरिती ॥ २८ ॥ महास्मभिः भम्पैः । संबन्धेऽपि सति रागदेषी स्याज्यौ। येमाः । तेग सेवन्रेन विना मपि रागद्वेष र्युः । ते मूर्ताः । किन पुर्युः ।। २५ ॥ मनोवाकायचेष्टामिः । सविध पुण्यपापरू जम्भते प्रसरति । ममाभिः मनीपरैः। तत एव एकम बास्मतत्त्वम् । उपास्यते सेव्यते । कलक्षणम् आत्मतत्वम् । तेम्मः प्लॉचम्मः पाप्पुभ्वेभ्यो भिनम् ॥ ३ ॥ सब इति निश्चितम् । ततः कर्मबन्धात् । द्वैत संसारः भागते । मसात् अर्मात् परमात्मा बन जाता है ।। २४ ।। किसी भी पर पदार्थसे जो सम्बन्ध होता है वह बन्धका कारण होता है, किन्तु शान्त व उत्कृष्ट एकत्वपदमें जो आत्माकी स्थिति होती है वह मुक्तिका कारण होती है ॥२५॥ धर्मके अमावमें मह आस्मा वायुके अमावमें समुद्र के समान विकल्पोरूप लहरोंके भारसे रहित और शान्त होकर कैवस्म अवस्थाको प्राप्त हो जाती है । विशेषार्थ-जिस प्रकार वायुका संचार न होनेपर समुद्र लहरोसे रहित, शान्त और एकत्व अवस्वासे युक्त होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि कोका अभाव हो जानेपर यह आस्मा सब प्रकारके विकल्पोंसे रहित, शान्त (कोषादि विकारोंसे रहित ) और केवली अवस्ासे युक्त हो जाता है |॥ २६ ॥ संयोगसे जो कुछ भी प्राप्त हुआ है वह सब मुझसे मिल है। उसका परित्याग कर देनेके सम्बन्धसे मैं मुक्त हो चुका, ऐसा मेरा निश्चय है ।। विशेषार्थ-यह प्राणी स्त्री, पुत्र, मित्र एवं धनसम्पति आदि पर पदार्थोके संयोगसे ही अनेक प्रकारके दुःखोंको भोगता है, अत एव उक्त संयोगका ही परित्याग करना चाहिये । ऐसा करनेसे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ २७ ॥ जिन पुण्य और पापरूप दोनों दुष्ट राक्षसों को राग-पके परित्यागरूप महामंत्रके द्वारा कीलित किया जा चुका है वे अब मेरा (आत्माका) क्या कर सकेंगे! अर्थात् वे कुछ भी हानि नहीं कर सकेंगे। विशेषार्थ-जो पुण्य और पापरूप कर्म प्राणीको अनेक प्रकारका कट (पारतंत्र्य आदि) दिया करते हैं उनका बन्ध राग और द्वेषके निमित्तसे ही होता है। अत एव उक राग-द्वेषका परित्याग कर देनेसे उनका बन्ध स्वयमेव रुक जाता है और इस प्रकारसे आत्मा स्वतंत्र हो जाता है ॥२८॥ महात्माओंको सम्बन्ध (निमित्त) के भी होनेपर उन राग-द्वेषका परित्याग करना चाहिये । जो जीव उस ( सम्बन्ध) के विना भी राग-द्वेष करते हैं वे वातरोगसे ग्रसित रोगीके समान अपना कौन-सा अहित नहीं करते है ! अर्थात् वे अपना सर प्रकारसे अहित करते हैं ॥ २९ ॥ मन, वचन और कायकी प्रपिसे उस प्रकारका मर्यात् तदनुसार पुण्य-पापरूप कर्म वृद्धिंगत होता है। अत एव मुमुक्षु जन उक्त मन-वचन-कायकी प्रवृचिसे मिन उसी एक आस्मतस्वकी उपासना किया करते हैं ॥३०॥ द्वैतभावसे नियमतः कर देभ्यो। कम्पः पुण्यपापेम्नो। Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -342 : ४-३५] १. एकत्वसप्ततिः IFE ) ततो समता मापते । लोहमयं पार्थ देखो हेममय यथा ॥५॥ 139) निश्चयेन तदेकत्यमद्वैतममृतं परम् । वितीयेम मत देत संपतिर्व्यवहारतः ॥२९ 340 ) बन्धमोक्षी रतिवेषी कर्मात्मानौ शुभाशुभौ । इति बैताधिता पुखिरसिधिरमिधीयते ॥५॥ 841 ) उदयोदीरणा सत्ता प्रबन्धः खलु कर्मणः । बोधात्मधाम सर्वेभ्यस्तदेवेक पर परम् ॥ ३४॥ 5342) क्रोधादिकर्मयोगे ऽपि निर्यिकारं परं महः । विकारकारिभिर्मे धैर्न पिकारि ममो मवेत् ॥ ३५ ॥ अमन्यात् संवरात्। भवेतं मुफिः जायते । यथा लोहार लोहमये पात्रं भवति । दन्नः सुवर्णात् । हेममय मुवर्णमयम् । पात्र जारते ॥३१॥ निश्चयेन तत् एकलम् अवैतम् । परम् उत्कृष्टम् । अमृतम् भस्ति । द्वितीयेन कर्मणा । इन तम् मस्ति । म्यवहारतः संमृतिः संसारः ॥ ३१ ॥बन्धमोक्षौ रतिद्वेषौ कर्मात्मानौ । शुभाशुभौ पापपुण्यो। इति ताधिता अभिः । सिटि संसारकारिणी। अभिधीयते कथ्यते ॥१३॥ खलु इति निधितम् । उदय उदीरणा सत्ता कर्मणः . प्रबन्धः समूहः । गलकमसल) दानपरिणतिः उदयः । अपनपाचनम् उदीरणा । सत्ता अस्तित्वम् । तेषां प्रबन्धः । तदेव पर ज्योतिः । सर्वेभ्यः कर्मभ्यः । पर मिनम् । एकम् । बोधात्मघाम झानगृहम् ॥ ३४ ॥ भो मुने । कोधादिकर्मयोगेऽपि पर महः निर्विकार जानीहि । विचारकारिमिः विकारकरणेखभावैः मेघः नमः बिकारि न भवेत् । फावर्णयुक्तः मेथैः हत्या भाकाशमध्ये पश्वर्णरूपं म कियते इत्यः ॥ ३५॥ द्वैत और अद्वैतभावसे अद्वैत उत्पन्न होता है । जैसे लोहेसे लोहेका तथा सुवर्णसे सुवर्णका ही वर्तन उत्पन्न होता है। विशेषार्थ- आमा और कर्म सभा बन्ध और मोक्ष इत्यादि प्रकारकी बुद्धि बैतबुद्धि कही जाती है । पेसी बुद्धिसे द्वैतभाव ही बना रहता है, जिससे कि संसारपरिश्रमण अनिवार्य हो जाता है। किन्तु में एक ही ई, अन्य बास पदार्थ न मेरे हैं और न मै उनका हूं, इस प्रकारकी बुद्धि अद्वैत बुद्धि कहलाती है। इस प्रकारके विचारसे वह अद्वैतभाव सदा जागृत रहता है, जिससे कि अन्तमें मोक्ष भी प्राप्त हो आता है। इसके लिये यहाँ यह उदाहरण दिया गया है कि जिस प्रकार लोह धातुसे लोहस्वरूप तथा सुवर्णसे सुवर्णखरूप ही पात्र बनता है उसी प्रकार द्वैतबुद्धिसे द्वैतभाव तथा अद्वैतबुद्धिसे अद्वैतभाव ही होता है॥३१॥ निश्चयसे जो वह एकत्व है वही अद्वैत है जो कि उत्कृष्ट अमृत अर्थात् मोक्षस्वरूप है । किन्तु दूसरे (कर्म या शरीर आदि) के निमित्तसे जो द्वैतभाव उदित होता है वह व्यवहारकी अपेक्षा रखनेसे संसारका कारण होता है ॥३२॥ धन्ध और मोक्ष, राग और द्वेष, कर्म और आत्मा, तथा शुभ और अशुभ; इस प्रकारकी बुद्धि द्वैतके आश्रयसे होती है जो संसारका कारण कही जाती है ॥ ३३ ॥ उदय, उदीरणा और सत्त्व यह सब निश्चयसे कर्मका विस्तार है। किन्तु ज्ञानरूप जो आत्माकर तेज है वह उन सबसे भिन्न, एक और उत्कृष्ट है ॥ विशेषार्थ-स्थितिके पूर्ण होनेपर निर्जीर्ण होता हुआ कर्म जो फलदानके सन्मुख होता है इसे उदय कहा जाता है । उदयकालके प्राप्त न होनेपर मी अपकर्षणके द्वारा जो कर्मनिषेक उदयमें सापित कराये जाते हैं, इसे उदीरणा कहते हैं। ज्ञानावरणादि कर्मप्रकृतियोंका कर्मस्वरूपसे अवसित रहनेको सत्त्व कहा जाता है ।। ३४ ॥ क्रोधादि कर्मोंका संयोग होनेपर भी वह उत्कृष्ट आत्मतेज विकारसे रहित ही होता है। ठीक भी है-विकारको करनेवाले मेघोंसे कभी आकाश विकारयुक्त नहीं होता है ॥ विशेषार्थजिस प्रकार आकाशमें विकारको उत्पन्न करनेवाले मेघोंके रहनेपर भी वह आकाश विकारको प्रार नहीं होता, किन्तु खभावसे स्वछ ही रहता है। उसी प्रकार आत्माके साब कोषादि कर्मोका संयोग रहनेपर भी उससे पात्मामें विकार नहीं उत्पन्न होता, किन्तु यह समावसे निर्विकार ही रहता है ॥३५॥ १ तं मामिवा। सगलवकालवाम) २५ कर्मेभ्यः ४ व विकारकरण, विकासकारण । Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ पानम्बि-पञ्चशितिः [349:1-11343) नामापि हि पर तस्मानियातदनामकम् । जन्ममृत्यादि वाशेष वपुर्धर्म यिदुर्युषाः ॥ ६ ॥ 344) मोघेनापि युतिस्तस्य चैतन्यस्य तु कल्पना । स च तब तयोरेक्यं निधन विभाव्यते ॥३७॥ 345) क्रियाकारकसंबन्धप्रवन्धोजिमतमूर्ति यत् । पर्ष ज्योतिस्तदेव शरय मोक्षकाइक्षिणाम् ॥ 346)सदेपरमझानं तदेवाधिदर्शनम । चारित्रं च तदेकं स्यात तदेक दिमलतपः॥ ३९॥ 847 ) नमस्यं च तदेव तदेवैकं च मङ्गलम् । उसमं च तदेवैक तदेव शरणं सताम् ॥ ४०॥ 348 ) आचारसले नदेशाकरित्या एस तरीकमप्रमसत्य योगिनः॥ ४५ ॥ हि यतः । नियात् । तस्मात् भारममः नाम अपि । पर मिलम् । समयोतिः । मनामकम् अस्ति । ब पुनः । जन्ममत्यादि । मशेष समस्वं कष्टम । बुधाः पण्डिताः । वपुर्धर्म शरीरम्भावम् । षिवः आनन्ति ॥1॥ तस्य चैतन्यस्य बोधेमापि युतिः संयोगः तु कल्पनामात्रम् । से बोधः । तत् चैतन्यम् । निश्येन । तयोः बोधचैतम्ययोः ऐक्यम् । विभाम्यते कथ्यते ॥ ३७॥ यत् एवं ज्योतिखदेव एकम् । मोक्षकाद्विणो मुरिमाणकानो मुनीना शरण्यम् । एवं किलक्षण ज्योतिः । क्रियाकारसमयप्रबन्धन उजिमतमूर्ति। स्थानाद अन्य स्थानगमन किया। क्रियते इति कारकम् । संवन्धे पछी । मानचित्सह सेवन्धः । तेषा प्रयाण कियाकारकसंबन्धानां प्रबन्धः समूहः तेन उजिसता रहिसा मूर्तिः अस्य तत् ॥३८॥ सत् एकं ज्योतिः परम ज्ञानम् । तत् एक ज्योतिः शुचि दर्शनम् । च पुनः। तदेकं मोतिः चारित्रं स्यात् भवेत् । तत् एक ज्योतिः निर्मलं तपः । निश्चयेन । सर्वगुणमय ज्योतिः ।। ३९ ॥ भो मम्याः। तत् ज्योतिः । नमस्र्य नमस्करणीयम् । तदेव एक ज्योतिः । सतां साधूनाम् । मङ्गलम् अस्ति । च पुनः । तदेव ज्योतिः । सता साधूनाम् । सामं श्रेष्ठम् अस्ति । च पुनः । तग एक ज्योतिः सता साधूनाम् । शरण्यम् अस्ति ॥ ४० ॥ अप्रमत्तगुणस्थामवर्तिनः सप्तमगुणस्थामदर्तिमः । योगिनः मुनेः । तदेव एक ज्योतिः आत्माका याचक शब्द भी निश्चयतः उससे भिन्न है, क्योंकि, निश्चयनयकी अपेक्षा यह आत्मा संज्ञासे रहित ( अनिर्वचनीय ) है 1 अर्थात् वाच्य वाचकमाव व्यवहार नयके आश्रित है, न कि निश्चय नयके । विद्वजन जन्म और मरण आदि सबको शरीरका धर्म समझते हैं ।। ३६ || उस चैतन्यका ज्ञानके साथ मी जो संयोग है वह केवल कल्पना है, क्योंकि, ज्ञान और चैतन्य इन दोनोंमें निश्चयसे अभेद जाना जाता है ।। ३७ ॥ जो आत्मज्योति गमनादिरूप क्रिया, फर्ता आदि कारक और उनके सम्बन्धके विस्तारसे रहित है वही एक मात्र ज्योति मोक्षाभिलाषी साधु जनोंके लिये शरणभूत है ॥ ३८ ॥ वही एक आत्मज्योति उत्कृष्ट ज्ञान है, वहीं एक आत्मज्योति निर्मल सम्यग्दर्शन है, वही एक आत्मज्योति चारित्र है, तथा यही एक आत्मज्योति निर्मल तप है ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जब स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट हो जाता है तब शुद्ध चैतन्य स्वरूप एक मात्र आत्माका ही अनुभव होता है । उस समय सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यचारित्र और तप आदिमें कुछ मी मेद नहीं रहता । इसी प्रकार ज्ञान, ज्ञाता और ज्ञेयका भी कुछ भेद नहीं रहता; क्योंकि, उस समय वही एक मात्र आत्मा ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञाता बन जाता है। इसीलिये इस अवस्थामें कर्ता, कर्म और करण आदि कारकोंका भी सब भेद समाप्त हो जाता है ।। ३९ ।। यही एक आत्मज्योति नमस्कार करनेके योग्य है, वही एक आत्मज्योति मंगल स्वरूप है, वही एफ आत्मज्योति उत्तम है, तथा वही एक आत्मज्योति साधुजनोंके लिये शरणभूत है ॥ विशेषार्थ-"चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं, साहू मंगलं, केबलिंपण्णत्तो धम्मो मंगलं । चत्तारि लोगुत्तमा ..." इत्यादि प्रकारसे जो अरहंत, सिद्ध, साधु और केवलीकथित धर्म इन चारको मंगल, लोकोतम तथा शरणभूत बतलाया गया है वह व्यवहारनयकी प्रधानतासे है। शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा तो केवल एक वह आत्मज्योति ही मंगल, लोकोत्तम और शरणभूत है ।। ४० ॥ प्रमादसे रहित हुए मुनिका वही एक आत्मज्योति आचार है, वहीं एक आत्म कनियात् ततः तस्माद। २ मा गोपेन सह युतिः'। कल्पना सः। गमनं क्रियते । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 356 : R] ४. पकवसताविक 349) गुणाः शीलानि सर्वाणि धर्मश्वास्यन्तनिर्मलः। संभाब्यन्ते पर ज्योतिस्तदेकमनुतिष्ठतः॥४२॥ 350 ) तदेकं परं रसं सर्यशास्त्रमहोवधेः । रमणीयेषु सर्वेषु तदेकं पुरतः स्थितम् ॥ ५३ ॥ 351j सवेक परं तप सोच पर एवम् । अध्यातव्यं तदेके देवकं पर महा १४ 352 ) शसं जम्मतरुच्छेवि तदेकं सतां मतम् । योगिनां योगनिष्ठानां तदेव प्रयोजनम् ॥४५॥ 358) मुमुक्षुणों तदेवकं मुक्तेः पम्धा न खापरः। आनन्दो ऽपिन चाम्यत्र विहाय विमाभ्यते ॥ 354) संसारपोरधर्मेण सदा तप्तस्य देहिमः । यधारागृई शान्तं तदेव हिमशीतलम् । ४७ । 355) तदेवकं परं दुर्गमगम्यं कर्मविद्विषाम् । तदेतत्तिरस्कारकारि सारे निज बलम् ॥ ४८. $56) तदेव महती विद्या स्फुरन्मन्नस्तदेव हि । औषधं तदपि श्रेई जम्मव्याधिविनाशनम् ॥ ४९॥ आचारः । तदेव एक ज्योतिः आवश्यकक्रिया । पुनः । तदेव .एकं ज्योतिः खाध्यायः ॥१॥ तदे पर ओतिः। अनुतिष्ठतः विचारयतः । अथवा तज्योतिः प्रवर्तीयतः मुनेः । गुणाः संभाव्यन्ते । सर्वाणि सीलानि संभाष्यन्ते । मस्यन्तरिक धर्मः संभाव्यते कथ्यते ॥ ४२ ॥ तदेव एक ज्योतिः सर्वशाबसमुरम परे र वर्तते । सर्वेषु रमणीयेषु वस्तुए तल एवं ज्योतिः । पुरतः अप्रतः । स्थितम् अस्वि ॥ तदेव एकं ज्योतिः परं तत्त्वम् अस्ति । तदेव एक ज्योतिः परं पदम् अस्ति। तदेव एक ज्योतिः भव्यैः आराध्यम् अस्ति। तदेव एक ज्योतिः परं महः अस्ति ॥ ४४ ॥ तवेव एक ज्योति- जन्मतत्यादि शम्नं संसारक्षमोदकम् अस्ति । सती साधूना संसारच्छेदक मतम् । योगिनिष्ठानां मानतत्पराणां योगिनां तदेव एवं ज्योतिः प्रयोजन कार्यम् अस्ति ॥ ४५ ॥ मुमुक्षूणां मुक्तिनाग्छकानां मुनीनाम् । तदेव एक ज्योतिः । मुक्त मोक्षस्य । पन्या मार्मः वर्तते । च पुनः । अपरः मार्गः न अस्ति । य पुनः । तविहाय चैतन्य विहाय पाया। अन्यत्र स्थाने । आनन्दः अपि । न विमाध्यते न कथ्यते॥ तदेव ज्योतिः । देहिनः जीवस्म । यत्रधारागृह लतागृहम् अस्ति किलक्षमण रेहिनः। संसारघोरपर्मेण संसाररूर-आतपेन सदा तप्तस्प बुःखितस्य । किंलक्षणं ज्योतिः । शान्तम् । पुनः मिलान ज्योति । हिमश्रीतम् । प्रालयवच्छीतसम् ॥ ४७ ॥ तदेव एक ज्योतिः परं दुर्गम् अस्ति । किंलक्षणं ज्योतिः निषो कर्मणाम् । जगम्यम् । तदेव ज्योतिः। एतत्कशणाम् । तिरस्कार करोति तत् तिरस्कारकारि । पुनः लक्षणं उमोतिः । बसिन् लिखकीयम् । सार श्रेष्ठं बल वर्तते ॥ ४८ ॥ तदेव ज्योतिः महती विद्या धर्सते । तदेड ज्योतिः स्फुरन्मत्रः अस्ति । तदपि ज्योति पम् ज्योति आवश्यक क्रिया है, तथा यही एक आत्मज्योति स्वाध्याय भी है ॥४१॥ केवल उसी एक उत्कृष्ट आत्मज्योतिका अनुष्ठान करनेवाले साधुके गुणोंकी, समस्त शीलोंकी और अत्यन्त निर्मल धर्मकी भी सम्भावना है ।। ४२ ॥ समस्त शास्त्ररूपी महासमुद्रका उत्कृष्ट रत्न वही एक आत्मज्योति है तथा वही एक आत्मज्योति सब रमणीय पदार्थोमें आगे स्थित अर्थात् श्रेष्ठ है ॥४३ ।। वहीं एक आत्मज्योति उत्कृष्ट तत्व है, वही एक आत्मज्योति उत्कृष्ट पद है, वही एक आत्मज्योति भव्य जीवोंके द्वारा आराधन करने योम्य है, तथा वही एक आत्मज्योति उत्कृष्ट तेज है ॥ ४४ ! वही एक आत्मज्योति साधुजनोंके लिये जन्मरूपी वृक्षको नष्ट करनेवाला शस्त्र माना जाता है तथा समाधिमें स्थित योगी जनोंका अमीष्ट प्रयोजन उसी एक आत्मज्योतिकी प्राप्ति है ॥ ४५ ॥ मोक्षाभिलाषी जनों के लिये मोक्षका मार्ग वही एक आत्मज्योति है, दूसरा नहीं है । उसको छोड़कर किसी दूसरे स्थानमें आनन्दकी भी सम्भावना नहीं है ॥ ४६॥ शान्त और बर्फ के समान शीतल वही आत्मज्योति संसाररूपी भयानक घामसे निरन्तर सन्तापको प्राप्त हुए प्राणीके लिये यन्त्रधारागृह (फुयारोंसे युक्त घर ) के समान आनन्ददायक है ॥ ५७॥ वहीं एक आत्मज्योति कर्मरूपी शत्रुओंके लिये दुर्गम ऐसा उत्कृष्ट दुर्ग (किला ) है तथा वही यह आत्मज्योति इन कर्मरूपी शत्रुओंको तिरस्कृत करनेवाली अपनी श्रेष्ठ सेना है ॥ ४८ ! वही आत्मज्योति विपुल बोष है, वही प्रकाशमान मंत्र है, तब कही १ प्रतिवर्तकतः। २२ बस्ति पति नास्ति । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० पद्ममन्दि-पञ्चविंशतिः [857: ४-५० I 1 4 1 957) अक्षयस्याक्षयानन्द महाफलभरश्रियः । तदेवैकं परं बीजं निःश्रेयसलसतरोः ॥ ५० ॥ 358) तदेकं परं विद्धि त्रैलोक्यगृह नायकम् । येनैकेन विना शङ्के व सदम् ॥ ५१ 359) शुद्धं यदेव चैतन्यं तदेवाहं न संशयः । कल्पनयानयाप्येतखीनेमानन्द मन्दिरम् ॥ ५२ ॥ 360 ) स्पृहा मोक्षे ऽपि मोहोस्था तसिषेधाय जायते । अन्यस्मै तत्कथं शान्ताः स्पृहयन्ति मुमुक्षवः ॥ 961) अहं चैतन्यमेकं नान्यत्किमपि जातुचित् । संबन्धो ऽपि न केनापि दृढ रक्षो ममेदृशः ॥ 362) शरीरादिवदिचिन्तावक संपर्कवर्जितम् । विशुद्धात्मस्थितं चित्तं कुर्वन्नास्ते निरन्तरम् ॥ ५५ ॥ 368) एवं सति यदेवास्ति तदस्तु किमिहापरैः । आसाद्यात्मनिदं तत्त्वं शान्तो भव सुखी भव ॥ 364) अपारजम्मसन्तानपथभ्रान्ति कृतश्रमम् । तत्त्वामृतमिदं पीत्वा नाशयन्तु मनीषिणः ॥ ५७ औषधम् अस्ति । किंलक्षणं ज्योतिः । जन्मव्याधिविनाशनम् ॥ ४९ ॥ तदेव एके ज्योतिः । निःश्रेयसलसतरोः मोक्षत: बीजम् । किंलक्षणस्य मोक्षत्तरोः । अक्षयस्य विन्दाशरहितस्य । पुनः किंलक्षणस्य । अक्षयानन्द महाफलभर श्रीः " यस्य स तस्य अक्षयानन्दमहाफलभरश्रियः ॥ ५० ॥ सदेव एक ज्योतिः परम् उत्कृष्टम् त्रैलोक्यगृहनायकम् । विद्धि जानीहि । अहं शके । येन एकेन बिना आस्मना विना । एतत् त्रैलोक्यम् । वसत् अपि उद्वसम् " उद्यानम् । इति हेतोः त्रैलोक्यनायकम् आत्मानं जानीहि ॥ ५१ ॥ यदेव शुद्धं चैतन्यं तदेव श्रद्दम् । न संशयः न सन्देहः । एतत् ज्योतिः । अनया कपनया हीनम् अहम् अन्यत् चैतन्यम् अन्यत् । अनेन विकल्पेन रहितं ज्योतिः भानन्दमन्दिर सुखनिधानम् ॥ ५१ ॥ मोक्षे अपि । मोहोत्था मोहोत्पला स्पृद्दा बाच्छा । निषेधाय मोक्षनिषेधाय जायते कथ्यते । तत्तखात्कारणात्। मुमुक्षयः मुक्तिवाकाः मुनयः । अन्यस्मै वस्तुने। कर्म स्पृहयन्ति कथं वाञ्छन्ति बैम्यम् जातुचित् कदाचित् । अन्यत् चिमपि न । केमापि वस्तुना सह संबन्धोऽपि न मम मुनेः । ईशः दृढः पक्षः अस्ति ॥ ५४ ॥ चितं मनः । निरन्तरम् अनवरतम् । विशुद्धात्मस्थितं कुर्वन् । आस्ते तिष्ठति । किंलक्षणं मनः । शरीरादिवहिश्विन्ताचक्र समूहः तस्य चिन्ताचक्र समूहस्य संपर्केण संयोगेन वर्जितम् ॥ ५५ ॥ इह आत्मनि । एवं पूर्वोकविचारे सति । यदेव निजम्वरूपम् । अस्ति । तदा अपरैः विकल्पैः किम् अस्ति । न किमपि । तदेव निजखरूपमस्तु । भो आत्मन् । इदं स्वरूपम् । आसाथ प्राप्य दर्द तस्वं प्राप्य । शान्तो भव सुखी भव ॥ ५६ ॥ मनीषिणः मुनयः । इदं तत्वामृतं पीत्वा । अपारजन्म सन्तान पथभ्रान्त[न्ति ] कृतश्रमं पाररहितसंसारपर• जन्मरूपी रोगको नष्ट करनेवाली श्रेष्ठ औषधि है || ४९ || वही आत्मज्योति शाश्वतिक सुखरूपी महाफलोंके भारसे सुशोभित ऐसे अविनश्वर मोक्षरूपी सुन्दर वृक्षका एक उत्कृष्ट बीज है ॥ ५० ॥ उसी एक उत्कृष्ट आत्मज्योतिको तीनों लोकरूपी गृहका नायक समझना चाहिये, जिस एकके बिना यह तीन लोकरूप गृह निवाससे सहित होकर मी उससे रहित निर्जन वनके समान प्रतीत होता है । अभिप्राय यह है कि अन्य द्रव्योंके रहनेपर भी लोककी शोभा उस एक आत्मज्योति से ही है ॥ ५१ ॥ आनन्दकी स्थानमूत जो यह आत्मज्योति है वह "जो शुद्ध चैतन्य है वही मैं हूं, इसमें सन्देह नहीं है" इस कल्पनासे भी रहित है ॥ ५२ ॥ मोहके उदयसे उत्पन्न हुई मोक्षप्रातिकी मी अभिलाषा उस मोक्षकी प्राप्तिमें रुकावट डालनेवाली होती है, फिर भला शान्त मोक्षाभिलाषी जन दूसरी किस वस्तुकी इच्छा करते हैं ? अर्थात् किसीकी भी नहीं ॥ ५३ ॥ मैं एक चैतन्यस्वरूप ही हूं, उससे भिन्न दूसरा कोई भी स्वरूप मेरा कभी भी नहीं हो सकता। किसी पर पदार्थ के साथ मेरा सम्बन्ध भी नहीं है, ऐसा मेरा दृढ़ निश्चय है ॥ ५४ ॥ ज्ञानी साधु शरीरादि बाझ पदार्थविषयक चिन्तासमूहके संयोगसे रहित अपने चित्तको निरन्तर शुद्ध आत्मामें स्थित करके रहता है ॥ ५५ ॥ हे आत्मन् ! ऐसी अवस्था के होनेपर जो भी कुछ है वह रहे। यहां अन्य पदार्थोंसे मला क्या प्रयोजन है ? अर्थात् कुछ भी नहीं। इस चैतन्य स्वरूपको पाकर तू शान्त और सुखी हो ॥ ५६ ॥ बुद्धिमान् पुरुष इस तत्त्व रूपी अमृतको पीकर अपरिमित जन्मपरम्परा (संसार) के १ दुदनम् । २. क यथा कल्पनया ६ श अन्येन । ७ कक्ष 2 व मनःकल्पनया | ३ श विनाशरहितस्य आनंद । ४ क भटः श्री । ५ नम् Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -3681४११] १. एकत्वलसति १२१ 365 ) अतिसूक्ष्मारिकामेकं मानेकमेन एन पी यसरमनक्षरम् ॥ ५८ ॥ 566) अनौपम्यमनिर्देश्यमममेयमनाकुलम् । शून्यं पूर्ण वयसिस्थमनिस्य च प्रचक्ष्यते ।। ५९ ॥ 367 ) निःशरीरं निरालम्ब निशम्य निरुपाधि यत् । चिदात्मक परंज्योतिरमाथानसगोचरम् ॥३०॥ 368) इत्यत्र गहने ऽस्पन्तदुर्लक्ष्ये परमात्मनि । उच्यते यचदाकाशं प्रत्यालेक्य बिलिख्यते ॥ ६ ॥ म्परापय-मार्गभ्रमगेन कृतश्रमम् उत्पन भ्रम खेदम् । नाशयन्तु स्फेटयन्त ॥ ५५ ॥ यत् ज्योतिः अतिसूक्ष्म प्रचक्ष्यते कृष्यते अमूर्तत्त्वात्। यज्योतिः अतिस्थूल प्रचक्ष्यते कथ्यते । कस्मात् । अनन्तगुणाश्रयत्वात् । यज्योतिः एक प्रवक्ष्यते शुद्रव्यार्थिन । यज्योतिः अनेक प्रचक्ष्यवे' कथ्यते गुणापेक्षया अथवा दर्शनज्ञानचारित्रतः । यज्योतिः खसंवेद्यम् । कस्मात् । सहजज्ञानपरिच्छेद्यत्वात् । यज्योतिः अवेद्यम् । कस्मात् । क्षायोपशामिकज्ञानेन अपरिच्छेयत्वात् । यज्योतिः अक्षर, म क्षरति इति अक्षर, विनाशरहितस्यात् । र पुनः । यज्योतिः अनक्षरम् । कस्मात् । अक्षररहितस्वात् । यज्योतिः अनौपम्यम् असाधारणगुणसहितत्वेन उपमातीतम् । यजयोतिः अनिर्देश्यम् । कस्मात् । कपितुमशस्यत्वात् । यज्योतिः अप्रमेयम् । कस्मात् । प्रभातुमशक्यचात् बा प्रमाणातीतत्वात् । यज्योतिः अनाकुलम् माकुलतारहितम् । यज्योतिः शून्य परपर चतुष्टयेन शून्यम् । च पुनः । यज्योतिः पूर्ण खचतुष्टयेन पूर्णम् । यज्योतिः नित्यं द्रव्यापेक्षया नित्यम् । यज्योतिः अनित्य पर्यायाधिकनयेन अनित्य प्रचक्ष्यवे' कप्यते ॥५८-५९ ॥ यत् परंज्योतिः । निःशारीरे शरीररहितम् । यज्योतिः निरालम्बम् मालम्बनरहितम् । यज्योतिः निःशब्दं शब्दरहितम्। यज्योतिः निरुपाधि उपाधिरहितमा यज्योतिःचिदात्मकम । गज्योतिः अवाचानसगोचरम अतीन्द्रियज्ञामगोचरम ॥ ६ ॥ इति पूर्वोत्तप्रकारेण । अत्र परमात्मनि विधये । यत् उच्यते कथ्यते तत् धाकाशे प्रति भालेय चित्रामं विलिख्यते मार्गमें परिभ्रमण करनेसे उत्पन्न हुई थकावटको दूर करें ॥ ५७ ॥ वह आत्मज्योति अतिशय सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है, एक भी है और अनेक भी है, स्वसंवेद्य भी है और अवेद्य भी है, तथा अक्षर भी है और अनक्षर भी है। वह ज्योति अनुपम, अनिर्देश्य, अप्रमेय एवं अनाकुल होकर शून्य भी कही जाती है और पूर्ण भी, नित्य भी कही आती है और अनित्य भी ।। विशेषार्थ- आत्मज्योति निश्चयनयकी अपेक्षा रूप, रस, गन्ध और स्पर्शसे रहित होनेके कारण सूक्ष्म तथा व्यवहारनयकी अपेक्षा शरीराश्रित होनेसे स्थूल भी कही जाती है । इसी प्रकार वह शुद्ध चैतन्यरूप सामान्य स्वभावकी अपेक्षा एक तथा व्यवहारमयकी अपेक्षा मिन्न भिन्न शरीर आदिके आश्रित रहनेसे अनेक भी कही जाती है। वह स्वसंवेदन प्रत्यक्षके द्वारा जाननेके योग्य होनेसे स्वसंवेद्य तथा इन्द्रियजनित ज्ञानकी अविषय होनेसे अवेद्य भी कही जाती है। वह निब्धयसे विनाशरहित होनेसे अक्षर तथा अकारादि अक्षरोंसे रहित होनेके कारण अथवा व्यवहारकी अपेक्षा विनष्ट होनेसे अनक्षर भी कही जाती है। वही आत्मज्योति उपमारहित होनेसे अनुपम, निश्चयन्यसे शब्दका अविषय होनेसे अनिर्देश्य ( अवाच्य), सांव्यवहारिक प्रत्यक्षादि प्रमाणोंका विषय न होनेसे अप्रमेय तथा आकुलतासे रहित होनेके कारण अनाकुल भी है। इसके अतिरिक चूंकि यह मूर्तिक समस्त बाध पदार्थोक संयोगसे रहित है अत एवं शूल्य तथा अपने ज्ञानादि गुणोंसे परिपूर्ण होनेसे पूर्ण मी मानी जाती है, अथवा परकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा शून्य और स्वकीय द्रव्यादिकी अपेक्षा पूर्ण मी मानी आती है। वह छ्यार्थिक नयकी अपेक्षा विनाशरहित होनेसे नित्य तथा पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा अनित्य मी कही जाती है ॥५८-५९ ॥ वह उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप ज्योति चूंकि शरीर, आलम्बन, शब्द तथा और भी अन्यान्य विशेषणोंसे रहित है; अत एव यह वचन एवं मनके मी अगोचर है ॥ ६० ॥ इस प्रकार उस परमात्माके दुरधिगम्य एवं अत्यन्त दुर्लक्ष्य ( अदृश्य ) होनेपर उसके विषयमें जो कुछ मी कहा जाता है वह आकाशमें चित्रलेखनके १ म माम्मनस्गोचरम्, पानामानसगोकरम् । २५ फोटबन्न । यस प्रनवे । ४ मास अविनाशल्याए । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [869 ४६२ 369 ) भारत तत्र स्थितो यस्तु चिन्तामात्रपरिग्रहः । तस्यात्र जीवितं यं देवैरपि स पूज्यते ॥ ६२ ॥ 370 ) सर्वविद्भिरसंसारैः सम्यग्ज्ञानविलोचनैः । एतस्योपासनोपायः साम्यमेकमुदाहृतम् ॥ ६३ ॥ 371 ) सायं स्वास्थ्ये समाधिश्व योग श्वेतो निरोधनम् । शुद्धोपयोग इत्येते भवन्त्ये कार्यवाचकाः ||६४ 372 ) नाकतिर्नाक्षरं वर्णो नो विकल्प कश्चन। शुद्धं चैतन्यमेबैंकं यत्र तत्साम्यमुच्यते ॥ ६५ ॥ 373 ) साम्यमेकं परं कार्य साम्यं तवं परं स्मृतम् । साम्यं सर्वोपदेशानामुपदेशो विमुक्तये ॥ ६६ ॥ 374) साम्यं सद्बोधनिर्माणं शश्वदानन्वमतिमानः ॥६७॥ 375) साम्यं निःशेषशास्त्राणां सारमादुर्विपश्चितः । साम्यं कर्ममहाकभवाहे दावानलायसे ॥ ६८ ॥ 376 ) साम्यं शरण्यमित्याहुयोगिनां योगगोचरम् । उपाधिरचिताशेषदोषपणकारणम् ॥ ६९ ॥ I ॥ ६१ ॥ तत्र आत्मनि । स्थितः प्रवर्तनम् । भातां दूरे तिष्ठतु । तु पुनः । यः चिन्तामात्रपरिग्रहः पुरुषः अस्ति । अत्र संसारे । तस्य जीवितं श्राभ्यम् । स पुमान् देवैरपि पूज्यते ॥ ६२ ॥ सर्वविद्भिः सर्वशः । एतस्य भ्रात्मनः । उपासनोपायः सेवनोपायः । साम्यम् एकम् । उदाहृतं कचितम् । किंलक्षणेः सर्वशैः । व्यसारैः संसाररहितैः पुनः लक्षणेः । सम्यग्ज्ञानविलोचनैः ॥६३॥ इति एते एकार्यवाचकाः भवन्ति । ते के साम्यं स्वास्थ्यम् । च पुनः समाधिः योगः श्रेोनिरोधनं शुद्धोपयोगः ॥ ६४ ॥ तत्साम्यम् उच्यते यत्र एकमेव शुद्ध चैतन्यम् अस्ति । यस्य शुद्धस्य आकृतिः न समचतुरस्त्रादि आकृति:' न यस्य चैतन्यस्य आकारावि अक्षरे न यस्य शुद्धस्य शुकादिः वर्णः न । यस्य शुद्धचैतन्यस्य कथन विकल्पः न तत्साम्यम् उच्यते ॥ ६५ ॥ परम् एकं साम्यं कार्य कर्तव्यम् । साम्यं परं तवं स्मृर्त कथितम्। साम्यं सर्वोपदेशानां सर्वशाख- उपदेशानाम् । विमुक्तये मोक्षाय उपदेशः ॥ ६६ ॥ एतत्साम्यं सद्बोष निर्माणं सद्बोधस्य निर्मापकम् । पुनः शश्वत् आनन्दमन्दिर कल्याणस्थानम् । पुनः साम्यं शुद्धात्मनः रूपम् मस्ति । पुनः साम्ये मोक्षेकसामः मोक्षगृहस्य द्वारम् ॥ ६७ ॥ विपश्चितः पण्डिताः । निःशेषशास्त्राणां सारं साम्यम् आहुः कथयन्ति । कर्ममहाकक्ष-मन वाहे साम्यम् । दावानलायते दावानल इवाचरति ॥ ६८ ॥ साम्यं योगिनां योगगोचरम् अस्ति । इति हेतोः । शरण्यम् आहुः किंलक्षणं साम्यम् । उपाधिरचित-भशेषदोषक्षपणकारण समान है । विशेषार्थ - अभिप्राय यह कि जिस प्रकार अमूर्त आकाशके ऊपर चित्रका निर्माण करना असम्भव है उसी प्रकार अतीन्द्रिय आत्माके बिषयमें कुछ वर्णन करना भी असम्भव ही है। वह तो केवल स्वानुभवके गोचर है ॥ ६१ ॥ जो उस आत्मामें लीन है वह तो दूर ही रहे। किन्तु जो उसका चिन्तन मात्र करता है उसका जीवन प्रशंसाके योग्य है, वह देवोंके द्वारा भी पूजा जाता है || ६२ ॥ जो सर्वज्ञ देव संसारसे रहित अर्थात् जीवनमुक्त होते हुए सम्यग्ज्ञानरूप नेत्रको धारण करते हैं उन्होंने इस आत्माके आराधनका उपाय एक मात्र समताभाव बतलाया है ।। ६३ ।। साम्य, स्वास्थ्य, समाधि, योग, चित्तनिरोध और शुद्धोपयोगः ये सब शब्द एक ही अर्थके वाचक हैं ॥ ६४ ॥ जहां न कोई आकार है, न अकारादि अक्षर है, न कृष्ण-नीलादि वर्ण है, और न कोई विकल्प ही है; किन्तु जहां केवल एक चैतन्यस्वरूप ही प्रतिभासित होता है उसीको साम्य कहा जाता है ।। ६५॥ वह समताभाव एक उत्कृष्ट कार्य है। वह समताभाव उत्कृष्ट तत्त्व माना गया है। वही समताभाव सच उपदेशोंका उपदेश है जो मुक्तिका कारण है, अर्थात् समताभावका उपदेश समस्त उपदेशोंका सार है, क्योंकि उससे मोक्षकी प्राप्ति होती है ॥ ६६ ॥ समताभाव सम्यग्ज्ञानको उत्पन्न करनेवाला है, वह शाश्वतिक ( नित्य ) सुखका स्थान है, वह समताभाव शुद्ध आत्माका स्वरूप तथा मोक्षरूपी अनुपम प्रासादका द्वार है || ६७ ॥ पण्डिस जन समताभावको समस्त शास्त्रोंका सार बतलाते हैं। वह समताभाव कर्मरूपी महावनको भस्म करनेके लिये दावानलके समान है ॥ ६८ ॥ जो समताभाव योगी जनोंके योगका विषय होता हुआ पास और आभ्यन्तर परिमहके निमित्तसे उत्पन्न हुए समस्त दोषोंको नह करनेवाला है वह शरणभूत कहा जाता है ॥ ६९ ॥ जो आत्मारूपी हंस अणिमादि समुखका आकृतिः । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -88978-01] १. एकापसप्ततिः 877) निःस्पृहायाणिमायनखण्डे लाम्पसरोजुषे। ईसाय शुषये मुक्तिहसीदचारशे नमः ॥ ७० ॥ 78) मानिनोऽमृतसंगाय मृत्युस्तापकरोऽपि सन्। मामकुम्भस्य लोकेऽस्मिन् भवेत्याकविधिर्यथा ।। 379) मानुभ्यं सरकुले जन्म लक्ष्मीर्मुशिः कृतहप्ता । विवेकेन विना सर्षे सदमेतच किंचन ॥ ७२ ॥ 380) चिदचिद वे परे हवे विवेकस्तनिवेचनम् । उपादेयमुपादेयं हेयं हेयं च कुर्षतः ।। ७३ ॥ 981) खं किंचित्सुखं किंचिधिसभाति जडात्मनः । संसारे ऽत्र पुनर्नित्यं सर्व पुर्व विवेकिनः॥ 382) हेयं हि कर्म रागादि सत्कार्य च विवेकिनः । उपादेयं परंज्योतिरुपयोगैकलक्षणम् ॥ ७५॥ 388) यदेव चैतन्यमई सदेव तदेवं जानाति सदेव पश्यति । तदेव चैक परमस्ति निधयात् गतोऽसि भाग्न सकता परम् ॥ ७ ॥ दोषविनाशकारणम् ॥ ३९ ॥ इसाय नमः । किंलक्षणाय ईसाय परमात्मने । साम्यसरोजुषे साम्पसर सेवकाय । पुनः किलक्षणाय परमात्मने। अणिमायजखले खर्गधीकमला। निःस्पृहाय उदासीनाय । पुनः किलक्षणाय । शुचये पवित्राय 1 पुनः किलक्षणाय हंसाय । मुजिहंसीदत्तदृशे मुफिइसिनीदत्तनेत्राय ॥ ७० ॥ मृत्युः भातापकरः मपि सन् हानिनः पुरुषस्य । अमृतसंगाय मुखाय भवेत् । अस्मिन् लोके यथा आमकुम्भस्य अपक्ककलशस पाकविधिः पककरणम् ॥ १॥ मानुय सकले जन्म लक्ष्मीः बुद्धिः कृतज्ञता सर्व विवेकन बिना । सप्त विद्यमानम् अपि । असत् अविद्यमानम् । एतत् किंचन ने ॥७२॥ चित् अचित् परे । तत्त्वे समीः यो पेला शिवार । विशाल कुषः हुनेः उपादेयं तस्वम् उपादेयं प्रहणीयम् । न पुनः। हेय तत्त्व देयं सजनीयम् ॥ ७३ ॥ अत्र संसारे । जहात्मनः भूस्य । शित किंचित् कुवं किंचिरमुख प्रतिभाति । पुनः विवेकिनः सिस सर्व दुःख भाति । नित्यं सदैव ॥ ४ ॥ हि यतः । रागादि कर्म । हेयं त्यजनीयम् । च पुनः । विवेकिनः । तत्काय तस्म रागादिकर्मणः कार्य सजनीयम् । परंज्योतिः उपादेयं महणीयम् । मिलक्षणं ज्योतिः । उपयोगहलक्षण शानदर्शनोपयोगलक्षणम् 11 ७५ ॥ यत् । एव निश्चयेन । चैतन्यतत्वम् अस्ति। तदेव भइम् । सबैब भात्मतत्व सर्व जानाति । तदेन चैतन्यं सर्व लोक पश्यति अवलोकयति । व पुनः । निश्चयात, तदेव एक ज्योतिः । परम् उत्कृष्टम् । अस्ति । भायेन विचारणेन अपना चैतन्येन ऋद्धिरूपी कमलखण्ट (स्वर्ग)की अभिलाषासे रहित है, समतारूपी सरोवरका आराधक है, पवित्र है, तथा मुक्तिरूपी हंसीकी ओर इष्टि रखता है, उसके लिये नमस्कार हो । ७० ॥ जिस प्रकार इस लोकमें कच्चे घड़ेका परिपाक अमृतसंग अर्थात् पानीके संयोगका कारण होता है उसी प्रकार अविवेकी जनके लिये सन्तापको करनेवाली मी वह मृत्यु ज्ञानी जनके लिये अमृतसंग अर्थात् शाश्धतिक सुख (मोक्ष) का कारण होती है ॥ ७१ ॥ मनुष्य पर्याय, उत्तम कुलमें जन्म, सम्पत्ति, बुद्धि और कृतज्ञता (उपकारस्मृति ); यह सब सामग्री होकर मी विवेकके विना कुछ भी कार्यकारी नहीं है ॥ ७२ ।। चेतन और अचेतन ये दो भिन्न तत्त्व हैं। उनके भिम स्वरूपका विचार करना इसे विवेक कहा जाता है । इसलिये हे आत्मन्! तू इस विवेकसे ग्रहण करने के योग्य जो चैतन्यस्वरूप है उसे ग्रहण कर और छोड़ने योग्य जड़ताको छोड़ दे ।। ७३ ॥ यहां संसारमै मूर्ख प्राणीके चित्तमें कुछ तो सुख और कुछ दुखरूप प्रतिमासित होता है । किन्तु विवेकी जीवके चित्तमें सदा सब दुखदायक ही प्रतिभासित होता है । विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि अविवेकी प्राणी कभी इष्ट सामग्रीके प्राप्त होनेपर सुख और उसका वियोग हो जानेपर कभी दुखका अनुभव करता है। किन्तु विवेकी प्राणी हट सामग्रीकी प्राप्ति और उसके वियोग दोनोंको ही दुखप्रद समझता है। इसीलिये वह उक्त दोनों ही अवस्थाओंमें समभाव रहता है । ७४ !! विवेकी जनको कर्म तथा उसके कार्यभूत रागादि भी छोड़नेके योग्य हैं और उपयोगरूप एक लक्षणवाली उत्कृष्ट ज्योति ग्रहण करनेके योग्य है ॥ ७५ ॥ जो चैतन्य है यही में हूं। वही चैतन्य जानता है और वही चैतन्य देखता भी है। निश्चयसे १शन' नास्ति । २ चैतन्य मलि। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानादि-पक्षविराति [3a4:0-80384) पकवलसतिरिय सुरसिन्धुरुधामीपसमन्दिहिमभूषरता प्रसूता। यो गाइते शिषपदाम्मुनिषि प्रविधमेसां लभेत स नः परमो विशुखिम् ॥७॥ 385) संसारसागरसमुत्तरकसेतुमेनं सतो सयुपदेशमुपाभितानाम् । कुर्यात्पदं मलकबो ऽपि किमतर सम्यक्समाधिषिधिसमिधिनिस्तर ८॥ 986) आत्मा मिनस्तदनुगतिमत्कर्म मि तयोर्या प्रत्यासर्भवति विकति सापि मित्रा तव। कालवप्रमुखमपि यच्च मिश्र मतं मे मित्रं भिन्न निजगुणकलालंकृतं सर्वमेतत् ॥७९॥ 387) ये ऽभ्यासयन्ति कथयन्ति विचारयन्ति संभावयन्ति च मुर्मुदुरात्मतत्वम् । से मोक्षमापनममतलीय सि प्रान्ति मषकेवललम्धिरूपम् ॥८॥ सह । पर केवलम् । एकताम् । गतोऽसि प्रासोऽस्मि ॥ ६ ॥ इयम् एकरवसातिः । सुरसिन्धुः आकाशगङ्गा । उः श्रीपचनन्दिहिमभूधरतः उच्चतरभीपमनन्दिहिमाचलपर्वतात् । प्रसूता उता उत्पना । यः पुमान् । एताम् आवश्यताम् । गाहने मान्दोलयति । स नरः परमा विशुधिम् । मभेत प्राप्नुयात् । किलक्षणाम् एकस्वसप्ततिम् आकाशगाम् । शिवपदाम्बुनिर्षि विद्या मोक्षसमुत्र प्राप्ताम् ॥ ७॥ भो भव्याः भूवताम् । एनम् । सत् समीचीनम् उपदेशम् उपाश्रितानाम् । सतो सत्पुरुषाणाम् । अन्तरले मनसि अभ्यन्तरे मनास । मललयोऽपि पापलेशोऽपि। किं पद स्पानं कुर्यात् । अपि तुमकुर्माद । मिलक्षणम् उपदेनम् । संसारसागरसमुत्तरणकसेतुम् एकोहणम् । किलक्षणे अन्तरगे। सम्यक्समाधिविधिसनिधिनिखरो समीचीनसाम्पविधिसमीपेन अनाकले ॥ ७० ॥ भास्मा भिलः । तदनुगतिमत् तस्य जीवस्य भनुगामि कर्म भित्रम् । तयोः दयोः पात्मकर्मणोः । प्रत्यासत्तेः सामीप्यात् । या विकृतिः भवति सापि मिमा । तथैव सा विकृतिः भात्मकर्मवद्विषा । यत् कालक्षेत्रप्रमुर्म तदपि मिकम् । च पुनः । एतत्सर्वम् । निजगुणालकतम् मात्मीयगुणपर्यायसंयुजम् । मत मिषं मिलम् । मत कथितम् ॥ ५॥ ये मुनयः । आत्मतत्त्वम् । मुहुर्मुहुः वारंवारम् । मभ्यासयन्ति। च पुनः । ये मुनयः भारमतवं श्यन्ति । ये मुनयः भास्मतर्प विचारयन्ति । ये मुमयः मात्मतल संभावयन्ति ।" मुनयः क्षिप्रै शीघ्रम् । अनून मोक्ष प्रयान्ति।ने स्तं बनूनं सौख्येन पूर्ण मोक्षम् । किंलक्षणं मोक्षम् । अक्षय पिनाशरहितम् । भनन्ससौख्यम् । पुनः किलक्षणं मोक्षम् । नवकेवललम्भिस्म नबकेवल. खरूपम् ॥ ८॥ इत्येकत्वासीतिः [इत्येकास्वसप्ततिः] समाप्ता ॥ ४ ॥ वही एक चैतन्य उत्कृष्ट है । मैं स्वभावतः केवल उसीके साथ एकताको प्राप्त हुआ हूं ॥ ७६ ॥ जो यह एकत्वसप्तति (सत्तर पद्यमय एकत्वविषयक प्रकरण) रूपी गंगा उन्नत ( ऊंचे) श्री पदमन्दीरूपी हिमालय पर्वतसे उत्पन्न होकर मोक्षपदरूपी समुद्रमें प्रविष्ट हुई है उसमें जो मनुष्य यान करता है (एकत्वसप्ततिके पक्षमै- अभ्यास करता है) वह मनुष्य अतिशय विशुद्धिको प्राप्त होता है ।। ७७ ॥ जिन साधुजनोंने संसाररूपी समुद्रके पार होनेमें अद्वितीय पुलस्वरूप इस उपदेशका आश्रय लिया है उनके उत्तम समाधिविधिकी समीपतासे निश्चलताको प्राप्त हुए अन्तःकरणमें क्या भलका लेश भी स्थान पा सकता है ! अर्थात् नहीं पा सकता || ७८ ॥ मात्मा भिन्न है, उसका अनुसरण करनेवाला कर्म मुझसे भिन्न है, इन दोनोंके सम्बन्धसे जो विकारभाव उत्पन्न होता है वह भी उसी प्रकारसे भिन्न है, तथा अन्य भी जो काल एवं क्षेत्र आदि है वे भी भिन्न माने गये हैं। अभिप्राय यह कि अपने गुणों और कलाओंसे विक्षित यह सब भिन्न भिन्न ही है ॥ ७९ ॥ जो भव्य जीव इस आत्मतत्त्वका बार बार अभ्यास करते हैं, व्याख्यान करते हैं, विचार करते हैं, तथा सम्मान करते हैं; वे शीघ्र ही अविनश्वर, सम्पूर्ण, अनन्त सुखसे संयुक्त एवं नौ केवललब्धियों (केवलज्ञान, केवलदर्शन, क्षायिक दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य, क्षायिक सम्यक्त्व और क्षायिक चारित्र) स्वरूप मोक्षको प्राप्त करते हैं ॥ ८० ॥ इस प्रकार यह एकत्यससति प्रकरण समाप्त हुआ ॥ ४ ॥ श'श्रीपचनन्दिहिमभूषरतः' नास्ति। २. समुत्तरणपकोण, क समुत्तरणएकसेतुं प्रोवर्ण। । । ५. श्रीधे नूनं मोक्षं प्रयान्ति न, कह अनून न। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५. यतिभावनाष्टकम् ] 388 ) आदाय बतमारमतत्वममल मात्वाय गत्वा वर्ग निम्शेषामपि मोहकर्मजलिसा हित्वा विकल्पावलिम्। ये तिष्ठन्ति ममोमरुधियचलकत्यप्रमोद पता मिष्कम्पा गिरिषजयन्ति मुनयस्ते सर्वसंगोशिताः॥१॥ 389) खेतोवृत्तिनिरोधनेन करणग्रामं विधायोस । तत्संहस्य गतागतं च मरतो' धैर्य समाभित्य च । पर्यन मया शिवाय विधिवम्यकभूभहरी मध्यस्थेन कदा चिर्पितरशा स्थातव्यमन्तर्मुखम् ॥ २ ॥ 390) धूलीधूसरितं विमुकषल पर्यमुदागत शान्तं निर्वचनं निमीलिताशं तत्त्वोपलम्मे सति । उत्कीर्ण षदीय मां वनभुवि भ्रान्तो मूगाणी गणा पश्यत्युत्तविलयो यदि तवा मारजनः पुण्यवान् ॥ ३॥ ते मुनयः जयन्ति । ये गिरवत् पर्वतवत् । निकम्पाः कम्परहिताः विहन्ति । किलक्षणा मुनवः । ममोमहविदनलैकत्वप्रमोवं गता. सासनिःश्वानसह चेयरपर-तर प्रमोई गताः। पुनः किसक्षणाः मुनयः । सर्वसंगेन परिप्रहेष उजिताः रहिताः । कि करवा । व्रतम् आदाय गृहीखा । पुनः अमलम् आरमतत्वं शास्वा । मप अपवा । वनं गत्वा । पुनः निःशेषाम् मपि मोहकमैजनिता विकल्पावलिम् । हित्वा परित्यज्य । निष्कम्पाः विष्ठन्ति ॥ १॥ मया मुनिना । शिवाय मोक्षाय । विधिवत् विधियुकेन । पर्यर-आसनेन । अन्तर्मुस झानाबलोकनं यथा स्पाया। कदाचित स्थातव्यम् । विलक्षणेन मया । शून्या-एका भूभारी-गुफा-मध्यस्थेन। पुनः किलक्षणेन मया मुनिना । अर्पित नासाप्रस्थापितनेत्रेण । किं वा । तोकृत्तिनिरोधनेन । करणग्रामम् इन्द्रियसमूहम् । उस विधाये उद्यानं एखा। च पुमः । तस्य मरुतः पवमस्य । गतागतं गमनम् भागमनम् । सहत्य संकोच्य । च पुनः । धैर्य समात्रिय । कदा कस्मिन् काले । मया अन्तरविवार प्रति स्थातव्यम् ॥ ३ ॥ मुनिः उदाधीन चिन्तयति। तदा काले । माहरजनः मत्सरशः जनः । पुष्पवान् । यदि वेत् । भुवि पृथिव्याम् । मृगार्या गणः मृगसमूहः । माम् उत्कीर्ण द्वषदि पश्यति माम् उत्केरितं पाषाणे' इस पश्यति । किलक्षणः मृगसमूहः । भ्रा उत्पन-माययः । किलक्षणं माम् । धूलोधूसरितम् । पुनः किंलक्षणं माम् । विमुकवसने वारहितम् । पुनः विलक्षणं माम् । पर्यमुद्रागतं पर्यशासनस्थितम् । शान्तं क्षमायुक्तम् । पुनः किलक्षणं माम् । निर्वचन पचनरहितम् । पुनः किलक्षणं माम् । जो मुनि व्रतको प्रहण करके, निर्मल आत्मतत्त्वको जान करके, वनमें जा करके, तथा मोहनीय कर्मके उदयसे उत्पन्न होनेवाले सब ही विकल्पोंके समूहको छोड़ करके भनरूपी वायुसे विचलित न होनेवाले स्थिर चैतन्यमें एकत्वके आनन्दको प्राप्त होते हुए पर्वतके समान निश्चल रहते हैं वे सम्पूर्ण परिग्रहसे रहित मुनि जयवन्त होवें ॥ १ ॥ मुनि विचार करते हैं कि मैं मनके व्यापारको रोकता हुआ इन्द्रियसमूहको वीरान करके (जीत करके), वायुके गमनागमनको संकुचित करके, धैर्यका अवलम्बन लेकर, तथा मोक्षप्राप्तिके निमित्त विधिपूर्वक पर्वतकी एक निर्जन गुफाके बीचमै पद्मासनसे स्थित होकर अपने स्वरूपपर दृष्टि रखता हुआ कब चेतन आत्मामें लीन होकर स्थित होऊंगा:॥ २ ॥ तत्त्वज्ञानके प्राप्त हो जानेपर लिसे मलिन (अखात), वससे रहित, पद्मासनसे स्थित, शान्त, वचनरहित तथा आखोंको मींचे हुए; ऐसी अवस्थाको प्राप्त हुए मुझको यदि वनभूमिमें भ्रमको प्राप्त हुआ मृगोंका समूह आश्चर्यचकित होकर पत्थरमें उकेरी हुई मूर्ति जनितं । २ विकल्पावतीं। ३ कमतौ। ४ नासापितदशा । ५ विहाय । २ क कदाचिन् । महादिव । ww 44पाषाण । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . . . . . . . . . १२६ पचनन्दि-पशर्षिशतिः [391:५-४391) धासः शून्यमठे कचिनियसनं नित्य ककुम्मण्डलं संतोषी धनमम्रतं नियतमा शान्तिस्तपो घर्तमम। मैत्री सशारीरिभिः सह सदा सरवैकचिन्तासुखं धेदास्ते न किमस्ति मे शमवतः कार्य न किंचित् परैः॥४॥ 392) लण्या जन्म कले. शुचौ वरचपुर्यध्या श्रुतं पुण्यतो वैराग्यं करोति यः शुचि सपी लोक सापक कृती..... तेनैवोजितगौरवेण यदि वा ध्यानामृतं पीयते प्रासादे कलशस्तदा मणिमयो हमे समारोपितः ॥ ५॥ 993 ) ग्रीष्मे भूधरमस्तकाभितशिलां मूलं तरोः प्रावृषि भोजूते शिशिरे चतुष्पथपद प्राप्ताः स्थिति कुर्यते । ये सेषां यामिना यथोक्ततपसा ध्यानप्रशान्तात्मनां मार्गे संचरतो मम प्रशामिना कालः कदा यास्यति ॥ ६॥ निमीलितदृशं मोद्भाटितनेत्रम् । क सति । तत्वोपलम्मे सति ॥३॥ चेद्यदि । मे मम । कचित् शून्यमठे वासः । आस्ते तिति । नित्यं सदैव । ककुम्मण्डलं निवसनं दशदिक्समूहं परम् । मे मम। मंतोषः उन्नतं धनम् अस्ति । मम मुनेः । शान्तिः क्षमा। प्रियतमा स्त्री अस्ति । मम मुनेः तपः वर्तन व्यापारः अस्ति । यदि चेत् । मम मुनेः । सर्वशरीरिभिः सह मैत्री मस्ति । चेत्, मम रादा तत्वैकचिन्नामुखम् अस्ति । यदि चेत । पूर्वोक्त सर्वम् अस्ति तदा किन असि मे । सवैम् अस्ति । शमवतः मे परैः सह किंचित् कार्य न भस्ति ॥४॥ लोके संसारे। स एकः पुमान् । कृती पुण्यवान । यः शुचि तपः करोति । किं कृत्वा। शुचौ पवित्रकुले। जन्म लब्ध्या। वरवपुः पारीरम्। लकवा । पुण्यतः श्रुतम् । घुसा ज्ञात्वा च पुनः । येराग्य प्राप्य यः तपः करोति सः पुण्यवान्। बा अथवा । तेनेव परवेणी सितगौरवेण गवरहितेन। यदि चेत । ध्यानम श्रमतं पीयसे तदा। मे स्वर्णमये । प्रासाद रहे। मणिमयः फलाः । समारोपितः स्थापितः ॥५॥ तेषो यमिना मुनीनाम् । मार्ग संचरतः मम कालः कदा यास्यतिकिलक्षणानां मनीनाम् । यथोकतपसा अपोकतपोयुक्तानाम् । पुनः किलक्षणानाम् । थ्यामप्रशान्तास्मनाम् । ये मुनयः । प्रीम्मे ज्येष्ठाबाहे। भूघरमस्तके आश्रिमशिला प्रति स्थिति पुर्वते । ये मुनयः । प्राधि वर्षाकाले । तरोः पृक्षस्य। मूल प्राप्ताः स्थिति कुर्वते । ये मुनयः । प्रोमूते शिशिरे पीतऋती । चतु पश्चपदं प्राप्ताः स्थितिं कुर्वते । तेषी मार्गे संचरतः मम कालः कदा यास्यति ॥ ६॥ समझने लग जावे तो मुझ जैसा मनुष्य पुण्यशाली होगा ॥ ३ ॥ यदि मेरा किसी निर्जन उपाश्रयमें निवास हो जाता है, सदा दिशासमूह ही मेरा वस्त्र बन जाता है अर्थात् यदि मेरे पास किंचित् मात्र भी परिग्रह नहीं रहता है, सन्तोष ही मेरा उन्नत धन हो जाता है, क्षमा ही मेरी प्यारी स्त्री बन जाती है, एक मात्र तर ही मेरा व्यापार हो जाता है, सब ही प्राणियोंके साथ मेग मैत्रीभाव हो जाता है, तथा यदि मैं सदा ही एक मात्र तत्त्वविचारसे उत्पन्न होनेवाले सुखका अनुभव करने लग जाता हूं तो फिर अतिशय शान्तिको प्राप्त हुए मेरे पास क्या नहीं है ? सब कुछ है । ऐसी अवस्थामें मुझको दूसरोंसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता है ॥४॥ लोकमें जो मनुष्य पुण्यके प्रभावसे उत्तम कुलमें जन्म लेकर, उत्तम शरीरको पाकर और आगमको जान करके वैराग्यको प्राप्त होता हुआ निर्मल तय करता है वह अनुपम पुण्यशाली है । यही मनुष्य यदि प्रतिष्ठाके मोह (आदरसत्कारका भाव) को छोड़कर ध्यानरूप अमृतका पान करता है तो समझना चाहिये कि उसने सुवर्णमय प्रासादके ऊपर मणिमय कलशको स्थापित कर दिया है ।। ५ ।। जो साधु ग्रीष्म ऋतु, पर्वतके शिखरके ऊपर स्थित शिलाके ऊपर, वर्षा ऋतुमें वृक्षके मूलमें, तथा शीत अतुके प्राप्त होनेपर चौरस्तेमें स्थान प्राप्त करके 'ध्यानमें स्थित होते हैं जो आपभोक्त अनशनादि तपका आचरण करते हैं, और जिन्होंने ध्यानके द्वारा अपनी आत्माको अतिशय शान्त कर लिया है। उनके मार्गमै प्रवृत्त होते हुए मेरा काल अत्यन्त शान्तिके साथ कब बीतेगा ! ॥६॥ र मु (जै. सि.) तपोभोजनम्। २ श एव । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 - A AAAAAAAAAAAnn.- '.. -996:५९] ५. यतिभावनाष्टकम् 394 ) भेदहानविशेषसंहतमनोवृत्तिः समाधिः परो जायेतासुतधामघम्यशमिना फेषांचिदनाधला। पने मूर्ति पतत्यपि त्रिभुषने वद्धिप्रदीप्ते ऽपि षा येषां नो विकृतिर्मनागपि भवेत् प्राणेषु नश्यत्स्वपि ॥७॥ 395) अन्तस्तत्त्वमुपाधिचर्जितमहव्याहारषाच्या पर ज्योतियः कलितं नितं च यतिमिस्से सन्तु नः शाम्तये। येषां तरसदनं तदेव शयनं तत्संपदस्तस्सुखं तवृत्तिस्सपि प्रियं तदखिलश्रेष्धार्थसंसाधकम् ॥ ८॥ 396) पापारिक्षयकारि दास नपतिस्वर्गापवर्गश्रिय श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्षिरचितं विश्वेतनानन्दिमिः। भक्त्या यो यतिभाषनाटकमिदं भव्यस्त्रिसंध्य पठेत् किं कि सिध्यसि धाम्छितं न भुवने तस्यात्र पुण्यात्मनः ॥९॥ अत्र संसारे केम्वित् मुनीनाम् । पर: उस्फुरः। समाधिः। जायेत उत्पपेत। किलक्षणानो मुनीनाम् । अतधामधन्यशमिनाम् । किंलक्षणः समाधिः। भेदज्ञान विशेषसंहतमनोवृतिः भेवशानेन संकोचितमनोव्यापारः। पुनः अचलसमाधिः । येषामनीनाम। मनाक् अपि । विकृतिः विकारः । न भवेत् । क सति । मूर्तीि को पतस्यपि सति । वा अथवा । त्रिभुवने वहिना प्रीति ज्वलिते सति अपि । पुनः केषु सत्सु । प्राणेषु नश्यत्सु अपि ।।७॥ यैः पतिभिः । पर ज्योतिः । कलितं ज्ञातम्। च पुनः । आश्रितम् । ते मुनयः । नः अस्माको समापन समापन समयोतिः। भतारवम् अन्तःवरूपम्। पुनःकिलक्षणं ज्योतिः। उपाधिवर्जितम्। पुनः किलक्षणं ज्योतिः1 अई-स्याहारवाच्यम भई-शब्दवाच्यम् । येषां मुनीनाम् । तदेव ज्योतिः। सदनं गृहम् । येषां मुनीमाम् । तदेव ज्योतिः । शयनं शय्या । येषां मुनीनाम् । तदेव ज्योतिः संपदः । येषां मुनीनाम् । तदेव ज्योतिः सुखम्। येषां मुनीनाम् । तदेव ज्योतिः वृतिः वर्तन व्यापारः । येषा मुनीनाम् । तदेव ज्योतिः । प्रिय बालभम् । येषां मुनीनाम्। तदेव ज्योतिः । अखिलश्रेष्ठार्थसंसाधन कारणम् ॥ ८॥ यः भव्यः । इदं यतिभावनायक भक्त्या कृत्वा त्रिसंध्यं पठेत् तस्य पुण्यात्मनः बत्र भुवने किंकि वाञ्छित न सिध्यति। किलक्षम यतिभाषनाष्टकम्। पापारिक्षयारि पापशविनाशनम् । पुनः कि यतिभावनाष्टकम्। नृपति-खगे-अपवर्गश्रियं दातु। पुनःकिशक्षण यतिभावनाष्टकम्। श्रीमपजनन्दिभिः पचनन्दिभिः विरचितम्। किंलक्षणैः पननन्दिमिः" चितनानन्दिभिः शानचेतन्य उत्पन-भानन्द्रयुक्तः ॥ ९ ॥ इति यतिभावनाष्टकम् ॥ ५॥ शिरके ऊपर वज्रके गिरनेपर भी, अथवा तीनों लोकोंके अनिसे प्रज्वलित हो जानेपर भी, अथवा प्राणों के नाशको प्राप्त होते हुए भी जिनके चित्तमें थोड़ा सा भी विकारभाव नहीं उत्पन्न होता है; ऐसे आश्चर्यजनक आत्मतेजको धारण करनेवाले किन्हीं विरले ही श्रेष्ठ मुनियोंके वह उत्कृष्ट निश्चल समाधि होती है जिसमें भेदज्ञानविशेषके द्वारा मनका व्यापार ( दुष्प्रवृत्ति) रुक जाता है || ७ || जिन मुनियोंने बाह्य-आभ्यन्तर परिग्रहसे रहित और 'अहम्' शब्दके द्वारा कहे जानेवाले उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप अन्तस्तत्त्व अर्थात् अन्तरात्माके स्वरूपको जान लिया है तथा उसीका आश्रय भी किया है, एवं जिन मुनियोंका वही आत्मतत्त्व भवन है, वही शय्या है, वही सम्पत्ति है, वही सुख है, वही व्यापार है, वही प्यारा है, और वही समस्त श्रेष्ठ पदार्थोंको सिद्ध करनेवाला है। वे मुनि हमें शान्तिके लिये होवें ।। ८ ।। आत्मचैतन्यमें आनन्दका अनुभव करनेवाले श्रीमान् पद्मनन्दी (भव्य जीवोंको प्रफुल्लित करनेवाले गणधरादिकों या पद्मन्दी मुनि) के द्वारा रचा गया यह आठ लोकमय 'यतिभावना' प्रकरण पापरूप शत्रुको नष्ट करके राजलक्ष्मी, स्वर्गलक्ष्मी और मोक्षलक्ष्मीको भी देनेवाला है। जो भव्य जीव तीनों संध्याकालों (प्रातः, मध्याहू और सायंकाल ) में भक्तिपूर्वक उस यनिभावनाष्टकको पढ़ता है उस पुण्यात्मा जीवको यहां लोकमें कौन कौन-सा अभीष्ट पदार्थ सिद्ध नहीं होता है ? अर्थात् उसे सभी अभीष्ट पदार्थ सिद्ध होते हैं ॥ ९॥ इस प्रकार यतिभावनाष्टक समाप्त हुआ॥ ५ ॥ एक किलक्षणा। २ श समाधिः सा येषां । ३ व्यापारवास्य, अप्रतौ तु अदितं जातं पत्रमा प्रतो "विरचितम् । विलक्षणः पानन्विमिः'नास्ति। ५म प्रयोः ।। इति आवायत्रतं समाप्तम् ।। Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ InmAAAAAnmnmAAAmins [६. उपासकसंस्कारः] 397 ) आयो जिनो नृपः श्रेयान् प्रतदानादिपूरुषो । पसदम्योन्यसंपन्धे धर्मस्थितिरभूदिह ॥१॥ 998) सम्पहरबोधचारित्रत्रितयं धर्म उच्यते । मुक्तः पन्थाः स एव स्यात् प्रमाणपरिनिष्ठितः॥२॥ 399 ) रतत्रयात्मके मार्गे संचरन्ति न ये जनातेषां मोक्षपदं दूरं भहीतरो भवः ॥ ३॥ 400) संपूर्णदेशमेदाभ्यां स च धर्मों द्विघा भवेत् । आधे मेदे च निन्थाः द्वितीधे गृहिणः स्थिताः॥ 401) संप्रत्यपि प्रपतेत धर्मस्तेनैव धर्मना । तेन ते ऽपि च गण्यन्ते गृहस्था धर्मदेतवः ॥ ५ ॥ 402) संप्रत्यत्र कली काले जिनगेहे मुनिस्थितिः । धर्मश्च वानमित्येषां श्रावका मूलकारणम् ॥ ६ ॥ 403) देवपूजा गुरूपास्ति स्वाध्यायः संयमस्तपः। दानं चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने दिने ॥७॥ 404) समता सर्वभूतेषु संयमे शुभभावना । आर्तरौद्रपरित्यागस्तद्धि सामायिकं यतम् ॥ ८॥ आद्यः जिनः ऋषभः द्वितीयः श्रेयान् राजा अत्रै भरतक्षेत्रे वो ऋषभधेयासौ प्रतदानादिकारणी जाती । इह भरतक्षेत्रे। एतबन्योन्मसंबन्धे सी परस्पर संबन्धे सति । धर्मस्थितिः अभूत् ।। 1 । सम्यग्दर्शनशानवारित्रत्रितयं धमः । उच्यते कथ्यते । स पर धर्मः निमयेन । मुक्का पन्याः मार्गः स्यात् भवेत् । प्रमाणपरिनिछितः प्रमाणेन कथितमार्गः ॥ २॥ ये जनाः लोकाः । रत्नत्रयात्मक मार्गे म संचरन्ति । तेषां जीवानाम् । मोक्षपर्व दुई भवेत् । भवः संसारः। दीर्घतरः बहुल: भवेत् ॥ ३ ॥ च पुनः । स धर्मः' संपूर्णदेशमेदाभ्यां विषा भवेत् । आधे मेदे महाबते । निर्ग्रन्थाः स्थिताः मुनयः स्थिताः । च पुनः । द्वितीये भेदे अणुयते । रविणः स्थिताः ॥ ४॥ धर्मः । संप्रति पञ्चमकाले मपि । तेनैव वर्मना गहिधर्ममार्गेण प्रवर्तेत । तेन हेतुना । तेऽपि गृहस्था धमेहेतवः । गण्यन्ते कथ्यते ।। ५। अत्र कमी वाले प्रश्नमहादे। मप्रति इदानीम्। जिनगेहे वैस्यालये । मुनिस्थिति वर्तते । इति देतोः। धर्मः दामं च । एषा मुनिस्पितिदानधर्माणाम् । मूलकारणं श्रावकाः सन्ति ॥ ६ ॥ गृहस्थानां दिने दिने इति षट्कर्माणि सन्ति । तत् किम् । देवपूजा । च पुनः । गुरूपास्तिः गुरुशेवा । खाध्यायः पञ्चभेदः । संयमस्त द्वादशमेदकः । तपतु द्वाक्यया । दानं चतुर्विधम् । इति षटस्माणि दिने दिने सन्ति ॥ ७॥ हि यतः । तत् सामायिकम। मतं कथितम् । यत्र सामाविकाते। सर्वभूतेषु सबैशीषु । समता क्षमा । संयमेषु शुभभावना । यत्र सामायिके वानरौद्रपरित्यागः । तत् आद्य जिन अर्थात् ऋषभ जिनेन्द्र तथा श्रेयान् राजा ये दोनों क्रमसे व्रतविधि और दानविधिके आदिप्रवर्तक पुरुष हैं, अर्थात् ब्रतोंका प्रचार सर्वप्रथम ऋषभ जिनेन्द्रके द्वारा प्रारम्भ हुआ तथा वानविधिका प्रचार राजा श्रेयान्से प्रारम्भ हुआ। इनका परस्पर सम्बन्ध होनेपर यहां भरत क्षेत्रमें धर्मकी स्थिति हुई ॥१॥ सम्यग्दर्शन, सम्पज्ञान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंको धर्म कहा जाता है तथा वही मुक्तिका मार्ग है जो प्रमाणसे सिद्ध है ॥२॥ जो जीव खत्रयस्यरूप इस मोक्षमार्गमें संचार नहीं करते हैं उनके लिये मोश खान तो दूर तथा संसार अतिशय लंबा हो जाता है ।। ३ ॥ यह धर्म सम्पूर्ण धर्म और देश धर्भके मेदसे दो प्रकारका है। इनमेंसे प्रथम मेदमें दिगम्बर मुनि और द्वितीय मेदमें गृहस स्थित होते है॥४॥ वर्तमानमें मी उस रसत्रयस्वरूप धर्मकी प्रवृत्ति उसी मार्गसे अर्थात् पूर्णधर्म और देशधर्म स्वरूपसे हो रही है । इसीलिये वे गृहख मी धर्मके कारण माने जाते हैं ॥ ५ ॥ इस समय यहां इस कलिकाल अर्थात् पंचम कालमें मुनियोंका निवास जिनालयमें हो रहा है और उन्हीक निमित्तसे धर्म एवं दानकी प्रवृत्ति है। इस प्रकार मुनियोंकी सिति, धर्म और दान इन तीनोंके मूल कारण गृहस श्रावफ हैं ॥ ६ ॥ जिनपूजा, गुरुकी सेवा, स्वाध्याय, संयम और तप ये छह कर्म गृहस्सोंके लिये प्रतिदिन करनेके योग्य है अर्थात् वे उनके आवश्यक कार्य है ॥ ७ ॥ सब प्राणियोंके विषयमें समताभाव धारण करना, संयमके विषयमें शुभ विचार रखना तथा आर्त एवं रौद्र ध्यानोंका त्याग करना, इसे सामायिक व्रत माना जाता है ।। ८ ॥ १चगेहो। १श प्रती 'अ पदनास्ति। स धर्मः एष। ४नश कक्तिः। ५श धर्मः सः। ६श 'इति नास्ति । पशखाध्यायस पंच मेदानित भकविते व्रतं यत्र । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -412: ६-१६] ६. उपाक्षकसंस्कार 405) सामायिक न जायेत व्यसनम्लानचेतसः। आषकेन ततः साक्षास्याज्यं व्यसनलप्तकम् ॥९॥ 406 ) चूतमासपुरावेच्याखेटचौर्यपराङ्गनाः । महापापानि सप्तैव व्यसनानि त्यजेद् बुधः ॥ १०॥ 407 ) धर्मार्थिनो ऽपि लोकस्य घेवस्ति व्यसनाश्रयः। जायतेन ततः सापि धर्माम्वेषणयोग्यता ॥१२॥ 408) सप्तैव नरकाणि रसीक सिदितम् । वामगुणावगार्ग स्वसमृदये ॥ १२॥ 409) धर्मशत्रुविनाशार्थ पापाण्यकुपसे रिह । सप्ताङ्ग बलषदाज्य सप्तभिर्व्यसनैः कृतम् ॥ १३ ॥ 410 ) प्रपश्यन्ति जिनं भन्या पूजयन्ति स्तुवन्ति ये । ते वरश्याच पूज्यान खत्याश भुयनत्रये॥ 411) ये जिनेन्द्र न पश्यन्ति पूजयन्ति स्तुवन्ति न । निष्फलं जीवितं तेषां तेषां धिकच गृहाश्रमम् ॥ 412) प्रातरुत्थाय कर्तव्य देवतागुरुदर्शनम् । भल्या तम्बमा कार्या धर्मश्रुतिरुपासकैः ॥ १६ ॥ सामायिक व्रतम् ॥ ८ ॥ व्यसनम्लामचेतसः जीवस्य सामायिकम् । म जायेत न उत्पयेत । ततः कारणात्। श्रावकेन साक्षात् व्यसनसप्तकम् । त्याज्य स्यजनीयम् ॥९॥षः ज्ञानवान् । सप्तैव व्यसनानि त्यजेत् । मिलक्षणानि व्यसनानि । महापापामि । घूतमसिमराधेश्याखेटचौर्यपराननाः एतानि सप्त म्यसनानि महापापानि दुषः यजेत् ॥ १०॥ लोकस्य । चेत् यदि । म्यसनाश्रयः अस्ति । ततः व्यसनात् । धर्मान्वेषणयोग्यता न वायवे धर्मक्रिया न जायते न उत्पयते । किनक्षणस्य लोकस्य । धर्मार्थिनोऽपि धर्मयुक्तस्य ॥ ११॥ हि यतः। नरकाणि सप्तैव । तैः नरकैः । एतत् ग्यसनम् एकेक निरूपित खसमृदये नृणाम् आकर्षमन् ॥ १२ ॥ इह संसारे । सप्तभिर्व्यसनैः। पापाख्यकुमतेः कुराशः । राज्य ससा कृतम् । किलक्षण राज्यम् । बलवत् बलियम् । पुनः' किंलक्षणे राज्यम् । धर्मशत्रुविमाशार्थम् ॥ १३॥ ये भम्पा नराः । जिनं भल्या कृत्वा प्रपश्यन्ति । च पुनः । जिनेन्द्र पूजयन्ति। ये भव्या जिनेन्द्र स्तुवन्ति । से भव्याः । भुवनत्रये। दश्याः अवलोकनीयाः । च पुनः। ते भम्याः पूज्याः । ते भव्याः स्तुत्याः ॥ १४ ॥ ये मूर्खा । जिनेन्द्र न पश्यन्ति । ये भूर्खाः जिनेन्द्र न पूजयन्ति । ये मूखोः जिनेनवं न स्तुवन्ति । तेषां जीवितं जीवनं निष्फलम् । च पुनः । तेषां मुखोणी हाधम धिक ॥ १५॥ सपासकै पावकः । प्राप्तः प्र देवतागुरुदर्शनं कर्तव्यम् । भत्त्या कृत्वा । सद्वन्दना कार्या वेषां देवगुरुशास्त्राीमा वन्दना कार्या कर्तष्मा श्रावके । धर्मश्रुतिः जिसका चित्त छूतादि व्यसनोंके द्वारा मलिन हो रहा है उसके उपर्युक्त सामायिककी सम्भावना नहीं है । इसलिये श्रावकको साक्षात् उन सात व्यसनोंका परित्याग अवश्य करना चाहिये ॥ ९॥ चूत, मांस, मद्य, वेश्या, शिकार, चोरी और परस्त्री ये सातों ही व्यसन महापापस्वरूप हैं । विवेकी जनको इनका त्याग करना चाहिये ॥ १० ॥ धर्मामिलाषी जन भी यदि उन व्यसनोंका आश्रय लेता है तो इससे उसके वह धर्मके खोजनेकी योग्यता भी नहीं उत्पन्न होती है ॥ ११ ॥ नरक सात ही हैं । उन्होंने मानो अपनी समृद्धिके लिये मनुष्योंको आकर्षित करनेवाले इस एक एक व्यसनको नियुक्त किया है ॥ १२ ॥ इन सात व्यसनोंने मानो धर्मरूपी शत्रुको नष्ट करनके लिये पाप नामसे प्रसिद्ध निकृष्ट राजाके सात राज्यांगों ( राजा, मंत्री, मित्र, खजाना, देश दुर्ग और सैन्य) से युक्त राज्यको बलवान किया है ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय इसका यह है कि इन व्यसनोंके निमित्तसे धर्मका तो हास होता है और पाप बढ़ता है । इसपर प्रन्थकर्ताके द्वारा यह उत्प्रेक्षा की गई है कि मानो पापरूपी राजाने अपने धर्मरूपी शत्रुको नष्ट करनेके लिये अपने राज्यको इन सात व्यसनारूप सात राज्यांगोंसे ही सुसज्जित कर लिया है ॥ १३ ॥ जो भव्य प्राणी भक्तिसे जिन भगवानका दर्शन, पूजन और स्तुति किया करते हैं वे तीनों लोकोंमें स्वयं ही दर्शन, पूजन और स्तुतिके योग्य बन जाते हैं। अभिप्राय यह कि वे स्वयं मी परमात्मा बन जाते हैं ॥ १३ ॥ जो जीव भक्तिसे जिनेन्द्र भगवान्का न दर्शन करते हैं, न पूजन करते हैं, और न स्तुति ही करते हैं उनका जीवन निष्फल है; तथा उनके गृहस्थाश्रमको प्रिकार है ॥१५॥ श्रावकोंको प्रातःकालमें उठ करके भक्तिसे जिनेन्द्र देव तथा निर्ग्रन्थ गुरुका दर्शन और उनकी का जगति संसारे। २. 'पुनः' मास्ति। ३श'मूखोणी नास्ति । पपर्म. १७ Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमन्दि पश्चविंशतिः [418: ६-१७ 418) पचावयानि कार्याणि कर्तव्यानि यतो षैः । धर्मार्थकाममोक्षाणामादौ धर्मः प्रकीर्तितः ॥१७॥ 414 ) गुरोरेव प्रसादेन लभ्यते शानसोचनम् । समस्त रश्यते येन इम्तरेखेव निस्तुषम् ॥ १८ ॥ 415) ये गुरु नैव मन्यन्ते तनुपास्ति न कुर्वते । अन्धकारी भवेत्तेषामुदित ऽपि दिवाकर ॥ १९ ॥ 416 ) ये पठन्ति म सछास्त्रे सहरुप्रकटीकतम् । तेऽन्याः सचक्षुषोऽपीह संभाव्यम्ते मनीषिभिः॥ 417) मन्येन प्रायशस्तेषां कर्णाध हदयानि च । चैरभ्यासे गुरोः शाल न भुतं नावधारितम् ।।२१।। 418) देशब्रतानुसारेण संयमोऽपि निवेष्यते । गृहस्थैर्येन तेनैव जायते फलवहतम् ॥ २२॥ 419) पाज्य मार्स च मयं च मधूदुम्बरपञ्चकम् । अष्टौ मूलगुणाः प्रोक्ताः गृहिणो रष्टिपूर्वका ॥२३॥ धर्मश्रवणं कर्तव्यम् ॥ ११ ॥ मुरैः पण्डितः । मन्यानि कार्याणि पश्चात् कर्तव्यानि । यतः कारणात् । धर्मार्थकाममोक्षाणां चतुःपदार्थाना मध्ये । आदौ धर्मः । प्रकीर्तितः कथितः ॥१५॥ गुरोः प्रसादेन हवा शानझोपन लभ्यते । येन ज्ञानलोचनेम समतं निस्तुषे लोकालोई श्यते। का इन। हस्तरेखा स॥10॥ये श्रावकाः। गुरुं न मम्बन्। ये धावका हख गुरोः उपास्ति सेवाम् । न कुर्ववे। तेषां धापकामा । उदितेऽपि प्रकाशयुकेऽपि । दिवाकरे सूयें। अन्धकारः भवेत् ॥९॥ ये अशानिनः मूर्याः । सबछार समीचीन शान न पठन्ति । विलक्षण शास्त्रम् । सवप्रकटीकतम् । ते मूर्खाः । इह जगति संसारे। सचक्षुषः सुर्युका मपि । मनीषिमिः पतिः । अन्धाः । संभाव्यन्ते कथ्यन्ते ॥ २. ॥ अहम् एवं मन्ये । वेषी नराणाम् । प्रायशः बाहुल्येन। कःन । पुनः । तेषा नराप्पा हदयानि म । यः नरैः । गुरोः अम्मासे निकटे । शायं न श्रुतम् । यः नरैः शायन अवधारितम् ॥ २१॥ गृहस्थैः नरेः । देशमतानुसारेण सेपमोऽपि । निदेयते सेम्बते। येन कारणेन । तेम संयमेम व्रतम् । फलबत् सफलम् । जायते ॥ २२ ॥ मांस त्याज्यम् । च पुनः । मर्च माज्यम् । च पुनः । मधु त्याज्यम् । वन्दना करके धर्मश्रवण करना चाहिये ॥ १६॥ तत्पश्चात् अन्य कार्योंको करना चाहिये, क्योंकि, विद्वान् पुरुषोंने धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषामि धर्मको प्रथम बतलाया है ॥ १७ ॥ गुरुकी ही प्रसन्नता से वह ज्ञान (केवलज्ञान ) रूपी नेत्र प्राप्त होता है कि जिसके द्वारा समस्त जगत् हाथकी रेखाके समान स्पष्ट देखा जाता है ॥ १८ ॥ जो अज्ञानी अन न तो गुरुको मानते हैं और न उसकी उपासना ही करते हैं उनके लिये सूर्यका उदय होनेपर मी अन्धकार जैसा ही है ॥ विशेषार्थ-- यह ऊपर कहा जा चुका है कि ज्ञानकी प्राप्ति गुरुके ही प्रसादसे होती है । अत एव जो मनुष्य आदरपूर्वक गुरुकी सेवा-शुश्रूषा नहीं करते हैं वे अल्पज्ञानी ही रहते हैं। उनके अज्ञानको सूर्यका प्रकाश भी दूर नहीं कर सकता । कारण कि वह तो केवल सीमित बाम पदार्थोके अवलोकनमें सहायक हो सकता है, न कि आत्मावलोकनमें । आत्मावलोकनमें तो केवल गुरुके निमित्तसे प्राप्त हुआ अध्यात्मज्ञान ही सहायक होता है ।।१९।। जो जन उत्तम गुरुके द्वारा प्ररूपित समीचीन शास्त्रको नहीं पढ़ते हैं उन्हें बुद्धिमान् मनुष्य दोनों नेत्रोंसे युक्त होनेपर भी अन्धा समझते हैं ॥ २०॥ जिन्होंने गुरुके समीपमें न शास्त्रको सुना है और न उसको हृदयमें धारण भी किया है उनके प्रायः करके न तो कान हैं और न हृदय मी है, ऐसा मैं समझता हूं || विशेषार्थकानोंका सदुपयोग इसीमें है कि उनके द्वारा शाखोंका श्रवण किया जाय- उनसे सदुपदेशको सुना जाय । तथा मनके लाभका भी यही सदुपयोग है कि उसके द्वारा सुने हुए शास्त्रका चिन्तन किया जाय- उसके रहस्सको धारण किया जाय । इसलिये जो प्राणी कान और मनको पा करके भी उन्हें शास्त्रके विषयमें उपयुक्त नहीं करते हैं उनके वे कान और मन निष्फल ही हैं ॥ २१ ॥ श्रावक यदि देशव्रतके अनुसार इन्द्रियोंके निप्र और प्राणिदयारूप संयमका भी सेवन करते हैं तो इससे उनका वह व्रत ( देशवत) सफल हो जाता है । अभिप्राय यह है कि देशवतके परिपालनकी सफलता इसीमें है कि तत्पश्चात् पूर्ण संयमको मी धारण किया जाय ॥ २२ ॥ मांस, मध, शहद और पांच उदुम्बर फलों (ऊमर, कठूमर, पाकर, बस ममि मूखाः मनीविलिः । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -420 : ६.२४ उपासकसंस्कार 420 ) अणुमतानि पञ्ष त्रिप्रकार गुणवतम् । शिक्षाप्रतानि चस्वारि मादशेति गहिनते ॥ २४ ॥ उदुम्बरपञ्चक अजनीयम् । एते गृहिणः गृहस्थस्य । मूलगुणाः दृष्टिपूर्वकाः सम्पग्दर्शनसहिताः। मोजाः कथिताः ॥ २३ ॥ गृहिमते इति हादरा बसानि सन्ति । पचैव अप्रतानि । त्रिप्रकारे गुणारतम् । अस्वारि शिक्षावतानि । इति दाद मसानि ॥२४॥ बड़ और पीपल) का त्याग करना चाहिये । सम्यग्दर्शनके साथ ये आठ श्रावफके मूलगुण कहे गये हैं। विशेषार्थ-मूल शब्दका अर्थ जड़ होता है । जिस वृक्षकी जड़े गहरी और बलिष्ठ होती हैं उसकी स्थिति बहुत समय तक रहती है। किन्तु जिसकी जड़ें अधिक गहरी और बलिष्ठ नहीं होती उसकी खिति महुत काल तक नहीं रह सकती- वह आधी आदिके द्वारा शीघ्र ही उखाड़ दिया जाता है। ठीक इसी प्रकारसे चूंकि इन गुणोंके विनाशावकके उत्तर गुणों ( अणुव्रतादि ) की स्थिति भी हद नहीं रहती है, इसीलिये ये श्रावकके मूलगुण कहे जाते हैं । इनके मी प्रारम्भमें सम्यग्दर्शन अवश्य होना चाहिये, क्योंकि उसके विना प्रायः व्रत आदि सब निरर्थक ही रहते हैं ॥ २३ ॥ गहिवत अर्थात् देशनतमें पांच अणुक्त, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त; इस प्रकार ये बारह प्रत होते हैं । विशेषार्थ-हिंसा, असत्य वचन, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच स्थूल पापोंका परित्याग करना; इसे अणुव्रत कहा जाता है । वह पांच प्रकारका है- अहिंसाणुनत, सत्याणुनस, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिप्रहपरिमाणाणुनत । मन, बचन और कायके द्वारा कृत, कारित एवं अनुमोदना रूपसे ( नौ प्रकारसे) जो संकल्पपूर्वक प्रस जीवोंकी हिंसाका परित्याग किया जाता है उसे अहिंसाणुव्रत कहते हैं । स्थूल असत्य वचनको न स्वयं बोलना और न इसके लिये दूसरेको प्रेरित करना तथा जिस सत्य वचनसे दूसरा विपत्ति में पड़ता हो ऐसे सत्य वचनको भी न बोलना, इसे सत्याणुप्रत कहा जाता है। रखे हुए, गिरे हुए अथवा भूले हुए परधनको विना दिये ग्रहण न करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है। परस्त्रीसे न तो स्वयं ही सम्बन्ध रखना और न दूसरेको भी उसके लिये प्रेरित करना, इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोष कहा जाता है । धन-धान्यादि परिग्रहका प्रमाण करके उससे अधिककी इच्छा न करना, इसे परिमहपरिमाणाशुव्रत कहते हैं। गुणव्रत तीन हैं-दिखत, अनर्थदण्डवत और भोगोपमोगपरिमाण । पूर्वादिक दस दिशाओंमें प्रसिद्ध किन्हीं समुद्र, नदी, वन और पर्वत आदिकी मर्यादा करके उसके बाहिर जानेका मरण पर्यन्त नियम कर लेनेको दिम्मत कहा जाता है । जिन कामोंसे किसी प्रकारका लाम न होकर केवल पाप ही उत्पन्न होता है ये अनर्थदण्ड कहलाते हैं और उनके त्यागको अनर्थदण्डवत कहा जाता है। जो वस्तु एक ही बार भोगनेमें आती है वह भोग कहलाती है-जैसे भोजनादि । तया जो वस्तु एक वार भोगी जाकर भी दुवारा भोगनेमें आती है उसे उपभोग कहा जाता है-- जैसे वस्त्रादि । इन भोग और उपभोगरूप इन्द्रियविषयोंका प्रमाण करके अधिककी इच्छा नहीं करना, इसे भोगोपभोगपरिमाण कहते हैं। ये तीनों ब्रत चूंकि मूलगुणोंकी वृद्धिके कारण हैं, अत एव इनको गुणवत कहा गया है। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य ये चार शिक्षाप्रत है । दिग्नतमें की गई मर्यादाके मीतर मी कुछ समय के लिये किसी गृह, गांव एवं नगर आदिकी मर्यादा करके उसके भीतर ही रहनेका नियम करना देशावकाशिकात कहा जाता है। नियत समय तक पांचों पापोंका पूर्णरूपसे त्याग कर देनेको सामायिक कहते हैं। यह सामायिक जिनचैत्यालयादिरूप किसी निर्वाध एकान्त स्थानमें की जाती है। सामायिकमें खित होकर यह विचार करना १कादशानि प्रतानि । Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ पानन्दि-पविशतिः [4811६.२५ 421) पर्वस्वय यथाशक्ति भुक्तियागादिकं तपः । पत्रपूत पिवेत्तोयं रात्रिभोजनपर्जनम् ॥ २५ ॥ 422) ते वेशं नरं तवं सत्कर्माणि च नाश्रयेत् । मलिनं दर्शनं येन पेन पवतखण्डनम् ॥ २६ ॥ 423) भोगोएमोगसंख्यानं विधेयं विधिवत्सदा । प्रतशूम्या न कर्तव्या काचित् कालकला बुधैः॥२७॥ 424) रखत्रयाश्रयः कार्यस्तथा भव्यरतन्द्रितैः । जन्माम्सरे ऽपि तद्धा यथा संवर्धते तराम् ॥२८॥ धानकै अब पर्वसु स्थाशचि मुक्त्यिागादिक तपः कर्तव्यम् । गृहस्थः । तोय जलम् । वस्त्रपूर्त पिबेत् । गृहस्थः रात्रिभोजनवर्जन करोति ॥ २५॥ येन मेणा दर्शनं मलिनं भवति । च पुनः । येन कर्मणा व्रतखण्डनं भवति । तं देश तं नई तत् खं द्रव्य तत्कर्माधि भपि म आश्रयेत् ॥ २६॥ युधैः चतुरैः। सदा सर्वदा। भोगोपभोगसंख्यानम् । विधिवत विधिपूर्वकम् । विधेयं कर्तव्यम् । काचित् कालकलर व्रतमा न कर्तव्या ।। ५७ ॥ भव्यैः । अतन्द्रितैः बालस्यरहितः । तथा रमत्रयस्य आश्रयः कार्यः कम्यः यवा तस्य दर्शमस्य रसत्रयस श्रया जन्मान्तरेऽपि तराम् भतिशयेन संवर्धते ॥ २८ ॥ चाहिये कि जिस संसारमें मैं रह रहा हूं वह अशरण है, अशुभ है, अनित्य है, दुःखस्वरूप है, तथा आत्मखरूपसे भिन्न है। किन्तु इसके विपरीत मोक्ष शरण है, शुभ है, नित्य है, निराकुल सुखस्वरूप है, और आत्मस्वरूपसे अभिन्न है; इत्यादि। अष्टमी एवं चतुर्दशी आदिको अन्न, पान ( दूध आदि), खाध (ल-पेड़ा आदि) और लेख (चाटने योग्य रगड़ी आदि) इन चार प्रकारके आहारोंका परित्याग करना; इसे प्रोषधोपवास कहा जाता है। प्रोपयोपवास यह पद प्रोषध और उपवास इन दो शब्दोंके समाससे निष्पन्न हुआ है। इनमें प्रोषध शब्दका अर्थ एक वार मोजन ( एकाशन) तथा उपवास शब्दका अर्थ चारों प्रकारके आहारका छोड़ना है। अमिप्राय यह कि एकाशनपूर्वक जो उपवास किया जाता है वह प्रोषधोपवास कहलाता है। जैसे यदि अष्टमीका प्रोषधोपवास करना है सो ससमी और नवमीको एकाशन तथा अष्टमीको उपवास करना चाहिये। इस प्रकार प्रोषोपवासमें सोलह पहरके लिये आहारका त्याग किया जाता है । प्रोषधोपवासके दिन पार पाप, खान, अलंकार तथा सब प्रकारके आरम्मको छोड़कर ध्यानाध्यायनादिमें ही समयको बिताना चाहिये । किसी प्रत्युपकार आदिकी अभिलाषा न करके जो मुनि आदि सत्पात्रोंके लिये दान दिया जाता है, इसे वैयावृत्य कहते हैं। इस वैयावृत्यमै दानके अतिरिक्त संयमी जनोंकी यथायोग्य सेवा-शुश्रूषा करके उनके कष्टको मी दूर करना चाहिये । किन्हीं आचायोंके मतानुसार देशावकाशिक व्रतको गुणतके अन्तर्गत तथा मोगोपभोगपरिमाणवतको शिक्षावतके अन्तर्गत ग्रहण किया गया है ॥ २४ ॥ श्रावकको पर्वदिनों (अष्टमी एवं चतुर्दशी आदि) में अपनी शक्तिके अनुसार भोजनके परित्याग आदिरूष (अनशनादि) तर्पोको करना चाहिये । इसके साथ ही उन्हें रात्रिभोजनको छोड़कर वस्त्रसे छना हुआ जल भी पीना चाहिये ॥ २५ ॥ जिस देशादिके निमिससे सम्यग्दर्शन मलिन होता हो तथा व्रतोंका नाश होता हो ऐसे उस देशका, उस मनुष्यका, उस व्यका तथा उन क्रियाओंका भी परित्याग कर देना चाहिये ॥ २६ ॥ विद्वान् मनुष्योंको नियमानुसार सदा भोग और उपभोगरूप वस्तुओंका प्रमाण कर लेना चाहिये । उनका थोड़ा-सा भी समय व्रतोंसे रहित नहीं जाना चाहिये ॥ विशेषार्थ-जो वस्तु एक ही बार उपयोगमें आया करती है उसे भोग कहा जाता है-जैसे भोज्य पदार्थ एवं माला आदि। इसके विपरीत जो वस्तु अनेक वार उपयोगमें आया करती है वह उपभोग कहलाती है-जैसे वस्त्र आदि । इन दोनों ही प्रकारके पदार्थोंका प्रमाण फरके श्रावकको उससे अधिककी इच्छा नहीं करना चाहिये ।। २७ ॥ भव्य जीवोंको आलस्य छोड़कर रत्नत्रयका आश्रय इस प्रकारसे. करना चाहिये कि जिस प्रकारसे उनका उक सालमाणि न । Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ namanna -+821६1] 1. उपासकसंस्कार १३३ 423) विनया यथायोग्य कर्तव्यः परमेष्ठिषु । इष्ठियोधचरित्रेषु तवत्सु समयाचितः ॥ २९ ॥ 426) दर्शनहानमारित्रतपाप्रभृति सिध्यति । विनयेनेति तं तेन मोक्षद्वार प्रचक्षते ॥ ३०॥ 427 ) सत्पात्रेषु यथाशक्ति दान देयं गृपस्थितैः । वानहीना भवेत्तेषां निष्फलेष गृहस्थता ॥ ३१॥ 428 ) दान ये न प्रयच्छन्ति निम्रन्थेषु पतुर्विधम् । पाशा पव गृहास्तेषां बन्धनायैव निर्मिताः ॥३॥ 429 ) अभयाहारभैषज्यशानदाने हि यत्कृते । पीणां जायते सौख्यं गृही लाभ्यः कथम सः॥३३ 480) समर्थोऽपि न यो दद्याद्यतीना दानमादरात् । छिनसि स स्वयं मूडः परत्र सुखमात्मनः ॥३॥ 481) स्पन्नावसमो शेयो दानहीनो गृहाश्रमः । तदारुढो भवाम्भोधी मज्जत्येष न संशयः ॥ ३५॥ 432 ) समयस्येषु षात्सल्यं स्वशक्त्या येन कुर्वते । बहुपापावृतारमानस्ते धर्मस्य पराक्मुखाः॥ ३६ ॥ समयात्रितः सर्वशमताश्रितः भव्यैः परमेष्ठिषु यथायोम्यं विनयः कर्तभ्यः । भव्यैः धियोधचरित्रषु । तद्वत्सु रखत्रयाश्रितेषु विनयः कर्तव्यः ।।१९। सेन कारणेन । विनयेम दर्शनशानचरित्रतपःप्रमृति सिध्यति इति हेतोः । तं विनय मोक्षदार प्रचक्षते कथ्यते ॥३.।। गृहस्थितेः सत्पात्रेषु यथाशफि दान देयम् । तेषां श्रावकाणाम् । दानहीना गृहस्थता निष्फला भवेत् ॥३१॥ ये धादकाः । निर्गन्धेषु यतिषु । चतुर्विधं वार्न न प्रयच्छन्ति तेषां गृहस्थानाम् । गृहाः बन्धमाय पाशाः विनिर्मिताः ॥ ३२ ॥ स रही श्रावकः । कथं न लाथ्यः । हि यतः । यत्कृते येन गृहिणा कृते संस्कृते । अभय-माहारभैषज्यशासवाने कृते सति ऋषीणां सौमयम् । जायते उत्पद्यते।। ३३ ।। यः समर्थः श्रावकः आदरात् यतीना दान न दद्यात् स मूढः मूर्खः । आत्मनः । परत्र सुखं परलोकमुखम् । स्वयम् आत्मना ! रिलगि यति ॥ १४ ॥ अहीर मा हार वनावसमा शेयः पाषाणनौकासमः शातम्या । तदारूवः तस्यां पाषाणनौकायाम् आरवः परः । भवाम्भोधी संसारसमुद्रे । मबति गुरति।न सेशयः॥३५॥ ये श्रावकाः । समयस्थेषु जिनमार्गस्थितेषु नरेषु । स्वशत्या। वात्सल्य सेवाम् । न कुर्वते। ते नराः धर्मस्म परामुखाः रत्नत्रयविषयक श्रद्धान (दृढ़ता) दूसरे जन्ममें भी अतिशय वृद्धिंगत होता रहे ।। २८ । इसके अतिरिक्त श्रावकोंको जिनागमके आश्रित होकर अहंदादि पांच परमेष्ठियों, सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र सभा इन सम्यग्दर्शनादिको धारण करनेवाले जीवोंकी भी यथायोग्य विनय करनी चाहिये ।। २९॥ उस विनयके द्वारा चूंकि सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और तप आदिकी सिद्धि होती है अत एव उसे मोक्षका द्वार कहा जाता है ॥ ३० ॥ गृहमें स्थित रहनेवाले श्रावकोंको शक्तिके अनुसार उत्तम पात्रों के लिये दान देना चाहिये, क्योंकि, दानके विना उनका गृहस्थाश्रम (आवकपना) निष्फल ही होता है ॥ ३१ ॥ जो गृहस्थ दिगम्बर मुनियोंके लिये चार प्रकारका दान नहीं देते हैं उनको बन्धनमै रखनेके लिये वे गृह मानो जाल ही बनाये गये हैं ।। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि श्रावक घरमें रहकर जिन असि-मवी श्रादिरूप कर्मोको करता है उनसे उसके अनेक प्रकारके पाप कर्मका संचय होता है । उससे छुटकारा पानेका उपाय केवल दान है । सो यदि वह उस पात्रदानको नहीं करता है तो फिर वह उक्त संचित पापके द्वारा संसारमें ही परिश्रमण करनेवाला है । इस प्रकारसे उक्त दानहीन श्रावकके लिये वे पर बन्धनके ही कारण बन जाते हैं ॥ ३२ ।। जिसके द्वारा अभय, आहार, औषध और शास्त्रका दान करनेपर मुनियोंको सुख उत्पन्न होता है वह गृहस्थ कैसे प्रशंसाके योग्य न होगा ! अवश्य होगा ॥ ३३ ॥ जो मनुष्य दान देनेके योग्य हो करके भी मुनियोंके लिये भक्तिपूर्वक दान नहीं देता है वह मूर्ख परलोकमें अपने सुखको स्वयं ही नष्ट करता है ॥ ३४ ।। दानसे रहित गृहस्थाश्रमको पत्थरकी नावके समान समझना चाहिये । उस गृहस्थाश्रमरूपी पत्थरकी नावपर बैठा हुआ मनुष्य संसाररूपी समुदमें डूबता ही है, इसमें सन्देह नहीं है ॥३५॥ जो गृहस १ सिम्पत्ति विनयेनेति तं तेन मोझार प्रचक्षते। २ शयेन गृक्षिणा कसे यक्वे' इति वाक्यांशः नास्ति। ३ का मूखः मूर। कसमः पापाणनौकासमा माहातव्यः। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः [488: 4-10 488) येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते । चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् ॥ ३७ ॥ 484 ) मूलं धर्मतरोराद्या व्रतानां धाम संपदाम् । गुणानां निधिरित्यश्विया कार्या विषेकिमिः ||३८|| 495) सर्वे जीवव्याधारा गुणास्तिद्धन्ति मानुषे । सूत्राधाराः प्रसूनानां धाराणां व सरा इव ॥ ३९ ॥ 436 ) यतीनां श्रावकाणां च प्रतानि सकलान्यपि । एकाहिंसाप्रसिद्ध्यर्थे कथितानि जिनेश्वरेः ॥४०॥ 437 ) जीवहिंसादिसंकल्पैरात्मन्यपि हि दूषिते । पापं भवति जीवस्य न परं परपीडनात् ॥ ४१ ॥ 438 ) द्वादशापि सदा चिन्त्या अनुप्रेक्षा महात्मभिः । तद्भावना भवत्येय कर्मणः क्षयकारणम् ॥४२॥ सन्ति । बहुपापेन आवृतम् [ अनुतः] आच्छादितं [ 'तः ] भात्मा येषां ते बहुपामावृतात्मानः धर्मस्य । परामुखा वर्तन्ते ॥ ३६ ॥ येषां गृहस्थानाम् । चित्ते मनसि । जीवदया धर्मः अस्ति तेषां श्रावकाणां धर्मः भवेत् । किंलक्षणे वित्ते । जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते । येषां श्रावकाणां वित्ते जीवदया न अस्ति । तेषां श्रावकानाम् । धर्मः कुतो भवेत् ॥ ३७ ॥ इति हेतोः । विवेकिभिः अनिदमा कार्या कर्तव्या । अदिमा धर्मतः धर्मवृक्षस्य भूलम् । पुनः किंलक्षणा दया । व्रतानाम् आया बादी जाता आया। पुनः किलक्षणा वया। संपदा धाम गृहम् । पुनः किंकक्षणा दया। गुणानां निभिः । इति हेतोः । दमा कार्या ॥ ३८ ॥ माये । पुष्पाणाम्। च पुनः । हाराणां सूत्राधाराः सरा इष लोके हारलब ॥ ३९ ॥ जिनेश्वरैः गणधरदेवैः । यतीनाम् । च पुनः । धावकाणाम् । सकलानि व्रतानि एका हिंसा धर्मप्रसिद्धपर्व कथितानि ॥ ४० ॥ हि यतः । जीवहिंसादिसंकल्पैः कृत्वा आरममि दूषिते अपि जीवस्य पार्प भवति । परं केवलम् । परपीडनात् न भवति । अपि तु परपीडनात् अपि पापं भवति । संकल्पेरपि पापं भवति ॥ ४१ ॥ महात्मभिः भव्यजीवैः । द्वादश मपि अनुप्रेक्षाः सदा चिया विचारणीयाः । तद्भावना तास अनुप्रेक्षाणां भावना कर्मणः क्षनकारणं अपनी शक्तिके अनुसार साधर्मी जनसे प्रेम नहीं करते हैं वे धर्मसे विमुख होकर अपने को बहुत पापसे आच्छादित करते हैं || ३६ || जिन भगवान्‌ के उपदेशसे दयालुतारूप अमृतसे परिपूर्ण जिन श्रावकों के हृदय प्राणिया आविर्भूत नहीं होती है उनके धर्म कहांसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता ! विशेषार्थ - इसका अभिप्राय यह है कि जिन गृहस्थोंका हृदय बिनागमका अभ्यास करनेके कारण दयासे ओतप्रोत हो चुका है वे ही गृहस्थ वास्तव धर्मात्मा हैं । किन्तु इसके विपरीत जिनका चित्त दया से आई नहीं हुआ है वे कभी भी धर्मात्मा नहीं हो सकते। कारण कि धर्मका मूल तो वह दया ही है ॥ ३७ ॥ प्राणिदया धर्मरूप वृक्ष की जड़ है, व्रतोंमें मुख्य है, सम्पतियोंका स्थान है, और गुणोंका भण्डार है। इसलिये उसे विवेकी जनको अवश्य करना चाहिये ||३८|| मनुष्य में सब ही गुण जीवदयाके आश्रयसे इस प्रकार रहते हैं जिस प्रकार कि पुष्पोंकी लड़ियाँ सूतके आश्रयसे रहती हैं ।। विशेषार्थ- जिस प्रकार फूलों के हारोंकी लड़ियां धागे आश्रयसे स्थिर रहती हैं उसी प्रकार समस्त गुणका समुदाय प्राणिदयाके आश्रयसे स्थिर रहता है। यदि माला मध्यका धागा टूट जाता है तो जिस प्रकार उसके सब फूल बिखर जाते हैं उसी प्रकार निर्दयी मनुष्यके वे सब गुण भी दयाके अभाव में बिखर जाते हैं- नष्ट हो जाते हैं । अत एव सम्यग्दर्शनादि गुणth अभिलाषी श्रावकको प्राणियोंके विषयमें दयालु अवश्य होना चाहिये ॥ ३९ ॥ जिनेन्द्र देवने मुनियों और श्रावके सब ही व्रत एक मात्र अहिंसा धर्मकी ही सिद्धिके लिये बतलाये हैं ॥ ४० ॥ जीवके केवल दूसरे प्रणियोंको कष्ट देनेसे ही पाप नहीं होता, बल्कि प्राणीकी हिंसा आदिके विचार मात्रसे मी आत्माके दूषित होनेपर वह पाप होता है ॥ ४१ ॥ महात्मा पुरुषोंको निरन्तर बारहों अनुप्रेक्षाओंका चिन्तन करना चाहिये । कारण यह कि उनकी भावना ( चिन्तन ) कर्मके क्षयका कारण होती है ॥ ४२ ॥ १श दया आया आदौ जाता व्रतानां प्रथमा मुख्या । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -446 14-५०] ६. उपासकसंस्कार १३५ 439 ) अनुवाशरणे चैव भष एकत्वमेव च । अन्यस्वमशुचित्वं च तथैवानवसंवरी ॥४३॥ 440) निर्जरा च तथा लोको बोधिदुर्लभधर्मता । द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपुङ्गवैः ॥ ४ ॥ 441 ) अध्रुवाणि समस्तानि शरीरादीनि देहिनाम् । तन्नाशे ऽपि न कर्तव्यः शोको दुष्कर्मकारणम् ॥४५ 442) ज्यानेणाघ्रासकायस्य मृगशावस्य निर्जने । यथा न शरणं जन्तोः संसारे न तथापदि ॥ ४६॥ 443) यत्सुखं तत्सुखाभासं यदुःख सत्सदालसा भवे लोकाः सुखं सत्यं मोक्ष एव स साध्यताम्॥ 444) स्वजनो वा परो पापि नो कचिरपरमार्थतः । केवलं स्वार्जितं कर्म जीवेनैकेन भुज्यते ॥४८॥ 445 ) क्षीरनीरषदेकत्र स्थितयोहदेहिनोः । मेदो यदि ततो ऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ॥४९॥ 446) तथाशुचिरय कायः कमिधातुमलाम्धितः । यथा सस्यैव संपर्कावन्यत्राप्यपवित्रता ।। ५० ॥ भवति ॥ ९ ॥ जिनपुरः सर्वविधिः । एता द्वादश भावमा अनुप्रेक्षा भाषिताः। १ मधुवम् । २ अशरणम् । ३ संसारः । ब पुनः । ४ एकरवम् । ५ अन्यत्वम् । ६ अशुचित्वम् । ७ तथा आमवः। वरम् । ९ निर्जरा । तपा १० लोकानुप्रेक्षा। ११ बोधिदुर्लभः । १३ धर्मानुप्रेक्षा। एताः द्वादश भावनाः कथिताः ॥ ४३-४४ ॥ देहिनो जीवानाम् । शरीरानि समखानि अभुवाणि घिनश्वराणि सन्ति । तमाशेऽपि शरीरादिनाशेऽपि शोका न कर्तव्यः। किंलक्षणः शोकः । दुष्कर्मकारणम् ॥४५॥ यया निर्जने वने । व्याण माघ्रातकायस्य गृहीतशरीरस्य मृगशावस्य शरण न । तथा संसारे। जन्तोः जीवस्य। आपदि शरणं न ॥ ४६॥ भो लोकाः। भवे संसारे । यत्सुखम् भस्ति तत्सुखम् आभासम् अस्ति । यार्स तत्सदा मनसा सामोल सस् । सत्यं शामतं पुर्व मोक्ष एवं मोक्षः साध्यताम् ॥ ४० ॥ परमार्थतः निश्चयतः । कवित्वा खजमापा परो जनः कोऽपि नो । एकेन जीवन केवल खार्जितं कर्म भुज्यते ॥४८॥ यदि चेत् । देदेहिनोः शरीर-आत्मनोः । भेदःझीरनीरवत् अस्ति। किंलक्षणयोः शरीरास्मनोः । एकत्र स्थितयोः । ततः कारणात् । अन्येषु कलादिषु का कया ॥ ४५ ॥ अर्थ कायः शरीरम् । तथा अशुचिः यथा तस्य कामस्य संपर्कात मेलापकात् । अन्यत्र सुगन्बादी वस्तुनि । अभुव अर्थात् अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्य, उसी प्रकार आसव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा बारह अनुप्रेक्षायें कही गई हैं ।। ४३-४४ ॥ प्राणियों के शरीर आदि सब ही नश्वर हैं । इसलिये उक्त शरीर आदिके नष्ट हो जानेपर भी शोक नहीं करना चाहिये, क्योंकि, यह शोक पापबन्धका कारण है। इस प्रकारसे वार वार विचार करनेका नाम अनित्यभावना है ।। ४५॥ जिस प्रकार निर्जन बनमें सिंहके द्वारा पकड़े गये मृगके बच्चेकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है, उसी प्रकार आपत्ति ( मरण आदि) के प्राप्त होनेपर उससे जीवकी रक्षा करनेवाला भी संसारमें कोई नहीं है । इस प्रकार विचार करना अशरणभावना कही जाती है ।। ४६ ॥ संसारमें जो सुख है वह सुखका आभास है- यथार्थ सुख नहीं है, परन्तु जो दुःख है वह वास्तविक है और सदा रहनेवाला है । सच्चा सुख मोक्षमें ही है । इसलिये हे भव्यजनो ! उसे ही सिद्ध करना चाहिये । इस प्रकार संसारके स्वरूपका चिन्तन करना, यह संसारभावना है ॥ ४७ ।। कोई भी प्राणी वास्तवमें न तो स्वजन (स्वकीय माता-पिता आदि) है और न पर भी है। जीवके द्वारा जो फर्म बांधा गया है उसको ही केवल वह अकेला भोगनेवाला है । इस प्रकार बार बार विचार करना, इसे एकत्वभावना कहते हैं ॥४८॥ जब दूध और पानीके समान एक ही स्थानमें रहनेवाले शरीर और जीवमें भी मेद है तब प्रत्यक्षमें ही अपनेसे भिन्न दिखनेवाले स्त्री-पुत्र आदिके विषयमें भला क्या कहा जावे ! अर्थात् वे तो जीवसे भिन्न हैं ही । इस प्रकार विचार करनेका नाम अन्यत्वभावना है ।। ४९ ।। क्षुद्र कीड़ों, रस-रुधिरादि धातुओं तथा मलसे संयुक्त यह शरीर ऐसा अपवित्र है कि उसके ही सम्बन्धसे दूसरी (पुष्पमाला आदि) भी वस्तुएँ तथा' जास्ति। २ आन। इस जीवानां नास्ति । अतोऽप्रे 'भवेत्' इस्तदपिक पदं दृश्यते। ५श सामनेन । ६०परखना। शनासुगन्यादी। Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि पञ्चविंशतिः [447 : ३-५१ 447 ) जीवपोतोभषाम्भोधौ मिथ्यात्वादिकरम्नवान् । आरपति विनाशार्थ कर्माम्भः सुचिरं भ्रमात्॥ 448) कर्मानवनिरोधोऽनसंवरो भवति धषम साक्षादेतवानाधानं मनोवाकायसंपतिः ॥५२॥ 449) निर्जरा शातन मोका पूर्वोपार्जितकर्मणाम् । तपोभिर्बष्टुमिः सा स्याद्वैराग्याभितवेष्टितैः॥५३॥ 450) लोका सर्षों ऽपि सर्वत्र सापायस्थितिरधुषः । दुःखकारीति कर्तव्या मोक्ष पत्र मतिः सताम् ।। 451) रक्षप्रयपरिमातिाधिः सातीय पुर्लभा । लब्धा कथं कर्यचियेत् कार्यो यज्ञो महानिह ।। ५५ ।। अपवित्रता भवति । किंलक्षणः काय: । मान्त्रिता सम्मान न्योतः जीवप्रोहणः । भ्रमात् । कर्माम्भः कर्मजलम् । मुधिरं चिरकालम् । विनाशार्थम् आनवति । किंलक्षणः जीवप्रोडणः । मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवान् छिद्रवान् ॥ ५ ॥ भत्र कर्मानवनिरोधः भुवं साक्षात् संकरो भवति । एतदनुष्ठान एतस्स कर्मालवनिरोधस्य आचरणम् । मनोवाकायसंपतिः संवरः ।। ५२ ॥ पूर्वोपार्जितकर्मणाम् । शातनं शटनम् । निर्जरा । प्रोक्ता कथिता । सा निर्जरा । बहुभिः सपोभिः स्यात् भवेत् । सा निर्जरा । वैराग्याश्रितचेष्टितैः कृत्वा भवेत् ।।५३ ॥ सर्वः अपि लोकः सर्वत्र सापायस्थितिः विनाशसहितस्थितिः । अनुवः दुःखकारी। इति हेतोः । सर्वा मतिः मोझे कर्तव्या। एव निश्चयेन ॥ ५४॥रमयपरिप्राप्तिः बोधिः [सा] अतीव दुर्लभा । चेत् कर्ष कन्चित् लब्धा । हा बोधौ । महान् यनः कार्यः पर्तव्यः ॥५५॥ अपवित्र हो जाती है । इस प्रकारसे शरीरके स्वरूपका विचार करना, यह अशुचिमावना है ।। ५० ॥ संसाररूपी समुद्रमै मिथ्यात्वादिरूप छेदोंसे संयुक्त जीवरूपी नाव अम ( अज्ञान व परिभ्रमण) के कारण बहुत कालसे आत्मविनाशके लिये कर्मरूपी जलको ग्रहण करती है। विशेषार्थ-जिस प्रकार छिद युक्त नाव घूमकर उक्त छिदके द्वारा जलको ग्रहण करती हुई अन्तमें समुद्र में डूबकर अपनेको नष्ट कर देती है उसी प्रकार यह जीव भी संसारमें परिश्रमण करता हुआ मिथ्यात्वादिके द्वारा कर्मोका आसव करके इसी दुःखमय संसारमें घूमता रहता है । तात्पर्य यह है कि दुलका कारण यह कोंका आसव ही है, इसीलिये उसे छोड़ना चाहिये । इस प्रकारके विचारका नाम आसवभावना है ॥५१॥ कर्मोके आसवको रोकना, यह निश्चयसे संवर कहलाता है । इस संवरका साक्षात् अनुष्ठान मन, वचन और कायकी अशुभ प्रवृत्तिको रोक देना ही है । विशेषार्थ-जिन मिध्यात्व एवं अविरति आदि परिणामों के द्वारा कर्म आते हैं उन्हें आसव तथा उनके निरोधको संवर कहा जाता है | आस्रव जहां संसारका कारण है वहां संवर मोक्षका कारण है । इसीलिये आस्रव हेय और संवर उपादेय है। इस प्रकार संवरके स्वरूपका विचार करना, यह संवरभावना कही जाती है ।। ५२ ।। पूर्वसंचित कमोंको धीरे धीरे नष्ट करना, यह निर्जरा कही गई है । वह वैराग्यके आलम्बनसे प्रवृत्त होनेवाले बहुतसे तपोंके द्वारा होती है। इस प्रकार निर्जराके स्वरूपका विचार करना, यह निर्जराभावना है ।। ५३ ॥ यह सब लोक सर्वत्र विनाशयुक्त स्थितिसे सहित, अनित्य तथा दुःखदायी है। इसीलिये विवेकी जनोंको अपनी बुद्धि मोक्षके विषयमें ही लगानी चाहिये ॥ विशेषार्थ-- यह चौदह राजु ऊंचा लोक अनादिनिधन है, इसका कोई करता-धरता नहीं है । जीव अपने कर्मके अनुसार इस लोकमें परिभ्रमण करता हुआ कभी नारकी, कभी तियेच, कभी देव और कभी मनुष्य होता है। इसमें परिभ्रमण करते हुए जीवको कभी निराकुल सुख प्राप्त नहीं होता । वह निराकुल सुख मोक्ष प्राप्त होनेपर ही उत्पन्न होता है । इसलिये विवेकी जनको उक्त मोक्षकी प्राप्तिका ही प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकार लोकके खभावका विचार करना, यह लोकभावना कहलाती है ॥ ५५ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप रतत्रयकी प्राप्तिका नाम बोधि है । वह बहुत ही दुर्लभ १ मु ( जै. सि.) प्रचुरं। २ क अवयं। ३ श प्राप्तिः सा गोषिः भवीव । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -158:५५२] ६. उपासकसंस्कार 452) जिनधो ऽयमस्यन्त दुर्लमो भाषिनां मतः । तथा प्रायो यथा साक्षादामोसं सह गछति ॥१६ 453) दुम्लग्राहगणाकीणे संसारक्षारसागरे। धर्मपोतं पर प्रास्तारणार्थ ममीषिणः ॥ ५७ ॥ 454) अनुमेक्षा हमाः सद्भिः सर्वदा ये धृताः । कुर्वते तत्परं पुण्य हेतुर्यत्स्वर्गमोक्षयोः ॥ ५८॥ 455 ) आद्योसमक्षमा यत्र यो धर्मों वशमेदभाक् । श्रावकैरपि सेम्यो ऽली यथाशक्ति यथागमम् ॥५९ 456) अन्तस्तत्त्वं विशुद्धात्मा बहिस्तवं दयानिषु । यो सन्मीलने मोक्षस्तसाद द्वितयमाश्रयेत् ॥ 457) मर्मभाः पार्ममान्यात निदात्मकम् । आस्मानं माषयेभिस्य नित्यानन्दपकप्रदम् ॥३१॥ 458) इत्युपासकसंस्कारः कृतः श्रीपमनन्दिना । येषामेतदनुष्ठान तेषां घमो ऽतिनिर्मकः ।। ६२॥ अयं जिनधर्मः । भविना प्राणिमाम् । अत्यन्तै दुर्लभः । अतः भरणात् तथा प्रायः यथा साक्षात् । आ मोक्षम् मा मर्याइित्य। पद गच्छति ॥ ५६ ॥ संसारक्षारसागरे संसारसमुद्रे । तारगार्यम् । मनीषिणः पहिताः । धर्मपोतं धर्मप्रोहणम् । पर बेठम् । भाहुः कथयन्ति । किंलक्षणे संप्तारसमुद्दे । दुःसपाहगणाकी दुःखानि एव जलभरा जीवास्तेषां गणैः समाफी मते ॥ ५ ॥ इमाः अनुप्रेक्षाः । ससिः पण्डितः । सर्वदा हृदये पताः । तस्परं पुण्ये करते समय खर्गमोक्षयो हेतुः कारण भवति ॥ ५ ॥ असौ धर्मः यथाशकि यथागर्म श्रारकैः भपि सेष्यः । वः धर्मः दशमेदभार दशमेवधारी। यत्र धर्मे । बाया समक्षमा वर्तते ॥ ५९ ॥ अन्तखवं विशुद्धामा वर्तते । पहिस्खालम् अशिषु स्या पर्दते । तबोईयोः अन्तर्बहिस्सपो । सम्मीलने एकत्रकरणे विचारणे । मोक्षः भवेत् । तस्मास्कारणात् । द्वितमम् माश्रयेत् ॥ - ॥ योगी आस्मानम् । नित्यं सदैव भावयेत् विचारयेत् । किलक्षगम् मारमानम् । कर्मभ्या कर्मचार्येभ्यः पृयाभूतं भिमखरूपम् । पुनः विदात्मकम् । पुनः विलक्षणम् आत्मानम् । निसं सदैव । भानन्दपदप्रदम् ॥॥ इति उपासकसंस्कारः भ्रावकाचारः । श्रीमानदिमा कृतः । येषां पाक काणाम् । एतत् अनुष्ठानम् अस्ति । तेषां श्रमकाणाम् । अतिनिर्मल: धर्मो भवेत् ॥ २॥ इति श्रावकाचारः समासः ॥ ॥ है । यदि वह जिस किसी प्रकारसे प्राप्त हो जाती है तो फिर उसके मिषयमें महान् प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकार रलत्रयस्वरूप बोधिकी प्रासिकी दुर्लभताका विचार करना, यह बोधिदुर्लभभावना है ।। ५५ ॥ संसारी प्रणियोंके लिये यह जैनधर्म अत्यन्त दुर्लभ माना गया है। उक्त धर्मको इस प्रकारसे ग्रहण करना चाहिये जिससे कि वह साक्षात् मोक्षके प्राप्त होने तक साथमें ही जाये ॥ ५६ ॥ विद्वान् पुरुष दुःखरूपी हिंसक जलजन्तुओंके समूहसे व्याप्त इस संसाररूपी खारे समुद्रमें उससे पार होनेके लिये धर्मरूपी नावको उत्कृष्ट बतलाते हैं। इस प्रकार धर्मके स्वरूपका विचार करना धर्मभावना कही जाती है ॥ ५७ ।। सज्जनकि द्वारा सदा हृदयमें धारण की गई ये सरह अनुप्रेक्षायें उस उत्कृष्ट पुण्यको करती हैं जो कि खर्ग और मोक्षका कारण होता है ।। ५८ ॥ जिस धर्ममें उत्तम क्षमा सबसे पहिले है तथा जो दस मेदोंसे संयुक्त है, श्रावकों को भी अपनी शक्ति और आगमके अनुसार उस धर्मका सेवन करना चाहिये ॥ ५९ ।। अभ्यन्तर तत्त्व कर्मकलंकसे रहित विशुद्ध आत्मा तथा बाह्य तत्व प्राणियोंके विषयमें दयाभाव है। इन दोनोंके मिलने पर मोक्ष होता है । इसलिये उन दोनोंका आश्रय करना चाहिये ।। ६० ॥ जो चैतन्यखरूप आत्मा कर्मों सथा उनके कार्यभूत रागादि विभावों और शरीर आदिसे मिन्न है उस शाश्वतिक आनन्दस्वरूप पदको अर्थात् मोक्षको प्रदान करनेवाली आत्माका सदा विचार करना चाहिये ।। ६१। इस प्रकार यह उपासक संस्कार अर्थात् श्रावकका चारित्र श्री पद्मनन्दी मुनिके द्वारा रचा गया है । जो जन इसका आचरण करते. हैं. उनके अत्यन्त निर्मल धर्म होता है ॥ १२ ॥ इस प्रकार श्रावकाचार समाप्त हुआ ॥ ६ ॥ २ जीपा है समाकीण। 'दशभेदमाई' नास्ति। कमानन्दप्रयम् । म (जसि.) निजभो । ५२ असोझो अपि' पदमधिक झ्यते । पान.१८ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ ७. देशत्रतोद्योतनम् ] 459) बाह्याभ्यन्तरसंगवर्जनतया ध्यानेन शुक्रेन यः कृत्या कर्मचतुष्ठेय क्षयमगात् सर्वकर्ता निश्चितम् । तेनोकानि वचसि धर्मकथने सत्यानि नान्यानि तत् भ्राम्यत्यत्र मतिस्तु यस्य स महापापी न भन्यो ऽथवा ॥ १ ॥ 460 ) एको ऽप्यन करोति यः स्थितिमतिप्रीतः शुचौ दर्शने साध्यः खलु दुःखितो ऽप्युदयतो दुष्कर्मणः प्राणभृत् । अन्यैः किं प्रचुरैरपि प्रमुदितैरत्यन्तदूरीकृतस्फीतानन्दभरप्रदामृतपथैर्मिथ्यापथे प्रस्थितैः ॥ २ ॥ 461) बीजं मोरोशं भवतरोर्मिथ्यात्वमार्जिनाः प्राप्तायां तन्मुमुक्षुभिरलं यतो विधेयो बुलैः । संसार बहुयोनिजालजटिल अभ्थन कुकर्मावृतः क प्राणी लभते महत्यपि गते काले दियो तामिद ॥ ३ ॥ यः देवः । वाश्याभ्यन्तरसंगवर्जनतया माह्याभ्यन्तरसंगत्यागेन । शुकेन ध्यानेन कर्मचतुष्टयक्ष कृपा। सर्वज्ञताम् भगात् सर्व प्राप्तः । तेन सर्वज्ञेन । उक्तानि कथितानि वचांसि धर्मकपने निश्चितं सत्यानि । तु पुनः । अन्यानि अन्यदेष-कुवेवकथितानि पंचासि सत्यानि न । तत्तस्मात्कारणात् । अस्य जनस्य मतिः । अत्र सर्वज्ञवचने भ्राम्यति स महापापी । अथवा स नरः भव्यः न । किंतु अभम्यः ॥ १ ॥ अत्र सारे । यः एकः अपि भव्यजीवः अतिप्रीतः सन् शत्रौ दर्शने स्थितिं करोति । लु निश्चितम् । स प्राणभृत् श्रायः । किंलक्षणः प्राणी दुष्कर्मण सदयतः दुःखितोऽपि । श्रन्यैः प्रचुरैः अपि जीवैः कि किलक्षणे ः जीवैः । प्रमुदितैः । भयन्तदूरीकृतस्फीतानन्वमरप्रदानृतपथैः । पुनः किंलक्षणैः जीवैः । मिथ्यापथे मिध्यामार्गे । प्रस्थितैः चत्रितैः ॥ २ ॥ जिनाः गणधरदेवाः । मोक्षतरोः मोक्षवृक्षस्य । बीजम् । दृर्श दर्शनम् । आहुः कथयन्ति । जिनाः neuरदेवाः भवतः संसारवृक्षस्य बीजं मिध्यात्वम् आहुः कथयन्ति । तत्तसात्कारणात्। दृशि प्राप्तायो सत्याम् । मुमुक्षुभिः 1 जो बाथ और आभ्यन्तर परिग्रहको छोड़ करके तथा शुक्क ध्यानके द्वारा चार घातिया कर्मोंको नष्ट करके निश्चयसे सर्वज्ञताको प्राप्त हो चुका है उसके द्वारा धर्मके व्याख्यानमें कहे गये वचन सत्य हैं, इससे भिन्न राग-द्वेषसे दूषित हृदयवाले किसी अल्पज्ञके वचन सत्य नहीं हैं । इसीलिये जिस जीवकी बुद्धि उक्त सर्वज्ञके वचनोंमें भ्रमको प्राप्त होती है वह अतिशय पापी है, अथवा वह भव्य ही नहीं है ॥ १ ॥ एक भी जो भव्य प्राणी अत्यन्त प्रसन्नतासे यहां निर्मल सम्यग्दर्शनके विषयमें स्थितिको करता है वह पाप कर्मके उदयसे दुःखित होकर भी निश्चयसे प्रशंसनीय है। इसके विपरीत जो मिघ्या मार्ग में प्रवृत्त होकर महान् सुखको प्रदान करनेवाले मोक्ष मार्गसे बहुत दूर हैं वे यदि संख्यामें अधिक तथा सुखी भी हों तो भी उनसे कुछ प्रयोजन नहीं है | विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि यदि निर्मल सम्यग्दृष्टि जीव एक भी हो तो वह प्रशंसा योग्य है । किन्तु मिभ्यामार्ग में प्रवृत्त हुए प्राणी संख्या में यदि अधिक भी हों तो भी वे प्रशंसनीय नहीं है- निन्दनीय ही हैं । निर्मल सम्यग्दृष्टि जीवका पाप कर्मके उदयसे वर्तमानमें दुःखी रहना भी उतना हानिकारक नहीं है, जितना कि मिष्यादृष्टि जीवका पुण्य कर्मके उदयसे वर्तमान में सुखसे स्थित रहना भी हानिकारक है || २ || जिन भगवान् सम्यग्दर्शनको मोक्षरूपी वृक्षका बीज तथा मिथ्यादर्शनको संसाररूपी क्षा भी बतलाते हैं। इसलिये उस सम्यग्दर्शन के प्राप्त हो जानेपर मोक्षाभिलाषी विद्वज्जनोंको उसके संरक्षण १ क २ पदं पदं नोपलभ्यते तत्र । ३ यश 'किम्' नास्ति । ४ रखन्तदूरीकृतस्फीतं मानन्दभरमदं भतपर्य : ' Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -484308] ७. देशोद्योतनम् 462 ) संप्राप्ते ऽत्र भवे कथं कथमपि प्रामीय सानेला मानुष्ये शुचिदर्शने च महती कार्ये तपो मोक्षदम् । मो लोकनिषेधो ऽथ महतो मोहादशकेरथो संपद्येत न तत्तदा गृहवतां षट्कर्मयोग्यं वतम् ॥ ४ ॥ 463) मूलमष्टधा वदतु व स्यात्पञ्चधाशुमतं शीला च गुणव्रतत्रयमतः शिक्षाश्रतः पराः । रात्री भोजन वर्जनं शुचिपटा पेयं पयः शक्तितो मौनादिमतमप्यनुष्ठितमिदं पुण्याय मम्यात्मनाम् ॥ ५ ॥ 484 ) इति स्थावरदेद्दिनः स्वविषये सर्वोासान् रक्षति भूते सत्यमचर्यवृत्तिमवलो शुद्ध निजां सेवते । दिग्देशयतदण्डधर्जनमतः सामायिक प्रोष दार्म भोगयुगप्रमाणेसुरकुर्यादीत प्रती ॥ ६ ॥ k 1 । मुनीश्वरैः । अथ बुधैः । अलम् अअर्थम् । यत्रः विषेषः कर्तव्यः । इह संसारे । प्राणी महति का गधे अवि । दिता कस्मान युफा लभते । किमु‌ संसारे । बहुयोनिजाकमटिले नानामोनिसमूहभूते । किंलक्षणः प्राणी संसारे भ्राम्यन् ॥ ३ ॥ अत्र भवे संसारे। कथं कथमपि कष्टेन । प्राचीयसा अहसा कालेन । मानुष्ये । पुनः । दर्श । महता भव्य जीवेने मोक्षदं तपः कार्य कर्तव्यम् | नो चेत् तफा न संपथेत । कुतः। लोकनिनेष्टतः । धर्षे महत मोहात् । अथ अशचेः असामर्थ्यात् । तथा । गृहणतां गृहस्थानाम् । षट्कर्मयोग्यं व्रतम् भक्ति देवपूजागुरूपा स्वीत्यादि ॥ ४ ॥ इदम् अनुष्ठितम् आचरितम् । भव्वास्मन पुण्याय । स्यात् भवेत् । तमेव दर्शयति । डम्दर्शनम् । अवघा मूलतम् । तदलु पश्चात् । पसधा अणुतम् । च पुनः । शीलास्यं गतं श्रयं गुणप्रतम् मतः मताः शिक्षाः पराः श्रेष्ठाः । रात्रौ भोजमवर्जनम् । पापः शुचिवनात् जलपानम् । शक्तिः मोनामितम् । सर्व पुण्याय भवति ॥ ५ ॥ गृही गृहस्थः । खविषये स्वधयें स्थावरदेहिनः पृथ्वी कामादीन् । इम्ति पीडयति । सर्वाम् श्रसान् रक्षति । सत्यं जयः जूते । अचौर्यगति पाब्बति निजाम् अबला शुद्ध युति सेवते। दिग्देशनतो [ते] अनर्थदण्डवर्जनं करोति । अतः पश्चात् । सामाजिकं करोति । प्रोषध-उपवास L I I यादिके विषयमें महान् प्रयत्न करना चाहिये । कारण यह है कि पाप कर्मसे आच्छत होकर महुत-सी ( चौरासी लाख योनियोंके समूहसे जटिल इस संसारमें परिभ्रमण करनेवाला प्राणी दीर्घ कालके वीतनेपर भी हितकारक उस सम्यग्दर्शनको कहांसे प्राप्त कर सकता है ? अर्थात् नहीं प्राप्त कर सकता है ॥ ३ ॥ यहाँ संसारमें यदि किसी प्रकारसे अतिशय दीर्घ कालमें मनुष्यभव और निर्मल सम्यग्दर्शन प्राप्त हो गया है तो फिर महापुरुषको मोक्षदायक तपका आचरण करना चाहिये । परन्तु यदि कुटुम्बीजनों आदिके रोकनेसे, महामोहसे अथवा अशक्तिके कारण वह तपश्चरण नहीं किया जा सकता है तो फिर गृहस्थ श्रावोंके छह आवश्यक ( देवपूजा आदि ) क्रियाओंके योग्य व्रतका परिपालन तो करना ही चाहिये ॥ ४ ॥ सम्यग्दर्शनके साथ आठ मूलगुण, तत्पश्चात् पांच अणुव्रत, तथा तीन गुणा एवं चार शिक्षामत इस प्रकार ये सात शीत, रात्रिमें भोजनका परित्याग, पवित्र वस्त्रसे छाने गये जलका पीना, तथा शक्तिके अनुसार मौनत आदि; यह सब आचरण भव्य जीवोंके लिये पुण्यका कारण होता है ॥ ५ ॥ व्रती श्रावक अपने प्रयोजनके वश स्थावर प्राणियोंका घात करता हुआ भी सत्र स जीवोंकी रक्षा करता है, सत्य वचन बोलता है, चौर्यवृत्ति (चोरी) का परित्याग करता है, शुद्ध अपनी ही स्त्रीका सेवन करता है, दिग्वत और देश का पालन करता है, अनर्थदण्डों (पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दुःश्रुति और प्रमादचर्या ) १ अ श महतां । २श सेम्यते च च भोगयुतप्रमाण १ ४ म श महतो भव्यजनैः। ५ अति । ६ या जतत्रयं ॥ ७ युनजी Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४० ALAMMA Anand पसमन्दि-पश्चर्षिशतिः [465:00465) देवाराधमपूजनादिवशुषु व्यापारकार्येषु सत् पुण्योपानहेतुषु प्रतिदिन संजायमानेष्वपि । संसाराणषतारणे प्रवर्ण सत्पात्रमुहिश्य यत् देशवतघारिणो धनवतो वान प्रकृष्टो गुणा ॥७॥ 466) सणे यामछति सौक्यमेष रानुभूसन्मोक्ष एव स्फुट स्ट्यादित्रय पष सिध्यति स तशिर्षन्थ एव स्थितम् । तहसिर्षपुषो ऽस्य वृत्तिरशनासदीयते श्रावकैः काले क्लिष्टतरे ऽपि मोझपदवी प्रायत्ततो वर्तते ॥८॥ 467 साहारविहातपाततया नीरुग्यपुर्जायते साधूनां तुम सा ततस्तवपद्ध मायेण संभाव्यते । कुर्यादीषधपथ्यचारिभिरिव चारित्रमारक्षम यवस्मादिह पर्वते प्रशमिनां धर्मो गृहस्थोचमात् ॥ ९॥ करोति । रही दामं करोति । गृही भोगयुगं भोग-उपभोगप्रमाण संख्या करोति । पूर्व प्रतम् उररी-अशीयात् । इति हेतोः । ती कथ्यते ॥५॥ देशनतधारिगः पनवतः श्रावकस्यै । सत्पात्रम् उदिश्य यत् दाभ भवेत् तत् प्रकृष्टः श्रेष्ठगुणः भवति । किंलक्षम दानम्। संसाराणवतारणे प्रवहणं प्रोहणम् । केषु सत्सु । देव-भाराधनपूजनादिबहुषु व्यापारकार्येषु सत्पुण्योपार्जनहेतुः प्रतिदिन अंजायमानेषु भपि ॥७॥ सर्वः तनुमृत् सौख्यम् एव पाश्छति । तत् सौख्यम् । स्फुट व्यकम् । मोक्षे एव । मोक्षः। हम्पादित्रये सति सिष्यति । तद् दृष्टयादित्रय निन्यपदे स्थितम् । तसिम्रन्थतिः वपुषः शरीरात् भवति । अस्य शरीरस्य । वृत्तिः स्थिरता । असनात् भोजनात् भवति । तत् मशनं भोजनम् । श्रावकै दीयते । काले शिष्टतरे अपि । प्रायः माहुल्येम । ततः श्रावकात् । मोक्षपदवी वर्तते ॥ ॥ इह जगति संसारे । ससात् कारणात् । प्रशमिनां योगिनाम् । नमः । गृहस्थोत्तमात श्रावकात् नर्तते। यत् वपुः शरीरम् । स्वेच्छाहारविहारजल्पनसया । नीरुग् रोगरहित जायते । पुमाः । साधूनाम् । सा खेच्छा न । ततः कारणापू । प्रायेण बाहुल्येन । तत् मुनीनां वपुः शरीरम् । अपन रुका रोगेग. रहित न संभाष्यते । का परित्याग करता है तथा सामायिक, प्रोषधोपवास, दान ( अतिथिसविमाग) और भोगोपभोगपरिमाणको स्वीकार करता है ॥ ६ ॥ देशत्रती धनवान् श्रावफके प्रतिदिन उत्तम पुण्योपार्जनके कारणमूत देवाराधना एवं जिनपूजनादिरूप बहुत कार्योंके होनेपर भी संसाररूपी समुद्रके पार होनेमें नौकाका काम करनेवाला जो सत्पात्रदान है वह उसका महान् गुण है । अभिप्राय यह है कि श्रावकके समस्त कार्योंमें मुख्य कार्य सत्पात्रदान है ॥ ७ ॥ सब प्राणी सुखकी ही इच्छा करते है, वह सुख स्पष्टतया मोक्षमें ही है, वह मोक्ष सम्यग्दर्शनादिखरूप रसत्रयके होनेपर ही सिद्ध होता है, वह रसत्रय दिगम्बर साधुके ही होता है, उक्त साधुकी स्थिति शरीरके निमित्से होती है, उस शरीरकी स्थिति भोजनके निमित्तसे होती है, और वह भोजन श्रावकोंके द्वारा दिया जाता है। इस प्रकार इस अतिशय क्लेशयुक्त कालमें भी मोक्षमार्गकी प्रवृत्ति प्रायः उन श्रावकोंके निमित्तसे ही हो रही है ॥ ८॥ शरीर इच्छानुसार भोजन, गमन और संभाषणसे नीरोग रहता है । परन्तु इस प्रकारकी इच्छानुसार प्रवृत्ति साधुओंके सम्भव नहीं है । इसलिये उनका शरीर प्रायः अखस हो जाता है। ऐसी अवस्थामें चूंकि श्रावक उस सरीरको औषध, पथ्य भोजन और जलके बारा व्रतपरिपालनके योग्य करता है अत एव यहाँ उन मुनियोंका धर्म उम श्रावकके निमित्तसे ही चलता १ करोति। र सपनपतः पुरुषस्व गावकस्म । १श परोति । ४ का सत्य पुम्पोराजन हेतुप, म-मतौ करित आत पत्रमय । ५ शवः । Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .47030-१२] ७. देशवतोदयोसनम् 468 ) व्याख्या पुस्तकवानमुमतधियां पाठाय भव्यात्मनां भक्त्या यक्रियते श्रुतारपदं दान पाया। सिद्धे ऽस्मिन् जननान्तरेषु कतिषु भैलोफ्यलोकोत्सव श्रीकारिप्रेकटीकताखिलजगत्कैवल्यभाजी जनाः॥१०॥ 469 ) सर्वेषामभयं प्रवृद्धकरुणैर्यहीयते प्राणिना दानं स्यादभयादि तेन रहितं दातयं निष्फलम् । आहारौषधशास्त्रदान विधिभिः क्षुद्रोगजाड्याद्य यसत्पात्रजने विनश्यति सतो वानं तदेक परम् ॥ १९ ॥ 470 ) आहारात सुखितौषधादतितरां नीरोगता जायते शास्त्रात् पात्र निवेदिता परभवे पाण्डित्यमस्याहतम् । पतत्सर्वगुणप्रभापरिकरः पुंलो ऽभयाइग्नता पर्यम्से पुमरुन्नतोमतपदप्राप्तिर्विमुक्तिस्ततः॥ १२ ॥ शविरम् । औषधपध्यवारिभिः चारित्रभारक्षम कुर्यात् ॥ ९॥ यत् । उच्चतधियां भव्यात्मनाम् । पाठाय पठनार्थम् । भन्या स्त्वा । व्याख्या कियते । भल्या कृत्या पुस्तकदानं कियते । तत इदं दामम् । बुधाः पण्डिताः । मुताश्रयम् । माहुः कषयन्ति शानदानं कथयन्ति । अस्मिन् शानदाने सिद्धे सति । कतिषु जननान्तरेषु पर्यायान्तरेषु ! जना लोकाः । श्रेयस्यलोस्वश्रीकारि यत्प्रकटीकृतम् अखिलं जगत् येन तत् कैवल्यं भजति इति कैवल्यभाजः जनाः भवन्ति ॥ १०॥ प्रारकसगैः ययायुको भव्यः। सर्वेषां प्राणिना यत् अभय दीयते स ममयादिदानम् । स्यात् भवेत् । सेन अमयदानेन । रहितं दानत्रयं निष्फल भवेत् । पात्रजने क्षुत-झुधारोगात् जाख्यात्भयम् अस्ति । तत् भयम् । आहारौषधशास्त्रदानादिमिः विनश्यति । ततः धरणात् । एक पर श्रेष्ठम् । अभयदान प्रशस्यते लाच्यते ॥११॥ भो लोकाः भूयता वामफलम् । आहारात मुखिता जायते । औषधात् । अतितराम् अतिशयेन । नीरोगता आयते । पात्रनिवेदितात्. वासात् परभवे अत्यतं पाण्डित्यं भवेत् । अमयाहानतः । पुंसः पुरुषस्य । एतत् पूर्वोक्तः सर्वगुणप्रभापरिकरः गुणसमूहः । जायते । पर्यन्ते पुनः उन्नतोमतपदप्रातिः जायते। है ॥ ९॥ उन्नत बुद्धिके धारक भव्य जीवोंको पढ़नेके लिये जो भक्तिसे पुस्तकका दान किया जाता है, अथवा उनके लिये तत्त्वका व्याख्यान किया जाता है, इसे विद्वज्जन श्रुतदान (ज्ञानदान) कहते हैं । इस शानदानके सिद्ध हो जानेपर कुछ थोड़ेसे ही भवोंमें मनुष्य उस केवलज्ञानको प्राप्त कर लेते हैं जिसके द्वारा सम्पूर्ण विश्व साक्षात् देखा जाता है तथा जिसके प्रगट होनेपर तीनों लोकोंके प्राणी उत्सवकी शोभा करते हैं ॥ १० ॥ दयाल पुरुषोंके द्वारा जो सब प्राणियोंके लिये अभय दिया जाता है, अर्थात् उनके भयको दूर किया जाता है, वह अभयदान कहलाता है। उससे रहित शेष तीन प्रकारका दान व्यर्थ होता है। चूंकि आहार, औषध और शास्त्रके दानकी विधिसे पात्र जनका क्रमसे क्षुधाका भय, रोगका भय और अज्ञानताका भय नष्ट होता है अत एव एक वह अभयदान ही श्रेष्ठ है ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि उपर्युक्त चार दानोंमें यह अभयदान मुख्य है। कारण कि शेष आहारादि दानोंकी सफलता इस अभयदानके ही ऊपर अवलंबित है । इसके अतिरिक्त यदि विचार किया जाय तो वे आहारादिके दानस्वरूप शेष तीन दान भी इस अभयदानके ही अन्तर्गत हो जाते हैं। इसका कारण यह है कि अभयदानका अर्थ है प्राणीके सब प्रकारके भयको दूर करके उसे निर्भय करना । सो आहारदानके द्वारा प्राणीकी क्षुधाके भयको, औषधदानके द्वारा रोगके भयको, और शास्त्रदानके द्वारा उसकी अज्ञानताके भयको ही दूर किया जाता है ॥ ११ ॥ पात्रके लिये दिये गये आहारके निमित्तसे दूसरे जन्ममें सुख, औषधके निमित्तसे मति १ लोकलोकस्य यद मीकारी। १ त्रैलोक्यलोकस्य मीकारि. श प्रैलोकलोकस उत्सव श्रीकार । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ पसनन्दि-पञ्चविंशतिर . 471) कृत्वा कार्यशतामि पापबहुलान्याधिस्य खेदं पर मानस्था बारिधिमेखला यमुमती दाखेन यचार्जितम् । सत्पुनादपि जीवितादपि धर्न प्रेयो ऽस्य पन्थाः शुभो पान तेन च दीयतामिदमहो नाम्येम तत्संगतिः ॥ १३ ॥ 672) यानेनैव पृहस्थता गुणवती लोकायोयोतिका सैव स्यामनु तहिना धनषतो लोकळयध्वंसकृत् । दुर्व्यापारशतेषु सत्सु गृहिणः पाप पखुत्पद्यते तन्नाशाय शशाङ्कशुनपरासे पानं च मान्यस्परम् ॥ १४ ॥ 478) पात्राणामुपयोगि यत्किल धने तशीमती मम्यते येनानम्तगुणं परत्र सुखद व्यावर्तते तत्पुनः । योगाय गतं पुनर्धनमतस्सनमेष शुष सर्षालामिति संपदा राहवता दाने मधानं फलम् ॥ १५॥ ततः पश्चात् । विमुफियते ॥ १२॥ तत् पने पुत्रादपि जीवितादपि । प्रेयः बालभम् । यत्त पनम् । दुःखेन भर्जितम् उपाकि तम् । किं वा । अकार्यशतानि पापरहुलानि कृत्वा पुनः पर खेदमू भाभिस्य प्राप्य । र पुनः 1 वारिधिमेखल्य बहमदी प्रान्स्वा धनम् उपार्जितम् । अस्य धनस्य । शुभः पन्था मार्गः । एक दानम् । तेन कारणेन । महो इति संयोधने । भो कोकाः । इदं धनम् । हीयताम् । तस्य धनस्य अन्येन सह संगतिनं ।। १३ ॥ ननु इति वितकें । धनवसः पुंसः गृहस्थता दानेन एष गुणवती लोक्लय-उयोतिका । स्थान मकेत् । सा एच गृहस्थता । सदिना तेन दानेन विना। तहस्थपदं लोकायध्वंसकृत् । हिमा गृहस्थस्य । दुर्यापासातेषु सत्सु यत्पापम् उत्पयते तमाशाय पुनः शशाशुश्रयशसे दाम पर श्रेष्ठम् । अन्यद म १४॥ किल इति सत्ये । यत् धनम् । शत्राणाम् उपयोगि पात्रनिमित भवति। धीमता तखन मन्यते । येन कारणैन । तद धनम् । पुनः परत्र परलोके । मनम्तगुर्ग सुखद व्यावर्तते । पुनः यत् धनम् । भोगाय गतम् । धनवतः गृहस्थस्य । तत् धनम् । नाम् शय नीरोगता, और शाखके निमित्तसे आश्चर्यजनक विद्वता प्राप्त होती है । सो अभयदानसे पुरुषको इन सब ही गुणोंका समुदाय प्राप्त होता है तथा अन्तमें उन्नत उन्नत पदों ( इन्द्र एवं चक्रवर्ती आदि) की प्रातिपूर्वक मुक्ति भी प्राप्त हो जाती है ॥ १२ ॥ जो धन अतिशय खेदका अनुभव करते हुए पापप्रचुर सैकडों दुष्कार्योको करके तथा समुद्ररूए करधनीसे सहित अर्थात् समुद्रपर्यन्त पृथिवीक्षा परिभ्रमण करके बहुत. दुससे कमाया गया है वह धन मनुष्यको अपने पुत्र एवं प्राणोंसे भी अधिक प्यारा होता है । इसके व्ययका उत्तम मार्ग दान है । इसलिये कष्टसे प्राप्त उस घनका दान करना चाहिये । इसके विपरीत दूसरे मार्ग (दुर्व्यसनादि ) से अपव्यय किये गये जानेपर उसका संयोग फिरसे नहीं प्राप्त हो सकता है ॥ १३ ॥ दानके द्वारा ही गुणयुक्त गृहस्थाश्रम दोनों लोकोंको प्रकाशित करता है, अर्थात् जीवको दानके निमित्तसे ही इस भव और परभव दोनोंमें सुख प्राप्त होता है । इसके विपरीत उक्त दानके विना धनवान् मनुष्यका यह गृहस्थाश्चम दोनों लोकोंको नष्ट कर देता है । सैकड़ों दुष्ट व्यापारोंमें प्रवृत्त होनेपर गृहस्थके जो पाप उत्पन्न होता है उसको नष्ट करनेका तथा चन्द्रमाके समान धवल यशकी प्राप्तिका कारण वह वान ही है, उसको छोड़कर पापनाश और यशकी प्राप्तिका और कोई दूसरा कारण नहीं हो सकता है ॥ १४ ॥ जो धन पात्रों के उपयोगमे आता है उसीको बुद्धिमान् मनुष्य श्रेष्ठ मानते हैं, क्योंकि, वह अनन्तगुणे सुखका देनेवाला होकर परलोकमें फिरसे भी प्राप्त हो जाता है। किन्तु इसके विपरीत जो धनवान्का धन भोगके निमित्तसे नष्ट होता है वह निश्चयसे नष्ट ही हो जाता है, अर्थात् दानजनित पुण्यके अभावमै वह फिर कभी १ मधीमता । २ श गृहस्सस्य गृहिणः । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. देशवतोद्योतनम् 474) पुत्र राज्यमशेषमर्थिधु धनं दत्वामी प्रालि प्राप्ता लिस्यमुखापदं सुतपसा मोझ पुरा पार्थिवाः। मोक्षस्यापि भवेता प्रथमतो दानं निदान बुधैः शवस्या देयमिदं समातिषपले प्रध्ये तथा जीविते ॥१६॥ 475) ये मोक्ष प्रति नोचताः सुनमवे लब्धे ऽपि दुर्बुग्या ते तिष्ठन्ति रहेन दानमिह सम्मोहपाशो रदः। मरखेदं पक्षिणा यदि विषिधं पान सवा दीयर्ता तत्संसारसरित्पतिमतरणे पोतायते निश्चितम् ॥१७॥ 476) यौनिस्यं न विलोक्यो जिमपतिर्न सार्यते नाचते न स्सूयेत न दीयते मुनिजने शान व भक्ता पण! सामध्ये सति तनहाश्रमपदं पाषाणनाषा सर्म सरस्था भवसागरे ऽतिविषमे मजाम्ति मश्यन्ति च ॥ १८ ॥ इ[एष धुवम् । इति हेतोः । गृहवता संपदा वाने प्रधान फलम् ॥१५॥ पुरा पूर्वम् । पार्थिवा राजानः । तपसा कृत्वा । नित्यमुखास्पदं मोक्ष प्राप्ताः । किं वा । पुत्रे अशेष राज्य दरवा । अर्षिषु याचकेषु धन दत्त्वा । प्राणिषु अभयं दाला । ततः भारणात् । मोक्षस्थापि प्रथमतः निदानं कारणं दान मरेत् । सदा काले। भैः चतुरैः । शत्तया इदं दान देयम् । क सति । द्रव्ये मतिरपले सति । तथा जीविते अतिचपले सति ॥ १६ ॥ सुनुभवे लम्धे अपि प्रा भपि ये दुर्बुद्धयः निन्दामुदयः । मोक्ष प्रति म असताः । ते जनाः । सद्दे तिष्ठन्ति । चेत् यति । इह लोके । दानं न । तत् गृहपवम् । ददः मोहपाशः । इदं मत्वा ज्ञात्वा । एहिणा श्रावकेण । यदि निविध दाने सदा दीयताम् । तत् दानम् । संसारसरित्पतिप्रतरणे संसारसमुइतरणे निषित पोतायते प्रोहण इव पाचरति इवि' पोतायते॥१०॥ यः भव्यैः श्रावकै नित्यं सदैव जिनपतिः न विलोक्यते । यैः धावकैः । जिनपतिः न पर्यते । यः श्रावकैः जिनपतिः न अय॑ते । यैर्भष्यैः जिनपतिः न स्तूयते । र पुनः । सामध्ये सति। भक्त्या कृत्वा मुनिजने पर दान न दीयते । तदहाश्रमपद वस श्रावकस्म गृहपदम् । पाषामनावा समं पाषाणनावसहशम् । तत्रस्मा पाषाणनाव नहीं प्राप्त होता । अत एव गृहस्सोंको समस्त सम्पचियोंके लाभका उत्कृष्ट फल दानमें ही प्राप्त होता है ॥ १५॥ पूर्व कालमें अनेक राजा पुत्रको समस्त राज्य देकर, याचक जनोंको धन देकर, तथा प्राणियों को अभय देकर उत्कृष्ट तपश्चरणके द्वारा अविनश्वर सुखके स्थानभूत मोक्षको प्राप्त हुए हैं । इस प्रकारसे वह दान मोक्षका भी प्रधान कारण है। इसीलिये सम्पत्ति और जीवितके अतिशय चपल अर्थात् नश्वर होनेपर विद्वान् पुरुषोको शक्तिके अनुसार सर्वदा उस दानको अवश्य देना चाहिये ॥ १६ ॥ उत्तम मनुष्यभवको पा करके भी जो दुर्बुद्धि पुरुष मोक्षके विषयमें उद्यम नहीं करते हैं वे यदि घरमें रहते हुए भी दान नहीं देते हैं तो उनके लिये वह घर मोहके द्वारा निर्मित बढ़ जाल जैसा ही है, ऐसा समझकर गृहस्थ श्रावकको अपनी सम्पत्तिके अनुसार सर्वदा अनेक प्रकारका दान देना चाहिये । कारण यह कि वह दान निश्चयसे संसाररूपी समुद्रके पार होनेमें नावका काम करनेवाला है ॥ १७ ॥ जो जन प्रतिदिन जिनेन्द्र देवका न तो दर्शन करते हैं, म सरण करते हैं, न पूजन करते हैं, न स्तुति करते हैं, और न समर्थ होकर भी भक्तिसे मुनिजनके लिये उत्तम दान मी देते हैं, उनका गृहस्थाश्रम पद पत्थरकी नावके समान है । उसके ऊपर खित होकर वे मनुष्य अत्यन्त भयानक संसाररूपी समुद्रमें गोता खाते हुए नष्ट ही 'वेद' नास्ति । २ 'सदा' नास्ति । २ सइति' नास्ति। ४ शस्तूपत ! ५ सानं दीयते न गृहाममयम् । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AMRAAMAnarior पनमन्दि-पंचविंशतिः 1177:१९47) चिन्तारकासुरनुकामसुरभिस्पर्शीपलाचा भुषि ख्याता पर परोपकारकरणे दृष्टा न ते केमचित् । रत्रोपत न केऽचिवपि प्रायोन संभाव्यते सस्कार्याणि पुनासदेष विधहाता परं श्यते ॥ १९ ॥ 478) पत्र श्रावकलोक एष पसति स्यात्तत्र चैत्यालयो यस्मिन् लोऽस्ति च तत्र सन्ति यतयो धर्मश्च तैर्यतते । धर्म सस्यघसंखयो विघटते स्वर्गापवर्गाभयं । सौख्य भावि मृणां ततो गुणवतां स्युः श्रायकाः संमताः ॥२०॥ 479) काले दुःखमसशके जितफ्तेधर्म गते क्षीणतां तुब्छे सामयिक जने बहुतरे मिथ्यान्धकारे सति । बैस्पे चैत्यगृहे व भकिसहितो यः सोऽपि मो इश्यते पस्तत्कारयते यथाविधि पुनर्भव्यः स बन्धः सताम् ॥ २१ ॥ सरशमापदस्था । अतिविषमे । भवसागरे संसारसमुझे । मन्ति गुडन्ति नश्यन्ति च ॥१८॥ चिन्तारल-मुराम-कल्पक्षकामसरभि-कामधेनु-गो-स्पोपल-पाचपाषाणा एते । भुवि भूमण्डले । परोपकारकरणे। ख्याताः प्रसिद्धाः कथ्यन्ते। ते पूर्वोकाः । केचित् सा दृष्टाः नातैः चिन्तारमादिभिः। केचित् उपकृतं न । अत्र लोके। उपकार रन कृतं [तः] उपकारः म संभाव्यते । पुनः तत्कार्याणि । रामाधीना कापाणी पिशितटाया। मन भियतन । दाता पर श्यते॥१७॥ पत्र एषः भावकलोकः वसति तिष्ठति । तत्र चैत्यालयः स्यात् भवेत् । च पुनः । यस्मिन् चैत्यालये सति । स सर्वशनिम्ब अस्ति। अथवा यस्मिन् प्रामे येत्यालयः अस्ति तत्र यतयः सन्ति। तैः पतिभिः धर्मः प्रवर्तते। धर्मे सदि अघसंचयः पापसंचयः विघटते विनश्यति । तणां खर्गापवर्गसौल्यम् । भावि भविष्यति । ततः कारणात् । गुणवता श्रावकाः संमताः स्युः ।। २. खमझके पक्षमकाले सति। जिनपतेः धर्म क्षीणता गवे सति। सामरिके अने तुच्छे सति । मिथ्यान्धकारे बहुतरे सति । चैत्ये प्रविमायाम्। श्व पुनः । चैत्यगृहे भफिसहितः यः कश्चित् धारकः । सोऽपि नो दृश्यते । पुनः यः मश्या यथाविधि । तत्कारयते तत् चैत्य प्रतिमा होनेवाले हैं ॥ १८ ॥ चिन्तामणि, कल्पवृक्ष, कामधेनु और पारस पत्थर आदि पृथिवीपर परोपकारके करनेमें केवल प्रसिद्ध ही हैं। उनको न तो किसीने परोपकार करते हुए देखा है और न उन्होंने यहां किसीका उपकार किया भी है, तथा वैसी सम्भावना भी प्रायः नहीं है। परन्तु उनके कार्यों (परोपकारादि) को सदा ही करता हुआ केवल दाता श्रावक अवश्य देखा जाता है। तात्पर्य यह कि दानी मनुष्य उन प्रसिद्ध चिन्तामणि आदिसे भी अतिशय श्रेष्ठ है ॥ १९ ॥ जिस गांवमें ये श्रावक जन रहते हैं यहां चैत्यालय होता है और जहाँपर चैत्यालय है वहांपर मुनिजन रहते हैं, उन मुनियोंके द्वारा धर्मकी प्रवृत्ति होती है, तथा धर्मके होनेपर पापके समूहका नाश होकर वर्ग मोक्षका सुख प्राप्त होता है । इसलिये गुणवान् मनुष्योको श्रावक अभीष्ट है ॥ विशेषार्थ--- अभिप्राय यह है कि जिन जिनभवनोंमें स्थित होकर मुनिजन स्वर्ग-मोक्षके साधनभूत धर्मका प्रचार करते हैं वे जिनमत्रन श्रावकों के द्वारा ही निर्मापित कराये जाते हैं । अत एव जब वे श्रावक ही परम्परासे उस सुखके साधन हैं तब गुणी जनोंको उन श्रावकोंका यथायोग्य सन्मान करना ही चाहिये ।। २० । इस दुखमा नामके पंचम कालमें जिनेन्द्र भगवान के द्वारा प्ररूपित धर्म क्षीण हो चुका है । इसमें जैनागम अथवा जैन धर्मका आश्रय लेनेवाले जन थोड़े और अज्ञानरूप अन्धकारका प्रचार बहुत अधिक है । ऐसी अवस्थामें जो मनुष्य जिनप्रतिमा और जिनगृहके विषयमें भक्ति रखता हो वह मी १क स्वर्गापवर्गभिर्य। २श"नावासबूशा गृहस्थाः। शचिन्तामणिरत। ४ सर्गापवर्गश्रिय सीरब, प्रताडित बात पत्रमन्त्र। ८श सामक्किसहिसजने। गौ। ५ भुवि मण्डले। वर्ववे। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ P - - -- --- -182: ७२४] ५.देशसोदयोलबम् 480) विवादलोजातियोषतिमेव मक्त्या के कारपति जिनसाजिनाकृति। पुणे नदीथति नागपि देश बना पाई पदानि कारपितुईपस्य ॥ १२ ॥ 481) पानामिः सपनर्मदोत्सवात पूामिलोकर मैलिमियम कलौस्तूविक गरे। घण्टाचामरवर्पणादिमिरपि प्रस्ताय शोमा परी भव्या पुण्यमुपार्जयन्ति सततं सत्या त्यावे ॥२३॥ 482) चाणवतेषारिणो ऽपि नियतं यान्स्येव देवास तिम्पेष महर्षिकामरपदं तदेव सान्या चिरम् । अचागल्य पुनः कुळे ऽतिमहति प्राप्य प्रकर शुमा म्मानुष्यं च विरागतां च सककल्यागं च मुकास्ततः ॥ २४ ॥ व पुनः चैत्यगृहं कारयते स ममयः। सतां पन्यः सस्सुकवाणा पन्धः ॥ २१॥ मम्माः । जिनसमा च पुनः । बिनाकति माया कारयन्ति निम्बादसोचति कन्वूही-मसम्मानम् । जिनसड्म । यथोचति पा-मविसमान । बिमातिम् । कारपन्ति । इह लोके । ती पुर्य सोतुम् । वापि सरसत्यपि । शका समर्या । मैन । परस्य यस्य कारवितुः बिमसब नाति बारमिदः । किमु का वासी ॥ २२ ॥ मात्र स्वाकये सति । भम्माः । सततं निरन्तरम् । पुम्पम् उपायन्ति। अमिः। मात्रामिः । पुनः कैः । मपनैः महोत्सवशतैः पूजामिः । उन्लेचकैः चन्द्रोपकैः । पुण्यम् सपार्षन्ति । पुनः नैवेद्यः । परिभिः यो । बजेः । फलशैः । तौर्यत्रिक गीततत्यमादित्रैः। जागरैः । पाटाचामरवर्पण-आवशतैः मपि। परी थोमा प्रस्ताव पुण्यम् उपार्जयन्ति भव्याः ॥ २३ ॥ ते भवतारिणः श्रावका मपि चेत्यालम मान्ति । तत्र देवनोके । महर्दिभमरपद चा। सिबहुसरं कालम् । तिष्ठन्ति । पुनः । अत्र मनुष्यलोके भागत्य अतिमहति के । शुभात् पुण्यात् । मानुष्यं प्राप्य । व पुनः । नहीं देखने में आता । फिर मी जो भव्य विधि पूर्वक उक्त जिनप्रतिमा और जिनगृहकर निर्माण कराता है वह सज्जन पुरुषोंके द्वारा वन्दनीय है।॥ २१ ॥ जो भव्य जीव भक्तिसे कुंदुरके फ्लेके बराबर मिनालय तथा जौके बराबर जिनप्रतिमाका निर्माण कराते हैं उनके पुण्यका वर्णन करने के लिये यहाँ बाणी (सरस्वती) मी समर्थ नहीं है । फिर जो भल्य जीव उन ( जिनालय एवं जिनप्रतिमा) दोनोंका ही निर्माण करता है उसके विषयमें क्या कहा जाय ! अर्थात् वह तो अतिशय पुण्यशाली है ही ॥ विशेमार्य- इसका अभिप्राय यह है कि जो भव्य प्राणी छोटे-से छोटे भी जिनमंदिरका अथवा जिनप्रतिमाका निर्माण कराता है वह बहुत ही पुण्यशाली होता है। फिर जो भव्य प्राणी विशाल जिनमवनका निर्माण कराकर उसमें मनोहर जिनप्रतिमाको प्रतिष्ठित कराता है उसको तो निःसन्देह अपरिमित पुण्यका लम होनेवाला है।। २२ ।। संसारमें चैत्यालयके होनेपर अनेक मन्य जीव यात्राओं (जलयात्रा आदि) अभिषेकों, सैकडों महान उत्सवों, अनेक प्रकारके पूजाविधानों, चंदोबों, नैवेधों, अन्य उपाहारों, ध्वजाओं, कलशों, तौर्यत्रिकों (गीत, नृत्य, वादित्र ), जागरणों तथा घंटा, चामर और दर्पणादिकोंके द्वारा उत्कृष्ट शोमाका विस्तार करके निरन्तर पुण्यका उपार्जन करते हैं ॥ २३ ॥ वे मव्य जीव गदि अणुव्रतोंके भी धारक हों तो भी मरनेके पश्चात स्वर्गलोकको ही जाते हैं और अणिमा आदि ऋद्धियोंसे संयुक्त देवपदको प्राप्त करके चिर काल तक यहां (स्वर्गमें) ही रहते हैं । तत्पश्चात् महान् पुण्यकर्मके उदयसे मनुष्यलोकमें आकर और अतिशय प्रशंसनीय कुलमें उत्तम मनुष्य होकर बैराम्पको प्राप्त होते हुए वे समस्त परिग्रहको छोड़कर मुनि हो बाते हैं तथा इस सत्पुरुषः। ४श'सोनाति नास्ति। ५मजबनवत बमाशुवत । २-प्रतिपाठोऽयम् । मकश जैस्यालयं । समाना,श जयोनतमान। 'परा नाखि। पान १ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ पप्रमन्दि-पञ्चविंशतिः [48s : ५२५483 ) पुंसो ऽयेषु चतुई निश्चलतरो मोक्षः परं सत्सुखः शेषास्तद्विपरीतधर्मकलिता हेया मुमुक्षोरतः। तस्मात्तस्पदसाधनत्यधरणो धर्मों ऽपि नो संमतः यो मोगादिनिमित्तमेव स पुनः पापं धैर्मन्यते ॥ २५ ॥ 484) भष्पानामणुभिर्वतैरनणुभिः साध्योऽत्र मोक्षः पर नान्यरिकचिदिईय निश्चयनयाजीवः सुरखी जायते । सर्वे तु बतजातमीरशधिया साफल्यमेत्यन्यथा संसाराश्रयकारणं भवति पचमखमेष स्फुटम् ॥ २६॥ 485 ) यस्कल्याणपरंपरार्पणपरं भव्यात्मनां संस्तो पर्यन्ते यवनन्तलौक्यसदनं मोक्ष दाति भुवम् । तज्जीयावाप्तिधुर्लभं सुनरतामुल्यैर्गुणैः प्रापित श्रीमत्पङ्कजनन्दिभिर्विरचितं देशनतोहयोतनम् ॥ २७ ॥ बिरागां प्राप्य । र पुनः। सकलपरिप्रहल्या प्राप्य ततः मुक्काः कर्मबन्धनात् मुसा रहिता भवन्ति ॥ १४ ॥ पुसा पुरुषस्य । बर्ष अषु पदार्थेषु । परम उत्कृधः। निषलतरः मोक्षः पदार्यः सत्सुसः । शेषाः पदार्थाः यः । तद्विपरीतधर्मकलिताः मोक्षपरायुखाः। अतः कारणात् मुमुक्षोः। इयाः लायाः। तस्मात् धर्मपदार्थः अपि । तत्पद-मोक्षपद-साधनत्वधरणः मोक्षपदसाधन- : समयः धर्मपदार्थः धर्मः नो संमतः नेटः (१) यो भोगादिनिमित्तमेव स बुधः पाप मन्यते ॥ २५ ॥ अत्र संघारे। भव्यानाम् । अशुभिः [वतः] अणुपतेः 1 अमणुभिः महाप्रतैः । पर मोक्षः साध्यः । अन्यत्किंचित् न । जीवः निक्षयमयात् । इहैव मोक्षे । सुखी शायते।तु पुनः 1 सर्व प्रतजातं व्रतसमूहम् हि ईशधिश मोक्षधिया । साफल्मम् एति साफल्यं गच्छति । अन्यया संसाराभयकारणं भवति । यत् प्रतजातं व्रतसमूहह.] । तहुःखम् एव । स्फुट व्यक्तम् ॥ २६ ॥ तद्देशनतोड्योतर्न देशवतप्रकाशनम् । जीयात् । यत् देशवतोइयोतनम् । संसूतौ संसारे । भव्यात्मनाम् । कल्याणपरंपरा कल्याणश्रेणी तस्याः अर्पणे पर श्रेष्ठम् । पुनः किंलक्षणं देशवतोड्योतनम् । यत् पर्यन्ते अवसाने । ध्रुवं निश्चितम् । अनन्तसौख्यसपनं मोक्षं ददाति । किंलक्षणं मोक्षम् । अतिदुर्लभम् । पुनः किलक्षण देशव्रतोयोतनम् । सुनरतामुख्यैः गुणैः प्रापितम् । विलक्षणं देशनतोड्योतनम् । श्रीमत्पवनन्दिभिः विरचितं कृतम् ॥ २५ ॥ इति देशरतोड़पोतन समाप्तम् ॥ ७ ॥ क्रमसे वे अन्तमें मुक्तिको भी प्राप्त कर लेते हैं ॥ २४ ॥ धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चार पुरुषार्थोमें केवल मोक्ष पुरुषार्थ ही समीचीन (बाधा रहित) सुस्वसे युक्त होकर सदा स्थिर रहनेवाला है । शेष तीन पुरुषार्थ उससे विपरीत (अस्थिर ) स्वभाववाले हैं। अत एव वे मुमुक्षु जनके लिये छोड़नेके योग्य हैं। इसीलिए जो धर्म पुरुषार्थ उपर्युक्त मोक्ष पुरुषार्थका साधक होता है वह भी हमें अभीष्ट है, किन्तु जो . धर्म केवल भोगादिका ही कारण होता है उसे विद्वज्जन पाप ही समझते हैं ॥ २५ ॥ भव्य जीवोंको । अणुव्रतों अथवा महानतोके द्वारा यहाँपर केवल मोक्ष ही सिद्ध करनेके योग्य है, अन्य कुछ भी सिद्ध करनेके योग्य नहीं है । कारण यह है कि निश्चय नयसे जीव उस मोक्षमें ही स्थित होकर सुखी होता है । इसीलिये इस प्रकारकी बुद्धिसे जो सब व्रतोंका परिपालन किया जाता है वह सफलताको प्राप्त होता है . तथा इसके विपरीत वह केवल उस संसारका कारण होता है जो प्रत्यक्षमें ही दुःस्वस्वरूप है ॥ २६ ॥ : श्रीमान् पद्मनन्दी मुनिके द्वारा त्या गया जो देशवतोद्योतन प्रकरण संसारमें भव्य जीवोंके लिये कल्याणपरम्पराके देनेमें तत्पर है, अन्तमें जो निश्चयसे अनन्त सुखके स्थानभूत मोक्षको देता है, तथा जो उत्तम मनुष्यपर्याय आदि गुणों से प्राप्त कराया जानेवाला है। ऐसा वह दुर्लम देशवतीद्योतन जयवन्त होवे ॥ २७ ॥ इस प्रकार देशप्रतोद्योतन समास हुआ ॥ ७ ॥ १बकमैपदार्थ: नो सम्मतः नो कवितः पुनः यः धर्मः भोगादिनिमिर एक गुधैः पतिः स धर्मः पाप। १क'या' नास्ति। Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [८. सिद्धस्तुतिः] 486 ) सूक्ष्मत्वादणुदर्शिनो ऽवषिरशः पश्यन्ति नो याम् परे यसंविम्महिमस्थित त्रिभुवन बस्य भमेकं यथा । सिकानामहमप्रमेयमहा तेषां लघुर्मानुषो मूढात्मा किमु वच्मि तत्र यदि षा भक्त्या महत्या वशः॥१॥ 487 ) निःशेषामरशेखराश्रितमणिश्रेण्यर्षितादिया देवास्ते ऽपि जिमा यदुनतपदमात्यै यतम्रो तराम् । सर्वेषामुपरि प्रवृद्ध परमझामादिभिः शामिका युक्तान पमिचारिभिः प्रतिदिन सिद्धान् ममामो षयम् ॥ २॥ 488 ) – लोकामविलम्धिनस्तदपिकं धर्मास्तिकायं बिना नो याता सहजस्थिरामललसग्दोषसम्मूर्तयः। संप्रामाः कलकत्यसाससाशाः लिजा जगम्माले नित्यामम्दसुधारसस्य च सदा पात्राणि ते पान्तु वः ॥ ३ ॥ ____ अह मानुषः । मूहात्मा मूर्खः । लघुः हीनः । वेशी सिद्धानाम् । किमु पथिम कि कपमामि । विलक्षणाना सिद्धानाम् । अप्रमेयमहा मर्यादारहिततेजसाम् । यान् सिसान् सूक्ष्मत्यात् परे अवधिरशः अवधिज्ञानिनः । अशुदर्शिनः सूक्ष्मपरमाणुदर्शिनः। मो पश्यन्ति । येषां सिद्धाना झाने । त्रिभुवनै प्रतिभासते। यषा खस्थम् । भाकाशे स्थितम् । मं नक्षत्रम् । भासते। यत् मानम् । त्रिभुक्ने । संनिन्महिमस्थितम् । यदि वा । तब सेषु सिकेषु । यत्किविच्मि सत् भत्त्या महत्या यशः कथ्यते ॥१॥ क्यम् भाचार्यः प्रसिदिन सिद्धान् नमामः । किंलक्षणान् सिद्धान् । सर्वेषामुपार प्रवृद्धपरमज्ञानादिभिः क्षायिकैः युकान् । अव्यभिचारभिः विनाशरहितगुणैः' युक्तान् । यदुमतपदप्राट्यै येषां सिद्धानाम् उमतपदप्रायै । तेऽपि जिनाः तीर्थंकरदेवाः । अतिशयेन । यतन्ते य कुर्वन्ति । किंलक्षणा जिनदेवाः । निःशेषा अमराः देवाः तेषां शेखरेषु मुकुटेषु भाश्रिता ये मणयः तेषां मणीन श्रेणिभिः अचिंतम् अधिवयं येषां ते निःशेषामरशेखराषितमणिश्रेण्यचिंताब्दिमाः ॥२॥ ते सिद्धाः। वः युष्मान् । सदा सर्वदा । पान्तु रक्षन्तु । ये सिद्धाः । स्काप्रनिलम्बिनः । तदधिक लोकात् अमे। नो याताः। केन विना । पर्मास्तिकायं विना। किलक्षणाः सिद्धाः। सहजस्थिरातिनिर्मललसहग-दर्शन-बोध-शानमूर्तयः। पुनः किलक्षणाः सिद्धाः। एतकल्पता संप्रामाः । पुनः मसरशाः असमामाः । पुनः किलक्षणाः सिद्धाः । जगन्मालम् । च पुनः । नित्यानन्दसुधारसस्व पात्राणि । वे सूक्ष्म होनेसे जिन सिद्धोंको परमाणुदर्शी दूसरे अवधिज्ञानी भी नहीं देख पाते हैं तथा जिनके झानमें स्थित तीनों लोक आकाशमें स्थित एक नक्षत्रके समान स्पष्ट प्रतिभासित होते हैं उन अपरिमित तेजके धारक सिद्धोंका वर्णन क्या मुझ जैसा मूर्ख व हीन मनुष्य कर सकता है ! अर्थात् नहीं कर सकता। फिर भी जो मैं उनका कुछ वर्णन यहां कर रहा हूं वह अतिशय भक्तिके वश होकर ही कर रहा हूं ॥ १॥ जिनके दोनों चरण समस्त देवोंके मुकुटोंमें लगे हुए माणियोंकी पंक्तियोंसे पूजित हैं, अर्थात् जिनके चरणोंमें समस्त देव भी नमस्कार करते हैं, ऐसे वे तीर्थकर जिनदेव भी जिन सिद्धोंके उन्नत पदको प्राप्त करनेके लिये अधिक प्रयत्न करते हैं। जो सबैकि ऊपर वृद्धिंगत होकर अन्य किसीमें न पाये जानेवाले ऐसे अतिशय वृद्धिंगत केवलज्ञानादिस्वरूप क्षायिक भावोंसे संयुक्त हैं। उन सिद्धोंको हम प्रतिदिन नमस्कार करते हैं ॥२॥ जो सिद्ध जीव लोकशिखरके आश्रित है, आगे धर्म द्रव्यका अभाव होनेसे जो उससे अधिक उपर नहीं गये हैं, जो अविनाधर स्वाभाविक निर्मल दर्शन (केवलदर्शन) ____ १ क श संचिन्महिम। म (नै सि.) स्वछ। १ मा स्वच्छं। ४ श किंचित् भक्त्या । ५ श रहितगुणैः। रस ते जिनाः। कनिःशेवामराः निःषदेवाः। Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ we पानदि पञ्चविंशतिः 489 ) ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून प्राप्ताः पदं शाश्वतं येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सीमापि नोलपते । येवैश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमशानादिसंयोजित ते सन्तु त्रिजगािश्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे ॥ ४ ॥ 490) सिद्धों बोधमितिः स बोध उदितो ज्ञेयप्रमाणो भवेत् ज्ञेयं लोकमलोकमेव च धवन्त्यात्मेति सर्वस्थितः । मूषायां मनोजते हि जठरे यारंग नमस्तादृशः प्राक्कायात् किमपि प्रहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति ॥ ५ ॥ [ 489: ८४ सिद्धाः | रक्षन्तु ॥ ३ ॥ ते सिद्धाः मम श्रेयसे । सन्तु भवन्तु । किंलक्षणाः सिद्धाः । त्रिजगच्छिणाश्रमणयः । ये सिद्धाः निजकर्मकर्कशरिपून् शत्रून् जित्वा शाश्वतं पदं प्राप्ताः । येषां सिद्धानाम् । धीमा अपि मर्यादा अपि । जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः नोलभ्यते । येषु सिद्धेषु एकम् अचिन्त्यम् ऐश्वर्य वर्तते । असमज्ञानादिसंयोजित शानम् अतीन्द्रियज्ञानं वर्तते ॥ ४ ॥ सिद्धः सदा आनन्दति किंलक्षणः सिद्धः । कृतकृत्यः । पुनः किलक्षणः सिद्धः । बोधमिति बोधप्रमाणम् । स उदितः बोधः प्रकटीभूतः बोधः प्रमाणो भवेत् । ज्ञेयं लोकं च पुनः अलोकम् एव वदन्ति । इति हेतोः । आत्मा सर्वस्थितः हि यतः । भूषायां समयपुतलिकायाम् । मदन उज्झिते मयणरहिते । जाठरे उदरे यारकू नमः आकाशः अस्ति तादृशः सिद्धाकारः इति प्राकायात् और ज्ञान (केवलज्ञान ) रूप अनुपम शरीरको धारण करते हैं, जो कृतकृत्यस्वरूपको प्राप्त हो चुके हैं, अनुपम हैं, जगत्के लिये मंगलस्वरूप है, तथा अविनश्वर सुखरूप अमृतरसके पात्र हैं; ऐसे वे सिद्ध सदा आप लोगोंकी रक्षा करें ॥ ३ ॥ जो सिद्ध परमेष्ठी अपने कर्मरूपी कठोर शत्रुओंको जीतकर नित्य (मोक्ष) पदको प्राप्त हो चुके हैं; जन्म, जरा एवं मरण आदि जिनकी सीमाको भी नहीं लांघ सकते, अर्थात् जो जन्म, जरा और मरणसे मुक्त हो गये हैं तथा जिनमें असाधारण ज्ञान आदिके द्वारा अचिन्त्य एवं अद्वितीय अनन्तचतुष्टयस्वरूप ऐश्वर्यका संयोग कराया गया है; ऐसे वे तीनों लोकोंके चूड़ामणिके समान सिद्ध परमेष्ठी मेरे कल्याणके लिये होवें ॥ ४ ॥ सिद्ध जीव अपने ज्ञानके प्रमाण हैं। और वह ज्ञान ज्ञेय ( ज्ञानका विषय ) के प्रमाण कहा गया है। वह ज्ञेय भी लोक एवं अलोकस्वरूप है । इसीसे आत्मा सर्वव्यापक कहा जाता है। सांचे ( जिसमें ढालकर पात्र एवं आभूषण आदि बनाये जाते हैं) से मैनके पृथक हो जानेपर उसके मीतर जैसा शुद्ध आकाश शेष रह जाता है ऐसे आकारको धारण करनेवाला तथा पूर्व शरीरसे कुछ हीन ऐसा वह सिद्ध परमेष्ठी सदा आनन्दका अनुभव करता है ॥ विशेषार्थ -- सिद्धोंका ज्ञान अपरिमित है जो समस्त लोक एवं अलोकको विषय करता है। इस प्रकार लोक और अलोक रूप अपरिमित ज्ञेयको विषय करनेवाले उस ज्ञानसे चूंकि आत्मा अभिन्न है - तत्त्वरूप है; इसी अपेक्षासे आत्माको व्यापक कहा जाता है। वस्तुतः तो वह पूर्व शरीरसे कुछ न्यून रहकर अपने सीमित क्षेत्र में ही रहता है। पूर्व शरीरसे कुछ न्यून रहनेका कारण यह है कि शरीरके उपांगभूत जो नासिकाछिद्रादि होते हैं वहां आत्मप्रदेशका अभाव रहता है | शरीरका सम्बन्ध छूटनेपर अमूर्तिक सिद्धात्माका आकार कैसा रहता है, यह बतलाते हुए यहां यह उदाहरण दिया गया है कि जैसे मिट्टी आदि से निर्मित पुतलेके भीतर मैन भर दिया गया हो, तत्पश्चात् उसे अभिका संयोग प्राप्त होनेपर जिस प्रकार उस मैनके गल जानेपर वहां उस आकारमें शुद्ध आकाश शेष रह जाता है उसी प्रकार शरीरका सम्बन्ध छूट १ च शुद्ध १ को अलोकं च पुनः एव वदन्ति । 1 Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 493: ८-८] ८. सिद्धस्तुतिः 491 ) धोधो परमौ तदावृतितेः सौख्यं च मोहक्षयात् वीर्य विविधाततो ऽप्रतिहतं मूर्तिर्न नामक्षतेः । आयुर्नाशवान जन्ममरणे गोत्रे न गोत्रं विना सिद्धानां न च वेदनीयविरहाद्दुःखं सुखं चाक्षजम् ॥ ६ ॥ 492 ) यैर्दुःखानि समामुवन्ति विधिवजानन्ति पश्यन्ति नो वीर्य नैव निजं भजन्स्यसुभृतो नित्यं स्थिताः संसृतौ । कर्माणि तानि तानि महता धोगेन यैस्ते सदा सिद्धा नित्यचतुष्टयामृतसरिनाथा भवेयुर्न किम् ॥ ७ ॥ 493) एकाक्षाद्बहुकर्म संवृतमते दक्षा दिजीवाः सुख aratविययुता भवन्ति किमपि क्लेशोपशान्तेरिह । ये सिद्धास्तु समस्त कर्मविषमध्वान्तप्रबन्धच्युताः सद्बोधाः सुखिनश्ध ते कथमहो न स्युत्रिलोकाधिपाः ॥ ८ ॥ I किमपि प्रहीणः ॥ ५ ॥ सिद्धानां बोधो परमौ वर्तेते' । कस्मात् । तयोर्द्वयोः ज्ञानदर्शनयोः श्रतिहतेः आवरणस्फेटना । पुनः 1 सिद्धानां सौख्यं वर्तते । कस्मात् । मोहक्षयात् । सिद्धानाम् अनन्तवीर्ये वर्तते । कस्मात् । विघ्नविद्याततः अन्तरायकर्मक्षयात् । किंलक्षणं वीर्यम् । अप्रतिहतं न केनापि इतम् । सिद्धानां मूर्तिः न । कस्मात् । नामक्षतेः नामकर्मक्षयात् । येषां सिद्धानां जन्ममरणे न । कस्मात् | आयुःकर्मनाशात् । येष! सिद्धानाम् । गोत्रे हे न उच्चनीचगोत्रे न । कस्मात् । गोत्रकर्मविनाशात् । च पुनः । सिद्धानाम् । अक्षणम् इन्द्रिय उत्पन्नम् अक्षजं सुखं दुःखं न । कस्मात् । वेदनीयकर्म विरहात् नाशात् ॥ ६ ॥ ते सिद्धाः सदा सर्वदा । नित्यचतुष्टयामृतसरिनाथाः अनन्तसुखसमुद्राः । किं न भवेयुः । अपि तु भवेयुः । यैः सिद्धेः । मइता योगेन ध्यानेन । तानि कर्माणि । प्रहृतानि विनाशितानि । यैः कर्मभिः । असुभृतः जीवाः दुःखानि समाप्नुवन्ति विधिवत् दुःखानि जानन्ति नो पश्यन्ति निजं वीर्यम् नैवे भजन्ति नाश्रयन्ति । नित्यम् । तौ स्थिताः संसारे स्थिताः ॥ ७ ॥ इह जगति संसारे । एकाक्षात् एकेन्द्रियात् । द्वि-अक्षादिजीवाः द्वीन्द्रियादिजीवाः । सुखज्ञानाधिक्ययुक्ताः भवन्ति । कस्मात् । किमपि क्लेशोपशान्तेः सकाशात् । किंलक्षणात् एकेन्द्रियात् । बहुकर्मसंवृतमतेः । अहो इति संबोधने । तु पुनः । ते सिद्धाः । कथं सुखिनः न स्युः न । १४९ जानेपर उसके आकार शुद्ध आत्मप्रदेश शेष रह जाते हैं ॥ ५ ॥ सिद्धोंके दर्शनावरणके क्षयसे उत्कृष्ट दर्शन ( केवलदर्शन ), ज्ञानावरणके क्षयसे उत्कृष्ट ज्ञान ( केवलज्ञान ), मोहनीय कर्मके क्षयसे अनन्त सुख, अन्तरायके विनाशसे अनन्तवीर्य, नामकर्मके क्षयसे उनके मूर्तिका अभाव होकर अमूर्तत्व (सूक्ष्मत्व ), आयु कर्मके नष्ट हो जानेसे जन्म-मरणका अभाव होकर अवगाहनत्व, गोत्र कर्मके क्षीण हो जानेपर उच्च एवं नीच गोत्रोंका अभाव होकर अगुरुलघुत्व, तथा वेदनीय कर्मके नष्ट हो जानेसे इन्द्रियजन्य सुख-दुःखका अभाव होकर अव्यावTत्व गुण प्रगट होता है ॥ ६ ॥ जिन कर्मोंके निमित्तसे निरन्तर संसार में स्थित प्राणी सदा दुःखको प्राप्त हुआ करते हैं, विधिवत् आत्मस्वरूपको न जानते हैं और न देखते हैं, तथा अपने स्वाभाविक वीर्य ( सामर्थ्य ) का भी अनुभव नहीं करते हैं; उन कमको जिन सिद्धोंने महान् योग अर्थात् शुक्लध्यानके द्वारा नष्ट कर दिया है वे सिद्ध भगवान् अविनश्वर अनन्तचतुष्टयरूप अमृतकी नदीके अधिपति (समुद्र) नहीं होंगे क्या ? अर्थात् अवश्य होंगे ॥ ७ ॥ संसारमें जिस एकेन्द्रिय जीवकी बुद्धि कर्मके बहुत आवरणसे सहित है उसकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय आदि जीव अधिक सुखी एवं अधिक ज्ञानवान् हैं, कारण कि इनके उसकी अपेक्षा कर्मका आवरण कम है। फिर १ स वर्तते । २ स्फोटनाव। १ स नो । ४ 'किमपि नास्ति । ५ 'एकेन्द्रियाव' नास्ति । Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० [ 494: GR पचनन्दि - पञ्चविंशतिः 494) या केसाप्यतिगाढगाढममितो दुःखप्रदेः प्रहैः बोध नये रुषा घनतरैरापावमा मस्तकम् । एकस्मिन् शिथिलेऽपि तत्र मनुते सौभ्यं स सिद्धाः पुनः किं न स्युः सुखिनः सदा विरहिता बाह्यान्तरैर्यग्धः ॥ ९ ॥ 495) सर्वज्ञः कुरुते परं तनुभृतः प्राचुर्यतः कर्मणां रेणूनां गणनं किला घिवसतामेकं प्रदेशं घनम् । इत्याशास्त्रथिलासु बखमहसो दुःखं न कस्मान्मह म्मुक्तस्यास्य तु सर्वतः किमिति नो जायेत सौख्यं परम् ॥ १० ॥ भः । अपि तु सुखिनः भवेयुः । ये सिद्धाः समस्त कर्मविषमध्यान्तप्रबन्धच्युताः समस्त कर्मबन्धनरहिताः । ये सिद्धाः सद्बोधाः । ये सिद्धाः त्रिलोकाधिपाः ॥ ८ ॥ यः मरः केन अपि पुरुषेण दषा' कोथेन । अन्यैः प्रप्रहैः रज्जुभिः । अभितः सर्वत्र । अतिगाढ. गाढम् आपाद' आमस्तकं बद्धः । किंलक्षणैः प्रहैः । पनतरैः दुःखप्रदेः । तत्र तेषु बन्धनेषु । एकस्मिन् बन्धने शिथिले सति । स नरः बद्धनर । सौख्यं मनुते । पुनः सिद्धाः बाह्यान्तरैः बन्धनैः विरहिताः सदः सुखिनः किं न स्युः भवेयुः । अपि तु सुखिनः भवेयुः ॥९॥ किल्ल इति सत्ये । तनुम्भृतः जीवस्य । कर्मणां रेणूनां गणनं परं प्राचुर्यतः सर्वशः कुरुते । किंलक्षणानां कर्मरेणूनाम् । एकैकप्रदेश नं निविडम् अधिवसताम् इति अखिला अशा परमाणुषु । मद्धमाद्दसः कर्मपरमाणुभिः वेष्टितैजीवस्य । कस्मान्महद्दुःखं न । अपि तु दुःखम् अस्ति । अस्य मुक्तस्य कर्मबन्धनरहितस्य । सर्वतः परं सौख्यं किमिति नो आयेत । अपि भला जो सिद्ध जीव समस्त कर्मरूपी घोर अन्धकारके विस्तारसे रहित हो चुके हैं वे तीनों लोकों के अधिपति होकर उत्तम ज्ञान ( केवलज्ञान ) और अनन्त सुखसे सम्पन्न कैसे न होंगे? अवश्य होंगे | ( विशेषार्थएकेन्द्रिय जीवोंके जितनी अधिक मात्रामें ज्ञानावरणादि कर्मोंका आवरण है उससे उत्तरोत्तर द्वीन्द्रियादि जीवोंके वह कुछ कम है। इसीलिये एकेन्द्रियोंकी अपेक्षा द्वीन्द्रिय और उनकी अपेक्षा त्रीन्द्रियादि जीव उत्तरोत्तर अधिक ज्ञानवान् एवं सुखी देखे जाते हैं। फिर जब वही कर्मोंका आवरण सिद्धोंके पूर्णतया नष्ट हो चुका है तब उनके अनन्तज्ञानी एवं अनन्तसुखी हो जानेमें कुछ भी सन्देह नहीं रहता ॥ ८ ॥ | जो मनुष्य किसी दूसरे मनुष्यके द्वारा क्रोधके वश होकर पैरसे लेकर मस्तक तक चारों ओर ! दुःखदायक हढ़तर रस्सियोंके द्वारा जकड़ कर बांध दिया गया है वह उनमें से किसी एक भी रस्सीके शिथिल होनेपर सुखका अनुभव किया करता है । फिर भला जो सिद्ध जीव बाह्य और आभ्यन्तर दोनों ही बन्धनोंसे रहित हो चुके हैं वे क्या सदा सुखी न होंगे? अर्थात् अवश्य होंगे ॥ ९ ॥ प्राणके एक प्रदेशमें सघनरूपसे स्थित कर्मोंके प्रचुर परमाणुओंकी गणना केवल सर्वज्ञ ही कर सकता है। फिर जब स दिशाओंमें अर्थात् सब ओरसे इस प्राणीका आत्मतेज कर्मोंसे सम्बद्ध ( रुका हुआ ) है तब उसे महान् दुःख क्यों न होगा ? अवश्य होगा। इसके विपरीत जो यह सिद्ध जीव सब ओरसे ही उक्त कर्मों से रहित हो चुका है उसके उत्कृष्ट सुख नहीं होगा क्या ? अर्थात् अवश्य होगा || विशेषार्थ – अभिप्राय यह है कि इस संसारी प्राणी एक ही आत्मप्रदेशमें इतने अधिक कर्मपरमाणु संबद्ध हैं कि उनकी गिनती केवल सर्वज्ञ ही कर सकता है, न कि हम जैसा कोई अल्पज्ञ प्राणी । ऐसे इस जीवके सब ही ( असंख्यात ) आत्मप्रदेश उन कर्म परमाणुओं से संबद्ध हैं । अब मला विचार कीजिये कि इतने अनन्तानन्त कर्मपरमाणुओंसे बंधा हुआ यह संसारी प्राणी कितना अधिक दुखी और उन सबसे रहित हो गया सिद्ध जीव -- १श 'स्पा' नास्ति । २ मा आपदां । ३ स बेष्टितो। ४ श यस्य । Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | -498 : ८-१३] ८. सिद्धस्तुतिः १५१ 496 ) येषां कर्मनिदानजम्यविविधक्षुत्तृण्मुखा व्याधया सेषामन्नजलादिकोषधगणस्तच्छाम्तये युज्यते । सिद्धानां तु न कर्म तत्कृतमजो नातः किमनादिभिः नित्यात्मोत्थसुखामृताम्बुधिगतास्कृप्तास्त एष नुवम् ॥ ११ ॥ 497 ) सिद्धज्योतिरतीब निर्मलतरजानकमूर्ति स्फुरद् वर्तिीपमिवोपसेव्य लभते योगी स्थिरं तत्पदम् । साध्याथ विकल्पजालरहितस्सदूपतामापत. स्तान्जायत एव देवषिनुतनैलोक्यचूडामणिः ॥ १२ ॥ 498 ) यत्सूक्ष्मं च महश्च शून्यमपि यन्नो शून्यमुत्पद्यते नश्यत्येव च नित्यमेव च तथा नास्स्येव वास्त्येष च। एक यद्यदनेकमेव तदपि प्राप्त प्रतीति स्तो सिद्धज्योतिरमूर्ति चित्सुखमयं केनापि तल्लक्ष्यते ॥ १३ ॥ तु परं सौख्यं जायेतं ॥ १०॥ येषां जीवानाम् कर्मनिदानजन्यविविधक्षुत् क्षधा-तृद-तषा-प्रमुखाः व्याधयः वर्तन्ते । सेषां जीवानाम् । तच्छान्तये तेषां व्याधीनां शान्तये। अन्नजलादिकोषधगणः युज्यते । तु पुनः सिर सकृतरूजः न तैः कर्मभिः कृतरुजः । अतः कारणात् अनादिभिः कि कार्यम् । न किमपि । ते सिद्धाः। धुर्व निश्चितम् । तमाः। पुनः नियात्मोत्यमुखारतामधुधिगताः प्राप्ताः । १५ ॥ योगी मुनिः । सिबज्योतिः उपसेव्य । स्थिरम् । तत्पद मोक्षपदम् । लभते प्राप्रोति । किंलक्षणः योगी । अतीवनिर्मलतरज्ञानकमूर्तिः । यथा वर्तिः स्फुरदीपम् उपसेव्य पीपगुण लभते । मय सदुद्या कृत्वा विकल्पजालरहितः तद्रूपताम् आपतं तिन] प्राप्तमें । ताहम् जायते सिद्धसदृशैः जायते। देवविनुतः देवैः विशेषेण नुतः । त्रैलोक्यचूडामणिः जायते ॥ १२॥ तत् सिद्धज्योतिः । केनापि ज्ञानिना। लक्ष्यते ज्ञायते । यत् सिदज्योतिः सूक्ष्मम् अलक्ष्यत्वात् । यत् सिद्धज्योतिः महत् गरिष्ठम् अप्रमाणत्वात् न विद्यते प्रमाण मर्यादा यस्य सः अप्रमागतस्य भाषः कितना अधिक सुखी होगा || १० ॥ जिन प्राणियोंके कर्मके निमित्तसे उत्पन्न हुईं अनेक प्रकारकी मूख-प्यास आदि व्याधियां हुआ करती हैं उनका इन व्याधियोंकी शान्तिके लिये अन्न, जल और औषध आदिका लेना उचित है। किन्तु जिन सिद्ध जीवों के न कर्म हैं और न इसीलिये तज्जन्य व्याधियां भी हैं उनको इस अन्नादि वस्तुओंसे क्या प्रयोजन है ! अर्थात् उनको इनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा । वे तो निश्चयसे अविनश्वर आत्ममात्रजन्य (अतीन्द्रिय ) सुखरूपी अमृतके समुद्रमें मन रहकर सदा ही तृप्त रहते हैं ॥ ११ ॥ जिस प्रकार बत्ती दीपककी सेवा करके उसके पदको प्राप्त कर लेती है, अर्थात दीपक स्वरूप परिणम जाती है, उसी प्रकार अत्यन्त निर्मल ज्ञानरूप असाधारण मूर्तिस्वरूप सिद्धज्योतिकी आराधना करके योगी मी स्वयं उसके स्थिर पद (सिद्धपद) को पास कर लेता है। अथवा वह सम्यग्ज्ञानके द्वारा विकल्पसमूहसे रहित होता हुआ सिद्धस्वरूपको प्राप्त होकर ऐसा हो जाता है कि तीनों लोकके चूडामणि रलके समान उसको देव भी नमस्कार करतें हैं ॥ १२ ॥ जो सिद्धज्योति सूक्ष्म भी है और स्थूल भी है, शून्य भी है और परिपूर्ण भी है, उत्पाद-विनाशशाली भी है और नित्य भी है, सद्भावरूप भी है और अभावरूप भी है, तथा एक भी है और अनेक भी है; ऐसी वह दृढ प्रतीतिको प्राप्त हुई अमूर्तिक, चेतन एवं सुखस्वरूप सिद्धज्योति किसी विरले ही योगी पुरुषके १ च प्रतिपाठोऽयम् । मकश 'माप्त ताब। २ जायते। ३ श शान्तये | Yश तस्कर्म । यस प्रापते ६ स्वश, श सवृशे। Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ [421 पामा पारि 499 ) स्थायदामृतगर्मितागममहारखाकरमानको चौता पस्य मतिः स पर मनुते तवं विमुक्तात्ममः । वत्तस्यैव तव पाति समतेः सामानुपादेयता मेवेन वकतेन तेन च बिना संकपमेक परम् ॥ १४॥ around अप्रमाणलं तस्मात् अप्रमाणत्वात् । यसिदज्योतिः शल्प संसाराभावात् । मत्सिबज्योति: नो शून्य खचतुष्टयेन नो शून्यम् । । यसिद्धज्योतिः उत्पद्यते नश्यति पर्यायानयेने। यत्सिबज्योतिः निर्ल्स म्यनयेम । यस्सिमज्योतिः नास्ति मस्तिगुणापेक्षया व्यस्य नास्तित्वं गुणस्य अखिवं इण्यापेक्षया गुणस्य नातिवं व्यस्य अस्तित्वम् । यत्सिदस्योतिः एक व्यतः । यत्सिदज्योतिः भनेक गुणनः । यस्सिदज्योतिः तदपि हा प्रतीति प्राप्तम् । मसिखज्योतिः ममूर्ति चित्सुखममम् । तत् फेनापि लक्ष्यते ॥ १३ ॥ यस्य मन्यस्य मतिः । स्थानशब्द-अखित्यादिशब्दामृतेन गर्मितः भागमः एव रखाकरः तस मानतः 1 चौता प्रक्षालिता यस्य मतिः स एव विशुद्धालनः तवं मनुते । तत्तस्मात्कारणात् । तस्य सुमतेः । तदेव भास्मसत्वम् । उपादेवा । याति प्राह्मभावं याति । फेन । भेदेन भेदशानेन । च पुनः । तेन । सकृतेन मात्मना कृतेन । बिना भेदलानेन बिना । एक परे । marianneinrrrrrrrrinaamanan द्वारा देखी जाती है ॥ विशेषार्थ— यहां जो सिद्धज्योतिको परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धोंसे संयुक्त बताया है वह विवक्षामेदसे बताया गया है। यथा-वह सिद्धज्योति यूंकि अतीन्द्रिय है अत एव सूक्ष्म कही जाती है। परन्तु उसमें अनन्तानन्त पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, अतः इस अपेक्षासे यह स्थल मी कही जाती है। वह पर (पुद्लादि) द्रव्योंके गुणोंसे रहित होनेके कारण शून्य तथा अनन्तचतुष्टयसे संयुक्त होनेके कारण परिपूर्ण भी है ! पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वह परिणमनशील होनेसे उत्पाद-विनाशशाली तथा द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा विकार रहित होनेसे निस भी मानी जाती है । खकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वह सद्भावस्वरूप तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अभावस्वरूप मी है। वह अपने स्वभावको छोड़कर अन्यस्वरूप न होनेके कारण एक तथा अनेक पदार्थोके स्वरूपको प्रतिभासित करनेके कारण अनेक स्वरूप भी है। ऐसी उस सिद्धज्योतिका चिन्तन सभी नहीं कर पाते, किन्तु निर्मल ज्ञानके धारक कुछ विशेष योगीजन ही उसका चिन्तन करते हैं ॥ १३ ॥ 'स्याद' शब्दरूप अमृतसे गर्भित आगम (अनेकान्तसिद्धान्त ) रूपी महासमुदमें खान करनेसे जिसकी बुद्धि निर्मल हो चुकी है वही सिद्ध आत्माके रहस्यको जान सकता है । इसलिये उसी सुबुद्धि जीवके लिये जब तक अपने आप किया गया मेद ( संसारी व मुक्त स्वरूप) विद्यमान है तब तक वही सिद्धस्वरूप साक्षात् उपादेय (ग्रहण करने योग्य) होता है । तत्पश्चात् उपर्युक मेबुद्धिके नष्ट हो जानेपर केवल एक निर्विकल्पक शुद्ध आत्मतत्त्व ही प्रतिभासित होता है- उस समय वह उपादान-उपादेय माव भी नष्ट हो जाता है | विशेषार्थ ---- यह भव्य जीव जब अनेकान्तमय परमागमका अभ्यास करता है तब वह विवेकबुद्धिको प्राप्त होकर सिद्धोके यथार्थ स्वरूपको जान लेता है । उस समय यह अपने आपको कर्मकलंकसे लिप्त जानकर उसी सिद्ध स्वरूपको ही उपादेय (प्राय) मानता है । किन्तु जैसे ही उसके स्वरूपाचरण प्रगट होता है वैसे ही उसकी वह संसारी और मुक्त विषयक मेदबुद्धि मी नष्ट हो जाती है- उस समय उसके ध्यान, ध्याता एवं ध्येयका भेद ही नहीं रहता । तब उसे सब प्रकारके विकल्पोंसे रहित एकमात्र १स अतोऽये 'पुनर्न विद्यते प्रमाण मर्यादा यस्य तदभप्रमाणं मीयते प्रमाणीक्रियते मर्यादीभित्यते तत् प्रमाण' लेतावान् पाठोऽधिक: समुपलायसे। २पा पर्यायनयन । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ! -102 16-१७] ८. सिद्धरतुतिः १५३ 500 ) हटिस्तस्वविवः करोत्यधिरतं शुभआत्मरूपे स्थिता शुद्ध तत्पदमेकमुल्वणमतेरन्या चान्यायशम् । स्वतन्मयमेव वस्तु घटित लोहाच मुफ्यार्थिना मुक्त्वा मोहविजृम्भित ननु पथा शुखेन संचर्यताम् ॥ १५॥ 501) निर्वोषश्रुतचक्षुषा षडपि हि द्रव्याणि या सुधी रादसे पिशवं स्वमन्य मिलितं स्वणे यथा पावकः । यः कश्चित् किल निधिनोति रहितः शाओण तत्वं परं सोऽन्धो रूपनिरूपणे हि कुराते प्राप्तो मन शून्यताम् ॥ १६ ॥ 502 ) यो हेयेतरबोधसभृतमतिर्मुशन स हेयं पर तवं सीकुरते तदेव कथितं सिसत्वबीजं जिन। नान्यो मान्तिगतः स्वतोऽय परतो हेये पो ऽर्थे ऽस्य तस् दुष्प्रापं शुचि पर्म येन परमं तमाम संप्राप्यते ॥ १७॥ खरूप न जायते ॥ १४॥ तत्वविदः सम्यम्दष्टेः । उल्यणमतेः अस्कटमतेः। दृष्ठिः प्रतीतिः रुचिः। अविरतं निरन्तरम् । शुद्धात्मरूपे स्थिता। एक शुद्ध तत्पदं मोक्षपदम् । करोति । प पुनः । अन्यत्र अन्यादा मिध्यादृष्टः मिथ्यात्वे रुचिः संसार करोति । स्वर्णात् घटित' पस्तु वोमयं भवेत् लोहात् घटितं वस्तु लोहमयं भवेत् । ननु इति वितर्के । मुख्यार्थिना मोहविम्भित मुत्यो । शुखेन पथा मार्गेण । संचर्यता गम्यताम् ॥ १५ ॥ सुधीः शानवान् । निर्दोषश्रुतचक्षुषा निर्दोषसिदान्तनेत्रेण । षडपि षट् अपि द्रश्याणि । हि यतः । र । स्वम अस्मतन्तः । आरसे गृङ्गाति । किंलक्षणम् आत्मतत्वम् । मन्ममिलितं कर्ममिलितम् । यथा धावकः वर्णम् भादते गृहाति। किल इति सये। सः कन्धित् शाओण रहितः परं तत्वं निश्चनोति प्रहीतुम् इच्छति । स अन्धः रूपनिरूपणं कुरुते । मनःशूत्यता प्राप्तः ॥ १६॥ यः भव्यः । हेयेतरबोधसंभृतमतिः हेयउपादेयतत्वे विचारमतिः स हेयं तत्त्वं मुन्नन् परम् उपादेयं तत्वं खौकरते। जिनः तदेव तवं सिदत्वमी कषितम् । अन्यः न। खतः अप परतः आत्मनः परतः । हेये पदार्थे। परे उपाध्ये पदार्थे । श्रान्तिगतः प्राप्तः । अस्य जीवस्म । तत् वन मार्गम् । शुद्ध आत्मस्वरूप ही प्रतिभासित होता है ॥ १४ ॥ निर्मल बुद्धिको धारण करनेवाले तत्वज्ञ पुरुषकी दृष्टि निरन्तर शुद्ध आत्मस्वरूपमें लित होकर एक मात्र शुद्ध आत्मपद अर्थात् मोक्षपदको करती है। किन्तु मज्ञानी पुरुषकी दृष्टि अशुद्ध आत्मस्वरूप मा पर पदार्थोंमें खित होकर संसारको बढ़ाती है। ठीक हैसुवर्णसे निर्मित वस्तु ( कटक-कुण्डल आदि) सुवर्णमय तथा लोहसे निर्मित वस्तु (छुरी आदि) लोहमय ही होती है । इसीलिये मुमुक्षु जीवको मोहसे वृद्धिको प्राप्त हुए विकल्पसमूहको छोड़कर शुद्ध मोक्षमार्गसे संचार करना चाहिये ॥ १५॥ जिस प्रकार सुनार तांबा आदिसे मिश्रित सुवर्णको देखकर उसमें से तांबा आदिको अलग करके शुद्ध सुवर्णको ग्रहण करता है उसी प्रकार विवेकी पुरुष निर्दोष आगमरूप नेत्रसे छहों द्रव्योंको देखकर उनमेंसे निर्मल आत्मतत्त्वको ग्रहण करता है । जो कोई जीव शास्त्रसे रहित होकर उत्कृष्ट भास्मतत्वका निश्चय करता है वह मूर्ख उस अन्धेके समान है जो कि अन्धा व मनसे ( विवेकसे) रहित होकर भी रूपका अवलोकन करना चाहता है ॥ १६ ॥ जिसकी बुद्धि हेय और उपादेय तत्त्वके ज्ञानसे परिपूर्ण है वह भव्य जीव हेय पदार्थको छोड़कर उपादेयभूत उत्कृष्ट आत्मतत्त्वको स्वीकार करता है, क्योंकि, जिनेन्द्र देवने उसे ही मुक्तिका बीज बतलाया है । इसके विपरीत जो जीव हेय और उपादेय तत्त्वके विषयमें स्वतः अथवा परके उपदेशसे अमको प्राप्त होता है वह उक्त आत्मतत्त्वको स्वीकार नहीं कर पाता है। इसलिये उसके लिये वह निर्मल मोक्षमार्ग दुर्लभ हो जाता है जिसके कि द्वारा वह १जनैः। सवांद स्वगंधवित। मुख। ४४ कुस्ते मनःपन्यता करते सम्पतां प्राप्तः, श कुरुते मन्ये शून्यता कुते धन्यता प्राप्त rrrrrrrornnnnnnnnwune पार्ज... Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ पचनन्दि-पश्चविंशतिः [508184503 ) साझोपामपि भुतं बहुतरे सिखत्वनिष्पत्तये ये ऽम्याथै परिकल्पयति खलु ते निर्वाणमार्गध्युताः। मार्ग चिन्तयतो ऽस्मयेन समतिकम्यापरेण स्फुर्ट निशेष श्रुतमेति तत्र विपुले साक्षाविचारे सति ॥ १८॥ 504) निःशेषभुतसंपदा शमनिराराधनायाः फले प्राप्तानां विषये सदेच मुणिनामस्पैव मुक्कात्मनाम् । उका मतिषशाम्मयाप्यविदुषा या सापि गीः सांप्रत मिणिभवतादमन्तसुखतामाररुक्षोर्मम ॥ १९॥ 505) विश्वं पश्यति वेति शर्म लमते स्वोत्पभमास्यन्तिकं माशोत्पचियुत तथाप्यविसलं मुस्यार्थिनां मामले। एकीभूतमिदं क्सत्यविरत संसारभारोजिमतं शाम्त जीवषमं द्वितीयरहित मुकारमरूपं महः ॥ २० ॥ 506) स्पस्त्वा म्यासनयममाणक्तिी सर्व पुनः कारक, संघर्ष व सथा स्वमित्याहमिति मायान विकल्पामपि । सोंपाधिविवर्जितात्ममि पर शुबैकबोधात्मनि स्थित्वा सिद्धिमुपाभितो विजयते सिवः समृखो गुणैः ॥ २१॥ मोक्ष दुपापम् । शुचि पवित्रम् । येन घमंना मार्गेण । तत् परम धाम मोक्षगृहम् । संप्राप्यते सभ्यते ॥ १७ || ये मूहाः । साहोपाई भूतं महतरे सिद्धस्वनिष्पत्तये। अन्यायम् अन्यमार्गेण । परिकल्पयन्ति विचारयन्ति । खल इति सले। ते मराः। निवांमागताः सन्ति । अन्वयन भरपरायातव्यश्रुतम् । मतफम्य उप अपरेण उन्मतमार्गेण । मार्ग विस्तयत: मुनेः । निःशेष श्रुतम् । एति भागच्छति । क सति । तत्र भावभुते । साक्षात विपुळे विचारे सति ॥ १८॥ मया अपि भविदुषा जडेन । मुजात्मना सिद्धानाम् । विषये। मा मीः पाणी । भफिवशात् । उका कविता । सा गीः दाणी अपि सांप्रतम् । मम मुनेः । निःश्रेणिः भवतात् । किंलक्षणस्य मम । अनन्तसुखतद्धाम आरुरुक्षोः मोक्षगृहमारोदुमिच्छः । पुनः किंलक्षणस्य मम । निःशेषगुप्तसंपदः । पुनः शमनिधेः । फिलक्षणामा सिद्धानाम् । भाराधनायाः फल प्राप्तानाम् । सदेव मुखिनाम् । किलक्षणा वाणी । अल्पा स्तोका ॥१९॥ मुकास्मरूप महः कि पश्यति, विश्वं समस्त वेत्ति । महः खोल्प भास्मोपचमू भात्यन्तिकम् । शर्म मुखम् । लभते। पुनः किलक्षण महः । नाशोत्पत्तियुतं धौव्य-व्यय-उत्पादयुतम् । तथापि । अविचलं शाश्वतम् । मुक्त्यषिनाम् । मानसे पिते। इदं महः । एकीभूतम् अविरतं वसति । पुनः किलक्षणं महः । संसारमारोज्झितं शान्तं जीवधन द्वितीयरहित मुकात्मस्पं महः ॥ २० ॥ सिद्धः विजयसे सिद्धिम् उपात्रितः । गुणैः समृद्धः मृतः । किं कृत्वा । शुद्धोधात्मनि सर्व-उपाधिउत्कृष्ट मोक्षपद प्राप्त किया जाता है।॥ १७ ॥ अंगों और उपांगोंसे सहित बहुत-सा भी भुत (आगम) मुक्तिकी प्राप्तिका साधन है। जो जीव उसकी अन्य सांसारिक कार्येकि लिये कल्पना करते हैं ये मोक्षमार्गसे भ्रष्ट होते हैं । परम्परागत द्रव्य श्रुतका अतिक्रमण करके जो अन्य मार्गसे चिन्तन करता है उसको तद्विषयक महान् विचारके होनेपर साक्षात् समस्त श्रुत प्राप्त होता है ॥ १८॥ जो समस्त श्रुतरूप सम्पत्तिसे सहित और शान्तिके स्थानभूत ऐसे आत्मतत्त्वकी आराधनाके फलको प्राप्त होकर शाश्चतिक सुखको पा चुके है ऐसे उन मुक्तात्माओंके विषयमें मुझ जैसे अल्पज्ञने जो भक्तिवश कुछ थोड़ा-सा कथन किया है वह अनन्त सुखसे परिपूर्ण उस मोक्षरूपी महलके ऊपर आरोहणकी इच्छा करनेवाले ऐसे मेरे लिये निःश्रेणि (नसैनी) के समान होवे ॥ १९ ॥ यह सिद्धात्मारूप तेज विश्वको देखता और जानता है, आत्ममात्रसे उत्पन्न आत्यन्तिक सुखको प्राप्त करता है, नाश व उत्पादसे युक्त होकर भी निश्चल (ध्रुव) है, मुमुक्षु जनोंके हृदयमें एकत्रित होकर निरन्तर रहता है, संसारके भारसे रहित है, शान्त है, सधन आत्मप्रदेशोस्वरूप है, तथा असाधारण है ॥ २० ॥ जो निक्षेप, नय एवं प्रमाणकी अपेक्षासे किये जानेवाले विवरणों; कर्ता १श चाप्यम् । २४ गृहं चटितुमिच्छोः। १क नौल्यउत्पादयुतम्। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ annnnnnnwww -50914 ] ८. सिद्धस्तुतिः 507 ) रेष प्रतिपद्यतेऽत्र रमणीस्वर्णादिवतु मिर्य तत्तिकमहा सदन्तरराशा मन्दैन यश्यते । ये ततस्परसमिसाइपयास्तेवामशेवं पुनः साम्राज्यं तृणषहपुर परपद्रोगाध रोगा इव ॥ २२ ॥ 508) बम्बाले गुपिपनस्त एष भुवने घग्यास्त एष भुष सिवाना स्मृतिगोवरं रुचिवशामामापि यैर्मीयते । ये ध्यायम्ति चुना असताना पुर्णवादी मध्यस्थाः स्थिरनासिकामिमहशस्तेषां किमु महे ॥ २३ ॥ 509) यः सिद्ध परमात्मनि प्रविशतकानकमूर्ती किल. हानी मिययतः स एच सकलपहावतामणी। तर्कण्याकरणादिशात्रसहितः किं तत्र शायर्यतो यद्योग विदधाति वेभ्यविषये तदापमाषर्ण्यते ॥ २४॥ वर्जितात्मनि स्थिस्वा । पुनः किं कृत्वा । न्यासलयप्रमाणविली. त्यावा। पुनः सर्व कारकम् । पुनः संबन्ध स्थल्या। पुनः त्वम् मई इति विकल्पान् । प्रायान् बाहुल्यान(1) । मुत्या ॥ २१ ॥ मत्र लोके । तरेर मौः । रमणीखर्णादिवस्तु । प्रिय मनोहम् । प्रतिपयते मनीक्रियते। येः मन्दैः । तसिदेकमहः । मन्तरपा शामनेोग । न श्यते। किलक्षण महः । सत समीचीनम् । पुनः । ये मुनयः । तत्तत्वरसप्रभिन्नदयाः सिद्धखरूपरसेन मिभहृदयाः। तेषाम् अशेचे साम्राज्य तुणवत् । तेषा भुनीना वपुः परवत् । च पुनः। तेषा भोगाः रोगा इव ॥ २२ ॥ भुवने त्रैलोक्ये ते भव्याः याः । भुवने ते भव्या एष गुणिनः । धुर्व ते एव पन्याः श्लाघ्याः । भव्यैः । छपिक्शात् सिद्धाना नाम मपि' नीयते। ये पुनः। तान् सिदान् । ध्यायन्ति । किलक्षणास्ते । प्रशस्तमनसः । पुनः किलक्षणाः । भूमरीमभ्यस्थाः । स्थिरनासिकाप्रिमशः नेत्राणि येवाम् तेषा' किमु महे॥ २३॥ किल इति सले। यः भव्यः। परमात्मनि विषये शानी स एव मिवयतः सकलप्रशावताम् अप्रणीः गरिधः । विलक्षणे परमात्मनि । सिद्ध। पुनः प्रवितसज्ञानकमतौं। तर्कव्याकरणादिशाबसहितः पुरवः। तत्र आत्मनि सी किम् । न किमपि । यतः । यताणम् । वेष्यविषये मोर्ग विदधाति । सगुणम् आवर्माते । येन वागेन बेग्य आछिम्यते स बाण आदि समस्त कारकों; कारक एवं क्रिया आदिके सम्बन्ध, तथा 'तुम' व 'मैं' इत्यादि विकल्पोंको भी छोड़कर केवल शुद्र पक ज्ञानस्वरूप तथा समस्त उपाधिसे रहित आत्मामें स्थित होकर सिद्धिको प्राप्त हुआ है ऐसा वह अनन्तज्ञानादि गुणोंसे समृद्ध सिद्ध परमेष्ठी जयवन्त होये ॥ २१ ॥ संसारमें जो मूर्ख जन उत्तम आम्यन्तर नेत्र (ज्ञान ) से उस समीचीन सिद्धास्मारूप अद्वितीय तेजको नहीं देखते हैं वे ही यहाँ स्त्री एवं सुवर्ण आदि वस्तुओंको प्रिय मानते हैं। किन्तु जिनका हृदय उस सिद्धात्मारूप रससे परिपूर्ण हो चुका है उनके लिये समस्त साम्राज्य (चक्रवर्तित्व ) तृणके समान तुच्छ प्रतीत होता है, शरीर दूसरेका-सा (अथवा शत्रु जैसा ) प्रतिभासित होता है, तथा भोग रोगके समान जान पड़ते हैं ॥ २२ ॥ बो भव्य जीव भक्तिपूर्वक सिद्धोके नाम मात्रका भी स्मरण करते हैं वे संसारमें निश्चयसे वन्दनीय है, वे ही गुणवान् है, और वे ही प्रशंसाके योग्य हैं । फिर जो सावु जन दुर्ग (दुर्गम स्थान ) अथवा पर्वतकी गुफाके मध्यमें स्थित होकर और नासिकाके अग्रभागपर अपने नेत्रोंको स्थिर करके प्रसन मनसे उन सिद्धोंका ध्यान करते है उनके विषयमें हम क्या कहें ? अर्थात् वे तो अतिशय गुणवान् एवं वन्दनीय हैं ही ॥२३ ।। जो भव्य जीव अतिशय विस्तृत ज्ञानरूप अद्वितीय शरीरके धारक सिद्ध परमात्माके विषयमें ज्ञानवान् है वही निश्चयसे समस्त विद्वानोंमें श्रेष्ठ है। किन्तु जो सिद्धात्मविषयक ज्ञानसे शून्य रहकर न्याय एवं व्याकरण आदि शामोंके जानकार है उनसे यहां कुछ भी प्रयोजन नहीं है। कारण यह कि जो मान्यास ४ नय । प्रमाण २ विपतीः। रसव नास्ति। १ मिन्न। अनि । ५म नेत्रास्तेषां ६'एन' नावि। .अविषक्यो । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [610: २१ । narauraniurn पअनन्दि-पञ्चविंशतिः 510) सिदारमा परमः परं प्रविलसद्वोधः प्रबुदात्मना येनाकायि स किं करोति बहुभिर शासीय हिचिर। सस्य मोहतरोचिपलत्तनुर्भानुः करस्यो भवेत् भवान्तध्यसविधी स किं मृगयते रमपदीपादिकान् ॥ २५ ॥ 511) सर्वत्र व्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सदर्शनाः सपासिलवस्तुजातविषयभ्यासकबोधत्विषः । सर्वध स्फुरदुमतोमतसदानन्दारमका मिश्मलाः सर्वश्रेष निराकुलाः शिवमुखं लिशा प्रयच्छन्तु नः ॥ २६ ॥ 512 ) आत्मोतुग्रहं प्रसिद्धपहियायामप्रभेदक्षणे महात्माम्यवसामसंगतलसस्सोपानशोभाम्वितम् । तत्रामा विभुरात्मनात्ममुहवो इस्तावलम्बी समा. बधानन्दकलषसंगतभुवं सिद्यः सदा मोदते ॥ २७ ॥ भावपते ॥२४॥येन मुमिना प्रकारमना । पर [परमः] श्रेष्ठ । सियास्मा । मज्ञायि हातः। किंलक्षणः परमात्मा । प्रविलसद्वोधः। सझानान् बहुभिः बहिर्वाचकैः शालेः किं करोति। यस्य पुंसः। ध्वान्तवसविधौ करस्थः भानुः सूर्यः भवेत् सकि रमप्रदीपादिकान् मृगपठे यसो यते। अमिनाया। कानु: शतरोचिषज्वलतनुः ॥ २५॥ सिद्धाः । मः अस्मभ्यम् । शिवमुखं प्रयच्छन्तु ददतु । किंलक्षणाः सिद्धाः । सर्वत्र च्युतकर्मबन्धनतया सर्वत्र सहर्शनाः केवलदर्शनाः । पुगः किंलक्षणाः सिद्धाः। सर्वत्र अखिलवस्तुजातविषयष्यासक्रवोधत्विषः सर्वपदार्थसमूहगोचराः आससंज्ञानवीतयः । पुनः किलक्षणाः सिद्धाः। सर्वत्र स्फुरदुमतोणतसत्-बानन्दात्मकाः । निश्चलाः । पुनः किसक्षणाः सिद्धाः । निराकुलाः । एवंभूताः सिखाः सुख वदतु ॥ २६ ॥ सिद्धा सहा मोदते । आत्मा। विभुः राजा । तत्र भात्मोतु गृह समाख्य मोदते। किलक्षणं गृहम् । लक्ष्यके विषयमें सम्बन्धको करता है वही बाण कहा जाता है । विशेषार्थ—जो माण अपने लक्ष्यका वेधन करता है वही बाण प्रशंसनीय माना जाता है, किन्तु जो बाण अपने लक्ष्यके वेधनेमें असमर्थ रहता है वह वास्तव वाण कहलानेके योग्य नहीं है। इसी प्रकार जो भव्य जीव प्रयोजनीभूत आत्मतत्त्वके विषयमें जानकारी रखते हैं वे ही वास्तवमें प्रशंसनीय हैं । इसके विपरीत जो न्याय, व्याकरण एवं ज्योतिष आदि अनेक विषयों के प्रकाण्ड विद्वान् होकर भी यदि प्रयोजनीभूत आत्मतत्त्वके विषयमें अज्ञानी हैं तो वे निन्दाके पात्र हैं । कारण यह कि आत्मज्ञानके विना जीवका कभी कल्याण नहीं हो सकता । यही कारण है कि व्यलिंगी मुनि बारह अंगोंके पाठी होकर भी भव्यसेनके समान संसारमें परिश्रमण करते हैं तथा इसके विपरीत शिवमति (भावनामृत ५२-५३) मुनि जैसे भव्य प्राणी केवल तुष-माषके समान आत्मपरविवेकसे ही संसारसे मुक्त हो जाते हैं ॥ २४ ॥ जिस विवेकी पुरुषने सम्यग्ज्ञानसे विभूषित केवल उत्कृष्ट सिद्ध आत्माका परिज्ञान प्राप्त कर लिया है वह वास पदार्थोका विवेचन करनेवाले बहुत शास्त्रों से क्या करता है। अर्थात् उसे इनसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहता । ठीक ही है-जिसके हाथमें किरणों के उदयसे संयुक्त उज्वल शरीरवाला सूर्य स्थित होता है वह क्या अन्धकारको नष्ट करनेके लिये रलके दीपक आदिको खोजता है। अर्थात् नहीं खोजता है ॥२५ ।। जो सिद्ध जीव समस्त आत्मप्रदेशोंमें कर्मचन्धनसे रहित हो जानेके कारण सब आत्मप्रदेशोंमें व्याप्त समीचीन दर्शनसे सहित हैं, जिनकी समस्त वस्तुसमूहको विषय करनेवाळी ज्ञानज्योतिका प्रसार सर्वत्र हो रहा है अर्थात् जो सर्वज्ञ हो चुके हैं, जो सर्वत्र प्रकाशमान शाश्वतिक अनन्त सुखस्वरूप हैं, तथा जो सर्वत्र ही निश्चल एवं निराकुल हैं; ऐसे वे सिद्ध हमें मोक्षसुख प्रदान करें ॥ २६ ॥ जो आत्मारूपी उन्नत भवन प्रसिद्ध बहिरात्मा आदि भेदोंरूप खण्डों ( मंजिलों) से सहित तथा बहुत-सी आत्माके परिणामोंरूप सुन्दर सीढ़ियोंकी शोभासे संयुक्त है उसमें आत्मारूप मित्रके हाथका १ क श्रेष्ठं। १ भानु भवेत् । ३ क समूहः गोचर आसक, मप्रतौ तु शुटित-जात पत्रमत्र। ४ सुनतउन्नतोन्नत । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 514 : ८-१९ ] ८. सिद्धस्तुतिः 513 ) सबैका सुगतिस्तदेव च सुखं ते एव ग्बोधने सिद्धानामपरं यदस्ति सकलं तन्मे प्रियं नेतरत् । इत्यालोच्य दृढं त एव च मया चिते धृताः सर्वदा तदूपं परमं प्रयातुमनसा हित्वा भयं भीषणम् ॥ २८ ॥ 514 ) से सिद्धाः परहिं विधायासमा महि मायो चच्मि यदेव तरखलु नमस्यालेस्यमालिष्यते । नामापि मुद्दे स्मृतं तत इतो भक्त्याथ वाचालितस्तेषां स्तोत्रमिवं तथापि कृतवानम्भोजनम्दी मुनिः ॥ २९ ॥ १५७ प्रसिद्ध बहिरात्मा-अन्तरारमा-परमात्माप्रभेदलक्षणम् । पुनः किंलक्षणम् आत्मगृहम् । बहु-आत्म-अध्यवसानसंगतलसल्सोपानशोभातिम् । किंलक्षणः आत्मा 1 विभुः । आत्मसुहृदः परमात्मना । हस्तावलम्बी । सिद्ध: निष्पन्नः । आनन्दकला संगतभुवं परमानन्दम् | सदा मोदते ॥ २७ ॥ सा एका सुगतिः । च पुनः । तदेव सुखम्। ते द्वे एव हम्बोधने । सिद्धानां यत् अपरं गुणम् (?) अस्ति । मे मम । तत्सकले प्रियम् इष्टम् । इतरत् अन्यत् । इष्टं न । इति मालोच्य विचार्य । ते एव सिद्धाः । या सर्वदा चित्ते धृताः । भीषणं भवं संसारं हित्वा परं तद्रूपं मनसा कृत्वा प्रयातु प्राप्नोतु ॥ २८ ॥ वे सिद्धाः वाचा विषया गोचराः न । किंलक्षण|ः सिद्धाः । परमेष्ठिनः । अतः कारणात् । तान् सिद्धान् प्रति । प्रायः बाहुल्येन । यवेव वच्मि तत्खलु । नमसि आकाशे । आलेख्यं चित्रम् । आलिख्यते । तथापि । अम्भोजनन्दी मुनिः पद्मनन्दी मुनिः । तेषां सिद्धानाम् । इदं स्तोत्रं कृतवान् । नामापि तेषां सिद्धानां नामापि । मुद्दे हर्षाय । स्मृतं कथितम् । ततस्तस्माद्वैतोः । अथ भक्ला करवा । इतः वाचकत्वात् वाचालितः । पद्मनन्त्री मुनिः इदं स्तोत्रं कृतवान् ॥ २९ ॥ इति सिद्धस्तुतिः ॥ ८ ॥ - आश्रय लेनेवाला यह आत्मारूप राजा आनन्दरूप स्त्रीसे अधिष्ठित पृथिवीपर चढ़कर मुक्त होता हुआ सदा आनन्दित रहता है || विशेषार्थ - जिस प्रकार अनेक सीढ़ियों से सुशोभित पांच-सात खण्डोंवाले भवनमें मनुष्य किसी मित्रके हाथका सहारा लेकर उन सीढ़ियों ( पायरियों ) आश्रयसे अनायास ही ऊपर अभीष्ट स्थान में पहुंचकर आनन्दको प्राप्त होता है उसी प्रकार यह जीव अधःप्रवृत्तकरणादि परिणामरूप सीढ़ियों पर से बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मारूप तीन खण्डोंवाले आत्मारूप भवनमें स्थित होता हुआ अपने आत्मारूप मित्रका हस्तावलम्बन लेकर ( आत्मलीन होकर ) शाश्वतिक सुखसे संयुक्त उस सिद्धक्षेत्र में पहुंच जाता है जहां वह अनन्त काल तक अबाध मुखको भोगता है ॥ २७ ॥ सिद्धोंकी जो गति है वही एक उत्तम गति है। उनका जो सुख है वही एक उत्तम सुख है। उनके जो ज्ञान दर्शन हैं वे ही यथार्थ ज्ञान-दर्शन हैं, तथा और भी जो कुछ सिद्धोंका है वह सब मुझको प्रिय है । इसको छोड़कर और दूसरा कुछ भी मुझे प्रिय नहीं है । इस प्रकार विचार करते हुए मैंने भयानक संसारको छोड़कर और उन सिद्धों के उत्कृष्ट स्वरूपकी प्राप्तिमें मन लगाकर अपने चिचमें निरन्तर उन सिद्धों को ही हड़ता पूर्वक धारण किया है । ॥ २८ ॥ वे सिद्ध परमेष्ठी चूंकि वचनोंके विषय नहीं हैं अत एव प्रायः उनको लक्ष्य करके जो कुछ भी मैं कह रहा हूं यह आकाशमें चित्रलेखनके समान है। फिर भी चूंकि उनके नाम मात्रका स्मरण भी आनन्दको उत्पन्न करता है, अत एव भक्तिवश वाचालित ( वकवादी ) होकर मैंने पद्मनन्दी मुनिने उनके इस स्तोत्रको किया है || २९ || इस प्रकार सिद्धस्तुति समाप्त हुई ॥ ८ ॥ १ ब सिद्धोः । २ क विभुः राजा आम । ३ म क निः सदा । ४ श चित्रामं । ५ तथा । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [.. आलोचना] 525) मानिमियन्समा हवं मनो गाहते स्वनामस्मृतिलक्षणो यदि महामन्त्रो ऽस्त्यनन्तप्रभः । पाम च त्रितयात्मके यदि भवेन्मार्ग भवदर्शिते को लोके ऽत्र सतामभीरविषये विनो जिनेश प्रभो ॥१॥ 516 ) निःसंगत्वमागिताय समता कर्मक्षयो बोधनं । विश्वव्यापि सम शा तवतुलानन्देन वीर्येण च । ईग्देव तवैव संसृतिपरित्यागाय जातः क्रमः शुबस्तेन सवा सवयरणयोः सेवा सतां संमता ॥ २॥ 517) पचेतस्य हढा मम स्थितिरभूस्वरसेवया निश्चित त्रैलोक्पेश पलीयसो ऽपि हि कुतः संसारशनोभयम् । प्राप्तस्यामृतवर्षहर्षजानकं सत्रधारागृई पुंसा कि कुरुते शुचौ खरतरो मध्याह्नकालासपः ॥ ३॥ मो जिनेश । भो प्रभो। यदि चेत् । सता साधूनाम् । मनः । भवन्तम् । अमले निर्मलम् । तत्वम् आनन्दनिधिम् । गारे विचारयति। यदि चेत् । त्वमामस्मृतिलक्षणः तव नामस्मरणलक्षणः । अनन्तप्रमः महामन्त्रः अस्ति। च पुनः । यदि चेत् । भवदर्शिसे। पितयात्मके मार्गे रजत्रयमार्गे। याने गमनम्। अखि तदा । अत्र लोके। सता साधनाम् । अभीष्टविको कल्याणविषये। विनः अपि तु न कोऽपि विनः ॥1॥ भो देव । संहतिपरित्यागाय संसारनाशाय 1 ईरक शुद्धः । क्रमः मार्गः तवैव । जातः उत्पन्नः । तदेव दर्शयति । निःसंगरवं अपरिग्रहत्यम् । भय अरागिता निनी]रागत्वम् । समता । कर्मक्षयः । विश्वव्यापि पोधनं शानम् । व पुनः । तत् शानम् । अतुल-बानन्देन पौर्येण । दशा केवलदर्शनेन । समं साधम् । तेन कारणेन । सती साधूनाम् । सवा काले। भवचरणयोः तव चरणयोः । सेवा संमता कभिता ।। २ ॥ भो त्रैलोक्येश। प्रत्यक्षवर्तमानस्य मम वत्सेवया दबा स्थितिः अभूत् निखितम् । तदा संसारशत्रोः । बलीयसः गरिमुख । अपि।हि यतः। भये कुतः कमायति । अमृतवर्षगेन हर्षजनकम् उत्पादकम् । सरसमीचीनम् । यधारारह प्राप्त पुंसः पुरुषस्य । शुचौ ज्येष्ठापा । सरसरः अतिशयेन सीक्ष्णः । मध्याकालातपः किं कुरुते । भमि तु किमपि न कुरुते ॥३॥ हे जिनेन्द्र देव । यदि साघु जनोंका मन आनन्द के स्थानभूत निर्मल आपके स्वरूपका अवगाइन करता है, यदि अनन्त दीप्तिसे सम्पन्न आपके नामका सरणरूप महामंत्र पासमें है, और यदि आपके द्वारा दिखलाये गये रखत्रयस्वरूप मोक्षमार्गमें गमन है। तो फिर यहां लोकमें उन साधु जनोंको अपने अभीष्ट विषयमें विघ्न कौन-सा हो सकता है ! अर्थात् उनके लिये अभीष्ट विषयमें कोई भी बाधा उपस्थित नहीं होती॥१॥ हे देव ! परिग्रहत्याग, वीतरागता, समता, कर्मका क्षय, केवलदर्शनके साथ समस्त पदार्थोको एक साथ विषय करनेवाला ज्ञान (केवलज्ञान ), अनन्तसुख और अनन्तवीर्यः इस प्रकारकी यह विशुद्ध प्रवृति संसारसे मुक्त होनेके लिये आपकी ही हुई है। इसीलिये साधु जनोंको सदा आपके चरणोंकी आराधना अभीष्ट है ।। २ ॥ हे त्रिलोकीनाथ ! यदि आपकी आराधनासे निश्चयतः मेरी ऐसी हद स्थिति हो गई है तो फिर मुझे अतिशय बलवान् मी संसाररूप शत्रुसे मय क्यों होगा ! अर्थात् नहीं होगा। ठीक है---अमृतवर्षासे हर्षको उत्पन्न करनेवाले ऐसे उत्तम यत्रधारागृह (फुब्बारोंसे युक्त गृह) को प्राप्त हुए पुरुषको क्या प्रीष्म ऋतु मध्याहकालीन सूर्यका अत्यन्त तीक्ष्ण भी सन्ताप दुःखी कर सकता है ! अर्थात् नहीं का शमता । २ मा मम तसं। २ नपारण के रखनामागें। 'निरागत्व नास्ति । ५.सव परणयोः नास्ति । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -520-९-] १५९ ९. भागोवा 518) या कसिभिपुणो जगायगतानर्थानशेषांखिरं सारासार विवेचनकमनसा मीमांसते मिस्तुषम् । तस्य त्वं परमेक एष भगवन् सारोशलाई पर सर्वे मे भवदाश्रितस्य महती तेनामवभितिः ॥ ४॥ 519) शानं दर्शनमयशेषविषय सोस्य तथास्यन्तिक वीर्य व प्रभुता व निर्मलतरा रूपं स्वकीयं तव । सम्यग्योगहशा जिनेश्वर चिरानोपलम्धे स्वपि सातं किं न विलोकितं न किमाथ प्राप्तं न कि योगिभिः ॥ ५॥ 520) त्वामेकं निजगत्पति परमह मन्ये जिन स्वामिन त्वामेकं प्रणमामि चेतसि षे सेवे स्तुवे सर्वदा । स्वामेकं शरणं गतोऽसि बाहुना प्रोकन किंचिके विस्थं तवतु प्रयोजनमतो नाम्येन मे कैनचित् ॥ ६॥ वः कश्चित् । निपुणः चतुरः । जगनयगतान प्राप्तान अशेषान् अर्थान् । सारासार विवेचनैकमनसा फुला । चिर पहुकालम् । निस्तुषं परिपूर्णम् । मीमांसते विचारयति । तस्य विचारपुरुषस्य । परमम् एकः त्वमेव सारः प्रतिभासते[स]1 मो भगवन् । हि यतः। पर सर्वम् असारे प्रतिभासते । तेन कारणेन भववाश्रितस्य । मे मम । महती गरिष्ठा। नितिः सुखम् । अमवत् ॥ ४॥ भो जिनेश्वर । तब अशेषविषयं समस्तगोचरम् । ज्ञान दर्शनम् अपि वर्तते तथा बास्यन्तिक सौख्यम् । च पुनः । वीर्य वर्तते। मो जिनेश्वर । तव निर्मलतरा प्रभुता वर्तते । तव खकीय रूपं वर्तते । भो जिनेश्वर । तेन सम्यम्योगशा सम्यायोगनेत्रण । चिरात् रहुकालेन । त्वयि उपसमधे सति योगिभिः किं न ज्ञातम् । अथ किं न क्लिोकितम् । अथ योगिभिः किम प्राप्तम् । अपितु सर्व ज्ञातं सर्व विलोकित सर्व प्राप्तम् ॥ ५॥ अहं त्वाम् एकं त्रिजगत्पतिम् । पर श्रेष्ठम् । जि मन्ये । त्वाम् एकम् । सदा प्रणमामि । त्वाम् एक चेतसि दधे धारयामि । भो जिनेश । त्याम् एक सेवे। स्वामेकं सर्वदा स्तुचे। त्याम् एकं शरणं गतोऽस्मि प्राप्तोऽस्मि । बहुना प्रोकेन किम् । इत्य किंपिके तवतु। अतः कारणात् । मे मम । अन्येन कर सकता ॥ ३ ॥ हे भगवन् ! जो कोई चतुर पुरुष सार व असार पदाओंका विवेचन करनेवाले असाधारण मनके द्वारा निर्दोष रीतिसे तीनों लोकोंके समस्त पदार्थोका बहुत काल तक विचार करता है उसके लिये केवल एक आप ही सारभूत तथा अन्य सब असारभूत हैं। इसीलिये आपकी शरणमें प्राप्त हुए मुझको महान् आनन्द प्राप्त होता है ॥ ४ ॥ हे जिनेश्वर ! आपका ज्ञान और दर्शन समस्त पदार्थोंको विषय करनेवाला है, सुख और वीर्य आपका अनन्त है, तथा आपका प्रभुत्व अतिशय निर्मल है। इस प्रकारका आपका निज स्वरूप है । इसलिये जिन योगी जनोंने समीचीन व्यानरूप नेत्रके द्वारा चिर कालमें आपको प्राप्त कर लिया है उन्होंने क्या नहीं जाना, क्या नहीं देखा, तथा क्या नहीं प्राप्त कर लिया ! अर्थात् एक मात्र आपके जान लेनेसे उन्होंने सब कुछ जान लिया, देख लिया और प्राप्त कर लिया है ॥ ५॥ मैं एक तुमको ही तीनों लोकोका स्वामी, उत्कृष्ट, जिन और प्रभु मानता हूं । मैं एक तुमको ही सर्वदा नमस्कार करता हूं, तुमको ही चित्तमें धारण करता हूं, तुम्हारी ही सेवा करता हूं, तुम्हारी ही स्तुति करता हूं, तथा एक तुम्हारी ही शरणमें प्राप्त हुआ हूं। बहुत कहनेसे क्या लाभ है ! इस प्रकारसे जो कुछ प्रयोजन सिद्ध हो सकता है वह होवे। मुझे आपके सिवाय अन्य किसीसे भी प्रयोजन नहीं है ॥ ६ ॥ अझपक। २सनितिः समवर,म-प्रतौटितं मातं पश्यत्रा क"किम् नास्ति। Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० पद्मनन्दि पचविंशति 521 ) पापं कारितवान् यदत्र कृतवानन्यैः कृतं साध्विति भ्राम्याई प्रतिपwषांश्च मनसा वाचा व कायेन च । काले संप्रति यच भाविनि नवस्थामोहूतं यत्पुनस्तन्मिथ्यासिलमस्तु मे जिनसे स्वं निम्सस्ते पुरः ॥ ७ ॥ 522 ) लोकालोकमनस्तपर्यययुतं कालत्रयीगोचरं स्वं जानासि जिनेन्द्र पश्यसि तरी शश्वत्समं सर्वतः । स्वामिन वेत्सि ममैषजन्मजनितं दोषं न किंचित्कुतो हेसोले पुरतः स वाक्य इति मे शुद्ध्यर्थमालोचितुम् ॥ ८ ॥ 528 ) भित्य व्यवहारमार्गमथ वा मूलोत्तराक्यान् गुणान् साधोर्धारयतो मम स्मृतिपथप्रस्थाचि यहणम् । प तदपि प्रभो तव पुरः सजो हमाोचितुं निःशल्यं हृदयं विधेयमन्यैर्थतः सर्वथा ॥ ९ ॥ [ 521 :-- केनचित् प्रयोजनं कार्य न ॥ ६ ॥ भो जिनपते । अहं सेवकः । भत्र लोके । यत्पार्प कारितवान् । यत्पापम् अहं कृतवान् अन्यैः कृतं पार्थ भ्रान्त्या साधु इति प्रतिपन्नवान् अङ्गीकृतम् । च पुनः । मनसा मनोयोगेम। वो बाया बच्चोयोगेन । कायेन काययोगेन । पापम् अत्रीकृतम् । यत्राव संप्रति पचमकाले । नवस्थानात् उत्तम् खन्नम् । यत्पापं भाविनि । आगामिकाळे भविष्यति । भो जिनसे तद् अखिलं समस्तम् । मे मम पापम् । मिध्या अस्तु । किंलक्षणस्य मम । ते तव । पुरः । स्वम् आत्मानं निन्दतः ॥ ७ ॥ भो जिनेन्द्र । त्वं लोकम् अलोकम् । शश्वत् अनवरतम् । समं युगपत् । सर्वतः । तराम् अतिशयेन । जानासि पश्यसि । किंलक्षणं लोकालोक्रम्। अनन्तपर्यययुतम् पुनः कालत्रयगोचरम् । भो स्वामिन् । मम एकजन्मजनितम् उत्पन्नं दोषं किंचित्कुतो हेतोः । न वेत्सि न जानासि । स दोषः ते तव सर्वज्ञस्य पुरतः अग्रतः । वाच्यः कथनीयः । इति हेतोः । इतीति' किम् । मे मम । शुस्यर्थम् आलोचितुम् ॥ ८ ॥ अथवा व्यवहारमार्गम् आश्रित्य । साधोः मुनीश्वरस्य । मूलगुण-उत्तरगुणान् धारयतो मम । यर्ते स्मृतिपथं प्रस्थायि स्मर्यमाणमपि । दूषणम्। हे प्रभो । श्रई पर्य तदपि । तब पुरः भमतः । आलोचितुम्। सः सावधानो जातः। यतः । अजडेः चतुरैः भव्यैः सर्वा हृदये 1 हे जिनेन्द्र देव ! मन, वचन और कायसे मैंने यहां जो कुछ भी अज्ञानतावश पाप किया है, अन्यके द्वारा कराया है, तथा दूसरोंके द्वारा किये जानेपर 'अच्छा किया' इस प्रकारसे खीकार किया है अर्थात् अनुमोदना की है; इसके अतिरिक्त इन्हीं नौ स्थानों ( १ मनःकृत, २ मनः कारित, ३ मनोऽनुमोदित, ४ वचनकृत, ५ वचनकारित, ६ वचनानुमोदित, ७ कायकृत, ८ कायकारित और ९ कायानुमोदित ) के द्वारा और भी जो पाप वर्तमान कालमें किया जा रहा है तथा भविष्य में किया जावेगा वह सब मेरा पाप तुम्हारे सामने आत्मनिन्दा करनेसे मिथ्या होवे || ७ || हे जिनेन्द्र | तुम त्रिकालवर्ती अनन्त पर्यायोंसे सहित लोक एवं अलोकको सदा सब ओरसे युगपत् जानते और देखते हो । फिर हे स्वामिन् ! तुम मेरे एक जन्ममें उत्पन्न दोषको किस कारणसे नहीं जानते हो ? अर्थात् अवश्य जानते हो । फिर भी मैं आलोचनापूर्वक आत्मशुद्धिके लिये उक्त दोषको आपके सामने प्रगट करता हूं ॥ ८ ॥ व्यवहार मार्गका आश्रय करके अथवा मूल एवं उत्तर गुणोंको धारण करनेवाले मुझ साधुको जो दूषण सारणमें आ रहा है उसकी भी शुद्धिके लिये हे प्रभो ! मैं आपके आगे आलोचना करनेके लिये उचल हुआ हूं। कारण यह कि विवेकी भव्य जीवोंको सब प्रकारसे अपने हृदयको शल्यरहित करना चाहिये ॥ ९ ॥ १का 'या' नास्ति । २ इति । भया 1 ४ 'पद' नाखि 1 Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mprapannamro -527:९-१३] ९. मालोचना 524) सर्वो ऽन्यत्र मुहुर्मुनिपते लोकैरसंव्यर्मित न्यकाव्यकविकस्पजालकलिता प्राणी भवेत् संखती । तत्तापरियं सदेव निधितो दोपैर्षिकरूपानुगः प्रायवित्तमियत् कुतः भुतगत शुद्धिर्मवस्तानियो । १० ॥ 525 ) भाषातःकरणेन्द्रियाणि विधिवत्संहस्य बाजाश्रया देकीकस्य पुनस्स्पया सह शुचिहानकसम्मूर्तिना। मिसंगः श्रुतसारसंगसमतिः शासो रहा प्राप्तवान् यस्व देष समीझते स लभते पम्यो भवत्सनिधिम् ॥ ११ ॥ 526 ) त्यामासाथ पुराहतेन महता पुण्येन पूज्य प्रभु प्रझायेरपि यत्पदं न सुलभ तलभ्यते मिसितम् । भाईचाय परं करोमि किम घेतो भवत्सनिषा पचापि श्रियमाणमप्यतितरामेताविति ॥ १२॥ 587) संसा पपुसद निर्वाणमेतकते स्वक्वार्यादि तपोवनं वयमितास्तत्रोजिनतः संशयः । निःशल्य विधे सस्मरहित इदन करणीयम् ॥ ९ ॥ भो जिनपते । मन्त्र लोके स्मृतौ । सौः अपि । प्राची जीवः । मुहुमुई वारंवारम् । बरुपैसोंके संख्यारहितः भोकप्रमाणैः । मित-प्रमितव्यय-श्रव्यषिकल्पनाले कलितः भवेत् । तामाकारणात् । ममं प्राणी । तादिः प्रमाणेः । दोषैः । सदैव निषितः मतः । किंलक्षणेः दोषैः । विकल्पानुगैः। यत्प्रायबित कुतः मुतगतम् । अपि तु म । तेषां दोषाणां भवत्संनिधः शरिः ॥ १॥ भो देव । यः त्वाम् । समीक्षते पत्यति । स धन्यः । भवस्वविधि समयः । निःसंगः परिग्रहरहितः । पुनः भूतसारसंगतमतिः। पुनः शान्तः । पुनः रह एकान्वें। प्राप्तन् । किसुरमा।बाबाश्रयात् बायपदार्थोस् । मावान्तःकरणेन्द्रियाणि विधिवत् सत्य इन्द्रियमनोव्यापारावि राम्] संकोच्य । पुनः स्त्रया सह एकीकृत्य । किंलक्षणेम स्वया। शुम्मिशानेकसन्मूर्तिना ॥ ११॥ भो बईन् । भो माया पुरातन महता पुण्येन । स्वामू । मासाद्य प्राप्य । निक्षित तत्पर पद लभ्यते प्राप्यते यत्पदं ब्रह्माघेरपि सुलभ न । फिलण श्वाम् । पूज्यं प्रभुम् । अई किरोमि । एततः भद्यापि । भवरसंनिधौ तव समीपे । ध्रियमाणमपि । भतितराम अतिशयेन 1 बहिः पाये । धावति ॥ १२ ॥ संसारः बहुःसादः । सुम्नपद निर्वाणम् । एतस्कृते निर्माणको कारणाय । पपम् नादि स्वक्त्या है जिनेन्द्र देव ! यहाँ संसारमें सब ही प्राणी वार वार असंख्यात लोक प्रमाण स्पष्ट और अस्पष्ट विकल्यों के समूहसे संयुक्त होते हैं । तथा उक्त विकल्पोंके अनुसार ये प्राणी निरन्तर उतने ( असंख्यात लोक प्रमाण) ही दोषोंसे व्याप्त होते हैं । इतना प्रायश्चित्त भला आगमानुसार कहांसे हो सकता है ! अर्थात् नहीं हो सकता । अत एव उन दोषोंकी शुद्धि आपके संविधान अथवा आराधनसे होती है ॥ १० ॥ हे देव । जो भव्य जीव भाव मन और मावेन्द्रियोंको नियमानुसार चाय वस्तुओंकी ओरसे हटाकर तथा निर्मल एवं ज्ञानरूप अद्वितीय उत्तम मूर्तिके धारक आपके साथ एकमेक करके परिग्रहरहित, आगमके रहस्यका ज्ञाता, शान्त और एकान्त स्थानको प्राप्त होता हुआ आपको देखता है वह प्रशंसनीय है। वही आपकी समीपताको प्राप्त करता है ।। ११ ॥ हे अरहंत देव । पूर्वकृत महान् पुण्यके उदयसे पूजनेके योग्य आप जैसे स्वामीको पा करके जो पद ब्रह्मा आदिके लिये भी दुर्लभ है वह निश्चित ही प्राप्त किया जा सकता है । परन्तु हे नाथ । मैं क्या करूं? आपके संनिधानमें बलपूर्वक लगानेपर मी यह चित्त आज भी बाम पदार्थोकी ओर दौड़ता है ॥ १२ ॥ संसार बहुत दुःखदायक है, परन्तु मोक्ष सुखका स्थान है । इस मोक्षको प्राप्त करनेके कर समीक्ष्यते। २६ दोषैः बिकल्पानुगैः सदैव निचितः भृतः श्ययायधिन। मकश समीक्ष्यते। ४सयकां। ५ श भावान्तःकरणानि । म निश्चितं परं पदं । पानं. ११ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ पचनन्दि पश्चविंशतिः एतसादापे दुष्करमधिना सिद्भिर्यसो पातालीतरलीकृत दलमिव भ्राम्यत्यदो मानसम् ॥ १३ ॥ 528) झपाः कुर्वदितस्ततः परिलसद्वाह्मार्थकामाइकनित्यं व्याकुलतां परों गतवतः कार्य विनाप्यात्मनः । प्रामं वासयदिन्द्रियं मवकृतो दूरं सुहृत् कर्मणाः क्षेमं तावदिहास्ति कुष यमिनो यावन्ममो जीवति ॥ १४ ॥ 529 ) नूनं मृत्युमुपैति यातममलं त्वां शुद्धबोधात्मकं त्यतस्तेन वहि श्रमत्यविरतं घेतो विकल्पाकुलम् । स्वामिन् किं क्रियते ऽत्र मोहवशतो मृत्योर्ते भी कस्य तत् सर्वानर्थपरंपरावहितो मोहः स मे धार्यताम् ॥ १५ ॥ (527:9-17 तपोवनम् इताः प्राप्ताः । तत्र तपोवने । संशयः उज्झितः यतः । एतस्मादपि दुष्करमतविषेः सकाशात् सिद्धिः अद्यापि न । यतः अदा मानसं भ्राम्यति । कमिव । दलमिव पत्रमिव । किंलक्षणं दलम् । बातालीतरलीकृतं वातानाम् आली पङ्क्तिः तथा चलीकृतम्॥१३॥ इह लोके । यमिनः सुनेः । यावन्मनः यावत्कालं मनः जीवति तावत्कालं क्षेमं कुत्र अस्ति । मनः किं कुर्वत् । इतस्ततः सम्पाः कुर्वत् । पुनः किं कुर्वत्। बाह्य-अर्थलाभात् परिलसत् । पुनः किं कुर्यत् । नित्यं परी व्याकुलतां ददत् । आत्मनः कार्यं विनापि । किंलक्षणस्य आत्मन: । गतवतः ज्ञानयुक्तस्य । पुनः इन्द्रियं प्राम वासमषकृतः कर्मणः । दूरम् अतिशयेन युहृत् मित्रम् । एवंभूतस्य मुनेः मनः यावत्कालं जीवति तावत्क्षेमं कुत्र । अपि तुम || १४ || ३ स्वामिन् । भो श्री अईन् । चेतः मनः । अमलं निर्मलम् । शुद्धबोधात्मकं त्वाम् । यातं प्राप्तम् । नूनं निधितम् । मृत्युम् उपैति गच्छति । किंलक्षणं मनः विकल्पेन आकुलम् । तेन कारणेन । अविरतं निरन्तरम् । त्वत्तः सर्वज्ञतः । लिये हम धन-सम्पति आदिको छोड़कर तपोवनको प्राप्त हुए हैं और उसके विषयमें हमने सब प्रकार के सन्देह को भी छोड़ दिया है । किन्तु इस कठिन व्रतविधान भी अभी तक सिद्धि प्राप्त नहीं हुई। इसका कारण यह है कि वायुसमूह के द्वारा चंचल किये गये पत्ते के समान यह मन श्रमको प्राप्त हो रहा है || १३ || ओ मन इधर उधर सपाटा लगाता है, बाझ पदार्थोके लाभसे हर्षित होता है, विना किसी प्रयोजनके ही निरन्तर ज्ञानमय आत्माको अतिशय व्याकुल करता है, इन्द्रियसमूहको वासित करता है, तथा संसारके कारणीभूत कर्मका परम मित्र है; ऐसा वह मन जब तक जीवित है तब तक यहां संयमीका कल्याण कहांसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता || विशेषार्थ - इसका अभिप्राय यह है कि जब तक मन शान्त नहीं होता तब तक संयमका परिपालन करनेपर भी कभी आत्मका कल्याण नहीं हो सकता है । कारण यह कि मनकी अस्थिरतासे बाद दृष्टानिष्ट पदार्थोंमें राग-द्वेषकी प्रवृत्ति बनी रहती है, और जब तक राग-द्वेषका परिणमन है तब तक कर्मका बन्ध भी अनिवार्य है। तथा जब तक नवीन नवीन कर्मका बन्ध होता रहेगा तब तक दुःखमय इस जन्म मरणरूप संसारकी परम्परा भी चालू ही रहेगी । इस अवस्था में आत्माको कभी शान्तिका लाभ नहीं हो सकता है । अत एव आत्मकल्याणकी इच्छा करनेवाले भव्य जीवको सर्वप्रथम अपने चंचल मनको वशमें करना चाहिये । मनके वशीभूत हो जानेपर उसके इशारेपर प्रवृत्त होनेवाली इन्द्रियां स्वयमेव बशंगत हो जाती हैं। तब ऐसी अवस्थामें बन्धका अभाव हो जानेसे मोक्ष भी कुछ दूर नहीं रहता ॥ १४ ॥ हे स्वामिन् | यह चित्त निर्मल एवं शुद्ध चैतन्यस्वरूप आपको प्राप्त होता हुआ निश्वयसे मृत्युको प्राप्त हो जाता है । इसीलिये वह विकल्पोंसे व्याकुल होता हुआ आपकी ओरसे हटकर निरन्तर बाह्य पदार्थों में ९ श मुनेः मनः यावत्कालं जीवति । २ का Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -5821१-१८] आलोचना 530 ) सर्वेषामपि कर्मणामतितरा मोहोरलीयानसौ पसे पश्चलतो पिमेति व मृतेस्तस्य प्रभावाम्मनः। नो जीवति को नियेत क इह इन्यस्वता सपैदा नानात्वं जगतो जिनेन्द्र भवता राष्ट्र पर पर्ययः ॥ १६ ॥ 531 ) पातम्याप्तसमुद्रपारिलहरीसंघातवत्सर्षदा सर्वच क्षणमरं जगदिदं संचिन्स्य चेतो मम । संप्रत्येतवशेषजम्मजनकव्यापारपारस्थित स्थातुं वायति निर्षिकारपरमानन्दे त्वामे प्रमणि ॥ ५७ ॥ 532) पमा स्यावशुमोपयोगत इतः प्रामोति दुम् जनो धर्मः स्याब शुमोपयोगत इतः तौल्प किमयाभयेत् । इम्य इन्द्रमिदं भवाश्रयतया शुद्धोपयोगात्पुन नित्यानन्दपदं तत्रभवानईमई तक।१८॥ बहिः पाये अमात । मो खामिन । कलियते । पत्र लोके । मोहवशतः । करस जीवस्य 1 मृत्योः मरणतः सकाशाद । मीः भयं ग ।मपि तु सर्वेषां मय अस्ति । तत् सस्मारकारणाद । मम स मोहः । पार्यता निवार्यताम् । किलक्षणः मोहः । सर्वानीपरंपराहत् । पुनः अहितः शत्रुः ॥ १५॥ भो जिनेन्द्र । सर्वेषाम् अपि कर्मणा मध्ये असी मोहः । अतितराम् अतिश्येन । बलीयान् बलिष्ठः । तस्स मोहस्स । प्रभादान्मनः पशलता पत्ते । च पुनः । मृतेः मरणात् विभेति भयं करोति । नो प्येत् । इह जगति । सत्यस्वतः कः जीवति । कमियेत । जगतः पर्ययैः सर्वदा नानारूपम् भसि । परं किंतु । भो जिनेन् । भवता । रएम् अवलोकिते जगत् ॥॥ तत् मम चेतः मनः। संप्रति इदानीम् । स्वयि प्रमणि स्थातु वाम्मति । इर्ष अगत् सर्वदा क्षणभरे सैचिन्त्य । किंवत् । वात-पवनव्याप्त समुद्वारिलहरीसंघासवत समूहबत् । किलक्षणं मनः । अशेषजन्मजनक उत्पादक क्यापारपारे स्थित विकल्परहितम् । किंलक्षणे त्वयि। निर्विकारपरमानन्दे विकाररहिते । 10॥ ममोपयोगतः एनः पापं स्यात् भवेत् । इतः पापात् । जनः दुःख प्राप्रोति । व पुनः । शुभोपयोगतः धर्मः स्यात् । इतः धर्मात् । जनः किमपि परिभ्रमण करता है । क्या किया जाय, मोहके वशसे यहां मृत्युका मय भला किसको नहीं होता है ! अर्थात् उसका भय प्रायः सभीको होता है । इसलिये हे प्रभो ! समस्त अनर्थोकी परम्पराके कारणीभूत मेरे इस मोहरूप शत्रुका निवारण कीजिये ।। १५ । सभी को वह मोह अतिशय बलवान् है । उसीके प्रभावसे मन उपलताको धारण करता है और मृत्युसे डरता है । यदि ऐसा न होता तो फिर संसारमें द्रव्यकी अपेक्षा कौन जीता है और कौन मरता है ? हे जिनेन्द्र ! आपने केवल पायोंकी अपेक्षासे ही संसारकी विविधताको देखा है । विशेषार्थ- यदि निश्चय नयसे विचार किया जाय तो शुद्ध चैतन्यस्वरूप यह आत्मा अनादि-निधन है, उसका न कभी जन्म होता है और न कभी मरण भी ! उसके जन्म-मरणकी कल्पना व्यवहारी जन पर्यायकी प्रधानतासे केवल मोहके निमित्तसे करते हैं । जिसका वह मोह नष्ट हो जाता है उसका मन चपलताको छोड़कर स्थिर हो जाता है। उसे फिर मृत्युका भय नहीं होता । इस प्रकारसे उसे यथार्थ आत्मस्वरूपकी प्रतीति होने लगती है और तब वह शीम ही परमानन्दमय अविनश्वर पदको प्राप्त कर लेता है ॥ १६ ॥ यह विश्व वायुसे तारित हुए समुद्रके जलमें उठनेवाली लहरोंक समूहके समान सदा और सर्वत्र क्षणनश्वर है, ऐसा विचार करके यह मेरा मन इस समय जन्म-मरणरूप संसारकी कारणीभूत इन समस्त प्रवृत्तियों के पार पहुंचकर अर्थात् पेसी क्रियाओंको छोड़कर निर्विकार व परमानन्दस्वरूप आप परमात्मामें स्थित होनेकी इच्छा करता है ।। १७ ॥ अशुभ उपयोगसे पाप उत्पन्न होता १० 'भो जिनेन्द्र' नास्ति । २ क 'पवन' नास्ति । vvvvvvr Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः 538 ) यान्त बहिः स्थितं न च दिशि स्थूलं न सूक्ष्मं पुमान् नैव स्त्री न नपुंसकं न गुरुतो प्राप्तं न पल्लाघषम् । कर्मस्पर्शशरीरगन्धगणनान्याहारेवणज्झितं स्वच्छज्ञामवणेकमूर्ति तदहं ज्योतिः परं नापरम् ॥ १९ ॥ 584) यकृता कार्य बिना वैरिणा शश्वत्कर्मखलेन तिष्ठति कृतं नाथावयोरन्तरम् । एषोऽहं सच से पुरः परिगतो तुष्टो ऽत्र निःसार्यतां सद्र क्षेतरनिग्रहो नयवतो धर्मः प्रभोरीदृशः ॥ २० ॥ [533 : ९-११ सौम् श्रयेत् । भवाश्रयतया इदं द्वन्द्वन्द्वम् । पुनः शुद्धोपयोगात् तद् नित्यानन्दपदं स्यात् । च पुनः । अत्र परमानन्दपदे । भवान् अस्ति । च पुन सत्र त्वयि विषये अई लीनः ॥ १८ ॥ अहं तत्परं ज्योतिः अपरं न यत् ज्योतिः अन्तः म । यज्योतिः बहिः न स्थितम् । यज्योतिः दिशि स्थितं नै । यज्योतिः स्थूलं न सूक्ष्मं न यजयोतिः पुमान् न स्त्री न नपुंसकं न । वख्योतिः गुरुतां न प्राप्त लाभ न प्राप्तम् । पुनः किंलक्षणे ज्योतिः । कर्मस्पर्शशरीरमन्धगणनाव्याहारवणज्शितम् इन्द्रियव्यापाररहितम् । पुनः स्वच्छशानदगेमूर्तिः ॥ १९ ॥ हे नाथ । एतेन कर्मखलेन । आवयोः द्वयोः । अन्तरं कृतम् । तिष्ठति दृश्यैते । किलक्षणेन कमैम्बलेन । चिदुमतिक्षयकृता । पुनः कार्य विना वैरिणा । शश्वत् निरन्तरम् । श्रहमेषः स च कर्मत्रुः । ते तव । पुरतः अमतः । परिगतः प्राप्तः । अत्र द्वयोः मध्ये । दुष्टः निःसार्यताम् । नयवतः प्रभो राशः । ईदृशः धर्मः १ श व्यापार ६ क एषः च स कर्म 3 है और इससे प्राणी दुःखको प्राप्त करता है, तथा शुभ उपयोगसे धर्म होता है और इससे प्राणी किसी विशेष सुखको प्राप्त करता है। सुख और दुःखका यह कलहकारी जोड़ा संसारके सहारेसे चलता है । परन्तु इसके विपरीत शुद्ध उपयोगसे वह शाश्वतिक सुखका स्थान अर्थात् मोक्ष प्राप्त होता है । हे अरहंत जिन | इस पद (मोक्ष) में तो आप स्थित हैं और मैं उस पदमें, अर्थात् साता - असाता वेदनीयजनित क्षणिक सुख-दुःख के स्थानभूत संसारमें स्थित हूं ॥ १८ ॥ जो उत्कृष्ट ज्योति ( चैतन्य ) न तो भीतर स्थित है और न बाहिर स्थित है, जो दिशाविशेषमें स्थित नहीं है, जो न स्थूल है और न सूक्ष्म है; जो न पुरुष है, न स्त्री है और न नपुंसक है; जो न गुरुताको प्राप्त है और न लघुताको प्राप्त है; जो कर्म, स्पर्श, शरीर, गन्ध, गणना, शब्द और वर्णसे रहित है तथा जो निर्मल ज्ञान एवं दर्शनकी मूर्ति है; उसी उत्कृष्ट ज्योतिस्वरूप मैं हूं - इससे भिन्न और दूसरा कोई भी स्वरूप मेरा नहीं है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि भेदबुद्धिके रहनेपर शरीर एवं स्व और परकी कल्पना होती है। भीतर बाहिर; स्थूल सूक्ष्म एवं पुरुष - श्री आदि उपर्युक्त सब विकल्प एक उस शरीरके आश्रयसे ही हुआ करते हैं । किन्तु अब वह भेदबुद्धि नष्ट हो जाती है और अमेदबुद्धि प्रगट हो जाती है तब वह समस्त भेदव्यवहार भी उसीके साथ नष्ट हो जाता है। उस समय अखण्ड चित्पिण्डस्वरूप एक मात्र आत्मज्योतिका ही प्रतिभास होता है। यहां तक कि इस निर्विकल्प अवस्था में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र आदिका भी मेद नष्ट हो जाता है ॥ १९ ॥ हे स्वामिन् ! बिना किसी प्रयोजनके ही वैरभावको प्राप्त होकर उन्नत चैतन्य स्वरूपका घात करनेवाले इसी कर्मरूप दुष्ट शत्रुके द्वारा हम दोनोंके भीचमें उत्पन्न किया गया मेद स्थित है। यह मैं और वह कर्मशत्रु दोनों ही आपके सामने उपस्थित हैं। इनमें से आप दुष्टको निकाल कर बाहिर कर दें, क्योंकि, सज्जनकी [२] तत्र तत्वार्थविभने । ३ ' वज्योतिः दिशि स्थितं न' इति नास्ति । ४ इक ५ दृश्यते तिष्ठति । । } Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -587 :९-२३] ९. मातोमना 535 ) आषिम्याधिजसमृतिप्रभृतयः संपनियनो वर्ग स्तद्रिनस्य ममात्मनो मगवतः कर्तुमीशा जा। नानाकारविकारकारिष इमे साझाममोमटले तिष्ठन्तोऽपि न कुर्वते जलमुचस्तत्र स्वरूपान्तरम् ॥ २१ ॥ 536) संसारातपदश्चमानवपुषा दुम्वं मया खीयते नित्य नाथ यथा स्पलस्थितिमता मत्स्येन ताम्बन्मनः। कारण्यामृतसंगशीतलतरे त्वत्पादप रहे यावद्देव समर्पयामि हृदयं तावत्परं सौववाद२२॥ 537) साक्षत्राममिदं मनो भवति यदायासंबन्धमा तत्कर्म प्रविकृम्भते पृथगई तस्मात्सदा सर्वो। चैतन्यासव तत्तति यदि या तत्रापि तत्कारणे शुद्धात्मन, मम निश्चयात्पुनरिह त्वय्येव देव खितिः॥ २३॥ सदक्षा इतरनिग्रहः दुष्टनिप्रहः ॥ २० ॥ आधिर्मानसी व्यथा । बाधिः भरोत्सारामृति मरमामृतमः । . रस्य संबन्धिनः सन्ति । इमे पोका रोमाः सः मम पास्मनःपाः समाः। नयिपियस मम । तद्विमस्य तेभ्यः रोगादिभ्यः मित्रस्य । पुनः मिलक्षणस । भपक्तः परमेघरस नानासारविपारमारिकार: मेषाः नभोमण्डले साक्षात् तिष्ठन्तोऽपि। तत्र पालाश्चमण्डले । खरूपान्तरं कसं न समाः सन्ति पासम्म बर्मन कुर्वते ॥ २१॥ हे नाप । मया । नित्य सदैव । कुन स्वीयते । चिकेन मना । संखरानपरसामानसमा शरीरेन । क्या स्थलस्थितिमता मत्स्येन ताम्यन्मनः यया भवति तथा दुःखं स्थापते। हे देवा पावलाम् । ससारमले न चरणम हृदयं समर्पयामि । तावत्कालं पर सौरस्यवान् । विलक्षणे तव चरणकमले। काम्यामूलवशीयन्तरे ॥२२॥क्षाको शुद्धात्मन् । इद मनः यद् बाह्यासंबन्धमा भवति। सिलवयं मनः। साक्षणामम् इनिरामेव पर्वमानम् । कर्म प्रतिकृम्भते प्रसरति 1 मई सदा सर्वद । तस्मात्कर्मणः पृथक पान वा तवा चैतन्वान त । यानि मावि । मम । रक्षा करना और दुष्टको दण्ड देना, यह न्यायप्रिय राजाका कर्तव्य होत है ॥२०॥ आषि (मानसिक कष्ट), न्याधि ( शारीरिक कष्ट), जरा और मृत्यु आदि शरीरसे सम्पम रखनेवाले हैं। में मगवान् बात्मा उस शरीरसे भिन्न हूं, अत एव उस शरीर सम्बन्धी वे बद गाषि-यापि यदि मेरा सा कर सकते हैं। अर्थात् ये आत्माका कुछ भी विगाड़ नहीं कर सकते। ठीक भी है--प्रत्ययामें अनेक आकारों और किया को करनेवाले ये बादल आकाशमण्डलमें रहकर भी आकाशके स्वरूप में कुछ भी बन्तर नहीं करते है ।। २१ ॥ जिस प्रकार जलके सूख जानेपर स्खलमें स्थित हुआ मत्स्स मनमें अतिशय कष्ट पात्व है उसी प्रकार संस्पररूप घामसे जलनेवाले शरीरको धारण करता हुआ यहां लित होकर मैं भी अतिशय कर पा रहा है। देव । जब तक मैं दयारूप अमृतके सम्बन्धसे अतिशय शीतलताको प्राप्त हुए तुम्हारे भरप-ममें बने हृदयको समर्पित करता हूं तब तक अतिशय सुखका अनुभव करता हूं॥ २२ ॥ हे शुद्ध अत्लन् । इन्द्रिक समूहके साथ यह मन चूंकि बाध पदार्थोंसे सम्बन्ध रखता है, अत एव असे कर्म बढ़ता है। मैं स से सदा और सब प्रकारसे भिन्न हूं अथवा तुम्हारे चैतन्यसे वह कर्म सर्वच मिल है। वहां भी बही पूर्वेत (चेतनाचेतनत्व) कारण है । हे देव ! मेरी खिति निश्चयसे यहां तुम्हारे विषयमें ही है ॥ २३ ॥ म प्रतिष्मते । २ क सर्वदा। नाना घरकार । ४का बासित। ५ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ पानन्द-पर्विशतिः [588188538 ) कि लोकेन किमाश्रयेण किमुत द्रव्येण कायेन किं किं वाग्भिः किमुतेन्द्रियः किमसुभिः किं तैर्षिकल्पैरपि । सर्षे पुद्गलपर्यया बत परे त्वतः प्रमत्तो भय सारमा मिरमिश्रयस्थति तरामालेन किं बन्धनम् ॥ २४॥ 539 ) धर्माधर्मनांसि काल इति मे नैवाहितं कुर्वते यत्वारोऽ पि सहायतामुपगतास्तिष्ठन्ति गस्यादिषु । एक पुबल पव संनिधिमतो नोकर्मकर्माकृति बैरी बन्धकदेष संप्रति मया भेदासिना खण्डिसः ॥२५॥ 540) रागद्वेषकसैर्यथा परिणमेपाम्तरैः पुदलो . नाफाशादिचतुष्यं विरहितं मूा तथा प्राणिनाम् । साभ्यो फर्मननं भवेदविरतं तस्मादियं संसृति स्तस्यो दुःखपरंपरेति विदुषा त्याज्यौ प्रयत्नेन तौ ॥ २६ ॥ 541 ) किंवायेषु परेषु बस्तुषु मनः कृस्था विकल्पान पहुन् रागद्वेषमयान मुधैव कुरुषे दुःखाय कर्माशुभम् । आनन्दामृतसागरे यदि वसस्यासाच शुद्धात्मनि स्फीतं तत्सुखमेकतामुपगतं त्वं यासरे निश्चितम् ॥२७॥ कारणम् । मम निक्षयात्पुनः इह त्वयि एव स्थितिः ॥ २५ ॥ उत अहो । भो आत्मन् । लोकेन किम् । माश्रयेण किम् । प्रष्येण किम् । कायेन किम् । वाम्मिः वचनैः किम् । अत महो । इन्द्रियैः किम्। भमुभिः किं प्राणः किम् । कि तैः विकल्पः अपि । न किमपि । सर्वे पुलपर्यसः । यत इति खेद । स्वतः परे मिनाः । प्रमत्तः भवम् । एमिः पूर्वोतः विकल्पैः। अतितराम् अतिशयेन । मालेग वृधैव । पन्धन किम् अभिश्रयसि आश्रयसि ॥ २४ ॥ धर्म-अधर्म-काल-भाकाश इति चत्वारोऽपि । मे मम । अहितं कष्टम् । अव कुर्वते । गत्यादिषु सहायताम् उपगता प्राप्ताः तिष्ठन्ति । एकः पुद्गल एव वेरी मम सैनिधिगतः नोकर्म-कर्माकृतिः बन्धकूत् । संप्रति इदानीम् । स शवः मया । मेदासिना मेवशानखझेन। खण्डितः पीडितः ।। २५ ।। यथा । पुद्गलः रूपान्तरैः परिणमेत् । किलक्षणः रूपान्तरैः। रागद्वेषकृतः। तथा आकाशादिचतुश्यं न परिणमेत् । विलक्षणमाकाशादिचतुष्टयम् । मूल् विरहितम् । ताभ्यां रागद्वेषाभ्य। प्राणिनाम् अविरते घनं कर्म भवेत् । तस्मात् कर्मषनात् इयं संसतिः । तसा संस्तौ । दुःसपरंपरा । इति हेतोः । विदुषा पण्डितेन । तौ रागद्वेषौ प्रयझेन त्याज्यौ ॥ २६ ॥ रे मनः ! पायेषु परेषु पस्दषु हे आत्मन् ! तुम्हें लोकसे, आश्रयसे, द्रव्यसे, शरीरसे, वचनोंसे, इन्द्रियोंसे, प्राणोंसे और उन विकल्पोंसे भी क्या प्रयोजन है ? अर्थात् इनसे तुम्हारा कुछ भी प्रयोजन नहीं है । कारण यह कि ये सब पुद्गलकी पर्यायें हैं जो तुमसे भिन्न हैं । खेद है कि तुम प्रमादी होकर इनके द्वारा व्यर्थमें ही क्यों बन्धनको प्राप्त होते हो । ॥ २४ ॥ धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये चारों द्रव्य मेरा कुछ भी अहित नहीं करते हैं । वे चारों तो गति आदि ( स्थिति, अवकाश और वर्तना ) में सहायक होकर स्थित हैं। किन्तु कर्म एवं नोकर्मके स्वरूपसे परिणत हुआ यह एक पुलरूप शभु ही मेरे सान्निध्यको प्राप्त होकर बन्धका कारण होता है । सो मैंने उसे इस समय मेद ( विवेक ) रूप तलवारसे खण्डित कर दिया है ॥ २५॥ जिस प्रकार राग और द्वेषके द्वारा किये गये परिणामान्तरोंसे पुरल द्रव्य परिणत होता है उस प्रकार वे अमूर्तिक आकाशादि चार द्रव्य उक्त परिणामान्तरोंसे परिणत नहीं होते हैं । उक्त राग और द्वेषसे निरन्तर प्राणियोंके सदा कठोर कर्मका बन्ध होता है, उससे (कर्मबन्धसे ) यह संसार होता है, और उस संसारमें दुःखोकी परम्परा प्राप्त होती है । इस कारण विद्वान् पुरुषको प्रयत्नपूर्वक उक राग और द्वेषका परित्याग करना चाहिये ॥ २६ ॥ रे मन ! तू १ प्राणः किं विकल्पैरपि कि1. राषः। Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -644:९-३०] ९. मालोचना १६७ 542 ) इत्यास्थार्य हदि स्थिरं जिन भवत्पावप्रसादास्सती मध्यात्मिकतलामयं जनाबपर्थमारोहति। पनं कर्तुममी च दोषिणमितः कर्मारयो दुर्भरा सिष्ठन्ति प्रसभं तदन भगवन् मध्यस्थसाक्षी भवान् ॥२८॥ 548 ) द्वैत संसृतिरेव मिश्चयवशाददैतमेवामृत संक्षेपाबुभयत्र जल्पितमिदं पर्यन्तकाष्ठागतम् । निर्गस्यादिपवाच्छनैः शवलितादन्यत्समालम्बते यः सो ऽसंशति स्फुटं व्यवहतेब्रह्मादिमामेति च ॥ २९ ॥ 544 ) चारित्रं यदभाणि केवलहशा देष स्वया मुक्तये पुसा तस्खलु मारशेन विषमे काले कलौ दुर्धरम् । भक्तिर्या समभूदिह थपि इडा पुण्यैः पुरोपार्जितैः संसारार्णवतारणे जिन ततः सैवास्तु पोतो मम ॥ ३० ॥ विकरूपान् कृत्वा दुःखाय अशुभ कर्म मुधैव किं कुरुषे । किलक्षणान् विकल्पान् । पाहून रागद्वेषमयान । यदि वा भेदज्ञानम् आसाथ प्राप्य । आनन्दामृतसागरे शुखात्मनि वससि तदा निश्चितं त्वम् एकताम् उपगतं सुखं स्फीतं यासि ॥ २५ ॥ भो जिन । हदि इति आस्थाय आरोग्य । स्थिरम् अर्य जनः लोकः । भवत्पादप्रसादात् शुखर्थम् । इतः एकस्मिन् पक्षे। अध्यात्मैकतुला खतीम् आरोइति चटति । इतः द्वितीयपझे। अमी कर्मशत्रवः । एन जन लोकम् । दोषिर्ण कर्तुम् तिष्ठन्ति । प्रस बलात्कारेण । दुर्धराः । ततस्मात्कारणात् । अत्र न्याये। भो भगवन् । लम् । मध्यस्थसाक्षी ॥ २८॥ निश्चयवशात् देत संमतिः एव । अद्वैतम् अमृतम् एव । संक्षेपात् उभयत्र संसारमोक्षयोः । इदं जल्पितम् । पर्यन्तकावागतम् । यः भव्यः । शनैः' मन्दं मन्दम् । मादिपदात् द्वैतपदात् । निर्गय शवलितात् एकीभूतात् निर्गत्य । अन्यत् निश्चयपदम् । समालम्पते । इति हेतोः । स निधयेन । असंशः नामरहितः। स्फुट व्यकम्। य पुनः । व्यवाहतेः व्यवहारात । ब्रह्मावि नाम वर्तते ॥ २९॥ भो देव । त्वया मुक्तये यत् चरित्रम् अभाजि कथितम् । केन । केवलदशा केवलशाननेत्रण । तत् चारित्रम् । खलु निश्चितम् । कली झाले पसमकाले । मादृशेन पुंसा धर्तुं दुर्धरम् ।। किल पश्वमकाले । त्वयि विषये ।। पुरा पूर्वम् । उपार्जितैः पुण्यैः कृत्वा । या भक्तिः समभूत् । इढा बहुला। हे जिन । ततः कारणात् । संसारसमुद्रतारणे । सा एव भक्तिः मम पोतः प्रोहणसमानम् । अस्तु ॥३०॥ बाध पर पदार्थो में बहुत-से राग द्वेषरूप विकल्पोंको करके व्यर्थ ही दुःखके कारणीभूत अशुभ कर्मको क्यों करता है । यदि तू एकत्व ( अद्वैतभाव) को प्राप्त होकर आनन्दरूप अमृतके समुद्रभूत शुद्ध आत्मा निवास करे तो निश्चयसे ही महान् सुखको प्राप्त हो सकेगा ॥ २७ ॥ हे जिन ! हृदयमें इस प्रकारका स्थिर विचार करके यह नन शुद्धिके लिये आपके चरणोंके प्रसादसे निर्दोष अध्यात्मरूपी अद्वितीय तराजू (काटा ) पर एक ओर चढ़ता है। और दूसरी ओर उसे सदोष करनेके लिये ये दुर्जेय कर्मरूपी शत्रु बलात् स्थित होते हैं । इसलिये हे भगवन् ! इस विषयमें आप मध्यस्थ (निष्पक्ष ) साक्षी हैं ।। २८ ॥ निश्चयसे द्वैत ( आत्म-परका. मेद ) ही संसार तथा अद्वैत ही मोक्ष है । यह इन दोनों के विषयमें संक्षेपसे कथन है जो चरम सीमाको प्राप्त है । जो भव्य जीव धीरे धीरे इस विचित्र प्रथम (द्वैत) पदसे निकल कर दूसरे (अद्वैत) पदका आश्रय करता है वह यद्यपि निश्चयतः वाच्य-वाचकभारका अभाव हो जानेके कारण संज्ञा (नाम) से रहित हो जाता है। फिर भी व्यवहारसे वह ब्रह्मा आदि ( परब्रह्म, परमात्मा ) नामको प्राप्त करता है ॥ २९ ॥ हे जिन देव ! केवलज्ञानी आपने जो मुक्तिके लिये चारित्र बतलाया है उसे निश्चयसे मुझ जैसा पुरुष इस विषम पंचम कालमें धारण नहीं कर सकता है । इसलिये पूर्योपार्जित महान् १२ इत्याध्याय । २श आरोहति इतः। ३ अर्व तिष्ठति प्रसभं कर्तुं प्रसभे । ४क भगवन् भवान् त्वम् । ५श शनैः शनैः। ६. अभाणि केन। ५ केवलनेकेण । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ नन्दि पचविंशतिः 545) इन्द्रत्वं च निगोदतां च बहुधा मध्ये तथा योनयः संसारे भ्रमता चिरं यदखिलाः प्राप्ता मयानन्तशः । तत्रापूर्वमिहास्ति किंचिदपि मे हित्वा विमुक्तिप्रदर्श सम्यग्दर्शनबोधवृति पदवीं तां देव पूर्णां कुरु ॥ ३१ ॥ 546 ) भीषीरेण मम प्रसन्नमनसा तरिकचिदुवैः पत्रप्रात्यर्थे परमोपदेशवचनं विसे समारोपितम् । येनास्तामिदमेक भूतलगते राज्यं क्षणश्यसि यत् त्रैलोक्यस्य च तन मे प्रियमिह श्रीमजिनेश प्रभो ॥ ३२ ॥ 547 ) सूरेः पक्कजनन्दिनः कृतिमिमामालोचनामईता - म यः पठति त्रिसंध्यममलभानता नरः । योगीम्दै चिरकालरुढतपसा यज्ञेन यन्मृग्यते तत्प्राप्नोति परं पर्व स मतिमानानम्वस ध्रुवम् ॥ ३३ ॥ [ 545 : q-at यद्यस्मात्कारणात् । इन्द्र व निगोदता च तथा मध्ये बहुधा अभिला योनयः मया सारे चिरं श्रमता अनन्तशः वारान् प्राप्ताः । तस्मात् । मे मम सम्यग्दर्शनबोधवृतिपदवीं हित्वा । इह संसारे । किश्चिदपि अपूर्व न अस्ति । तां विमुक्तिप्रदा हगावित्रयीम् । भो देव | पूर्णा कुरु ॥ ६१ ॥ भो श्रीमविनेश । हे प्रभो । श्रीवीरेण गुरुणा । उचैः पदप्राप्त्यर्थं मम चिकित्परमोपदेशवचनं समारोपितम् । किंलक्षणेन वीरेण प्रसभमनसा आनन्दयुकेन । येन धर्मोपदेशेन । इदम् एकभूतला राज्यम् । आस्तो दूरे तिष्ठतु । किंलक्षणं राज्यम् । क्षणभवसि विनश्वरम् । इह लोके । तन्मे त्रैलोक्यस्य राज्यं प्रियं न ॥ ३२ ॥ यः भव्यः नरः । आईताम् अत्रे इस आलोचना' त्रिसंध्ये पठति । किंलक्षणः भव्यः । अमलश्रद्धानतः श्रद्धया नम्रशरीरः । किंलक्षणाम् इमाम् अलोचनाम् । सूरेः पङ्कजनन्दिनः कृतिम् । स मतिमान् तत्परं पदं प्राप्नोति यत्पदं योगीन्द्रः विरकालतपसा मम । यते अवलोक्यते । क्षिणं पदम् । मानन्दस्य । भुवं निश्वितम् ॥ ३३ ॥ इत्यालोचना समाप्ता ॥ ९ ॥ पुष्यसे यहां जो मेरी आपके विषयमें दृढ़ भक्ति हुई है वही मुझे इस संसाररूपी समुद्रसे पार होनेके लिये जहाज के समान होवे ॥ ३० ॥ हे देव ! मैंने चिर कालसे संसार में परिभ्रमण करते हुए बहुत वार इन्द्र पद, निगोद पर्याय तथा बीचमै और भी जो समस्त अनन्त भव प्राप्त किये हैं उनमें मुक्तिको प्रदान करनेवाली सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप परिणतिको छोड़कर और कोई भी अपूर्व नहीं है । इसलिये रमत्रयस्वरूप जिस पदको अभी तक मैंने कभी नहीं प्राप्त किया है उस अपूर्व पदवीको पूर्ण कीजिये || ३१ ॥ हे जिनेन्द्र प्रमो ! श्री वीर भगवान् ( अथवा श्री वीरनन्दी गुरु ) ने प्रसन्नचित हो करके उच्च पद (मोक्ष) की प्राप्तिके लिये जो मेरे चिसमें थोड़े-से उत्तम उपदेशरूप वचनका आरोपण किया है उसके प्रभावसे क्षणनश्वर जो एक पृथिवीतलका राज्य है वह तो दूर रहे, किन्तु मुझे वह तीनों लोकोंका भी राज्य यहां प्रिय नहीं है ॥ ३२ ॥ जो बुद्धिमान् मनुष्य निर्मल श्रद्धासे अपने शरीरको नम्रीभूत करके तीनों सन्ध्या कालोंमें अरहन्त भगवान् के आगे श्री पद्मनन्दी सूरिके द्वारा विरचित इस आलोचनारूप प्रकरणको पढ़ता है वह निश्वयसे आनन्दके स्थानभूत उस उत्कृष्ट पदको प्राप्त करता है जिसे योगीश्वर तपश्चरणके द्वारा प्रयत्नपूर्वक चिर कालसे खोजा करते हैं ॥ ३३ ॥ इस प्रकार आलोचना अधिकार समाप्त हुआ || ९ || १ श नरः इम अर्चतां आलोचनां । २श ननदेहः । • Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwder -annmaawaranam [१०. सद्बोधचन्द्रोदयः] 548) यज्ञानमपि बुद्धिमानपि गुहा शलोन पई गिरा प्रोक्तं च तथापि चेतसि नृणां समाति वाकाथावत् । यत्र स्वानुमपस्थिते ऽपि विरला लक्ष्यं लभन्ते विरा सन्मोसकनिबन्धन विजयते मिसषमस्यद्भुतम् ॥१॥ 549) नित्यानित्यतया महानुसयानेकैकरूपत्षवत् चितवं सदसत्तया व गहन पूर्ण च शून्यं च यत् । तजीयादखिलश्रुताश्नयशुचिमानप्रमाभासुरो यस्मिन् पस्तुविचारमार्गचतुरो यः सोऽपि संमुह्यति ॥२॥ 550) सर्वसिणिमादिपङ्कजवने रम्ये ऽपि हित्वा रति योष्टिं शुचिमुक्तिसषमितां प्रत्यावरात्तवान् । खेतोवृत्तिनिरोधलग्नपरमप्राममोवाम्बुधृतः सम्यक्साम्पसरोषरस्थितिजुषे इसाय तस्मै ममः ॥ ३ ॥ तश्चितत्वम् अत्यनुत मोक्षकमिबन्धन विजयते । यत् चैतन्यतत्त्वम् । मिरा दाण्या । पहुं कथितुम् । गुरुः सहस्पतिः । शक: समर्थः न । किलक्षणः गुरुः । जानकापि बुद्धिमानपि । च पुनः। चेत् यदि । चेतन्यतत्व प्रोक्त तथापि मुर्गा तसिन समाति भाकाशवत् । यत्र तत्त्वे खानुमवस्थितेऽपि विरला नराः । लायं प्राधम् । लभन्ते । चिरात् दीर्घकालेन ॥ तचितवं जीयात् । यतत्वं निस्य-अनित्यतया । च पुनः । महत्तनुसया प्रदेशापेक्षया दीर्घलघुतया । अनेक-एकरूपत्वतः । सत्असतया गहन पूर्ण शून्य तवं वर्तते । यस्मिन् तरवे । सोऽपि समुत्पति । सः कः । यः भव्यः अखिलभुत-माश्रय-आधारशुविज्ञानप्रभाभासरः । पुना बस्तुविचारमार्गचतुरः । सोऽपि समुत्पति ॥ २ ॥ तस्मै ईसाब नमः । किंलक्षगाय ईसाय । चेतो. जिस चेतन तत्त्वको जानता हुआ भी और बुद्धिमान् भी गुरु वाणीके द्वारा कहनेके लिये समर्थ नहीं है, तथा यदि कहा भी जाय तो भी जो आकाशके समान मनुष्योंक हृदयमें समाता नहीं है, तथा जिसके स्वानुभवमें स्थित होनेपर मी विरले ही मनुष्य चिर कालमें लक्ष्य (मोक्ष) को प्राप्त कर पाते हैं; वह मोक्षका अद्वितीय कारणमूत आश्चर्यजनक चेतन तत्त्व जयवन्त होवे ।। १ ॥ जो चेतन तत्त्व नित्य और अनित्य स्वरूपसे, स्थूल और कृश स्वरूपसे, अनेक और एक स्वरूपसे, सत् और असत् स्वरूपसे, तथा पूर्ण और शून्य स्वरूपसे गहन है तथा जिसके विषयमें समस्त भुतको विषय करनेवाली ऐसी निर्मल ज्ञानरूप ज्योतिसे दैदीप्यमान एवं तत्वके विचारमें चतुर ऐसा मनुष्य भी मोहको प्राप्त होता है वह चेतन तत्त्व जीवित रहे । विशेषार्थ--वह चिद्रूप तत्त्व बड़ा दुरूह है, कारण कि भिन्न भिन्न अपेक्षासे उसका स्वरूप अनेक प्रकारका है । यथा- उक्त चिद्रप तत्त्व यदि द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा नित्य है तो पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वह अनित्य मी है, यदि वह अनन्त पदार्थोको विषय करनेसे स्थूल है तो मूर्तिसे रहित. होनेके कारण सूक्ष्म भी है, यदि वह सामान्यस्वरूपसे एक है तो विशेषस्वरूपसे अनेक भी है, यदि वह स्वकीय व्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा सत् है तो परकीय द्रव्यादिचतुष्टयकी अपेक्षा असत् भी है, तथा यदि वह अनन्तचतुष्टय आदि गुणोंसे परिपूर्ण है तो रूप-रसादिसे रहित होनेके कारण शून्य भी है। इस प्रकार उसका स्वरूप गम्भीर होनेसे कभी कभी समस्त श्रुतके पारगामी भी उसके विषयमें मोहको प्राप्त हो जाते हैं ।। २ ।। अणिमा-महिमा आदि आठ ऋद्धियोंरूप रमणीय समस्त कमलवनके रहनेपर मी जो . करिमानपि चेत् । पान- १२ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७० [551: १०-४ नन्दि- पञ्चविंशतिः 551) सर्वभावविलये विभाति यत् सत्समाधिभर निर्भरात्मनः । चित्स्वरूपमभितः प्रकाशकं शर्मधाम नमताद्भुतं महः ॥ ४ ॥ 552 ) विश्ववस्तुविष्ट शिक्षमं साटम परिवर्जितं गिराम् । अस्तमेत्यखिलमेकलया यत्र तज्जयति चिन्मयं मद्दः ॥ ५ ॥ 559) नो विकल्परहितं चिदात्मक वस्तु जातु ममसो ऽपि गोचरम् । कर्माश्रितविकल्परूपिणः का कथा तु वपुषो जात्मनः ॥ ६ ॥ 554) वेतसो न वचो ऽपि गोचरस्तर्हि नास्ति भषिता खपुष्पवत् । शङ्कनीयमिदमत्र नो यतः स्वानुभूतिविषयस्ततो ऽस्ति यत् ॥ ७ ॥ वृत्तिनिरोधेन मनोव्यापारनिरोधेन लब्धं प्राप्तं यत् परमत्रमोदं तव अम्बु जलं तं बिभर्ति' इति मृत । सम्यक् साम्बसमतासरोवरं तस्य सरोवर हेय स्थितिसेवकाय 'युषप्रीति सेवनयो । यः पारमहंस । शुचि मुहिंसयनितां प्रत्यादरात् दृष्टि दशवान्। किं कृत्वा । सर्वस्मिन् अणिमा दिपक अवने रम्येऽपि । रतिम् अनुरागं हित्वा त्यक्त्वा ॥ ३ ॥ चित्स्वरूपं महः नम | मन्महः सत्समाधिभरेण निर्भरात्मनः सत्समाधिना पूर्णयोगिथेः मुभैः । सर्वभावविलये सति विभाति समस्तरागादिपरिणामविनाशे सति शोभते । पुनः किलक्षणं महः । अभितः सर्वतः प्रकाशकम् । पुनः किलक्षणं महः । अद्भुतम् । शर्मधाम सुखनिधानम् ॥ ४ ॥ तत्, स्विन्म महः जयति किलक्षणं महः । विश्ववस्तुविभूतिक्षमं समस्तमस्तुप्रकाशकम् पुनः सत् उद्योतकम्। पुनः अन्तपरिवर्जितं विनाशरहितम् । यत्र महसि । अखिलं समस्तम् । गिरां वाणीनाम् । जालं समूहम्' । एकल्या मस्तम् एति अस्तं गच्छति ॥ ५ ॥ चिदात्मकं वस्तु जातु मनसः अपि गोयरे न । किंलक्षणं चिदात्मकम् । विकल्परहितम् । कर्म शाश्रितविकल्परूपिणः वपुषः शरीरस्य का कथा पुनः किलक्षणस्य शरीरस्य । जडात्मनः ॥ ६ ॥ तत् ज्योतिः । चेतसः गोचरं न वचसोऽपि गोचरं न । तर्हि भविता न अस्ति । स्वपुष्पवत् आकाशपुष्पवत् । अत्र आत्मनि । इदं गो · आत्मारूप हंस उसके विषयमें अनुरक्त न होकर आवरसे मुक्तिरूप हंसीके ऊपर ही अपनी दृष्टि रखता है तथा ओ चित्तवृत्तिके निरोधसे प्राप्त हुए परब्रहस्वरूप आनन्दरूपी जलसे परिपूर्ण ऐसे समीचीन समताभावरूप सरोवर में निवास करता है उस आत्मारूप इसके लिये नमस्कार हो ॥ ३ ॥ जो आश्वर्यजनक चित्स्वरूप तेज राग-द्वेषादिरूप विभाव परिणामोंके नष्ट हो आनेपर समीचीन समाधिके भारको धारण करनेवाले योगी शोभायमान होता है, जो सब पदार्थोंका प्रकाशक है, तथा जो सुखका कारण है उस चित्स्वरूप तेजको नमस्कार करो ॥ ४ ॥ जो चिद्रूप तेज समय वस्तुओंको प्रकाशित करनेमें समर्थ है, वैदीप्यमान है, अन्तसे रहित अर्थात् अविनश्वर है, तथा जिसके विषय में समस्त वचनों का समूह क्रीड़ामात्रसे ही नाशको प्राप्त होता है अर्थात् जो वचनका अविषय है; वह चिद्रूप तेज जयवन्त होवे ॥ ५ ॥ वह चैतन्यरूप तत्त्व सब प्रकार के विकल्पोंसे रहित है और उधर वह मन कर्मजनित राग-द्वेषके आश्रयसे होनेवाले विकल्पस्वरूप है । इसीलिये जब वह चैतन्य तत्त्व उस मनका भी विषय नहीं है तब फिर जड़स्वरूप ( अचेतन) शरीरकी तो बात ही क्या है- उसका तो विषय वह कभी हो ही नहीं सकता है ॥ ६ ॥ अब वह चैतन्य रूप तेज मनका और वचनका भी विषय नहीं है तब तो वह आकाश कुसुमके समान असत् हो जावेगा, ऐसी भी यहां आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि, वह स्वानुभवका विषय है। इसीलिये १ ब क चेतोवृतिव्यापार । २ अलं विभर्ति । * समता सरोबर स्व ४ क नमतात ५ पूर्णयोगेन । ६ छ 'समूह' नास्ति । ७ श जीत । Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ -559 : १०१२] १०. सदोषचन्द्रोषयः 555) नूनमत्र परमात्मनि स्थित स्वान्तमम्तमुपयाति तबहिः। तं विहाय सततं भ्रमस्यदः को विमेति मरणाच भूतले ॥८॥ 556 ) तस्वमात्मगतमेव मिखितं यो ऽस्पदेचा निहित समीयते। वस्तु मुष्टिविधृत प्रयशतः कानने सगयते स मूटपी॥९॥ 557) तत्परः परमयोगसंपदा पात्रमत्र म पुनर्वहिर्गतम्। नापरेण चलि[लतो यथेप्सितः स्थानझामविमषो निमाम्यते ॥१॥ 558) साधुलक्ष्यमनवाप्य निम्मये यत्र सुख गहने तपसिनः। अप्रतीतिभुषमाश्रिता जडा मान्ति माव्यगतपारसंमिमा॥१९॥ 559) भूरिधर्मयुतमप्यदुखिमानन्मतिविधिनागपुण्य पत्। भ्राम्यति प्रचुरणामसंकरे पातु पस्तदतिशापि चिन्महः ॥ २२ ॥ पाइनीजम् । यतः सकाशात् । स्वानुभूतिविषयः गोचरः । ततः कारयात् । पुष्पवत् नाति इति व ॥ ॥ न लिखितम् । खान्त मनः भर परमात्मनि । स्थितम्। अन्तं विनाशम् उपयादि। सत्तमाःकारणात् । परमात्मानम् विहाय खाया । मादः मनः। सतसं निरन्तरम् । बईः बाये। प्रमति। भूतले मरणात् कामाविमा यात्ममत सत्यम् अन्यसनिहित विलित समीक्षते। सः । मधीः मूर्खः । मुष्टिवित बस्तु बनने वने । प्रबलतः । मृगयते मालोस्पति पत्र परमात्मनि । तत्परः सावधानः भन्यः । परममोगसंपदा पात्रं भवेत् । पुनः रहिर्गतः न भरेत् । मास्मरहितः प्रात्मपत्र न मवेत् । अपरेन बबा - लि[M] तः सामान्यमार्गबलितः । ईप्सितः स्थानकाभविभवः । न विभाबते न प्राप्यते ॥१॥ यत्र चिन्मये । पसिनः मुनीधराः । साधु लक्ष्य समीचीलखभावम् । अनवाप्य अप्राप्य । अप्रतीविमुवम् माश्रिताः भुमीवरा डा मूर्जाः । मान्ति। के इन। नायपतपात्रवेनिभाः परशा सोमन्ते ॥ ११॥ सत् भिन्नरः । बुम्मान् । पातु रखतु । सिमक्ष महः । अतिशायि भतिशययुतम् । यत् वेतम्मतत्वम् । भरिधर्मपुतम् मपि। बबुद्धिमान मूर्यः । समहतिविधिना । मानानम् । वह सत् ही है, न कि असत् ॥ ७॥ पहा परमात्मामें लिखत दुभा मन निश्चयसे मरणको प्राप्त हो आग है। इसीलिये वह उसे (परमात्माको) छोड़कर निरन्तर बाब पदामि विचरता है। ठीक है इस पृथिवीतलपर मूत्युसे कौन नहीं जाता है। अर्थात् उससे सब ही उरते हैं।॥ ८ ॥ तन्य तस्व निम्नवसे मपने मापमें ही स्थित है, उस चैतन्यरूप तत्त्वको जो अन्य सानमें सित समझता है वह मूर्स मुहीमें रखी हुई बसको मानों प्रयमपूर्वक वनमें खोजता है ॥९॥ जो भव्य जीव इस परमात्मतत्त्वमें तल्लीन होता है यह समापिलप सम्पत्तियोंका पात्र होता है, किन्तु जो बाध पदार्थोंमें मुग्ध रहता है वह उनका पात्र नहीं होता है। बैंक हैजो दूसरे मार्गसे चल रहा है उसे इच्छानुसार खानकी प्रतिरूप सम्पत्ति नहीं प्राप्त हो सकती है॥१०॥ जो तपस्वी अतिशय गहन उस चैतन्यखरूप तत्व के विषयमें लक्ष्य (वेष्य) को न पाकर मतसमकाम (मिथ्यात्व ) रूप भूमिकाका आश्रय लेते हैं वे मृद्धि नाटकके पात्रोंक समान प्रतीत हैं। विशेषार्थजिस प्रकार नाटफके पात्र राजा, रैक एवं साघु आदिके भेषको ग्रहण करके और तदनुसार ही उनके चरित्रको दिखला करके दर्शक जनोंको यद्यपि मुग्ध कर लेते हैं, फिर भी थे यमार्ष राजा मादि नहीं होते । ठीक इसी प्रकारसे जो भाव तपश्चरणादि तो करते हैं, किन्तु सम्यग्दर्शनसे रहित होनेके कारण उस चैतन्य तत्त्वका अनुभव नहीं कर पाते हैं वे योगीका मेष ले करके भी वास्तविक योगी नहीं हो सकते ॥ ११ ॥ अज्ञानी प्राणी बहुत धोषाले जिस चेतन तत्त्वको अन्ध-हस्ती न्यायसे आन करके भनेक अन्म-मरणोंसे भयानक इस संसारमें परिश्रमण करता है वह अनुपम चेतन तत्त्वरूप सेज आप सबकी रक्षा १५श लिखित । २ वषपान नास्ति । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ पवानम्दि-पञ्चविंशतिः [ 5601 १०-१३ 560) कर्मषन्धकलितो ऽप्यबन्धनो रागद्वेषमलिनो ऽपि निर्मलः। देहवानपि च देहयर्जितचित्रमेतदखिलं किलात्मनः ॥ १३ ॥ 561) निर्विनाशमपि नाशमाथितं शून्यमयतिशयेन संभृतम् । एकमेव गसमप्यनेकता वस्वमीटगपि नो विरुष्यते ॥ १४ ॥ 562 ) विस्मृतार्थपरिमार्गणं यथा यस्तथा सहजचेतनाभितः। स क्रमेण परमेकां गतः स्वस्वरूपपदमाश्रयेमुवम् ॥ १५ ॥ 568) यव मनसि स्थितं भवेत् तत्तदेव सहसा परित्यजेत् । इत्युपाधिपरिहारपूर्णता सा यदा भवति तत्पदं तदा ॥ १६ ॥ भययुष्य मास्वा। प्रचुरजन्मसंकटे भ्राम्यति ॥ २॥ किल इति सत्ये। आत्मनः एतत् । चित्रम् अखिलम् आश्चर्यम् । तत्किम् । कर्मबन्धकलितः व्यासः अपि शास्मा । अबन्धनः बन्धरहितः । रागद्वेषमलिना भात्मा अपि निर्मलः । च पुनः । देवानपि मात्मा देहवर्जितः । एतत्सर्व चित्रम् ॥१३॥ईहक अपि तत्त्वं नो विरुध्यते । महः निर्विनाशमपि नाशम् आश्रितम् । शून्यम अपि अतिशयेन संभृतम् । एकमपि आत्मतत्त्वम् अनेकां गतम् । बग् अपि तत्त्वं नो विरुष्यते ॥ १४॥ सः भव्यः । क्रमेन खखरूपपदम् आश्रयेत् । किंलक्षणः स भव्यः । धुवं परम् एकता गतः यः भन्यः । तथा सहसचेतमाश्रितः यथा विस्मृतार्यपरिमार्ग विस्पत-अर्थ-अवलोकन विचारणं बा॥ १५॥ यत् यत् विकल्प मनचि स्थितं भवेत् ततदेव विकल्पं सहसा पीप्रेम परित्यजेत् । इति उपाधिपरिहारपूर्णता संकल्पविकल्पपरिहारः स्यागः यदा भवति तदा तत्पदं मोक्षपदं भवति ॥ १६ ॥ फरे ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार अन्धा मनुष्य हाथीके यथार्थ आकारको न जानकर उसके जिस अवयव (पांव या सूंड आदि) का स्पर्श करता है उसको ही हाथी समझ बैठता है, उसी प्रकार मिथ्यादृष्टि जीव अनेक धर्म युक्त उस चेतन तत्त्वको यथार्थ स्वरूपसे न जानकर एकान्ततः किसी एक ही धर्मस्वरूप समझ बैठता है । इसी कारण वह जन्म-मरण स्वरूप इस संसारमें ही परिश्रमण करके दुख सहता है ॥ १२ ॥ यह आत्मा कर्मबन्धसे सहित होकर भी बन्धनसे रहित है, राग-द्वेषसे मलिन होकर भी निर्मल है, तथा शरीरसे सम्बद्ध होकर भी उस शरीरसे रहित है। इस प्रकार यह सब आत्माका स्वरूप आश्चर्यजनक है | विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि शुद्ध निश्चयनयसे इस आत्माके न राग-द्वेष परिणाम हैं, न कोका बन्ध है, और न शरीर ही है । वह वास्तवमें वीतराग, स्वाधीन एवं अशरीर होकर सिद्धके समान है। परन्तु पर्यायस्वरूपसे वह फर्मबन्धसे सहित होकर राग-द्वेषसे मलिन एवं शरीरसे सहित माना जाता है ॥ १३ ॥ वह आत्मतत्त्व विनाशसे रहित होकर भी नाशको प्राप्त है, शून्य होकर भी अतिशयसे परिपूर्ण है, तथा एक होकर भी अनेकताको प्राप्त है। इस प्रकार नयविरक्षासे ऐसा मानने में कुछ भी विरोध नहीं आता है ॥ १४ ॥ जिस प्रकार मूर्छित मनुष्य स्वाभाविक चेतनाको पाकर ( होशमें आकर ) अपनी भूली हुई वस्तुकी खोज करने लगता है उसी प्रकार जो भव्य प्राणी अपने स्वाभाविक चैतन्यका आश्रय लेता है वह क्रमसे एकत्वको प्राप्त होकर अपने स्वाभाविक उत्कृष्ट पद (मोक्ष) को निश्चित ही प्राप्त कर लेता है ।। १५ ॥ जो जो विकल्प आकर मनमें स्थित होता है उस उसको शीघ्र ही छोड़ देना चाहिये। इस प्रकार जब वह विकल्पोंका त्याग परिपूर्ण हो जाता है तब वह मोक्षपद मी प्राप्त हो जाता है |॥ १६ ॥ - - कचित्र आश्चर्य अखिल । २'अपि नास्ति । ३श'स' नास्ति । शपथा । - Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mmmmmmmmmmmmmm-na 569:१०-२२] १०. सदोधचन्द्रोदयः १७३ 564) सहतेषु खमनो ऽनिलेषु यदाति सस्थममलारमनः परम् । ___ तद्गतं परमनिस्तरङ्गतामग्निरुप इह जम्मकानने ॥ १७ ॥ 565) मक्त इत्यपि न कार्यमासा कर्मजालकलितोऽहमित्यपि। निर्विकल्पपदवीमुपाश्रयन् संयमी हि लभते परं पदम् ॥ १८॥ 566) कर्म चाहमिति च ये सति द्वैतमेतदिह जन्मकारणम् । एक इत्यपि मतिः सती न यत्साप्युपाधिरचिता तदभूत् ॥ १९ ॥ 567 ) संविशुद्धपरमात्मभावना संविशुसपदकारणं भवेत् । सेतरेतरकृते सुवर्णतो लोहतश्च विकृतीस्तदाभिते ॥ २० ॥ 568) कर्म भिन्नमनिशं स्वतो ऽखिलं पश्यतो विशदयोधचक्षुषा । तत्कृते ऽपि परमावेदिनो थोमिनो न सुखदुःखकल्पना ॥ २१॥ 569 ) मानसस्य गतिरस्ति निरालम्ब पष पथि भास्वतो यथा । ___ योगिनो इगवरोधकारका संमिधिर्न तमसा कदाचन ॥ २२ ॥ समनोऽनिलेषु इन्द्रियमन-उच्छासनिःश्वासे। संदत्तेषु संकोपितेषु । यत् । परम् उत्कृष्टम् । अमलात्मनः तत्त्वम् । भाति शोभते । सरपरमनिस्वारगती गर्त विकल्परहित तत्त्वं विद्धि । तत्तस्वम् इह जन्मकान बने उग्रः अभिः ॥ १७॥ अई कर्मजालकलितः इत्यपि शोकं योगी न करोति । अअसा सारस्त्येन । अह कर्मजालरहितः मुकः इति हर्ष न कार्य करणीयम् । संयमी निर्विकल्पपदवीम् उपाश्रयन् । हि यतैः । परं पदं लभते प्रामोति ॥ १८॥ कर्म च पुनः अहम् एतचिन्तने द्वये सति । इह लोके । एतत् दैतम् । अहमेव कर्म इति युद्धिः चिन्तन संसारकारणम् । कर्म एव अहम् इति मतिः सती न । अङ्गमृत् जीवः । तस्य जीवस्य । इति मतिः सापि उपाधिरचिता ॥ १९ ॥ संविशुद्धपरमात्मभावना संविशुद्धपदकारणं भवेत् । सा भावना इतरा अशुद्धा । इतरहते अशुचपदकारणाय भवेत् । लोहतः विकृतिः लोहमयी भवेत् । च पुनः । सुषर्णतः विकृतिः सुवर्णमयी भवेत् । लोहाधिता लोहमयी। सुवर्णाश्रिता सुवर्णममी ॥२०॥ विशदबोधचक्षुषा निर्मलज्ञाननेणे। अखिलं समस्तम् । करें। अनिशम् । खतः आत्मनः सकाशात् । मिझ पश्यतः योगिनः मुनेः । सुखदुःखकल्पना न भवेत् । क सति । तस्कृतेऽपि तैः रागादिभिः सुखे मा दुःख का वेऽपि । किंलक्षणस्य मुनेः । परमार्थवेदिनः ॥२१॥ यदि । योगिनः मुनेः । मानसस्य गतिः निरालम्बे इन्द्रिय, मन एवं श्वासोच्छ्रासके नष्ट हो जानेपर जो निर्मल आत्माका उत्कृष्ट स्वरूप प्रतिभासित होता है वह अतिशय स्थिरताको प्राप्त होकर यहां जन्म (संसार ) रूप वनको जलानेके लिये तीक्ष्ण अनिके समान होता है ॥ १७ ॥ वास्तवमें 'मैं मुक्त हूं' इस प्रकारका भी विकल्प नहीं करना चाहिये, तथा 'मैं कोंके समूहसे सम्बद्ध हूँ ऐसा भी विकल्प नहीं करना चाहिये । कारण यह है कि संयमी पुरुष निर्विकल्प पदवीको प्राप्त होकर ही निश्चयसे उत्कृष्ट मोक्षपदको प्राप्त करता है ॥ १८ ॥ हे प्राणी ! 'कर्म और मैं' इस प्रकार दो पदार्थों की कल्पनाके होनेपर जो यहां द्वैतबुद्धि होती है वह संसारका कारण है । तथा 'मैं एक इं' इस प्रकारका भी विकल्प योग्य नहीं है, क्योंकि, वह भी उपाधिसे निर्मित होनेके कारण संसारका ही कारण होता है ॥ १९ ॥ अतिशय विशुद्ध परमात्मतत्वकी जो भावना है वह अतिशय निर्मल मोक्षपदकी कारण होती है । तथा इससे विपरीत जो भावना है वह संसारका कारण होती है । ठीक है- सुवर्णसे जो पर्याय उत्पन्न होती है वह सुवर्णमय तथा लोहसे जो पर्याय उत्पन्न होती है वह लोमय ही हुआ करती है ।। २० ॥ समस्त कर्म मुझसे भिन्न हैं, इस प्रकार निरन्तर निर्मल ज्ञानरूप नेत्रसे देखनेवाले एवं यथार्थ स्वरूपके वेत्ता योगीके कर्मकृत सुख-दुस्खके होनेपर भी उसके उक्त सुख-दुखकी कल्पना नहीं होती है ॥ २१ ॥ यदि योगीके मनकी गति सूर्यके समान निराधार मार्गमें ही हो तो उसके देखनेमें बाधा १कव। २ब सदाभूतः। कवितिखदाभिता। ४श भनउवासेष। ५कपत् । शरति। ७ जीवः तस्य संविः जीव इति। ८श सा उपाधि । चक्षुषा ज्ञाननेवण। १०मा नासि। Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ पानन्दि-यश्चविंशतिः [5706१०-१३570) साजरादिविरुति मे बसा सा तमोरहमितः सदा पृथ। मीखिते ऽपि सति से त्रिकारिता जायते न जलदैर्विकारिभिः ॥ २३ ॥ 571.) म्याधिनागमभिभूयते परं तद्गतोऽपि न पुनधिदात्मकः । उत्यितेने गृहमेष दखाते बहिना न गगनं सदाभितम् ॥२४॥ 572) बोधरूपमलिलैरुपाधिभिर्जित किमपि यत्तदेव मः। माम्यदस्पमपि तस्वमीशे मोक्षहेतुरिति योगनिधया २५ ॥ 573 ) योगतो हि लभते विवम्धन योगतो ऽपि किल मुख्यते नरः। योगपद्म विषमं गुरोगिरा बोध्यमेतदखिले मुमुक्षुणा ॥२६॥ 574) शुदबोधमयमस्ति वस्तु यद् रामणीयकपर तदेव नः । स प्रमाव इह मोहजः कषिरकरूप्यते पद परो[२]ऽपि रम्यता ॥ २७ ॥ पपि मागें संचरति गतिरवि तथा पक्षाचन । समसाम् अज्ञानानाम् । संनिधिनैकटपं न भवेत् । किलक्षणः समता सनिधिः । हग्-दर्शन-अवरोधकारकः । तत्र दृष्टान्तमाह । यथा भावतः सूर्यस्य। मागे संवरतः जनस्य अन्धकाराणां नैकटच न भवेत् ॥२२॥ सत्रराविविकृतिः । अनसा सामस्थेन । मे मममसरा विकृतिः । तनोः शरीरस्य अस्ति। इतः शरीरात् । भह सदा पृपक् मिशः । खे भाकाशे। विकारभिः जलदैः विकारकरणक्षाल: मेधैः । भोलित एउप सहि सातारा.स भिकारिता न जायते ॥ २३ ॥ व्याधिना भाम् । पर केवलम् । अभिभूयते पीज्यते । पुनः चिदात्मकः म अमिभूयते । विलक्षणः चिदात्मकः । ततः तस्मिन् शरीरे गतः प्रातः । उत्थितेन [वहिना ] अमिना । गृहमेब दनथे। तवाधित रहाधितम् । गगनम् बाकाशम् । म दह्यते ॥ २४ ॥ यत्किमपि योधरूपम् अखिलैः उपाधिभिः बर्जितं तदे। नः भस्माकम् । तत्वम्। भन्यत् अल्पम् अपि न। ईश तत्व मोक्षहेतुः इति योगनिषयः ॥ २५॥हियतः । योगतः नरः विवन्धन लभते। योगतोऽपि । किल इति सत्ये। नरः मुच्यते । योगवत्म विषमम् । मुमुक्षुणा मुनिना । एतत् योगमार्गम् । गुरोः गिरा बाम्या मृत्वा । बोचं ज्ञातम्पम् ॥ २६ ॥ यत् वस्तु शुद्धोधमयमस्ति तदेव । नः भस्मा रामणीयकपद रम्पपदम् । इह जगति । पहुंचानेवाली अन्धकार (अज्ञान ) की समीपता कभी भी नहीं हो सकती है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार निराधार आकाशमार्गमें गमन करनेवाले सूर्यके रहनेपर अन्धकार किसी प्रकारसे बाधा नहीं पहुंचा सकता है उसी प्रकार समस्त मानसिक विकल्पोंसे रहित आत्मतत्त्वमें संचार करनेवाले योगीके तत्त्वदर्शनमें अज्ञान अन्धकार मी पापा नहीं पहुंचा सकता है ॥ २२ ॥ रोग एवं जरा आदि रूप विकार वास्तवमें मेरा नहीं है, वह तो शरीरका विकार है और मैं उस शरीरसे सम्बद्ध होकर भी वस्तुतः उससे सर्वदा भिन्न हूँ । ठीक है-विकारको उत्पन्न करनेवाले मेघोंके साथ आकाशका मिलाप होनेपर भी उसमें किसी प्रकारका विकारभाव नहीं उदित होता ॥ २३ ॥ रोग केवल शरीरका अभिभव करता है, किन्तु वह उसमें सित होनेपर भी चेतन आत्माका अभिभव नहीं करता । ठीक है- उत्पन्न हुई अमि केवल घरको ही जलाती है, किन्तु उसके आश्रयभूत आकाशको नहीं जलाती है ॥ २४ ॥ समस्त उपाधियोंसे रहित जो कुछ भी शानरूप है वही हमारा स्वरूप है, उससे मिन्न थोड़ा सा भी तत्त्व हमारा नहीं है। इस प्रकारका योगका निश्चय मोक्षका कारण होता है ॥ २५ ॥ मनुष्य योगके निमित्तसे विशेष बन्धनको प्राप्त करता है, तथा योगके निमित्तसे ही वह उससे मुक्त भी होता है। इस प्रकार योगका मार्ग विषम है । मोक्षाभिलाषी भव्य लीवको इस समस्त योगमार्गका ज्ञान गुरुके उपदेशसे प्राप्त करना चाहिये ॥ २६ ॥ जो शुद्ध ज्ञानस्वरूप वस्तु है वही हमारा रमणीय पद है। इसके विपरीत जो अन्य १श रिष्तेन । . २ श विकारिमिधः विकारकरणी : जलदैः । समीलिते । ३ मा 'सति' नास्ति । ४सतवामित' नास्ति। ५श निधनं । ६श अतोऽसे रम्यता काल्प्य पर्यन्तः पाठः स्खलितः जातः 1 Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5771 १०-३०] १०. सद्बोधचन्द्रोदयः १७५ 575) आत्मबोधशुधिसीर्थमद्धत मानमत्र कुस्तोत्तम बुधाः। यन्न यात्यपरतीर्थकोटिभिः क्षालयत्यपि मलं तदातरम् ॥ २८ ॥ 576) चित्समुद्रतटबरसेवया जायते किमु न रखसंचयः। दुलहेतुरमुतस्तु पुर्गतिः किं न विप्लवमुपैति योगिनः ॥ २९ ॥ 577) निधयावगमनस्थितित्रयं रखसंचितिरिय परात्ममि । योग विधियीभौ लिभोन गुहारेक एव हि ॥ ३०॥ समोइजः मोद-उस्पनः । प्रमावः। यत्र प्रमादे। कश्चित् समये। अपरेऽपि वस्तुनि रम्यता कप्यतेसा मोहशक्तिः ॥ २७ ॥ आत्मबोध: आत्मज्ञानम् । शुचितीर्थम् अवतम् उत्तमम् अस्ति । भो बुधाः पखिताः । अत्र आत्मतीर्थ । खान कुरुत । यन्मलम् अपरतीर्थकोटिभिः न याति । तन्मलं अन्तरामलम् । आत्मतीर्थमानेन कृत्वा याति ॥ २८ ॥ चित्समुद्रतटबद्धसेवया चैतन्यसमुद्रसेवया कृत्वा । योगिनः रमसंचयः किमुन जायते । अपितु दर्शनादिरश्नसंचयः आयते । तु पुनः । अतः दर्शनाविरमर्सषया । दुर्गतिः । विफल बिनाशम् । किन उपैति । अपितु विनाशम् उपैति । किंलक्षणा दुर्गतिः । दुःसहेतुः ॥ २९ ॥ परारमनि विषये निवय-अवगमन-स्थितिदर्शनज्ञानमारित्रत्रयं रनसंचितिः इयं कथ्यते । पुमः । असो रजसंचितिः । किसी बाह्य जड वस्तुमें भी रमणीयताकी कल्पना की जाती है वह केवल मोहजनित प्रमाद है ॥ २७ ॥ आत्मज्ञानरूप पवित्र तीर्थ आश्चर्यजनक है । हे विद्वानो ! आप इसमें उत्तम रीतिसे मान करें। जो अभ्यन्तर मल दूसरे करोड़ों तीर्थोसे भी नहीं जाता है उसे भी यह तीर्थ धो डालता है ॥ २८ ॥ चैतन्यरूप समुद्रके तटसे सम्बन्धित सेवाके द्वारा क्या रत्नोंका संचय नहीं होता है ? अवश्य होता है । तथा उससे दुखकी कारणीभूत योगीकी दुर्गति क्या नाशको नहीं प्राप्त होती है ! अर्थात् अवश्य ही वह नाशको प्राप्त होती है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार समुद्रके तटपर रहनेवाले मनुष्यके पास कुछ बहुमूल्य स्तोका संचय हो जाता है तथा इससे उसकी दुर्गति (निर्धनता ) नष्ट हो जाती है । उसी प्रकार चैतन्यरूप समुद्र के तटकी आराधना करनेवाले योगीके भी अमूल्य रनों (सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र आदि) का संचय हो जाता है और इससे उसकी दुर्गति (नारक पर्याय आदि) भी नष्ट हो जाती है । इस प्रकार उसे नारकादि पर्यायजनित दुखके नष्ट हो जानेसे अपूर्व शान्तिका लाभ होता है ॥२९|| परमात्माके विषयमें जो निश्चय, शान और स्थिरता होती है। इन तीनोंका नाम ही रखसंचय है। वह परमात्मा योगरूप नेत्रका विषय है । निश्चिय नयकी अपेक्षा यह रत्नत्रयस्वरूप आत्मा एक ही है, उसमें सम्यग्दर्शनादिका मेद मी दृष्टिगोचर नहीं होता ॥ विशेषार्थ- सम्यग्दर्शनादिके स्वरूपका विचार निश्चय और व्यवहारकी अपेक्षा दो प्रकारसे किया जाता है । यथा- जीवादि सात तत्त्वोंका यथार्थ श्रद्धान करना, यह व्यवहार सम्यग्दर्शन है। उक्त जीवादि तत्वोंका जो यथार्थ ज्ञान होता है, इसे व्यवहार सम्यज्ञान कहते हैं। पापरूप क्रियाओंके परित्यागको व्यवहार सम्यक्चारित्र कहा जाता है । यह व्यवहारकी अपेक्षा उनके स्वरूपका विचार हुआ । निश्चय नयकी अपेक्षा उनका स्वरूप इस प्रकार है-शुद्ध आत्माके विषयमें रुचि उत्पन्न होना निश्चय सम्यदर्शन, उसी आत्माके स्वरूपका जानना निश्चय सम्पमान, और उक्त आत्मामें ही लीन होना यह निश्चय चारित्र कहा जाता है। इनमें व्यवहार जहाँ तक निश्चयका साधक है वहां तक ही वह उपादेय है, वस्तुतः यह असत्यार्थ होनेसे हेय ही है । उपादेय केवल निश्चय ही है, क्योंकि, वह यथार्थ है । यहां निश्चय रखत्रयके एक तदन्तरं । २मशकल्पयेत् । करसत्रयसंचयो। ४ा सत्यसंचयाव । Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पानन्दि-पञ्चविंशतिः [578:10-11578) प्रेरिताः श्रुतगुणेन शेमुरीकार्मुकेण प्रारबदू गादयः। बारवेध्यविषये कृतश्रमाश्चिद्रणे प्रतकर्मशत्रषः ॥ ३१॥ 579) चित्तवाव्यकरणीयवर्जिता मिश्धयेन मुनिवृतिरीरशी। भन्यथा भवति कर्मगौरवात् सा प्रमादपदधीमुपेयुषः ॥ ३२ ॥ 580) सत्समाधिशशलान्छनोदयादललत्यमलबोधवारिधिः । योगिनोऽशुसाशं विभाश्यते यत्र मन्नमखिलं चराचरम् ॥ ३३ ॥ 581 ) फर्मशुरकतुणराशिरुमतोऽप्युनते शुधिसमाधिमारुतात् । मेश्योधपहने हदि स्थिते योगिनो सटिति भस्मसादयेत् ॥ ३४ ॥ 582) चित्तमप्तकरिणा न तो दुष्टयोधषमपतिनाथमा । योगकल्पतहरेष निश्चितं बाछित फलति मोक्षसत्फलम् ॥ ३५ ॥ योगदृष्टिविषयी भवन् निधयेन एकः आत्मा ॥३०॥ शेमुषीकार्मुकेण श्रेहबुद्धिधनुषा । भुतगुणेन श्रुतपणन (1) दर्शनशानयारित्रशराः । प्रेरिताः । । बाबवेभ्यविषये परपदाये । विणे चैतन्यरणे । तश्रमाः प्रहतशत्रवः जाताः कर्मशत्रवः हताः ॥ ३१ ॥ निश्चयेन मुनितिरीदशी । किंलक्षणा । चितवान्यकरणीयवर्जिता मनोनन्द्रियरहिताः । प्रमादपदवीम् उपेयुषः बालवतः । मु गीरथात ! पतिः अगाया प्रति सा मुनिवृत्तिः विपरीता मके ॥ ३२॥ सत्समाधिशबालाग्छनोदयात् उपशमचन्द्रोदयात् । योगिनः मुनेः । अमलबोधवारिधिःोधसमुसः । सति। या ज्ञानसमुद्र । ममम् भखिलं चराचरम् अणुसहर्श विभाष्यते ॥ ३३ ॥ योगिनः कर्मशुष्फतृणराशिः । सटिति' शीघ्रण । भस्मसात् भस्मीभावः । भवेत् । क सति। शुचिसमाधिमास्तात् । उठेऽपि मेधोधदइने इदि स्थिते सति । किंलक्षणा तृणराशिः । उपतः ॥ १४॥ योगकल्पतरूः वृक्षः । निश्चितं वाञ्छितं मोक्षफल फलति । यदि । वित्तमतकारिणा मनोहस्तिना 11 हता न पीडितः । अप । घेद्यदि। दुष्टयोध-ज्ञान-बहिना अमिना न भस्सीकृतः । तदा वाहित फलति ॥ १५ ॥ स्वरूपका ही दिग्दर्शन कराया गया है। वह निर्मल ध्यानकी अपेक्षा रखता है ।।३०॥ आगमरूप डोरीसे संयुक्त ऐसे बुद्धिरूप धनुषसे प्रेरित सम्यग्दर्शनादिरूप बाण चैतन्यरूप रणके भीतर बाब पदार्थरूप लक्ष्यके विषयमें परिश्रम करके कर्मरूप शत्रुओंको नष्ट कर देते हैं । विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार रणभूमिमें डोरीसे सुसज्जित धनुषके द्वारा छोदे गये बाण लक्ष्यभूत शत्रुओंको वेधकर उन्हें नष्ट कर देते हैं उसी प्रकार यहां चैतन्यरूपी रणभूमिमें आगमाभ्यासरूपी डोरीसे बुद्धिरूपी धनुषको सुसज्जित कर उसकी प्रेरणासे प्राप्त हुए सम्यग्दर्शनादिरूपी बाणों के द्वारा कर्मरूपी शत्रु भी नष्ट कर दिये जाते हैं ॥ ३१॥ निश्चयसे मुनिकी वृत्ति मन, वचन एवं कायकी प्रवृत्तिसे रहित ऐसी होती है । तात्पर्य यह कि वह मनोगुप्ति, वचनगुप्ति एवं कायगुप्सिसे सहित होती है । परन्तु प्रमाद अवस्थाको प्राप्त हुए मुनिके कर्मकी अधिकताके कारण वह (मुनिवृत्ति) इससे विपरीत अर्थात् उपर्युक्त तीन गुप्तियोंसे रहित होती है ॥ ३२ ।। समीचीन समाधिरूप चन्द्रमाके उदयसे हर्षित होकर योगीका निर्मल ज्ञानरूप समुद्र वृद्धिको प्राप्त होता है, जिसमें डूबा हुआ यह समस्त चराचर विश्व अणुके समान प्रतिभासित होता है ॥ ३३ || पवित्र समाधिरूप वायुके द्वारा योगीके हृदयमें स्थित भेदज्ञानरूपी अमिके प्रज्वलित होनेपर उसमें ऊंचा भी कर्मरूपी सूखे तृणोंका देर शीघ्र ही भस्म हो जाता है ॥ ३४ ॥ यदि यह योगरूपी कल्पवृक्ष उन्मत्त हाथीके द्वारा १क । २करसगिति। ३श इतिः। ४क विषये पदार्थे । ५क समिति। ६क मस्मभाव । ७.चदि । चित्तमत्तकरिणा मनोहस्तिना। न हत्तः न पीषितः । अथवा । चेदि । दुष्टयोध कुज्ञानवाहिना अमिना न मम्मीकृतः । तदा एषः योगकस्पतकः पृक्षः निश्चितं बाछित मोषफवं फलति ॥ ३५॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७७ --587 : १0-10] १०. सदोधचन्द्रोवा 588 ) नागदेश प्रतिवाहिनी सदा धामनि शुतगता पुरः परः। थाषा परमात्मसंविदा भियते न हदयं मनीषिणः ॥ २६ ॥ 584 ) यः कषायपवनैरचुम्बितो शोधयतिरमलोलसहर्शः। किं न मोहतिमिरं विखण्डयन भासते जगति चिरप्रदीपकः ॥ ३७ ॥ 585) बाधशास्रगहने विहारिणी या मतिर्षदुविकल्पधारिणी। चित्स्यरूपकुलसमनिर्गता सा सती न सकशी कुयोषिता ॥ ३८॥ 586) यस्तु देयमितरच भावयन्नापतो हि परमातुमीइते। सस्य बुद्धिरुपदेशतो गुरोराश्रयेस्स्वपदमेव निश्चलम् ॥ ३९ ॥ 587 ) सुप्त एष बहुमोई निद्रया लस्तिः स्वमबलादि पश्यति । जाप्रतोषला गुरोर्गतं संगतं सकलमेव इश्यते ॥ ४०॥ भर लोके । मनीषिणः मतिवाहिनी पण्डिसस्य बुद्धिमयी । सापदेव तामत्कालम् । श्रुतगता सिद्धान्ते प्रामा । पुरः पुरः भने बमे। सदा धावति । यावत्कालम् । परमात्मसंविदा परमारमझानेन । हृदय न मियते ॥३६॥ विप्रदीपकः मोहतिमिरे विखण्डयन्' जगति विषये किं न भासते। अपि तु भासते । यः चैतन्यदीपकः कषायपवनैः अधुम्बितः । किशक्षणः चैतन्यदीपक । बोषवभिमल-निर्मल-उासदशः भरलप्योगवति ॥३७॥ या मतिः पाशाखगहने बने । विहारिणी खेचचरमशीला। किंलक्षणा मतिः। बहुविकल्पधारिणी। पुनः मित्स्वरूपकुलसननिर्गता।सा मतिः सती साध्वी न ।योषिता सदशी सा मतिः ॥३८॥ यः भव्यः । हेय स्याज्यम् । पुनः। इतरत् अहेयम् उपादेयम् । द्वयम् । भावयन् विचारयन् । आयतः हेयात् । परम् उपादेयम् । आतुं प्राम् । ईइते वाश्यति। तस्य बुद्धिः गुरोः उपदेशतैः । निश्चल खपदम् आश्रयेत् ॥३९॥ एष भीषः सुतः बहुमोहनिया ललितः। अबलादि वं पश्यति कलग्रादि वात्मीय पश्यति । गुरोः उचवमा उचक्नेन । जामता अथवा मिथ्याज्ञानरूपी अभिके द्वारा नष्ट नहीं किया जाता है तो वह निश्चयसे अभीष्ट मोक्षरूपी उत्तम फलको उत्पन्न करता है ॥ ३५ ॥ यहां विद्वान् साधुकी बुद्धिरूपी नदी आगममें स्थित होकर निरन्तर तब सक ही आगे आगे दौड़ती है जब तक कि उसका हृदय उत्कृष्ट आत्मतत्त्वके ज्ञानसे भेदा नहीं जाता ॥ विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि विद्वान् साधुके लिये जब उत्कृष्ट आत्माका स्वरूप समझमें आ जाता है तब उसे इतके परिशीलनकी विशेष आवश्यकता नहीं रहती । कारण यह कि आस्मतत्त्वका परिज्ञान प्राप्त करना यही तो आगमके अभ्यासका फल है, सो वह उसे प्राप्त हो ही चुका है । अब उसके लिये मोक्षपद कुछ दूर नहीं है ।। ३६ ॥ जो चैतन्यरूपी दीपक कषायरूपी वायुसे नहीं छुआ गया है, ज्ञानरूपी अमिसे सहित है, तथा प्रकाशमान निर्मल दशाओं (द्रव्यपर्यायों) रूप दशा (बत्ती) से सुशोभित है, वह क्या संसारमें मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करता हुआ नहीं प्रतिमासित होता है ! अर्थात् अवश्य ही प्रतिभासित होता है ॥ ३७ ॥ जो बुद्धिरूपी स्त्री बाब शास्त्ररूपी वनमें घूमनेवाली है, बहुतसे विकल्पोंको धारण करती है, तथा चैतन्यरूपी कुलीन घरसे निकल चुकी है। वह पतिव्रताके समान समीयीन नहीं है, किन्तु दुराचारिणी स्त्रीके समान है ।। ३८ ॥ जो भव्य जीव हेय और उपादेयका विचार करता हुआ पहले ( हेय) की अपेक्षा दूसरे (उपादेय) को प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है उसकी बुद्धि गुरुके उपदेशसे स्थिर आत्मपद ( मोक्ष ) को ही प्राप्त करती है ॥ ३९॥ मोहरूपी गाढ़ निद्राके वशीभूत होकर सोया हुआ यह प्राणी स्त्री-पुत्रादि वास वस्तुओंको अपनी समझता है । वह जब गुरुके ऊंचे वचन अर्थात् उपदेशसे जाग उठता है तब संयोगको प्राप्त हुए उन तिनः । ५. साय' सश विर्षजयन्, विडम्बपन् । ३ मत तदिह मोह। ४भ पर्ति, -'पास' नायि। उपदेशात्। गुरोपसा । नास्ति। Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ [68818011 पसनन्दि-पश्चविंशतिः 588) अपितेन बहुमा किमाभयेद बुद्धिमानमलयोगसिद्धये । साम्यमेव साहलेसपाधिमिः कर्मजाजनिविर्षितम् ॥ ४ ॥ 585 मामलावया याभन भूरिजम्मकृतपापसंक्षयः। बोषपचरचयस्तु तरता ऊपते हि जगतां पति नरम् ॥ ४२ ॥ 590) चिरस्वरूपपदलीनमानसो या सदा सकिल योगिनायक। जीवराशिरसिलभिधात्मको दर्शनीय इति यात्मर्सनिमः ॥ ४५ ॥ 591) अन्तरगयहिरयोगतः कार्यसिबिरखिलेति योगिना । भासितव्यमनिशं प्रयक्षता खं परं साशमेव पश्यता || ४ पुस्पेण सकन संगत मिलित बखागते विनधरम् । रयते ॥४॥बहुना अल्पितेन किम् । बुद्धिमान अमलयोगसिवये साम्यमेव भावयेत् । किसक्षम साम्यम् । सकले कर्मशालजमितेः उपापिभिः । पञ्जित रहितम् ॥४॥ परमात्मनः नाममात्रकथयस अत्वा भूरिजमातपापसंक्षयः विनाशः भवति । रोघरतरुचयः पर्शनशानचारित्राणि । तव्रताः तस्मिनास्मनि गताः । मरे जगतां पति कुर्वते ॥४२॥ यः मुनिः । सहा चित्खरूपपदलीनमानसः । बिल इति सत्ये । स योगिनायक मवेत् । च पुनः। मखितः धीवराशिः विदारमः आत्मसनिमः । दर्शनीयः अवलोकनीयः ॥३॥अन्तराबाहिशगयोगतः मखिला कार्यसिद्धिः अस्ति इति हेतोः । योगिना मुनिना । अनिशम् । प्रयत्नतः । मासिवय स्थातम्पम् । किंलक्षणेन मुनिना । वं परम् । सशं सब ही बाब पदार्थोंको नश्वर समझने लगता है ।। ४० ।। बहुत कहनेसे क्या ? बुद्धिमान् मनुष्यको निर्मल योगकी सिद्धिके लिये कर्मसमहसे उत्पन्न हुई समस्त उपाधियोंसे रहित एक मात्र समताभावका ही आश्रय करना चाहिये ॥ ४१ ।। परमात्माके नाम मात्रकी कथासे ही अनेक जन्मोंमें संचित किये हुए पापोंका नाश होता है तथा उक्त परमात्मामै खित ज्ञान, चारित्र और सम्यग्दर्शन मनुष्यको जगत्का अधीश्वर बना देता है ॥ ४२ ॥ जिस मुनिका मन चैतन्य स्वरूपमें लीन होता है वह योगियोंमें श्रेष्ठ हो जाता है। चूंकि समस्त जीवराशि चैतन्यस्वरूप है अतएव उसे अपने समान ही देखना चाहिये ।। ४३ ॥ सब कार्योकी सिद्धि अन्तरंग और बहिरंग योगसे होती है । इसलिये योगीको निरन्तर प्रयत्नपूर्वक स्व और परको समदृष्टि से देखते हुए रहना चाहिये । विशेषार्थ-योग शब्दके दो अर्थ हैं-मन, वचन एवं कायकी प्रति और समाधि । इनमें मन, वचन और कायकी प्रवृत्तिरूप जो योग है वह दो प्रकारका है-शुभ और अशुभ । इनमें शुभ योगसे पुण्य तथा अशुभ योगसे पापका आसव होता है और तदनुसार ही जीवको सांसारिक सुख व दुखकी प्राप्ति होती है । यह दोनों ही प्रकारका योग शरीरसे सम्बद्ध होनेके कारण बहिरंग कहा जाता है । अन्तरंग योग समाधि है । इससे जीवको अविनश्वर पदकी प्राप्ति होती है । वहां । १षप्रतिपाठोध्यम्, भयोगनायकः । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -585 : 2016 १०. सदोषचन्द्रोदया 592)ोक एष गुभाषमाषिता सार्जितेन विविधेन कर्मणा । पश्यतो ऽस्य जितीजेडात्मनः झोममेति दयं न पोगिमः ॥ ५५॥ 598) सुप्त एष बहुमोइमिडया दीर्घकालमधिरामया जनः। शासमेतदभिगम्य सांगतं सुप्रयोघ रह जायतामिति ॥ ४६॥ 594) चित्स्वरूपंगगने जयत्यसा धेकदेशविषयापि रम्यता। चितवचःकरैः परैः पसनम्दिवयनेम्दुना कता ॥ ७ ॥ 595 ) स्पकाशेषपरिप्रहः शमधमो गुप्तित्रयालंकता शुखात्मानमुपाभितो भवति यो योगी निराशस्ततः । मोक्षो इस्तगतो ऽस्य निर्मलमतेरेतायतैव ध्रुषं प्रत्यूदं कुरते खभाषविषमो मोहो न बैरी यदि ८ ॥ समालम् । पश्यता ॥४४॥ एष लोकः खार्जितेन । विविधन नानास्पेण । कर्मणा। बहुभावमावितः संकल्पविकल्पमुक्तः । अस्य जगत्मनः लोकस्य । विकृतीः विकारान् । पश्यतः । योगिनः मुनेः । इदर्य झोभं न एति व्याकुळ न गम्मति ॥४५॥ ख बनः दीर्घकाले बहुमोनिद्रया सुप्तः । विलक्षणया निद्रया । भविरामया अन्तरहितया । इति हेतोः । इह जगति विषमे । सांप्रतम् एतत् शालाम् । अधिगम्य शास्वा। भो लोक। सुप्रयोषः जास्त जागरुक जायताम् ॥४॥ पिलरूपगगने वेतन्य-आकाशे। असौ रम्यता जयति । किलक्षणा रम्यता । एकदेशविषया । पचनन्दिवदनेन्दुना बदन चन्द्रेण । ईषत्उद्रतवः कः परैः कृता॥४७॥ यः योगी त्यक्ताशेषपरिप्रहः भवति । पुनः किलक्षणः योगी। शमधनः क्षमापनः । ततः कारणात् । गुप्तित्रमालंकृतः । पुनः किलक्षणः योगी। शुद्धात्मानम् पाश्रितः । निराशः भाशारहितः । अस निर्मलम योगिनः । एतायता हेतुना । भुर्व निवितम् । मोक्षः हस्तगतः प्रायः भवेत् । यदि चेत् मोइः वैरी खमावनिमः । श्रपूर विनम् । अन्यकर्ताने स्व और परमें समबुद्धि रखते हुए योगीको इस अन्तरंग योगमें स्थित रहनेकी ओर संकेत किया है ।। ११ ॥ यह जनसमुदाय अपने कमाये हुए अनेक प्रकारके फर्भके अनुसार बहुत अवस्थाओंको प्राप्त होता है । उस अज्ञानीके विकारोंको देखकर योगीका मन क्षोभको नहीं प्राप्त होता ॥ ४५ ॥ यह प्राणी निरन्तर रहनेवाली मोहरूप गाद निद्रासे बहुत काल तक सोया है। अब उसे यहा इस शास्त्रका अभ्यास करके जागृत (सम्यग्ज्ञानी) हो जाना चाहिये ।। ४६ ॥ पद्मनन्दी मुनिके मुखरूप चन्द्रमाके द्वारा किंचित् उदयको प्राप्त हुई उत्कृष्ट बचनरुप किरणोंसे की गई वह रमणीयता एक देशको विषय करती हुई मी चैतन्यरूप आकाशमें जयवन्त होवे ॥ ४७ ॥ जिस योगीने समस्त परिग्रहका परित्याग कर दिया है, जो शान्तिरूप सम्पत्तिसे सहित है, तीन गुसियोंसे अलंकत है, तथा शुद्ध आत्मस्वरूपको प्राप्त करके आशा (इच्छा या तृष्णा ) से रहित हो चुका है उसके मार्गमें स्वमावसे दुष्ट वह मोहरूपी शत्रु यदि विन नहीं करता है तो इतने मात्रसे ही मोक्ष इस निर्मलबुद्धि योगीके १ च विश्वकप । २ कस करः करैः। पकः किरणः कृता । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि-पवार्षिशतिः [596:१०-१596) प्रैलोक्ये किमिहारित को ऽपि स सुरा किंषा नरः किं फणी पमानीर्मम यामि कातरतया यस्याश्रयं चापदि । पकं यत्परमेश्वरेण गुरुणा मि शेषवामहाभयं भान्तिलेशहरे हदि स्फुरति वेतचरमस्यद्भुतम् ॥ ४९ ॥ 597 ) तवमानसुधार्णवं लाहरिमिरं समुल्लासयन् सम्यागालिदिमणिका गोमानी पक्षा सद्विचालितभन्यकैरवकुले कुर्षम् विकासत्रिय पोगीतोषयभूधरे विजयते सदोधचन्द्रोदयः॥५०॥ म सकते ४८ ॥ एतत्वम् । परमेधरेण गुरुणा उकम् । चेत् यदि । सत्यम् अत्यनुतं मे इदि स्फुरति तदा इह त्रैलोक्ये स नेपिपुर: देवः । किम् अस्ति। वा भपा । स नरः किम् अस्ति । भषसः फणी शेषनामः । किम् अस्ति ! यस्मात् मम मी. मयं भवति। पुनः । थापदि सत्य कातरतया यस्स भाभयं यामि। किंलक्षणं तत्त्वम् । निःशेषवाञ्छाभयनान्तिदेशहरम् ॥ोगीन्द्रोदयभूषरे योगीन्द्र एव उदयभूधरः सदयाचलः तस्मिन् योगीन्द्रोदयभूषरे । सदोषचन्द्रोदयः निमयते। चन्द्रोदयः कि कुर्वन् । तत्वज्ञानसुधार्णवे तत्वज्ञान सुधासमुद्रम् । लहरिभिः । दूरम् अतिशयेन । समुहासयन भामरयम् । पुनः तृष्णापत्र विनिरिकम संकोचमुहां दक्षत् । सद्विचाश्रितभव्यकैरवकुळे विकाशभियं कुर्वन् विजयते ॥५॥ इति सदोषयोदयः ॥ १० ॥ हायमें ही सित समझना चाहिये ।। ४८ ॥ महान् परमेश्वरके द्वारा कहा हुआ जो चैतन्य तत्त्व समस्त इच्छा, भव, प्रान्ति और क्लेशको दूर करता है वह आश्चर्यजनक चैतन्य तत्त्व यदि हृदयमें प्रकाशमान है तो फिर तीनों लोकोंमें यहां क्या ऐसा कोई देव है, ऐसा कोई मनुष्य है, अथवा ऐसा कोई सर्प है। जिससे मुझे भय उत्पन हो अथवा आपत्तिके आनेपर मैं कातर होकर जिसकी शरणमें जाऊं ! अर्थात् उपर्युक्त पैतन्य स्वरूपके हवयमें स्थित रहनेपर कमी किसीसे भय नहीं हो सकता है और इसीलिये किसीकी शरणमे मी जानेकी आवश्यकता नहीं होती है ।। ४९॥ जो सोधचन्द्रोदय ( सम्यम्हानरूपी चन्द्रका उदय ) वसज्ञानरूपी अमृतके समुखको सस्वविचाररूप लहरोंके द्वारा दूरसे ही प्रगट करता है, तृष्णारूपी पत्तोंसे विचित्र ऐसे चितरूपी कमलको संकुचित करता है, तथा सम्यग्ज्ञानके आश्रित हुए भव्यजीवोरुप कुमुदोके समूहको विकसित करता है। वह सद्बोधचन्द्रोदय ( यह प्रकरण ) मुनीन्द्ररूपी उदयाचल पर्वतपर जयवन्त होता है।॥ ५० ॥ इस प्रकार सदोषचन्द्रोदय अधिकार समास हुआ ॥१०॥ १शविला सतलज्ञानसमुत्रम् । Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. निश्चयपश्चाशत् ] 598) दुर्लक्ष्य जयति पर ज्योतिर्चा गणः कपीन्द्राणाम् । जलमिव बन्ने यस्मिन्नलग्यमभ्यो बहिलठति ॥१॥ 539) मनसो ऽचिम्त्यं पाबामगोचरं यन्महस्तमोर्भिनम् । सानुभवमात्रगम्यं चिद्रूपममूर्तमव्यायः ॥२॥ 600) वपुरादिपरित्यक्ते मज्जस्यानम्पसागरे मनसि । प्रतिभाति यत्तदेकं जयति पर चिन्मयं ज्योतिः ॥ ३॥ 601 ) स जयति गुरुरीयान् यस्यामलवचनरश्मिभिर्ममिति । नश्यति सन्मोइतमो यदविषयो दिनकरादीनाम् ॥ ४॥ 602) आस्तां जराधिदुःख सुखमपि विषयोद्भय सतां दुःखम् । तैर्मन्यते सुखं यन्मुको लाप दुःसाध्या ॥ ५॥ 603 ) श्रुतपरिचितानुभूतं सर्व सस्य जन्मने सुबिरम्। नतु मुक्तये न सुलभा शुजारमज्योतिमपलब्धिः ॥ ६॥ तत् पर दुर्लक्ष्य ज्योतिर्जयति । यस्मिन् ज्योतिषि। स्वीन्द्राणां वाचा गणा समूहः । बहिः बाहो अठति । लक्षपः पार्था गमः । भलम्पमध्यः । कस्मिन् कामेव । वो जलमिव । पहिलठति ॥ १॥ चिद्रूपं महः । वः युष्मान । म्यात् रक्षतु । यन्महः । मनसः भचिन्नम् अगम्यम् । यन्महः बाचा अगोचरं तनोमिंगम् । यन्महः खानुभवमात्रराम्यम् । यन्महः भमा तज्योतिः रक्षतु ॥३॥ तदेक चिन्मय पर ज्योति जयति । यत् ज्योतिः प्रतिमाति भानन्दसागरे मनसि मजति। किंलक्षणे भानन्दसागरे। वपुराविपरित्यके शरीरादिरहिते ॥ ३ ॥ सः गरीमान् गरिछः गुरुः जयति यस गुरोः पमलवचनरश्मिभिः तन्मोहतमः भगिति मश्यति मम्मोहतमः दिनकरावीना अविषयः अगोचरः॥४॥ जराविवुःखम् पाखा कूरे विछ । विषयोद्भवम् अपि सुखम् । सतो साधूनाम् । दुःखम् । तैः साधुमिः परसुखम् । ममिलष्यते तस्मुखम् । मुजौ मोझे । मन्यते। पुनः । सा मुफिः । दुःसाध्या ॥५॥ अत्र संसारे । सर्वस्य जीवस । सर्व वस्तु सर्व विषयादिवस्त । मुरिनिरकासम् । जिस प्रकार जल वज्रके मध्यमें प्रवेश न पाकर बाहिर ही लुढ़क जाता है उसी प्रकार जिस उत्कृष्ट ज्योतिके मध्यमें महाकवियोंके वचनोंका समूह भी प्रवेश न पाकर बाहिर ही रह जाता है, अर्थात् जिसका वर्णन महाकवि भी अपनी वाणीके द्वारा नहीं कर सकते हैं, तथा जो बहुत कठिनतासे देखी जा सकती है वह उत्कृष्ट ज्योति जयवन्त होवे ॥१॥ जिस चैतन्यरूप तेजके विषयमें मनसे कुछ विचार नहीं किया जा सकता है, बचनसे कुछ कहा नहीं जा सकता है, तथा जो शरीरसे मिन्न, अनुभव मात्रसे गम्प एवं अमूर्त है। यह चैतन्यरूप तेज आप लोगोंकी रक्षा करे ॥ २॥ मनके बार शरीरादिकी ओरसे हटकर भानन्दरूप समुद्रमें डूब जानेपर जो ज्योति प्रतिभासित होती है वह उत्कृष्ट चैतन्यस्वरूप ज्योति जयवन्त होवे ॥ ३ ॥ जो अज्ञानरूप अन्धकार सूर्यादिकोंके द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता है यह जिस गुरुकी निर्मल बचनरुप किरणोंक द्वारा शीघ्र ही नष्ट हो जाता है वह श्रेष्ठ गुरु जयवन्त होवे ॥४॥ स्वत्व आदिके निमिक्से उत्पन्न होनेवाला दुख तो दूर ही रहे, किन्तु विषयभोगोंसे उत्पन हुआ सुल भी साधु जनोंको दुखरूप ही प्रतिभासित होता है । थे जिसको वास्तविक सुख मानते हैं वह सुख मुक्ति है और यह बहुत कठिनतासे सिद्ध की जा सकती है ॥ ५ ॥ लोकमें सब ही प्राणियोंने चिर कारसे HMMA nammarAARAARinarane सटिति। रस प्रती एवंविधा टीका पर्व-तत्पर ज्योतिः अपति । मत्पर ज्योतिः कवीन्द्रार्णा पाया दुर्लकई पत्र म्योतिः पाच गणः यसि मयः सन्न पहिरति कमिव बने. अमिव ॥१॥ अमति ४ योति पर जपति । । Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परन्दि-पर्षिशतिः [604:११५ 604) मई की रशियोनिधिमगोवनें सहाय । मनुभूतियाब नलस्यात्मनि परं गहनम् ॥७॥ 60) महविरसोपवबोधवाय कर्मशवाय शुखमयः। सा मुमुक्षुयमिति वरपे सदाश्रित किचित् ॥८॥ 606) मायेऽस्तायौ भूताओं देशिवस्तु शुखमयः । शुबनयमाभिता से प्राघुवन्ति यवयः पदं परमम् ॥९॥ 607) तवं वागविवति मतिमासाच जायते वाच्यम् । गुरुपर्वयादिविवृते प्रसरति तचापि शतशाखम् ॥ १० ॥ 608) मुग्योपचारविति व्यवहारोपायतो यवः सम्तः । पात्या भयम्ति शुवं तत्त्वमिति म्यवाहतिः पूज्या ॥११॥ 600) वात्मवि निमोतियो खवये मवक्षतये । ... मुसार्वपातिदेयमेव ववितवम् ॥१२॥ पुगतम् खम्नम् बक्षिा । सन्मने साराय । तु पुनः । मुल्ये मोक्षाय । या युद्धात्मज्योतिरुपलभिः सा उसका मुख्यान ज्योति लम् । का बामनि । पोषोऽपि विरल: अप्राप्यः । अत्र मात्मनि रतिः मिवरणम् । माथ् मसिनापानांवाचीनाम् । बोचरः। तत्र वात्मनि । बनुभवि दुर्लक्ष्या ॥ ॥ व्यवतिः म्यवहारः। भोपदेशनाव मुक्सोक्साब माति । पुनका शव भवति । बई मुमुक्षुः। इति हेतोः । किंचित् सदामित समावितम् । खार्थम् बाल्माम् ।चित बावेमविवामि ॥ ८॥ म्यवहारः भूताः भूतानां प्राणिनाम् मयः भूतार्थः (१) मार गिराः सवितः या भूतान सखायः देशितः कषितः । वे मतमः मुनयः शुखमयम् भाश्रिताः ते मुनयः। पर पर प्रारदि स लंबा-अनिवति वरनरदितम् । तस्वम् । व्यवहार्ति म्यबहारम् । भासाद्य प्राप्य । बाचं कस्बेकम् । बच्चे ब लम् । गुणवादिविषः महारात् शतशास प्रसरति ॥ १०॥ यतः यस्मादेतो। सन्सासमार-उपासवा, मुश्म-उपवारविकृति शुनिवयम्सहर हावा । शुद्ध तत्वम् माधयन्ति । इति हेतोः1 भएकी रामदारक एम . वात्मनि विषये । निववोपस्थितयः दर्शनज्ञानचारप्राणि रात्रयम् । भगक्षतवे जन्म-मलरूप संसास्की बरणीमत वस्तुओंके विषयमें सुना है, परिचय प्राप्त किया है, तथा अनुभव मी किया है । किन्तु बो शुद्ध आत्माकी ज्योति मुक्तिकी कारणभूत है उसकी उपलब्धि उन्हें सुलभ नहीं हुई॥६॥ बो यात्या बरनोंक क्योचर है-विकस्पातीत है-उस आत्मतत्त्वके विषयमें प्रायः ज्ञान ही नहीं होता है, उसके विश्वमै सिति और भी कठिन है, तथा उसका अनुभव तो दुर्लभ ही है। वह बलवत्व अत्यन्त दुर्मम है ॥७॥ व्यवहारनय अज्ञानी मनको प्रतिबोधित करनेके लिये है, किन्तु शुद्ध निवास कोंक नात्र कारण है। इसीलिये मोसकी अमिलाषा रखनेवाला मैं ( पदमनन्दी) स्वके निमित्त शुद्ध नियनसके भाषसे प्रयोक्तीमत आत्मस्वरूपका वर्णन करता हूं॥ ८॥ व्यवहारनय असत्य पदार्थको रिस पस्नेवाल वा निश्वनय गवार्थ यातको विषय करनेवाला कहा गया है । जो मुनि शुद्ध निश्चयनयका सा लेते हैं ये उपट पर (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं ॥ ९॥ वस्तुका यथार्थ स्वरूप वचनके अगोचर है अर्थात् कह कनके द्वारा कहा नहीं जा सकता है। वह व्यवहारका आश्रय ले फरके ही वचनके द्वारा कहनेके योग होना है।हौ गुणों और पर्यायों आदिके विवरणसे सैकड़ों शाखाओं में विस्तारको प्राप्त होता है ॥१०॥ कि सज्जन मनुष्प सहारनपके वयसे ही मुख्य और उपचारभूत कथनको जानकर शुद्ध स्वरुपका सन लेते हैं, अतएव यह व्यवहार पूज्य (प्राथ) है ॥ ११ ॥ आत्माके विषयमें दृढ़ता ( सम्यग्दर्शन ), __wit। २'मोसो। परम पदम् । समितिवमरग। ५थये। रजा देशितः ये मुनयः परम पदंबन्धि । - - Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 613 : ११-१६) ११. निमयपशा 610) सम्यकसुखबोधाश त्रितयमखण्ड परात्मनो कपम् । तत्र तत्परो पास पव तलग्धिकवकृत्या ॥ १३॥ 611) अन्नावियोष्णभाषः सम्यग्दोधो ऽस्ति पर्शन शुभम् । सातं प्रतीतमाभ्यां सूत्स्वास्थ्य भवति चारित्रम् ॥ १५ ॥ 812). विहिताभ्यासा बहिरवेभ्यसंपम्धिनो गाविशराः। सफलाः शुखात्मरणे छिन्दितकर्मारिसंघाताः ॥१५॥ 613) हिंसोसित एकाकी सर्वोपद्रवलहो धनस्थो ऽपि । सकरिव नरो न सिध्यति सम्पग्बोपाइते जातु ॥ १६ ॥ anARARIYANA-. - - ------ - - .-- . ... संसारनाशाय भवति । भूतार्थपपस्थितमुझे निवयमार्गदलितबुदेः मुनेः । आत्मैन तत्रितयम् ॥ १२॥ सम्बकमुखोपशो दर्शनहानमारित्राणाम् । त्रितयं परास्मनः रूपम् । भखम्हं परिपूर्णम् । ततस्मारकारणात । सः भव्यः । स ारमनि विषये सत्परः स एव भव्यः तलम्धिान्तकृत्यः सस्य आत्मनः धिमा तात्यः ॥ १३॥ शुद्ध यशात प्रतीतम् अस्ति अमो विषये यथा उम्णमाः तथा सम्यग्मावबोधोऽस्ति । आभ्यां द्वाभ्याम् । स्वास्थ्य सत् चारित्रं भवति ॥ १४ ॥ गादिशारा; दर्शनादिवाणाः । असारमरणे संग्रामे सफला भवन्ति । विलक्षणाः बारा । छिन्दितकर्म-अरिसंघाताः छिन्दिरकर्मसत्रसमूह । पुनः विलक्षणा बाणाः। बहिरर्थदेष्यसंबनिधन: विहित-अभ्यासाः॥१५॥ नरः सम्मम्बोषा ऋदे रहितः । जात कदाचित् । न सिध्यति । स नरः तकः इव । विलक्षणः गायोजिविहिनः मग्री:mr: rannnnnnnnnnnn. झान और स्थिति (चरित्र) रूप रत्नत्रय संसारके नाशका कारण है। किन्तु जिसकी बुद्धि शुद्ध निश्चयनयके मार्गमें प्रवृत्त हो चुकी है उसके लिये वे तीनों (सम्यग्दर्शनादि ) एक आत्मस्यरूप ही है-उससे भिन्न नहीं हैं ।। १२ । समीचीन सुख (चारित्र ), ज्ञान और दर्शन इन तीनोंकी एकता परमात्माका अखण्ड स्वरूप है । इसीलिये जो जीव उपर्युक्त परमात्मस्वरूपमें लीन होता है वही उनकी प्रातिसे कृतकृत्य होता है ।। १३ ॥ जिस प्रकार अभेदस्वरूपसे अमिमें उष्णता रहती है उसी प्रकारसे आत्मामें ज्ञान है, इस प्रकारकी प्रतीतिका नाम शुद्ध सम्यग्दर्शन और उसी प्रकारसे जाननेका नाम सम्यग्ज्ञान है । इन दोनोंके साथ उक्त आत्माके स्वरूपमें स्थित होनेफा नाम सम्यचारित्र है ।। १४ || जो सम्यग्दर्शन आदिरूप बाण बाह्य वस्तुरूप वेध्य ( लक्ष्य) से सम्बन्ध रखते हैं तथा जिन्होंने इस कार्यका अभ्यास मी किया है वे सम्यग्दर्शनादिरूप बाण शुद्ध आत्मारूप रणमें कर्मरूप शत्रुओंके समूहको नष्ट करके सफल होते हैं ॥ १५ ॥ जो मनुष्य वृक्षके समान हिंसाफर्मसे रहित है, अकेला है अर्थात् किसी सहायककी अपेक्षा नहीं करता है, समस्त उपद्रवोंको सहन करनेवाला है, तथा वनमें स्थित भी है, फिर भी वह सम्यग्ज्ञानके विना कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता है। विशेषार्थ-बनमें अकेला स्थित जो वृक्ष शैत्य एवं गर्मी आदिके उपदवोंको सहता है तथा स्थावर होनेके कारण हिंसाकर्मसे भी रहित है, फिर भी सम्यग्ज्ञानसे रहित होनेके कारण जिस प्रकार वह कमी मुक्ति नहीं पा सकता है उसी प्रकार जो मनुष्य साधु हो करके सब प्रकारके उपद्रवों एवं परीषहोंको सहन करता है, घरको छोड़कर बनमें एकाकी रह रहा है, तथा प्राणिघातसे विरत है। फिर भी यदि उसने सम्यग्ज्ञानको नहीं प्राप्त किया है तो वह भी फमी मुक्त नहीं हो १२ बोस्ति । २ प्रवीति । कमसमूगाः । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રવા चन्दि-पञ्चविंशति 614) अस्पृष्टमषर्द्धमन्यमयुतमविशेषमभ्रमोपेतः । थः पश्यत्यात्मानं स पुमान् खलु शुद्धमयनिष्ठः ॥ १७ ॥ 613 ) शुद्धाशुद्धं ध्यायनामोत्यशुद्धमेव स्वम् । अनयति हेस्रो हैमं लोहालो [लौ]ई मरः कटकम् ॥ १८ ॥ 616) सानुष्ठानविशुद्धे बोधे जुम्मिले कुतो जन्म । उदिते गभस्तिमालिनि किं न विनश्यति तमो नैशम् ॥ १२ ॥ 617) आत्मभूदि कर्मबीजाविचतर्यत्फलं फलति जन्म । मुक्तत्यर्पितास वाह्यो भेदामोदावेन ॥ २० ॥ 618) अमलात्मजल समर्थ करोति मम कर्मकर्व मस्तदपि । का भीतिः सति निश्चित मेदकरज्ञान कतकफले ॥ २१ ॥ [614121-10 मरः । सर्व उपद्रव सहः सहनशीलः । पुनः वनस्थः वने तिष्ठति इति वनस्थः ॥ १६ ॥ खद्ध इति निश्चितम् । स पुमान् शुब नमनिहः । यः भभ्यः । आत्मानम् अस्पृष्टं पश्यति । किंवत् । श्रमलिनीदलवत्। कस्माद । नीरात् कमलिनीदलं भिनम् । किंलक्षणम् आत्मानम् । अवद्धं बन्धनरहितम् । पुनः किंलक्षणम् आत्मानम् । अनन्यम् अद्वितीयम् । पुनः किलक्षणम् आत्मामम् । अयुतं मित्रम् | पुनः किंलक्षणम् आत्मानम् । अविशेष पूर्णम् । किंलक्षणः भग्यः । अनमोपेतः भ्रमरहितः ॥ १७ ॥ शुखात् शूलादिभ्यानात् । स्वम् आत्मानम् । ध्यायन् । शुद्धं तस्वम् आप्नोति । अशुद्धं ध्यायन् अशुद्धं तत्त्रम् आनोति । मरा हेनः सुवर्णात् । हे सुवर्णमयम् । कटकं जनयति उत्पादयति । लोहात् लोहमय कटकम् उत्पादया ॥ १७ ॥ वृम्भते सति प्रसारिते सति । कुतो जन्म संसारः कुतः । किंलक्षणे हग्यो । सानुष्ठानेन चारित्रेण विशुद्धे पवित्रे । तत्र हान्तम् आइ । गमस्तिमालिनि सूर्ये उदिते सति। नैशं तमः रात्रिसंबन्धितमः । किं न विनश्यति । अपि तु नश्यति ॥ १९ ॥ आत्मभुवि भ्रात्मभूमौ । कर्मबीजात् चित्ततयः वृक्षः । जन्मसंसारफले फलति । मुक्त्यर्थिना स चित्ततः मेदज्ञानोप्रदानेन दाह्यः वहनीयः ॥ २० ॥ मम अमलम् आत्मजलं कर्मकर्दमः । समले मलयुतम् । करोति । तदपि निश्चितमेदकरज्ञानकतकरु + सकता है ॥ १६ ॥ जो भव्य जीव भ्रमसे रहित होकर अपनेको कर्मसे अस्पृष्ट, बन्धसे रहित, एक, परके संयोगसे रहित तथा पर्यायके सम्बन्धसे रहित शुद्ध द्रव्यस्वरूप देखता है उसे निश्वयसे शुद्ध नयपर निष्ठा रखनेवाला समझना चाहिये ॥ १७॥ जीव शुद्ध निश्वयनय से शुद्ध आत्माका ध्यान करता हुआ शुद्ध ही आत्मखरूपको प्राप्त करता है तथा व्यवहारनथका अवलम्बन लेकर अशुद्ध आत्माका विचार करता हुआ अशुद्ध ही आत्मस्वरूपको प्राप्त करता है । ठीक है - मनुष्य सुवर्ण से सुवर्णमय कड़ेको तथा लोहसे लोहमय ही कड़ेको उत्पन्न करता है ||१८|| चरित्रसहित विशुद्ध सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञानके वृद्धिंगत होनेपर भला जन्म-मरणरूप संसार कहांसे रह सकता है ! अर्थात् नहीं रह सकता। ठीक है- सूर्यके उदित होनेपर क्या रात्रिका अन्धकार नष्ट नहीं होता है ! अवश्य ही वह नष्ट हो जाता है ॥ १९ ॥ आत्मारूप पृथिवीके ऊपर कर्मरूप बीजसे आविर्भूत हुआ यह चित्तरूप वृक्ष जिस संसाररूप फलको उत्पन्न करता है उसे मोक्षाभिलापी जीवको भेदज्ञानरूप तीक्ष्ण तीव्र अभिके द्वारा जला देना चाहिये || २० || यद्यपि कर्मरूपी कीचक मेरे निर्मल आत्मारूप जलको मलिन करता है तो भी निश्चित भेदको प्रगट करनेवाले ज्ञान ( भेदज्ञान ) रूप निर्मली फलके होनेपर मुझे उससे क्या भय है ! अर्थात् कुछ भी भय नहीं है विशेषार्थ - जिस प्रकार कीचड़ से मलिन किया गया पानी निर्मली फलके डाल देनेपर स्वच्छ हो जाता है उसी प्रकार कर्मके उदयसे उत्पन्न दुष्ट धादि विकारोंके द्वारा मलिनताको प्राप्त हुई आत्मा स्व-परभेदज्ञानके द्वारा निश्वयसे ॥ निर्मल हो जाती है । इसीलिये विवेकी (भेदज्ञानी ) जीवको कर्मकृत उस मलिनताका कुछ भी भय नहीं रहता है | २१ ॥ १ मबंध २श कस्मात् नीराद। किं लक्षणं । अर्थ ४ सवाः। Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 1 624 : १५-२५] ११. निश्चयपचारात 619 ) अन्यो ऽहमन्यमेतच्छरीरमपि किं पुनर्न बहिराः । व्यभिचारी यत्र सुतस्तत्र किमरया स्वकीयाः स्युः ॥ २२॥ 620) व्याधिस्तुवति शरीरं म माममूर्त विशुद्धबोधमयम् । अग्निर्वहति कुटीरं न कुटीरासतमाकाशम् ॥ २३ ॥ 621) वपुराश्रितमिदमखिलं 'क्षुधादिभिर्भवति किमपि यदसातम् । नो निश्चयेन तन्मे यवहंगाधाविनिर्मुकः ॥२४॥ 622) नैवात्मनो विकारः क्रोधादिः किंतु कर्मसंबग्यात् । स्फटिकमरिय रकरथमाश्रितारपुपतो रजात् ॥२५॥ 623) कुर्यास्कर्म विकल्पं कि मम तेनातिशुद्धरूपस्य । मुखसंयोगजविकृतेन विकारी वर्पणो भवति ॥ २६ ॥ 624) आस्तो बहिरुपधिचयस्तनुषयनविकल्पमालमत्यपरम् । कर्मकृतत्वान्मत्तः कुतो विशुद्धस्य मम किंचित् ॥ २७ ॥ सति । मम का भीतिः भयं किम्। किमपि भर्य न ॥ २१॥ महम् अन्यः । एतत् शरीरम् मपि अन्यत् । पुनः पहिरोः पायपदार्थाः । अन् जिम्मे] किति पेनगन्ये शान्ति: ममि । सुतः पुत्रः। व्यभिचारी भवति । तत्र खकीयाः भात्मीयाः । भरपः शत्रवः । कि स्युः भवेयुः । अपि तु आत्मीयाः न भवेयुः ।। २३ ॥ म्याधिः शरीरं तुमति व्यथयवि पीडयति । माम् अमूर्त विशुद्धयोधमयं न पीव्यति। यथा अमिः कुटीर वइति । कुटीरासतम् आकाशे न दहति ॥ १३ ॥ यस्किमपि । असात दुःखम् । अदादिभिर्भवति । इदम् अखिलम् । वपुः हानित शरीराश्रितम् । तवपुः । निश्चयेन । मे ममें। नो । यत् अहं गाभाविनिर्मुकः ।। २४ ॥ क्रोधादिः भास्मनो विकार: नैव । किंतु कमसंबन्धाद' कमैगः संबन्धात् क्रोषादिविकारा भवेत् । रकात् पुष्पतः भाधितात् यथा स्फटिकमणेः रकत्व तथा क्रोधादिः ॥ २५ ॥ कम विकल्पं कुर्यात् । अतिशखरूपस्स मम । तेन कमणा कि प्रयोजनम् । न किमपि । यथा मुखसंयोगजविकृतेः मुखसंयोगजात विकारात् । दर्पणः अरदर्शः। विकारी न भवति ।। २६ ॥ पहिरुपधिचयः। माता पूरे तिछतु । तनुवचन विकल्पजालम् । अपि मत्तः मपरं भिवम् । कस्मात् । जब मैं अन्य हूं और यह शरीर भी अन्य है तब क्या प्रत्यक्षमै भिन्न दिखनेवाले वाम पदार्थ (स्त्री-पुत्र आदि) मुझसे भिन्न नहीं हैं ! अर्थात् वे तो अवश्य ही मिन्न है । ठीक है जहाँ अपना पुत्र ही व्यभिचारी हो अर्थात् अपने अनुकूल न हो यहां क्या शत्रु अपने अनुकूल हो सकते हैं ! अर्थात् नहीं हो सकते ॥ २२ ॥ रोग शरीरफो पीड़ित करता है, वह अमूर्त एवं निर्मल ज्ञानस्वरूप मुझको (आत्माको) पीड़ित नहीं करता है । ठीक है-आग झोपड़ीको ही जलाती है, न कि झोपलीसे संयुक्त आकाशको भी ॥ २३ ॥ भूख-प्यास आदिके द्वारा जो कुछ भी दुख होता है वह सब शरीरके आश्रित है । निश्चयसे वह (दुख ) मेरे लिये नहीं होता है, क्योंकि, मैं स्वभावतः बाधासे रहित हूं ॥ २४ ॥ क्रोष आदि विकार आत्माके नहीं है, किन्तु वे कर्मसे सम्बद्ध होनेके कारण उससे भिन्न हैं 1 जैसे- लाल पुष्पके आश्रयसे स्फटिक मणिके प्राप्त हुई लालिमा वास्तवमें उसकी नहीं होती है ॥ २५ ॥ कर्म विकल्पको करता रहे, अतिशय शुद्ध स्वरूपसे संयुक्त मेरी उसके द्वारा क्या हानि हो सकती है। कुछ भी नहीं । ठीक है- मुखके संयोगसे उत्पन्न विकारके कारण कुछ दर्पण विकारयुक्त नहीं हो जाता है ॥ २६ ॥ बाहिरी उपाधियोंका समूह (स्त्री-पुत्र-धनादि) तो दूर ही रहे, किन्तु शरीर एवं वचन सम्बन्धी विकल्पोंका. समूह मी कर्मकृत होने के कारण मुझसे भिन्न है । मैं स्वभावसे शुद्ध है, अत एव कुछ भी विकार मेरा कहासे हो सकता है। रच मन्यदेछरीर [ मन्यतेतकरीर २% वादिभिक 'पा' मास्ति। सदिम् । ५ मम' मास्ति । शकमैसंबन्धाद' नास्ति । ७ वा रकम्पमिब तपा। .'था' मालित पवन- २४ Annu Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [825:११-२८625) कर्म परं तत्कायें सुलमसुर्ख वा तदेव परमेव । तसिन् इविधादी मोही विशात सतु माया । 626) कर्म न यथा स्वरूपं न तथा सत्कार्यकरपनाजालम् । तत्रात्ममतिविहीनो मुमुक्षुरात्मा सुखी भवति ॥ २९ ।। 627) कर्मकृतकार्यजाते कमेष विधी तथा निषेधे च । माहमतिशुद्धोधो विधूतविश्वोपधिनित्यम् ॥ ३०॥ 628 ) पाह्यायामपि विकृती मोही जागर्ति सदारमेति । किं मोपभुक्तहेमो 'हम प्रायाणमपि मनुते ॥ ३१॥ 629) सति द्वितीये चिन्ता कर्म ततस्तेन वर्तते जन्म । 'पको ऽस्मि सकलचिन्तारहितोऽस्मि मुमुक्षुरिति नियतम् ॥ ३२ ॥ महतस्यात् । मम विशुदस्य निमित् अपि कुतः ॥ १५ ॥ फर्म पर मिलम् । तत्कार्य तस्म कर्मणः कार्य पर भिनम् । सुखम् । वा भावा । असुख दुःखम् । तदेव पर मिलम् । तस्मिन् सुखदुःखे । मोही जीवः हविषादी विदधाति करोति । मल निधिहसामन्यः मम्मा विषादौनकरोति ॥ २०॥ वथा कर्मखरूपं ममेदम तथा तस्कार्यकल्पनाजाल तस्य कर्मणः कार्य कल्पनाजालम् । ममेवे म । रागदेवाविविकल्प मम म । तत्र कर्मकार्य आत्ममविविडीमः ममस्वरहितः । मुमुक्षुः आत्मा मुखी भवति ॥ १९ ॥ कर्मकतकार्य रामद्वेषादिः तयोः रागद्वेषयोः जावे चरपो कारणेविधौ कमैर । तथा कर्म कार्मनिवेधविधी कमेव । कर्मणः पम्पमोक्षः कारगं निषयेन महम् म । किलक्षणोऽहम् । भविशुखबोषः। नित्यं सदैव विधूतविश्व-उपधिः स्केटितउपपिः ॥३॥ मोही जीवः सर्वथा बाह्यायामपि विस्तौ मारमा इति बिचार्य जागर्ति । तत्र रटान्तमाह । उपभुकदमः भत्तूरभक्षका हेमफलभक्षक नरः। प्रावाणं पाषाणम् । अपि । हेम सुवर्णम् । किं न मन्ते । अपि तु मनुते ॥ १॥ द्वितीये वस्तुनि सति चिन्ता भवेत् । ततः चिन्तायाः सकाशात् कर्म । वेन समेगा कृत्वा जन्म सारः वसते । इति हेतोः । नियत निश्चितम् । नहीं हो सकता है ॥ २७ ॥ कर्म भिन्न है तथा उसके कार्यभूत जो सुख और दुख हैं वे भी भिन्न हैं। कर्मके कार्यभूत उन सुख और दुखमें निश्चयसे अज्ञानी जीव ही हर्ष और विषाद करता है, न कि ज्ञानी जीव ।। २८ ।। जिस प्रकार कर्म आत्माका स्वरूप नहीं है उसी प्रकार उसके कार्यभूत विकल्पोंका समूह मी आत्माफा स्वरूप नहीं है । इसीलिये उनमें आत्ममति अर्थात् ममत्वबुद्धिसे रहित हुआ मोक्षाभिलाषी जीव सुखी होता है ॥२२॥ कर्मकृत कार्यसमूह ( राग-द्वेषादि) व उसकी विधि और निषेध कर्म ही कारण है, मैं (आत्मा) नहीं हूं। मैं तो सदा अतिशय निर्मल ज्ञानस्वरूप होकर समस्त उपाधिसे रहित हूं ॥ ३० ॥ अज्ञानी जीव कर्मकृत बाह्य भी विकारमें निरन्तर 'आत्मा' ऐसा मानता है । ठीक है-जिसने धतूरेके फलको खाया है वह क्या पत्थरको भी सुवर्ण नहीं मानता है। मानता ही है। विशेषार्थ-जिस प्रकार धतूरेके फलको खाकर मनुष्य उसके उन्मादसे पत्थरको भी सुवर्ण मानता है उसी प्रकार मिथ्याज्ञानी जीव मिथ्यात्वके प्रभावसे जो बाह्य विकार ( राग-द्वेष, स्त्री, पुत्र एवं धन आदि ) कर्मजनित होकर आत्मासे भिन्न हैं उन्हें वह अपने मानता है ।। ३१ ॥ आत्मासे भिन्न किसी दूसरे पदार्थके होनेपर उसके लिये चिन्ता उत्पन्न होती है, उससे कर्मका बन्ध होता है, तथा उस कर्मबन्धसे फिर जन्मपरम्परा चलती है। परन्तु मैं निश्चयसे एक हूं और इसीलिये समस्त चिन्ताओंसे रहित होता हुआ मोक्षका अभिलाषी हूं ।। ३२ ।। १० हेमं। २ शतका' नास्ति। ३श 'कार्य' नास्ति। ४ उत्प। ५श करण। ६श स्फोटित । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -686:31-32] ११. पात् 680) यामपि वास्यपि पचिन्ता करोति म् किं ममतासुः परेन किं सर्वकल्पं ॥ ३३ ॥ 691) अति पात परं कर्म मितिः। किं तेन निर्विकारः केवलमहममलबोधात्मा ॥ २४ ॥ 692) स्वाज्या सर्वा चिन्तेति बुद्धिराविष्करोति तचयम् । चन्द्रोदयायते यचैतन्यमहोदधौ शमिति ३५ 689) चैतन्यमसंपूतं कर्मनिकारेण यत्तदेवाधम् । तस्य च संसृतिजन्मप्रभृति न किंचित्कुतचिन्ता ॥ ३६३ 694) चिचेन कर्मणा स्वं बद्धो यदि बध्यते स्वया ततः । प्रतिबन्दीकृतमात्मन् मोचयति त्वां न संदेह ॥ ३७ 685) नृत्यतरोर्विषयसुखच्छायालामेन किं मनःपान्थ । te: पीडित तुटो ऽसि गृहाण फलमसृतम् ॥ ३८ ॥ tee 1 महम् । एकोऽस्मि सकलान्तारहिऽस्मि । अहं सुमुखः सुकिः ॥ ३२ ॥ मासी अपि तारसी नपि । परतः परस्मात् । चिन्ता । बह इति निश्चितम् । बन्धं करोति । भ्रम तथा चिन्तया कि प्रयोजनम् । किमपि कार्य न । एकस्य मम मुमुलो परेन वस्तुना कि प्रयोजनम् । किमपि प्रयोजनं नैं ॥ ३२ ॥ मयि विषये चेतः परजातं परोत्पन्नम् च पुनः चित्तं परम्। छत् *मैं परम् । मतः कारणात् । तचित्तं कर्म च । विकृतिहेतुः विकारमयम् । तेन वितेन तेन क्रमेण प्रयोजनम् । किमपि प्रयोजनं । अहं केवलं निर्विकारः समलशेधात्मा ॥ ३४ ॥ सर्वा चिन्ता त्याज्या । इति हेतोः । बुद्धिः तत्तत्त्वम् । आदिकरोति प्रकटीकरोति । यत्तत्वं चैतन्यमहोदभी चैतन्यसमुद्रे । समिति शीघ्रेण । चन्द्रोदयामते चन्द्रोदय इवाचरति ॥ १५ ॥ यत् चैतन्यं कर्मनिकारेण । असे [कम् अमिलितम् । तदेव अहम् च पुनः । तस्य मम चैतम्यस्य । जन्मप्रति किंचित न मम कुतश्चिन्ता ॥ ३६ ॥ भो आत्मन् । वित्तेन कर्मणा त्वं वः । अतः कारणात् यदि मेत् । तत् मन्दः स्वया च्य तदा मो आत्मन् । प्रतिबन्दीकृतं वा मोचयति न संदेहः ॥ ३७ ॥ भो मनः पाम्य भी भवदुः कत्पीति । तृत्वतरोः मनुष्यपदअन्य पदार्थ निमित्तसे जिस किसी भी प्रकारकी चिन्ता होती है वह निश्चयसे कर्मबन्धको करती है। मोक्षके इच्छुक मुझको उस चिन्तासे तथा पर वस्तुओंसे भी क्या प्रयोजन है ! अर्थात् इनसे मुझे कुछ भी प्रयोजन नहीं है। कारण यह कि मैं इनसे भिन्न होकर सर्वदा एकस्वरूप हूं ॥ ३३ ॥ मुझमें जो चित है वह परसे उत्पन्न हुआ है और वह पर ( जिससे चित्त उत्पन्न हुआ है) कर्म है ओ कि विकारका कारण है । इसलिये मुझे उससे क्या प्रयोजन है ! कुछ भी नहीं । कारण कि मैं विकारसे रहित, एक और निर्मल ज्ञान स्वरूप हूं ॥ ३४ ॥ सब चिन्ता त्यागनेके योग्य है, इस प्रकारकी बुद्धि उस तत्वको प्रगट करती है जो कि चैतन्यरूप महासमुद्रकी वृद्धि में शीघ्र ही चन्द्रमाका काम करता है || विशेषार्य -- अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार चन्द्रमाका उदय होनेपर समुद्र वृद्धिको प्राप्त होता है उसी प्रकार 'सब प्रकारकी चिन्ता देय है। इस भावना से चैतन्य स्वरूप भी वृद्धिको प्राप्त होता है || ३५ || जो चेतन तत्त्व धर्मकृत विकारके संसर्गसे रहित है वही मैं हूं । उसके ( चैतन्यस्वरूप आत्माके) संसार एवं जन्म मरणादि कुछ भी नहीं है । फिर भला मुझे ( आत्मा ) चिन्ता कहां से हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती है || ३६ || हे आत्मन् । तुम मनके द्वारा कर्मसे बांधे गये हो । यदि तुम उस मनको बांध देते हो अर्थात् उसे क्शमें कर लेते हो तो इससे वह प्रतिबन्दीस्वरूप होकर तुमको छुड़ा देगा, इसमें सन्देह नहीं है ॥ ३७ ॥ है सांसारिक दुखरूप क्षुधासे पीड़ित मनरूप पथिक ! तू मनुष्य पर्यायरूपं वृक्षकी विषयसुखरूप छायाकी प्राप्तिसे ही क्यों सन्तुष्ट होता है ! उससे तू अमृतरूप फलको ग्रहण कर ॥ विशेषार्थ १ परेण किं प्रयोजनं न । २ मा सटिति । मुमुद्ध' मस्ति । ४. बस्तुभा किं प्रयोग ग Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ पद्मगन्धि-पत्राविंशतिः 636 ) स्वान्तं ध्वान्तमशेषं दोषोहितमर्कविम्बमिव मार्गे । विनिहन्ति निरालम्बे संचरदनिशं यतीशानाम् ॥ ३९ ॥ 697 ) संविना गखिते तनुमूषाकर्ममममयवपुषि । स्वम एवं द्विपं पश्यन् योगी भवति लिखः ॥ ४० ॥ 688 ) महमेव चित्स्वरूपविद्रूपस्याश्रयो मम स एव । नाम्यत् किमपि जवारप्रीतिः सदृशेषु कल्याणी ॥ ४१ ॥ 699) खपरविभागावगमे जाते सम्यक परे परित्यके । लजैकवोधरूपे तिस्यात्मा स्वयं सिद्ध ॥ ४२ ॥ [636:11-11 स्व । विषमच्छायामामेन किं तुष्टोऽसि ममुतफलं गृहाण मोक्षफले ग्रहण ॥ ३८ ॥ मतीयानां स्वान्तं मनः । निराखम्बे मार्गे अनि संचरत् । अशेषं समत्तम् । ध्वान्तम् अन्धकारम् विनिहन्ति स्फेटयति । किंलक्षणं मना । दोलिन् । बर्कविम्बमिव सूर्यविम्बमिव ॥ ३९ ॥ योगी स्वं चिह्न पश्यन् सिद्धः भवति । क सवि । तनु-शरीरमूषा-सि (१) । मदनमयवपुषि कर्ममयणमये शरीरे । संविच्छिसिमा शानाभिना । गलिते सति योगी सिद्धः भवति ॥ ४० ॥ नई चिनूपः एन चिस्वरूपः । मम चिद्रूपस्य । स एव चित्स्वरूपः आश्रयः । किमपि धन्यत् न । कस्मात् । जडत्वात् । प्रौतिः ससेषु कल्याणी ॥ ४१ ॥ स्वपरविभाग - अवगमे मेदज्ञाने जाते सति उत्पन्ने सति । परवस्तुनि परित्यके सति । जिस प्रकार सूर्यके तापसे सन्तप्त कोई पथिक मार्गमें छायायुक्त वृक्षको पाकर उसकी केवल छायासे ही सन्तुष्ट हो जाता है, यदि वह उसमें लगे हुए फलको ग्रहण करनेका प्रयत्न करता तो उसे इससे भी कहीं अधिक सुख प्राप्त हो सकता था। ठीक इसी प्रकारसे वह जीव मनुष्य पर्यायको पाकर उससे प्राप्त होनेवाले विषयसुखका अनुभव करता हुआ इतने मात्र से ही सन्तुष्ट हो जाता है । परन्तु वह अज्ञानतावश यह नहीं सोचता कि इस मनुष्य पर्यायसे तो वह अजर-अमर पद (मोक्ष) प्राप्त किया जा सकता है जो कि अन्य देवादि पर्यायसे दुर्लम है । इसीलिये यहां मनको सम्बोधित करके यह उपदेश दिया गया है कि तू इस दुर्लभ मनुष्य पर्यायकों पाकर उस अस्थिर विषयसुखमें ही सन्तुष्ट न हो, किन्तु स्थिर मोक्षसुलको प्राप्त करनेका उद्यम कर || ३८ ॥ मुनियोंका मन सूर्यनिम्बके समान आलम्बन रहित मार्ग में निरन्तर संचार करता हुआ दोषोंसे रहित होकर समस्त अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करता है । विशेषार्थ - जिस प्रकार सूर्यका विम्ब निराधार आकाशमार्गमें गमन करता हुआ दोषा ( रात्रि ) के सम्बन्धसे रहित होकर समस्त अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार मुनियोंका मन अनेक प्रकार के सकल्प-विकल्पोंरूप आश्रम से रहित मोक्षमार्ग में प्रवृत होकर दोषोंके संसर्गसे रहित होता हुआ समस्त अज्ञानको नष्ट कर देता है ॥ ३९ ॥ सम्यग्ज्ञानरूप अमिके निमित्तसे शरीररूप सांचेमेसे कर्मरूप मैनमम शरीरके गल जानेपर आकाशके समान अपने चैतन्य स्वरूपको देखनेवाला योगी सिद्ध हो जाता है ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार अनिके सम्बन्धसे सांचैके भीतर स्थित मैनेके गल जानेपर वहाँ शुद्ध आकाश ही शेष रह जाता है उसी प्रकार सम्यन्ज्ञानके द्वारा शरीरमेंसे कार्मण पिण्डके निर्जीण हो जानेपर अपना शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रगट हो जाता है । उसका अवलोकन करता हुआ योगी सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाता है ॥ ४० ॥ मैं ही चित्स्वरूप हूं, और चित्स्वरूप जो मैं हूं सो मेरा आश्रय भी वीर है । उसको छोड़कर जड़ होनेसे और कोई दूसरा मेरा आश्रय नहीं हो सकता है । यह ठीक भी है, क्योंकि, समान व्यक्तियोंमें जो प्रेम होता है वही कल्याणकारक होता है ॥ ४१ ॥ मौर पर विभाग (मेद ) का ज्ञान हो जानेपर यह आत्मा भली भांति परको छोड़कर स्वयं सिद्ध १वा स्फोट २ कमन - प्रविपाठोऽयम् । 1 Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AVAN -644:११-४७ १२ पाया 640 ) हेयोपादेयधिभागभाषनाकथ्यमानमपि तस्वम् । हेयोपदिय विभागभावनावर्जितं विद्धि ॥ ४॥ 641) प्रतिपचमानमपि च भूताद्विशुद्ध परात्मनस्तस्वम् । उररीकरोतु चेतस्तदपि न तोतसो गम्यम् ॥ ७ ॥ 642 ) अइमेकाफ्यात द्वैतमहं कर्मकलित इति युद्ध। आयमनपायि मुकेरितरविकल्प भवस्य परम ॥४५॥ 643 ) बद्धो मुक्तोऽहमथ बैते सति जायते ननु छैतम् । मोक्षायेत्युभयममोषिकल्परहितो भवति मुक्तः ॥ ४ ॥ 644) गतमाविभवद्भावाभावप्रतिभावभावितं घिसम् । अभ्यासाश्चिवूपं परमानन्दान्वितं कुरुते ॥ ४७n सबै विद्धः भारमा सहजैकबोधरूपे विष्ठति ॥ ४२ ॥ हेयं याज्यम् उपादेयं प्रहणीमै तयोः वयोः हेयोपादेययोः वय विभागभावनया भेदभावनया कृत्वा कध्यमानम् अपि । तत्वं हेयोपादेयमेदभावनया वर्जितम् । तत्त्वं विसि ॥३॥ र पुनः । परात्मनः विशुद्ध सस्थम् । श्रुतात् शास्त्रात् । प्रतिपद्यमानमपि फरमानमपि । चेतः उरीकरोतु अङ्गीकरो। सदपि तत्वम् । खेतसः गम्यं गोचर म ॥४॥ अहम् एकाकी इदि मुझेः सकाशात् बद्वैतम् । बह ककलितः इति दे तम। आर्थ मरः अनपाय विवरहितम । इतरत तं पर भवस्य संसारस कारणं विकल्पम् ॥ १५॥ मईपक्ष भय महे मुचः ते सति मनु दैत जायते । इति हेतोः। मोक्षाय उभयमनोविकल्परहितः मुजः भवति ॥४६गतमानिमरदानाः तेषाम् मभावः षवीतभविष्यर्तमामाः भाषाः तेषाम् अभावः तस्य प्रतिभावः संभावन तेन भावित जि मेदहोता हुआ एक अपने स्वाभाविक ज्ञानस्वरूपमें स्थित हो जाता है ॥ ४२ ॥ हेय और उपादेयके विभागकी भावनासे कहा जानेवाला भी तत्त्व उस हेय-उपादेयविभागकी भावनासे रहित है, ऐसा जानना चाहिये । विशेषार्थ-पर पदार्थ हेय हैं और चैतन्यमय आत्माका स्वरूप उपादेय है, इस प्रकार व्यवहारनयकी अपेक्षा हेय-उपादेयविभागकी भावनासे ही यद्यपि आत्मतत्तका वर्णन किया जाता है। फिर भी निधयनयकी अपेक्षा वह समत विकल्पोंसे रहित होनेके कारण उक्त हेय-उपादेयविभागकी भावनासे भी रहित है।॥ १३॥ यद्यपि मन आगमकी सहायतासे विशुद्ध परमात्माके स्वरूपको जानकर ही उसे स्वीकार करता है, फिर भी बह आत्मतत्त्व वास्तवमें उस मनका विषय नहीं है ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि आत्मतत्वका परिज्ञान आगमके द्वारा होता है और उस आगमके विचारमें मन कारण है, क्योंकि, मनके बिना किसी प्रकारका भी विचार सम्भव नहीं है। इस प्रकार उस आत्मतत्वके स्वीकार करनेमें यद्यपि मन कारण होता है, फिर भी निश्चयनयकी अपेक्षा यह आत्मतत्त्व केवल खानुभवके द्वारा ही गम्य है, न कि अन्य मन आदिके द्वारा ॥ १४ ॥ मैं अकेला हूं' इस प्रकारकी बुद्धिसे अद्वैत तथा मैं कर्मसे संयुक्त ई' इस प्रकारकी बुद्धिसे द्वैत होता है । इन दोनोंमेंसे प्रथम विकल्प (अद्वैत) अविनश्वर मुक्तिका कारण और द्वितीय (द्वैत) विकल्प केवल संसारका कारण है ॥ १५ ॥ मैं बद्ध हूं अथवा मुक्त हूं, इस प्रकार द्वित्वबुद्धिके होनेपर निश्चयसे द्वैत होता है । इसलिये जो योगी मोमके निमित इन दोनों विकल्पोंसे रहित हो गया है वह मुक्त हो जाता है ।। ४६ ॥ भूत, भविष्यत् एवं वर्तमान पदार्थोके अभावकी भावनासे परिपूर्ण चिप अभ्यासकें बलसे चैतन्य स्वरूपको उत्कृष्ट आनन्दसे युक्त कर देता है ॥ विशेषार्थ-निश्चयसे मैं शुद्ध मुसरविणापपर सचेतरविकल्प। ५क बड़ीकरोद्ध भारित। इतः। स कारणविकल्प। रविवात्रि। . Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पागन्दि-पशिविर 18458११-०८645) ब पर दो मुख मुक्को भवेत्सदात्मानम् । पाति वदीयेन पथा वदेव पुरमभुते पाया ४८ ॥ 546) Kailwal सायमापानवाभिवानन्य। भास्स परस्येव च विकारपरिवर्जितः सततम् ॥४९॥ 647 ) तखापति पत्र सम्धे भुसभुवि मस्यापगालियावती। विनितचा दूरादपि झगिति' स्थानमाश्रयति ॥ ५० ॥ 648 ) तनमत ग्रहीताखिसकाउत्रयगतजमध्यव्याप्ति ।। मास्तमेति सहसा सकलो ऽपि हि वाक्परिस्पन्दः॥५१॥ 549) मत दिनाखिसविकल्पजालद्रुमाणि परिकलिते । यत्र वहन्धि विदग्धा ग्भवनानीव दयानि ॥ ५ ॥ नाममासात् विसं फरमानन्दाम्बित करते ॥४७॥ सदा सर्वदा भारमान पर्व परमन् परः भवेत् । मुख पश्मन मुक्का भवेत् । पान्या पविकः । वन पथ मार्गेम बावि तदेव पुरै नगरम् । मभुते प्राप्नोति ॥ ४५ ॥ बहिः वाघम् । मन्तः अम्बन्तरम् । मा गा मा मया । भो साम्पसुपापामवार्षितानन्छ । तपा कारख सिध। तया कपम् । यथा विकारपरिवर्जितः सतवं भवति । तसर जयति । का वो साले सति । मस्यापणा मतिनी । भुतभुवि भागमभूमौ । मतिधायन्ता, इरादपि विनिता म्याधुटिता । विति देगेन । स्थानम् भाश्रयति ।। ५.॥ तत् भास्मज्योतिः से रोकाः यूर्य नमत । जना मात्मम्मोतिवि। सम्तोऽपि वापरिस्पन्दः पवनसमूहः । सहसा मखम् एति अस्तै गच्छति । विलक्षणं ज्योतिः । रहीत किमयमतजमायल म्याप्तिः मस्मिन् तत् म्याति ॥५१॥ मो भव्याः । तमत्वम् । सूर्य नमत । वत्र आत्मनि वाले परिकलिते सति झावे सति । विदग्धाः पषिताः । वनवनानि इस हदयानि वहन्ति धारयन्ति । 'कस्तानि हृदयानानि । बैतन्यसाई, उसके सिवाय दूसरा कोई भी पदार्थ मेरा न तो भूत कालमें मा, म वर्तमानमें है, और न भविष्य में होगा। इस प्रकार जर यह मन अद्वैतकी भावनासे रखताको प्राप्त हो जाता है तब जीवको परमानन्दस्वरूप पद प्राप्त होता है ।। १७ ॥ जो जीव भात्माको निरन्तर कर्मसे बद्ध देखता है वह कर्मबद्ध ही रहता है, किन्तु जो उसे मुक्त देखता है वह मुरू हो जाता है । ठीक है-पथिक जिस नगरके मार्गसे जाता है उसी नगरको वह प्राप्त होता है ॥ १८ ॥ हे समतारूप अमृतके पानसे वृद्धिंगत आनन्दको प्राय गारमन् । तू बाप तत्त्व अथवा अन्तस्तत्त्वमें मत जा। तू जिस प्रकारसे भी निरन्तर विकारों से रहित होता है उसी प्रकारसे स्थित हो ज्य ॥ १९॥ जिस चैतन्यस्वरूपके प्राप्त होनेपर आगमरूप पूभिवीके ऊपर वेगसे दौड़नेवाली बुद्धिरूपी नदी दूरसे लौटकर शीघ्र ही अपने स्थानका आश्रय लेती है वह चैतन्य स्वरूप जयवन्त रहे ।। विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि जब तक चैतन्य स्वरूपकी उपलब्धि नहीं होती है सभी तक बुद्धि आगमके अभ्यासमें प्रवृत्त होती है। किन्तु जैसे ही उक्त चैतन्य स्वरूपका अनुभव प्राप्त होता है वैसे ही वह बुद्धि मागमकी ओरसे विमुल होकर उस चैतन्य स्वरूपमें ही रम जाती है। इसीसे जोक्को साधतिक सुखकी प्राप्ति होती है ॥ ५० ॥ जिस आत्मज्योतिमें तीनों काल और तीनों लोकोंक सब ही पदार्थ प्रतिमासित होते है तथा जिसके प्रगट होनेपर समस्त ही वचनप्रवृत्ति सहसा नष्ट हो जाती है उस आत्मज्योतिको नमस्कार करो ।। ५१ ॥ जिस आत्मतेजके आन लेनेपर चतुर जन जले हुए वनोंके समान विनाशको प्राप्त हुए समस्त विकल्पसमूहरूप वृक्षोंसे युक्त हृदयोंको धारण करते हैं उस अात्मतेजके लिये नमस्कार करो ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार बनमें अमिके ला जानेपर सब वृक्ष जलकर नष्ट शमुख्। २श टिदि। मसान' पति नास्ति। मामी नास्ति। ५ 'मस्त नास्ति। - भूतानि इसावि संदों नारिख । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सर -655:१५-५८] ११. निश्चयपञ्चाशत् 650) यो था मुक्तो वा चिद्रूपी नयविचारविधिरेषः । सर्वनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसारः ।। ५३ ॥ 631) नयनिक्षेपप्रमितिप्रभृतिविकल्पोज्झितं परं शान्तम् । शुद्धानुभूतिमोचरमहमेकं धाम चिद्रूपम् ॥ ५४ ॥ 652) शाते शातमशेष हटेष्ट स शुद्धचिबूपे।। निशेषयोध्यविषयौ रग्बोधौ यत्र तद्विनौ ॥ ५५॥ 653 ) भावे मनोहरे ऽपि च काचिनियता व जायते प्रीतिः। अपि सः परमात्मनि हेतु स्वयं समाप्यते ॥५६॥ 654 सन्नध्यसनिय सिदा जनसामान्यो ऽपि कर्मणो योगः। तरणपटूनामशः पथिकानामिव सरित्पूरः ॥ ५७ ॥ 655) मृगयमाणेन सुचिरं रोषणभुवि रखमीप्सितं प्राप्य । हेयाइयश्रुतिरपि विलोक्यते लग्यतस्येम ॥ ५८ ॥ विनवासिलविकल्पजालामाणि ॥५२॥ विषः पयः वा मुकः वा एषः नमविचारविधिः । हि यतः । सालासमयसारः सवनयपक्षरहितः भवति ॥ ५५ ॥ अहम् एक' विदूपम् । धाम गृहम् । किलक्षणं चिपम् । मयनिक्षेपछीवि-प्रमाषप्रमतिबादिविकल्पोजिप्ततं रहितम् । पुनः किंलक्षण चिबूपम् । शान्सम् । पर श्रेष्ठम् । पुनः शुशानुभूतिगोचरम् ॥ ५४ । विदूपे जाते सति भशेष ज्ञातम् । च पुनः । शुद्धचिद्रपे रहे सति भयं दृष्म्। संघमास्कारणाद। रम्बोधो । तद्विान समाद चिद्रूपान् भिभो न । किंलक्षणो रमोधी । निःशेषमोध्यविषयो निःशेषयगोचरौ ॥ ५५ ॥ च पुनः । मनोहरेऽपि मा सति । काचित् नियता निखिता। प्रीतिः । जायते उत्पद्यते । अपि । खयम् भारममा परमात्मनि दष्टे सति सर्वाः प्रीतमः समाप्यन्ते। यस्मिन् परमात्मनि रहे सति सर्वपदार्थाः रश्यन्ते । सवों मोहों विनाशं गच्छति ॥ ५५ ॥ विदा पण्डितानाम्।र्मन्ये शेका सन् अपि असन् इव ।तरणपट्टनो पथिकानो सरित्सरः सा किलक्षगः सरिसरः। जनसामान्योऽपि जनतुल्यः बासमत ॥५७ ॥ सन्धतस्पेन मुनिमा । हेय-अहेयश्रुतिः अपि विलोक्यते। रोहणभुवि रोहणाचले । सुधिर पिरवतम्। मनमानेन हो जाते हैं उसी प्रकार विवेकी जनके हृदयमें आत्मतेजके प्रगट हो जानेपर समस्त विकल्पसमूह नष्ट हो जाते हैं। ऐसे आत्मतेजको नमस्कार करना चाहिये ॥५२॥ चैतन्यस्वरूप बद्ध है अथवा मुक्त है, यह तो नयोंके आश्रित विचारका विधान है । वास्तवमें समयसार (आत्मस्वरूप) साक्षात् इन सब नयपक्षोंसे रहित है ।। ५३ ।। जो चैतन्यरूप तेज नय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित; उत्कृष्ट, शान्त, एक एवं शुद्ध अनुभवका विषय है वही मैं हूं ॥ ५४ ॥ शुद्ध चैतन्यस्वरूपके ज्ञात हो जानेपर सब कुछ ज्ञात हो जाता है तथा उसके देख लेनेपर सब कुछ देखनेमें आ जाता है। कारण यह कि समस्त ज्ञेय पदार्थोंको विषय करनेवाले दर्शन और ज्ञान उक्त चैतन्य स्वरूपसे भिन्न नहीं हैं ॥ ५५ ॥ मनोहर भी पदार्थके विषयमें कुछ नियमित ही प्रीति उत्पन्न होती है। परन्तु परमात्माका दर्शन होनेपर सब ही प्रकारको प्रीति स्वयमेव नष्ट हो जाती है ! ५६ ॥ जिस प्रकार तैरनेमें निपुण पविकोंके लिये पृद्धिंगत नदीका प्रवाह हो करके भी नहींके समान होता है-उसे वे कुछ भी बाधक नहीं मानते हैं-उसी प्रकार विद्वज्जनोंके लिये जनसाधारणमें रहनेवाला कर्मका सम्बन्ध विद्यमान होकर भी अविद्यमानके समान प्रतीत होता है ।। ५७ ॥ जिस प्रकार चिर कालसे रोण पर्वतकी भूमिमें इच्छित रत्नको खोजनेवाल मनुष्य उसे प्राप्त करके हेय और उपादेयकी श्रुतिका भी अवलोकन करता है-यह ग्रहण करनेके योग्य है या त्यागनेके योग्य, इस प्रकारका विचार करता है- उसी प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष आत्मारूप रोहणमिमें चिर कालसे इच्छित आत्मतत्त्वरूप रलको खोजता हुआ उसे प्राप्त करके हेय-उपादेय श्रुविका भी कवई मास्ति । - २ श एक आम्। वाममोहरे भावे। सा मोह ! - Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचमन्दि-पश्चशितिः [6561११५१658) कर्मकलितो ऽपि मुका सश्रीको दुर्गतोऽप्यहमतीष । तपसा हुस्यापि च सुखी श्रीगुरुपादप्रसादेन ॥ ५९॥ 657 पारित गरिदिपाय गाने लात्तन्मे ।। आरुष्टपत्रसूत्राहारनरः स्फुरति नटकानाम् ॥ १०॥ 658) निमयपश्चाशत पमनन्दिनं सरिमाधिभिः कैधित। शः स्पेशक्तिसूचितवस्तुगुणैर्विरचितेयमिति ॥ ११ ॥ 659) पुणे नृपश्री किमु वच्मि तस्यां न कार्यमाखण्डलसंपदोऽपि । भशेषषाशाविलयैकरूपं तस्वं परं चेतसि ममास्ते ॥ २ ॥ अवलोक्यमानेन । इप्सित में प्राप्य विलोस्पते ।। ५८ ॥ श्रीगुरुपादप्रसादेन अह कर्मकलितोऽपि मुक्तः । श्रीगुरुपादप्रसादेन भई दुर्गतोऽपि दरिद्रोऽपि अतीव सश्रीकः श्रीमान् । पुनः । तपसा दुःखी अपि श्रीगुरुपादप्रसादेन भई सुखी ।। ५९ ।। मे मम बोधात् शानात् । किचित् अपरम् । कार्य न अस्ति । यत् पश्यते सत् । मलात् कर्मग्लात् दृश्यते । नटकानाम् । दारुमरः काठपुतलिका । आकृष्टयनासूत्रात् धाकर्षितसूत्रात् । नटति नृत्यति ॥ १०॥ इवि अमुना प्रकारेण । इयं निश्चयपचाशत् कैश्चित् शम्पैः । विरचिता कता। किलक्षणः शब्दः । पद्मनन्दिनम् । सूरिम् आचार्यम् । माश्रिभिः माश्रितः । पुनः किलक्षणः शब्द।। 'वकिसूचितवस्तुगुणैः ॥ ६१॥ वेद्यदि। मम चेतसि । परम्' भास्मतत्वम् । श्रास्ते तिष्ठति । किंलक्षणं पर तखम् । भशेषवाञ्छाविलयेकरूप सर्ववाभ्लारहितम् । नृपश्रीः तृणम् । तस्यां राजलक्ष्म्याम् । किमु नचिम किं कथयामि । मम भाखण्डलसंपदोऽपि म कार्यम् ॥ १२ ॥ इति निश्चयपचाशत् समाप्ता ॥ १॥ अवलोकन करता है ॥ ५८ ॥ मैं कर्मसे संयुक्त हो करके भी श्रीगुरुदेयके चरणोंके प्रसादसे मुक्त जैसा ही हूं, अत्यन्त दरिद्र होकर भी लक्ष्मीवान् ई, तथा तपसे दुःखी होकर भी सुखी हूं ॥ विशेषार्थतत्वज्ञ जीव विचार करता है कि यद्यपि मैं पर्यायकी अपेक्षा कर्मसे सम्बद्ध हूं, दरिद्री हूं, और तपसे दुःखी भी हूं तथापि गुरुने जो मुझे शुद्ध आत्मस्वरूपका बोध कराया है उससे मैं यह जान चुकाहूं कि वास्तवमें न मैं फर्मसे सम्बद्ध ई, म दरिद्री ई, और न तपसे दुःखी ही हूं । कारण यह कि निश्चयसे मैं फर्मबन्धसे रहित, अनन्तचतुष्टयरूप लक्ष्मीसे सहित, एवं परमानन्दसे परिपूर्ण हूं । ये पर पदार्थ शुद्ध आत्मसरूपपर कुछ भी प्रभाव नहीं डाल सकते हैं ॥ ५९ ॥ मुझे ज्ञानके सिवाय अन्य कुछ भी कार्य नहीं है। अन्य जो कुछ भी दिखता है वह फर्ममलसे दिखता है । जैसे- नटोंका फाष्ठमय पुरुष (कठपुतली) यंत्रकी डोरीके खींचनेसे नाचता है । विशेषार्थ-जिस प्रकार नटके द्वारा कठपुतलीके यंत्रकी डोरीके खींचे जानेपर वह फठपुतली नाचा करती है उसी प्रकार प्राणी कर्मरूप डोरीसे प्रेरित होकर चतुर्गतिस्वरूप संसारमें परिभ्रमण किया करता है, निश्चयसे देखा जाय तो शीब फर्मबन्धसे रहित शुद्ध ज्ञासा द्रष्टा है, उसका किसी भी बाह्य पर पदार्थसे प्रयोजन नहीं है ॥ ६० ) पानन्दी सूरिका आश्रय लेकर अपनी शक्ति ( वाचक शक्ति) से बस्तुके गुणोंको सूचित करनेवाले कुछ शब्दोंके द्वारा यह निश्चयपंचाशत्' प्रकरण रचा गया है ।। ६१ ॥ यदि मेरे मनमें समस्त इच्छाओंके अभावरूप अनुपम स्वरूपवाला उत्कृष्ट आत्मतत्त्व स्थित है तो फिर राजलक्ष्मी तृणके समान तुच्छ है । उसके विषयमें तो क्या कहूं, किन्तु मुझे तो सब इन्द्रकी सम्पत्तिसे भी कुछ प्रयोजन नहीं है ॥ ६२ ॥ इस प्रकार निश्चयपंचाशत् अधिकार समाप्त हुआ ॥ ११ ॥ १भाऋषियम, मानभवण । २श खमतिरोन्ममा1ि.भाटि। ५.शसति मम मन्तकरणे परं ।शभस्ति । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ amaramnrn-in-anuaww.samannaanwr [१२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्तिः] 660) भोग्य जम्ति के रिपुन लोकाविमा योजन शाक तेषामपि यम पससि र ५ः समारोतः । सोऽपि प्रोतविक्रमः स्मरमटः शान्तात्ममिलीलया थैः शनामवर्जितैरपि जितलेभ्यो यतिभ्यो नमः ॥१॥ 661 ) श्रात्मा प्रम विविक्तबोधनिलयो यत्तत्र चर्य पर _स्वाहासंगविवर्जितकमनसतहमचर्य मुनेः। एवं सत्यबळाः स्वमावभगिनीपुरीसमाः प्रेक्षते वृद्धाचा विजितेन्द्रियो यदि सवा समसारी मवेत् ॥२॥ 662) स्वप्ने स्यादतिचारिता यदि तवा तचापि शास्रोदित प्रायश्चित्तविधि करोति रजनीभागानुगत्या मुनिः । तेभ्यः यतिभ्यः । नमः नमस्कारोऽस्तु । यैः यतिभिः । सोऽपि । प्रयेद्तविकमः उत्पमविक्रमः । स्मरभटः लीलया जितः । #लक्षणैर्य तिभिः । शान्तात्मभिः क्षमायुक्तः । पुनः किलक्षणैः । शबप्रहपर्जितैः अपि कामो जितः । येन कामेन । सेवा राज्ञाम् । अपि । वक्षसि हृदये । वृत कठिनं रोपः बाणः । समारोपितः स्थापितः । तेषां केवाम। ये क्षेचन राजानः माशेपेण रिपुकुलं जयन्ति । किंलक्षणाः राजानः लोकाधिपाः ॥ ॥ आत्मा ब्रह्म विवियोधनिलयः । तत्र आत्मनि । यन्मुनेः । चर्य प्रवर्तनम् । तत्परं ब्रह्मचर्यम् । किंलक्षणस्य मुनेः । ख-अस्म शरीरस्य 1 आसंगात् निकटात् । विवर्जितकमनसः । एवं सति अवलाः अद्धाश्चाः यदि खमातृभगिनीपुत्रीसमराः प्रेक्षते तदा स मुनिः अग्रवारी भवेत् । डिलक्षणः मुनिः विजितेन्द्रियः ॥२॥ तत्र ब्रह्मचर्ये । यदि खपि भतिचारिता । स्थानवेत् । तदा मुनिः । रजनीभागानुगत्या राश्रिप्रहर-मनुसारेण शास्त्रोविर्त प्रायवित्तविधि करोति । पुमः । यदि चेत् । जाप्रतोऽपिहरागोवेकतया दुराशयतया बो कितने ही राजा भूकटिकी कुटिलतासे ही शत्रसमूहको जीत लेते है उनके भी वास स्थलों जिसने दृढ़तासे बाणका आयात किया है ऐसे उस पराक्रमी कामदेवरूप सुमटको बिन शान्त मुनियोंने विना शसके ही अनायास जीत लिया है उन मुनियों के लिये नमस्कार हो ॥ १ ॥ मम शब्दका अर्थ निर्मल ज्ञानस्वरूप आत्मा है, उस आत्मामें लीन होनेका नाम ब्रह्मचर्य है । जिस मुनिका मन अपने शरीरके भी सम्बन्धमें निर्ममत्व हो चुका है उसीके वह प्रमचर्य होता है । पेसा होनेपर यदि इन्द्रियविजयी होकर वृद्धा आदि (युक्ती, वाला ) नियोको क्रमसे अपनी माता, बहिन और पुत्रीके समान समझता है तो वह ब्रह्मचारी होता है । विशेषार्थ-व्यवहार और निश्चमकी अपेक्षा प्रमचर्यके दो मेद किये जा सकते हैं । इनमें मैथुन क्रियाके त्यागको व्यवहार प्रमचर्य कहा जाता है । वह भी अणुवत और महानतके भेदसे दो प्रकारका है । अपनी पत्नीको छोड़ शेष सब सियोंको यथायोग्य माता, बहिन और पुत्रीके समान मानकर उनमें रागपूर्ण व्यवहार न करना; इसे ब्रमचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोष मी कहा जाता है । तथा शेष नियोंके समान अपनी पत्नीके विषयमें भी अनुरागबुद्धि न रखना, यह आचर्यमहानत कहलाता है जो मुनिके होता है । अपने विशुद्ध आत्मस्वरूपमें ही रमण करनेका नाम निधय असचर्य है। यह उन महामुनियोंके होता है जो अन्य बाय पदार्थोके विषयमें तो क्या, किन्तु अपने शरीरके मी विषयमें निःस्पृह हो चुके हैं । इस प्रकारके अमचर्यका ही स्वरूप प्रस्तुत लोकमें निर्दिड किया गया है ॥ २ ॥ यदि स्वममें भी कदाचित् ब्रमचर्यके विषय में अतिचार (वोष ) उत्पन होता है तो मुनि उसके १ शस्त्रमाणवर्जितैः। २ाषा केवाम्नाखि। पान. १५ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२४ पमनन्दि-पञ्चविंशतिः [662:१२-३रागोद्रेकतया दुराशयतया सा गौरवात् कर्मणः सस्य स्यादि जाग्रतो ऽपि हि पुनस्तस्यां महच्छोधनम् ॥ ३ ॥ 663) नित्यं खादति हस्तिसूकरपल सिंहो बली तति वर्षेणैकधिने शिलाकणचरे पारावते सा सदा । न मानसमेति नाशमथवा स्यात्रैव भुक्तेर्गुणा रामश : पय कुरुते सायमिनासंयमः ॥ ४ ॥ 664 ) चेतःसंयमनं यथावदधनं मूलवताना मतं शेषाणां च यथापर्क प्रमवतां बाह्य मुनेानिनः । सजन्य पुनरान्तरं समरसीमावेन चियतसो नित्यानम्वविधायि कार्यजनक' सर्वत्र हेतुर्द्वयम् ॥ ५ ॥ 665) खेतोभ्रान्तिकरी नरस्य मदिरापीतिर्थया स्त्री तथा सरसंगेन कुवो मुनेत्रतविधिः स्तोको ऽपि संभाव्यते । वा कर्मणः गौरवात । सो अतिचारिता। तस्म मुनेः । स्यात् भवेत् । तदा । तस्याम् भतिचारितायाम् । महत् शोधनम् ॥३॥ सिंहो बली नित्य सदैव हस्तिसूकरपलं मांस खादति । तातिः तस्य सिंहस्य रतिः कामः । वर्षेण एकदिने भवति । सा रतिः । पाराबवे कपोतयुगले सदा । किंलक्षणे पाराबते । शिलाकणचरे पाषाणखण्डचरे । ततः मुक्तेः माहारस्य गुणात् अमानत नाशं न एति म गछति । अथवा अभुर्गुणात. अभोजनात् नमनत म भवेत् । साधोः मुनेः । एक एव मनःसंयमः मनोनिरोधः। सद्रक्षा तस्स कामस्म रक्षा कुरुते ॥४॥ शानिनः मुनेः मूलवतानाम् । च पुनः । शेषाणाम् उत्तरगुणानाम् । यथावत् यथोकम् । अक्नं रक्षणम् । बाह्यं चेतःसंयमनै मतम् । किंलक्षणानाम् उत्तरशुणानाम् । यथायलं प्रभवतो यसोफ-उत्पयमानानाम् । पुनः । विवेतसः समरसीमानेन एकीभावेन । आन्तरम् अभ्यन्तरम् । तजन्यं तस्मात् मूळोत्तरगुणप्रतिपालनात् । किंलक्षणमूमभ्यन्तरसमरसम्। नित्यानन्दविधायिकायजनकम् । सर्वत्र विधौ । हेताहय बाह्य-अभ्यन्तरकरिणम ॥५॥ नरस्य वधा मदिरापीतिः मदिरापानम् । चेतोभ्रान्तिकरी भवेत् तथा श्री चेतोभ्रान्तिकरी भवेत. 1 मुनेः । तत्संगेन तस्याः लियाः संगेन निकटेन । स्वोकोऽपि प्रतविधिः कुतः संभाव्यते । अपि तु न संभाव्यते । तत्तस्मात्कारणात् । अतिभिः समस्तविषयमें भी रात्रिविभागके अनुसार विधिपूर्वक प्रायश्चित्तको करते हैं । फिर यदि कर्मोदयवश रागकी प्रमलतासे अथवा दुष्ट अभिप्रायसे जागृत अवस्थामें वैसा अतिचार होता है तब तो उन्हें महान् प्रायश्चित करना पड़ता है ॥ ३ ॥ जो बलवान सिंह निरन्तर हाषी और शूकरके मांसको खाता है उसका अनुराग (संभोग ) वर्ष में केवल एक दिनके लिये होता है । इसके विपरीत जो कबूतर कंकड़ोंको खाता है उसका वह अनुराग निरन्तर बना रहता है। अथवा, भोजनके गुणसे- गरिष्ठ भोजन या रूखा-सूखा भोजन करने अथवा उपवास करनेसे- उस ब्रह्मचर्यका न तो नाश होता है और न रक्षा ही होती है। उसकी रक्षा तो दृढ़तासे निग्रहको प्रास कराया गया एक साधुका मन ही करता है ॥ ४॥ मूलगुणोंका तथा शक्तिके अनुसार उत्पन्न होनेवाले शेष (उत्तर) गुणोंका विधिपूर्वक रक्षण करना, यह ज्ञानी मुनिका बाझ मनःसंयम कहा जाता है । इससे फिर वह अन्तरंग संयम उत्पन्न होता है जो चैतन्य और चित्तके एकरूप हो जानेसे शाश्वतिफ सुखको उत्पन्न करता है । ठीक है- सर्वत्र पाल और आभ्यन्तर ये दोनों ही कारण कार्यक जनक होते हैं ॥ ५॥ जिस प्रकार मद्यपान मनुष्यके चित्तको भ्रान्तियुक्त कर देता है उसी प्रकार स्त्री भी उसके चिसको प्रान्तियुक्त कर देती है । फिर भला उसकी संगतिसे मुनिके थोड़े-से भी व्रताचरणकी सम्भावना कहांसे हो सकती है ! नहीं हो सकती है। इसलिये जिनकी बुद्धि संसारपरिश्रमणसे भयको १ क बाझे। २ क कमजनक। ३ । 'सा' नास्ति। ४ तदक्षा' नास्ति। ५. मतम् नास्ति। (म एकीभावेन नास्ति । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -668 : १२.१] १०. माचर्यरझापतिः तस्मात्संसूतिपातमीतमतिभिः प्राप्तस्तपोभूमिका कर्तव्यो प्रसिभिः समस्तयुषतित्यागे प्रयत्नो महान् ॥ ६ ॥ 666) मुक्तारि डढार्गला भवतरोः सेके उना सारिणी । मोहल्यायिनिर्मिता नरमृगस्याषन्धने वागुरा। यस्संगेन सतामपि प्रसरति प्राणातिपातादि तत् तद्वार्तापि यतेरबदल कुर्माण के मा गुना 667) तावत्पूज्यपदस्थितिः परिलसत्तावधशो वृम्भते तावच्चतरा गुणाः शुचिमनस्तावत्तपो मिर्मलम् । तापसमकथापि राजति यतेस्तावत्स दृश्यो मवेद यावत्र सरकारि हारि युवते रागान्मुखं वीक्षते ॥८॥ 668 ) तेजोहानिमपूसतो वतहतिं पापं प्रपातं पथो मुक्ते रागितयागनास्मृतिरपि क्लेशं करोति भुवम् । युवतिस्यागे महान् प्रथमः कर्तव्यः । मिलक्षणेः प्रतिमिः । संसतिपावेन भीतमतिभिः । पुनः किसक्षणैः प्रतिभिः । तपोभूमिका प्रामः॥६॥भाना श्री। मुदति रागेला । अञ्जना भवतरोः संसारपक्षस्या सेके सिडने सारिणी अलधोरणी। आरना। मरमृगस्य भावन्धने। मोहध्यापन मिलन विनिर्मिता कागुरो। यस्संगेन यस्याः श्रियाः संगेन । सतामपि । तत् प्राणातिपातादि प्रसरति प्राणनाशोबूर्व पापं प्रसरति । तद्वार्तापि । यतेः मुनेः । यतिस्वहतये भवेत् । पुनः सा श्री प्रत्यक्ष यतित्यपवनाशे किन कुर्यात् । अपि तु कर्यात् ॥॥ यावत् कालम् । रागात् युक्तेः मुर्ख न वीक्षते । किलक्षणं मुस्वम् । सरकारि कामोत्पादकम् । पुनः हालि मनोहरम् । तापकालम् । पूज्यपदस्थितिः । परिलसत् वीतियुक्त यशः तावत् कृम्भते । शुभ्रतराः गुणाः तापत् सन्ति। तापत् मनः शुचिः । तावत् तपो निर्मलम् । तावत्काल मतेः धर्मकथापि । रामते शोभते । स यतिः । तावत्कालम् । दृश्यः नष्ट योग्यः भवेत् । यावत्कालं युवतेः मुखम् । न वीक्षते न अवलोकयति ॥ 4 ॥रागिलया अङ्गनास्मृतिः श्रीस्मरणम् । अपि नुवं निक्षितम् । वेोहानि करोति अपवित्रता करोति । बतइति करोति व्रतविनाशं करोति । पापं करोति । स्त्रीस्मरण मुक्तो पया प्राप्त हुई है तथा जो तपका अनुष्ठान करनेवाले हैं उन संयमी बनोंको समस्त खीजनके त्यागमें महान् प्रयत्न करना चाहिये ॥ ६ ॥ जो श्री मोक्षरूप महलके द्वारकी दृढ़ अर्गला ( दोनों कपाटोंको रोकनेवाला काठविशेष-बेटा) के समान है, जो संसाररूप वृक्षके सींचनेके लिये सारिणी ( छोटी नदी या सिंचनपात्र) के सहश है, जो पुरुषरूप हिरणके बांधनेके लिये वागुरा (जाल) के समान है, तथा जिसकी संगतिसे सजनोंके मी प्राणघातादि ( हिंसादि) दोष विस्तारको प्राप्त होते हैं; उस चीका नाम लेना भी जब मुनिबतके नाशका कारण होता है तब मला वह स्वयं क्या नहीं कर सकती है ! अर्थात् वह सभी व्रत-नियमादिको नष्ट करनेवाली है।॥ ७ ॥ जब तक कामको उद्दीपित करनेवाला युवती श्रीका मनोहर मुख अनुरागपूर्ण दृष्टिसे नहीं देखता है तब तक ही मुनिकी पूज्य पदमें स्थिति रह सकती है, तब तक ही उसकी मनोहर कीर्तिका विस्तार होता है, तब तक ही उसके निर्मल गुण विद्यमान रहते हैं, तब तक ही उसका मन पवित्र रहता है, तब तक ही निर्मल तप रहता है, तब तक ही धर्मकी कथा सुशोमित होती है, और तब तक ही वह दर्शनके योग्य होता है ॥ ८॥ रामबुद्धिसे किया गया सीका स्मरण भी जब निश्चयसे मुनिके तेजकी हानि, अपवित्रता, व्रतका विनाश, पाप, मोक्षमार्गसे पतन तथा देशको करता है तब भला उसकी समीपता, दर्शन, वार्तालाप और स्पर्श आदि क्या अनोंकी. परम्पराको नहीं करते है ! अर्थात् पशकुछ साल पुनः। गाएरा विनिमिता। Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९॥ -IAMMA... पद्यमन्दि-पञ्चविंशतिः [668 : १२-१तत्सानिध्यषिलोकनप्रतिवयास्पर्शादयः कुर्वते कि नानर्थपरंपरामिति यतेस्त्याज्याबला दूरतः॥९॥ 669) घेश्या स्यादनतस्तदस्ति न यतेचेदस्ति सा स्यात् कुतो नात्मीया युवतियतित्वमभवसस्यागतो यरपुरा। पुंसो ऽम्यस्य च पोषितो यदि रतिपिछलो नृपात्तत्पतेः स्वादापजननयक्षयकरी त्याज्यैव योषा यतेः ॥ १०॥ 670)द्वारा पवनरकचितं वर्गस्थो भवेत तस्यागे यतिरावधाति नियतं स ब्रह्मचर्य परम् । वैकल्य किल तत्र चेसबपरं सर्वे विनष्ट व्रत पुंसस्तेन विना तदा तदुभयभ्रष्टत्वमापते ॥ ११॥ 671) संपधेत दिनदयं यदि सुखं नो भोजनादेस्तवा स्त्रीणामप्यसिद्धधमर्षितपिशाम शबानाबद्ध : मार्गात् प्रपातं करोति । क्लेश करोति । तत्सानिध्यसिलोकनप्रतिषचःस्पर्शादयः तस्याः युवत्याः निकट विलोकमप्रतिषवनस्पर्शादयः। अनर्थपरंपर्रा पापपरंपराम् । किन कुर्वते । अपि तु कुर्वते । इति हेतोः । भो यते' । अबला दूरतः स्याज्या स्यजनीया ॥९॥ वेश्या घनतः स्यात् भवेत् । तद्धनं यतेः मास्ति । चेत् यदि । कलिप्रभावात् यतिभिः धनं गृहीतं तद्धनं यतेः अस्ति तदा सा वेश्या कृतः कस्मात् प्राप्यते । तस्य यतेः आत्मीया अपि युवतिः न । सैव त्यक्ता । यत् यस्मात् । पुरा पूर्वम् । तत्यागतः श्रोत्यागतः । यतिस्त्वम् अभवत् । च पुनः । अन्यस्य पुंसः पुरुषस्य । योषितः सकाशात् । यदि । रतिः कीटा। स्यात् भवेत् । तवा तत्पतेः तस्याः श्रियाः पतेः [पत्युः ] पक्षमात् । अषधा नृपात् । छिमः हस्तपादइन्द्रियाविछेदितः । आपत् स्यात् भवेत् । ततः कारणात् । योषा अमनदयक्षयकरी इहलोकपरलेक्चयक्षयकरी। यतेः त्याज्या ॥१०॥ दाराः सी एवं गृहम् । च पुनः । इष्टकथितं व्याप्त गृह राहं म । लोके इंट: । तत्तस्मात्कारणात । तैः कलत्रैः कृत्या । गृहस्थः भवेत् । तस्यागे श्रीत्यागे सति । स यतिः नियत निश्चितम् । परं ब्रह्मचर्यम् आदधाति माचरति चेत् यदि । तत्र ब्रह्मचर्य वैकल्यम् । किल इति सत्ये । अपरं सर्व सकल व्रतम् । विभष्टम् । तेन ब्रह्मचर्येण विना तदा पुंसः पुरुषस्य । तदुभयप्रयत्वम् आपयते प्राप्यते इहलोके परलोके भ्रष्टं भवेत् ॥१५॥ यदि श्रीणाम् । भोजनादेः सकाशात् । दिनद्वयं मुख नो संपधेत सुखं न उत्पद्यते । तदा ब्रीणाम् अवश्य करते हैं । इसलिये साधुको ऐसी स्लीका दूरसे ही त्याग करना चाहिये ॥ ९॥ वेश्या धनसे प्राप्त होती है, सो वह धन मुनिके पास है नहीं । यदि कदाचित् वह धन भी उसके पास हो तो भी वह प्राप्त कहांसे होगी ! अर्थात् उसकी प्राप्ति दुर्लभ है । इसके अतिरिक्त यदि अपनी ही स्त्री मुनिके पास हो, सो यह भी सम्भव नहीं है। क्योंकि, पूर्वमें उसका त्याग करके ही तो मुनिधर्म स्वीकार किया है ! यदि किसी दूसरे पुरुषकी सीसे अनुराग किया जाय तो राजाके द्वारा तथा उस स्त्रीके पतिके द्वारा भी इन्द्रियछेदन आदिके कष्टको प्राप्त होता है । इसलिये साधुके लिये दोनों लोकोंको नष्ट करनेवाली उस सीका त्याग ही करना चाहिये ।। १०॥धी ही घर है, ईटोंसे निर्मित घर वास्तवमें घर नहीं है । उस स्त्रीरूप गृहके सम्बन्धसे ही श्रावक गृहस्प होता है । और उसका त्याग करके साधु नियमित उत्कृष्ट ब्रह्मचर्यको धारण करता है । यदि उस ब्रह्मचर्यके विषयमें विकलता (दोष) हो तो फिर अन्य सब व्रत नष्ट हो जाता है । इस प्रकार उस अमर्यके विना पुरुष दोनों ही लोकोंसे प्रष्ट होता है, अर्थात् उसके यह लोक और परलोक दोनों ही बिगड़ते हैं ।। ११ ॥ यदि दो दिन ही भोजन आदिका सुख न प्राप्त हो तो अपने सौन्दर्यपर अत्यन्त अभिमान करनेवाली उन स्त्रियोंका शरीर मृत शरीरके समान हो जाता है । स्त्रीके शरीरमें सम्बद्ध लावण्य शअपि तु कुर्वते नास्ति। २ क 'भो यते' नास्ति। ३ वा भवेत्' नास्ति। ४ । ५ क स नास्ति। ६ श 'सकस' नास्ति। शहलोकपरलोकनाई। Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - 874 : १२-१५ ] १२. ब्रह्मचर्यरक्षावर्तिः लावण्याद्यपि तत्र चश्चलमिति शिष्टं च तप्तत दृष्ट्वा मजलादिरखनां मा गच्छ मोहं सुने ॥ १२ ॥ 672 ) रम्भास्तम्भमृणालहेमशश भृनीलोत्पलाचैः पुरा यस्ये स्त्रीपुत्रः पुरः परिमतैः प्राप्ता प्रतिष्ठा न हि । तत्पर्यन्तदशां गतं विधिवशात्क्षिप्तं क्षतं पक्षिभि छादित नासिकः पितृवने दृष्टं लघु स्यज्यते ॥ १३ ॥ 673 ) अनं यद्यपि योषितां प्रविलसत्तारुण्यलावण्यवद् भूषावत्तदपि प्रमोदजनकं मूढात्मनां मो लताम् । उच्छूनैर्यनुभिः शचैरतितरां कीर्णे इमशानस्थल लग्ध्वा तुष्यति कृष्णकाकनिकरो तो राजहंसः ॥ १४ ॥ 674 ) यूकाधाम कचाः कपालमजिनाच्छनं मुखं योषितां छिद्रे मयने कुचौ पलभरी बाह्र तसे की फसे । १९७ अनं शरीरम् | शबानायते शवमृतक - अन्नम् इव आचरति । किंलक्षगान । स्त्रीणाम् । भतिरूपगर्वितधियाम् । च पुनः । तत्र त्रियाः अत्रे लावण्यादि अपि चमलम् । श्रिहं बद्धम् । तत्तस्मात्कारणात् । भो मुने कुकुमकज्जलादिरचनाम् । तद्गतो" तस्यां त्रियोगता प्राप्ताम् । दृष्ट्वा मोहं मा गच्छ ॥ १२ ॥ यस्याः [स्प] स्त्रीवपुषः । पुरः छमये । रम्भास्तम्भमृणाल देमशशभृमीलोत्पलाः पुरैःपरिगतैः प्राप्तैः । प्रति न हि प्राप्तों । तच्छरीरम् । विधिवशात् कर्मवशात् । पर्यन्तदशां गतं मरणं प्राप्तम् । पितृवने क्षिप्तम् । पतिभिः खन्यः जनैः । भीतैः छादितनासिकेः ॥ १३ ॥ योषिताम् भ ययपि प्रविलसतारुण्यलावण्यवतूषाबत आभरणयुक्तशरीरं मूढात्मनां प्रमोदजनकं भवति । सतो साधून प्रमोदजनकं नो । यथा श्मशानस्थलं लब्ध्वा कृष्णका कनिकरः तुष्यति । राजहंसवः नो तुध्यति । किंलक्षणं श्मशानम् । वच्छनैः बहुभिः शनैः मृतक । अतितराम् । कीर्ण व्याप्तम् ॥ १४ ॥ योषितां खीणाम् । कचाः केशाः । यूकाधाम गृहम् । श्री मुर्ख कपालम् अजिनेन आच्छन्नम् आच्छादितम् । नयने द्वे तच्छिद्रे तस्य मुखस्य छिते । स्त्रीणां कुचौ पळभरी भासपिण्डी । शाहू तते भुजौ वर्षे कीकसे' अस्थिरूपे । स्त्रीणां तुन्दम् उदरम् । मूत्रमलादिसन विष्ठागृहम् । जघनं प्रस्यन्दि क्षरणखभावं 1 आदि भी विनश्वर हैं। इसलिये हे मुने । उसके शरीरमें संलम कुंकुम और काजल आदिकी रचनाको देखकर तू मोहको प्राप्त मत हो ॥ १२ ॥ पूर्व समय में जिस स्त्रीशरीरके आगे कदलीस्तम्भ, कमलनाल, सुवर्ण, चन्द्रमा और नील कमल आदि प्रतिष्ठाको नहीं प्राप्त हो सके हैं वह शरीर जन दैववश मरण अवस्थाको प्राप्त होनेपर स्मशानमें फेंक दिया जाता है और पक्षी उसे इधर उधर नोंचकर क्षत-विक्षत कर डालते हैं तब ऐसी अवस्थामें उसे देखकर भयको प्राप्त हुए लोग नाकको बंद करके शीघ्र ही छोड़ देते हैं - तब उससे अनुराग करना तो दूर रहा किन्तु उस अवस्था में वे उसे देख भी नहीं सकते हैं ॥ १३ ॥ यद्यपि शोभायमान यौवन एवं सौन्दर्यसे परिपूर्ण स्त्रियोंका शरीर आभूषणोंसे विभूषित है तो भी ही आनन्दको उत्पन्न करता है, न कि सज्जन मनुष्योंके लिये । ठीक है - बहुत-से अतिशय व्यास स्मशानभूमिको पाकर काले कौवोंका समुदाय ही सन्तुष्ट होता है, न कि राजहंसों का समुदाय ॥ १४ ॥ स्त्रियोंके बाल जुअकि घर हैं, मस्तक एवं मुख चमड़ेसे आच्छादित है, दोनों नेत्र उस मुखके छिद्र हैं, दोनों स्तन मांससे परिपूर्ण हैं, दोनों भुजायें लंबी हड्डियां हैं, उदर मल-मूत्रादिका स्थान है । जघन I १ क तद्वताम् च व तद्गतम् । २ म क स 'पुर' नास्ति ७क्र प्राप्ताः । म प्रतिष्ठां । वह मूर्खजनोंके लिये सड़े-गले मृत शरीरोंसे यस्याः । २ श प्राप्ताः प्रतिष्ठां क भासाः प्रतिष्ठा । ४ क तदूतां । ५ कश ८ क 'यथा' नास्ति । ९ श दीर्घकीकसे । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [674:१२-१५ पानवि-पशिविर तुन्द मूत्रमलादिसम अधर्म प्रस्यन्दिषचौगाई पारस्पमिदं किमत्र महतो रागाय संभाग्यते ॥ १५॥ 675) कार्याकार्यविचारशून्यमनसो लोकस्य किं महे यो रागान्धतपादरेण वनितापत्रस्य लालां पिबेत् । साध्याले कषयः शशापपिति प्रव्यक्तवाग्लम्बरै शर्मान्दकपाळमेतदपि पैरप्रे सतां वर्ण्यते ॥ १३ ॥ 676) एष श्रीविषये बिनापि हि परप्रोकोपदेश भृशं रागान्धी मदनादयावनुचित पुर्यासनः । अप्येतत्परमार्थबोधविकला प्रौदे करोति स्फुरत् चार प्रविधाय काव्यमसाल्लोकस्य कश्चित्कविः ॥ १७॥ 677) दारापर्यादिपरिप्रहर तहल्यापारसारो ऽपि सन् देवः सोऽपि गृही नरः परथमस्त्रीमिस्पृहः सर्वदा । mmnawwamanam दीर्मनिःसरणस्थानम् । बरॉग्रह पुरीषगृहम् । पावस्थूणम् । अत्र भरे। महता रागाव इदं कि संभाम्यते । श्रीशरीरे रागाय किमपि न समाम्यते ॥ १५॥ तस्य लोकस्म गर्म कि महे। विलक्षणस्य लोकस्य । कार्यान्वर्यविचारे शून्यमनसः । यः भयं लोकः । रागान्धतया भादरेण वनिसावक्त्रस्य लाला पिबेत् । ते फायः साध्याः इति कोऽर्थः निन्याः। यः कविभिः । एतदपि श्रीमुखम् । सतां साधमाम् भने प्रशाइवत् चन्द्रवत् इति वर्म्यते। किलक्षण मुखम् । सामसकपालम् । किलक्षणः कविभिः । प्रम्पचशम्मम्मरः ॥१६॥ एव जनः लोकः । मदनोवयात् कामोदयात् । भृशम् अतिशयेन । रागान्धः अपि परप्रोफ-उपदेश बिनापि हि नीविषये कि किम् अनुचितम् अयोग्यकार्य म फर्याद । अपि तु कुर्यात् । विस्कविः एतत् स्फुरयाहार कार्य प्रौदम् । प्रविधायस्वा ! मसात् निरन्तरम् । लोकस्य परमार्योधविकालः करोति ॥ १७॥ सोऽपि गृही मरः भव्यः देवः कथ्यते । विक्षणः भन्यः । वारा श्री अर्थ-म्य-परिग्रहयुकः । पुनः कृतगृहल्यापारसारः अपि सन् स भव्यः परधनपरलीनिःस्पृहः । सक्दा । तु पुनः । स मुनिः । देवानाम् अपि देवः एव ।भत्र लोके । केन घुसा पुरुषेण नो मन्यते । अपि तु सवैः मन्यते । यस्त Ana annon- in पइते हुए मळका घर है, तथा पैर स्तम्भ (धुनिया ) के समान है। ऐसी अवस्थामें यह स्वीका शरीर यहां क्या महान् पुरुषोंके लिये अनुरागका कारण हो सकता है ! अर्थात् उनके लिये वह अनुरागका कारण कभी भी नहीं होता है ॥ १५॥ जिसका मन कर्तव्य और अकर्तव्यके विचारसे रहित है, तथा इसीलिये जो रागमें अन्धा होकर उत्सुकतासे स्त्रीके मुखकी लारको पीता है, उस मनुष्यके विषयमें हम क्या कहें। किन्तु जो कविजन अपने स्पष्ट वचनोंके विस्तारसे सज्जनोंके आगे चमड़ेसे आच्छादित इस कपास युक्त मुखको चन्द्रमाके समान सुन्दर बतलाते हैं वे भी प्रशंसनीय समझे जाते हैं-जो वास्तवमें निन्दाके पात्र हैं ।। १६ ॥ यह जनसमूह दूसरोंके उपदेशके विना भी कामके उद्दीप्त होनेसे रागसे अन्धा होकर बीके विषयमें कौन कौन-सा निन्ध कार्य नहीं करता है ? अर्थात् विना उपदेशके ही वह सीके साथ अनेक प्रकारकी निन्दनीय चेष्ठाओको करता है। फिर हेय-उपादेयके ज्ञानसे रहित कोई कवि निरन्तर शृंगार रससे परिपूर्ण काव्यको स्थकर उन लोगोंके चिचको और भी रागसे पुष्ट करता है ।। १७ ॥ जो गृहस सी एवं धन आदि परिप्रहसे सहित होकर घरके उत्तम व्यापार आदि कार्योको करता हुआ भी कमी परधन भौर परस्त्रीकी इच्छा नहीं करता है वह गृहस्थ मनुष्य भी देव (प्रशंसनीय ) है । फिर १० विका परमाहापा! रामादयः। स 'चन्द्रवत्' इति नाति ५ परिमहम्यापारसारः । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 680 : १२-२१] १२. ब्रह्मचर्यरक्षापर्तिः यस्य स्त्री न तु सर्वथा न च धर्म रक्षालङ्कृतो देवानामपि देव एव स मुनिः केनाथ नो मम्यते ॥ १८ ॥ 678) कामिन्यादि विनात्र दुःखहतये स्वीकुर्त तच ये लोकास्त सुखं पराश्रिततया तदुःखमेव ध्रुवम् । हित्वा तद्विषयोत्थमन्तविरसं स्तोकं यदाध्यात्मिकं ततस्तैकदशां सुखं निरुपमं नित्यं निजं नीरजम् ॥ १९ ॥ 679 ) सौभाग्यादिगुणप्रमोदसदनैः पुण्यैर्युतास्ते हृदि स्त्रीणां ये सुचिरं वसन्ति विलसत्तारुण्यपुण्यश्रियाम् । ज्योतिर्बोधमयं तदन्तरद्दशा कायात्पृथक् पश्यतां येषां तानतु जातु ते ऽपि तिनस्तेभ्यो नमः कुर्वते ॥ २० ॥ 680) दुष्प्रापं बहुदुः खराशिरशुचि लोकायुररूपताशातमान्तदिनं जराहतमतिः प्रायो नरत्वं भवे । १९९ 1 मुनेः । सर्वथा प्रकारेण । न तु स्त्री न च धनम् । स मुनिः मन्त्रय - अलङ्कृतः ॥ १८ ॥ लोकाः कामिन्यादि बिना । अत्र लोके । दुःखहतये दुःखनाशाय । तत् स्त्री आदि । स्वीकुवैते अशीकुर्वन्ति । च पुनः सन्न स्त्रीषु यत्सुखं तत्सुखं पराश्रिततमा दुःखमेव ध्रुवम् । तत् विषयोत्थं विषयोत्रम् । अन्तविरसं स्तोकम् । हित्वा परित्यज्य मध्यः । यत्सुखम् सम्वैकदशाम् आध्यात्मिकं तत्सुखम् । अङ्गीकुरुते । तत्सुखं तत्त्वैकदृशां सुखम् । किंलक्षणं सुखम् । निरुपमम् । निजं स्वकीयम् । नित्यं शाश्वतम् । नीरज रजोरहितम् ॥१९॥ ये नराः स्त्रीणां हृदि । सुचिरं चिरकालं वसन्ति । ते नराः पुण्यैः युता वर्तन्ते । किंलक्षणः पुष्यैः । सौभाग्यादिगुण प्रमोदसदनैः सौभाग्यमन्दिरैः । किंलक्षणाना स्त्रीणाम्। विलसत्तारुण्य पुण्यश्रियाम् । येषां यतीनां हृदि । ताः स्त्रियः । जातु कदाचित् । न सन्ति । सेऽपि यतयः । कृतिनः पुण्ययुक्ताः । तेभ्यः नमः कुर्वते । सोम ज्योतिः । अन्तरशा कायात् पृथक् पश्यतो शाननेत्रेण पदयताम् ॥ २० ॥ भवे संखारे । नरत्वं मनुष्यपदम् । प्रायः बाहुल्येन । दुष्प्रापम् । इवं नरत्वम् । बहुदुःखरराशिः अनुचिः । इदं नरत्वं स्योकायुः । अल्पशतया अन्नासप्रान्तदिनम् अज्ञातमरणदिनम् । इदं नरत्वम् | जराहतमतिः । अस्मिन् जिसके पास सर्वथा न तो स्त्री है और न धन ही है तथा जो रत्नत्रयसे विभूषित है वह मुनि तो देवोंका भी देव ( देवोंसे भी पूज्य ) है । वह भला यहां किसके द्वारा नहीं माना जाता है ? अर्थात् उसकी सब ही पूजा करते हैं || १८ | यहां श्री आदिके विना ओ दुःख होता है उसको नष्ट करनेके लिये लोग उक्त आदिको स्वीकार करते हैं। परन्तु उन स्त्री आदिके निमित्तसे जो सुख होता है वह वास्तव में परके अधीन होनेसे दुःख ही है । इसलिये विवेकी जन परिणाम में अहितकारक एवं प्रमाणमें अल्प उस विषयजन्य सुनको छोड़कर तत्त्वदर्शियोंके उस अनुपम सुखको स्वीकार करते हैं जो आत्माधीन, नित्य, आत्मीक (स्वाधीन ) एवं पापसे रहित है ॥ १९ ॥ जो मनुष्य शोभायमान यौवनकी पवित्र शोभासे सम्पन्न ऐसी स्त्रियोंके हृदयमें चिरकाल तक निवास करते हैं वे सौभाग्य आदि गुणों एवं आनन्द के स्थानभूत पुण्य से युक्त होते हैं, अर्थात् जिन्हें उत्तम स्त्रियां चाहती हैं वे पुण्यात्मा पुरुष हैं । किन्तु अभ्यन्तर नेत्रसे ज्ञानमय ज्योतिको शरीरसे भिन्न देखनेवाले जिन साधुओंके हृदयमें वे स्त्रियां कभी भी निवास नहीं करती हैं उन पुण्यशाली मुनियोंके लिये वे पूर्वोक्त ( स्त्रियोंके हृदयमें रहनेवाले ) पुण्यात्मा पुरुष भी नमस्कार $रते हैं ॥ २० ॥ संसारमें जो मनुष्यपर्याय दुर्लभ है, बहुत दुःखोंके समूहसे व्याप्त है, अपवित्र है, अल्प आयु से सहित है, जिसके अन्त ( मरण) का दिन अल्पज्ञता के कारण ज्ञात नहीं किया जा सकता १क स्त्रीषु' नास्ति । २ क खम् आध्यात्मिकं सुर Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [680 : १२-२१अस्मिभेष तपस्ततः शिवपद तत्रैव साक्षात्सुखं सौख्यार्थीति विचिन्त्य चेतसि तपः कुर्यारो निर्मलम् ॥ २१ ॥ ... .. 681) उप मुनियमनन्दिभिपजाद्वाभ्यां युतायाः शुमा सवृत्तीषषविशतेकवितधागम्मिता पर्तिता। निन्धैः परलोकदर्शनाते प्रोपतपोवार्धकै श्वेतश्चक्षरमरोगशमनी वर्तिः सदा सेव्यताम् ॥ २२॥ नरत्वे । तपः कार्यम् । सप्तः तपसः सकाशात् । शिवपदं भवेत् । संत्र शिवपये । साक्षात् सुखम् । सौख्यायाँ नरैः । चेतस्मि इति विचिन्त्य निर्मल तपः कुर्यात् ॥ २१॥ प्रोद्यत्तपोवाकः प्रकाशतपोरदैः । निन्पैः मुनिभिः । परलोकदर्शनकृते कारणाय । मएसौषधविंशतः वर्तिः सदा सेव्यताम् । हिलक्षणायाः सञ्चारित्रौषधविशतेः । द्वाभ्यो युतायाः । सा इयं वर्तिः । मुनिपग्रनन्दिभिषजा वचन । उता कयिता। शुभा श्रेष्ठा । पुनः किलक्षणा बसिः । उचितवाक् अर्धाम्भसा वर्तिता मर्दिता । पुनः किंलक्षणा वर्तिः । वेतश्चक्षुरनारोगशमनी मनोनेत्रसंवन्धिन कन्दर्प विनाशनशीला ॥ २२ ॥ इति श्रीब्रह्मचर्यरक्षावर्तिः समाप्ता ॥ १२ ॥ है, तथा जिसमें वृद्धावस्थाके कारण बुद्धि प्रायः कुण्ठित हो जाती है; उस मनुष्य पर्यायमें ही तप किया जा सकता है । तथा मोक्षपदकी प्राप्ति इस तपसे होती है और वास्तविक सुख उस मोक्षमें ही है। यह मनमें विचार करके मोक्षसुखाभिलाषी मनुष्यको इस दुर्लभ मनुष्य पर्यायमें निर्मल तप करना चाहिये ॥ २१ ॥ दोसे अधिक उत्तम बीस छन्दों ( पद्यों) रूप औषधि (बाईस श्लोकोंमें रचित यह ब्रह्मचर्य प्रकरण ) की जो यह बत्ती मुनि पद्मनन्दीरूप वैद्यके द्वारा बतलायी गई है, श्रेष्ठ है, योग्य शब्द एवं अर्थतय जलसे जिसका उद्वर्तन किया गया है, तथा जो चित्तरूप चक्षुके कामरूप रोगको शान्त करनेवाली है उसका सेवन तपोवृद्ध साधुओंको परलोकके दर्शन के लिये निरन्तर करना चाहिये ॥ विशेषार्थयहां श्री पद्मनन्दी मुनिने जो यह बाईस श्लोकमय ब्रह्मचर्य प्रकरण रचा है उसके लिये उन्होंने औषधिकी बत्ती (एईमें औषधिका प्रयोग कर आंखमें लगाने के लिये बनाई गई बत्ती अथवा अंजन लगानेकी शलाई) की उपमा दी है । अभिप्राय उसका यह है कि जिस प्रकार उत्तम वैद्यके द्वारा बतलाये गये श्रेष्ठ मंजनको शलाकाके द्वारा आखोंमें लगानेपर मनुष्यकी आखोंका रोग ( फुली आदि) दूर हो जाता है और तब यह दूसरे लोगोंको स्पष्ट देखने लगता है, इसी प्रकार जो भन्य जीव मुनि पमनन्दीके द्वारा उत्तमोत्तम शब्दों और अर्थका आश्रय लेकर रचे गये इस प्रश्नचर्य प्रकरणका मनन करते हैं उनके चित्तका कामरोग (विषयवांछा ) नष्ट हो जाता है और तब वे मुनिव्रतको धारण करके परलोक ( दूसरे भव ) के देखनेमें समर्थ हो जाते हैं । तात्पर्य यह कि ऐसा करनेसे दुर्गतिका दुःख नष्ट होकर उन्हें या तो मोक्षकी प्राप्ति हो जाती है या फिर दूसरे भवमें देवादिकी उत्तम पर्याय प्राप्त होती है ॥ २२ ॥ इस प्रकार नामचर्यरक्षावर्ती नामका अधिकार समाप्त हुआ ॥ १२ ॥ १ मोक्षार्थीति । २ मोक्षार्थीनरम् । Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३. ऋषभस्तोत्रम् 682 ) जय इसह जाहिणंदण तिषणाणलएकदीय तित्थयर । जय सरलजीषषच्छल णिम्मलगुणरयणणिहि जाद।१॥ 683 ) सयलमुरासुरमणिमउरकिरणकम्युरियपायपीद तुम। भण्णा पेच्छेति धुणेति जति मायति जिमवाद । २५ 684) अम्मच्छिणा वि घिढे ता सइलोषण मार महहरिसो। णाणछिणा उणो जिण प-याणिमो कि परिष्फुरद ३ ॥ 685) में जिण णाणमतं विसईफयसयलवास्थविस्थार। जो धुणा सो पयासा समुहकहमवासालूरो ॥ ४॥ 686) अम्हारिसाण तुहगोत्तकित्तणेण वि जिणेस संचा। आपसं मग्गंती पुरमो हियामिछया लच्छी ॥ ५॥ भो उसह भो ऋषभ । भो णाहिणदण भो नाभिनन्दन । भो त्रिभुवननिलयएकोष त्रिभुवमगृहरीप । भो तीर्थकर । मो सकलजीवबत्सल। भो निर्मलगुणरानिधे । भो भाष । वंजय ॥1॥मो जिननाथ । मो सकलसुरासुरमणिमुकुटकिरलेः कर्मुरितपादपीठ । त्वा जिन धन्या मराः प्रेक्षन्ते स्तुवन्ति अपन्ति ध्यायन्ति ।। २ ॥ भो जिन । लगि चर्मनेत्रेणापि रष्ट सति महाइर्षः प्रलोक्ये न माति । पुनः ज्ञाननेत्रेण त्वयि दष्टे सात कियत् भानन्द परिस्फरति तत् वयं न बानीमः ॥३॥ जिन । यः पुमान सर्वोपदेशेन वा स्तौति । किलक्षणे स्वाम् । सानमयम् अनन्तम् । पुनः विलक्षण त्वाम् । विषयीतसकल बस्तुबिस्तार गोचरीकृतम्रकलपदार्थम् । स पुमान् भवटकूपमणका बुरः । समुहको प्रकाशयति ॥ ४॥ भो जिनेश । भो श्रीसपैक । मम सदृशानो [ भस्माशाना ] जनानाम् । तब गोत्रकीर्तनेन तव नामस्मरणेम । हपयस्थिता [दप्सिता ] मनो __ हे ऋषभ जिनेन्द्र ! नामि राजाके पुत्र आप तीन लोकरूप गृहको प्रकाशित करनेके लिये अद्वितीय दीपकके समान हैं, धर्मतीर्थके प्रवर्तक हैं, समस्त प्राणियोंके विषयमें वात्सल्य भावको धारण करते हैं, तथा निर्मल गुणोंरूप रत्नोंके स्थान हैं । आप जयवन्त होवें ॥ १ ॥ नमस्कार करते हुए समस्त देवों एवं असुरोंके मणिमय मुकुटोकी किरणोंसे जिनका पादपीठ (पैर रखनेका आसन ) विचित्र वर्णका हो रहा है ऐसे हे ऋषभ जिनेन्द्र ! पुण्यात्मा जीव आपका दर्शन करते है, स्तुति करते हैं, जप करते हैं, और ध्यान भी करते हैं ॥ २ ॥ हे जिन ! चर्ममय नेत्रसे भी आपका दर्शन होनेपर जो महान् हर्ष उत्पन्न होता है वह तीनों लोकोंमें नहीं समाता है । फिर झानरूप नेत्रसे आपका दर्शन होनेपर कितना आनन्द प्राप्त होगा, यह हम नहीं जानते हैं ॥ ३॥ हे जिनेन्द्र ! जो जीव समस्त वस्तुओंके विस्तारको विषय करनेवाले आपके अनन्त ज्ञानकी स्तुति करता है वह अपनेको उस कूपमण्ड्डक (कुएँ में रहनेवाला मेंढक ) के समान प्रगट करता है जो कुएं में रहता हुआ भी समुद्रके वृत्तान्त ( विस्तारादि) को बतलाता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार कुऍमें रहनेवाला क्षुद्र मेंढक कभी समुद्रके विस्तार आदिको नहीं बतला सकता है उसी प्रकार अल्पज्ञ मनुष्य आपके उस अनन्त ज्ञानकी स्तुति नहीं कर सकता है जिसमें कि समस्त द्रव्ये एवं उनके अनन्त गुम और पर्यायें युगपत् प्रतिभासित हो रही है ॥ ४ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपके नामके कीर्तनसे-केवल नामके स्मरण मात्रसे-- भी हम जैसे मनुष्योंके सामने मनचाही लक्ष्मी आज्ञा मांगती ११ जमावन्ति । पप्रन०१५ Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ पचनन्दि-पविशतिः [687:१३६687 ) जासि सिरी तह संते नुव अवाण्णम्मि ती गट्ठा। संके अणियाणिटा विट्ठा सबट्ठसिद्धी वि ॥ ६॥ 688) णाहिघरे सुहारापरणं ज मुहरमिह तुहोयरणा। भासि महाहि जिणेसर तेण घरा पसुमई जाया ॥७॥ 689 ) स शिय सुरणवियपया मरूपयी पडु तियो सि जंगम्मे । पुरयो पट्टी बज्या मज्झे से पुलवंतीणं ॥ ८॥ 690) अकरथे ता दिटे जंतेण सुरायल सुरिदेण ।। अणिमेसप्तबहुत्तं सयलं णयणाण पडिषणं ॥९॥ वाध्यिा मीः । मम पुरतः बने । मादेश प्रायन्ती संचरति प्रवर्तते ।। ५ ॥ शके अहम् । एवं मन्ये । मो श्रीसर्वत्र । या श्रीः लक्ष्मी तथा श्रीः बोमा । स्वयि सति सर्वार्थसिद्धौ । भासि पूर्वम् आसीत् । त्वयि अवतीर्णे सति तस्याः लक्ष्म्याः नष्टा शोभा सर्वार्थसिदौ अपि न दृष्टा । अनितानिष्टा ॥ ६॥ भो जिनेश्वर । सब अवतरणात् । नाभिगृहे [ इह ) पृधिन्याम् । नभसः भामाशात् । यद्यस्मात् । सुचिरचिरकालम् । वसुधारापतमम् मासीत् तेन हेतुना सा पृथ्वी वसुमती जाता द्रव्यवतीत्वमू उपगता ॥७॥ भो प्रभो । मरुदेवी सेंची सुर-देव-इन्द्राणी व पुनः [ स चिय सा एव ] देवैः नमितपदा जाता । सत्यं यस्याः मरुदेव्या: गर्भ व स्थितोऽसि तस्याः मरुदेव्याः मस्तके पुत्रवतीनो मधे अप्रतः पट्टः मध्यते । पुत्रवती मरुदेवी प्रधाना तस्सदृशा अन्या म ॥८॥ भो जिन्देश । भास्थ त्वयि दृष्टे सति सुरेन्द्रेण । नेत्राणाम् अनिमेषनामास्वं सफल प्रतिपलं सफल शातम् । किंलक्षणेन हुई उपसित होती है ॥ ५॥ हे भगवन् । आपके सर्वार्थसिद्धिमें स्थित रहनेपर जो उस समय उसकी शोभा थी यह आपके यहा भवतार लेनेपर नष्ट हो गई । इससे मुझे ऐसी आशंका होती है कि इसीलिये उस समय सर्वार्थसिद्धि भी ऐसी देखी गई मानों उनका अनिष्ट ही हो गया है। विशेषार्थ-जिस समय भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रका जीव सर्वार्थसिद्धिमें विद्यमान था उस समय भावी तीर्थकरके वहां रहनसे उसकी शोभा निराली ही थी। फिर जब वह वहांसे च्युत होकर माता मरुदेवीके गर्भ में अवतीर्ण हुआ तब सर्वार्थसिद्धिकी वह शोभा नष्ट हो गई थी । इसपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रके च्युत होनेपर वह सर्वार्थसिद्धि मानो विधया ही हो गई थी, इसीलिये वह उस समय सौभाग्यश्रीसे रहित देखी गई ॥ ६ ॥ हे जिनेश्वर ! आपके अवतार लेनेसे नामि राजाके घरपर आकाशसे जो चिर काल (पन्द्रह मास) तक धनकी धाराका पतन हुआ- रत्नोंकी वर्षा हुई-उससे यह पृथिवी 'वसुमती ( धनवाली) इस सार्थक नामसे युक्त हुई ॥ ७॥ हे भगवन् ! जिस मरुदेवीके गर्भमै तुम जैसा प्रभु स्थित था उसीके चरणों में उस समय देवोंने नमस्कार किया था । तव पुत्रवती स्त्रियोंके मध्यमें उनके समक्ष उसके लिये पट्ट बांधा गया था, अर्थात् समस्त पुत्रवती स्त्रियोंके बीचमें तीर्थकर जैसे पुत्ररत्नको जन्म देनेवाली एक वही मरुदेवी पुत्रवती प्रसिद्ध की गई थी ।। ८ ॥ हे जिनेन्द्र ! सुमेरुपर जाते हुए इन्द्रको गोदमें खित आपका दर्शन होनेपर उसने अपने नेत्रोंकी निर्निमेषता (अपकनका अभाव) और अधिकता (सहन संख्या) को सफल समझा ॥ विशेषार्थ- यह आगमप्रसिद्ध बात है कि देवोंके नेत्र निर्निमेष ( पलकोंकी झपकनसे रहित ) होते हैं। तदनुसार इन्द्रके नेत्र निर्निमेष तो थे ही, साथमें वे संख्यामें भी एक हजार थे । इन्द्रने जब इन नेत्रोंसे प्रभुका दर्शन किया तब उसने उनको सफल समझा । यह सुयोग अन्य मनुष्य आदिको प्राप्त नहीं होता है । कारण कि उनके दो ही नेत्र होते हैं और वे भी सनिमेष । इसलिये वे अब त्रिलोकीनाथका दर्शन करते हैं तब उन्हें बीच बीचमें पलकोंके झपकनेसे व्यवधान भी होता है। वे उन देवोंके समान बहुत समय तक टकटकी लगाकर भगवान्का दर्शन नहीं कर पाते हैं ।।९॥ कश यासि । २ न अक्मणमि तीये, क अवयणामि सिये, शभबयणमितीये। ३ का गट्ठाये। ४ का सिद्धादि। पर सुरमर, सुपरमिक सुधरमहि। कशमरणी। प-प्रतिपाठोऽयम्, श सुरालय मासीय पर्ने आसी। भानध या शोमा। १.काशची। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०३ +Andamannanawanrnwwmmermanananananaamaaran -524:११३] १३. बाबामस्तोत्रम् 691) तिस्थत्तणमामपणो मेक तुह अम्मणहाणजलजोए । से तस्स सूरपमुही पयाहि मिण कुपति सया ॥ १० ॥ 692) मेसिरे पडणुच्छलियणीरतारणपणडदेवाण । त वि तुह हाणं तह जह साहमासि संकिरणे ॥ ११॥ EAR ) णा ह जमा दिगो शानिय नमाणस्त। वेल्लिरभुयाहि भग्गा तब अषि भंगुरा मेहा ॥ १२॥ 694) जाण पहुपहिं वित्ती जाया कप्पडुमेहि तेहि विणा । पकेण वि ताण तए पयाण परिकप्पिया गाह ॥ १३ ॥ इन्द्रेण । सुररालय मन्दिर । सुराचलं ] गमता ॥ ९ ॥ भो जिन । तव जन्मलानजलयोगेन मेस्त्रीयत्वम् मापनः प्रातः । तत् तस्मात् कारणात् । सूर-सूर्गप्रमुखाः देवाः सदाकाले तस्य मेरोः प्रदक्षिणां कुर्वन्ति ॥ १०॥ मेशिरसि मस्तके सब तत् जन्ममान तथा से जातं यथा पतनोच्छलननीरताउनवशात् प्रणष्टदेवानां नमः कीर्णम् आश्रितं म्याप्तं जातम् ॥ १॥ भो नाच । तघ जन्मनाने मेरौ हरेः इन्द्रस्य नृत्यमानस्य स्फालितभुजाभिः तदा भामाः मेयाः अद्यापि मराः खण्डिता रमन्ते ।। १२ ॥ भो नाप । यासा प्रजाना बहुभिः कल्पहमैः कृत्तिर्जाता उदरपूर्ण जातम् । तैर्बिना कल्पद्रुमैः विना। तासां प्रजानाम् । एकेनापि है जिन 1 उस समय चूंकि मेरु पर्वत आपके जन्माभिषेकके जलके सम्बन्धसे तीर्थस्वरूपको प्राप्त । हो चुका था, इसीलिये ही मानो सूर्य-चन्द्रादि ज्योतिषी देव निरन्तर उसकी प्रदक्षिणा किया करते हैं ॥१० ॥ जन्माभिषेकके समय मेरु पर्वतके शिखरपर नीचे गिरकर ऊपर उच्छलते हुए जलके अभिघातसे कुछ खेदको प्राप्त हुए देवोंके द्वारा आपका यह जम्माभिषेक इस प्रकारसे सम्पन्न हुआ कि जिससे आकाश उन देवों और जलसे व्याप्त हो गया ।। ११ ।। हे नाथ ! आपके जन्माभिषेकमहोत्सवमें मेरुके ऊपर नृत्य करनेवाले इन्द्रकी कम्पित (चंचल) भुजाओंसे नाशको प्राप्त हुए मेघ इस समय मी मंगुर (विनाधर , देखे जाते हैं ॥ १२ ॥ हे नाथ ! भोगभूमिके समय जिन प्रजाजनोंकी आजीविका बहुत-से कल्पवृक्षोंके द्वारा सम्पन्न हुई थी उनकी वह आजीविका उन कल्पवृक्षोंके अभावमें एक मात्र आपके द्वारा सम्पन्न (प्रदर्शित ) की गई यी ॥ विशेषार्थ- पूर्वमें यहां ( भरतक्षेत्रमें ) जब भोगभूमिकी प्रवृत्ति थी तब प्रजाजनकी आजीविका बहुत-से ( दस प्रकारके ) कल्पवृक्षोंके द्वारा सम्पन्न होती थी । परन्तु जब तीसरे कालका अन्त होनेमें पल्यका आठवां भाग शेष रहा था तब वे कल्पवृक्ष धीरे धीरे नष्ट हो गये थे। उस समय भगवान् आदि जिनेन्द्रने उन्हें कर्मभूमिके योभ्य असि-मसि आदि आजीविकाके साधनोंकी शिक्षा दी थी। जैसा कि खामी समन्तभद्राचार्यने कहा भी है-प्रजापतिर्या प्रथमं जिजीविषः शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्धृतोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ।। अभिप्राय यह है कि जिन ऋषभ जिनेन्द्रने पहिले कल्पवृक्षोंके नष्ट हो जानेपर आजीविकाके निमित्त व्याकुलताको प्राप्त हुई प्रजाको प्रजापतिके रूपमें कृषि आदि छह कर्मोकी शिक्षा दी थी वे ही ऋषभ जिनेन्द्र फिर वस्तुस्वरूपको जानकर संसार, शरीर एवं मोगोंसे विरक्त होते हुए आश्चर्यजनक अभ्युत्यको प्राप्त हुए और समस्त विद्वानोंमें अग्रेसर हो गये ॥ ७. स्व. स्तो. २. इस प्रकारसे जो प्रजाजन भोगभूमिके कालमें अनेक कल्पवृक्षोंसे आजीविकाको सम्पन्न करते थे उन्होंने कर्मभूमिके प्रारम्भमें एक मात्र उक्त ऋषभ जिनेन्द्रसे ही उस आजीविकाको सम्पन्न किया थावे ऋषभ जिनेन्द्रसे असि, मसि व कृषि आदि कर्मों की शिक्षा पाकर आनन्दपूर्वक आजीविका करने लगे कश तरास। २क सुरपमुरा। प्रतिपाठोऽयम् । मममासिवं कि, 'मासिय विष्णं च मासिय किणं । ४ मशमुवादि। ५कसुरसूर्यप्रमुखा। Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ पअनन्वि-पञ्चविंशतिः [695: १३-१४695) पहुणा सप सणाहा परासि तीए कहाणही चूदो। वघणसमयसमुल्लसियसासछम्मेण रोमचो ॥१४॥ 626शिम घलेगेनिट्रपणट्ठा पणधिरी अमरी। जया तइया वितए रायसिरी तारिसी विट्ठा ॥ १५ ॥ 697) धेरगविणे सहसा सुहा जुण्णं तिर्ण व मुक्का । देष तप सा अन्न पि विलया सरिजलरषा बराई ॥ १६ ॥ 698} आसोहिओ सि तथा काउस्सग्गडिओ तुर्म णाद। घम्मिकघरारमे उम्भीकर्यमूलखंभो ब्व ॥ १७॥ 699) हिययस्थशाणसिहिडझमाण सहसा सरीरधूमो म्ष । सहई जिण तुज्य सीसे महुयरकुलसंणिहो केसभरो॥ १८ ॥ त्वया पत्तिः परिकल्पिता ॥ १६ ॥ भो प्रभो त्वया प्रभुणा कृत्या धरा पृथ्वी सनाचा आसीत् । अन्यथा तस्या धरायाः मवचन-मेघसमयसमुलसितम्बास-सस्य-] छन [पना] प्रादुर्भूतः रोमाघः कथं भवेत् ।। १४ ॥ यदा यस्मिन् काले । स्वया मृत्यशाला प्रवृत्यन्ती अमरी देवाशना नीलांजसा प्रणा दृष्टा तथा काले राजनीः अपि सारिसी तादशी" देवाशनासदशी मिनश्वरा हटा । कस्मिन् फेव । मेघे विद्युदिय ॥ १५॥ भो देव । वैराग्यविने त्वया सहसा या वसुधा जीणेतृणम् इव मुक्का सा बसुधा मयापि सरिताजमरवात व्याजेन वराकिनी [पराफी ] विलपति रुदन करोति ॥ १६ ॥ भो नाथ । तं सदा कायोत्सर्गस्वितः भतिलोमितः आसीत् [ मसि ] धर्मगृहारम्भ कीकृतमूलस्वम्भवत् त्वं राजसे ॥ १७॥ भी जिन । तव शीर्षे मस्तके फेशसम्र: शोमते । किंलक्षणः केशभरः । मधुकर कुलसनिमः केशभरः । किंवत् । हृदयस्थत्र्यानशिविदयमानशरीरधूमवेत् ॥ १८ ॥ ये ॥ १३ ॥ हे भगवन् ! उस समय पृथिवी आप जैसे प्रभुको पाकर सनाथ हुई थी। यदि ऐसा न हुआ होता तो फिर वह नवीन वर्षाकालके समय प्रगट हुए धान्यांकुरोंके छलसे रोमांचको कैसे धारण कर सकती थी। ।। १४ ॥ हे भगवन् ! जब आपने मेषके मध्यमें क्षणमें नष्ट होनेवाली बिजलीके समान रंगभूमिमै देखते ही देखते मरणको प्राप्त होनेवाली नृत्य करती हुई नीलांजना अप्सराको देखा था तभी आपने राजलक्ष्मीको भी इसी प्रकार क्षणभंगुर समझ लिया था ॥ विशेषार्थ-किसी समय भगवान् ऋषभ जिनेन्द्र अनेक राजा-महाराओंसे वेष्टित होकर सिंहासनपर विराजमान थे। उस समय उनकी सेवा करनेके लिये इन्द्र अनेक गन्धवों और अप्सराओंके साथ वहां आया । उसने भक्तिवश वहां अप्सराओंका नृत्य प्रारम्भ कराया । उसने भगवानको राज्य-भोगसे विरक्त करनेकी इच्छासे इस कार्यमें ऐसे पात्र (नीलांजना) को नियुक्त किया जिसकी कि आयु शीघ्र ही समाप्त होनेवाली थी । तदनुसार नीलांजना रस, भाव और लयके साथ नृत्य कर ही रही थी कि इतनेमें उसकी आयु समाप्त हो गई और वह देखते ही देखते क्षणभरमें अदृश्य हो गई । यद्यपि इन्द्रने रसभंगके भयसे वहां दूसरी वैसी ही अप्सराको तत्काल खड़ा कर दिया था, फिर भी भगवान् ऋषभ जिनेन्द्र इससे अनभिज्ञ नहीं रहे। इससे उनके हृदय में बड़ा वैराग्य हुआ (आ. पु. १७, १-११.) ॥ १- हे देव ! आपने वैराम्यके दिन चूंकि पृथिवीको जीर्ण हणके समान अकस्मात् ही छोड़ दिया था, इसीलिये यह वेचारी आज भी नदीजलकी ध्वनिके मिषसे विलाप कर रही है ॥ १६ ॥ हे नाथ ! आप कायोत्सर्गसे स्थित होकर पेसे अतिशय शोभायमान होते थे जैसे मानो धर्मसपी अद्वितीय प्रासादके निर्माण में ऊपर खड़ा किया गया मूल स्खम्मा ही हो ॥ १७ ॥ हे जिन ! आपके शिरपर जो अमरसमूहके समान काले केशोंका भार है वह ऐसा शोभित होता है कई हो, व कईलाई । २२ पर। ३ प्रतिपाठोऽयम् । शशीकय । ४ क श सोहर, सुइ। ५० नवमेध। कस्वास। कपि सादशी। मशहदन करोतिनास्ति। ९. कायोत्संग १५मदग्धमानशीपशरीरषद धूम्रवदक दभमानशरीरभूमवर, दन्धमानषिशरीरभूमवत् । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 5 - 704: १३-२३] १३. ऋषभस्तोत्रम् 700 ) कम्मकलंक गठ्ठे निम्मलसमाहिभूय । तु णाणदपणे चि लोयालोय पडिप्फलियं ॥ १९ ॥ 701 ) आवरणाणि तप समूलमुम्मूलिगाइ दण । कम्मण मुयं ष णाह भीएण सेसेण ॥ २० ॥ 702) णाणामणिणिमाणे देव ठिओ सहसि समवसरण स्मि । जब संणिविट्टो जियाण जोईण सव्वाणं ॥ २१ ॥ 703 ) लोउत्तरा विसा समवसरण लोहा जिणेस तुद्द पाए । लहिऊण लहर महिमं रयिणो णलिजि व कुसुमड|[हा] ॥ २२ ॥ 704 ) णिद्दोसो अकलंको अजडो चंदो व्व सहसि तं तह वि । सीदासपणात्यो जिणि कयकुवलयाणंदो ॥ २३ ॥ २०५ भो अर्च्य पूज्य । निर्मलसमाधिभूत्या धर्मकलङ्कचतुष्के नष्टे सति सव ज्ञानदर्पणे लोकालोकं प्रतिबिम्बितम् ॥ १९ ॥ भो नाथ । आवरणादीनि त्वया समूलम् उन्मूलितानि उत्पादितानि । मीतेन शेषेण अधातिकर्म चतुष्केन सृड्डास अतिचतुष्कः सुतवत् [ तत् अघातियतुष्कं मृतवत् ] त्वयि विषये स्थितम् ॥ २० ॥ भो देव । समवसरणे नानामणिनिर्माण एवं स्थितः शोभसे । किंलक्षणस्वम् । यावतो [जिताना ] सर्वेषी नसलेले ॥ ३९ भो जिनेश । सा समवसरणशोभा लोकोत्तरा अपि तब पादी लभ्या प्राप्य महिमानं लभते । यथा सूर्यस्य पादपान् [ पादान् ] या कमलिनी विराखते । किंलक्षणा कमलिनी । कुटुमस्था कुसुमेषु तिष्ठतीति कुसुमस्था ॥ २२ ॥ भो जिनेन्द्र | स्वं चन्द्रवत् शोभते तथापि चन्द्रात् अधिकः । यतस्त्वं निर्दोषः । पुनः किंलक्षणः त्वम् | अकलङ्कः कलङ्करहितः 1 अजडः ज्ञानवान् । पुनः किंमानो हृदयमें स्थित ध्यानरूपी अभिसे सहसा जलनेवाले शरीरका धुआं ही हो ॥ १८ ॥ हे भगवन् | निर्मल ध्यानरूप सम्पदासे चार घातिया कर्मरूप कलंकके नष्ट होजानेपर प्रगट हुए आपके ज्ञान (केवलज्ञान ) रूप दर्पण में ही लोक और अलोक प्रतिबिम्बित होने लगे थे ॥ १९ ॥ हे नाथ ! उस समय ज्ञानावरणादि नार घातिया कर्मोंको समूल नष्ट हुए देखकर शेष ( वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र ) चार अघातिया कर्म भयसे ही मानो मरे हुएके समान ( अनुभागसे क्षीण ) हो गये थे || २० || हे देव ! विविध प्रकारकी मणियोंसे निर्मित समवसरण में स्थित आप जीते गये सब योगियोंके ऊपर बैठे हुएके समान सुशोभित होते हैं ॥ विशेषार्थ--- भगवान् जिनेन्द्र समवसरणसभा में गन्धकुटीही भीतर स्वभावसे ही सर्वोपरि विराजमान रहते हैं। इसके उपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि उन्होंने चूंकि अपनी आभ्यन्तर व बाह्य लक्ष्मी के द्वारा सब ही योगीजनों को जीत लिया था, इसीलिये वे मानो उन सब योगियोंके ऊपर स्थित थे ॥ २१ ॥ हे जिनेश ! वह समवसरणकी शोभा यद्यपि अलौकिक थी, फिर भी वह आपके पादों ( चरणों) को प्राप्त करके ऐसी महिमाको प्राप्त हुई जैसी कि पुष्पोंसे व्याप्त कमलिनी सूर्यके पादों (किरणों ) को प्राप्त करके महिमाको प्राप्त होती है ॥ २२ ॥ हे जिनेन्द्र ! सिंहासनरूप उदयाचलपर स्थित आप चूंकि चन्द्रमा के समान कुवलय ( पृथिवीमण्डल, चन्द्रपक्ष में कुमुद ) को आनन्दित करते हैं; अत एव उस चन्द्रमाके समान सुशोभित होते हैं, तो भी आपमें उस चन्द्रमाकी अपेक्षा विशेषता है कारण कि जिस प्रकार आप अज्ञानादि दोषोंसे रहित होनेके कारण निर्दोष हैं उस प्रकार चन्द्रमा निर्दोष नहीं है - वह सदोष है, क्योंकि वह दोषा (रात्रि ) से सम्बन्ध रखता है । आप कर्ममलसे रहित होनेके कारण अकलंक हैं, परन्तु चन्द्रमा कलंक ( काला चिह्न) से ही सहित] है । तथा आप जड़ता ( अज्ञानता ) से रहित होनेके कारण अजड हैं । परन्तु चन्द्रमा अजड़ नहीं है, १ क मू, अश सुगं । २ व सुदसि, श सोहसि । ३ उवरिभ्व, व श उवरि य । ४ - प्रतिपाठोऽम् भ क स जि ५ सुगवत् । ६ क अक्षरस्य सर्वेषां । ७ जिन। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ पानन्दि-पञ्चविंशतिः [705 : १३-२४705) अच्छंतु ताव इथरा फुरियविवेया णर्मतसिरसिहरा। होइ असोओ' रुक्खो वि णाह तुह संणिहाणरथो ॥ २४ ॥ 706) छत्तत्तयमालंपियणिम्मलमुत्ताहलच्छला तुज्म । जणलोयणेसु चरिसद अमय पि व जाह विदूहि ॥ २५ ॥ 707) कयलोयलोयणुप्पलहरिसाह सुरेसाहत्थच लियाई ।। तुह क्षेष सरयससाहरकिरणकयाई व चमराई ॥२६॥ 708) विहलीफयपंचसरे पंचसरो जिण तुमम्मि काऊण । - अमरकयपुष्कषिट्टिन्छला बर मुह कुसुमसरे ॥ २७ ॥ लक्षणस्त्वम् । सिंहासनाचलस्थः । पुनः किंलक्षणस्त्वम् । कृतकुवलयानन्दः ॥२३॥ भो नाथ । तावत् इतरे मम्पाः हरे सिवन्तु।। किविशिष्टा भव्याः । स्फुरितविवेकाः। पुनः नम्रीभतशिर:शिखराः । तव संनिधाना तब निकटस्थपक्षः भशोकः शेकरहितः : भवति । भन्यजीवस्म का वार्ता ॥ २४ ॥ भो नाप । तव नत्रयम् मालम्बितनिर्मलमुक्ताफलच्छलात् जनलोचनेषु मस्त । बिन्दुभिः वर्षेति इव ॥ २५ ॥ भो देव । तव चमराणि शशधरकिरणकृतानि इव । पुनः किलक्षणानि चमरावि। इतलोकलोचनोत्पलहर्षाणि । पुनः किंलक्षणानि चमराणि । इन्द्रहवैचालितानि ॥ २६ ॥ भो जिन । परशरः कामः त्वयि विषये अमरदेवकृतपुष्पवृष्टिरछलात् । बहून् कुसुमारान् पुष्पस्त रकान् मुखति । किंलक्षणस्वम् । विफलीकृतपयशरः निर्जितकामः ।।१७ किन्तु जड है-हिमसे प्रस्त है ।। २३ ॥ हे नाथ ! जिनके विवेक प्रगट हुआ है तया जिनका शिररूप शिखर आपको नमस्कार करने में नम्रीभूत होता है ऐसे दूसरे भव्य जीव तो दूर ही रहें, किन्तु आपके समीपमें स्थित वृक्ष भी अशोक हो जाता है । विशेषार्थ-यहां ग्रन्थकर्ता भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रकी स्तुति करते हुए उनके समीपमें स्थित आठ प्रातिहार्योंमेंसे प्रथम अशोक वृक्षका उल्लेख करते हैं । वह वृक्ष यद्यपि नामसे ही 'अशोक' प्रसिद्ध है, फिर भी वे अपने शब्दचातुर्यसे यह व्यक्त करते हैं कि जब जिनेन्द्र भगवानकी केवल समीपताको ही पाकर वह स्थावर वृक्ष भी अशोक ( शोक रहित ) हो जाता है तब भला जो विवेकी जीव उनके समीपमें स्थित होकर उन्हें भक्तिपूर्वक नमस्कार आदि करते हैं वे शोक रहित कैसे न होंगे ! अवश्य ही वे शोकसे रहित होकर अनुपम सुखको प्राप्त करेंगे ॥२४॥हे नाथ ! आपके तीन छत्र लटकते हुए निर्मल मोतियोंके छलसे मानो बिन्दुओंके द्वारा भव्यजनोंके नेत्रों में अमृतकी वर्षा ही करते हैं। विशेषार्थ- भगवान् ऋषम जिनेन्द्र के शिरके ऊपर जो तीन छत्र अवस्थित थे उनके सब ओर जो सुन्दर मोती लटक रहे थे वे लोगोंके नेत्रोमें ऐसे दिखते थे जैसे कि मानो वे तीन छत्र उन मोतियोंके मिषसे अमृतबिन्दुओंकी वर्षा ही कर रहे हों ॥ २५ ॥ हे देव ! लोगोंके नेत्रोंरूप नील कमलोंको हर्षित करनेवाले जो चमर इन्द्र के हाथोंसे आपके ऊपर दोरे जा रहे थे वे शरत्कालीन चन्द्रमाकी किरणोंसे किये गयेके समान प्रतीत होते थे ॥२६|| हे जिन ! आपके विषयमें अपने पांच घाणोंको व्यर्थ देखकर वह कामदेव देवोंके द्वारा की जानेवाली पुष्प वृष्टिके छलसे मानो आपके ऊपर बहुत से पुष्पमय बाणोंको छोड़ रहा है | विशेषार्थ-कामदेवका एक नाम पंचशर भी है, जिसका अर्थ होता है पांच बाणोंवाला । ये बाण भी उसके लोहमय न होकर पुष्पमय माने जाते हैं। वह इन्हीं बाणोंके द्वारा कितने ही अविवेकी प्राणियोंको जीतकर उन्हें विषयासक्त किया करता है । प्रकृतमें यहां भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रके उपर जो देवोंके द्वारा पुष्पोंकी वर्षा की जा रही थी उसके ऊपर यह उत्प्रेक्षा की गई है कि वह पुष्यवर्षा नहीं है, बल्कि जब भगवानको अपने वशमें करनेके लिये उस कामदेवने उनके ऊपर अपने पांचों बाणोंको चला दिया और फिर भी वे उसके वशमें नहीं हुए, तब उसने मानो उनके ऊपर एक साथ बहुत-से बाणोंको ही छोड़ना प्रारम्भ कर दिया था ॥ २७ ॥ १ श इन;तु। २ क असोशी, मश मसोवो। १५ प्रतिपाठोऽयम् । अकसरो । ४सन मिली। ५५हस्तेन । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ -712:१-३१] १३. ऋषभस्तोत्रम् 709) एस जिणो परमप्पा गाणी अण्णाणे सुणह मा वयणं । तुम्ह हुंदुही रसंतो कहा व सिजयस्स मिलियस्स ॥ २८॥ 710) रविणो संतावयरं ससिणो उपा जयायरं देव । संतावजईसह सुझ थिय पहु पहायलयं ॥ २९ ॥ 711) मंदरमहिजमाणबुरासिणिग्योससंणिहा तुज्य । वाणी सुहा ण अण्णा संसारबिसस्स णासयरी ॥ ३०॥ 712) पचाण सारणि पिव सुज्झ गिरं सा गई जहाण पि। जा मोक्खसट्टाणे असरिसफलकारणं होह ॥ ३१॥ तव दुन्दुभिः रसन शब्दं कुर्वन् सन् मिलितस्य विजगत एवं कथयतीवें । एवं कि फययति । एष जिनः परमात्मा ज्ञानी । भो लोकाः अन्येषो कुदेवानां परनं मा शृणुत ॥ २८॥ भो देव अर्ये । भो प्रभो । रवेः सूर्यस्य प्रभावलयं संतापकरम् । पुनः शशिनः चन्द्रस्य प्रभावलयं जबताकर शीतकरम् । भो जिन । तर प्रभावलये संतापजहबहरम् ॥२९॥ भो देव । तव वा सुधा अमृतम्। संसारविषस्य नाशकरी अन्या कुरवस्य वाणी संसारविनाशकरी न भवति । किंलक्षणा तव वाणी । मन्दरेण भेरुणा मध्यमान-अम्बराशिनिपोषसंनिभा सदृशी ॥३०॥ भो जिन । तव गिरं वाणी प्राप्तानां जडानाम् अपि सा तब गीः वागी। तेषां अहाना गतिः सुमार्गगा । तत्र वाणी मोक्षतरुस्थाने असदृशफलकारणं भवति । सा वाणी केवल जलधोरणीय ॥३॥ हे भगवन् ! शब्द करती हुई तुम्हारी भेरी तीनों लोकोंके सम्मिलित प्राणियोंको मानो यह कर रही थी कि हे भव्य जीवो! यह जिनदेव ही ज्ञानी परमात्मा है, दूसरा कोई परमात्मा नहीं है। अत एव एक जिनेन्द्र देवको छोड़कर तुम लोग दूसरोंके उपदेशको मत सुनो।॥ २८॥ हे देव ! सूर्यका प्रभामण्डल तो सन्तापको करनेवाला है और चन्द्रका प्रभामण्डल जडता (शैत्य) को उत्पन्न करनेवाला है। किन्तु हे प्रभो! सन्ताप और जडता ( अज्ञानता) इन दोनोंको दूर करनेवाला प्रभामण्डल एक आपका ही है ॥२९॥ मेरु पर्वतके द्वारा मथे जानेवाले समुद्रकी ध्वनिके समान गम्भीर आपकी उत्तम वाणी अमृतस्वरूप होकर संसाररूप विषको नष्ट करनेवाली है, इसको छोड़कर और किसीकी वाणी उस संसाररूप विषको नष्ट नहीं कर सकती है ॥ विशेषार्थ-जिनेन्द्र भगवान्की जो दिव्यध्वनि खिरती है वह ताल, कण्ठ एवं ओष्ठ आदिके व्यापारसे रहित निरक्षर होती है। उसकी आवाज समुद्र अथवा मेघकी गर्जनाके समान गम्भीर होती है। उसमें एक यह विशेषता होती है कि जिससे श्रोता. गणोंको पेसा प्रतीत होता है कि भगवान हमारी भाषा ही उपदेश दे रहे हैं। कहींपर ऐसा भी उल्लेख पाया जाता है कि यह दिव्यध्वनि होती तो निरक्षर ही है, किन्तु उसे मागध देव अर्धमागधी भाषामें परिणमाता है। वह दिव्यध्वनि खभावतः तीनों सन्ध्याकालोंमें नौ मुहूर्त तक खिरती है । परन्तु गणधर, इन्द्र एवं चक्रवर्ती आदिके प्रश्नके अनुसार कभी वह अन्य समयमें भी खिरती है । वह एक योजन तक सुनी जाती है । भगवान् जिनेन्द्र चूंकि वीतराग और सर्वज्ञ होते हैं अत एव उनके द्वारा निर्दिष्ट तत्व के विषयमें किसी प्रकारका सन्देह आदि नहीं किया जा सकता है। कारण यह कि वचनमें असत्यता या तो कषायवश देखी जाती है या अल्पज्ञताके कारण, सो वह जिनेन्द्र भगवान में रही नहीं है। अत एवं उनकी वाणीको यहां अमृतके समान संसारविषनाशक बताया गया है ।।३०।। हे जिनेन्द्र देव! क्यारीके समान तुम्हारी वाणीको प्राप्त हुए अज्ञानी जीवोंकी भी वह अवस्था होती है जो मोक्षरूप वृक्षके स्थानमें अनुपम फलका कारण होती है। विशेषार्थ-जिस प्रकार उत्तम क्यारीको बनाकर उसमें लाया गया वृक्ष जलसिंचनको पाकर अभीष्ट फल देता है उसी प्रकार जो भव्य जीय मोक्षरूप वृक्षकी क्यारीके समान उस जिनवाणीको पाकर (सुनकर) तदनुसार मोक्षमार्गमें प्रवृत्त होते हैं उन्हें करणाणो णाणं, च णा गोष्णापं, म श णाणोण्यानं। २ भबनयारथ, श जवारयं । ३५ श मंदिर । ४६श 'माणां । ५ कथयति। मंदिरेण । -.--. -. -.. Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ [713:18. पचनन्दि-पञ्चविंशतिः 718) पोय पिव तुहावरण संलीणा फुरामहोकयजाडोह। हेलाए बिय जीवा तरंति भवसायरमण ॥ ३२॥ 714) तुपयणं चिय साहा गणमणेतबादषियडबई । तह हिययाइअर सव्वत्तणमप्पणो णाह । ३३ । 715) विपडिवजह जो तुह गिराप महसुइबलेण केवलिणो। परदिटिविट्ठणहर्जतपक्खिगणणे वि सो अंधो ॥ ३४ ॥ 716) भिण्याज परणयाणे एकेकमसंगया गया तुज्य । पार्वति जयम्मि जयं मजमिम रिऊण किं चित्तं ॥ ३५ ॥ 717) अण्णस्स जप जीहा कस्स सयाणस्स बणेणे तुम। - जरथ जिण ते वि जाया सुरगुरुपमुहा कई कुंठा ॥ ३६॥ अहो इत्याचयें । मो पूज्य । स्फुटं व्यक्तम् । जीवाः हेलया भनन्तभवसागरं तरन्ति । किंलक्षणा भव्याः । सब प्राये सलमाः । यया नराः पोतं प्रत्रहणम् आश्रित्य अलीपं समुद्र तरन्ति ॥ ३२ ॥ भो माय। भो अर्घ्य । तम वरन न निखितम् अनेकान्तवादविकटपर्य साधयति । तथा आत्मज्ञानिना सर्वेषां हृदयप्रदीपकर तब वचनम् ॥१५॥ भोख । यः मू: सब केवलिनः बायो इतिश्रुतिषलेन गिनियारो संशयं रोले। आर मासिएन भवाम्ननिगणने संख्य करोति ॥ ३ ॥ भो देव । तवं नयाः भिषान परभयानां रिपूणां मध्ये जगाये जयं पावंति प्रामुवन्ति । ताकि चित्रम् । किलक्षणाद्धब नयाः। एकम् एकम् असंगताः अमिलिताः ॥ ३५ ॥ मो जिन । जगति संसारे। तव वर्णने अन्यस सझानस प्रवीणस्य कस्य जिला वर्तते । अपि तु न कस्यापि । यत्र तव वर्णने सुरगुरुप्रमुखाः कवयः देवाः कुण्ठा मूळः जाताः । मन्स अवश्य ही उससे अनुपम फल ( मोक्षसुख ) प्राप्त होता है ॥ ३१ ।। जिस प्रकार जडौष ( जलौष ) अर्थात् बलकी राशिको अधःकृत (नीचे करनेवाली) नायका आश्रय लेकर प्राणी अनायास ही अपार समक्के पार हो जाते हैं, उसी प्रकार जडौत्र अर्थात् अज्ञानसमूहको अधःकृत (तिरस्कृत ) करनेवाली आपकी वाणीरूप नाकका आश्रय लेकर भन्य जीव भी अनायास ही अनन्त संसाररूप समुद्रके पार हो जाते हैं, यह स्पष्ट है ॥ ३२ ॥ हे नाथ ! हृदयमें प्रतीतिको उत्पन्न करनेवाली आपकी वाणी ही निश्चयसे अनेकान्तवादरूप कठिन मार्गको तथा अपने सर्वज्ञत्वको भी सिद्ध करती है ॥ ३३ ॥ हे भगवन् ! जो मनुष्य अपने मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके बलपर आप जैसे केवलीकी वाणीके विषयमें- उसके द्वारा निरूपित तत्त्वस्वरूपमैविवाद (सन्देहादि) को प्राप्त होता है, उसका यह आचरण उस अन्धे मनुष्यके समान है जो किसी निर्मल नेत्रोंवाले अन्य मनुष्यके द्वारा देखे गये ऐसे आकाशमें संचार करते हुए पक्षियोंकी गणना ( संख्या में विवाद करता है ॥ ३४ ॥ हे भगवन् ! जगत्में आपके पृथक् पृथक् एक एक नय शत्रुभूत भिन्न मिन परमतंकि मध्यमें यदि जयको प्राप्त करते हैं तो इसमें आश्चर्य क्या है ? कुछ भी नहीं ॥ ३५॥ हे जिन। जगत्में जिस तुम्हारे वर्णनमें बृहस्पति आदि कवि भी कुण्ठित ( असमर्थ ) हो चुके हैं उसमें भला अन्य किस बुद्धिमान्की जिह्वा समर्थ हो सकती है। अर्थात् आपके गुणोंका कीर्तन जब वृहस्पति आदि भी नहीं कर सके हैं तब फिर अन्य कौन-सा ऐसा कवि है जो आपके उन गुणोंका पूर्णतया कीर्तन कर सके !॥ ३६॥ कस्साइसमान १सस्विपि प्रतिषु 'पबयणमि पाठः। २च-प्रतिपाठोऽयम् । मकश पईयअरे 1 ३श पक्व । म वणगे, करसायसयाण वगणे । Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -721:१३-४०] १३. ऋषभस्तोत्रम् 718) सो मोहयेणरहिओ पयासिमो पदु सुपहो तप ताया। तेणजे वि रयणजुया णिश्विग्घं ति णिव्याण ॥ ३७॥ 719) उम्मुहियम्मि सम्मिए मोक्खणिहाणम्मि गुणणिहाण तर। केहिं ण जुण्णतिणाइव इयरणिहाणेहिं भुवणम्मि ॥ ३८॥ 720) मोहमहाफणिको जणो घिराय तुम पमुत्तूण। इयराणाप कह पा विधेयणो धेयर्ण लहह ॥ ३९ ॥ 721) भषसायरम्मि धम्मो धरा परत जणं तुमय । अमरला न परमारणारमियराण जिणणाद ॥ ४० ॥ www.san.-.--.--.mamnnnnnnine का कार्वा ॥ १६ ॥ भो प्रभो । तदा तस्मिन् काले । स्वया सुपर्थः सुमार्गः । प्रकाशितः । विलक्षणः मार्गः । मोइयोरेग रहितः । तेन पथा मार्गेण । भव्यजीवाः अद्यापि रमयुताः दर्शनादियुताः । निर्विघ्नं विनरहितम् । निर्वाण मोक्ष प्रयान्ति ॥ ३०॥ भो गुणनिधान । स्त्रया । ( स्फुटम् । तस्मिन् मोक्षनिघाने उद्घाटिते सति । के भव्यजीवैः । भुवने त्रैलोक्ये । इतरनिधानानि सुवर्णादिजीर्णतृण इव न त्यकानि । अपि तु भम्यैः इतरदेव्याणि सक्तानि ॥ ३८ ॥ हे प्रभो। मोहमहामणिदष्टः विचेतनः गतश्चेतनः जनः। खो वीतरागगरुहं प्रमुखता [प्रमुथ्य ] इसरकुदेवाज्ञया घेतना कषं लभते ॥ ३९ ॥ भो जिननाथ । तेव अमः भवसागरे संसारसमुद्रे पतन्तं जन धारयति । इतरेषां मियादृष्टीना धर्मः परमारणकारमं अबरामा भिल्लामा धर्म हे प्रभो ! उस समय आपने मोहरूप चोरसे रहित उस सुमार्ग ( मोक्षमार्ग) को प्रगट किया था कि जिससे आज भी मनुष्य रनों ( रनत्रय) से युक्त होकर निर्बाध मोक्षको जाते हैं । विशेषार्थ-जिस प्रकार शासनके सुप्रबन्धसे चोरोंसे रहित किये गये मार्गमें मनुष्य इच्छित धनको लेकर निर्बाध गमनागमन करते हैं, उसी प्रकार भगवान् ऋषभ देवने अपने दिव्य उपदेशके द्वारा जिस मोक्षमार्गको मोहरूप चोरसे रहित कर दिया था उससे संचार करते हुए साधुजन अभी भी सम्यग्दर्शनादिरूप अनुपम रलोंके साथ निर्विन अभीष्ट स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं ॥३७॥ हे गुणनिधान ! आपके द्वारा उस मोक्षरूप निधि (खजाना) के खोल देनेपर लोकमें किन भव्य जीवोंने रम-सुवर्णादिरूप दूसरी निधियोंको जीर्ण तृणके समान नहीं छोड़ दिया था ! अर्थात् बहुतोंने उन्हें छोड़ कर जिनदीक्षा स्वीकार की थी ।। ३८ ॥ हे प्रभो ! मोहरूपी महान् सर्पके द्वारा काटा जाकर मूर्छाको प्राप्त हुआ मनुष्य आप वीतरामको छोड़कर दूसरेकी आज्ञा ( उपदेश) से कैसे चेतनाको प्राप्त हो सकता है! अर्थात् नहीं हो सकता ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार सर्पके काटनेसे मूर्छाको प्राप्त हुआ मनुष्य माविकके उपदेशसे निर्विष होकर चेतनताको पा लेता है उसी प्रकार मोहसे ग्रसित संसारी प्राणी आपके सदुपदेशसे अविवेकको छोड़कर अपने चैतन्यस्वरूपको पा लेते हैं ॥ ३९ ॥ हे जिनेन्द्र | संसाररूप समुद्र में गिरते हुए प्राणीकी रक्षा आपका ही धर्म करता है । दूसरोंका धर्म तो भीलके धर्म (धनुष) के समान अन्य जीवोंके मारनेका ही कारण होता है ॥ ४० ॥ हे जिन! १ च प्रतिपाठोऽयम् । मकश मोहत्येण। २कक तेणान्न । न जुष्णतण्याइयमियर, 6 जुणतिमा हव, घाण जुण्यातणाइयमियर । ४च दिहो, वको। ५ कायर। सलवा सासुपषः। कमोस्वैरिणा । ८कदि। ९काम्यादि। १०श प्रमुखा। ११शतवैध । पपने. १५ Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० पचनन्दि-पञ्चविंशतिः 722 ) अण्णो को सुह पुरओ धण्ग गरुयन्त्तणं पयासंतो । अम्मित परमियन्तं केसणहाणं पि जिण जायं ॥ ४१ ॥ 728) सह सरीरं तुह पत्रु तिहुयणजणणयार्थिव विच्छुरिये । पढिसमयमचियं चास्तरलणीलुप्पलेहिं वै ॥ ४२ ॥ 724 ) अहमहमिया निवडति णाह छुहियालिणो व्य हरिचफ्लू । तुज्झ थिय महपहसरमज्य द्विये खलणकमलेसुं ॥ ४३ ॥ 725) कणयकमलाणमुरि सेवा सुह विबुहकप्पियाण तुई । अहिय सिरीणं ततो जुभं चरणाण संचरणं ॥ ४४ ॥ 726 ) - हरिकयकण्णसु हो गिखा अमरेहिं तुह जसो सग्गे । भण्णे सोमणो हरिणो हरिणकमल्लीणो ॥ ४५ ॥ [722: I इव ॥ ४० ॥ भो जिन । तव पुरतः अग्रे अन्यः कः बलाति गुरुत्वं प्रकाशयन् यस्मिन् त्वयि केशनखानाम् अपि प्रमा जातम् ॥ ४९ ॥ भो प्रभो । सब शरीर शोभते । किंलक्षणं शरीरम् । त्रिभुवनजननयन बिम्मेषु विस्फुरितं प्रतिबिम्बितम् पुनः। किंलक्षणं शरीरम् । चारुतरलनीलोत्पलैः कमलैः प्रतिसमयम् अर्चितम् ॥ ४२ ॥ भो नाथ भी अये । तब भ खरोमध्यस्थितचरणकमलेषु । हरिचक्षूंषि इन्द्रनयनानि । अहमहमिकया अहं प्रथमम् आगतम् । निपतन्ति । क्षानि नानि । क्षुधिता भ्रमरा इव ॥ ४३ ॥ तत्तस्मात्कारणात् । तव भरणानां कनककमलानाम् उपरि संवरणं गमनं युक्तम् । लक्षणानां चरणानाम् । अधिक श्रीणाम्। पुनः किंलक्षणानाम् । कनककमलानां सब सेवानिमित्तं विवुधदेवकल्पितानच नाम् । विशुधैः देवैः स्थापितानाम् ॥ ४४ ॥ भो देव । तव यशः देवैः स्वर्गे गीयते। किंलक्षणं यशः । शची-इन्द्रकु शचीइन्द्रयोः कृतकर्णेमुखम् । अहम् एवं मन्ये । तद्यशः श्रोतुमनाः हरिष्यः मृगः चन्द्रकमलीनः [ चन्द्रमालीनः ] ॥ ४५०) जिन आपमें बाल और नख भी परिमितताको प्राप्त अर्थात् वृद्धिसे रहित हो गये थे उन आपके भा दूसरा कौन अपनी महिमाको प्रगट करते हुए जा सकता है ! अर्थात् कोई नहीं ॥ विशेषार्थ - केवलान प्रगट हो जानेपर नल और बालोंकी वृद्धि नहीं होती । इसके ऊपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि नख - केशोंकी वृद्धिका अभाव मानो यह सूचना ही करता था कि ये जिनेन्द्र भगवान् सर्वश्रेष्ठ हैं, इन आगे किसी दूसरेका प्रभाव नहीं रह सकता है || ४१ ॥ हे प्रभो ! आपके शरीरपर जो तीनों लो प्राणियों के नेत्रोंका प्रतिबिम्ब पड़ रहा था उससे व्याप्त वह शरीर ऐसा प्रतीत होता था मानो वह निर सुन्दर एवं चंचल नील कमलोंके द्वारा पूजाको ही प्राप्त हो रहा है ।। ४२ ।। हे नाथ ! तुम्हारे ही लोग कान्तिरूप सरोवरके मध्यमें स्थित चरणरूप कमलोंके ऊपर जो इन्द्रके नेत्र गिरते हैं वे ऐसे दिखते हैं जो मानो अहमहमिका अर्थात् मैं पहिले पहुंचूं, मैं पहिले पहुंचूं, इस रूपसे भूखे भ्रमर ही उनपर गिर रहे हैं। ॥ ४३ ॥ हे भगवन् ! तुम्हारी सेवाके लिये देवोंके द्वारा रचे गये सुवर्णमय कमलोंके ऊपर जो चरणका संचार होता था वह योग्य ही था, क्योंकि, आपके चरणोंकी शोभा उन कमलोंसे अधिक ॥ ४४ ॥ हे जिनेन्द्र ! स्वर्गमें इन्द्राणी और इन्द्रके कानोंको सुख देनेवाला जो देवोंके द्वारा आ यशोगान किया जाता है उसको सुननेके लिये उत्सुक होकर ही मानो हिरणने चन्द्रका आक लिया है, ऐसा मैं समझता हूं ॥ ४५ ॥ हे जिनेन्द्र ! कमलमें लक्ष्मी रहती है, यह कहना मसल है; कारण कि वह तो आपके चरणकमलमै रहती है । तभी तो नमस्कार करते हुए जनोंके उमर १ क श सोहर । २ - प्रतिपाठोऽयम् । अफश'' | ३ क मशद्वय । ४ अ 'अहं प्रथर्म आय' नास्ति । 4'R देवकल्पितानां रचिताना' नास्ति । ६ चन्द्रमालीनः । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २११ -780:१३-४९] ११. प्रामस्तोत्रम् 727) अलियं कमले कमला कमकमले सुह जिमिद सा बसा। पहकिरणणिण घरंति पयजणे से कडासा ॥ ४६॥ 728) बे कयकुवलपहरिसे तुमम्मि विदेसिणो स ताण पि । दोसो ससिम्मि वा माहयाण जाह वाहिमापरणे ॥ ७॥ 729) को इह हि डब्बरंतो जिण जयसंहरणमरणवणसिहिणो। तुद पयामिझरणी वारणमिणमो पजा होति । ४८ ॥ 780) करजुघलकमलमउले भालरथे तुह पुरो कप बसा। सग्गापषग्गकमला पुर्णति' तेण सप्पुरिसा ॥१९॥ भो जिनेन्द्र । कमला लक्ष्मीः कमले यसति इति अलीकम् असत्यम् । सा कमला लक्ष्मीः तव क्रमझमले वसति, अन्यथा नतबने तस्याः लक्ष्म्माः कटाक्षच्छटाः नसकिरणव्याजेन कथं पबन्ति ॥ ४॥ भो जिन । कृतकुवलय-भूवलयहर्षे स्वरि ये विवक्किः बर्तन्ते स दोषस्तेषां विद्वेषिणाम् अपि मस्ति । यथा शशिनि बन्ने धूलो आहताना पुरुषाणां तमूली वावरणं तेषाम् अपि भर III भो बिन । हि यमः । १६ माति अ माप सिमासमा उद्धरेत । यदि छेत् । इदं तव पदस्ताविनिरिणीवारि जल न भविष्यति ॥ ४०॥ भो जिन । भालथे करयगलकमलमकले स्वर्गापवर्गकमला लक्ष्मी करकमले । तब पुरतः अग्रे मुकुलीहतें । तेन कारणेन सपुत्राः तत्करकमलं तव अप्रतः कुर्वन्ति ॥४९॥ मो जिन । तन पुरतः आपके नसोंकी दिनों छलसे उसके नेत्रकटाक्षोंकी कान्ति संगतिको प्राप्त हो सकती है॥१६॥ हे जिनेन्द्र ! कुवलय अर्थात् भूमण्डलको हर्षित करनेवाले आपके विषयमें जो विद्वेष रखते है वह उनका ही दोष है । जैसे-कुवलय (कुमुद ) को प्रफुल्लित करनेवाले चन्द्र के विषयमें जो मूर्ख बाहिरी आवरण करते हैं तो वह उनका ही दोष होता है, न कि चन्द्रका | अभिप्राय यह है कि जैसे कोई चन्द्रके प्रकाश (चांदनी) को रोकनेके लिये यदि बाब आवरण करता है तो वह उसका ही दोष समझा जाता है, कि उस चन्द्रका । कारण कि वह तो स्वभावतः प्रकाशक व आल्हादजनक ही है। इसी प्रकार यदि कोई अज्ञानी जीव आपको पा करके भी आत्महित नहीं करता है तो यह उसका ही दोष है, न कि आपत्र । कारण कि आप तो स्वभावतः सब ही प्राणियोंके हितकारक है॥४७॥हे जिन | यदि आपके चरणोंकी स्तुतिरूप यह नदी रोकनेवाली (बुझानेवाली ) न होती तो फिर यहां जगत्का संहार करनेवाली मृत्युरूप दावामिसे कौन बच सकता था! अर्थात् कोई नहीं शेष रह सकता था ॥ १८॥हे भगवन् ! तुम्हारे आगे नमस्कार करते समय मस्तकके ऊपर खित दोनों हाथोंरूप कमलकी कलीमें चूंकि स्वर्ग और मोक्षकी लक्ष्मी निवास करती है, इसीलिये सज्जन पुरुष उसे (दोनों हाथोंको मालस) किया करते हैं ||१९|| हे जिनेन्द्र! तुम्हारे आगे नम्रीभूत हुए सिरसे चूंकि मोहरूप ठगके द्वारा स्थापित की गई मोइनलि ( मोहको प्राप्त करानेवाली धूलि ) नाशको प्राप्त हो जाती है, इसीलिये विद्वान् जन शिर झुकाकर आपको नमस्कार किया करते हैं ॥ ५० ॥ हे भगवन् ! जो लोग तुम्हारे नमा आदि सब नामोंको दूसरों (विधाता आदि) के सलाते हैं वे मूर्ख मानो चन्द्रकी चांदनीको जुगुनमें जोड़ते हैं ।। विशेषार्थ-जिस प्रकार जगुनका प्रकाश कमी चांदनीके समान नहीं हो सकता है उसी प्रकार ब्रह्मा, विष्णु और महेश इत्यादि जो आपके सार्थक नाम हैं वे देवस्वरूपसे माने जानेवाले दूसरोंके कभी नहीं हो सकते-दे सब तो आपके ही नाम हैं। बथा वर्णति। २ससहित ३ जान तर ति। ४ ककवेन । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૧૨ [731:१३-५० पननन्दि-पञ्चविंशतिः 781 ) वियला मोहणधूली तुह पुरषो मोहठगपरिटुविया । पणषियसीसाओ तमो पणवियसीसा खुदा होति ॥ ५० ॥ 782 ) बमप्पमुहा सण्या सध्या तुए जे भणति अण्णस्स। ससिजोहा खजोए जडेहि जोडिजए तेहिं ५५१।। 798)* व मोक्लायती ने त्रिय मरणं जणमल मयस्स | सेणिकारणविजो जाजरामरणवाहिहरो ॥ ५२ ॥ 734) किच्छाहि समुवलखे कयकिचा अम्मि जोदणो होति । ते परमकारणं जिण णे तुमाहितो परो अस्थि ॥ ५३ ।। 785) मुहमो सि तहण दीससि जाह पहु परमाणुपेच्छपहि" पि गुरुवों वह बोहमए जह तई सब पि संमाय ॥ ५४ ॥ 786) णीसेसंवत्थुलत्थे हेयमहेयं णिरुषमाणस्स। तं परमप्पा सारो सेसमसारं पलालं वा ॥ ५५॥ अप्रतः प्रणमितशीर्षात् मोहुनधूक्तिः नियमति पतति । किंलक्षणा धूलिः । मोहठगस्थापिता । तत्तस्मात्कारणात् । युवाः पणिता प्रणमितशीर्षा भवन्ति ॥५०॥ भो जिन ये पुमासः भन्यदेवस्थ ब्रह्मा [] प्रमुम्हाः सर्वाः संज्ञाः नानः [नामानि ] तदेव भणन्ति । तैः जहैः शशिज्योत्स्नाकिरणाः खद्योते योज्यते [ योज्यन्ते] ॥५१॥ भो जिन । त्वमेव मोक्षपदवी । मो जिन। रवमेव जनस शरणम् । सर्वस्व अनस्य शरणम् । भो जिन । स्वमेव निःकारणवैयः । स्वमेव जातियरामरगम्याधिहरः ॥ ५२ ॥ भो जिन । यस्मिन् त्वयि मछात्समुपलम्बे सचि योगिनः क्तकस्या भवन्ति । तत्तस्मात्कारणात् । त्वत्तः सकाशात् । अमः परमपदकारण म अस्ति ।। ५३ ॥ भो प्रभो । तथा तेन प्रकारेण सूक्ष्मोऽसि यथा परमाणुप्रेक्षकैः मुनिभिः न दृश्यसे । भो जिन त्वं तथा गरिष्ठः यथा स्वयि ज्ञानमये सर्व प्रतिविम्बित संमातम् ॥ ५४॥ भो देन । निःशेषवस्तुशाने । हेय त्याज्यम् । भई प्रायम् । निरूप्यमाणस्प मध्ये त्वं परमात्मा सारः प्रायः । शेवं वस्तु स्वतः अन्यत् असारं वा । पलाल तणम् ॥ ५५॥ भो देव । arwwwwwimanmanarayerwwwkammarwar rrrramanane त्यामव्ययं विभुमचिन्त्यमसंख्यमाचं प्रमाणमीश्वरमनन्समनङ्गकेतुम् । योगीश्वरं विदितयोगमनेकमेकं ज्ञानस्वरूपममलं प्रवदन्ति सन्तः ॥ बुद्धस्त्वमेव विदुधार्चितबुद्धिबोधात्त्वं शंकरोऽसि भुवनत्रयशंकरत्वात् । धातासि धीर शिवमार्गविधेर्विधानाद् व्यक्तं स्वमेव भगवन् पुरुषोत्तमोऽसि [भक्तामर० २४-२५] ॥५१॥ हे जिनेन्द्र 1 तुम ही मोक्षके मार्ग हो, तुम ही सब प्राणियोंके लिये शरणभूत हो; तथा तुम ही जन्म, जरा और मरणरूप व्याधिको नष्ट करनेवाले निःस्वार्थ वैद्य हो ॥ ५२ ॥ हे अईन् ! जिस आपको कष्टपूर्वक प्राप्त (शात) करके योगीजन कृतकृत्य हो जाते हैं वह तुम ही उस कृतकृत्यताके उत्कृष्ट कारण हो, तुम्हारे सिवाय दूसरा कोई उसका कारण नहीं हो सकता है ॥ ५३॥ हे प्रभो | तुम ऐसे सूक्ष्म हो कि जिससे परमाणुको देखनेवाले भी तुम्हें नहीं देख पाते हैं। तथा तुम ऐसे स्थूल हो कि जिससे अनन्तज्ञानस्वरूप आपमें सब ही विश्व समा जाता है ।। ५४ ॥ हे भगवन् ! समस्त वस्तुओंके समूहमें यह हेय है और यह उपादेय है, ऐसा निरूपण करनेवाले शास्त्रका सार तुम परमात्मा ही हो । शेष सब पलाल (पुआल) के समान निःसार है ।। ५५॥ हे सर्वज्ञ ! जिस आकाशके गर्भ में तीनों ही लोक परमाणुकी लीलाको धारण करते है, अर्थात् परमाणुके समान प्रतीत होते हैं, वह आकाश भी आपके ज्ञानके भीतर सहम। मकवियो, म विदो । ३ कप नास्ति । ४ पच्छपाई। ५ गयो। तर, मत कणिस्सेस । Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -741:१३-६०] १३. ऋषमस्तोत्रम् २१३ 787) धरह परमाणुलीले जग्गष्मे तिहुयण पित पि पाई। अंतो णाणस्स तुह इयरस्स ण परिसी महिमा ॥५६॥ 738 ) भुवणत्थुय थुणइ जजए सरस्सई संतये तुई तह वि । ण गुणंतं लहइ तहिं को तरह जडो जणो अपणो ।। ५७ ॥ 739) खयरि व्य संचरंती तिटुयणगुरु तुह गुणोहगयणम्मि । सूर पि गया सुइरे कस्स गिरा पत्तपेरंता ॥ ५८ ॥ 740 ) जत्थ असक्को सको अनीसरो ईसरो फणीसो वि। तुह थोत्ते तत्थ कई अहममई त खमिजासु ॥ ५९॥ 741 ) तं भव्यपोमणेदी तेपणिही सरन्य णिहोसो। मोहंधयारहरणे तुह पाया मम पसीयंतु ॥ ६ ॥ यस्य आकाशस्य गर्ने मध्ये त्रिभुवनेमपि परमाणुलीला मर्यादा घरति। तत् नमः तन ज्ञानस्य अन्तः मध्ये परमाणुलीला भरति । इतरस्य कदेवस्य बशी महिमा न ॥ ५६ ॥ भो भुवनस्सुल्म । जगत्रये सरस्वती सतत स्वाति तव सुति करोति। तपापि सब गुणान्तं पारं न लभते । तस्मिन् तव गुणसमुद्रे अन्यः अहः मूढः कः तरति । अपि तु न कोऽपि ॥ ५५ ॥ भो त्रिभुवनगुरो। सम गुणोघागने आकाशे । कस्य गीः वाणी । प्राप्तपर्यन्ता। सुधिरं चिरकालम् । संचरन्ती गच्छन्ती दूर मता कपि । का इस। खचरी इव पक्षिणी इव। अपि तु न कस्यापि गीः प्राप्तपर्यन्ता ॥५८॥ भो देव । यत्र तव स्तोत्रे । शकः इन्द्रः अशकः असमर्थः । ईश्वरोऽपि अनीश्वरः । फणीशोऽपि नागाधिपोऽपि खोदुम् अनीश्वरः अससर्थः । तस्मिन् स्तोत्र भई कविः अमतिः मतिरहितः। तदपराधे क्षमस ॥ ५९॥ भो देव । तव पादौ मम प्रस्रीयताम् । किंलक्षणः स्वम् । मध्यपानन्दी । पुनः किलक्षणः स्वम् । तेजोनिधिः । पुनः किलक्षणः लम् । सूर्यवत् निर्दोषः । । । मोहंधभारहरणे मोहान्धकारहरणे ज्ञानसूर्यः ॥ ६० ॥ इति ऋषभस्तोत्रम् ॥१॥ परमाणु जैसा प्रतीत होता है। ऐसी महिमा ब्रह्मा-विष्णु आदि किसी दूसरेकी नहीं है ॥ ५६ ॥ हे भुवनस्तुत ! यदि संसारमै तुम्हारी स्तुति सरस्वती भी निरन्तर करे तो वह भी जब तुम्हारे गुणोंका अन्त नहीं पाती है तब फिर अन्य कौन-सा भूख मनुष्य उस गुणसमुद्र के भीतर तैर सकता है! अर्थात् आपके सम्पूर्ण गुणोंकी स्तुति कोई भी नहीं कर सकता है ॥५७॥ हे त्रिभुवनपते । आपके गुणसमूहुरूप आकाशमें पक्षिणी (अथवा विद्याधरी) के समान चिर कालसे संचार करनेवाली किसीकी वाणीने दूर जाकर भी क्या उसके (आकाशके, गुणसमूहके) अन्तको पाया है ! अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार पक्षी चिर काल तक गमन करके भी आकाशके अन्तको नहीं पाता है उसी प्रकार चिर काल तक स्तुति करके भी किसीकी वाणी आपके गुणों का अन्त नहीं पा सकती है ।। ५८ ।। हे भगवन् ! जिस तेरे स्तोत्रके विषयमें इन्द्र अशक्त ( असमर्थ) है, ईश्वर ( महादेव) अनीश्वर (असमर्थ) है, तथा धरणेन्द्र भी असमर्थ है; उस तेरे स्त्रोत्रके विषयमें मैं निर्बुद्धि कवि [ कैसे ] समर्थ हो सकता हूं. अर्थात् नहीं हो सकता। इसलिये क्षमा करो ॥ ५९॥ हे जिन! तुम सूर्यके समान पद्मनन्दी अर्थात् भव्य जीवोरुप कमलोंको आनन्दित करनेवाले, तेजके भण्डार और निर्दोष अर्थात् अज्ञानादि दोषोंसे रहित (सूर्यपक्षमें-दोषासे रहित ) हो । तुम्हारे पाद (चरण) सूर्यके पादों ( किरणों) के समान मेरे मोहरूप अन्धकारके नष्ट करने में प्रसन्न होवें ॥६० ॥ इस प्रकार ऋषमस्तोत्र समाप्त हुआ ॥१३॥ १कस गम्मे। २कशाह । ३मश तेयाणिही सञ्च, बायबीही इणं सरूव। ४. 'यश' नास्ति । ५० त्रिभुवनपतिः। ६.'मा नास्ति। ककर्षि नास्ति । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१४. जिनवरस्तवनम्] 742) बिहे तुमम्मि जिगर सहली माई मजा भयणाई । विगबाई मामिपणे व सिंचियं जाप १॥ 748) दिडे तुमम्मि जिणवर दिहिहरासेसमोइतिमिरेण । वर? जर विई जहडिये है मए तथं ॥२॥ 74) विढे तुमम्मि जिणवर परमाणदेण पूरिय हिययं । मन्या सहा जहमले मोक्वं पिव एसमप्पा ॥ ३ ॥ 745) मम्मि पिपर शिव मरिण माराय; रविग्गमे णिसाप ठाइ तमो कित्तियं कालं ॥ ४ ॥ 746) विढे तुमम्मि जिणवर सिझइ सो को बि पुग्णपम्भारो। होई जणो जेण पर इहपरलोयत्यसिमीणं ॥५॥ 747 ) दिडे तुमम्मि जिणवर मपणे सं अप्पणो सुक्यलाई । होही खोजेणासरिसमुदापिही अखाओ मोक्खो ॥६॥ 748) दिवे तुमम्मि जिणवर संतोसो मज्म तह परो जाओ। दिविडयो वि अमह ण तण्होलेसं पिजद हियए ॥७॥ मो जिनवर । सविरले सति मम नेत्राणि सफलीभूतानि । मम वित मनः । च पुनः । गात्रम् ममृतेन सिवितमिव बातम् ॥1॥ भो विनबार । खवि ह सति दष्टिार- चार-मशेषमोहतिमिरेण तथा नष्टं यथा मश यमास्थितं तवं पम् ॥१॥ मो जिनपर त्वयि र सति मम हृदयं तया परमानन्देन परितं यथा आत्मानं मोक्ष प्राप्तम् इस मन्ये । भो बिनवर त्वयि घटे सति महापापं नष्टमिव मन्ये । यपा रवि-उद्गमे सरि नैशं तमः निशोद्भवं तमः अन्धकारः कियन्तं काल विष्ठति ॥४॥ भो जिनपर । स्वयि दृष्टे सति से कोऽपि पुण्यप्रारभारः सिध्यति येन पुण्यसमूहेन अनः प्रभुः भवति। - लोकपरलोकसिमीना पात्र भवति ॥ ५ ॥ भो जिनपर त्वयि हो सति आत्मनः तं सुहतलाम मन्ये। येन सुकृतलाभेन पुण्य लामेन स मोक्षा भविष्यति । विलक्षणः मोक्षः । बसाशनिधिः । पुनः अक्षयः विनाशरहितः ॥ ६॥ भो जिनवर स्विवि चे सति सम तथा परः श्रेषः संतोषः जातः यथा इन्द्रविभयोऽपि हृदये सृष्णालेशं न जनपति नोत्पादयति ॥ ५॥ हे जिनेन्द्र ! भापका दर्शन होनेपर मेरे नेत्र सफल हो गये तथा मन और शरीर शीघ्र ही अमृतसे सींचे गमेके समान शान्त हो गये हैं ॥१॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर दर्शनमें बाधा पहुंचानेवाण समस्त मोह ( दर्शनमोह)रूप अन्धकार इस प्रकार नष्ट हो गया कि जिससे मैंने यथावस्थित सत्त्वको देख लिया है- सम्यग्दर्शनको प्राध कर लिया है ॥२॥हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेय अन्तःकरण ऐसे उत्कृष्ट आनन्दसे परिपूर्ण हो गया है कि जिससे मैं अपनेको मुक्तिको प्राप्त हुआ ही समझता हूं ॥ ३ ॥ हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होनेपर में महापापको नष्ट हुआ ही मानता हूं। ठीक है-सूर्यका उदय हो जानेपर रात्रिका अन्धकार मला कितने समय ठहर सकता है ? अर्थात् नहीं ठहरता, वह सूर्यके उदित होते ही नष्ट हो जाता है ।। ४ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर वह कोई अपूर्व पुण्यका समूह सिद्ध होता है कि जिससे प्राणी इस लोक तथा परलोक सम्बन्धी अभीष्ट सिद्रियों का स्वामी हो जाता है ॥ ५॥ है जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर में अपने उस पुण्यलाभको मानता हूं जिससे कि मुझे मनुफ्म सुलके भण्डारस्वरूप यह अविनश्वर मोक्ष प्राप्त होगा ॥६॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मुझे ऐसा का सन्तोष उत्पन्न हुआ है कि जिससे मेरे हृदयमें इन्द्रका वैभव मी लेशमात्र तृष्णाको नही १मम ममपण। २ क सही। एक सः' नास्ति। ४ माशमान न करयति । Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -755: १५५४] १५. जिनपरस्तवनम् 749) दिवे तुमम्मि जिणवर वियारपरिवजिए परमसंते। जस्स ज हिट्ठी दिट्टी तस्स ण णवजम्मैपिच्छेओ ॥ ८॥ 750) दिहे तुमम्मि जिणवर ज मह कर्जतराउल हियर्य। कड्या वि हवा पुअनियस्स कम्मरस सो दोसो॥९॥ 751) विड्ढे तुमम्मि जिणवर अच्छा जम्मतरं ममेहावि। __ सहसा सुहेहिं घडियं दुक्खेहि पलायं पूर्व ॥ १०॥ 752 ) दिढे तुमम्मि शिणवर बजा पट्टो दिणम्मि अजायणे । सहलसणेण माझे सब्यादिणाणं पि सेसाणं ॥ ११॥ 758) विढे तुमम्मि जिणवर भषणमिणे तुज्य मह महम्मतरं । सध्याण पि सिरीणं संकेयधरव पडिहाहा १२॥ 754) दिढे तुमम्मि जिणवर मसिजलोल समासिदै छ। पुलपमिसा पुषणबीयर्मकुरियमिय सहा ॥ १३ ॥ 755) विढे तुमम्मि जिणवर समयामयसायरे गहीरम्मि। गयाइयोसकलसे देवे को मण्णए सयाणो॥१४॥ भो जिनवर । त्वयि दष्टे सति यस्य दृष्टिः हर्षिता न तस्य नवजन्मविच्छेदः म । किलक्षणे स्वमि । विकारपरिवर्जिते परमधान्ते ॥८॥भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति कदापि सम्मम प्रदर्य कार्यान्तराफले भवति स पर्वाचितकर्मणो दोषः॥९॥ भो जिनवर । स्वमि दृष्टे सति जन्मान्तरेऽपि मम वामम दूरे तिधतु । इदानी सहसा शीघ्रम् । अहं सुखैः परितम् भाषितम् । दरम्भ तिशयेन। सः पलायित रकम् ॥१.॥ भो जिनवर । स्वयि पष्टे सति जनः कोकः मञ्चदिने भियतने] सवैदिनाना क्षेषाणां मध्ये सफलत्वेन पर बनाति ॥ ११॥ भो जिनवर । त्वयि इष्टे सति इदं तर भवन समवसरणं महत मह [हा ] अंतरे प्रतिमाति शोभते । किंलक्षणं समवसरणम् । सर्वासा श्रीणां संकेतगृहमिव ॥ १२ ॥ भो जिनवर । त्वपि दृष्टले सति यत् शरीर मजिजलेन म्या समाश्रितम्। तत् शरीर पुलकितमिषेण ब्याजेन पुण्यपीजम् महारतम् स सहा शोमते पुण्याहरमिव ॥१॥ भो जिमवर । त्वयि इष्टे सति रागाविदोषकतुषे देवे का ससानः अनुराग प्रीति मन्यते । अपि तु सभामः उत्पन्न करता है ॥ ७ ॥ हे जिनेन्द्र । रागादि विकारोंसे रहित एवं अतिशय शान्त पेसे आपका दर्शन होनेपर जिसकी दृष्टि हर्षको प्राप्त नहीं होती है उसके नवीन जन्मका नाश नहीं हो सकता है, अर्थात उसकी संसारपरम्परा चलती ही रहेगी ॥ ८॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर यदि मेरा इदय कमी दूसरे किसी महान कार्यसे व्याकुल होता है तो वह पूर्वोपार्जित कर्मके दोषसे होता है ॥९॥ हे जिनेन्द्र । आपका दर्शन होनेपर जन्मान्तरके सुखकी इच्छा तो दूर रहे, किन्तु उससे इस लोकमें भी मुझे अकस्मात सुख प्राप्त हुआ है और दुल सब दूर भाग गये हैं।॥ १० ॥ हे जिनेन्द्र ! आफ्का दर्शन होनेपर शेष सब ही दिनोंके मध्यमें आजके दिन सफलताका पट्ट बांधा गया है । अभिप्राय यह है कि इतने दिनोंमें आजका यह मेरा दिन सफल हुआ है, क्योंकि, आज मुझे चिरसंचित पापको नष्ट करनेवाला आपका दर्शन प्राप्त हुआ है ।। ११॥ हे जिनेन्द्र । आपका दर्शन होनेपर यह तुम्हारा महा-मूल्यवान् घर ( जिनमन्दिर) मुझे सभी लक्ष्मियोंके संकेतगृहके समान प्रतिभासित होता है। अभिप्राय यह कि यहां आपका दर्शन करनेपर | मुझे सब प्रकारकी लक्ष्मी प्राप्त होनेवाली है॥१२॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर भक्तिरूप जलसे आई हुए खेत (शरीर) को जो पुण्यरूप बीज प्राप्त हुआ था वह मानो रोमांचके मिषसे अंकुरित होकर ही शोभायमान हो रहा है ॥ १३ ॥ हे जिनेन्द्र ! सिद्धान्तरूप अमृतके समुद्र एवं गम्मीर ऐसे आपका दर्शन होनेपर पहिदि। २ श ण णियजम्म। ३श निजजन्म०। ४ जनै लोकैः। ५क प्रतावस्या गाभायाटीक विपातिखचि मिनवर भवनमिदं तक मम मध्यतरं प्रतिभाति शोभते समवशरण सर्वासामपि भीणां संकेतगृहमिव । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ પ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः 756 ) दिट्ठे सुमम्मि जिणबर मोक्खो अदुल्लदो वि संपडछ । मिमलकलंकी मणो ण जइ होइ पुरिसस्स ॥ १५ ॥ 757) हे तुमसि जियार नम्मरणच्छिणा वि तं पुण्णं । जं जण पुरो केवलदंसणणाणाई पयणाई ॥ १६ ॥ 758) बिहे तुमम्मि जिणवर सुकयत्थो मणिकोण जेणप्पा । सो कुणा भवसायरे काही ॥ १७ ॥ 759 ) दिट्ठे तुमम्मि जिणवर णिच्छयविद्वीप होह जं किं पि । ण गिराए गोचरं तं सानुभवत्थं पि किं भणिमो ॥ १८ ॥ 760 ) दिहे तुमम्मि जिणवर दुव्यावैद्दिविसेसचम्मि सणसुखी गयं दाणिं मई पस्थि सम्धत्था ॥ १९ ॥ 761) विद्वे तुमम्मि जिणवर अहिये सुहिया समुज्जला होह । जणविट्ठी को पेच्छ तईसणसुत्यरं सूरं ॥ २० ॥ 762 ) विद्वे तुमम्मि जिणवर बुहम्मि दोसोझियस्मि वीरम्मि । फस्स किर रमइ दिट्टी जडम्मि दोसायरे खत्थे ॥ २१ ॥ [736: १४-१५ www न किंलक्षणे त्वयि । समयामृतसागरे गंभीरे ॥ १४ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति पुरुषस्य अतिदुर्लभोऽपि मोक्षः पद्म उत्पद्यते । यदि चेन्मनः मिध्यात्वमलकल िन भवति ॥ १५ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति चर्ममयनेत्रेणापि तत्पु जन्मते अपयते यत्पुण्यं पुरः अप्रे केवलदर्शनशानानि नयनानि जनयति उत्पादयति ॥ १६ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे ठ येन जनेन आत्मा सुकृतार्थः न मानितः स नरः भवसागरे समुद्रे मज्जनोन्मज्जनानि करिष्यति ॥ १७ ॥ भो जिनवर । त्वयि र यति निश्चय यस्किमपि भवति तरस्वानुभवस्थमपि' स्वकीय अनुभवगोचरमपि गिरा वाण्या कृत्वा गोचरं न तरिकं बध्यते ॥१८॥ भो जिनवर । स्वष्टेि सति । इदानीं दर्शनशुद्धया एक्स्वं गतं प्राप्त सर्वथा न अस्ति । अपि तु अस्ति । किंलक्षणे स्वयि । अवधिविशेषरूपे केवलयुक्ते ॥ १९ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति जनष्टिः अधिकं सुहिता समुज्वला भवति । तत्तस्मात्कारणात् । तव दर्शनं सुखकरं सूर्य कः न प्रेक्षते । अपि तु सर्वः प्रेक्षते ॥ २० ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति किल इति सत्ये । कस्य जनस्सी कौन-सा बुद्धिमान मनुष्य शमादि- दोषोंसे मलिनताको प्राप्त हुए देवोंको मानता है ? अर्थात् कोई मी बुद्धिमान पुरुष उन्हें देव नहीं मानता है || १४ || हे जिनेन्द्र ! यदि पुरुषका मन मिध्यात्वरूप मलसे मलिन नहीं होता है तो आपका दर्शन होनेपर अत्यन्त दुर्लभ मोक्ष भी प्राप्त हो सकता है ॥ १५ ॥ हे जिनेन्द्र | चर्ममय नेत्रसे भी आपका दर्शन होनेपर वह पुण्य प्राप्त होता है जो कि भविष्यमें केवलदर्शन और केवलज्ञान रूप नेत्रोंको उत्पन्न करता है ॥ १६ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर जो जीव अपनेको अतिशय कृतार्थ ( कृतकृत्य ) नहीं मानता है वह संसाररूप समुद्रमें बहुत वार गोता लगायेगा ॥ १७ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर जो कुछ भी होता है वह निश्चयदृष्टिसे वचनका विश्व नहीं है, वह तो केवल स्वानुभवका ही विषय है । अत एव उसके विषय में भला हम क्या कह सकते हैं! अर्थात् कुछ नहीं कह सकते हैं - यह अनिर्वचनीय है ॥ १८ ॥ हे जिनेन्द्र ! देखने योग्य पदार्थोंके सीमाविशेष स्वरूप ( सर्वाधिक दर्शनीय) आपका दर्शन होनेपर जो दर्शनविशुद्धि हुई है उससे इस समय यह निश्चय हुआ है कि सब बाघ पदार्थ मेरे नहीं हैं १९ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर लोगोंकी दृष्टि अतिशय सुखयुक्त और उज्ज्वल हो जाती है। फिर भला कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्व उस दृष्टिको सुखकारक ऐसे सूर्यका दर्शन करता है ? अर्थात् कोई नहीं करता || २० || हे जिनेन्द्र | ज्ञानी, ॥ १ सारात् संशोधने हवे मूलप्रतिपाठो बिस्खलितो जातः । २ कुष्णाएं, बहुगुणकुणाई १ ४ विहि ४५. व श्वानमा ६ स अतोऽये 'गिरो माण्याः कृत्वा गोरं त्वकीमानुभवगोचरमपि न परव विभः पाठोऽस्ति । क 'जनस्थ' नाति । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -768: १४-२७१ १४. जिनवरस्तवनम् 768) विडे तुमम्मि णिवर चिंतामणिकामधेणुकप्पतरू । खज्जोय थ्व पहाय मज्झ मणे शिष्पदा जाया ॥ २२ ॥ 764) विद्वे तुमम्मि जिणवर रहसरसो मह मणम्मि जो जाओ । सुमिस सो तसो णीहर बहिरंतो ॥ २३ ॥ 765 ) दिडे तुमम्मि जिणवर कलाणपरंपरा पुरो पुरिसे । संचरह माइया वि ससहरे किरणमाल ॥ २४ ॥ 766 ) दिट्ठे तुमम्मि जिपवर दिसबल्लीओ फलंति सम्बाध । दई अहुलिया वि हु परिसइ सुष्णं पि रयणेहिं ॥ २५ ॥ 767 ) दिट्ठे तुमम्मि जिनवर भव्यो भयपजिओ हमे णवरं । गयहिं चिये जाय जोदापसरे' सरे कुमुर्य * ॥ २६ ॥ 768) विडे तुमम्मि जिणवर हियपणं मद्द झुहं समुल्लसियं । सरिणाहेणिव सहसा उग्गमिए पुण्णिमाइंदे ॥ २७ ॥ २१७ 1 I दृष्टिः । दोषाकरे जड़े । खस्थे आकाशस्थे । चन्द्रे रमते । किंलक्षणे त्वयि । शामवति ज्ञानयुक्ते पुनः दोोजिससे तुम ॥ २१ ॥ मो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति चिन्तामणिरत्नक, मधेनु कल्पतरवः मग मनसि निःप्रभा जाताः । स्वद्योत व प्रभाते ज्योतिरिंगच इव || २२ || मो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति । मम मनसि गः रहस्य [ रभस ] रसः । जातः उत्पन्नः । स रहस्यरसैः । तस्मात्कारणात् । आनन्दामिषात् व्याजात् बहिरन्तः निःसरति ॥ २३ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति कल्याणपरम्परा मातापि अचिन्तिता अपि पुरुषस्य अत्रे संचरति आगच्छति । शशधरे चन्द्रे किरणमालावत ॥ २४ || भो जिनवर । त्वमि दृष्टे सति सर्वाः दिग्बल्यः फलन्ति दृष्टं सुखं फलन्ति । किंलक्षणा दिग्दार्थः । अकुष्ठिता अपि । हु स्फुटम् । आकाशं रत्नैः वर्षति ॥ २५ ॥ भो जिनवर 1 यि दृष्टे सति भव्यः भगवातो भवेत् । नवरं शीघ्रम् सरे सरोवरे । कुमुदं चन्द्रोदये सति गतनि जायते ॥ २६ ॥ भो • जिनवर । त्वयि रटे सति मम हृदयेन सुखं समुहसितं शीध्रेण यथा पूर्णिमा चन्द्रे उद्द्वमिते सति प्रकटिते सति । सरिनाथेन इव दोषोंसे रहित और वीर ऐसे आपको देख लेनेपर फिर किसकी दृष्टि चन्द्रमाकी और रमती है ? अर्थात् आपका वर्शन करके फिर किसीको भी चन्द्रमा दर्शनकी इच्छा नहीं रहती । कारण कि उसका स्वरूप आपसे विपरीत है - आप ज्ञानी हैं, परन्तु वह जड (मूर्ख, शीतल ) है । आप दोषोज्झित अर्थात् अज्ञानादि दोषोंसे रहित हैं, परन्तु वह दोषाकर ( दोषोंकी खान, रात्रिका करनेवाला) है। तथा आप वीर अर्थात् कर्म -शत्रुओंको जीतनेवाले सुभट हैं, परन्तु यह स्वस्थ ( आकाश में स्थित ) अर्थात् भयभीत होकर आकाशमें छिपकर रहनेवाला है || २१ || है जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे मनमें चिन्तामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष भी इस प्रकार कान्तिहीन (फी) हो गये हैं जिस प्रकार कि प्रभातके हो जानेपर जुगनू कान्तिहीन हो जाती है ॥ २२ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे मनमें जो हर्षरूप जल उत्पन्न हुआ है वह मानो हर्षके कारण उत्पन्न हुए आंसुओं मिषसे भीतर से बाहर ही निकल रहा है ॥ २३ ॥ हे जिनेन्द्र | आपका दर्शन होनेपर कल्याणकी परम्परा (समूह) बिना बुलाये ही पुरुषके आगे इस प्रकारसे चलती है जिस प्रकार कि चन्द्रमाके आगे उसकी किरणोंका समूह चलता है || २४ || हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर सब दिशारूप बेलें फूलोंके बिना भी अमीष्ट फल देती हैं, तथा रिक्त भी आकाश स्तोकी वर्षा करता है ।। २५ ।। हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर भव्य जीव सहसा भय और निद्रासे इस प्रकार रहित ( प्रबुद्ध ) हो जाता है जिस प्रकार कि चांदनीका विस्तार होनेपर सरोवर में कुमुद (सफेद कमल) निद्रा से रहित (प्रफुल्लित ) हो जाता है || २६ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर मेरा हृदय सहसा इस प्रकार सुखपूर्वक हर्षको प्राप्त हुआ है जिस प्रकार कि पूर्णिमाके चन्द्रका सुमिता । २ गमणिरचिय व गणयि * अक जो पसरे । ४ कुसुमं कुमुर्य, शकुमुदव्य ५ श 'जातः उत्पः स रहस्यरसः' नास्ति । ६णि दिशः । पद्मने २८ १ च प्रतिपाठोऽयम् । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - war r -anwar २१८ पममन्दि-पञ्चविंशतिः [769: १४-२८763) दिवे तुमम्मि जिणवर दोहिमि अक्खूहि तह सुही अहियं । हियप जह सहसच्छोहोमि तिमणोरहो जाओ। २८॥ 770) बिट्टे तुमम्मि जिणवर भवो वि मित्तत्तणं गओ पसो। एयम्मि ठियस्स जमओ जायं तुह ईसणं मम ॥ २९ ।। 771) दिवे तुमम्मि जिणवर भव्याणं भूरिभतिजुत्ताण । सध्याभो सिद्धीओ होति' पुरो पालीलाए ॥ ३०॥ रणवर सुहगइसंसाहणेशबीयम्मि। कंठगयजीवियस्स वि धीरं संपनएं परमं ॥ ३१ ॥ 773) विद्दे तमम्मि जिवर कमम्मि सिद्धे ण किं पुणो सिद्ध । सिनियर को बाण महरण तुझ सयसम्हा ॥ ३२ ॥ 774) दिडे तुमम्मि जिणवर पोम्मकयं दसणस्थुर' तुज्क्ष। जो पहुं पहा तियालं भवजाले सो समोसरह ॥ ३३ ॥ 775) विटे सुमम्मि जिणघर भणियमिणं जणियजणमणाणंद । सम्बेहि पदिजंतं पवन सुइरे धरावीहे ॥ ३४ ॥ समुद्रेण इव । सुख समुलसितम् ॥ २७॥ भो जिनवर । त्वयि होष्टे सति सहस्राक्षः द्वाभ्यां चक्षुभ्यां तथा अधिक सुष्टी अतः यथा हत्येन अतिमनोरथो जातः अस्यानन्दो जातः॥ २८॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति एष भवः संसारोऽपि मित्रत्वं गतः । यतः यस्मात्कारणात् । एतस्मिन् भवे संसारे स्थितस्य मम तव दर्शनं जातं प्रामम् ।।२९॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति भूरिभक्तियुक्तामा भव्यानां सबो सिद्धयः एकलीलया पुरः अग्रे भवन्ति ॥३०॥ भो जिनवर । त्वयि हटे सति कारगतजीवितस्यापि परमं धैर्य संपद्यते । किलक्षणे त्वयि । सुगतिसंसाधनकमीजे ॥३१॥ भो जिनवर । स्वयि दृष्टे सति तव कमकमले सिद्धे सति किन सिसम् । अपितु सर्व सिद्धम् । तस्मात् कारणात् कः ज्ञानी तव दर्शनं न महति बाम्छति ॥११॥ भो जिनवर । स्वयि हटे सति । भो प्रभो पननन्दितं तव दर्शनस्तवं यः त्रिकाल पठति स भव्यः भवजाल संसारसमूह एफेटयति ३३ ॥ भो जिनवर त्वयि सष्टे सति इदं भणिते कथित तव स्तोत्रम् । सुचिरं बहुकालम् । धरापीठे भूमणः। नन्दतु वृदि गच्छतु । कर्यभूतं स्तोत्रम् । अनितजममनो-आनन्दम् । पुनः किलक्षण स्तोत्रम् 1 सबैः मध्यैः पच्यमानम् ॥ ३४ ॥ इति जिनवरदर्शनस्तवनम् ॥ १४ ॥ उदय होनेपर समुद्र आनन्द (वृद्धि) को प्राप्त होता है ॥२७॥ हे जिनेन्द्र ! दो ही नेत्रोंसे आपका दर्शन होनेपर मैं इतना अधिक सुखी हुआ हूं कि जिससे मेरे हृदयमें ऐसा मनोरथ उत्पन्न हुआ है कि मैं सहस्राक्ष (हजार नेत्रोंवाला) अर्थात् इन्द्र होऊंगा ॥ २८॥ हे जिनेन्द्र! आपका दर्शन होनेपर यह संसार भी मित्रताको प्राप्त हुआ है । यही कारण है जो इसमें स्थित रहनेपर भी मेरे लिये आपका दर्शन प्राप्त हुआ है ॥२९ ।। हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर अतिशय भक्तिसे युक्त भव्य जीवोंके आगे सब सिद्धियां एक क्रीड़ामात्रसे (अनायास) ही आकर प्राप्त होती हैं ॥ ३० ॥ हे जिनेन्द्र ! शुभ गतिके साधनेमें अनुपम बीजमूत मेसे आपका वर्शन होनेपर मरणोन्मुख प्राणीको भी उस्कृष्ट धैर्य प्राप्त होता है ।। ३१ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपके दर्शनसे आपके चरणके सिद्ध हो जानेपर क्या नहीं सिद्ध हुआ ? अर्थात् आपके चरणोंके प्रसादसे सब कुछ सिद्ध हो जाता है । इसलिये कौन-सा ज्ञानवान् पुरुष सिद्धिको करनेवाले आपके दर्शनको नहीं चाहता है ! अर्थात् सब ही विवेकी जन आपके दर्शनकी अभिलाषा करते हैं ॥ ३२ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर जो भव्य जीव पमनन्दी मुनिके द्वारा रची गई आपकी इस दर्शनस्तुतिको तीनों संध्याकालोंमें पढ़ता है वह हे प्रभो ! अपने संसारसमूहको नष्ट करता है ॥ ३३ ॥ हे जिनेन्द्र आपका दर्शन करके मैंने भव्य जनोंके मनको आनन्दित करनेवाले जिस दर्शनस्तोत्रको कहा है वह सबके पढ़नेका विषय बनकर पृथिवीतलपर चिर काल तक समृद्धिको प्राप्त हो ॥ ३४ ॥ इस प्रकार जिनदर्शनस्तुति समाप्त हुई ॥ १४ ॥ कदोही। २ प्रतिपाठोऽयम् । अकम होति । स बिइरिस संपनप। श सिदे ग क सिख, रसिदम * पुरा सिद। ५g, धुर्व, मुर्य, वा पुर।.६६श पढनांत । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क . [१५. श्रुतदेवतास्तुतिः] 776) जयस्यशेषामरमौलिलालितं सरस्वसि स्वस्पदपङ्कजवयम् । दि स्थितं यजनजाड्यनाशनं रजोषिमुक्तं यतीत्यपूर्वताम् ॥ १ ॥ 777) अपेक्षते यन्न दिन म यामिनी न चान्सरं नैव पहिच भारति । न तापकबायकर न सन्महः स्तुवे भवस्याः सकलप्रकाशकम् ॥ २ ॥ 778) तव सवे यस्कविरस्मि सांप्रतं भवत्प्रसादादपि लब्धपाटवः । सवित्रि गङ्गासरिते ऽर्धदायको भवामि तत्तजलपूरितालिः ॥ ३ ॥ मो सरस्वति । त्वत्पदपजदयं चरणकमलद्वयम् । जयति । किलक्षणं चरणकमलबूयमे । अशेष-अमराणा देवामा मौलिभिः साहित स्वितम । यत्तव चरणकमलमूर्य हदि लिखताम् । जनजायनाशनं जनस्य मूर्खत्वनाशनम् । इति हेतोः । अपूर्वा भ्रयति । इतीति किम् । रजोधिमुकं तव चरणकमलद्वयं पापरजोरहितम् ॥ १॥ भो भारति भो सरस्वति । भवत्याः तब महा स्तुवे । यन्महः दिनं न अपेक्षते दिनं न पाछते । यन्महः यामिनी न अपेक्षवे रात्रि न वाञ्छते। यन्महः अन्तरम् अभ्यन्तरं भ । यन्महः । महिः बाह्ये न । वा महा साप च पुनः । यस मह जायकर भूलत्वकारकम् । न । किंलक्षणं महः । सकलप्रकाशकम् । भो मातः। भवत्याः तन्महः । स्तुवे भई तौमि ॥ २॥ भो सवित्रि भो मातः । यत् यस्मात्कारणात् । ई तव स्तवे । कपः अस्मिकविर्भवामि । सप्रितम् इदानीम् । अहम् । लन्धराटवः प्राप्तपाण्डित्यः । भवत्प्रसादात् । तत्र दृष्टान्त. माह । मह गक्षासरिते नौ अर्थदायको भवामि । किंलक्षणः अहम् । तम्मलेन तस्याः गङ्गायाः जलेन रितालिः ॥ ३ ॥ हे सरस्वती ! जो तेरे दोनों चरण-कमल हृदयमें स्थित होकर लोगों की जड़ता ( अज्ञानता) को नष्ट करनेवाले तथा रज ( पापरूए धूलि ) से रहित होते हुए उस जड़ और धूलियुक्त कमलकी अपेक्षा अपूर्वता (विशेषता ) को प्राप्त होते हैं घे तेरे दोनों चरण-कमल समस्त देवोंके मुकुटोंसे स्पर्शित होते हुए जयवन्त होवें ॥१॥हे सरस्वती! जो तेरा तेज न दिनकी अपेक्षा करता है और न रात्रिकी भी अपेक्षा करता है, न अभ्यन्तरकी अपेक्षा करता है और न बायकी भी अपेक्षा करता है, तथा न सन्तापको करता है और न जड़ताको भी करता है। उस समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले तेरे तेजकी मैं स्तुति करता हूं ॥ विशेषार्थअभिप्राय यह है कि सरखतीका तेज सूर्य और चन्द्रके तेजकी अपेक्षा भी अधिक श्रेष्ठ है । इसका कारण यह है कि सूर्यका तेज जहां दिनकी अपेक्षा करता है वहां चन्द्रमाका तेज रात्रिकी अपेक्षा करता है, इसी प्रकार सूर्यका तेज यदि सन्तापक्षो करता है तो चन्द्रका तेज जड़ता ( शीतलता ) को करता है । इसके अतिरिक्त ये दोनों ही तेज केवल बाह्म अर्थको और उसे भी अल्प मात्रामें ही प्रकाशित करते हैं, न कि अन्तस्तत्त्वको भी । परन्तु सरस्वतीका तेज दिन और रात्रिकी अपेक्षा न करके सर्वदा ही वस्तुओंको प्रकाशित करता है । वह न तो सूर्यतेजके समान जनको सन्तप्त करता है और न चन्द्रतेजके समान जनताको ही करता है, बरिक वह लोगोंके सन्तापको नष्ट करके उनकी जड़ता ( अज्ञानता) को भी दूर करता है। इसके अतिरिक्त वह जैसे बाझ पदार्थोंको प्रकाशित करता है वैसे ही अन्तस्तत्त्वको भी प्रगट करता है। इसीलिये वह सरस्वतीका तेज सूर्य एवं चन्द्रके तेजकी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होनेके कारण स्तुति करनेके योग्य है ॥ २ ॥ हे सरस्वती माता ! तेरे ही प्रसादसे निपुणताको प्राप्त करके जो मैं इस समय तेरी स्तुतिके विषयमें कवि हुआ हूं अर्थात् कविता करनेके लिये उद्यत हुआ हूं वह इस प्रकार है जैसे कि मानो मैं कलत्पादपंकजं तव चरणकमळ । २ क कमसम् । ३ म सरिते नपाः, क सरितः नत्याः । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० पद्मनम्दि-पञ्चविंशतिः [779:१५-४779) श्रुतादिकेवल्यपि तावकी श्रियं स्तुवनशक्तो ऽहमिति प्रपद्यते । जयेति वर्णजयमेव माहशा वदन्ति यहेवि तदेव साहसम् ॥ ४॥ 780) त्वमत्र लोकत्रयसअनि स्थिता प्रदीपिका बोधमग्री सरस्वती। सदस्तरस्थाखिलबस्तुसंचयं जनाः प्रपश्यन्ति सरष्टयो ऽप्यतः ॥ ५॥ 781) नभःसमं वर्त्म तवातिनिर्मलं पृथु प्रयास विबुधैर्न कैरिह । पारिवि प्रतिभासमो तसं यदेतदक्षुण्णमित्र क्षणेन तु ॥ ६ ॥ भो देवि । भो मातः । भुताविकेचली अपि ताबकी त्रिमं स्तुवन् सन् अहम् भशका, स श्रुतवली इति प्रतिपद्यते इति प्रवीति । यस्मारकारणात् । भो देयि। मादशाः पुरुषाः । त्वं जय रवि वर्णद्वयम् । एक निश्चयेन । बदन्ति । तदेव साहसम् अकुर्त गरिष्ठम् ॥ ४ ॥ भो सरस्वति भो मातः । त्वम् अत्र लोकत्रयसपनि गृहे। बोधमयी ज्ञानमयी। प्रदीपिका स्थिता अपि वर्तते। श्रतः बोधमयीपीपिकायाः सकाशात् । जमाः लोकाः। तदन्तरस्थाखिलवस्तुसंवयं तस्य लोकत्रयस्म अन्तरस्थ भखिलवस्तु न्त अवलोच्यन्ति । किलक्षणा अनाः । सहयः दर्शनयकाः भव्याः॥५॥ भो देबि । तव वम मार्गः । नमःसमम् आकाशवत् अतिनिमलभू । तु पुनः । यत् तब अतिनिमैले मार्ग [र्गः] । पृथु विस्तीर्ण वर्तते । इह सब वर्मनि मागें। कैर्विसुधैः न प्रयास गुहता प्राप्तम् । तथापि क्षणेन । तराम् अतिशयेन । एतत् सव मार्गम् मधुण्यम् अवाहितम् इव प्रतिभासते। गंगा नदीके पानीको अंजुलीमें भरकर उससे उसी गंगा नदीको अर्ध देनेके लिये ही उनत हुआ हूं ॥ ३ ॥ हे देवी । जब तेरी लक्ष्मीकी स्तुति करते हुए श्रुतकेवली भी यह स्वीकार करते हैं कि 'हम स्तुति करनेमें असमर्थ हैं' तब फिर मुझ जैसे अल्पज्ञ मनुष्य जो तेरे विषयमें 'जय' अर्थात् तू जयवन्त हो, ऐसे दो ही अक्षर कहते हैं उसको भी साइस ही समझना चाहिये ॥५॥ हे सरस्वती! तुम तीन लोकरूप भवनमें स्थित यह ज्ञानमय दीपक हो कि जिसके द्वारा दृष्टिहीन (अन्धे) मनुष्योंके साथ दृष्टियुक्त (सूझता ) मनुष्य भी उक्त तीन लोकरूप भवनके भीतर स्थित समस्त वस्तुओंके समूहको देखते हैं। विशेषार्थयहाँ सरस्वती के लिये दीपककी उपमा दे करके उससे भी कुछ विशेषता प्रगट की गई है । वह इस प्रकारसे-- दीपकके द्वारा केवल सदृष्टि ( नेत्रयुक्त) प्राणियोंको ही पदार्थका दर्शन होता है, न कि दृष्टिहीन मनुष्योंको भी। परन्तु सरस्वतीमें यह विशेषता है कि उसके प्रसादसे जैसे दृष्टियुक्त मनुष्य पदार्थका ज्ञान प्राप्त करते हैं वैसे ही दृष्टिहीन (अन्ध) मनुष्य भी उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं । यहां तक कि सरस्वतीकी उत्कर्षतासे केवलज्ञानको प्राप्त करके जीव समस्त विश्वके भी देखने में समर्थ हो जाता है जो कि दीपकके द्वारा सम्भव नहीं है।॥५॥ हे देवी! तेरा मार्ग आकाशके समान अत्यन्त निर्मल एवं विस्तृत है, इस मार्गसे कौन-से विद्वानोंने गमन नहीं किया है । अर्थात् उस मार्गसे बहुत से विद्वान् जाते रहे हैं । फिर भी यह क्षणभरके लिये अतिशय अक्षुण्ण-सा ( अनभ्यस्त-सा) ही प्रतिभासित होता है ॥ विशेषार्थ- जब किसी विशिष्ट नगर आदिके पार्थिव मार्गसे जनसमुदाय गमनागमन करता है तब वह अक्षुण्ण न रहकर उनके पादचिहादिसे अंकित हो जाता है । इसके अतिरिक्त उसके संकुचित होनेसे कुछ ही मनुष्य उस परसे आ-जा सकते हैं, न कि एक साथ बहुत-से । किन्तु सरस्वतीका मार्ग आकाशके समान निर्मल एवं विशाल है । जिस प्रकार आकाशमार्गसे यद्यपि अनेको विबुध ( देव ) व पक्षी आदि एक साथ प्रतिदिन निर्वाधस्वरूपसे गमनागमन करते हैं, फिर भी वह टूटने फूटने आदिसे रहित होनेके कारण विकृत नहीं होता, और इसीलिये ऐसा प्रतिभास होता है कि मानो यहाँसे किसीका संचार ही नहीं हुआ है। इसी प्रकार सरस्वतीका भी मार्ग इतना विशाल है कि उस परसे अनेक विद्वज्जन कितनी भी दूर तक क्यों न जावें, फिर भी उसका न तो अन्त ही Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ -787 : १५-१२] १५ श्रुतदेवतास्तुतिः 782 ) सदस्तु सायकवितादिकं नृणां तब प्रभावात्कृतलोकविस्मयम् । ___भवेत्तदप्याशु पदं यदीक्षते तपोभिरुप्रैर्मुनिभिर्महात्मभिः ॥ ७॥ 783 ) भवत्कला यत्र न पाणि मानुषे न वेत्ति शार्स स चिरं पठनपि । नागरिमीनियुसेन यजुषा यमीक्षसे कैर्न गुणैः स भूष्यते ॥८॥ 784) स सर्यवित्पश्यति देसि चाखिलं न वा भवत्या रहितो ऽपि बुध्यते । बन तस्यापि जगञ्जयप्रभोस्त्वमेव देवि प्रतिपचिकारणम् ॥९॥ 785) चिरादतिक्लेशशतैर्मवाम्बुधौ परिभ्रमन् भूरि नरवमभुते।। तनूभृदेतत्पुरुषार्थसाधनं त्वया विना देवि पुनः प्रणश्यति ।। १०॥ 786) काचिदम्ब त्वदनुग्रह विना श्रुते पपीते ऽपि न तत्त्वनिश्चयः । ततः कुतः पुसि भवेद्विवेकिता त्वया विमुक्तस्य तु जन्म निष्फलम् ॥११॥ 787) विधाय मातः प्रथमं त्वदाश्रयं श्रयन्ति तम्मोक्षपदं महर्षयः। प्रदीपमाश्रिस्य गृहे तमस्तते यदीप्सितं वस्तु लभेत मानषः ॥ १२ ॥ एतावता कि सूचितम् । तब मार्गो गहन इत्यथैः ॥ ६ ॥ भो देवि । तव प्रभावात् तृणां कवितादिकं भवेत् । सिक्षणं कवितादिकम् । कृतलोकविस्मयम् । तत्कवितादिकं तावत् दूरे तिष्ठतु । तव प्रभावात् । तत्पदम् अपि । माशु शीघ्रण । भवेत् । यत्पदं महात्मभिः मुनिभिः । उपः तपोभिः । ईश्यते अवलोक्यते ॥ ७॥ भो वाणि भो देवि । यत्र यस्मिन् मानुषे भवकला न वर्तते स नरः । विर चिरकालम् । पठमपि शास्त्र न वेत्ति न जानाति । भो देवि । प्रीतियुतेन चक्षुषा मनाम् अपि म नरम् ईक्षसे त्वं बिलोकपति स नरः के गुणैर्न भूष्यते । अपि तु सर्वेः भूष्यते ॥ ८॥ भो देवि । अत्र लोके । स धुमान सर्वक्ति यःवो स्मरति । भक्त्या त्वया। रहितः सर्ववित् न । त्वया युक्तः अखिलं समस्तं पश्यति। च पुनः । बखिलं वेति जानाति । वा तस्यापि जगत्प्रभोः वीतरागस्य । प्रतिपत्तिकारणे शमस कारण स्वमेर ॥ ९॥ भो देषि । सनुभूत् जीवः । भवाम्बुधौ संसारसमुद्रे । भूरि चिरकालम् । परिभ्रमन् विरात् अतिलेशशतैः कृत्वा नरस्वम् अश्रुते प्रामोति । पुनः स्वया विना एतत्पुरुषार्थसाधनम् । प्रणश्यति विनाशं गच्छति ॥१०॥ भो सम्ब भो मातः । त्वदनुभई विना तव प्रसादेन विमा । हि यतः श्रुिते अधीतेऽपि शास्ने पठिते भपि । तरवनिक्षयः कदाचित् न भवेत् । ततः कारणात् । पुंसि पुरुष विवेकिता कुसः भवेत् । तु पुनः । खया विमुक्तस्य जीवस्य । जन्म मनुष्यश्वम् । निष्फलं भवेत् ॥ ११ ॥ भो मातः । महर्षयः प्रथम स्ववाआता है और न उसमें किसी प्रकारका विकार भी हो पाता है । इसीलिये यह सदा अक्षुण्ण बना रहता है ॥ ६ ॥ हे देवी! तेरे प्रभायसे मनुष्य जो लोगोंको आश्चर्य उत्पन्न करनेवाली कविता आदि करते है वह तो दूर ही रहे, कारण फि उससे तो वह पद ( मोक्ष ) भी शीघ्र प्राप्त हो जाता है जिसे कि महात्मा मुनिजन तीन तपश्चरणके द्वारा देख पाते हैं ।। ७ ॥ हे वाणी ! जिस मनुष्यमें आपकी कला नहीं है वह चिर काल तक पढ़ता हुआ भी शास्त्रको नहीं जान पाता है । और तुम जिसकी ओर प्रीतियुक्त नेत्रसे थोड़ा भी देखती हो वह किन किन गुणोंसे विभूषित नहीं होता है, अर्थात् वह अनेक गुणोंसे सुशोभित हो जाता है ॥ ८ ॥ हे देवी ! जो सर्वज्ञ समस्त पदार्थोंको देखता और जानता है वह भी तुमसे रहित होकर नहीं जानतादेखता है। इसलिये तीनों लोकोंकि अधिपति उस सर्यज्ञके भी ज्ञानका कारण तुम ही हो ॥९॥हे देवी! चिर कालसे संसाररूप समुद्र में परिभ्रमण करता हुआ प्राणी सैकडो महान् कष्टोंको सहकर पुरुषार्थ (धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष) की साधनभूत जिस मनुष्य पर्यायको प्राप्त करता है वह भी तेरे विना नष्ट हो जाती है ॥ १० ॥ हे माता ! यदि कदाचित् मनुष्य तेरे अनुग्रहके विना शास्त्रका अध्ययन भी करता है तो भी उसे तत्वका निश्चय नहीं हो पाता । तब ऐसी अवस्थामें भला उसे विवेकबुद्धि कहांसे हो सकती है ? अर्थात् नहीं हो सकती । हे देवी! तुझसे रहित प्राणीका जन्म निष्फल होता है ॥ ११ ॥ हे माता। wa Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ [788 : १५१३ परानन्दि-पञ्चविंशतिः 788 ) त्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छसि । समस्तशुक्लापि सुवर्णविप्रा स्वमत्र मातः कृतचित्रचेष्टिता ॥ १३ ॥ 789 ) समुद्रघोषाकृति ईति प्रभौ यदा स्वमुत्कर्षमुपागता भृशम् । अशेषभाषात्मतया त्वया तदा कृतं न केषां हृदि मातरद्भुतम् ॥ १४ ॥ 790) सचक्षुरप्येष जनस्त्वया विना यन्त्र एवेति विभाव्यते बुधैः । तदस्य छोकत्रितयस्य लोचनं सरस्वति श्वं परमार्थदर्शने ॥ १५ ॥ अयम् । विधाय कृत्वा । मोक्षपदं धायन्ति प्राप्नुवन्ति । यत् मानवः नरः । तमस्तते तमोभ्यासे गृहे प्रदीप आश्रित्य । ईप्सितं वाञ्छितं वस्तु । लमेत प्राप्नोति ॥ १२ ॥ भो मातः । अत्र जगति । त्वं कृतांचेत्रचेष्टिता । त्वयि विषये । प्रभूतानि पदानि तदपि देहिनां जीवानां तदेकं पदं प्रयच्छसि ददासि । किंलक्षणा त्वम्। समस्तचापि सुवर्णविमा सु[]] वर्ण सुवर्णे' शरीरं यस्याः सा । व्यवहारेण सुवर्णमयच्छविशरीरा इत्यर्थः ॥ १३ ॥ भो भातः । यदा काले त्वम् अर्हति प्रभौ सर्वज्ञे । मृनम् अत्यर्थम् । उत्तम् उपागता उत्कर्षता प्राप्ता । किंलक्षणा त्वम् । समुद्रघोषाकृतिः । तदा स्वया अशेषभाषात्मतया सर्वभाषा स्वरूपेण । केषां जीवानां हृदि अद्भुतम् श्राश्वर्यं न वृतम् । अपि तु सर्वेषां हृदि भावर्यं कृतम् ॥ १४॥ भो सरखति । यत् एष जनः । स्वया विना । सचक्षुरपि नेत्रयुक्तोऽपि जन: बुधैः अन्य इति विभाव्यते कध्यते । तत्तस्मात्कारणात् । अस्य महामुनि जब पहिले तेरा अबलम्बन लेते हैं तब कहीं उस मोक्षपदका आश्रय ले पाते हैं। ठीक भी हैमनुष्य अन्धकार से व्याप्त घरमै दीपकका अवलम्बन लेकर ही इच्छित वस्तुको प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ हे माता ! तुम्हारे विषय में प्राणियों के बहुत से पद हैं, अर्थात् प्राणी अनेक पदोंके द्वारा तुम्हारी स्तुति करते हैं, तो भी तुम उन्हें उस एक ही पद (मोक्ष को देती हो। तुम पूर्णतया धवल हो करके भी उत्तम वर्णमय (अकारादि अक्षर स्वरूप ) शरीरखाली हो । हे देवी! तुम्हारी यह प्रवृत्ति यहां आश्चर्यको उत्पन्न करती हैं ॥ विशेषार्थ – सरस्वतीके पास मनुष्यों के बहुत पद हैं, परंतु वह उन्हें एक ही पद देती है; इस प्रकार यद्यपि यहां शब्द से विशेष प्रतीत होता है, परन्तु यथार्थतः विरोध नहीं है। कारण यह कि यहां 'पद' शब्द के दो अर्थ हैं- शब्द और स्थान | इससे यहां वह भाव निकलता है कि मनुष्य बहुत-से शब्दों द्वारा जो सरस्वतीकी स्तुति करते हैं उससे वह उन्हें अद्वितीय मोक्षपदको प्रदान करती है । इसी प्रकार जो सरस्वती पूर्णतया घवल ( श्वेत ) है वह सुवर्ण जैसे शरीरवाली कैसे हो सकती है ? यह भी यद्यपि विरोध प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में विरोध यहां कुछ भी नहीं है । कारण यह कि शुक्ल शब्दसे अभिप्राय यहां निर्मलका तथा वर्ण शब्दसे अभिप्राय अकारादि अक्षरोंका है । अत एव भाव इसका यह हुआ कि अकारादि उत्तम वर्णोंरूप शरीरवाली वह सरस्वती पूर्णतया निर्मल है ॥ १३ ॥ हे माता ! जब तुम भगवान् अरहन्तके विषय में समुद्रके शब्द के समान आकारको धरण करके अतिशय उत्कर्षको प्राप्त होती हो तब समस्त भाषाओं में परिणत होकर तुम किन जीवोंके हृदयमें आश्चर्यको नहीं करती हो? अर्थात् सभी जीवोंको आश्चर्यान्वित करती हो ॥ विशेषार्थ — जिनेन्द्र भगवान्की जो समुद्रके शब्द समान गम्भीर दिव्यध्वनि खिरती है यही वास्तवमें सरस्वतीकी सर्वोत्कृष्टता है । इसे ही गणधर देव बारह अंगोंमें ग्रथित करते हैं । उसमें यह अतिशयविशेष है कि जिससे वह समुद्रके शब्द के समान अक्षरमय न होकर भी श्रोताजनको अपनी अपनी भाषास्वरूप प्रतीत होती है और इसीलिये उसे सर्वभाषात्मक कहा जाता है || १४ || हे सरस्वति । चूंकि यह मनुष्य तुम्हारे बिना आंखोंसे सहित होकर 1 " श आश्रमन्ति । २ शमुवण सुवर्ण । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२३ -794 : १५-१९] १५. श्रुतदेवतास्तुतिः 791) गिरा नरप्राणितमेति सारतां कवित्ववक्तृत्वगुणेन सा च गीः । इदं वयं दुर्लभमेव ते पुनः प्रसादलेशादपि आयते नृणाम् ॥ १६॥ 792) नृणा भवत्सनिधिसंस्कृतं श्रवो विहाय नान्यद्धितमक्षयं च तत् । भवेदिकार्थमिदं परं पुनवियूदतार्थ विषयं स्वमर्पगत ॥ १७ ॥ 793) कतापि ताल्योष्ठपुटादिभिर्नृणां त्वमादिपर्यन्तविवर्जितस्थितिः । इति त्वयापीशधर्मयुसया स सर्वथैकान्तविधिविचूर्णितः ॥१८॥ 794) अपि प्रयाता वशमेकजन्मनि युधेनुचिन्तामणिकल्पपादपाः। फलन्ति हि त्वं पुनरत्र वा परे भवे कथं तैरुपमीयले बुधैः ॥ १९ ॥ लोकपितयस्य । परमार्थदर्शने त्वं लोचनम् ॥ १५ ॥ भो देवि । तव गिरा वाण्या कृत्वा । नरस्य प्राणितं जीवितम् । सारता सफलताम् । एति गच्छति । च पुनः । सा गीः । कवित्ववक्तृत्वगुणेन श्रेष्ठ। वर्तते । इदं द्वय कविरष-वक्तृत्वम् । दुर्लभम् एव । पुनः। ते तव । प्रसादात प्रसादलेशात् अपि नृणां द्वयं जायते ॥ १६॥ नृणा पुरुषाणाम् । भो देवि । भवत्संनिधि संस्कृतम् । तव नेकट्यं तमसमषम् । श्रवः तव श्रवणम् । विहाय त्यक्त्वा । अन्यत् श्रवणम् । अक्षयम् । हितं हितकारकं न । तत्तस्यास्कारणात् । तत्र प्रवणेन इदं विवेकार्थ भवेत् 1 पुनः परम् अन्यत् श्रयणम् । विमूढतार्थम् । स्वमू आत्मानं विषय जडत्वगोचरम् । अर्पयत ददत् ॥ १७ ॥ इति अमुना प्रकारेण । त्वं नृणो तात्वोपपुटादिभिः कृतापि । भो देवि । त्वम् श्रादि-पर्यन्तअन्तविवर्जित-रहित-स्थितिः वर्तसे । त्वया ईदृशधर्मयुक्तया आयन्तरहितया । स सर्वथा एकान्त विधिः विचूर्णितः स्फेरितः ॥१८॥ भो देवि । दुधेनुचिन्तामणिकल्पपादपाः कामधेनुचिन्तामणिरत्नकल्पवृक्षाः । वर्श प्रयाताः । एकजन्मनि फलन्ति । पुनः त्वम् । भी विद्वानोंके द्वारा अन्धा ( अज्ञान ) ही समझा जाता है, इसीलिये तीनों लोकोंके प्राणियोंके लिये यथार्थ तत्वका दर्शन ( ज्ञान ) करानेमें तुम अनुपम नेत्रके समान हो॥ १५॥ जिस प्रकार वाणीके द्वारा मनुष्योंका जीवन श्रेष्ठताको प्राप्त होता है उसी प्रकार वह वाणी भी कवित्व और वक्तृत्व गुणों के द्वारा श्रेष्ठताको प्राप्त होती है । ये दोनों ( कवित्व और वक्तत्व ) यद्यपि दुर्लभ ही है, तो भी हे देवी! तेरी थोड़ी-सी भी प्रसन्नतासे वे दोनों गुण मनुष्योंको प्राप्त हो जाते हैं ॥१६॥ हे सरस्वती ! तुम्हारी समीपतासे संस्कारको प्राप्त हुए श्रवण (कान) को छोड़कर मनुष्योंका दूसरा कोई अविनश्वर हित नहीं है । तुम्हारी सभीपतासे संस्कृत यह श्रवण विवेकका कारण होता है तथा अपनेको विषयकी ओर प्रवृत्त करानेवाला दूसरा श्रवण अविवेकका कारण होता है ।। विशेषार्थ-अभिप्राय इसका यह है कि जो मनुष्य अपने कानोंसे जिनवाणीका श्रवण करते हैं उनके कान सफल हैं । इससे उनको अविनश्चर सुखकी प्राप्ति होती है । परन्तु जो मनुष्य उन कानोंसे जिनवाणीको न सुनकर अन्य रागवर्धक कथाओं आदिको सुनते हैं वे विवेकसे रहित होकर विषयभोगमें प्रवृत्त होते हैं और इस प्रकारसे अन्तमें असह्य दुखको भोगते हैं ॥ १७ ॥ हे भारती ! यद्यपि तू मनुष्यों के ताल और ओष्टपुट आदिके द्वारा उत्पन्न की गई है तो भी तेरी स्थिति आदि और अन्तसे रहित है, अर्थात् तू अनादिनिधन है। इस प्रकारके धर्म (अनेकान्त) से संयुक्त तूने सर्वथा एकान्तविधानको नष्ट कर दिया है। विशेषार्थ-याणी कथंचित् नित्य और कथंचित् अनित्य भी है । वह वर्ण-पद-वाक्यरूप वाणी चूंकि तालु और ओष्ठ आदि स्थानोंसे उत्पन्न होती है अत एव पर्यायस्वरूपसे अनित्य है। साथ ही द्रव्यस्वरूपसे चूंकि उसका विनाश सम्भव नहीं है अत एव द्रव्यस्वरूपसे अथवा अनादिप्रवाहसे वह नित्य भी है। इस प्रकार अनेकान्तस्वरूप वह वाणी समस्त एकान्त मतोंका निराकरण करती है ॥१८॥ कामधेनु, चिन्तामणि और कल्पवृक्ष ये अधीनताको प्राप्त होकर एक जन्ममें ही फल देते हैं। परन्तु १श बापरे। २श प्रसादात् प्रसारलेशात् । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Pld winner- namenomenamurnimore २२४ पानन्छि-पञ्चविंशतिः [795:11. 795) अगोचरो घासरकन्निशाकतोर्जनस्य यश्चेतसि वर्तते तमः। विभिद्यते वागधिदेवते त्वया घमुस्तमज्योतिरिति प्रणीयसे ॥ २० ॥ 796) जिनेश्वरस्वच्छसरासरोजिनी त्वमपूर्षादिसरोजराजिता । गणेशहसनजसेविता सदा करोषि केषां न मुदं परामिह ॥ २६ ॥ 797) परात्मतत्वमतिपत्तिपूर्वकं परं परं यत्र सति प्रसिद्ध्यति । कियत्ततस्ते स्फुरतः प्रभायतो तृपत्वसौभाग्यवराङ्गनादिकम् ॥ २२ ॥ 798) त्वदलिपपदयभकिभाविते तृतीयमुन्मीलति योधलोचनम् । ___ गिरामधीशे सह फेवलेन यत् समाश्रितं स्पर्धमिवेक्षते ऽखिलम् ॥ २३ ॥ अत्र जन्मनि । अपरे भवे अपरजन्मनि फलसि । तैः कल्पवृक्षादिभिः । कथम् उपमीयसे ॥ १९ ॥ भो वागधिदेवते भो मासः। स्वया तमः विभिद्यते दूरीक्रियते । यत्तमः जनस्य चेससि वर्तते । यत्तमः । वासरकृनिशाकृतोः सर्याचनमसोः। अगोचरः अगम्यः इति हेतोः त्वम् । तमज्योतिः । प्रमीयसे कथ्यसे ।। २.॥ भो देविस्वम । इह लोके । केषा' जीवानाम् । परो मर्द है न करोपि । अपि तु सर्वेषां प्राणिनां मुई करोषि । किंलक्षणा स्वम् ।जिनेवरखरछसरोवरस्य सरोजिनी कमलिनी वर्तसे । पुनः किलक्षणा स्वम् । मनपूर्वादिसरोजकमलानि तैः राजिता शोभिता । पुनः किंलक्षणा स्वम् । गणेश-गणधरदेव-ईसब्रज-समूब सेविता । सदाकाले ॥२१॥ ततः कारणात् । ते फुरतः प्रसाद राकपा । हावन नामादिक कियन्मात्रम् । यत्र तब प्रभावे सति परं पदं प्रसिध्यति । किंलक्षण पदम् । परारमतत्त्वप्रतिपक्तिपूर्वक मेदज्ञानपूर्वकम् ॥२२॥ भो देवि । वदनिपायभक्तिभाविते मरे तव चरणकमलभरिक युके नरे। तृतीय बोधलोचनं शाननेत्रमू । उन्मीलति प्रगटीभवति । यत्तव बोधलोचनम् 1 गिराम् अधीशे सर्वहे । केवलेन सह सर्व समाश्रितम् इव । यतृतीयलोचनम् । अखिल हे देवी! तू इस भवमें और परभवमें भी फल देती है। फिर भला विद्वान् मनुष्य तेरे लिये इनकी उपमा कैसे देते हैं । अर्थात् तू इनकी उपमाके योग्य नहीं है-उनसे श्रेष्ठ है |१९|| हे वागधिदेवते ! लोगोंके चित्तमें जो अन्धकार (अज्ञान ) स्थित है वह सूर्य और चन्द्रका विषय नहीं है, अर्थात् उसे न तो सूर्य नष्ट ऋ सकता है और न चन्द्र भी । परन्तु हे देवी ! उसे ( अज्ञानान्धकारको) तू नष्ट करती है । इसलिये तुझे 'उत्तमज्योति' अर्थात् सूर्य-चन्द्रसे भी श्रेष्ठ दीप्तिको धारण करनेवाली कहा जाता है ।। २. ॥ हे सरस्वती! तुम जिनेन्द्ररूप सरोवरकी कमलिनी होकर अंग-पूर्वादिरूप कमलोंसे शोभायमान तथा निरन्तर गणधररूप हंसोंके समूहसे सेवित होती हुई यहां किन जीवों के लिये उत्कृष्ट हर्षको नहीं करती हो? अर्थात् सब ही जनोंको आनन्दित करती हो ॥२१॥ हे देवी! जहां तेरे प्रभावसे आत्मा और पर ( शरीरादि) का ज्ञान हो जानेसे प्राणीको उत्कृष्ट पद (मोक्ष) सिद्ध हो जाता है वहां उस तेरे दैदीप्यमान प्रभावके आगे राजापन, सुभगता एवं सुन्दर स्त्री आदि क्या चीज हैं ! अर्थात् कुछ मी नहीं है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिनवाणीकी उपासनासे जीवको हित एवं अहितका विवेक उत्पन्न होता है और इससे उसे सर्वोत्कृष्ट मोक्षपद भी प्राप्त हो जाता है। ऐसी अवस्थामें उसकी उपासनासे राजपद आदिके प्राप्त होनेमें भला कौन-सी कठिनाई है ? कुछ भी नहीं ।। २२ ।। हे वचनोंकी अधीश्वरी ! जो तेरे दोनों चरणोंरूप कमलोंकी भक्तिसे परिपूर्ण है उसके पूर्ण श्रुतज्ञानरूप वह तीसरा नेत्र प्रगट होता है जो कि मानो केवल ज्ञानके साथ स्पर्धाको ही प्राप्त हो करके उसके विषयभूत समस्त विश्वको देखता है । विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिनवाणीकी आराधनासे द्वादशांगरूप पूर्ण श्रुतका ज्ञान प्राप्त होता है जो विषयकी अपेक्षा केवलज्ञानके ही समान है। विशेषता दोनोंमें केवल यही है कि जहां श्रुतज्ञान उन सब पदार्थोंको परोक्ष १ मे । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ R -80Bire १५. भुतदेवतास्तुति 799 ) स्वमेव तीर्य शुधिबोधवारिमत् समस्तलोकत्रयशुद्धिकारणम् । त्वमेव चानम्दसमुद्रवर्धने मुगाङ्कमूर्तिः परमार्थदर्शिनाम् ॥ २४ ॥ 800 ) स्वयादिबोधः बलु संस्कृतो प्रजेत् परेषु मोघेण्यखिलेषु हेतुताम् । स्वमक्षि पुंसामतिदूरवर्शने स्वमेष संसारतरोः कुठारिका ॥ २५॥ 801) यथाविधान स्वमनुस्मृता सती गुरूपदेशो ऽयमवर्णमेदतः। न ताः भियस्ते न गुणाम तस्पद मयच्छसि प्राणभृते न यच्छुमे ॥ २६ ॥ 802 ) मार्जिापोटोहियोग स न मियते।। भवापु-शासघनाभिरेति तत्सदर्थवाक्यामृतमारमदुरात् ॥ २७ ॥ 803) तमांसि तेजासि विजिस्य वाकार्य प्रकाशययत्परम महन्महः। न लुप्यते ते बरी:प्रकाश्यते स्वतः प्रकाशात्मकमेव नम्बतु ॥२८॥ समस्तम् । ईशवे पश्यति ॥ २३ ॥ भो देधि । त्वमेव तीर्थ शुधियोषधारिमत् । स्त्रमेव समस्खलोकत्रगशुद्धिकरणम् । त्वमेव मानन्दसमुद्रवर्धने परमार्थदर्शिनी मृगाइमूर्तिः ॥ २४ ॥ खल्लु इति सले । भी देवि । स्वया आदिवोपः मतिमानम् । संसातः बजेट अलेकृतः। परेषु अखिलेषु शुतज्ञानादियोधेपु हेतुसो बजेट । भो देहि। त्वं पुंसाम् भतिएवसमे अक्षि नेत्रम् । स्वमेव संवारतरोः कुलारिका ॥१५॥ भो शुभ मनोहे भो देवि। भर्य गुरूपवेधः । त्वंयपाविधानम् । अवर्णमेदतः भक्षरमेदरहितात् भषवा अकारादि-अक्षरमेशात् । भनुस्मृता सप्ती आराधिता सती । तत्पदं न यरपर्द प्राणमते जीवाम न प्रयच्छसि म ददासि । ताः श्रियःमते गुणाः वयाः श्रियः मान् गुणान् न प्रयच्छति ॥२६॥ भो देवि।स भनेकजन्मना भर्जितः पापपर्वतः येष विवेकबजेग मिद्यते सद्विवेकानाम् । भवपुःशासाचनात्-मेघात् निरेति निराति । किंलक्षणात् मादपुःशाषनात् । समयवाक्यामतमारमेबुरात स्मादावामृतपुष्टात् ॥ २७ ॥ बार्य महन् महः तेजा नन्दन यन्महः तमाधि मन्धकाराणि । जाति (अविशद ) वरूपसे जानता है वहां केवलज्ञान उन्हें प्रत्यक्ष (विशद ) स्वरूपसे जानता है। इसी बातको लक्ष्यमें रखकर यहां यह कहा गया है कि यह भुतज्ञानरूप तीसरा नेत्र मानो केवलझानके साथ स्पर्धा ही करता है ॥ २३ ॥ हे देवि ! निर्मल शानलए जलसे परिपूर्ण तुम ही वह तीर्थ हो जो कि तीनों लोकोंके समस्त प्राणियोंको शुद्ध करनेवाला है । तथा तस्वके यथार्थस्वरूपको देखनेवाले जीवोंके श्रानन्दरूप समुद्र के बढ़ाने में चन्द्रमाकी मूर्तिको धारण करनेवाली भी तुम ही हो ॥२४॥ हे वाणी! तुम्हारे द्वारा संस्कारको प्राप्त हुआ प्रथम ज्ञान (मतिज्ञान) या अक्षरबोध दूसरे समस्त (श्रुतज्ञानादि) शानों में कारणताको प्रास होता है। हे देवि! तुम मनुष्यों के लिये दूरदेशल वस्तुओंके दिखलानेमें नेत्रके समान होकर उनके संसाररूप वृक्षको काटनेके लिये कुठारका काम करती हो ॥२५॥ हे शुभे ! जो प्राणी तेरा विधिपूर्वक सरण करता है- अध्ययन करता है- उसके लिये ऐसी कोई लक्ष्मी नहीं है, ऐसे कोई गुण नहीं हैं, तथा ऐसा कोई पद नहीं है, जिसे तू वर्णभेदके विना-प्रामणत्व आदिकी अपेक्षा न करके न देती हो । यह गुरुका उपदेश है। अभिप्राय यह है कि तू अपना सरण करनेवालों (जिनवाणीभक्तों) के लिये समानरूपसे अनेक प्रकारकी लक्ष्मी, अनेक गुणों और उत्तम पदको प्रदान करती है ॥२६॥ हे भारती! जिस विवेकरूप वनके द्वारा अनेक जन्मों में कमाया हुआ यह पापरूप पर्वत खण्डित किया जाता है वह विवेकरूप वन समीचीन अर्थसे सम्पन्न वाक्योरप अमृतके भारसे परिपूर्ण ऐसे तेरे श्रुतमय शरीररूप मेषसे प्रगट होता है । विशेषार्थ-यहां विवेकमें वनका आरोप करके यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार बनके द्वारा बड़े बड़े पर्वत खण्डित कर दिये आते हैं उसी प्रकार विवेकरूप वजके द्वारा बलवान् कर्मरूप पर्वत नष्ट कर दिये जाते है। वन जैसे जलसे परिपूर्ण मेघसे उत्पन्न होता है वैसे ही यह विवेक भी समीचीन अर्थ के बोधक वाक्यरूप जलसे परिपूर्ण ऐसे सरस्वतीके शरीरभूत शास्त्ररूप मेवसे उत्पन्न होता है। तात्पर्य यह कि जिनवाणीके परिशीलनसे यह विवेकबुद्धि प्रगट होती है जिसके प्रभावसे नवीन कोंका संवर तथा पूर्वसंचित कोंकी निर्जरा होकर अविनश्चर सुख प्राप्त हो जाता है ॥ २७॥ शब्दमय शाम (द्रव्यभूत ) अन्धकार पद्मनं २७ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wor- A NANJ AAAAAAAA २२६ पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः [804:१५-२९804) सय प्रसाद कवितां करोत्थतः करा घटे मारशः। प्रसीद तथापि मयि स्वनन्दने न जातु माता विगुणे ऽपि निष्ठुरा ॥ २९ ॥ 805 ) इमामधीते श्रुतदेवतास्तुतिं कृति पुमान् यो मुनिपप्रनन्दिनः । स याति पारं कवितादिसद्गुणप्रबन्धसिन्धोः क्रमतो भवस्य च ॥ ३० ॥ 806) कुण्ठास्ते ऽपि वृहस्पतिप्रभूतयो यस्मिन् भवन्ति भुवं तस्मिन देवि तव स्ततिव्यसिकरे मम्दा नराके खयम् । ताक्चापलमेतवश्रुतवतामस्माकमम्ब स्खया क्षन्तव्य मुखरस्वकारणमसौ येनासिभकिग्रहः ॥ ३१॥ सूर्यामी वेजासि । विजित्य प्रकाशयात् । पुनः परमं श्रेषम् । यन्महः । तैः तमोमिः । न लभ्यते । व पुनः । तैः तेजोमिः । न प्रकाश्यते। विलक्षणे महः । खतः प्रकाशात्मकम् ॥१८॥ भो मातः । मयं तब प्रसादः । मरः कविता करोति । अतः तब प्रसादात् । तत्र कवित्थे। मादशः जनः करवटेत--समस्खन कई घटेत । तत्रापि मयि प्रसीद। जावचित्। लिपुणे गुणहितें अपि सनन्दने माता निचरा कठोरा भ भवेत् ॥ २९ ॥ यः पुमान् इमां श्रुतदेवतास्तुतिम् अधीते पठति। किंलक्षणा स्तुतिम् । मुनिपयनन्दिनः ऋतिम् । स मरः। कवितादिसणप्रबन्धसिन्धोः कविसादिगुणरबमासमुद्रस्य पार याति । च पुनः । क्रमतः भवस्य पार याति संसारस्य पारं गच्छति ॥ ३० ॥ भो देवि यस्मिन् तव स्तुतिम्पतिको स्तुतिसमूछे । तेऽपि बृहस्पतिप्रभूतयः देवाः नुवम् । कुण्ठाः मूर्खाः भवन्ति । तस्मिन् तव स्तोने । वयं मन्दाः मूर्जाः मरा के। तस्मात्कारणात् । भो अब भो मातः । भस्माकम् एततू वाकूचापलं वचनचालत्वं त्वया क्षन्तव्यम् । विलक्षणानाम् अस्माकम् । अनुतवता शुतरहिप्तानाम्। येन कारणेन । मुखरस्वकारणं अपलत्यकाणम् । असो अतिभतिग्रहः अतीव भक्तिषशः ॥२१॥ इति सरखतीस्तवनम् ॥ १५॥ और तेज (सूर्य-चन्द्रादिकी प्रभा) को जीतकर जिस उत्कृष्ट महान् तेजको प्रगट करता है वह न अन्धकारके द्वारा लुप्त किया जा सकता है और न अन्य तेजके द्वारा प्रकाशित भी किया जा सकता है। वह स्वसंवेदनस्वरूप तेज वृद्धिको प्राप्त होवे ॥ विशेषार्थ-जिनवाणीके अभ्याससे अज्ञानभाव नष्ट होकर केवलज्ञानरूप जो अपूर्व ज्योति प्रगट होती है वह सूर्य चन्द्रादिके प्रकाशकी अपेक्षा उत्कृष्ट है । इसका कारण यह है कि सूर्य-चन्द्रादिका प्रकाश नियमित (क्रमशः दिन और रात्रि) समयमें रहकर सीमित पदार्थोंको ही प्रगट करता है। परन्तु वह केवलज्ञानरूप प्रकाश दिन व रात्रिकी अपेक्षा न करके-सर्वकाल रहकर-तीनों लोकों व तीनों कालोके समस्त पदार्थोंको प्रगट करता है । इस केवलज्ञानरूप प्रकाशको नष्ट करने में अन्धकार (कर्म) समर्थ नहीं है वह स्व-परप्रकाशकस्वरूपसे सदा स्थिर रहनेवाला है।॥ २८॥ हे सरस्वती ! तेरी प्रसन्नता ही कविताको करती है, क्योंकि, मुझ जैसा मूर्ख पुरुष भला उस कविताको करनेके लिये कैसे योग्य हो सकता है ? नहीं हो सकता। इसलिये तू मुझ मूर्खके ऊपर भी प्रसन्न हो, क्योंकि, माता गुणहीन भी अपने पुत्रके विषयमें कठोर नहीं हुआ करती है ! ।।२९।। जो पुरुष मुनि पद्मनन्दीकी कृतिस्वरूप इस श्रुतदेवताकी स्तुतिको पढ़ता है वह कविता आदि उत्तमोत्तम गुणों के विस्ताररूप समुद्रके तथा क्रमसे संसारके भी पारको प्राप्त हो जाता है ॥३०॥हे देवी! जिस तेरे स्तुतिसमूहके विषयमें निश्चयसे वे बृहस्पति आदि भी कुण्ठित (असमर्थ) हो जाते हैं उसके विषयमें हम जैसे मन्दबुद्धि मनुष्य कौन हो सकते हैं ? अर्थात् हम जैसे तो तेरी स्तुति करनेमें सर्वथा असमर्थ हैं । इसलिये.हे माता! शास्त्रज्ञानसे रहित हमारी जो यह वचनोंकी चंचलता, अर्थात् स्तुतिरूप यचनप्रवृत्ति है, उसे तू क्षमाफर । कारण यह कि इस वाचालता ( बकवाद ) का कारण वह तेरी अतिशय भक्तिरूप मह (पिशाच ) है। अभिप्राय यह कि मैंने इस योग्य न होते हुए भी जो यह स्तुति की है वह केवल तेरी भक्तिके वश होकर ही की है ॥ ३१ ॥ इस प्रकार सरस्वतीस्तोत्र समाप्त हुआ ॥ १५॥ सच सामस्तेन । Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१६. स्वयंभूस्तुतिः] 807) स्वयंभवा येन समुद्धृतं जगजडत्यक पतितं प्रमादतः। परात्मतत्वप्रतिपादनोलसहयोगणैराविजिनःस सेव्यतामा 808) भवारिरेको न परोऽस्ति देहिनां सुहश रखत्रयमेक एव हि । स दुर्जयो थेन जितस्तवाश्रयारतो ऽजिताम्मे जिनतो ऽस्तु सत्सुखम् ॥ २॥ 809) पुनातु नः संभवतीर्थकृजिनः पुनः पुनः संभवदुख दुःखिताः। तवर्तिनाशाय धिमुक्तिवर्मनः प्रकाशकं यं शरणं प्रपेदिरे ॥ ३ ॥ 810) निजैर्गुणैरपतिमैर्महानजो न तु त्रिलोकीजनतार्चनेन यः। थतो हि विश्वं लघु तं विमुक्तये नमामि साक्षादभिनन्दनं जिनम् ॥ ४ ॥ स आदिजिनः सर्वज्ञः ऋषभदेवः सेव्यताम् । येन आदिजिनेन । परात्मतत्त्वप्रतिपादनेम उल्लसन्तः ये क्चोगुणाः सः चोगुणेः । जगत् समुद्धतम् । किंलक्षणेन आदिजिनेन । स्वयंभुवा स्वयंप्रबुद्धज्ञानेन । किलक्षणे अगत् । प्रमादतः जडत्वकृपे पतितम् ॥१॥हि यसः । देहिना जीवानाम् । एक भवः संसारः ! अरिः शत्रुः । अपरः शत्रुने अस्ति। च पुनः । एक एव रस्मन्नर्थ सुहत् अस्ति । मेन अजितेन । स 'संसारशत्रुः । तदाश्रयात् तस्य रत्नत्रयस्य आश्रयात् । जितः। किंलक्षणः संसार शत्रुः । दुर्जयः । ततः कारणात् । अजितात् जिनतः सकाशात् । मे मम । सत्सुखम् अस्तु ॥ २ ॥ संभवतीर्थकृत् जिनः । नः अस्माकम् । पुनः पुनः पुनातु पवित्रीकरोतु । संभवः संसारः तस्यै दुःखेन दुःखिताः प्राणिनः । ये शरणं प्रपेदिरे ये संभवतीर्थकर प्राप्ताः । कस्मै । तदर्तिनाशाय संसारनाशाय । किंलक्षणं तीर्थकरम् । विमुक्तिवर्मनः मोक्षमार्गस्य । प्रकाशकम् ॥ ३ ॥ तमू अभिनन्दनं जिनम् । विमुपये मोक्षाय । साक्षात् मनोवचमकायै नमामि । यः अभिनन्दनः। निजः गुणः । अप्रतिमः असमानैः । महान् वर्तते । तु पुनः ! त्रिलोकी जनसमूह-अर्चनेन पूजनेन । महान् न । किंलक्षणः अभिनन्दनः । अजः जन्म स्वयम्भू अर्थात् स्वयं ही प्रबोधको प्राप्त हुए जिस आदि (ऋषम ) जिनेन्द्रने प्रमादके वश होकर अज्ञानतारूप कुएं में गिरे हुए जगत्के प्राणियोंका पर-तत्त्व और आस्मतत्त्व ( अथवा उत्कृष्ट आत्मतत्व) के उपदेशमें शोभायमान वचनरूप गुणोंसे उद्धार किया है उस आदि जिनेन्द्रकी आराधना करना चाहिये ।। विशेषार्थ- यहां श्लोकमें प्रयुक्त गुण शब्दके दो अर्थ हैं-हितकारकत्व आदि गुण तथा रस्सी । उसका अभिप्राय यह है कि जिस प्रकार कोई मनुष्य यदि असावधानीसे कुएं में गिर जाता है तो इतर दयालु मनुष्य कुएम रस्सियोंको डालकर उनके सहारेसे उसे बाहिर निकाल लेते हैं। इसी प्रकार भगवान् आदि जिनेन्द्रने जो बहुत-से प्राणी अज्ञानताके वश होकर धर्मके मार्गसे विमुख होते हुए कष्ट भोग रहे थे उनका हितोपदेशके द्वारा उद्धार किया था--- उन्हें मोक्षमार्ग में लगाया था। उन्होंने उनको ऐसे वचनों द्वारा पदार्थका स्वरूप समझाया था जो कि हितकारक होते हुए उन्हें मनोहर भी प्रतीत होते थे। 'हितं मनोहारि च दुर्लभ वचः' इस उक्तिके अनुसार यह सर्वसाधारणको सुलभ नहीं है ॥ १ ॥ प्राणियोंका संसार ही एक उत्कृष्ट शत्रु तथा रखत्रय ही एक उत्कृष्ट मित्र है, इनके सिवाय दूसरा कोई शत्रु अथवा मित्र नहीं है । जिसने उस रत्नत्रयरूप मित्रके अबलम्बनसे उस दुर्जय संसाररूप शत्रुको जीत लिया है उस अजित जिनेन्द्रसे मुझे समीचीन सुख प्राप्त होवे ॥ २ ॥ बार वार जन्म-मरणरूप संसारके दुःखसे पीड़ित प्राणी उस पीडाको दूर करनेके लिये मोक्षमार्गको प्रकाशित करनेवाले जिस सम्भवनाथ तीर्थकरकी शरणमें प्राप्त हुए थे वह सम्भव जिनेन्द्र हमको पवित्र करे ॥ ३ ॥ अज अर्थात् जन्म-मरणसे रहित जो अभिनन्दन जिनेन्द्र अपने अनुपम गुणोंके द्वारा महिमाको प्राप्त हुआ है, न कि तीनों लोकोंके प्राणियों द्वारा की जानेवाली पूजासे; तथा जिसके आगे विश्व तुच्छ है अर्थात् जो अपने अनन्तज्ञानके द्वारा समस्त विश्वको साक्षात् जानता-देखता है उस १क्ष भबोरिरेको । २ स सः' नास्ति । ३ श अस्मान् नः पुनातु पवित्रीकरोतु पुनः पुनः। ४ क संभवस्य संसारस्य । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः [811 : १६५811) नयप्रमाणादिविधानसबर्ट प्रकाशित तस्वमतीय निर्मलम्। यतस्त्वया तत्सुमते ऽत्र तापकं तदन्वयं नाम नमोऽस्तु ते जिन ॥ ५ ॥ 812 ) रराज पचप्रमतीर्थकत्सदस्यशेषलोकत्रयलोकमभ्यगः । नभस्युनातयुतः शशी यथा पचो ऽमृतवर्षति यः स पातु नः ॥६॥ 813) नरामराहीश्वरपीसने अयी घृतायुधो धीरमना पध्ध विनापि सखीनंनु येन निर्जितो जिनं सुपार्श्व प्रणमामि तं सदा ॥७॥ 814) शशिममों वागवृतांशुभिः शशी परं कदाचिन कलङ्कसंगतः। म चापि दोपाकरतां ययौ यतिञ्जयत्यसो संसतितापनाशनः ॥ ८॥ रहितः । यतः कारणात् । विश्व समस्खम् । ला सोकम् ॥ ४॥ मो सुमवे भो जिन । नया यतः अवीव निर्मलं तस्वं प्रकाशितम् । किंलक्षणं संतम् । नयप्रमाणादिविधानसद मय-प्रमाणावियुका। तत्तस्मात्कारणा। बत्र जगति । ताबई नाम । तदन्वयं नपा प्रता] मातम् । ते तुभ्यं नमोऽस्तु ॥ ५॥ पापमतीर्थक्त् जिनः । सपति समवसरणसभामाम् । मशेषरोकायलोकमध्ययः भध्यक्ती । रराज शरमे। सपा नभसि साकाशे। समातयतः तारागणयुक्तः। शकी चन्द्रः । ररावा यः पाप्रमापाचोऽमृते। पति सपनप्रभा नामस्मान पातु रक्षतु तं सुपार्थ जिन सदा प्रणमामि । ननु इति वितः। येन सुपारेन । शर्विनापि । सषष्पजे कामः । निर्जितः । विलक्षणः कामः । नर-अमर-बहीवरनन्द्रधरणेन्द्रचक्रिणां पीबने । जयी जेता ! पुनः विलक्षणः कामः । प्रतायुधः धीरमनाः ॥७॥ मसौ शशिप्रभः पतिः जयति । विलक्षगः श्रीचनप्रमः । संशतितापनाशनः । यः चन्द्रप्रभः माक्-वचन-अमृत-अंशुभिः किरमः । पर श्रेष्ठम् । शशी यः चन्द्रः कदाचित कला अभिनंदन जिनके लिये मैं मुक्तिके प्राप्त्यर्थ नमस्कार करता हूं ॥ ४ ॥ हे समुति जिनेन्द्र ! चूंकि आपने नय एवं प्रमाण आदिकी विधिसे संगत तत्त्व ( बस्तु स्वरूप) को अतिशय निषि रीतिस प्रकाशित किया था, अत एव आपका सुमति (सू शोभना मतिर्यस्यासौ सुभतिः उत्तम बुद्धिवाला) यह नाम सार्थक है। हे जिन ! आपको नमस्कार हो ॥ ५॥ जिस प्रकार आकाशमें तारासमूहले संयुक्त होकर चन्द्र शोभायमान होता है उसी प्रकार जो पद्मप्रभ तीर्थकर समवसरणसमामें तीनों लोकोंके समस्त प्राणियों के मध्यमें स्थित होकर शोभायमान हुआ तथा जिसने वहां वचनरूप अमृतकी वर्षा की थी वह पमपम जिनेन्द्र हमारी रक्षा करे ॥ ६ ॥ जो साहसी मीनकेतु (कामदेव ) शखको धारण करके चक्रवर्ती, इन्द्र और धरणेन्द्रको भी पीड़ित करके उनके ऊपर विजय प्राप्त करता है ऐसे उस कामदेव सुभटको भी जिसने विना शस्त्रके ही जीत लिया है उस सुपा जिनके लिये मैं सदा प्रणाम करता हूं ॥ विशेषार्थ---संसारमें कामदेव (विषयवासना) अत्यन्त प्रवल माना जाता है। दूसरोंकी तो बात ही क्या है, किन्तु इन्द्र, धरणेन्द्र और चक्रवर्ती आदि भी उसके वशमें देखे जाते हैं। ऐसे सुभट उस कामदेवके ऊपर वे ही विजय प्राप्त कर सकते हैं जिनके हृदयमें आत्म-परविवेक जागृत है । भगवान् सुपाचे ऐसे ही विवेकी महापुरुष थे | अत एव उन्हें उक्त कामदेवपर विजय प्राप्त करनेके लिये किसी शस्त्रादिकी भी आवश्यकता नहीं हुई। उन्होंने एक मात्र विवेकबुझिसे उसे पराजित कर दिया था । अत एव वे नमस्कार करनेके योग्य हैं ॥ ७॥ चन्द्रमाके समान प्रभावाले चन्द्रमा जिनेन्द्र यद्यपि बचनरूप अमृतकी किरणोंसे चन्द्रमा थे, परन्तु जैसे चन्द्रमा कलंक (काला चिह) से सहित है वैसे वे कलंक ( पाप-मल) से सहित कभी नहीं थे। तथा जैसे चन्द्रमा दोषाकर (रात्रिको करनेवाला) है वैसे वे दोषाकर ( दोषोंकी खानि ) नहीं ये अर्थात् वे अज्ञानादि सग दोषोंसे रहित थे। वे संसारके कम र प्रतिमोऽनम्। का प्रमुगाम। स पाप ४ मयः। ५ पाप। (स'मसूरी कसि। Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -8191१६-१३] १६. स्वयंभूस्तुतिः २३९ 815) यदीयपादद्वितयप्रणामतः पतस्यधो मोहनधूलिरङ्गिनाम् । शिरोगता मोहटकप्रयोगतः स पुष्पदन्तः सततं प्रणम्यते ॥९॥ 816 ) सतां यदीय वचन सुशीतलं यदेव चन्द्रादपि चन्दनादपि। तवत्र लोके भवतापहारि यत् प्रणम्यते किं न स शीतलो जिनः ॥ १० ॥ 817) जगाये श्रेय तो पयादिति प्रसिद्धनामा जिन एष बन्यते।। ___ यतो जनानां पहुभक्तिशालिनां भवन्ति सधैं सफला मनोरथाः ॥११॥ 818) पवाजयुग्मे तष वासुपूज्य राजनस्यं पुण्यं प्रणतस्प तद्भवेत् । यतो न सा श्रीरिद हि त्रिविष्टपे न तत्सुखं पम पुरः प्रधावति ॥ १२ ॥ 819 ) मलैर्विमुक्तो विमलो न कैर्जिनो यथार्थनामा मुक्ने नमस्कृतः । सदस्य नामस्मृतिरप्यसंशयं करोति वैमस्यमधारमनामपि ॥१३॥ भगतः संयुतः न । च पुनः । यः तीर्थकरः दोषाकरताम् अपि । न यमौ न यातवान् ॥ ८॥ स पुष्पदन्तः जिनः सतत प्रणम्यते । यवीयपादाद्वितयप्रणामतः यस्य पुष्पदन्तस्य पादयस्य प्रणामतः। अमिनो प्राणिनामू। मोहनधूलिः अधः पतति । फिलक्षणा मोहनधूलिः । मोबठकप्रयोगतः शिरोगला ||९| सीतलः जिनः किन प्रणम्यते। अपि तु प्रणभ्यते । यधीय पवमम् । सतां साधूनाम् । चन्दादपि चन्दनायपि मुशीतलम् । यदेव वयः । अत्र लोके । भवतापहारि संसारतापनाशनम् ॥10॥ एषः यः इति प्रसिद्धनामा जिनः वन्द्यते। हि यतः । जगत्रये । इतः श्रेयसः सकाशात् । जनः । श्रेयः सुखम् । भयात् । यतः श्रेयसः । जनानी लोकानाम् । सर्वे मनोरथाः सफला भवन्ति । किंलक्षगानां जनानाम् । बहुभक्तिशालिना बहुभाषियुकानाम् ॥ ११॥ मो वासुपूश्य । तव पदाम्जयुम्मे प्रणतस्य जनस्य । तत्तत्पुण्यं भवेत् । यतः पुण्यात् । इद हि। त्रिविक्षपे लोके । सा श्रीः न सत्सुखं न या श्रीः यत्सुखं पुरः अप्रे न प्रधावति न आगस्छति ॥ १२ ॥ विमल: जिनः । मुक्ने त्रिलोके । के भव्यैः । न नमस्कृतः । अपि तु सर्वेः नमस्कृतः । किलक्षणः विमलः । मलैविमुकः यथार्थनामा । तत्त. सन्तापको नष्ट करनेवाले चन्द्रप्रभ मुनीन्द्र जयवन्त होवें ॥ ८ ॥ जिसके दोनों चरणोंमें नमस्कार करते समय मोहरूप ठगके प्रयत्नसे प्राणियोंके शिरमें स्थित हुई मोहनधूलि (मोइनजनक पापरज) नीचे गिर जाती है उसे पुष्पवन्त भगवान्को मैं निरन्तर प्रणाम करता हूं ॥ विशेषार्थ-प्राणियोंके मस्तक ( मस्तिष्क ) में जो अज्ञानताके कारण अनेक प्रकारके दुर्विचार उत्पन्न होते हैं वे जिनेन्द्र भगवान्के नामस्मरण, चिन्तन एवं बन्दनसे नष्ट हो जाते हैं। यहां उपर्युक्त दुर्विचारोंमें मोहके द्वारा स्थापित धूलिका आरोप करके यह उत्प्रेक्षा की गई है कि मोहके द्वारा जो प्राणियोंके मस्तकपर मोहनधूलि स्थापित की जाती है वह मानो पुष्पदन्त जिनेन्द्रको प्रणाम करनेसे ( मस्तक झुकानेसे ) अनायास ही नष्ट हो जाती है ॥९॥ लोकौ जिसके वचन सजन पुरुषों के लिये चन्द्रमा और चन्दनसे भी अधिक शीतल तथा संसारके तापको नष्ट करनेवाले हैं उस शीतल जिनको क्या प्रणाम नहीं करना चाहिये ! अर्थात् अवश्य ही बह प्रणाम करनेके योम्म है ॥१०॥ तीनों लोकोंमें प्राप्पिसमूह चूंकि इस श्रेयांस जिनसे श्रेय अर्थात् कल्याणको प्राप्त हुआ है इसलिये जो 'श्रेयान्' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध है तथा जिसके निमिससे बहुत भक्ति करनेवाले जनोंके सब मनोरथ (अभिलाषा) | सफल होते हैं उस श्रेयान् जिनेन्द्रको प्रणाम करता हूं ॥ ११ ॥ हे वासुपूज्य ! तेरे चरणयुगलमें प्रणाम करते हुए प्राणीके वह पुण्य उत्पन्न होता है जिससे.तीनों लोकोंमें यहां वह कोई लक्ष्मी नहीं तथा वह कोई सुख भी नहीं है जो कि उसके आगे न दौड़ता हो ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि वासुपूज्य जिनेन्द्रके चरण-कमलमें नमस्कार करनेसे जो पुण्यबन्ध होता है उससे सब प्रकारकी लक्ष्मी और उत्तम सुख प्राप्त होता है॥ १२॥ जो विमल जिनेन्द्र कर्म-मलसे रहित होकर 'विमल' इस सार्थक नामको धारण करते हैं उनको खेको मन्त्र किन भव्य जीवोंने नमस्कार नहीं किया है ! अर्थात् सभी भव्य जीवोंने उन्हें नमस्कार किया ग। २ पाबाचा पम्पयनस । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० नदि पश्चविंशतिः [ 820: १६-१४ 820) अनन्तयोधादिचतुष्टयात्मकं दधाम्यनन्तं हृदि तद्गुणाशया । educa ननु तेन सेव्यते तदवितो भूरितृपेव सरसरः ॥ १४ ॥ 821 ) नमोऽस्तु धर्माय जिनाय मुक्तये सुधर्मतीर्थप्रविधायिने सदा । यमाश्रितो भव्यजनो ऽतिदुर्लभ लभेत कल्याणपरंपरां पराम् ॥ १५ ॥ 822 ) विधाय कर्मक्षयमात्मशान्तिकृज्जगत्सु या शान्तिकरस्ततो ऽभवत् । इति स्वमन्यं प्रति शान्ति कारणं' नमामि शान्ति जिनसुनतश्रियम् ॥ १६ ॥ ङ्गां चिद् द्वितयं विमुक्तये परिभद्वन्द्व विमोचनेन तत् । विशुद्धमासीदिह यस्य मादशां स कुन्थुनाथो ऽस्तु भवप्रशान्तये ॥ १७ ॥ 824 ) विभान्ति यस्याङ्घ्रिनखा नमःसुरस्फुरद्धिरोरक्षमहो ऽधिकप्रभाः । अगगृहे पापतमोविनाशना इव प्रदीपाः स जिनो जयत्यरः ॥ १८ ॥ 823) स्मारकारणात् । अस्य विमलस्य । नामस्मरणम् । असंशयं संशयरहितम् । अघात्मनाम् अपि वैमत्यं करोति निर्मं नैर्मल्यं ] करोति ॥ १३ ॥ अहं श्री - अनन्ततीर्थंकर हृदि दधामि । कया । गुणाशया तस्य अनन्तनाथतीर्थंकरस्य गुणानाम् आशा तथा । किंलक्षणम् अनन्तम् । अनन्तयोधादिचतुष्टयात्मकम् अनन्तज्ञानादिचतुष्टयम्यरूपम् । ननु इति वितर्के । यदों भवेत् यः गुणग्राही भवेत् । तेन पुंसा । तदन्वितः सेव्यते तेन गुणग्राहिणा पुरुषेय सदन्वितः गुणयुक्तः नरः सेव्यते । दृष्टान्तमाह 1 भूरितृषायुकेन पुरुषेण यथा सरः सेव्यते ॥ १४ ॥ धर्माय जिनाय मुक्तये मोक्षाय नमोऽस्तु । किल्क्षणाय धर्माय । सुष्ठधर्मतीर्थप्रविधायिने धर्मवीर्थंकराय । यं धर्मनाथम् । सदाकाले भन्यजनः आश्रितः । कल्याणपरम्पर। प११ सुखश्रेणीवराम् । अतिदुर्लभाम् । लभेत प्रामुयात् ॥ १५ ॥ अहं श्रशान्ति जिनम् उन्नतश्रियं नमामि इति । स्वम् आत्मानम् । च । अन्यं प्रति शान्तिकारणम् । यः श्रीशान्तिनाथः । कर्मक्षयं नाशम् । विधाय कृत्वा । आत्मशान्तिकृत् अभवत् । ततः कारणात् जगत्सु शान्तिकरः ॥ १६ ॥ अङ्गनां दया । वि ज्ञानम् । द्वितयम् । विमुक्तये मोक्षाय । कारणम् । इह लोके । परिग्रहह्नन्द्रविमोचनेन । तत् द्वितयं दयाज्ञानं च विशुद्धम् मासीत् । स कुन्थुनाथः । मादृशौ नरागाम् । भवप्रशान्तये संसारनाशाय । अस्तु भवतु ॥ १७ ॥ सः अरः जिनः जयति । यस्य भरमाथस्य अमितखाः । विभान्ति शोभन्ते । किंलक्षणाः भखाः समन्तः ये सुरा देवाः तेषां देवानां स्फुरन्तः [ न्ति ] शिरोरत्नानि तेषां रत्नानां महसा तेजसा अधिका प्रभा यत्र ते नमत्सुर है । इसीलिये उनके नामका स्मरण भी निश्वयसे पापिष्ठ जनोंके भी उस पाप भलको नष्ट करके उन्हें विमल ( निर्मल) करता है ॥ १३ ॥ जो अनन्त जिन अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्य इन अनन्तचतुष्टयस्वरूप है उसको मैं उन्हीं गुणों ( अनन्तचतुष्टय ) को प्राप्त करनेकी इच्छासे हृदय में धारण करता हूं । ठीक भी है--- जो जिस गुणका अभिलाषी होता है वह उसी गुणसे युक्त मनुष्यकी सेवा करता है । जैसे- अतिशय प्याससे युक्त अर्थात् पानीका अभिलाषी मनुष्य उत्तम तालाब की सेवा करता है ॥ १४॥ जिस धर्मनाथ जिनेन्द्रकी शरण में गया हुआ भव्य जीव अतिशय दुर्लभ उत्कृष्ट कल्याणकी परम्पराको प्राप्त करता है ऐसे उस उसम धर्मतीर्थ के प्रवर्तक धर्मनाथ जिनेन्द्रके लिये मैं मुक्तिप्रासिकी इच्छासे नमस्कार करता हूं ॥ १५ ॥ जो शान्तिनाथ जिनेन्द्र कर्मो को नष्ट करके प्रथम तो अपने आपकी शान्तिको करनेवाला हुआ और तत्पश्चात् जगत् के दूसरे प्राणियोंके लिये भी शान्तिका कारण हुआ, इस प्रकार से जो स्व और पर दोनों की ही शान्तिका कारण है उस उत्कृष्ट लक्ष्मी ( समवसरणादिरूप बाच तथा अनन्तचतुष्टयस्वरूप अन्तरंग लक्ष्मी ) से युक्त शान्तिनाथ जिनेन्द्रको मैं नमस्कार करता हूं ॥ १६ ॥ संसारमें जिस कुन्थुनाथ जिनेन्द्रको मुक्तिके निमित्त अन्तरंग और बाह्य दोनों ही प्रकारकी परिग्रहको छोड़ देनेसे प्राणियोंकी दया और चैतन्य (केवलज्ञान ) ये दो विशुद्ध गुण प्रगट हुए थे वह कुन्थुनाथ जिनेन्द्र मुझ जैसे छमस्थ प्राणियोंके लिये संसारकी शान्ति (नाश ) का कारण होवे || १७ || नमस्कार करते हुए देवोंके प्रकाशमान शिरोरल ( चूडामणि ) की कान्तिसे अधिक कान्तिवाले जिसके पैरों के नख संसाररूप घरमें पापरूप अन्धकारको नष्ट १ शान्तिकारिणन् । २ क आश्रित्य । Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -828:१६-२२] १६. स्वयंभूस्तुति 825) सुरत्सुखी स्यादहितः सुदुःखितः स्वतोऽप्युदासीनतमादपि प्रमोः। पतः स जीयाजिनमल्लिरेकतां गतो जगदिसयकारिवेष्टितः ॥ १९ ॥ 826) विहाय नूनं तृणवत्स्यसंपद मुनियों ऽभवत्र सुनतः। जगाम तमाम विरामवर्जितं सबोपनको समिन सीप न 827) परं परायत्ततयातिदुर्बल वलं खसौख्यं यदसौख्यमेव तत् । अवाप्रमुच्यात्मसुख कृतारो नमिसिनो यः स ममास्तु मुकये ॥२१॥ 828) भरिएसंकर्तनचक्रनेमिताम् उपागतो भव्यजनेषु यो जिनः। स्फुरच्छिरोरलमहोधिकप्रभोः। जगद्गुई प्रबीपा इव । किलक्षणा नहाः । पापतमोविनाशनाः ॥ १८ ॥ स जिनः मलिः जीयात । किलक्षणः महिः । आत्मना सह एकता यमः । जगविस्मयकारी-आश्चर्यकारी चेष्टितः। यतः यस्मादेतोः। सात मित्रः[मित्रम्। खतः आत्मनः सकाशात् । सुखी भवेत् । अहितः सुदुःखितः भवेत् । कस्मात् प्रभोः मशिनाथस्य नाया। उदासीनतमात् ॥१५॥ स सुव्रतः जिनः । मे मम प्रसीदतु प्रसन्नो भवतु। अत्र लोके । यः मुनिसुव्रतः । नूनं स्वसंपदं तृणवत् । विहाय परित्यज्य । प्रतैः मुनिः अभवत् । तत् मोक्षधाम गृहम् । जगाम अगमत् । किलक्षणं मोक्षगृहम् । विरामवर्जितं विनाशरहितम् । पुनः किलक्षणो जिनः । सुबोधरा ॥ २०॥ स नमिर्जिनः मम मुक्तयेऽस्तु । यः नमिः। अदः स्वसौख्य इन्द्रियसूत्रम् 1 प्रमुग्य परित्यज्य । आत्मसुखे कृतादरः आत्मसुखे आवरः कृतः । विलक्षणम् इन्द्रियमुखम् । परायत्ततया पराधीनतया । पर भिगम् । पुनः यत्सौख्यम् । अतिदुर्वल हीनम् । चलं विनश्वरम् । तत्सौख्यम् असौख्यमेव ॥ २१॥ स जिनः जयतात् । यः जिनः । भव्यजनेषु । अरिष्टसंकर्तनचक्रमिताम् उपागतः । अशुभकर्मणः कर्तने छेदनं तस्मिन् छेदने चक्रनेमिता करनेवाले दीपकोंके समान शोभायमान होते हैं वह अरनाथ जिनेन्द्र जयवंत होवे ॥ १८ ॥ अत्यन्त उदासीनता ( वीतरागता ) को प्राप्त हुए भी जिस मल्लि प्रभुके निमित्तसे मित्र स्वयं सुखी और शत्रु स्वयं अतिशय दुःखी होता है, इस प्रकारसे जिसकी प्रवृत्ति विश्वके लिये आश्चर्यजनक है, तथा जो अद्वैतभावको प्राप्त हुआ है वह मल्लि जिनेन्द्र जयवन्त हो । विशेषार्थ- जो प्राणी शत्रुको दुःखी और मित्रको सुखी करता है वह कभी उदासीन नहीं रह सकता है। किन्तु मल्लि जिनेन्द्र न तो शत्रुसे द्वेष रखते थे और न मित्रसे अनुराग भी। फिर भी उनके उत्कर्षको देखकर वे स्वभावतः क्रमसे दुःखी और सुखी होते थे। इसीलिये यहां उनकी प्रवृत्तिको आश्चर्यकारी कहा गया है || १९ ।। जो मुनिसुव्रत यहां अपनी सम्पत्तिको तृणके समान छोड़ करके प्रतों (महानतों) के द्वारा सुव्रत ( उत्तम व्रतोंके धारक) मुनि हुए थे और तत्पश्चात् उस अविनश्वर पद (मोक्ष) को भी प्राप्त हुए थे वे सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शनसे विभूषित मुनिसुव्रत जिनेन्द्र मेरे उपर प्रसन्न होवें ॥ २० ॥ जो इन्द्रियसुख पर (कर्म) के अधीन होनेके कारण आत्मासे पर अर्थात् भिन्न है, अतिशय दुर्बल है, तथा विनश्वर है वह वास्तवमें दुःवरूप ही है । जिसने उस इन्द्रियसुखको छोड़कर आत्मीक मुखके विषयमें आदर किया था वह नेमिनाथ जिनेन्द्र मेरे लिये मुक्तिका कारण होवे ॥२१॥ जो अशुभ कर्मको १२ स्वसौख्यं । २१ यत्र ते अधिप्रमाः। ३ ॐ कारी। ४ च मुनिगर्यो । Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ पानन्दि-पञ्चविंशतिः [0122भरिष्टनेमिर्जगवीति विश्रुतः सऊर्जवम्ते जयतादिसः शिषम् ॥ २२॥ 829) यदूदेशे नमसि भणावहि: प्रमोः फणारत्नकरै प्रभावितम् । पदातिभिर्षा कमठाईते को करोतु पार्श्वःस जिनो ममामृतम् ॥ २३॥ 830) विनोकळोकेशरतां गतोऽपि यः खकीयकायेऽपि तथापि नि:स्पृहः। स वर्षमानो अन्त्यजिनो मताय मे । पातु मोक्ष मुनिपचनम्बिने ॥२४॥ पामारावं प्रातः । इति देतोः । जगति विक्थे । भरिटनेमिः । विश्रुतः विख्यातः । अभवत् । पुनः ऊर्जयन्ते रैवतके । लिवम् इतः मोक्षं गतः ॥ १२॥ स पार्थः जिनः मम अमृतं करोतु मोहा करोतु । बर्षदेझे यस्य पार्यनापस्य उदेशे । नमसि भात्रो। क्षणात् शीघ्रात् । महिप्रमोः धरणेन्द्रस्म । फणार मकरः । प्रभावितं प्रसारितम् । कमठाहतेः' कमळपीरनस । ते कारणाव । पदासिमिः स ॥४॥ स वर्धमानः मन्यजिमः । मे मनम् । मोक्षं ददातु । मे पप्रनन्दिने । नताम नमाय मोक्ष करोतु । यः श्रीवर्षमानः त्रिलोकलोवरतां गतोऽपि तपापि सकीयकादे शारीरे निःसहः ॥ २४ ॥ इति सर्मभूस्वतिः समाप्ता ॥६॥ काटनेके लिये चक्रकी धारके समान होनेसे जगत्में भव्य अनोंके बीच 'अरिष्टनेमि' इस सार्थक नामसे प्रसिद्ध होकर गिरनार पर्वतसे मुक्तिको प्राप्त हुआ है वह नेमिनाथ जिनेन्द्र जयवंत होवे ॥ २२ ॥ जिसके ऊपर आकाशमै घरणेन्द्र के फों सम्बन्धी रत्नोंके किरण कमठके आपातके लिये अर्थात् उसके उपद्रमको व्यर्थ करनेके लिये क्षणभरमें पादचारी सेनाके समान दौरे ये वह पार्श्वनाथ जिनेन्द्र मेरे लिये अमृत अर्थात् मोक्षको करे ॥ २३ ॥ तीन लोकके प्राणियोंमें प्रभुताको प्राप्त होकर मी जो अपने शरीरके विषय में भी ममत्व भावसे रहित है वह वर्धमान अन्तिम तीर्थकर नम्रीभूत हुए मुझ पमनन्दी मुनिके लिये मोक्ष प्रदान करे ।। २४ ॥ इस प्रकार स्वयंभूस्तोत्र समास हुआ ॥१६॥ १ क कमठाहते। २ भ विक्षातः, र विज्ञातः। दक क्षणात् महिप्रभोः। ४श कमठस्य आहत । Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ me [१७. सुप्रभाताष्टकम् ] 831) निःशेषापरणयस्थितिमिशासाम्ते ऽतपयक्षपायो धोते मोहकते गते च सहसा निझामरे दरता । सम्पन्शानदगधियुग्ममभितो विस्फारित यात. हा यैरिह सुप्रभातमपलं तेभ्यो जिनेभ्यो नमः ॥१॥ 832 ) यस्साफसुखप्रदं यवमलं भानप्रभामासुर लोकालोकपथप्रकाशनविषिमा प्रा सात् । उसे सति यत्र जीवितमिव प्रासं परं प्राणिमिः त्रैलोक्याधिपतेजिनस सतत तत्सुप्रभात स्तुचे ॥२॥ 833) एकान्तोसतपादिकौशिकशनष्ट भयावाकुलै जतिं यत्र विशुखोबरनुतिष्पाहारकोलाहलम् । तेम्मो जिनेभ्यो नमः । येः जिनैः । इस मोके । तत् अचल शाश्वतम् । सुप्रभातम् । कार्य प्रारम् । यत्र सुप्रभाते। सम्पहानगझियुम्मै शानदर्शननेयम् । अभितः समन्तात् । मिस्कारितं विस्तारितम् । क सति । निःशेषावरणद्वयस्विविनिशाप्रान्वे महोते (1) सामावरणाविनियाविमाचे सति । कस्मात् मन्तरायक्षयात् । च पुनः । मोहकते । निदामरे धमहे । सहसा दूरतः मते सति॥१॥ लोक्याधिपः शिमस्प तस्सुप्रभात स्तुवैभई खोमि। यत् सुप्रभातम् । सचक्रसुखादं भव्यचक्रवाकमुम्हप्रदम् । यत् अमई निर्मलम् । यत्सुप्रभातम् । ज्ञानप्रभाभासुर वीसिवन्तम्। यस्सुप्रभात लोक-श्रलोकप्रकाविधिोई प्राथम् । यत्र सुश्माते । सकत, एकबारम् । उयूते सति । प्राणिभिः जीवैः । पर भेएम् । जीवितमिव प्राप्तम् ॥ २ ॥ महत्परमेशिनः तत्सुप्रभातम् । पर भेष्ठम् मा मम्ये । यत्सुप्रभातम् । सद्धर्मविभिप्रवर्धनकरम् । पुनः निरुपमम् अपमारहितम् । पुनः जिस सुप्रभातमें समस्त ज्ञानावरण और दर्शनावरण इनको आवसा पानीकी स्थितिरूप रात्रिका अन्त होकर अन्तराय कर्मके क्षयरूपी प्रकाशके हो जानेपर तथा शीघ्र ही मोह कर्मसे निर्मित निद्राभारके सहसा दूर हो जानेपर समीचीन शान और दर्शनरूप नेत्रयुगल सब ओर विस्तारको प्राप्त हुए हैं अर्थात् खुल गये है पेसे उस स्थिर सुप्रभातको जिन्होंने प्राप्त कर लिया है उन जिनेन्द्र देवोंको नमस्कार हो । विशेषार्थजिस प्रकार प्रभातके हो जानेपर रात्रिका अन्त होकर धीरे धीरे सूर्य का प्रकाश फैलने लाता है तथा लोगोंकी निद्रा दूर होकर उनके नेत्रयुगल खुल जाते हैं जिससे कि वे सब ओर देखने लग आते हैं । ठीक इसी प्रकारसे जिनेन्द्र देवोंके लिये जिस अपूर्व प्रभातका लाभ हुआ करता है उसमें रात्रिके समान उनके ज्ञानावरण और दर्शनावरण कोंकी स्थितिका अन्त होता है, अन्तरायकर्मका क्षय ही प्रकार है, मोहकर्मजनित अविवेकरूप निद्राका भार नष्ट हो जाता है । तब उनके केवलज्ञान और फेवलदर्शनरूप दोनों नेत्र खुल जाते हैं जिससे थे समस्त ही विश्वको स्पष्टतया जानने और देखने गते हैं। ऐसे उन अलौकिक भविनश्वर सुप्रभातको प्राप्त करनेवाले जिनेन्द्रोंके लिये यहाँ नमस्कार किया गया है ॥ १ ॥ जो सुप्रभात सचक्र अर्थात् सज्जनसमूहको मुख देनेवाला ( अथवा उत्तम चक्रवाक पक्षियों के लिये सुख देनेवाला, अथवा समीचीन पारसको धारण करनेवाले चक्रवर्तक सुखको देनेवाला ), निर्मल, जानकी प्रभासे प्रकाशमान, लोक एवं अलोक रूप स्थानके प्रकाशित करनेकी विधिमें चतुर और उत्कृष्ट है तथा जिसके एक वार प्रकट होनेपर मानो प्राणी उत्कृष्ट जीरनको ही प्राप्त कर लेते हैं। ऐसे उस तीन लोकके अधिपतिस्वरूप जिनेन्द्र भगवान के सुप्रभातकी में निरन्तर स्तुति करता है ।। २ ॥ जिस सुप्रभातमें सर्वथा एकान्तवावसे उद्धत सैकड़ों.प्रथादीसप उल्ल पनी भयसे माद मोते, मजयोपाते। २५ याममान । पार्म.. Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पअनन्दि-पञ्चविंशतिः [839 : १७-३परसद्धर्मविषिप्रवर्षमकर उत्सुप्रभातं पर मन्ये ऽईस्परमेष्ठिनो निवपमं संसारसंतापात् ॥ ३॥ 884) सानन्दं सुरसुन्दरीभिरभितः शायदा गीयते प्रातः भातरधीश्वर यवतुलं पतासिक पच्यते । पवाभावि नरेश फणिभिः कन्याजनादायत स्तदन्दे जिनसुप्रभातमखिलत्रैलोक्याइर्षप्रदम् ॥ ४॥ 835) उधोते सति पत्र नश्यति सरां छोके उपचारोऽचिरं दोषेशो ऽतरतीच यत्र मलिनो मन्दप्रभो जायते । यत्रानीतितमस्ततेर्विघटनाजाता दिशो निर्मला बन्ध नन्दतु शाश्वत जिनपतेस्सस्सुप्रभात परम् ॥ ५॥ संसारसंतापहत् संसारासापनाशनम् । यत्र सुप्रभाते । एकान्त-उद्धतवाविकौशिकपातेः एकान्दमिथ्यात्ववारिकौशिकसहनैः । भयात् । माकुलः व्याकुलः । मष्टं जातम् । यत्र सप्रमाते विशुद्धोबरतुतिम्याहारकोलाहलं जातं बेचरस्तुतिवचनैः कोलाहल जातम् ॥1॥ तबिमसुप्रभातमहं वन्दे । किंलक्षणं सुप्रभातम् । मसिलत्रैलोक्यहर्षप्रदम् । मरमासः सुरसुन्दरीमिः । सार्धम् । शकः इन्द्रः । अभितः समन्तात् । सानन्दं यथा सातया भागीयते । यत् प्रातः । अधीश्वर स्वामिनम् उदिश्य । अतुलं यथा स्यात्तथा । बेतासिक बन्दिजनः पवते । व पुनः । यत्प्रातः । नभरः विद्याधरैः पक्षिभिः। फणिभिः धरणेन्द्रः । अश्रावि श्रुतम् । यत्प्रातःकन्याजनात् नागसम्माजमातू गायतः । त्रिलोकनिषासिजनः भूतम् ॥४॥ जिनपतेः श्रीसर्वशस्य । रुस प्रभातं नन्दतु । किसाणं सुप्रभातम् । वन्धम् । शाचतम् । पर प्रकृष्टम् । यत्र सुप्रभाते उपोते सति । लोके सेकषिषये। अपचौरः पापचौरः । तराम अतिशयेन । नश्यति बिलीयते । यत्र सुप्रमाते । दोषेशः मोहः । मन्दप्रभः आयते । यतश्च मन्दप्रमः जायते । किलक्षणो मोहबरम । अन्तः मध्ये । अतीरमलिनः । यत्र सुप्रभाते । अनीतितमस्वतः वर्णयतमःसमस्यै विघटनात् व्याकुल होकर नष्ट हो चुके हैं, जो आकाशगामी विधाघरों एवं देवों के द्वारा की जानेवाली विशुद्ध स्तुति के शब्दसे शब्दापमान है, जो समीचीन धर्मविधिको बढ़ानेवाला है, उपमासे रहित अर्थात् अनुपम है, तथा संसारके सन्सारको नष्ट करनेवाला है, ऐसे उस अरहंत परमेष्ठीके सुप्रभातको ही मैं उत्कृष्ट सुप्रभात मानता हं ॥ ३ ॥ इन्द्रों के साथ देवांगनाएं जिस सुप्रभातका आनन्दपूर्वक सब ओर गान करती हैं, बंदीजन अपने स्वामीको लक्ष्य करके जिस अनुपम सुप्रभातकी स्तुति करते हैं, तथा जिस सुप्रभातको विद्याधर और नागकुमार जातिके देन गाती हुई कन्याजनोंसे सुनते हैं। इस प्रकार समस्त तीनों भी लोकोंको हर्षित करनेवाले उस जिन भगवान्के सुप्रभातकी में बन्दना करता हूं ॥१॥ जिस सुप्रभातका प्रकाश हो जानेपर लोकमें पापरूप चोर भतिशय क्षीण न हो जाता है, जिस सुप्रभातके प्रकाशमें दोषेश अर्थात् मोहरूप चन्द्रमा भीतर अतिशय मलिन होकर मन्दप्रभावाल हो जाता है, तथा जिस सुप्रभातके होनेपर अन्यायरूप अन्धकारसमूहके नष्ट हो जानेसे दिशायें निर्मल हो जाती हैं। ऐसा वह वन्दनीय व अविनश्वर जिन भगवान्का उत्कृष्ट सुप्रभात वृद्धिको प्राप्त होवे || विशेषार्थ-प्रभात समयके हो जानेपर रात्रिमें संचार करनेवाले चोर भाग जाते हैं, दोषेश (रात्रिका स्वामी चन्द्रमा) मलिन वं मन्दप्रभावाला ( फीका) हो जाता है, तथा रात्रिजनित अन्धकारके नष्ट हो जानेसे दिशायें निर्मल हो जाती हैं। इसी प्रकार जिन भगवान्को जिस अनुपम सुप्रभातका लाभ होता है उसके होनेपर चोरके समान चिरकालीन पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, दोषेश ( दोपोंका स्वामी मोह) कान्तिहीन होकर दूर भाग जाता है, तथा अन्याय व अत्याचारके नष्ट हो जानेसे सब ओर प्रसन्नता छ्य १श वझिमिः । २स चौरम्रि । मतमोसमूहस्य । Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -897:१७७] १७. सुप्रभाताटकम् 836 ) मागे यत्प्रकटीकरोति हरते दोगनुषास्थिति लोकानां विदधाति राष्टिमचिरावर्थावलोकक्षमाम् । कामासधियामपि कशयति प्रीति प्रियायामिति प्रातस्तुल्यतयापि को ऽपि महिमापूर्वः प्रमातोऽहताम् ॥ ६॥ 837) यानोरपि गोचरं न गतवान् चिचे स्थित तत्तमो भव्यानां वलयत्तथा कुपलये कुर्याद्विकाराधियम् । दिवाः निर्मलाः जाताः । पक्षे उपदेशः ॥ ५॥ अईता सर्वज्ञानाम् । प्रभातः । इति अमुना प्रकारेण । प्रातस्तुल्यतयापि शेऽपि अपूर्वमहिमा वर्तते । यत्सुप्रभात मार्ग प्रकटीकरोति । दोषानुषा स्थिति दोषसंसर्गस्थितिम् । इरते स्फेटपति । लोकानां दृष्टिम् , अविरात अर्यावलोकक्षमाम् । विवधाति करोति । यरसुप्रभात कामासक्तधियाम् अपि प्रियाया प्रीति कशयति । पक्षे रामाविप्रीति शयति क्षीणां ] करोति । इति हेतोः अपूर्वमहिमा प्रभातः वर्तते ॥ ॥जेनं श्रीसुप्रभात सदा काले । वः युप्माकम् । क्षेम विवधातु करोतु । विलक्षण प्रभातम् । अवमम् असाशम् । यस्सुप्रभातम् । भम्याना तत्तमः दलप्यत्, स्फेटयत् यामः भानोरपि सूर्यस्यापि । गोचरं गम्यम् । म गतवत् न प्राप्तम् । यत्तमः शिस स्थितम् । यत्प्रभात कुवलये भूमण्ड विकात्रिय पुवत् । यदिद जाती है। वह जिनेन्द्र देवका सुप्रभात वन्दनीय है ।। ५ ॥ अरहंतोंका प्रभात मार्गको प्रगट करता है, दोषोंके सम्बन्धकी स्थितिको नष्ट करता है, लोगोंकी दृष्टिको शीघ्र ही पदार्थके देखनमें समर्थ करता है, तथा विषयभोगमें आसक्तबुद्धि प्राणियोंकी स्त्रीविषयक प्रीतिको कृश (निर्बल) करता है। इस प्रकार वह अरहंतोंका प्रभात यधपि प्रभातकालके तुल्य ही है, फिर भी उसकी कोई अपूर्व ही महिमा है। विशेषार्थ--जिस प्रकार प्रभातके हो जानेपर मार्ग प्रगट दिखने लगता है उसी प्रकार अरहन्तोंके इस प्रभातमें प्राणियोंको मोक्षका मार्ग दिखने लगता है, जिस प्रकार प्रभात दोषा (रात्रि) की संगतिको नष्ट करता है उसी प्रकार यह अहंतोंका प्रभात राग-द्वेषादिरूप दोषोंकी संगतिको नष्ट करता है, जिस प्रकार प्रभात लोगोंकी दृष्टिको शीघ्र ही घट-पटादि पदार्थोके देखनेमें समर्थ कर देता है उसी प्रकार यह अरहंतोंका प्रभात प्राणियोंकी दृष्टि (ज्ञान) को जीवादि सात तत्त्वोंके यथार्थ स्वरूपके देखने-जाननेमें समर्थ कर देता है, तथा जिस प्रकार प्रभात हो जानेपर कामी जनकी स्त्रीविषयक प्रीति कम हो जाती है उसी प्रकार उस अरहंतोंके प्रभातमें मी कामी जनकी विषयेच्छा कम हो जाती है । इस प्रकार अरहंतोंका वह प्रभात प्रसिद्ध प्रमातके समान होकर भी अपूर्व ही महिमाको धारण करता है ।। ६ ॥ भन्य जीवोंके हृदयमें स्थित जो अन्धकार सूर्यके गोचर नहीं हुआ है अर्थात् जिसे सूर्य भी नष्ट नहीं कर सका है उसको जो जिन भगवान्का सुप्रभात नष्ट करता है, जो कुवलय ( भूमण्डल) के विषयमै विकाशलक्ष्मी (प्रमोद ) को करता है - लोकके सब प्राणियोंको हर्षित करता है, तथा जो निशाचरों (चन्द्र एवं राक्षस आदि) के भी तेज और सुखका पात नहीं करता है; वह जिन भगवान्का अनुपम सुप्रभात सर्वदा आप सबका कल्याण करे ॥ विशेषार्थ-- लोकमसिद्ध प्रभातकी अपेक्षा जिन भगवान के इस सुप्रभातमें अपूर्वता है। वह इस प्रकारसे-प्रभातका समय केवल रात्रिके अन्धकार को नष्ट करता है, वह जीवोंके अभ्यन्तर अन्धकार (अज्ञान )को नष्ट नहीं कर सकता है। परन्तु जिन भगवान् का यह सुप्रभात भव्य जीवोंके हृदयमें स्थित उस अज्ञानान्धकारको भी नष्ट करता है। लोकमसिद्ध प्रभात १४ पूर्वप्रभातो, र पूर्वप्रमावे। Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ Aurnwww.r पमनन्दि-पश्चविंशतिः [898 : १७७तेजसौल्याहतेरकर्ट यदि नकंचराणामपि क्षेमं वो विदधातु जैनमसमं श्रीसुप्रभातं सदा । 898 ) भव्याम्भोरदनन्दिकेवलरविः नामोति पत्रोवर्ष दुष्कोदयनिद्या परिष्कृतं जागर्ति सर्षे अगत् । नित्यं यैः परिपठ्यते जिनपतेरेतत्प्रभाताष्टकं वेषामाशु विनाशमेति दुरितं धर्मः सुखं वर्धते ॥ ८ ॥ सुप्रभातम् । नतंचराणा देवचन्द्रराक्षसारीमाम् । सौल्यइतेः तेजा भर्न 'हन हिंसागयोः देवादीना मुलेन गमनस्य तेजः तस्य तेजसः अका भकारकम् ॥ ७॥ यत्र सुप्रभाते। भठ्याम्मोहनन्दिकेवलरविः उदय प्रामोति । यत्र यस्मिन् प्रमाते । सविते सति । सर्व जगत् दुष्कर्मोदयनिया परिहतं सतम्। जागति एतत् जिनपतेः प्रभाताष्टकम् । यैः भव्यैः । नित्य सदैव । परिपत्यते । तेषा भव्यानाम् । दुरित पापम् 1 भाशु शीघ्रण। विनाशम् एति विलयं गच्छति । धर्मः सुखं वर्धते ॥८॥ इति सुप्रभाताष्टकम् ॥१४॥ कुवलय (सफेट कमल) को विकसित नहीं करता, बल्कि उसे मुकुलित ही करता है परन्तु जिन भगवान्का सुप्रभात उस कुवलयको ( भूमण्डलके समस्त जीवोंको) विकसित (प्रमुदित) ही करता है। लोकप्रसिद्ध प्रभात निशाचरों (चन्द्र, चोर एवं उलूक आदि) के तेज और सुखको नष्ट करता है, परन्तु जिन भगवान्का वह सुप्रभात उनके तेज और सुखको नष्ट नहीं करता है। इस प्रकार वह जिन भगवान्का अपूर्व सुप्रमात सभी प्राणियोंके लिये कल्याणकारी है ॥ ७॥ जिस सुप्रभातमें मव्य जीवोरुप कमलोंको आनन्दित करनेवाला केवलप डरयो राप्त होगा तथा सम्पूर्ण जगत् ( जगत्के जीव) पाप कर्मके उदयरूप निदासे छुटकारा पाकर जागता है अर्थात् प्रबोधको प्राप्त होता है उस जिन भगवान्के सुप्रभातकी स्तुतिस्वरूप इस प्रभाताष्टकको जो जीव निरन्तर पढ़ते हैं उनका पाप शीघ्र ही नाशको प्राप्त होता है तथा धर्म एवं सुख वृद्धिंगत होता है। विशेषार्थ-जिस प्रकार प्रभातके हो जानेपर कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाला सूर्य उदयको प्राप्त होता है उसी प्रकार जिन भगवान्के उस सुप्रभातमें भव्य जीवोंको प्रफुल्लित करनेवाला केवलज्ञानरूप सूर्य उदयको प्राप्त होता है तथा जिस प्रकार प्रभातके हो जानेपर जगत्के प्राणी निद्रासे रहित होकर जाग उठते हैं उसी प्रकार जिन भगवान के प्रभातमें जगत्के सब प्राणी पापकर्मके उदयस्वरूप निद्वासे रहित होकर जाग उठते हैं-प्रबोधको प्राप्त हो जाते हैं। इस प्रकार यह जिन भगवान्का सुप्रभात अनुपम है। उसके विषयमें जो श्रीमुनि पद्मनन्दीने आठ श्लोकोंमें यह स्तुति की है उसके पढ़नेसे प्राणियोंके पापका विनाश और धर्म एवं सुखकी अभिवृद्धि होती है ॥ ८ ॥ इस प्रकार सुप्रभाताष्टक समाप्त हुआ ॥ १७ ॥ 4000 - - - ११चा सदिद। १२ । Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : marwA [ १८. शान्तिनाथस्तोत्रम्] 889 } त्रैलोक्याधिपसिन्वसूचनपर लोकेश्वरैरुद्धत यस्योपर्युपरीन्दुमण्डलांने छनषयं राजते। अश्रान्तोद्गतकेवलोज्वलरुवा निर्भत्सितार्म सो ऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥ १॥ 840) वेषः सर्व विदेष पष परमो नास्यत्रिलोकीपतिः । सन्त्यस्यैव समस्ततत्त्वविषया पाचः सतां संमताः। एतद्धोषयतीव यस्य विबुधैरास्फालितो दुन्दुभिः सोऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथ सदा ॥२॥ 841) दिव्यत्रीमुखपकजैकमुकुरप्रोल्लासिनानामकि स्फारीभूतविचित्ररश्मिरचिताननामरेन्द्रायुकैः। सचित्रीकृतवातवर्मनि लससिहासने यः तिः सोऽस्मान् पातु निरअनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाय सदा ॥३॥ 842) गम्धाकृष्ठमधुमतजस्तापारिता कुर्वती। स्तोत्राणीध विधः सुरैः सुमनसा वृष्टिर्यदने ऽभवत् । स श्रीशान्तिनाथः अमान् सदा पातु रक्षतु। किंलक्षणः श्रीशान्तिनाषः। निरभवः। जिनपनि कमीशान्तिी नायस्य । उपर्यपरि छात्रयम्। राजते शोभते । किलक्षणं छात्रयम् । लोक्याधिपवित्वमा , यसपासमामिलायाचनाम् ।। पुनः विलक्षण एवत्रयम् । लोकेश्वरैः उस्तम् इन्द्रादिभिः धृतम्। पुनः किलक्ष पत्रकार इन्दुमाकरिश्माम्बालसदशम् । पुनः किंलक्षणं छत्रत्रयम् । अवान्तम् अनवरतम् । उद्तकेवलोऊवलाषा रीप्ला स्ला नियमित प्रयासपतिसयतेजः॥॥स श्रीशान्तिनाथः। सदा सर्वकाले। अस्माम् पातु रक्षता किलक्षषः शामिान्यामा निसान बिनापति यस्य श्रीशान्तिनाथस्य दुन्दुभिः। विधुधैः देवैः । आस्फालितः ताडितः । एतद्धोषयतीव । मति । एषा श्रीमान्तिमा सर्ववित् । परमः श्रेष्ठ: । त्रिलोकीपतिः। अन्यः म। अस्म श्रीशान्तिनाथस्य । वाचः। स खानाम् ।माअबीघा कथिताः सन्ति । विलक्षणा पाच । समस्ततत्वविषयाः ॥२॥ श्रीशान्तिनाथः समान पनु सात मीशान्ति सिंहासने स्थितः1 किलक्षणे सिंहासने । विख्यत्रीमुखपजेकमुकुरप्रोग्रासिमानामणिसारी नामिविचालिमाविधानमनास्तापाया कृत्वा सचित्रीकृतवात्तवर्मनि कुर्युरीकृत-आकाशे ॥ ३ ॥ स श्रीशान्तिनाथः अस्मान पात रखनु । यो यात्मा शान्तिानास जिस शान्तिनाथ भगवान के एक एकके ऊपर इद्रोंके द्वारा धारण कि ममें चन्द्रमामा के समान तीन छन तीनों लोकोंकी प्रभुताको सूचित करते हुए निरन्तर उदित हनेवाले केवलानरमा निर्मक ज्योतिके द्वारा सूर्यकी प्रभाको तिरस्कृत करके सुशोभित होते हैं वह पापरूप कालिमा महिला प्रीशान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी सदा रक्षा करे ॥१॥ जिसकी मेरी देवों द्वारा वादित होकर मानो यही घोषणा करती है कि तीनों लोकोंका स्वामी और सर्वज्ञ यह शान्तिनाथ जिनेन्द्र ही उत्तर देव है और दूसरा नाही है। तथा समस्त तत्वोंके यथार्थ स्वरूपको प्रगट करनेवाले इसीके वचन सम्बनीको अभीष्ट है, दूसरे किसीके भी बचन उन्हें अभीष्ट नहीं है; यह पापरूप कालिमासे रहित श्रीशान्तिनाब जिनेन्द्र हम आगोंकी सदा स्मा करे ॥२॥ जो शान्तिनाथ जिनेन्द्र देवांगनाओंके मुखकमलरूप अनुपम दर्पणमें दैदीप्यमान कक माणियोंकी फैलनेवाली विचित्र किरणोंके द्वारा रचे गये कुछ नम्रीभूत इन्द्रधनुषोंने अाकाशको सनातनताप्पा विचित्र (अनेक वर्णमय) करनेवाले सिंहासनपर स्थित है वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाम भामत्यान सदा हम लोगोंकी रक्षा करे.॥ ३ ॥ जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्रके आगे देवोंक द्वाखा ज्यापरिता हुई आर्थात एक सचिरीकत। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ पसनन्दि-पञ्चविंशतिः [842:१८४सेवायातसमस्तविष्टपपतिस्तुस्याश्रयस्पर्सया सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥ ४॥ 843) खद्योती किमुतानलस्य कणिके शुभ्राभलेशावथ, सूर्याचन्द्रमसाविति प्रगुणितौ लोकालियुग्मैः सुरैः। सत्येते हि यदप्रतो ऽतिविशदं सद्यस्य भामण्डल सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ५॥ 84) यस्याशोकतरुविनिदसुमनोगुच्छप्रसक्तैः कण श्रीभक्तियुतः प्रभोरहरहर्गायनिवास्ते यशः। शुभ्र साभिनयो मरुषललतापर्यन्तपाणिश्रिया सोऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथा सदा ॥ ६ ॥ 845) विस्तीर्णाखिलवस्तुतत्त्वफथनापारप्रवाहोजवला मिशेषार्थिनिषेषितातिशिशिरा शैलादिषोतुगतः । अप्रे । दिवः आकाशात् । सरैः देवैः । कूता। सुमनसा पुष्माणाम् । वृष्टिः अभवत् । किंलक्षणा पष्टिः । गन्धाष्टमधुनतमस्तैः शब्दैः । व्यापारिता शम्दायमाना। स्वोत्रापि कृतीय। कया । सेवाभायाससमस्त विष्टपपतिस्तुस्थाश्रयस्पर्वया ॥ ४ ॥ स श्रीशान्तिमाथः अस्मान् पाद रक्षतु । यस्य धीशान्तिनापस्य तत् भामण्डलमतिविशद वर्तते । यदमतः यस्य भामण्डलस्य भने । हि यतः । सुरैः देवैः। सूर्याचन्द्रमसौ तक्येत्ते इति । किम् । सद्योती। उस महो । अनलस्य रैमा । कणिके दे। भय शुभअभ्रदेशी लोके 'भोडलखण्डौ' । लोकाक्षियुम्मैः इति । प्रणिती विद्यारिती ॥५॥ स श्रीशान्तिनायः अस्मान् । पातु रहनु । यस्य श्रीशान्तिमायस्य । अशोकतहः वणवा । प्रभोः श्रीशान्तिनाथस्य । हु यक्षः । अहः अहः प्रतिदिनम् । गायत्रिव । भावे सिष्ठति । किलक्षणैः मुझे। विनिद्रसुमनोगुच्छप्रसस्तः विकसितपुष्पगुणेषु भासः । किंलक्षणः अशोकतमः । भफियुतः । पुनः किलक्षणः शोकतरुः । मरुचललतापर्यन्तपाणिनिया मक्ता पवनेन चल चन्चलीकृत लतापर्यन्त सतान्त तदेव पाणिः हवं तस्य चिया कृस्वा। साभिनयः मर्तनयुक्तः ॥॥ श्रीशान्तिमायः अस्मान् पातु रक्षतु । यतः श्रीशान्तिनायात् । सरखती। प्रोभूता उत्पन्ना। किंलक्षणा सरखती। पुरनुता देवैः वन्दिता । पुनः किलक्षणा सरस्वती । विश्वं त्रिलोकम् । पुनाना पवित्री की गई जो आकाशसे पुष्पोंकी वर्षा हुई थी वह गन्धके द्वारा खींचे गये अमरसमूहके शब्दोंसे मानों सेवाके निमित्त आये हुए समस्त लोकके स्वामियों द्वारा की जानेवाली स्तुति के निमित्तसे स्पर्धाको प्राप्त हो करके स्तुतियों को ही कर रही थी, वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी रक्षा करे|४| जिस शान्तिनाथ भगवानका अत्यन्त निर्मल यह भामण्डल है जिसके कि आगे लोगोंके दोनों नेत्र तथा देव सूर्य और चन्द्रमाके.विषयमें ऐसी कल्पना करते हैं कि ये क्या दो जुगनू हैं, अथवा अग्निके दो कण हैं, अथवा सफेद मेधके दो टुकडे हैं; वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी रक्षा करें। विशेषार्थ-- अभिप्राय यह है कि भगवान् शान्तिनाथ जिनेन्द्रका प्रभामण्डल इतना निर्मल और देदीप्यमान था कि उसके आगे सूर्य-चन्द्र लोगोंको जुगनू, अग्निकण अथवा धवल मेघके खण्डके समान कान्तिहीन प्रतीत होते थे । ५ ॥ जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्रका अशोकवृक्ष विकसित पुष्पोंके गुच्छोंमें आसक्त होकर शब्द करनेवाले भोरोंके द्वारा मानो भक्तियुक्त होकर प्रतिदिन प्रभुके धवल यशका गान करता हुआ तथा वायुसे चंचल लताओंके पर्यन्तभागरूप भुजाओंकी शोभासे मानो अभिनय (नृत्य) करता हुआ ही स्थित है वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोनोंकी सदा रक्षा करे ॥ ६ ॥ उन्नत पर्वतके समान जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्रसे उत्पन्न हुई दिव्य वाणीरूप सरखती नामक नदी ( अथवा गंगा) विस्तीर्ण समस्त वस्तुखरूपके व्याख्यानरूप अपार प्रवाहसे उज्वल, सम्पूर्ण अर्थी जनोंसे सेवित, अतिशय शीतल, देवोंसे स्तुत तथा विश्वको पवित्र करनेवाली है। यह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंझी १क अमे: नास्ति । २ 'लसान्त' नास्ति । Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -847:१८१ १८. शान्तिनाथस्तोत्रम् २३९ प्रोद्भूता हि सरस्वती सुरनुता विश्वं पुनाना यतः सो ऽस्मान् पातु निरञ्जनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥ ७ ॥ 846) लीलोद्वेलितबाहुकरणरणत्कारमहष्टैः मुरैः चचश्चन्द्रमरीचिसंचयसमाकारैश्चलचामरैः। नित्यं यः परिवीज्यते त्रिजगतां नाथस्तथाप्यस्पृहः सो ऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥ ८ ॥ 847 ) निःशेषथुतबोधवृयमतिभिः प्राज्यैरुवारैरपि स्तोत्रैर्यस्य गुणार्णवस्य हरिभिः पारो न संप्राप्यते । भन्याम्भोरुहनन्दिकेवलरविर्मपत्या मयापि स्तुतः । सो ऽस्मान् पातु निरजनो जिनपतिः श्रीशान्तिनाथः सदा ॥९॥ कुर्वाणा पुनः किलक्षणा वाणी। विस्तीर्ण। भखिलवस्तुतत्वकपनअपारप्रवाहेन उज्वला पुनः किलक्षणा वाणी। निःशेषार्षिनिषेषिताः निःशेषयाचकैः सेविता । पुनः किंलक्षणा वाणी। अतिशिशिरा अतिशीतला । उत्तुतः शैलात् हिमालयात् । उत्पका मना इव ॥ ७॥ स श्रीशान्तिनाथः अस्मान् पातु रक्षतु । यः श्रीशान्तिनाथः। सुरैः देवः। चामरैः। नित्यं सदैव । परिवीज्यते। किलक्षणः सुरै।। लीलया उद्वेलितानि याहुकरणानि तेषां बाहुकणानां रणकारेण प्रहृष्टैः हर्षितः । किलक्षणः चामरैः । चक बन्दमरीचिसंचयसमाकारे चन्द्रकिरणसमामः । त्रिजगतां नाथः तथापि अस्पृहः वाष्छारहितः॥४॥स धीशान्तिनाथः मस्मान् पातु रक्षतु । किलक्षणः धीशान्तिनाथः। निरञ्जनः । जिनपतिः । यस्य श्रीशान्तिनाथस्य । गुणार्णवस्य गुणसमुद्रस्य । हरिभिः इन्द्रः। स्तोत्रैः कृत्वा पारः न संप्राप्यते । किंलक्षणः इन्द्रः । निःशेषश्रुतबोधयुद्धमतिभिः द्वादशाशन पूर्णमतिभिः। किंलक्षणः हो। प्राज्यैः उदारैः । गम्भीरैः प्रचुरैः । स श्रीशान्तिनाथः भक्त्या कृत्वा । मया पपनन्दिना स्तुतः । किंलक्षणः स श्रीशान्तिनाथः । भव्याम्भोहनन्दिकेवलरविः भव्यकमलप्रकाशन करविः सूर्यः ॥ ९॥ इति श्रीशान्तिनाथस्तोत्रम् ॥ १८ ॥ सदा रक्षा करे ॥ विशेषार्थ—यहां भगवान् शान्तिनाथकी वाणीकी सरस्वती नदीसे तुलना करते हुए यह बतलाया गया है कि जिस प्रकार सरस्वती नदी अपार निर्मल जलप्रवाहसे संयुक्त है उसी प्रकार भगवान्की वाणी विस्तीर्ण समस्त पदार्थोके स्वरूपके कथनरूप प्रवाहसे संयुक्त है, जिस प्रकार सानादिके अभिलाषी जन उस नदीकी सेवा करते हैं उसी प्रकार तत्त्वके जिज्ञासु जन भगवान्की उस वाणीकी भी सेवा करते हैं, जिस प्रकार नदी गर्मसेि पीड़ित प्राणियोंको स्वभावसे शीतल करनेवाली होती है उसी प्रकार मगवान्की वह वाणी भी प्राणियोंके संसाररूप सन्तापको नष्ट करके उन्हें शीतल करनेवाली है, नदी यदि ऊंचे पर्वतसे उत्पन्न होती है तो वह वाणी मी पर्वतके समान गुणों से उन्नतिको प्राप्त हुए जिनेन्द्र भगवानसे उत्पन्न हुई है, यदि देव नदीकी स्तुति करते हैं तो वे भगवान्की उस वाणीकी भी स्तुति करते हैं; तथा यदि नदी शारीरिक बास मलको दूर करके विश्वको पवित्र करती है तो वह भगवान्की वाणी प्राणियोंके अभ्यन्तर मल ( अज्ञान एवं राग-द्वेष आदि) को दूर करके उन्हें पवित्र करती है। इस प्रकार वह शान्तिनाथ जिनेन्द्रकी याणी नदीके समान होकर भी उससे उत्कृष्टताको प्राप्त है। कारण कि वह तो केवल प्राणियों के बाद मलको ही दूर कर सकती है, परन्तु बह भगवान्की वाणी उनके अभ्यन्तर मलके भी दूर करती है ॥७॥ तीनों लोकोंके स्वामी जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्र के ऊपर लीलासे उठायी गई भुजाओंमें स्थित कंकणके शब्दसे हर्षको प्राप्त हुए देव सदा प्रकाशमान चन्द्रकिरणोंके समूह के समान आकारखाले चंचल चामरोंको दोरते हैं, तो भी जो इच्छासे रहित है। वह पापरूप कालिमासे रहित शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी सदा रक्षा करे ॥८॥ समस्त शास्त्रज्ञानसे वृद्धिंगत बुद्धिवाले इन्द्र भी बहुतसे महान् स्तोत्रों के द्वारा जिस शान्तिनाथ जिनेन्द्रके गुणसमूहका पार नहीं पा पाते हैं उस भव्य जीवोरूप कमलोंको प्रफुल्लित करनेवाले ऐसे केवलज्ञानरूप सूर्यसे संयुक्त जिनेन्द्रकी मैंने जो भी स्तुति की है वह केवल भक्तिके वश होकर ही की है। वह पापरूप कालिमासे रहित श्री शान्तिनाथ जिनेन्द्र हम लोगोंकी सदा रक्षा करे ॥ ९ ॥ इस प्रकार शान्तिनाथ स्तोत्र समाप्त हुआ.. १८ ।। -... ...... - --- १चकि Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१९. श्रीजिनपूजाष्टकम् ] 848) जातियमरणमित्यनकायस्य जीवामितस्य तापकतो यथावत् । विण्यापनाय जिनपावयुगाप्रभूमी भारात्रय प्रबरवारिकतं क्षिपामि १॥ 849) पदाची बिनपदभवतापहा नाद सुशोतलमपोह भयामि तद्वत् ।। कर्पूरसम्बन मितीष मयार्पितं सत् स्वरपादपङ्कजसमाश्रयणं करोति ॥२॥ 850) राजपसौ शुचितराक्षतपुजयजिवचाधिकस्य जिनमक्षतममधूतः । वीरस्य मेतरजनस्य तु पीरपटो पदः शिरस्यासित भियमातनोति ॥३॥ 851) साक्षायपुष्पशर एवं जिमस्तवेनं संपूजयामि शुचिपुष्पशरैमनोह।। नाम्यं तदाश्रयतया किल पन यत्र सचम भ्यमधिकां कुयते च लक्ष्मीम् ॥ ४॥ जिनपावयुगामभूमौ । प्रवरसारितं मलकत भारावयं क्षिपामि । अहम् इति भष्याहारः । प्राविः जन्म जरा मरणम् इति अनरूत्रयस्य । स्थावत् विधिपूर्वकम् । विष्यापनार शान्तये । किलक्षणस्य अनलत्रयस्य । जीवेषु माश्रितस्य । पुनः बहुतापाहता भातापचारकस्य जलधारी रचन्दनं स्वत्पादपहजसमाश्रयणं करोति। भो देव । पूरबम्वनं तव वरण-भाश्रय मोति। भया पूजकेन । मर्पित इतम् । सत् समीचीनम् । इतीव । इसीति किम् । इह लोके। यह मुशीतलमपि तद्वत् शीत म भवामि यत् बिगपतेः परः । भवतापहार संसारतापहरणक्षीयम् । कर्पूर चन्दनम् इति इसोः सर्वज्ञस्य चरणकमलम् बाधयति ॥१॥ पसभामा असो चितराशतपचरावि।। राजति शोभते । लक्षणा भखतपराजिः। घिनम मधिसत्यता जिनम् । ममतः इन्द्रियभूतः कृत्वा । नक्षतं न पीचितम् । पझे इन्त्रिकम्पटम पातितम् । महावीरस्य । शिरसि मस्तके पट्टः । मतितराम् अतिशयेन । भिवं श्चोभाम् । आतनोति विस्तारयति । तु पुनः। इतरस्म जमस्म कुवैवस्म का कातरजमस्य। पहः बयान मते ॥ ३ ॥ अक्षतम् । एष बिना साक्षात् । अपुष्पशरः कन्दर्परहितः । तत्तस्मात् । एनं श्रीसर्वशम् । मनोह-शनिपुश्मशः कसुम्याममिः । गई पूजकः संपूजयामि । अन्य न पूजयामि । कया। तदाश्रयतया । कामालमत्केन मन्य न वर्षयामि। __ जन्म, जरा और मरण ये जीवके आश्रयसे रहनेवाली तीन अग्नियां बहुत सन्तापको करनेवाली हैं। मैं उनको शान्त करने के लिये बिन भगवान्के चरणयुगलके आगे विधिपूर्वक उत्तम जलसे निर्मित तीन धाराओंका क्षेषण करता हूँ॥१॥ जिस प्रकार जिन भगवान्की वाणी संसारके सन्तापको दूर करनेवाली है उस प्रकार शीतल हो करके भी मैं उस सन्तापको दूर नहीं कर सकता हूं, इस प्रकारके विचारसे ही मानों मेरे द्वारा भेंट किया गया अमूरमिश्रित वह चन्दन हे भगवन् ! आपके चरणकमलोंका आश्रय करता है ॥ २॥ इन्द्रियरूप घूतोंक द्वारा बाधाको नहीं प्राप्त हुए ऐसे जिन भगवान्के आश्मसे दी गई वह अतिशय पवित्र अक्षतोंके पुंजोंकी पंक्ति सुशोभित होती है। ठीक है- पराक्रमी पुरुषके विरपर बांधा गया वीरपट्ट जैसे अत्यन्त शोमाको विस्तृत करता है वैसे कायर पुरुषके शिरपर बांधा गया यह उस शोभाको विस्तृत नहीं करता ॥ ३ ॥ यह जिनेन्द्र प्रत्यक्षमें अपुष्पशर अर्थात् पुष्पशर (काम) से रहित है, इसलिये मैं इसकी मनोहर पवित्र पुष्पशरों (पुष्पहारों ) से पूजा करता हूं। अन्य (ब्रह्मा आदि) किसीकी मी मैं उनसे पूजा नहीं करता हूं, क्योंकि, वह पुष्पशर अर्थात् कामके अधीन है। ठीक है--जो रमणीय वस्तु जहां नहीं होती है वह वहां अधिक लक्ष्मीको करती है। विशेषार्थ- पुष्पशर शनके दो अर्थ होते हैं, पुष्परूप भोंका धारक कामदेव तथा पुष्पमाला । यहाँ श्लेषकी प्रधानतासे उक्त दोनों अर्थोकी विवक्षा करके यह बतलाया गया है जिन भगवानके पास पुष्पशर (कामवासना) नहीं है, इसलिये मैं उसकी समाधारा चन्दनं मयतएलादिशब्दार टीकायाः प्रारम्भे लिखिताः सन्ति । २ श कपूरचन्वन नास्ति। समतल न भवामि यत् स्वेतावान् पाठो नास्ति। Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -855 : १९-८] १९. श्रीजिनपूजाष्टकम् २४१ 852 ) देवो ऽयमिन्द्रियवलप्रलयं करोति नैवेद्यमिन्द्रियबलमदखाद्यमेतत् । चित्र तथापि पुरतः स्थितमहतो ऽस्य शोभा बिमति जगतो नयनोत्सवाय ॥ ५ ॥ 853) आरार्तिकं तरलपतिशिखं विभाति स्वच्छ जिनस्य वपुषि प्रतिविम्बितं सत् । ध्यानानलो मृगयमाण दवावशिष्टं दग्धं परिभ्रमति कर्मवयं प्रचण्डः ॥६॥ 854) कस्तूरिकारसमयीरिष पत्रपल्ली: कुपेन् मुखेषु चलनैरिह दिग्वधूनाम् । हर्षादिय प्रभुजिनाश्रयणेम पातशयपुर्नटति पश्यत धूपधूमः ॥ ७॥ 855) उम्फलाय परमामृतसंशकाय नानाफलैर्जिनपतिं परिपूजयामि । सतिर सफलानि फलानि भोक्षमा ससदपि याचत एव लोकः ।। ८॥ यहम्यं वस्तु यत्र न विद्यते तद्वस्तु तत्र 'योजितम् अधिको लक्ष्मी क्षोभा कुरुते ॥ ४ ॥ पुष्पम् । श्रयं देवः सर्वशः । इन्द्रियपले. प्रलयं करोति । एतत् नैवेद्य इन्द्रियबलपदस्वायम् इन्दियालपोषकम् । चित्रम् आश्चर्यम् । तभापि अस्य अर्हतः सर्वशस्य । पुरतः अग्रतः स्थितं शोभा विभर्सि । कस्म । जगतः नयनोत्सवाय आनन्दाय ॥५॥ नैवेद्यम् । आततिक दीवापः ] जिनस्य वपुषि शरीरे स्वच्छ प्रतिबिम्बित सत् विद्यमानं विभाति 1 किलक्षण ऐपम् [भारार्तिकम् तरला चमला वलि शिखा यत्र तत् तरलवाडे शिखम् । उत्प्रेक्षते। ध्यान-अनल: अमिः परिभ्रमति इव । किं कतम् इत्र । अवशिटम् उपद्वरितम् । कर्मचयं कर्मसमूहम् । दग्धुम् । मृगयमाणः अवलोक्यमान इव । किंलक्षणः ध्यानानलः । प्रायः ॥॥ दीपम् । भो भब्याः। यूयं पश्यत । कम् । धूपधूमम्। जिनाश्रयणेन हर्षात् नटति मृत्यति इव । किलक्षणं धूपम] बातेन प्रेसवपुः कम्पमानशरीरम् । इह समये। दिग्वधूनो दिशास्त्रीणाम् । मुखेषु । चलनैः परिभ्रमणः पत्रवली कुर्वन् इत्र । किंलक्षणाः पत्रवाणीः 1 कस्तूरिकारसमयीः ।। . ॥ धूपम् । अहं श्रारक जिनपति नानाफलः परिपूजयामि । कस्मै । उपः फलमय परम-अमृतसंज्ञकाय मोक्षाय । तद्भक्तिः तस्म जिनस्य भफिः पुष्पशरों (पुष्पमालाओंसे) से पूजा करता हूं । अन्य हरि, हर और ब्रह्मा आदि चूंकि पुष्पशरसे सहित हैं; अत एव उनकी पुष्पशरोंसे पूजा करनेमें कुछ भी शोभा नहीं है । इसी बातको पुष्ट करनेके लिये यह भी कह दिया है कि जहांपर जो वस्तु नहीं है वहींपर उस वस्तुके रखनेमें शोभा होती है, न कि जहांपर वह वस्तु विद्यमान है । तात्पर्य यह है कि जिनेन्द्र भगवान् ही जगद्विजयी कामदेवसे रहित होनेके कारण पुप्पोद्वारा पूजनेके योग्य हैं, न कि उक्त कामसे पीड़ित हरि-हर आदि । कारण यह कि पूजक जिस प्रकार कामसे रहित जिनेन्द्रकी पूजासे स्वयं भी कामरहित हो जाता है उस प्रकार कामसे पीड़ित अन्यकी पूजा करनेसे वह कभी भी उससे रहित नहीं हो सकता है ।। ४ ॥ यह भगवान् इन्द्रियबलको नष्ट करता है और यह नैवेद्य इन्द्रियबलको देनेवाला खाद्य (भक्ष्य) है। फिर भी आश्चर्य है कि इस अरहंत भगवान्के आगे स्थित वह नैवेद्य जगतके प्राणियोंके नेत्रोंको आनन्ददायक शोभाको धारण करता है |॥ ५ ॥ चंचल अमिशिखासे संयुक्त आरतीका दीपक जिन भगवान्के स्वच्छ शरीरमें प्रतिविम्बित होकर पेसे शोभायमान होता है जैसे मानो वह अवशेष (अघाति) कर्मसमूहको जलानेके लिये खोजती हुई तीन ध्यानरूप अनि ही घूम रही हो ॥ ६ ॥ देखो वायुसे कम्पमान शरीरवाला धूपका धुआँ अपने कम्पन (चंचलता ) से मानों यहां दिशाओंरूप स्त्रियों के मुखोंमें कस्तूरीके रससे निर्मित पत्रबल्ली (कपोलोपर की जानेवाली रचना ) को करता हुआ जिन भगवान्के आश्रयसे प्राप्त हुए हर्षसे नाच ही रहा है।॥ ७ ॥ मैं उत्कृष्ट अमृत नामक उन्नत फल (मोक्ष) को प्राप्त करनेके लिये अनेक फलोंसे जिनेन्द्र देवकी पूजा करता हूं । यद्यपि जिनेन्द्रकी भक्ति ही समस्त फलोंको देती है, तो भी मनुष्य अज्ञानतासे फलकी याचना शबलं। २ च-प्रतिपासोऽयम् । भकश धूमम् । ३श यद् अम्ब। ४मजोषित, शोषितं । ५० उद्धरितं । पान." Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ पनमन्दि-पञ्चविंशतिः [856:१९-९856) पूजाविधि विधिवदा विधाय देवे स्तोत्रं च समवरसाश्रितचिस्तवृत्तिः। पुष्पाञ्जलिं विमलफेषललोचनाय यच्छामि सर्वजनशान्तिकराय तस्मै ॥९॥ 857 ) श्वीपमनन्दितगुणौष म कार्यमस्ति पूजादिमा पदपि ते इतकस्यतायाः। स्वपसे तवपि तकृयते जनोऽईन् कार्या कविः फलहम तु भूपकस्यै ॥ १० ॥ एव सकलानि फलानि इते । तदपि लोकः मोहेन तन्मोक्षमा याचते एव ॥ ॥ फलम् । अत्र देखें। विधिवत् विधिपूर्वकम् । पूजाविधिम् । च पुनः । स्तोत्रम् । विधाय मला । ती सर्वज्ञाय । पुभाजलिं यच्छामि वदामि । किलक्षणोऽहं श्रावक । संमदरसाश्रितचित्तवृत्तिः सामन्दचित्तः । दिक्षणाय देवाय । विमझकेवललोचनाय । पुनः सबैजनशान्तिकराय ॥५॥ अर्थम् । भो मान् । भो श्रीफ्रनन्दितगुणौष । यदपि । ते तब तकृत्स्तायाः कृतकार्यत्वात् । पूजाविना कार्य म अस्ति । तदपि । खत्रेयसे कराणाय! अमः तत्पूजादिक कहते । तत्र रातमाह । कृषिः फलकृते-करणाय कार्वा कर्सम्या, म तु भूपाल । स्कोऽयम् मात्मनः हेतवे हर्ष करोति, नतु राशः मुबहेत . ॥ इति धीषिनपूजाष्टकम् ॥१७॥ किया करता है ।। ८ ।। हर्षस्प जलसे परिपूर्ण मनोव्यापारसे सहित में यहां विधिपूर्वक जिन भगवानके विषयमै पूजाविधान तथा स्तुतिको करके निर्मल केवलज्ञानरूप नेत्रसे संयुक्त होकर सब जीवोंको शान्ति प्रदान करनेवाले उस जिनेन्द्रके लिये पुष्पांजलि देता हूं ॥९॥ मुनि पन (पानन्दी) के द्वारा जिसके गुणसमूहकी स्तुति की गई है ऐसे हे अरहंत देव ! यद्यपि कृतकृत्यताको प्राप्त हो जानेसे तुम्हें पूजा आदिसे कुछ भी प्रयोजन नहीं रहा है, तो भी मनुष्य अपने कल्याणके लिये तुम्हारी पूजा करते हैं। ठीक भी है खेती अपने ही प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये की जाती है, न कि राजाके प्रयोजनको सिद्ध करनेके लिये। विशेषार्थ जिस प्रकार किसान जो खेतीको करता है उसमें से बह कुछ भाग यद्यपि करके रूपमें राजाको भी देता है तो भी वह राजाके निमित कुछ खेती नहीं करता, किन्तु अपने ही प्रयोजन ( कुटुम्बपरिपालन आदि) के साधनार्थ उसे करता है। ठीक इसी प्रकारसे भक्त जन जो जिनेन्द्र आदिकी पूजा करते हैं वह कुछ उनको प्रसन्न करने के लिये नहीं करते हैं, किन्तु अपने आत्मपरिणामोंकी निर्मलताके लिये ही करते हैं। कारण यह कि जिन भगवान् तो वीतराग ( राग-द्वेष रहित ) हैं, अत: उससे उनकी प्रसन्नता तो सम्भव नहीं है। फिर भी उससे पूजकके परिणामों में बो निर्मलता उत्पन्न होती है उससे उसके पाप कर्माका रस क्षीण होता है और पुण्य कर्मोका अनुभाग वृद्धिको प्राप्त होता है । इस प्रकार दुखका विनाश होकर उसे सुखकी प्राप्ति स्वयमेव होती है । आचार्यप्रवर श्री समन्तभद्र स्वामीने भी ऐसा ही कहा है-न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवेरे । तथापि ते पुण्यगुणस्मृतिर्नः पुनातु चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः । अर्थात् हे भगवन् ! आप चूंकि वीतराग हैं, इसलिये आपको पूजासे कुछ प्रयोजन नहीं रहा है । तथा आप चूंकि वैरभाव (द्वेषबुद्धि) से भी रहित हैं, इसलिये निन्दासे भी आपको कुछ प्रयोजन नहीं रहा है। फिर भी पूंजा आदिके द्वारा होनेवाले अापके पवित्र गुणोंका स्मरण हमारे चित्तको पापरूप कालिमासे बचाता है [ख. स्तो. ५७. ] ॥ १० ॥ इस प्रकार जिनपूमाष्टक समाप्त हुआ ॥ १९॥ कमः। Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२०. श्रीकरुणाष्टकम् ] B58) त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर परमानन्दैककारण कुरुष्व । मयि किंकरेऽत्र करुणा तया यथा जायसे मुक्तिः ॥१॥ 859) निर्विण्णोऽहं नितप मईन बहुतुम्खया भवस्थित्या। भपुनर्भधाय भवहर कुरु करणामत्र मयि दीने ॥२॥ 860) उदर मा पसितमतो विषमाझयपतः कृपां छत्वा । अचलमुखरणे स्वमसीति पुनः पुनर्वमि ॥ ३॥ 861) यं कारुणिका स्वामी स्वमेव शरणं जिनेश नाहम् । मोहरिपुदलितमामः पूत्कारं तब पुरा कुर्वे ॥४॥ भो त्रिभुवनगुरो। भो जिनेवर। भो परमानन्दैककारण। अत्र मयि किंकरे सेक्के । तथा करना दयां कुरुष्व यथा मुक्तिः आयते उत्पयते ॥ ॥ भो भईन् । भो भवहर संसारनाशक । बहुदुःखयुकया भवस्थित्या बहं नितराम् अतिशयेन । निर्दिण्णः उदासीनः । अत्र मामि शने। करण दयां कुरु । अपुनर्भवाय भवनाशनाय ॥१॥ भो भईन् । पूर्ण कृत्वा श्रतः विषमात् कूपतः पतितं माम् असर । उदरणे त्वम् असं समर्षः भसि । इति हेतोः । पुनः पुनः तब अमे । वच्मि कपयामि ॥३॥ भो जिनेश । खै कारणिकः खामी । मम त्वमेर शरणम् । तेन कारणेन आंतर पुरः अमे। पूत्कार में। किलक्षणोऽहम् । मोहरिपुदलितमानः ॥ ४ ॥ भो जिन। प्रामपतेः मनायकस्य । परेग केनापि उपते पुंसि पीरितपुरके। करुणा जायते तीनों लोकोंके गुरु और उस्कृष्ट सुखके अद्वितीय कारण ऐसे हे जिनेश्वर ! इस मुझ दासके ऊपर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाय ॥ १॥ हे संसारके नाशक अरइंत! मैं बहुत दुःखको उत्पन्न करनेवाले इस संसारवाससे अत्यन्त विरक्त हुआ हूं। आप इस मुझ दीनके ऊपर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे मुझे पुनः जन्म न लेना पड़े, अर्थात् मैं मुक्त हो जाऊं ॥२ ।। हे अरहंत! आप कृपा करके इस मयानक संसाररूप कुएंमें पड़े हुए मेरा उससे उद्धार कीजिये । आप उससे उद्धार करनेके लिये समर्थ हैं, इसीलिये मैं वार वार आपसे निवेदन करता हूं ॥ ३ ॥ हे जिनेश! तुम ही दयाल हो, तुम ही प्रभु हो, और तुम ही रक्षक हो । इसीलिये जिसका मोहरूप शत्रुके द्वारा मानमर्दन किया गया है ऐसा वह मैं आपके आगे पुकार कर कहता ई॥ ४ ॥ हे जिन! जो एक गांवका स्वामी होता है वह भी किसी १श 'अपुनर्भवाय मवनाशनाय' नास्त्रि। २श पुरपे प्रामनायकस्य कारम । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ पनमन्दि-पञ्चविंशतिः [862:२०-५. 862) प्रामपतेरपि करुणा परेण केनाप्युपगुते पुलि। जगता प्रमोर्म कि तव जिन ममि सलकर्मभिः प्रहते ॥ ५ ॥ 863) अपहर मम जन्म वयाँ करवेस्पेका क्यासिषक्तव्ये । सेनातिदग्ध इति मे देष भूव प्रलापिस्वम् ॥६॥ 864) तब जिनपरणाम्अयुर्ग करणामृतसंपातल यावर । संसारातपतप्तः करोमि हदि तावदेव सुखी ॥७॥ 865) जगदेकर भगवत्र समधीपयनम्दिसगुणीध। किंबहुना कुरु करुणाम् अन जने शरणमापने ॥८॥ दया उत्पद्यते । खलकर्ममिः मयि प्रावे व्यषिते । जगतां प्रभोः तव यया कि न आयते । अपि तु जायते ॥ ५ ॥ भो देव । दयां कृत्वा मम जन्म अपदर संसारनाशनं कुरु । एकत्ववचसि वक्तव्ये इति निश्चयः । तेन जन्मना । अहम् अतिदग्धः । इति हेतोः । मे मम । प्रलापिसं करत्वं बभूव ।।६॥ भो जिन । संसार-आतपतम अहं तव चरणाजयुगे याक्काल हदि करोमि तावकालम् एव सुखी। किलक्षणं चरणकमलम् । करुणा-अमृतसैगवत् शीतलम् ॥७॥ भो जगदेवशरण । भो भगवन् । भो असमश्रीपयनन्वितगुणौष । अत्र मयि । जने। करुणा कुरु । बहुना अकेन किम् । किंलक्षणे मयि । शरणम् आपने प्राप् ॥ ८॥ इति श्रीकरुणाष्टकम् ॥ २०॥ दुसरेके द्वारा पीड़ित मनुष्यके ऊपर दया करता है | फिर जब आप तीनों ही लोकोंके स्वामी हैं तब क्या दुष्ट काँके द्वारा पीड़ित मेरे ऊपर दया नहीं करेंगे? अर्थात् अवश्य करेंगे ॥ ५॥ हे देव ! आप कृपा करके मेरे जन्म (जन्म-मरणरूप संसार) को नष्ट कर दीजिये, यही एक बात मुझे आपसे कहनी है । परन्तु चूंकि मैं उस जन्मसे अतिशय जला हुआ हूं अर्थात् पीड़ित हूं, इसीलिये मैं बहुत बकवादी हुआ हूं ॥ ६ ॥ हे जिन । संसाररूप आतपसे सन्तापको प्राप्त हुआ मैं जब तक दयारूप अमृतकी संगतिसे शीतलताको प्रास हुए तुम्हारे दोनों चरण कमलोंको हृदयमें धारण करता हूं तभी तक सुखी रहता हूं ||७|| जगत्के प्राणियोंके अद्वितीय रक्षक तथा असाधारण लक्ष्मीसे सम्पन्न और मुनि पद्मनन्दीके द्वारा स्तुत गुणसमूहसे सहित ऐसे हे भगवन् ! मैं बहुत क्या कहूं, शरणमें आये हुए इस जनके (मेरे) ऊपर आप दया करें ॥ ८ ॥ इस प्रकार करुणाधक समाप्त हुआ ।। २० ॥ १च प्रतिपाठोऽयम् । म कस्ववचनि। २श संसारतापतमः। । सम । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२१. क्रियाकाण्डचूलिका ] 866 ) सम्यग्दर्शनयोधवृत्तसमताशीलभमाधैर्धनैः संकेताश्रयवजिनेश्वर भवान् सधैर्गुणैराश्चितः । मन्ये त्वय्यवकाशलब्धिरहितः सर्वत्र लोके वयं संग्राह्या इति गर्षितैः परिहतो दोषैरशेधैरपि ॥ १ ॥ 867 ) यस्यामनन्तगुणमेकविभुं त्रिलोक्याः स्तौति प्रभूतकवितागुणगर्वितात्मा। आरोहति दुमशिरः स नरो नमो ऽन्तं गन्तुं जिनेन्द्र मासिविभ्रमतो खुषो ऽपि ॥२॥ 868) शक्नोति कर्तुमिह का स्तवनं समस्तविद्याधिपस्य भवसो विबुधार्थिता। तत्रापि तजिनपत्ते जामहे सो यत् रातिदायमा सन्निमिवाय ॥ ६ ॥ भो जिनेश्वर । भवान् त्वम् । सर्वैः गुणैः आश्रितः सम्यग्दर्शनमोधवृत्त-चारित्रसमसाशीलक्षमाद्यैः । धनैः निविद। त्वम् आश्रितः । किंवत् । सहेताश्रथवत् संकेतगृहवत् । भो जिनेश । त्वम् भशेवैः समस्तैः दोषैः परिवतः त्यजः । अहम् एवं मन्ये । किलक्षणे दोषः । स्वयि विषये अवकाशलब्धिरहितः। पुनः किलक्षणः दोवैः । इति हेतोः। गर्वितैः । इतीति किम् । सर्वत्र लोके बर्य संप्रायाः संग्रहणीयाः ॥ भो जिनेन्द। यः नरः। त्वोस्तीति। किंलक्षणं स्वाम् । मनन्तगुणम् । त्रिमोक्या एवं विभुम् । किंलक्षणः सेमरः। प्रभून-उत्पा-कवितागुणः तेन कवितागुणेन गर्वितात्मा । समरःनभोऽन्तं गन्तुं मसिविश्रमतः एमशिरः भारोहति । पुधोऽपि चतुरोऽपि ॥२॥ भो जिनपते । इह लोके संसारे । भक्तः तब । स्तान फर्नु कः शक्रोति । किनक्षमस भवतः । समस्त विद्याधिपस्य । पुनः किंलक्षणस्य भवतः । विगुपैः देवैः अर्थिता । सत्रापि त्वयि विषये । अनः तत् खनन करते। हे जिनेश्वर! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, समता, शील और क्षमा आदि सब गुणोंने जो संकेतगृहके समान आपका सघनरूपसे आश्रय किया है। इससे मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आपमें खान प्राप्त न होनेसे 'लोकमें हम सर्वत्र संग्रह किये जानेके योग्य हैं। इस प्रकारके अभिमानको ही मानों प्राप्त होकर सब दोषोंने आपको छोड़ दिया है ॥ विशेषार्थ-जिन भगवान्में सम्यग्दर्शन आदि सभी उत्तमोत्तम गुण होते हैं, परन्तु दोष उनमें एक भी नहीं होता है। इसके लिये अन्धकारने यहां यह उत्प्रेक्षा की है कि उनके भीतर इतने अधिक गुण प्रविष्ट हो चुके थे कि दोषोंको वहां स्थान ही नहीं रहा था। इसीलिये मानों उनसे तिरस्कृत होनेके कारण दोषोंको यह अभिमान ही उत्पन्न हुआ था कि लोकमें हमारा संग्रह तो सब ही करना चाहते हैं, फिर यदि ये जिन हमारी उपेक्षा करते हैं तो हम इनके पास कभी भी न जावेंगे। इस अभिमानके कारण ही उन दोषोंने जिनेन्द्र देवको छोड़ दिया था ॥ १ ॥ हे जिनेन्द्र! कविता करने योग्य बहुत से गुणोंके होनेसे अभिमानको प्राप्त हुआ जो मनुष्य अनन्त गुणोंसे सहित एवं तीनों लोकोंके अद्वितीय प्रभुस्वरूप तुम्हारी स्तुति करता है वह विद्वान् होकर भी मानों बुद्धिकी विपरीततासे ( मूर्खतासे) आकाशके अन्तको पानेके लिये वृक्षके शिखरपर ही चढ़ता है। विशेषार्थ-- जिस प्रकार अनन्त आकाशका अन्त पाना असम्भव है उसी प्रकार त्रिलोकीनाथ (जिनेन्द्र) के अनन्त गुणोंका भी स्तुतिके द्वारा अन्त पाना असम्भव ही है। फिर भी जो विद्वान् कवि स्तुतिके द्वारा उनके अनन्त गुणोंकर कीर्तन करना चाहत्व है, यह समझना चाहिये कि वह अपने कवित्व गुणके अभिमानसे ही वैसा करनेके लिये उद्यत होता है ॥२॥ जो समस्त विद्याकि स्वामी हैं तथा जिनके चरण देवों द्वारा पूजे गये हैं ऐसे आपकी स्तुति करनेके लिये यहां फौन समर्थ है ! अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं है। फिर भी हे जिनेन्द्र। मनुष्य जो आपकी स्तुति करता है वह अपने चित्तमें रहनेवाली भक्तिको प्रगट करनेके लिये ही उसे करता है ॥ ३ ॥ भस शमता। श स नास्ति । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ पएनन्दि-पञ्चविंशतिः [869२१-४869 ) नामापि देष भवतः स्मृतिगोधरस्वं धाग्गोचरत्वमथ येन सुभक्तिभाजा। नीत लमेत स नरो निखिलार्थसिद्धि साध्वी स्तुतिर्भवतु मा 'किल का चिन्ता । 870) पतावतैव मम पूर्यत पर देव सेवा करोमि भवतश्चरणद्वयस्य । अप्रैष जन्मनि परत्र व सर्यकाल न स्वामितः परमहं जिन याचयामि ।। ५॥ 871) सर्वागमाषगमतः खलु तस्वयोधो मोक्षाय वृत्तमपि संप्रति दुर्घटना। जाड्यात्तथा कुतनुतस्त्वयि भक्तिरेय देवास्ति सैव भवतु फमतस्तदर्थम् ॥ ६॥ 872) हरति हरतु वृद्धं वार्धक कायकान्ति दधति दधतु दूरं मन्दतामिन्द्रियाणि । भवति भवतु दुःख जायतां वा विनाशः परमिह जिननाये भक्तिरेका ममास्तु ॥७॥ 878) अस्तु अयं मम सुदर्शनवोधवृत्तसंबन्धि यान्तु च समस्तदुरीहितानि । याथेन किंचिदपरं भगवन् भवन्तं नाप्राप्तमस्ति किमपीह यतखिलोक्याम्॥८॥ यत् यस्मात्कारणात् । तत् खोत्रम् । वितमध्यगतभक्तिनिवेदनाय मनोगतभकिप्रकटनाय ॥ ३ ॥ भो देव । येन पुंसा नरेग । भवतः तव । नामापि स्मृतिगोवरस्वं स्मरणगोचरत्वम् । अध वाग्गोचरत्वं नीतं कृतम् । विलक्षणेन मरेण । सुभक्तिभाजा भकियुकेन । स नर:। निकिल-अर्थसिद्धिम् । लमेत प्राध्यात्। किल इति सत्ये। साध्वी सतिभवतु । भन्न त्वयि विषये। मौका चिन्ता। नापि ॥४॥ भो देव । अत्रैव जन्मनि। च पुनः । परत्र जन्मनि। सर्वकालम् । भवतः तब । चरणद्यस्य सेवा करोमि । एतावता सेवामात्रेण । मम पूरी एक भोलिका गाई गाना : :ति देतोअपर न याचयामि॥५॥ भो देव । मल निषितम्। तत्वमोधः मोक्षाय । कस्मात् । सर्व-आगम-अवगमतः सर्व-आगम-द्वादशात्रम् अवलोकनाद । तत् ज्ञानम् । पूर्ण चारित्रम् । श्रपि । मः अस्माकम् । संप्रति इदानीम् । दुर्घटम् । कस्मात् जाज्यात मूर्खत्वात् । तथा कृतक्तः सिन्ध. शरीरात् । स्वयि विषये भक्तिरेव अस्ति । सैच भतिः। कमतः तदर्थ मोक्षार्थ भवतु ॥६॥ वृद्धवृद्धपदम् । बाधेक कायकान्ति इरति सहि हरतु। इन्द्रियाणि रम् अतिशयेन मन्दता वधति चेत् दधतु । चेत् दुःखं भवति तदा दुःख भवतु वा विनाश जायताम् । इह लोके। मम जिननाये परम् एका मफिरस्तु भवतु ॥४॥ भो भगवन् । मम सुदर्शनयोधपतसंबन्धि त्रयम्ब ख। व पुनः । समस्तदुरी हितानि यान्तुं । अपरं किंचित् न याचे भवन्तम् अपरं न प्रार्थयामि । यतः यस्मात्कारणात् । इह त्रिलोका हे देव! जो मनुष्य अतिशय भक्तिसे युक्त होकर आपके नामको भी स्मृतिका विषय अथवा वचनका विषय करता है-मनसे आपके नामका चिन्तन तथा वचनसे केवल उसका उच्चारण ही करता हैउसके सभी प्रकारके प्रयोजन सिद्ध होते हैं ! ऐसी अवस्थामें मुझे क्या चिन्ता है। अर्थात् कुछ भी नहीं । वह उत्तम स्तुति ही प्रयोजनको सिद्ध करनेवाली होवे ।। ४ ॥ हे देव! मैं इस जन्ममें तथा दूसरे जन्ममें भी निरन्तर आपके चरणयुगलकी सेवा करता रहूं, इतने मानसे ही मेरा प्रयोजन पूर्ण हो जाता है । हे जिनेन्द्र इससे अधिक मैं आपसे और कुछ नहीं मागता हूं ॥ ५॥ हे देव! मुक्तिका कारणीभूत जो तत्वज्ञान है वह निश्चयतः समस्त आगमके जान लेनेपर प्राप्त होता है, सो वह जडबुद्धि होनेसे हमारे लिये दुर्लभ ही है । इसी प्रकार उस मोक्षका कारणीभूत जो चारित्र है वह भी शरीरकी दुर्बलतासे इस समय हमें नहीं प्राप्त हो सकता है । इस कारण आपके विषयमें जो मेरी भक्ति है वही क्रमसे मुझे मुक्तिका कारण होवे ॥ ६ ॥ वृद्धिको प्राप्त हुआ बुढ़ापा यदि शरीरकी कान्तिको नष्ट करता है तो करे, यदि इन्द्रियां अत्यन्त शिथिलताको धारण करती हैं तो करें, यदि दुःख होता है तो होवे, तथा यदि विनाश होता है तो वह भी भले होवे । परन्तु यहां मेरी एक मात्र जिनेन्द्रके विषयमें भक्ति बनी रहे ॥ ७ ॥ हे भगवन् ! मुझे सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र सम्बन्धी तीन अर्थात् रत्नत्रय प्राप्त होवे तथा मेरी समस्त दुश्चेष्टायें नष्ट हो जावें, १. श मा। २श विषये मा भवतु का। ३ श पूर्यताम् । ४मक सर्वभागमअवगमनः सबविलोवनात्। ५क विषये एवं भचिरस्ति । ६ क विनाशः। ७श हितानि नाशे यान्तु । Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -877 :२१-१२] २१. क्रियाकाण्डचूलिका २४७ 874 ) धन्यो ऽस्मि पुण्यनिलयो ऽस्मि निराकुलो ऽस्मि शाम्तो ऽसि नविपदसि विस्मि देव । श्रीमज्जिनेन्द्र भवतो ऽप्रियुगं शरण्यं प्राप्तोऽस्मि चेदहमतीन्द्रियसौख्यकारि ॥ ९ ॥ 875) रत्नत्रये तपसि पजिविधे च धर्मे मूलोस्तरेषु च गुणेष्वथ गुप्तिकायें। दर्पात्प्रमादत उतागसि मे प्रवृसे मिथ्यास्तु नाथ जिनदेव तव प्रसादात् ॥ १०॥ 876) मनोवचो ऽहैः कृतमङ्गिपीडनं प्रमोदितं कारितमत्र यन्मया। प्रमावतो दर्पत एतदाश्रयं तदस्तु मिथ्या जिम दुष्कृतं मम ॥ ११ ॥ 877) चिन्तादुष्परिणामसंततिषशावुन्मार्गगाया गिरर फायात्संवृतिवर्जितावनुचितं कर्मार्जितं यन्मया । किमपि अप्राप्त अस्ति। सर्व प्राप्त दर्शनादि चिना ॥ ८॥ भो देव । भो श्रीमजिनेन्द्र । चेत् अहम् । भवतः तः। अभियुर्ग शरण्य प्राप्तोऽस्मि तदा अहं धन्योऽस्मि । अई पुण्यनिलयोऽस्मि। तदा अढू निराकुल्योऽस्मि । अहं शान्तोऽस्मि । अहं मष्टविपदाम आपदरहितोऽस्मि। अहं विदस्मि विद्वान् अस्ति । भो देव । तव चरमशरण शोऽस्मि । किलक्षणे चरणशरणम् । अतीन्द्रियसौख्यकारि ॥५॥ भो नाथ। भो वेद । रसत्रये मार्ग । दात् । उत महो। प्रमादतः । आगति अहंकारे । अथ दोथे। अब अपराधे। मे मम प्रवृते सति । तय प्रसादात् । सर्व दोषे [ सर्वो दोषः] मिथ्या अस्तु । तपसि। पुनः। पद्धिविधे" ते धर्मे । अय मूलोत्तरेषु गुणेषु । अधिकार हो । सीमिया या अस्तु ॥ १०॥ भो जिन । मया प्रमादतः । अत्र लोके। दर्पतः यत् मनोपयोऽऔः अङ्गिपीडनं पापं कृतम् । अन्येषां कारितम्। प्रमोदितम । मम । एतदाश्रय मनोपरनकामः आश्रितम् । दुरुकृतं नापम् । मिरमा कृथा । बस्तु भवतु ॥ 1१३ भो प्रभो। भो जिमयते । मया जीवन। चिन्तादुष्परिणामसंततिक्शात् । गिरः वचनात् । कायात् । मतु अनुचितम् अयोग्यम् । कर्म अर्जितम् उपार्जितम् । विलक्षणाया इससे अधिक मैं आपसे और कुछ नहीं मागता इं; क्योंकि, तीनों लोकोंमें अभी तक जो प्राप्त न हुआ हो, ऐसा अन्य कुछ भी नहीं है ।। विशेषार्थ-यहां भगवान् जिनेन्द्रसे केवल एक यही याचना की गई है कि आपके प्रसादसे मेरी दुष्ट वृत्ति नष्ट होकर मुझे रत्नत्रयकी प्राप्ति होवे, इसके अतिरिक्त और दूसरी कुछ भी याचना नहीं की गई है। इसका कारण यह दिया गया है कि अनन्त कालसे इस संसारमें परिश्रमण करते हुए माणीने इन्द्र व चक्रवर्ती आदिके पद तो अनेक वार प्राप्त कर लिये, किन्तु रत्नत्रयकी प्राप्ति उसे अभी तक कभी नहीं हुई । इसीलिये उस अप्राप्तपूर्व रत्नत्रयकी ही यहां याचना की गई है । नीतिकार भी यही कहते हैं कि 'लोको अभिनवप्रियः' अर्थात् जनसमुदाय नवीन नवीन वस्तुसे ही अनुराग किया करता है ॥८॥ हे श्रीमजिनेन्द्र देव ! चूंकि मैं अतीन्द्रिय सुख ( मोक्षसुख ) को करनेवाले आपके चरणयुगलकी शरमको प्राप्त कर चुका हूं; अत एव मैं धन्य ई, पुण्यका स्थान हूं, आकुलतासे रहित हूं, शान्त हूं, विपचियोंसे रहित हूं, तथा ज्ञाता भी हूं ॥९॥ हे नाथ! हे जिन देव ! रत्नत्रय, तप, दस प्रकारका धर्म, मूलगुण, उत्तरगुण और गुप्तिरूप कार्य; इन सबके विषयमें अमिमानसे अथवा प्रमादसे मेरी सदोष प्रवृत्ति हुई हो वह आपके प्रसादसे मिथ्या होवे ॥ १० ॥ हे जिन ! प्रभारसे अथवा अभिमानसे जो मैंने यहां मन, वचन एवं शरीरके द्वारा प्राणियोंका पीदन स्वयं किया है, दूसरों से कराया है, अथवा प्राणिपीड़न करते हुए जीवको देखकर हर्प प्रगट किया है; उसके आश्रयसे होनेवाला मेरा वह पाप मिथ्या होवे ।। ११ ॥ हे जिनेन्द्र प्रभो! चिन्ताके कारण उत्पन्न हुए अशुभ परिणामोंके वश होकर अर्थात् मनकी दुष्ट वृत्तिसे, कुमार्गमें प्रवृत्त हुई वाणी अर्थात् सावध वचनके द्वारा, तथा संवरसे रहित शरीरके द्वारा जो मैंने अनुचित (पाप) कर्म उत्पन्न किया है सतत् । २ 'शरप' मास्ति । ३ ॥ सर्वदोष । ४क्ष विधी । ५० प्रचतें, क प्रवर्तिते । ६ क ' नास्ति । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [878; २१-१२ २४८ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः तमा बजतु प्रभो जिनपते स्वस्थादपचस्मृते. रेषा मोक्षफलावा किस कथं नामिन् समर्था भवेत् ॥ १२ ॥ 878) पाणी प्रमाणमिह सर्वमिवत्रिलोकी साम्यली प्रपरदीपशिखासमाना । स्थाहावकासिकलिता नसुराद्विषन्या कालत्रये प्रकटिताखिलवस्तुतवा ॥ १३॥ 879) क्षमस मम वाणि तजिनपसिधुतादिस्तुती पवूनमभवामनोवचनकायकल्पतः। अनेकमवसंभवैडिमकारणः कर्ममिा कुतो किल मारशे जमानि तारशे पाटषम् ॥ १४ ॥ गिरः । सन्मार्गगाथा पापयरमे प्रवर्तनक्षीकामाः 1 किलक्षणात्कायात् । संवृतिवर्जितात् संवररहितात् । त्वत्पादपद्मस्थित्वेः मम ।। सस्कमै नाक्ष प्रजतु । एषा तव पावपस्थितिः । किल इति सत्ये । मोक्षफलप्रदा । अस्मिन् कर्मणि समों कथं न भवेत् । भपि देत १२॥ इहलोके । वाणी । सर्ववियः सर्वशस्य । प्रमायाम । अमौ वाणी । त्रिलोकीसवनि प्रवरदीपशिखासमाना। पुनः स्वादादकान्तिकलिता । पुनः किंलक्षणा वाणी । -मा-अहिबन्या । पुनः कालत्रये । प्रकटितम् अखिलं वस्तुतस्वं या सा प्रकटिताखिलवस्तुतरवा ॥१३॥ भो बाणि । जिनपतिश्रुतादिस्तुती स्तुतिविषये 1 मनोवचन कायवैकल्यतः। यत् अक्षरमात्रादिकम् अनम् अभवत् तत् मम क्षमस्व । भो जननि । किल इति सत्ये। भाजगति संसारे। मारने जने । कर्मभिः पीडिते। तारी पाय कृतः भवेन । लक्षणैः कर्मभिः । भनेकभवसंभवैः । जरिम कारणः मूर्खत्वकारणैः ॥ १४ ॥ अमं परयः जीयात् । वह तुम्हारे चरण-कमलके मरणसे नाशको प्राप्त होवे । ठीक भी है-- जो तुम्हारे चरण-कमलकी स्मृति मोक्षरूप फलको देनेवाली है वह इस (यापविनाश) कार्यमें कैसे समर्थ नहीं होगी ? अवश्य होगी ।। १२ ।। जो सर्वज्ञकी वाणी (जिनवाणी) तीन लोकरूप धरमें उत्तम दीपककी शिखाके समान होकर स्याद्वादरूप प्रमासे सहित है; मनुष्य, देव एवं नागकुमारोंसे धन्दनीय है; तथा तीनों कालविषयक वस्तुओंके स्वरूपको प्रगट करनेवाली है; वह यहां प्रमाण (सत्य) है | विशेषार्थ- यहां जिनवाणीको दीपशिखाके समान बतलाकर उससे भी उसमें कुछ विशेषता प्रगट की गई है। यथा-दीपशिखा जहाँ घरके भीतरकी ही वस्तुओंको प्रकाशित करती है वहां जिनवाणी तीनों लोकोंके मीतरकी समस्त ही वस्तुओंको प्रकाशित करती है, दीपक यदि प्रभासे सहित होता है तो वह वाणी भी अनेकान्तरूप प्रभासे सहित है, दीपशिखाकी यदि कुछ मनुष्य ही वन्दना करते हैं तो जिनवाणीकी वन्दना मनुष्य, देव एवं असुर भी करते हैं; तथा दीपशिखा यदि वर्तमान कुछ ही वस्तुओंको प्रगट करती है तो वह जिनवाणी तीनों ही कालोंकी समस्त वस्तुओंको प्रगट करती है। इस प्रकार दीपशिखाके समान होकर भी उस जिनवाणीका स्वरूप अपूर्व ही है ।। १३ ॥ हे वाणी ! जिनेन्द्र और सरस्वती आदिकी स्तुति के विषयमें मन, वचन एवं शरीरकी विकलताके कारण जो कुछ कमी हुई है उसे हे माता! तू क्षमा कर । कारण यह कि अनेक भवोंमें उपार्जित एवं अज्ञानताको उत्पन्न करनेवाले कोका उदय रहनेसे मुझ जैसे मनुष्यमें वैसी निपुणता कहांसे हो सकती है ! अर्थात् नहीं हो सकती है ॥ १४ ॥ समस्त भव्य जीवों के लिये अभीष्ट फलको देनेवाला यह क्रियाकाण्डरूप कल्पवृक्षकी १-प्रतिपाठोऽयम् का अस्थित् । Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -888:21-<] २१. क्रियाकाण्डचूलिका 880) पल्लवो ऽयं क्रियाकाण्डक स्पशाखाप्रसंगतः । जीयादशेषमन्यानां प्राकल ॥ १५३ 881) क्रियाकाण्डसंबन्धिनी चूलिकेयं नरैः पश्यते त्रिसंध्यं च तेषाम् । धर्भारतचितवैकल्यतो या न पूर्ण क्रिया सापि पूर्णत्वमेति ॥ १६ ॥ 882) जिनेश्वर नमोऽस्तु ते त्रिभुवनैकचूडामणे गतो ऽस्मि शरणं विभो भवभिया भवन्तं प्रति । तदाह तिकृते बुधैरकचि तत्वमेतन्मया भितं सुतसा भवहर स्त्वमेवात्र यत् ॥ १७ ॥ 883) भईन् सभाश्रित समस्तनरामरादिमध्याज्जनन्दिवम्वमांशुरधेस्तथा । मौखर्यमेतद्बुधेन मया कृतं यत्तद्भूरिभक्तिरभसस्थितमानलेन ॥ १८ ॥ २४९ किंलक्षणः पल्लवः । किम काण्ड करूपक्षालायसंगतः क्रियाकाण्ड एवं कल्पवृक्षशास्त्रामं तत्र संगतः प्राप्तः । पुनः किंलक्षणः । अशेषभम्यान प्रार्थित अर्थप्रदः फलप्रदेः ॥ १५ ॥ इयं क्रियाकाण्डसंबन्धिनी धूलिका यैः नरैः त्रिसंध्यं पव्यते । च पुनः । तेषां पाठकानाम् । वपुःभारतीचितवैकल्यतो मनोवचनका यवैकल्यतः । या किया पूर्णा न सापि क्रिया पूर्णस्वम् एति गच्छति ॥ १६ ॥ भो जिनेश्वर । भो त्रिभुवनैकचूडामणे । ते तुभ्यम्। नमोऽस्तु । भो विभो। भवनिया संसारमीत्या । भवन्तं प्रति शरणं गतोऽस्मि । भः पण्डितैः । तादविकृते तस्म संसारस्य आइतिकृते नाशाय । एतत्तस्त्रम् अकथि कथितः [तम्]। मया सुरतचेतसा आश्रितम् : यत् यस्मात्कारणात् । अत्र संसारे । भवद्दरः संसारनाशकः त्वमेव ॥ १७ ॥ भो अर्द्वन् । तवामे । मया पधनन्दिना । यत् एतत् । मौखर्थे वाचालत्वं कृतम् । तत् इदम् । भूरिभक्तिरस स्थितमानसेन भूरिभक्तिप्रेरितेन मया कृतम् । किंलक्षणस्य तव । समाश्रितसमवनरअमर आदि भव्य कमलेषु वचनांशुरः सूर्यस्य । किंलक्षणेन मया । अबुधेन ज्ञानरहितेन ॥ १८ ॥ इति क्रियाकाण्ड धूलिका ॥ २१ ॥ I ལ शाखाके अग्रभागमें लगा हुआ नवीन पत्र जयवन्त होवे || १५ || जो मनुष्य क्रियाकाण्ड सम्बन्धी इस चूलिकाको तीनों सन्ध्याकालोंमें पढ़ते हैं उनकी शरीर, वाणी और मनकी विकलताके कारण जो क्रिया पूर्ण नहीं हुई है वह भी पूर्ण हो जाती है ॥ १६ ॥ हे जिनेश्वर ! हे तीन लोकके चूडामणि विभो ! तुम्हारे लिये नमस्कार हो । मैं संसारके भयसे आपकी शरण में आया हूं । विद्वानोंने उस संसारको नष्ट करने के लिये यही त बतलाया है, इसीलिये मैंने दृढ़चित्त होकर इसीका आलम्बन लिया है। कारण यह कि यहां संसारको नष्ट करनेवाले तुम ही हो ॥ १७ ॥ हे अरहंत ! जिस प्रकार सूर्य अपनी किरणोंके द्वारा समस्त कमलोंको प्रफुल्लित करता है उसी प्रकार आप भी सभा ( समवसरण ) में आये हुए समस्त मनुष्य एवं देव आदि भव्य जीवों रूप कमलोंको अपने वचनरूप किरणोंके द्वारा प्रफुल्लित ( आनन्दित ) करते हैं। आपके आगे जो विद्वत्तासे विहीन मैंने यह वाचालता (स्तुति) की है वह केवल आपकी महती भक्तिके वेगमें मनके स्थित होनेसे अर्थात् मनमें अतिशय भक्तिके होनेसे ही की है ।। १८ ।। इस प्रकार क्रियाकाण्डचूलिका समाप्त हुई ॥ २१ ॥ ---- कवितसवमेतन्मया च रकवितं त्वमेव तन्मया २ च प्रतिपाठोऽयम् । समातिएतच अकथितः मना । पद्मने ३९ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२२. एकत्वभावनादशकम् ] 884 ) स्वानुभूत्यैव यम्य रम्य यशात्मवेविनाम् । जरूपे तत्परमं ज्योतिरवाशामसगोचरंम् ॥१॥ 885) एकत्वैकपदप्राप्तमात्मतरणमवैति यः। आराध्यते स एवाम्यस्तस्याराभ्यो न विद्यते॥२॥ 886) एकत्वको बहुभ्यो ऽपि कर्मभ्यो न विमेति सः। योगी सुनौगतो ऽम्भोधिजलेभ्य इव पीरपीः ॥ ३॥ 887 ) चैतन्यैकत्वसंवित्तिदुर्लभा सैव मोक्षदा । लब्धा कथं कथंचिोचिन्तनीया मुहूर्मुहुः ॥ ४ ॥ 888) मोक्ष पव सुखं साक्षात्सब साध्य मुमुक्षुभिः।। संसारे ऽत्र तु सन्मास्ति यदस्ति स्खलु तन्न तत् ॥५॥ ___ तत्परम ज्योतिः अहं जल्प। किंलक्षणं परमज्योतिः । अवाम्यानसगोचरं मनोवचनकायैः अगम्यम् । यत् परमं ज्योतिः खानुभूया एव गम्यम्। च पुनः । यज्योतिः अात्मदिना रम्यं मनोशम् ॥ १॥ यः एकत्वैकपदप्रामम् एकस्वरूपपदं प्राप्तम् आत्मतस्वम् । अबैति जानाति । स ज्ञानवान् एव अन्यैः आराध्यते । तस्य ज्ञानवतः भाराध्यः न विद्यते ॥ २ ॥ स एकस्वशः योगी बहुभ्योऽपि कर्मभ्यः न बिभेति भयं न करोति । मुनौगतः सुध-शोभनौकायां गतः पुमान् । धीरधीः 1 सम्भोधिजळेभ्यः सकाशात् भयं न करोति ॥ ३ ॥ चैतन्ये एकत्रसंचित्तिः दुर्लभा । सा एव एकत्वभावना मोक्षदा । चेत्कयंकयंचिलब्धा मुहुः मुहुः वारे वारं चिन्तनीया ॥४॥ साक्षात्सुखं मोझे वर्तते । च पुनः । तत्सुखं मुनीश्वरैः सायम् । पुनः । मात्र संसारे । तत् मोक्षसुरस न अस्ति । यत् सुखं संसारे अस्ति । खलु निश्चितम् । तस्मुखं तत् मोक्षसुख न ॥ ५॥ संसारसंबन्धि वस्तु किचित् । जो परम ज्योति केवल स्वानुभवसे ही गम्य (प्राप्त करने योग्य ) तथा आत्मज्ञानियों के लिये रमणीय है उस वचन एवं मनके अविषयभूत परम ( उत्कृष्ट ) ज्योतिके विषयों में कुछ कहता हूं ।। १ ।। जो भव्य जीव एकत्व (अद्वैत ) रूप अद्वितीय पदको प्राप्त हुए आत्मतत्त्वको जानता है वह स्वयं ही दूसरों के द्वारा आराधा जाता है अर्थात् दूसरे प्राणी उसकी ही आराधना करते हैं, उसका आराध्य (पूजनीय) दूसरा कोई नहीं रहता है ॥ २॥ जिस प्रकार उत्कृष्ट नावको प्राप्त हुआ धीरबुद्धि ( साहसी) मनुष्य समुद्रके अपरिमित जलसे नहीं डरता है उसी प्रकार एकत्वका जानकार वह योगी बहुत-से भी कामेसे नहीं डरता है ॥३॥ चैतन्यरूप एकत्वका ज्ञान दुर्लभ है, परन्तु मोक्षको देनेवाला वही है । यदि वह जिस किसी प्रकारसे प्राप्त हो जाता है तो उसका बार बार चिन्तन करना चाहिये ।।४॥ वास्तविक सुख मोक्षमें है और वह मुमुक्षु जनोंके द्वारा सिद्ध करनेके योग्य है । यहाँ संसारमें वह सुख नहीं है । यहाँ जो सुख है वह निश्चयसे यथार्थ सुख नहीं है |॥ ५॥ संसार सम्बन्धी कोई भी वस्तु रमणीय नहीं है, इस प्रकार हमें गुरुके उपदेशसे निश्चय हो अशा परमज्योति परमां न्योति । २ सचच मनसगोचरम्। ११ सुटा शोभन सय शोमना। करोच । 4'त'नास्ति। Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५१ -rnmA -894१२२-११] २२. पकत्वभाषनावशकम् 889) किंधिसंसारसंपन्धि बन्धुरं नेति निब्धयात् । गुरूपदेशतोऽस्माकं निःश्रेयसपदं प्रियम् ॥ ६॥ 890) मोहोवयविषाक्रान्तमपि स्वर्गसुखं चलम् । का कथापरसौल्यानामल भषसुलेम मे ॥७॥ 891) लक्ष्यीकस्य सदात्मानं शुद्धयोधमयं मुनिः। भास्ते यः सुमतिश्चाचे सोऽप्यमुत्र खरपि ॥ ८॥ 892) बीतरागपथे स्वस्थः प्रस्थितो मुनिपुरुषः। तस्य मुक्तिसुखप्राप्त' का मत्यूहो जगत्यये ॥२॥ 898) इत्येकानमना नित्यं भावयन् भावनापवम् । मोक्षलक्ष्मीकटालालिमालासम्म सजायते ॥ १०॥ 894) पतजम्मफलं धर्मः स चेदस्ति ममामलः । थापयपि कुतश्चिन्ता मृत्योरपि कुतो भयम् ॥ ११ ॥ बन्धुरै न मनोहरं न । इति निश्चयात् । गुरूपदेशतः अस्माकम् । निःश्रेयसपदं मोक्षपदम् । प्रियम् एम् ॥ ६ खर्गसुखम् अपि। चलं विनश्वरम् । मोहोदयविषाक्रान्तम् अस्ति । अपरसाख्याना का कया । मे मम । भवसुोग भलं पूर्वताम् ॥ ७॥ यः मुनिः सत् [सदा ] आरमानं पश्यीकृत्य । आस्ले तिवति । किलक्षणम् आत्मानम् । शुद्धबोधमयम् । स भुमतिः । अत्र लोके । समुत्र परलोके । घरन् अपि गच्छन् अपि । सुखी भवति ॥ ॥ वीतरागपथे प्रस्थितः मुनिपुशय स्वस्थः । तस्य मुनिपावन । मुतिसुखप्राप्ते जगत्रये का प्रत्यूहः कः विघ्नः ॥५॥ इति एकाग्रमना मुनिः । निर्स सदैव । भावनापदं भावयन् चिन्तयन् ।। भन्या । मोक्षलक्ष्मीकालालिमाला-मामालासमूह-सब-गृहम् जायते ॥ १. ॥ चेत् यदि । स धर्मः मम अस्ति । किंलक्षणः धर्मः । श्रमलः । एतत् जन्मफलं मनुष्यपद सफलम् । मापवि सत्यो कुतचिन्ता । मृत्योः अपि भयं कुतः ॥११॥ इति एकस्वभावनादशकम् ॥ २२॥ गया है । इसी कारण हमको मोक्षपद घ्यारा है ।। ६ ॥ मोहक उदयरूप विषसे मिश्रित स्वर्गका सुख भी जब नश्वर है तब भला और दूसरे तुच्छ सुखोंके सम्बन्धमें क्या कहा जाय ? अर्थात् वे तो अत्यन्त विनश्वर और हेय हैं ही । इसलिये मुझे ऐसे संसारसुखसे वस हो-मैं ऐसे संसारमुखको नहीं चाहता हूं ॥ ७ ॥ जो निर्मल बुद्धिको धारण करनेवाला मुनि इस लोकमें निरन्तर शुद्ध ज्ञानस्वरूप आत्माको लक्ष्य करके रहता है वह परलोकमें संचार करता हुआ भी उसी प्रकारसे रहता है ॥ ८॥ जो श्रेष्ठ मुनि आत्मलीन होकर वीतरागमार्ग अर्थात् मोक्षमार्ग में प्रस्थान कर रहा है उसके लिये मोक्षसुखकी प्राप्तिमें तीनों लोकोंमें कोई भी विन उपस्थित नहीं हो सकता है ॥ ९ ॥ इस प्रकार एकाग्रमन होकर जो मुनि सर्वदा इस भावनापद (एकत्वभावना ) को भाता है वह मुक्तिरूप लक्ष्मीके कटाक्षपंक्तियोंकी मालाका स्थान हो जाता है, अर्थात् उसे मोक्ष प्राप्त हो जाता है ॥ १०॥ इस मनुष्यजन्मका फल धर्मकी प्राप्ति है । सो वह निर्मल धर्म यदि मेरे पास है तो फिर मुझे आपत्तिके विषयमें भी क्या चिन्ता है, तथा मृत्युसे भी क्या उर है ! अर्थात् उस धर्मके होनेपर न तो आपत्तिकी चिन्ता रहती है और न मरणका डर भी रहता है ।। ११ ॥ इस प्रकार एकत्वभावनादशक अधिकार समाप्त हुआ ।। २२ ।। १च समितिपत्र। २१चरल्लपि । कपासे। ४श कटाक्षालिमालासमूहः। ५गृहः। Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२३. परमार्थावेशांतः] 895) मोहवेपरतिभिता विकृतयो एष्टाः श्रुताः सेविताः वारंवारमनन्तकालविचरस्सर्वाङ्गिभिः संस्तौ। मद्वैत पुनरात्ममो भगवतो दुर्लक्ष्यमेकं परं बीजं मोक्षतरोरिदं विजयते भव्यारमभिन्दितम् ॥ १॥ 896) अन्तर्वाशविकल्पजालरहितां शुकचिपिणी घम्दे तो परमात्मनः प्रणयिनी कृत्यान्ता स्यस्थताम् । यत्रामन्तवतुष्यामृतसरित्यास्मानमन्तर्गत नपामोति जरादिदुःसहशिखो जन्मोपदावानलः ॥२॥ 897) एकरपस्थितये मतिर्थनिशं संजायते मे तया प्यानन्दः परमात्मसंनिधिगतः किंचित्समुन्मीलति । किंचित्कालमवाप्य सैव समलैः शीलगुणैराधितां तामानम्वकलां विशालविलसद्वोधां करिष्यस्यसौ ॥ ३ ॥ संसतौ संसारे । अनन्तकाले विचरत् अनन्तकाले भ्रमत् । सर्वाझिभिः सर्वमीवैः । मोहद्वेषरतिभित्ता विकृतयः स्याः सुता सेविताः बारवारम् इत्यर्थः । पुनः आत्मनः अद्वैतं दुर्लक्ष्यम् । किलक्षणम् अद्वैतम् । भगवतः तर एकं पर मोक्षतरोः बीजम् । इदम् भारमतत्त्वम् अद्वैतं विजयते । पुनः । भव्यात्मभिः भव्यजीवः । वन्दितम् ॥ १॥ ता स्वस्थताम् अहम् । अन्रे नमामि । किंलक्षणो खस्थताम् । अन्तर्यालविकल्पवाल-समूहरहिताम् । पुनः शुद्धभिबूपिणीम् । पुनः किलक्षणा वस्थताम् । परमात्मनः प्रणायिनीम् । पुनः । कृत्यान्तगां कृतकृत्याम् । यत्र स्वस्थताया मध्ये । अन्तर्गतम् आत्मानं जन्मोपदावानलः न प्रामति । किंलक्षणस्वस्थतायाम्। अनन्तयमुष्टयामृतसरिति नद्याम् । किंलक्षण: संसारामिः । जरादि सहशिखः॥२॥ मे मम । मतिः एकत्व स्थितये यत् अनिशं संजायते । तया सध्या। परमात्मसंनिधिगतः आनन्दः । किंचित् । समुन्मीलवि प्रकटीभवेत् । सैव असौ श्रेष्ठमतिः + किंचित्कालम् । अवाप्य प्राप्य । ताम् आनन्दकला करिष्यति । किलक्षणां फलाम् । विशालविलसदोधाम् । पुनः किलक्षणां कलाम् । श्रील: गुणैः सकलेः आनिताम् ॥३॥ संसारमें अनन्त कालसे विचरण करनेवाले सब प्राणियोंने मोह, द्वेष और रागके निमित्तसे होनेवाले विकारोंको वार वार देखा है, सुना है और सेवन भी किया है। परन्तु भगवान् आत्माका एक अद्वैत ही केवल दुर्लक्ष्य है अर्थात् उसे अभी तक न देखा है, न सुना है, और न सेवन भी किया है । भन्य जीवोंसे बन्दित और मोक्षरूप वृक्षका बीजभूत यह अद्वैत जयवन्त होवे ॥१॥ जो स्वस्थता अन्तरंग और बाप विकल्पोंके समूहसे रहित है, शुद्ध एक चैतन्यस्वरूपसे सहित है, परमात्माकी बल्लभा (प्रियतमा) है, कृत्य (कार्य) के अन्तको प्राप्त हो चुकी है अर्थात् कृतकृत्य है, तथा अनन्तचतुष्टयरूप अमृतकी नदीक समान होनेसे जिसके भीतर प्राप्त हुए आत्माको जरा ( वृद्धत्व ) आदिरूप असह्य ज्वालायाली जन्म (संसार) रूप तीक्ष्ण वनामि नहीं प्राप्त होती है। ऐसी उस अनन्तचतुष्टयस्वरूप स्वस्थताको मैं नमस्कार करता हूं ॥२॥ एकत्व ( अद्वैत) में स्थिति के लिये जो मेरी निरन्तर बुद्धि होती है उसके निमित्तसे परमात्माकी समीपताको प्राप्त हुआ आनन्द कुछ थोड़ा-सा प्रगट होता है । यही बुद्धि कुछ कालको प्राप्त होकर अर्थात् कुछ ही समयमें समस्त शीलों और गुणों के आधारभूत एवं प्रगट हुए विपुल ज्ञान (केवलज्ञान ) से १ अनन्तकालं। २श विकल्पसमूह । ३ श-प्रती 'किंजमणां स्वस्थताम्' इत्येतस्मास्ति । Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -901 : २३-७४ २३. परमार्थविंशतिः 898 ) केमाप्यस्ति म कार्यमाभितषता मित्रेण चाम्येन वा प्रेमाहे ऽपि न मे ऽस्मि संपति सुखी तिष्ठाम्यई वाला। संयोगेन यदा कष्टमभवत्संसारचके चिर निर्षिणः खलु तेन सेन नितरामेकाकिता रोचते ॥४॥ 899) यो जानाति स एव पश्यति सवा चिद्रूपतां म स्यजेत् सोऽहं नापरमस्ति किंचिदपि मे तवं सदेतस्परम् । यचान्यत्तवशेषमम्यमनित क्रोधादि कायादि' वा श्रुत्वा शाखशतानि संप्रति मनस्येततं वर्तते ॥ ५॥ 900) हीन संहनने परीषासह नाभदिई सांप्रत काले दुःख[]मसंशये ऽत्र यदपि प्रायो न ती सपः। कश्चिन्नातिशयस्तथापि यदसायाते हि दुष्कर्मणा मन्त शुद्धचिदारमगुप्तमनसः सर्वे पर तेन किम् ॥ ६॥ 901 ) सहग्योधमयं विहाय परमानन्दस्वरूपं पर ज्योति म्यदहं विचित्रविलसत्कर्मकतायामपि । मे मम । केनापि मिश्रेण सह । च पुनः। अन्येन वो। आश्रितवता सेवकादिना या1 किमपि कार्य न अस्ति। मैम भोऽपि प्रेम । मस्ति । संप्रति भह केवलः सुखी तिष्यामि । अत्र संसारबके संयोगेन यत्कष्टम् अभवत् । चिरं बहुकालम् । तेन कटेन । मनु इति सल्ले । अहम् । निर्विणः परामुखः । तेन कारणेन । नितराम् अतिशयेन । एकाकिता रोचते ॥ ४॥ या जानाति परमात स एव ज्ञानवान् सदा चिद्रूपता न यजेत् । सोऽहम् अपर किंचिदपि एतत् परं तस्वं न अस्ति । सद्विद्यमानमपि । च पुनः। यत् अन्यत् तन् अशेषम । अन्य अनिले कोषादिकर्मकार्यादि क्रियाकारणम अन्यजनितं कर्मबनितम् अस्ति। शाखाणि अत्या संप्रति एतत् श्रुतं मनसि वर्तते । पूर्वोक ज्ञानरहस्यं इदि वर्तते ॥५॥ अत्र दुःस्वमसंज्ञके काले । यत् यस्मात्कारणात् । संहनन हीनम् । इदं शरीरे सांप्रत परीवहसई नाभूत् । मन परमकाले तीन सपः अपि न वर्तते । प्रायः भतिशयेन । तपः नास्ति । यत् यस्मात्कारणात् । असौ कश्चित् अतिशयः न । तथापि दुष्कर्मण आर्तम् अन्तःशुद्धचिदात्मगुप्तमनसः मुनेः सर्वम् । पर भिन्नम् । तेन कालेन भातेन । किं प्रयोजनम् ॥ ६॥ परज्योतिः सम्बोधमयं परमानन्दस्वरूपम् । बिहाय स्यक्ता । मन्मत सम्पन्न उस आनन्दकी कला को उत्पन्न करेगी ।। ३ || मुझे आश्रयमें प्राप्त हुए किसी भी मित्र अथवा अघुसे प्रयोजन नहीं है, मुझे इस शरीरमें भी प्रेम नहीं रहा है, इस समय मैं अकेला ही सुखी हूं। यहां संसारपरिभ्रमणमें चिर कालसे जो मुझे संयोगके निमित्तसे कष्ट हुआ है उससे मैं विरक्त हुआ हूं, इसीलिये अब मुझे एकाकीपन ( अद्वैत) अत्यन्त रुचता है ॥ ४ ॥ जो जानता है वही देखता है और वह निरन्तर चैतन्यस्वरूपको नहीं छोड़ता है । यही मैं हूं, इससे भिन्न और मेरा कोई स्वरूप नहीं है । यह समीचीन उत्कृष्ट तत्व है। चैतन्य स्वरूपसे भिन्न जो क्रोत्र आदि विभायभाव अथवा शरीर आदि हैं वे सत्र अन्य अर्थात् कर्मसे उत्पन्न हुए हैं । सैकडों शास्त्रोंको सुन करके इस समय मेरे मनमें यही एक शास्त्र ( अद्वैततत्व) वर्तमान है ॥ ५ ।। यद्यपि इस समय यह संहनन ( हड्डियोंका बन्धन) परीषहों (क्षुधा-तृषा आदि) को नहीं सह सकता है और इस दुःषमा नामक पंचम कालमें तीन तप भी सम्भव नहीं है, तो भी यह कोई खेदकी बात नहीं है, क्योंकि, यह अशुभ कर्मोंकी पीड़ा है । भीतर शुद्ध चैतन्यस्वरूार आत्मामें मनको सुरक्षित करनेवाले मुझे उस कर्मकृत पीड़ासे क्या प्रयोजन है ! अर्थात् कुछ भी नहीं है ॥ ६ ॥ अनेक प्रकारके विलासवाले काँक साथ मेरी एकताके होनेपर भी जो उत्कृष्ट ज्योति सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं उत्कृष्ट आनन्दस्वरूप है वही मैं हूं, उसको छोड़कर मैं अन्य नहीं हूं। ठीक भी है- स्फटिक मणिमें काले पदार्थके सम्बन्धसे १च प्रविपाठोऽयम् । म क स कार्यादि । २ क 'वा' नास्ति। ३ का 'मम अङ्गेऽपि प्रेम न भस्ति' इत्येतावान् पाठो नास्ति। Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५ पचनन्दि-पञ्चविंशतिर [901२३-७काणी प्यपदार्थसंनिधिवशाजाते मणौ स्फाटिके पत्तस्मात्पृथगेष स तयालम लोके विकारो भवेत ॥७॥ 902) आपत्सापि यतेः परेण सह या संगो मवेकेनचित् सापत्सुषु गरीयसी पुनरहो यः श्रीमती संगमः । पस्तु श्रीमदमद्यपानविकलैरुत्तानितास्यैर्नृपैः संपर्कः स मुमुक्षुवेतसि सदा मृत्योरपि क्लेशकृत् ॥ ८॥ 903) मिग्धा मा मुमयो भयन्तु गृहिणो यच्छन्तु मा भोजन मा किंचिजूनमस्तु मा परिव रुग्धर्जितं जायताम् । ननं मामवलोक्य निन्दतु जनस्तत्रापि खेदो न मे निस्वानन्दपवन गुरुयचो जामति चेतसि ॥९॥ अहं न । विचित्रविलसस्कर्भकतायामपि । यद्यस्मास्कारणात् । स्फाटिके मणौ कृष्णपदार्थसनिधिवशात् काणे जीते सति । तस्मात् कृष्णपदार्थात् स मणिः पृथगेव भिन्नः । लोके संसारे । विकारः यकृतः भवेत् ॥ ७॥ अहो इति संबोधने । यत्तेः मुनीश्वरस्य । परेण केनचिरसह यः संगः संयोगः भवेत् । सापि आपत् भापदा कष्टम् । पुनः यः श्रीमता अध्ययुक्तानाम् । संगमः सा सुध गरीयसी आपत् ! तु पुनः । यानृपैः सह। संपर्कः संयोगः । स राजसंयोगः मुमुक्षुचेतसि मुनिचेतसि । सदाकाले। मूस्योः मरणास् । अपि केशकूत् । किलक्षणेः मृः । श्रीमदमद्यपान विकलैः । पुनः उत्तानितास्यैः अर्ध्वमुखेः। गार्वेतैः ॥८॥ बेदि । मेरेतसि गुरुवयः जागर्ति । किलक्षणं गुध्वचः 1 नित्यानन्दपदप्रदम् । तदा मुनयः । सिग्वाः स्नेहकारिणः मा भवन्तु । सदा गृहिणः श्रावकाः भोजनं मा यच्छन्तु । तदा धनं किंचित मा अस्तु । तदा इदं वपुः शरीरे मदर्जित मा जायताम् । मां नमम् अवलोक्य जनः निन्दतु । तत्र लौकिकदुःखे में खेदः न दुःखं में ॥९॥ कालेपनके उत्पन्न होनेपर भी वह उस मणिसे पृथक् ही होता है। कारण यह कि लोकमें जो भी विकार होता है वह दो पदाथोंके निमित्तसे ही होता है । विशेषार्थ-- यद्यपि स्फटिक मणिमें किसी दूसरे काले पदार्थके निमित्तसे कालिमा और जपापुष्पके संसर्गसे लालिमा अवश्य देखी जाती है, परन्तु वह वस्तुतः उसकी नहीं होती है । वह स्वभावसे निर्मल व धबलवर्ण ही रहना है | जब तक उसके पासमें किसी अन्य रंगकी वस्तु रहती है तभी तक उसमें दूसरा रंग देखनेमें आता है और उसके वहासे हट जानेपर फिर स्फटिक मणिमें वह विकृत रंग नहीं रहता है। ठीक इसी प्रकारसे आत्माके साथ ज्ञानावरणादि अनेक कर्मों का संयोग रहनेपर ही उसमें अज्ञानता एवं राग-द्वेप आदि विकारभाव देखे जाते हैं। परन्तु वे वास्तवमें उसके नहीं हैं, वह तो स्वभावसे शुद्ध ज्ञान-दर्शनस्वरूप ही है । वस्तुमें जो विकारभाव होता है वह किसी दूसरे पदार्थके निमित्तसे ही होता है । अत एव वह उसका नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि, वह कुछ ही काल तक रहनेवाला है। जैसे- आगके संयोगसे जलमें होनेवाली उष्णता कुछ समय ( अमिसंयोग ) तक ही रहती है, तत्पश्चात् शीतलता ही उसमें रहती है जो सदा रहनेवाली है ॥ ७ । साधुका किसी पर वस्तुके साथ जो संयोग होता है यह भी उसके लिये आपत्तिस्वरूप प्रतीत होता है, फिर जो श्रीमानों ( धनवानों) के साथ उसका समागम होता है वह तो उसके लिये अतिशय महान् आपत्तिस्वरूर होता है, इसके अतिरिक्त सम्पत्तिके अभिमानरूप मद्यपानसे विकल होकर ऊपर मुखको करनेवाले ऐसे राजा लोगों के साथ जो संयोग होता है वह तो उस मोक्षाभिलापी साधुके मनमें निरन्तर मृत्युसे भी अधिक कष्टकारक होता है ॥ ८ ॥ यदि मेरे हृदयमें नित्य आनन्दपद अर्थात् मोक्षपदको देनेवाली गुरुकी वाणी जागती है तो मुनिजन स्नेह करनेवाले भले ही न हो, गृहस्थ जन यदि भोजन नहीं देते हैं तो न दें, मेरे पास कुछ भी धन न हो, यह शरीर रोगसे रहित न हो अर्थात् सरोग भी हो, तथा मुझे नग्न देखकर लोग निन्दा भी करे, तो भी मेरे १ क काणे व काव्यं । २ नशात् कृणवे जाते। ३ तब लोके खेदः । Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -906 : २३-१२] २३, परमार्थविंशतिः 904) दुःखन्यालसमाफुले मवयने हिंसादिदोषद्रुमे नित्यं दुर्गतिपल्लिपातिकुपथे भ्राम्यन्ति सधै जिनः । तन्मध्ये सुगुरुप्रकाशितपथे प्रारम्पयानो जनः यात्यानन्दकरं परं स्थिरतरं निर्वाणमेकं परम् ॥ १० ॥ 905) परसातं यदसातमणिषु भवेत्तत्कर्मकार्य तत. स्तकमवतन्यदात्मन इजानन्ति ये योगिनः। ईवम्भवविभावनाश्रितधियां तेषां कुतो ऽहं सुखी दुःखी चेति विकल्पकल्मषकला फुर्यास्पदं घेतसि ॥ ११॥ 906) देवं तत्प्रतिमां गुरुं मुनिजन शास्त्रादि मन्यामहे सर्वे भक्तिपरा वयं व्यवहते मार्ग स्थिता निश्चयात् । भक्वने सर्व अनिः जीवाः । भ्राम्यन्ति । किंलक्षणे भवक्ने । दुःसव्याल-दुष्टयज-सर्पसमाकुले। पुनः हिंसादिदोषमें। पुनः विलक्षणे संसारबने। दुर्गतिपलिपातिकुपये दुर्गतिभिलप्रौमसदृशे कुपये । तन्मध्ये तस्य संसारस्य मध्ये । सुगुरुमनिरामयेरवदानः प्रारम्बमममः जनः । नित्यं सदैव । एक निर्वाण पुरं याति । किंलक्षणं निर्वाणम् । आनन्दकरं परम् । स्थिरतरं शाधतम् ॥ 1.1 अधिषु जीवेषु । यत्सातं शुभकर्म । यत् असातम् अशुभकर्म भवेत् । संसारे । तत्सर्व कर्मकार्यम् । ततः कर्मकार्यात् । तत्कमैव तत्कर्म अन्गत् आत्मनः सकाशात् भिनम् । ये योगिनः इदं भेदशानं जानन्ति तेषां ईरग्मेदविभावना-आत्रितधियो मुनीना वेतसि महं सुस्ती भई दुःखी इति विकल्पकल्मषकला पापकला। पदं स्थानम् । कुतः कुर्यात् कथं कुर्यात् । अपि तु न कुर्यान ॥ ११॥ यावत् वयं व्यबस्ते मार्गे व्यवहारमार्गे स्थिताः । भक्तिपरा वर्ग सर्वे मन्यामहे । देवं तरप्रतिमां गुरु मुनिजनं ग्रानादि सर्व मन्यामहे । निश्चयात पुनः एकताश्रयणतः अस्माकम् आत्मैव परं तत्वं लिये उसमें कुछ खेद नहीं होता ॥ ९॥ जो संसाररूपी वन दुःखोप सपों ( अथवा हाथियों ) से व्याप्त है, हिंसा आदि दोषोंरूप वृक्षोंसे सहित है, तथा नरकादि दुर्गतिरूप भीलवस्तीकी ओर जानेवाले कुमार्गसे युक्त है, उसमें सब प्राणी सदासे परिभ्रमण करते हैं। उक्त संसाररूप उनके भीतर जो मनुष्य उत्तम गुरुके द्वारा दिखलाये गये मार्गमें ( मोक्षमार्गमें ) गमन प्रारम्भ कर देता है वह उस अद्वितीय मोक्षरूप पुरको प्राप्त होता है जो आनन्दको करनेवाला है, उत्कृष्ट है, तथा अत्यन्त स्थिर ( अविनश्वर ) भी है ॥ १० ॥ प्राणियोंको जो सुख-दुखका अनुभव होता है वह कर्म ( साता और असाता वेदनीय ) का कार्य है, इसीलिये वह कर्म ही है और वह आत्मासे भिन्न है। इस बातको जो योगी जानते हैं तथा जिनकी बुद्धि इस प्रकारके भेदकी भावनाका आश्रय ले चुकी है उन योगियोंके मन में - मैं सुखी हूं, अथवा दुःखी हूं' इस प्रकारके विकल्पसे मलिन कला कहासे स्थान प्राप्त कर सकती है ! अर्थात् उन योगियोंके मनमें वैसा विकल्प कभी नहीं उदित होता ॥ ११॥ व्यवहार मार्ग में स्थित हम लोग भक्तिमें तत्पर होकर जिन देव, जिनप्रतिमा, गुरु, मुनिजन और शास्त्र आदि सबको मानते हैं। परन्तु निश्चयसे अभेद (अद्वैत ) का आश्रय लेनेसे प्रगट हुए चैतन्य गुणसे प्रकाशमें आई हुई बुद्धिके विस्ताररूप तेजसे सहित हमारे लिये केवल आत्म: ही उत्कृष्ट तत्व रहता है। विशेषार्थ-जीव जब तक व्यवहारमार्गमें स्थित रहता है तब तक वह जिन भगवान् और उनकी प्रतिमा आदिको पूज्य मानकर यथायोग्य उनकी पूजा आदि करता है। इससे उसके पुण्य कर्मका बन्ध होता है जो निश्चयमार्गकी प्राप्तिका साधन होता है । पश्चात् जब वह निश्चयमार्गपर आरूढ़ हो जाता है तब उसकी बुद्धि अभेद ( अद्वैत) का आश्रय ले लेती है। वह यह समझने लगता है शेरोद्गमे। २ 'प्राम' नास्ति। ततः तरकमेव । Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ पानन्दि-पञ्चर्षिशतिः [908:२६-१२अस्माकं पुनरेकसाधयणतो व्यक्तीमवचिहुण स्फारीभूतमतिमषन्धमहसामात्मैव तस्वं परम् ॥ १२ ॥ 907 ) वर्षे हर्षमपाकरोतु तुदतु स्फीता हिमानी तर्नु धर्मः शर्महरो ऽस्तु देशमशक क्लेशाय संपद्यताम् । अम्पर्धा बहुभिः परीषहमीरारभ्यता मे मृति मोक्षं प्रत्युपदेशनिश्चलमते त्रापि किंचिद्रयम् ॥ १३ ॥ 908) पश्चर्मुण्यपीककर्षकमयो प्रामो मृतो मन्यते चेपाविकृषिसमा घलषता बोधारिणा स्याजितः। वर्तते । किलक्षणानाम् अस्माकम् । व्यतीभवत्-प्रकटीभूतविण-ज्ञानगुणः तेन स्मारीभूत मतिबन्धमहः यत्र तेषां मइसाम् ।। १२॥ अत्र लोके। वर्ष वर्षाकालः । हर्षम् आनन्दम् । अपाकरोतु दूरीकरोतु । स्फीता हिमानी । तर्नु शरीरम् । तुदन पीच्यतु । धर्मः शमहरः सौख्यहरः मस्तु । देशमशक शाय संपद्यताम् । वा अन्यैः बहुभिः परीपहाटेः। मृतिः मरणम्। मारभ्यताम् । अत्रापि मृत्युविषये । मे मम । किंचिद्रय म। किलक्षणस्य मम । मोक्षं प्रत्युपदेशनिवालमतेः ॥ १३॥ यदि । प्रात्मा प्रभुः । बचण्यापीककर्षकमयः इन्द्रियाकसाणमयः । ग्रामः मृतः मन्यते । च पुनः । सोऽपि भात्मा प्रभुः शकिमान् । तचिन्ता न करोति सम इन्द्रियस्य चिन्ता म NRNA Fri निन्दा मानिसमा रूपादिकृषिपोषकाम् । कि स्त्री, पुत्र और मित्र तथा जो शरीर निरन्तर आत्मासे सम्बद्ध रहता है वह भी मेरा नहीं है। मैं चैतन्यका एक पिण्ड हूं-उसको छोड़कर अन्य कुछ भी मेरा नहीं है। इस अवस्थामें उसके पूज्य-पूजकभावका भी द्वैत नहीं रहता। कारण यह कि पूज्य-पूजकभावरूप बुद्धि भी रागकी परिणति है जो पुण्यबन्धकी कारण होती है। यह पुण्य कर्म भी जीयको देवेन्द्र एवं चक्रवर्ती आदिके पदोंमें स्थित करके संसारमें ही परतन रखता है। अत एव इस दृष्टिसे वह पूज्य-पूजक भाव भी हेय है, उपादेय केवल एक सचिदानन्दमय आत्मा ही है । परन्तु जब तक प्राणीके इस प्रकारकी दृढ़ता प्राप्त नहीं होती तब तक उसे व्यवहारमार्गका आलम्बन लेकर जिन पूजनादि शुभ कार्योंको करना ही चाहिये, अन्यथा उसका संसार दीर्घ हो सकता है ॥ १२॥ जब मैं मोक्षविषयक उपदेशसे बुद्धिकी स्थिरताको प्राप्त कर लेता हूं तब भले ही वर्षाकाल मेरे हर्षको नष्ट करे, विस्तृत महान् शैत्य शरीरको पीड़ित करे, घाम ( सूर्यताप ) सुखका अपहरण करे, डांस-मच्छर क्लेशके कारण हो, अथवा और भी बहुत-से परीषहरूप सुभट मेरे मरणको भी प्रारम्भ कर दें तो भी इनसे मुझे कुछ भी भय नहीं है ॥ १३ ॥ जो शक्तिशाली आत्मारूप प्रभु चक्षु आदि इन्द्रियोंरूप किसानोंसे निर्मित ग्रामको मरा हुआ समझता है तथा जो ज्ञानरूप बलवान् शत्रुके द्वारा रूपादि विषयरूप कृषिकी भूमिसे भ्रष्ट कराया जा चुका है, फिर मी जो कुछ होनेवाला है उसके विषयमें इस समय चिन्ता नहीं करता है। इस प्रकारसे वह संसारको नष्ट हुएके समान देखता है ।। विशेषार्थ-- जिस प्रकार किसी शक्तिशाली गांवके स्वामीकी यदि अन्य प्रबल शत्रुके द्वारा खेतीके योग्य भूमि छीन ली जाती है तो वह अपने किसानोंसे परिपूर्ण उस गांरको मरा हुआ-सा मानता है। फिर भी वह भवितव्यको प्रधान मानकर उसकी कुछ चिन्ता नहीं करता है । ठीक इसी प्रकारसे सर्वशक्तिमान् आत्माको जर सम्यक्षानरूप शत्रुफे द्वारा रूप-रसादिरूप खेतीके योग्य भूमिसे भ्रष्ट कर दिया जाता है-विवेकबुद्धिके उत्पन्न हो आनेपर जब वह रूपरसादिस्वरूप इन्द्रियविषयों में अनुरागसे रहित हो जाता है, तब वह भी उन इन्द्रियरूप किसानोंके गांवको १पचिपादिकृधि । २ भूतः मारी, भूतमति। ३१ मारणम् । Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५७ -911:२३-७] २३. परमार्थर्षिशतिः सचिन्तां न च सो ऽपि संप्रति करोस्यारमा प्रभु शक्तिमान परिकचिङ्गवितात्र वेन च भषो ऽप्यालोषयते नषत् ॥ १४॥ 909) कर्मात्याला रिजकारणालाना शुनो रास्मैकम्पविशुबयोधमिलयो निःशेषसंगोनिमतः । शश्वत्तदूतभावनाश्रितमना लोके वसन् संयमी मावन स लिप्यते ऽसदलपत्तोयेन पनाकरे ॥ १५॥ 910) गुद्रिव्यवसमुक्तिपदधीमाप्त्यर्थनिर्माता जातानन्नवशास्ममेन्द्रियसुखं दुःख मनो मन्यते । सस्वाद प्रतिभासते किल खलस्तावत्समासावितो पावभो लिसशर्करातिमधुरा संतर्पिणी लभ्यते ॥ १३ ॥ 911) निन्यस्वमुवा ममोजवलतरध्यानाभितस्फीतया दुनिाक्षसुखं पुनः स्मृतिपथमस्थास्यपि स्यास्कुतः। किंलक्षणः आत्मा प्रभुः । बलवता बोधादिमा ल्याजितः । तेन आत्मप्रभुणा । यत्किंचिदवितापि तविष्यति । तत्किम् । भवः संसारः। मष्टपत् विलोक्यते ॥ १४॥ स संसभी । लोके सन् तिन्छन् । भवद्येन पापेन म लिप्यते । किलक्षणः संयमी। कर्मक्षति-विमाश-उपशान्तिकारणवशात् । गुरोः सदेशनायाः गुरूपदेशात् । भात्मत्वविशुद्धबोधनिलयः। पुनः निःशेषसंग-परिग्रहरहितः । पुनः किलक्षणः संयमी । शश्वतद्रत-आत्मगत-भावनाश्रितमनाः । तत्र दृष्टान्तमाह । फ्याकरे सरोवरे । सोयेन जलेन । अम्मदलवत् कमलइलवत् ॥ १५॥ मम मनः इन्दियसुख दुःख मन्यते। कस्मात् । पुद्धिमतमुकिपदवीप्राप्त्यर्थनिप्रन्यताजातानन्दवशात् । किल इति सत्ये। तावत्कालं सलः पिण्याकखण्ड: लोके मिष्टः खलः । समासादितः प्रातः सुखायुः प्रतिभासवे यावत्काल सितशर्करा 'मिश्री' न लभ्यते । किंलक्षणा शर्करा । मतिमधुरा संतर्पिणी ॥ ११॥ निर्ग्रन्थत्वमुदा मरा हुआ समझता है और उसकी कुछ भी चिन्ता नहीं करता है । बलि तब वह अपने संसारको नष्ट हुआ-सा समझने लाता है। तात्पर्य यह कि एकत्वबुद्धिके उत्पन्न हो जानेपर जीवको इन्द्रियविषयोंमें अनुराग नहीं रहता है । उस समय वह इन्द्रियों को नष्ट हुआ-सा मानकर मुक्तिको हाथमें आया ही समझता है ।। १४ ॥ जो संयमी कर्मके क्षय अथवा उपशमके कारण वश तथा गुरुके सदुपदेशसे आत्माकी एकताविषयक निर्मल झानका स्थान बन गया है, जिसने समस्त परिप्रहका परित्याग कर दिया है, तथा जिसका मन निरन्तर आत्माकी एकताकी भावनाके आश्रित रहता है। वह संयमी पुरुष लोकमें रहता हुआ भी इस प्रेकार पापस लिप्त नहीं होता जिस प्रकार कि तालाबमें स्थित कमलपत्र पानीसे लिप्स नहीं होता है ॥ १५ ॥ गुरुके चरणयुगलके द्वारा मुक्ति पदवीको प्राप्त करनेके लिये जो निर्गन्थता (दिगम्बरत्व) दी गई है उसके निमित्तसे उत्पन्न हुए आनन्दके प्रभाक्से मेरा मन इन्द्रियविषयजनित सुखको दुखरूप ही मानता है । ठीक है-प्राप्त हुआ खल (तेलके निकाल लेनेपर जो तिल आदिका भाग शेष रहता है) तब तक ही स्वादिष्ट प्रतीत होता है जब तक कि अतिशय मीठी सफेद शक्कर ( मिश्री ) तृप्तिको करनेवाली नहीं प्राप्त होती है ॥ १६ ॥ अतिशय निर्मल ध्यानके आश्रयसे विस्तारको प्राप्त हुए निम्रन्थताजनित आनन्दके प्राप्त हो जानेपर खोटे समयतोऽपि । २ पपमे-३३ वलिः । Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ पतन्विपश्वाविंशतिः निर्गत्यो तातोतिशिखिज्वालाकरालाद्वा sarai प्राप्य च वापिकां विशति कस्तत्रैष धीमान् नरः ॥ १७ ॥ 912 ) जायेोतमोहतो मिळविता मोक्षे ऽपि सा सिद्धिद तद्भूतार्थ परिग्रहो भवति किं कापि स्पृहालुर्मुनिः । इत्यालोचनसंगत कमला शुद्धात्मसंबन्धिना तस्यानपरायणेन सततं स्वातव्यमप्राहिणा ॥ १८ ॥ 918) जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरे ऽपि च । [911:२३-१७ wwwww निर्मन्थतानन्देन । पुनः उज्वलतरध्यान- मातिस्फीतमा कृत्वा मम दुर्ष्यान असुखम् । स्मृतिपथप्रस्थायि स्मरणगोश्वरम् । कुतः स्यात् भवेत् । उद्गतवातबोधितशिखिवालाकरालात गृहात निर्गत्य पचनप्रेरित अमिना दग्धगृहात् निर्णय । च पुनः । शीना वापिकां प्राप्य । तत्रैव उचलितगृहे । कः धीमान् चतुरः नरः प्रविशति । अपि तु प्रवेश न करोति ॥ १७ ॥ मोक्षेऽपि अषता उङ्गतमोहृतः । जायेत उत्पद्येत । तस्य मोक्षस्य सा अभिलषिता । सिद्धिहत् मुझे निषेधिका । जायते । क्षतस्मात्कारणात् । भूतार्थपरिग्रहः सत्यार्थपरिग्रहः मुनिः । किं कापि वस्तुनि । स्पृहाः भवति । अपि तु न भवति । इति आलोचनसंगतैकमनसा । सततं निरन्तरम् । अग्राहिणा परिग्रहरहितेन शुद्धात्मसंबन्धिना तत्वज्ञानपरायणेन । स्थातव्यम् ॥ १८ ॥ चितः । चिन्तायामपि । मुमुक्षोः मुनेः । रसाः विरसाः जायन्ते । गोष्ठी कथाकौतुकं विघटते। तथा विषयाः कीर्यन्ते शटन्ति । पुनः । शरीरेऽपि प्रीतिः विरमति । च पुनः । मौनं प्रतिभासते । रहः एकान्ते प्राप्तः । प्रायः बाहुल्येन दोषैः समं सार्धम् । ध्यानसे उत्पन्न इन्द्रियसुख स्मृतिका विषय कहांसे हो सकता है ? अर्थात् निर्मन्यताजन्य सुखके सामने इन्द्रियविषयजन्य सुख तुच्छ प्रतीत होता है, अतः उसकी चाह नष्ट हो जाती है । ठीक है - उत्पन्न हुई वायुके द्वारा प्रगट की गई अमिकी ज्वाला से भयानक ऐसे घरके भीतर से निकल कर शीतल बावड़ीको प्राप्त करता हुआ कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष फिरसे उसी जलते हुए घरमें प्रवेश करता है? अर्थात् कोई नहीं करता है ॥ १७ ॥ मोहके उदयसे जो मोक्षके विषयमें भी अभिलाषा होती है वह सिद्धि (मुक्ति) को नष्ट करनेवाली है । इसलिये भूतार्थ ( सत्यार्थ ) अर्थात् निश्चय नयको ग्रहण करनेवाला मुनि क्या किसी भी पदार्थके विषय में इच्छायुक्त होता है ? अर्थात् नहीं होता । इस प्रकार मनमें उपयुक्त विचार करके शुद्ध आत्मा से सम्बन्ध रखते हुए साधुको परिग्रहसे रहित होकर निरम्बर तत्त्वज्ञानमें तत्पर रहना चाहिये ॥ १८ ॥ चैतन्यस्वरूप आत्मा चिन्तनमें मुमुक्ष जनके रस नीरस हो जाते हैं, सम्मिलित होकर परस्पर चलनेवाली कथाओंका कौतूहल नष्ट हो जाता है, इन्द्रियविषय बिलीन हो जाते हैं, शरीरके भी विषय प्रेमका अन्त हो जाता है, एकान्तमें मौन प्रतिभासित होता है, तथा वैसी अवस्था में दोषोंके साथ मन भी मरनेकी इच्छा करता है ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणीका आत्मस्वरूपकी ओर लक्ष्य नहीं होता है तभी तक उसे संगीत सुनने में, नृत्यपरिपूर्ण नाटक आदिके देखनेमें, परस्पर कथा वार्ता करनेमें तथा शंगारादिपूर्ण उपन्यास आदिके पढ़ने-सुननमें आनन्द आता है। किन्तु जैसे ही उसके हृदयमें आत्मस्वरूपका बोध उदित होता है वैसे ही उसे उपर्युक्त इन्द्रियविषयोंके निमिचसे प्राप्त होनेवाला रस ( आनन्द ) नीरस प्रतिभासित होने लगता है । अन्य इन्द्रियविषयोंकी तो बात ही क्या, किन्तु उस समय उसका अपने शरीर के विषयमें १ अ श अभिलाविता Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५९ २३. परमार्थविशतिः मौनं च प्रतिभासते ऽपि च रहा प्रायो मुमुक्षोभितः विम्तायामपि यातुमिमाती पर घोषैर्मगा । RH 914) तवं वागतिवर्ति शुधनगतो यस्सर्वपक्षच्युत तबाध्य व्यवहारमार्गपतितं शियार्पणे जापते । प्रागल्भ्यम तथास्ति ता विकृती पोषो न साइग्विधर सेनाय मनु मारो जगमतिमीनाभितस्तिष्ठति ॥२०॥ arma मनः पद्धता मातुम् इच्छति विनाश गति ॥१९॥ शमनयतः यत्तत्वम् । वाक्-अतिवति वचनरक्षितम् । पुनः विलक्षम तलम् । सर्वपक्षम्युक्ते नवम्पासरहितम् । ततत्त्वं व्यवहारमार्गपवितम् । शिष्यार्पणे वाव्य वचनगोचरम् । बाबते । तत्र आत्मतती। तथा प्रामल मै मात्र आत्मतरवे। विएतो विचारगे । ताम्निषः पोधा शानं न! मनु इति बितक । तेन कारन । भमै बारजनः बरमतिः मौमाश्रितः विति॥२०॥ इति श्रीपरमार्थविवातिः ॥ २३ ॥ मी अनुराग नहीं रहता । वह पकान्त स्थानमें मौनपूर्वक स्थित होकर आत्मानन्दमें मम रहता है और इस प्रकारसे वह अज्ञानादि दोषों एवं समस्त मानसिक विकल्पोंसे रहित होकर अजर-अमर बन जात है॥ १९ ॥ जो तत्त्व शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा वचनका अविषय (अवतव्य ) तथा नित्यत्वादि सब विकल्पोंसे रहित है वही शिष्यों को देनेके विषयों अर्थात् शिष्योंको प्रबोध करानेके लिये व्यवहारमार्गमें पड़कर वचनका विषय भी होता है । उस आत्मतत्वका विवरण करनेके लिये न तो मुझमें वैसी प्रतिभाशालिता ( निपुणता) है और न उस प्रकारका ज्ञान ही है । अत एव मुझ जैसा मन्दबुद्धि मनुष्य मौनका अवलम्बन लेकर ही खित रहता है ।। विशेषार्थ- यदि शुद्ध निश्चयनय की अपेक्षा वस्तुके शुद्ध स्वरूपका विचार किया जाय तब तो वह वचनों द्वारा कहा ही नहीं जा सकता है । परन्तु उसका परिज्ञान शिष्यों को प्राप्त हो, इसके लिये वचनोंका आश्रय लेकर उनके द्वारा उन्हें बोध कराया जाता है । यह व्यवहारमार्ग है, क्योंकि, वाथ्यपाचकका यह द्वैतभाव वहां ही सम्भव है, न कि निश्चयमार्गमें । ग्रन्थकर्ता श्री मुनि एममन्दी अपनी लघुता प्रगट करते हुए यहां कहते हैं कि व्यवहारमार्गका अवलम्बन लेकर भी जिस प्रतिभा अथवा मानके द्वारा शिष्योंको उस आत्मतत्त्वका बोध कराया जा सकता है वह मुझमें नहीं है, इसलिये मैं उसका विशेष विवरण न करके मौनका ही आश्रय लेता ई॥ २०॥ इस प्रकार परमार्थविंशति अधिकार समाप्त हुआ ॥ २३ ॥ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२४. शरीराष्टकम् ] 15) तुर्गन्धाशुचिधातुभित्तिकलित संछादितं चर्मणा पिण्मूलादिभृतं सुधादिविलसदुखाखुभिरिछद्रितम् । क्लिष्टं कायकुटीरक स्वयमपि प्राप्तं जरावलिना देतचदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते ॥ १ ॥ 916) दुर्गन्ध कृमिकीटजालकलितं नित्यं भवहरसं शोषमानविधानवारिविहितप्रक्षालन भृतम् । एतस्य यदीरक मूहः जनः । स्थिर शाश्वतम् । शुचितरे श्रेष्ठम् । मन्यते। किलक्षणं कायक्टीरकम्। दुर्गन्धाशुविधातुभितिकलितम् । पुनः किलझणं शरीरम् । चर्मणा संछादितम् । पुनः इदं शरीरं विवादिभूतादिमृतम् । क्षुधा-आदिदुःखमूषकाः सः छिद्रित पीडितमा पुनः इशारीर जरा-अमिना खयमपि दग्ध प्राप्तम्। क्लिष्ट केशमूतम् । तत्तस्मात्कारणात् । तदपि मूर्खः जनःशरीर स्थिर मन्यते ॥1॥ उमतषियः मुनयः मानुष्य वपुः शरीरम् नाडीव्रण स्फोटकम् । बाहुः कथयन्ति । तत्र शरीरव्रणेमनं भेषजम् । वसनानि वाणि पदकं लोके स्फोटको परिवसामन्धानम् । तत्रापि शरीरमणे । अनः रागी ममत्वं करोति । अहो इति भावयें । जो शरीररूप झोपडी दुर्गन्धयुक्त अपवित्र रस, रुधिर एवं अस्थि आदि धातुओंरूप भित्तियों (दीवालों ) के आश्रित है, चमड़ेसे वेष्टित है, विष्ठा एवं मूत्र आदिसे परिपूर्ण है तथा प्रगट हुए मूख-प्यास आदिक दुःखोरूम चूहोंक द्वारा छेदोंयुक्त की गई है। ऐसी वह शरीररूप झोपडी यद्यपि स्वयं ही वृद्धस्वरूप अग्निसे प्राप्त की जाती है तो भी अज्ञानी मनुष्य उसे स्थिर एवं अतिशय पवित्र मानते हैं । विशेषार्थ- यहां शरीरके लिये झोंपडीकी उपमा देकर यह बतलाया है कि जिस प्रकार बांस आदिसे निर्मित भीतोंके आश्रयसे रहनेवाली झोपड़ी घास या पत्तोंसे आच्छादित रहती है । इसमें चूहोंके द्वारा जो यत्र तत्र छेद किये जाते हैं उनसे वह कमजोर हो जाती है। उसमें यदि कदाचित् आग लग जाती है तो वह देखते ही देखते भस्म हो जाती है । ठीक इसी प्रकारका यह शरीर भी है- इसमें भीतोंके स्थानपर दुर्गन्धित एवं अपवित्र रस-रुधिरादि धातुएं हैं, घास आदिके स्थानमें इसको आच्छादित करनेवाला चमड़ा है, तथा यहां चूहकि स्थानमें भूख-प्यास आदिसे होनेवाले विपुल दुःख हैं जो उसे निरन्तर निर्बल करते हैं । इस प्रकार झोपड़ीके समान होनेपर भी उससे शरीरमें यह विशेषता है कि वह तो समयानुसार नियमसे वृद्धत्व (दुढापा) से व्याप्त होकर नाशको प्राप्त होनेवाला है, परन्तु यह झोपड़ी कदाचित् ही असावधानीके कारण अमि आदिसे व्यास होकर नष्ट होती है। ऐसी अवस्थाके होनेपर भी आश्चर्य यही है कि अज्ञानी प्राणी उसे स्थिर और पवित्र समझ कर उसके निमित्तसे अनेक प्रकारके दुःखोंको सहते हैं ।। १ ।। जो यह मनुष्यका शरीर दुर्गन्धसे सहित है, लटों एवं अन्य क्षुद्र कीड़ोंके समूहसे व्याप्त है, निरन्तर बहनेवाले एसीना एवं नासिका आदिके दूषित रससे परिपूर्ण है, पवित्रताके सूचक नानको सिद्ध करनेवाले जलसे जिसको धोया जाता है, फिर भी ओ रोगोंसे परिपूर्ण है। ऐसे उस मनुष्यके शरीरको उत्कृष्ट बुद्धिके धारक विद्वान् नससे सम्बद्ध फोषा आदिके पावके समान बतलाते हैं। उसमें अन (आहार) तो औषधके समान है तथा वन Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ --918:२४] २४. शरीरकम् २६१ मानुष्य बपुराहुनतशियो नारीवर्ष मेषर्ज तथा वसनानि परकमहो तत्रापि रागी जनः ॥२॥ 917) नृणामशेषाणि सदैव सर्वथा धषि सर्षाशुधिभाजि निश्चितम् । ततः क पतेषु पुषः प्रपद्यते शुचित्वमम्बुखतिचन्दमादिभिः ॥ ३ ॥ 918) तिक्तेश्याई क्ष्वाकुफलोपमं वपुरिद मैचोपभोग्य नृणां साधेमोहफुजम्मरधरहितं शुष्क तपोधर्मतः। किलक्षणं शरीरत्रणम् । दुर्गन्धम् । पुनः कृमिकीटजालकलितं व्याप्तम् । पुनः किंलक्षणे शरीरपणम् । नित्यम्नवत्-क्षरत दूरसं निन्धरसम्। पुनः विलक्षण शरीरव्रणम् । शौ यस्नानविधानेम वारिणा विहितप्रक्षालनम् । पुनः ममूर्त म्याधिमृतम् ॥ २॥ नृणाम् । भशेपानि समस्तानि । बषि शरीराणि । सदैव सर्वथा । निश्चितम् । अविभाजि अशुचिलं भजन्ति । ततः कारणात् । कः सुधः । एतेषु शरीरेषु । भम्युउतिचन्दनादिः जलस्नानचन्दनादिभिः शुचित्वं प्रतिपद्यते ॥३॥ मृणाम् इदं वपुः । तिक्तेष्वा फलोपर्म कटुकडेमीफलसरशं वर्तते। चेवदि। तपोधर्मतः शुष्कम् । स्थात् भवेत् । तदा भवनही-संसारनदीतारे क्षमं समर्थ जायते । उपभोग्य नैव । इदं वपुः । तुम्बीफलाम् । अन्तः मध्ये गौरवित न मध्ये गुरुत्वरहितम् । पक्षे तपोगौरवशानगवरहितम् । पट्टीके समान है । फिर भी आश्चर्य है कि उसमें भी मनुष्य अनुराग करता है। विशेषार्थ- यहां मनुष्यके शरीरको पावके समान बतलाकर दोनों में समानता सुचित की गई है। यथा-जैसे घाव दुर्गन्धसे सहित होता है वैसे ही यह शरीर भी दुर्गन्धयुक्त है, पाव जिस प्रकार लटों एवं अन्य छोटे छोटे कीड़ोंका समूह रहता है उसी प्रकार शरीरमें भी वह रहता ही है, पावसे यदि निरन्तर पीव और खून आदि बहता रहता है तो इस शरीरसे भी निरन्तर पसीना आदि बहता ही रहता है, धावको यदि जलसे धोकर स्वच्छ किया जाता है तो इस शरीरको भी जलसे स्नान कराकर स्वच्छ किया जाता है, धाव जैसे रोगसे पूर्ण है वैसे ही शरीर भी रोगोंसे परिपूर्ण है, धावको ठीक करनेके लिये यदि औषध लगायी जाती है तो शरीरको भोजन दिया जाता है, तथा यदि धावको पट्टीसे बांधा जाता है तो इस शरीरको भी वस्त्रोंसे वेष्टित किया जाता है। इस प्रकार शरीरमें धावकी समानता होनेपर भी आश्चर्य एक यही है कि घावको तो मनुष्य नहीं चाहता है, परन्तु इस शरीरमें वह अनुराग करता है ॥ २ ॥ मनुष्यों के समस्त शरीर सदा और सब प्रकारसे नियमतः अपवित्र रहते हैं । इसलिये इन शरीरोंके विषयमें कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य जलनिर्मित सान एवं चन्दन आदिके द्वारा पवित्रताको स्वीकार करता है। अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् मनुष्य स्वभावतः अपवित्र उस शरीरको नानादिके द्वारा शुद्ध नहीं मान सकता है ॥ ३ ॥ यह मनुष्योंका शरीर कडवी तुंबीके समान है, इसलिये वह उपयोगके योग्य नहीं है। यदि वह मोह और कुजन्मरूप छिद्रोंसे रहित, तपस्य घाम (धूप) से शुष्क (सूखा हुआ) तथा भीतर गुरुतासे रहित हो तो संसाररूप नदीके पार करानेमें समर्थ होता है। अत एव उसे मोह एवं कुजम्मसे रहित करके तपमें लगाना उत्तम है । इसके विना वह सदा और सब प्रकारसे निःसार है । विशेषार्थ-- यहां मनुष्य के शरीरको कडवी तुंबीकी उपमा देकर यह बतलाया है कि जिस प्रकार कडवी तुंत्री खानेके योग्य नहीं होती है उसी प्रकार यह शरीर भी अनुरागके योग्य नहीं है। यदि यह तुंबी छेदोंसे रहित, धूपसे सूखी और मध्यमें गौरव (भारीपन) से रहित है तो नदीमें तैरनेके काममें आती है । ठीक इसी प्रकारसे यदि यह शरीर भी मोह एवं दुष्कुलरूप छेदोंसे रहित, तपसे क्षीण शकदेवाकु । २ क विहित प्रक्षालनम् । Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ पचनन्दिविंशतिः मान्तगौरवितं तदा मधनदीतारे' क्षमं जायते तसच नियोजित परमधासारं सदा सर्वथा ॥ ४ ॥ 919 ) भवतु भवतु पातालपु हदि गुरुवचनं भेदस्ति तचस्वदर्शि । स्वरितमलमलारामन्दकन्दायमाना भवति यवनुभावादसया मोक्षलक्ष्मीः ॥ ५ ॥ 920) पर्यन्ते कृमयो ऽथ वह्निषशतो भीर्थे मत्स्यादनात् विठा स्वादथवा वपुःपरिणतिस्तस्येडशी आयते । नित्यं मैव रसायनादिभिरपि क्षय्येव यचत्कृते कः पापं कुदते बुधो ऽत्र भविता कष्टा यतो दुर्गतिः ॥ ६ ॥ 921 ) संसारस्तयोगे पर्षद दुग् लौह समाश्रितस्य घनतो घाताद्यतो निठुरात् । ' तपोथर्मितः शुष्कं शरीरम् । अथ तत्र शरीरम्बीफले तत्तदेव चमनियोजित वरम् । अन्यथा तपोधर्मतः शुष्कं न तदा । सदा सारं सर्वथा ॥४॥ वेद्यदि मे हृदि गुरुवचनम् अस्ति एतद्वपुः याइकू तारक् भवतु भवतश्वचर्म स्वरितं तत्वदर्शि यदनुभावात् यस्य गुरोः प्रभावात् अक्षया मोक्षलक्ष्मीः भवति : किलक्षणा मोक्षलक्ष्मीः । असमसारानन्दकन्दायमाना असदृश-आनन्दयुक्ता ॥ ५ ॥ इदं वपुः पर्यन्ते विनाशकाळे कृमयः भवेत् । अथ वशितः भस्मे भवेत् । च पुत्रः । मत्स्वादमात् मत्स्यभक्ष गात् । विष्ठा स्यात् भवेत् । तस्य शरीरस्य ईदृशी परिणतिः संजायते। भयमा नित्यं नैव शाश्वतं नैव । रसायनादिभिः महारोगादिभिः क्षयि विनश्वरम् । यत् यस्मात्कारणात् । तस्य शरीरस्य कृते करणाय । कः शुभः अत्र पाएं कुर्वते । यतः दुर्गतिः कष्टा भविता ॥ ६ ॥ एषः तनुयोगः शरीरयोगः । विषयः संसारः । भतः शरीरयोगतः । देहिनः जीवस्य दुःखानि । यथा रहे लोहसमाश्रितस्य निठुराव चनतः मातात् दुःखं जायते । किंलक्षणस्य अमेः । मोहसमाधितस्य । सेन कारणेन सुमुखुभिः। इ [918: २४४ और गौरव (अभिमान) से रहित हो तो वह संसाररूप नदीके पार होने में सहायक होता है। इसीलिये जो भव्य प्राणी संसाररूप नदीके पार होकर शाश्वतिक सुखको प्राप्त करना चाहते हैं उन्हें इस दुर्लभ मनुष्यशरीरको तप आदिमें लगाना चाहिये । अन्यथा उसको फिरसे प्राप्त करना बहुत कठिन होगा ॥ ४ ॥ यदि हृदयमें जीवादि पदार्थोंके यथार्थ स्वरूपको प्रगट करनेवाला गुरुका उपदेश स्थित है तो मेरा जैसा कुछ यह शरीर है वह वैसा बना रहे, अर्थात् उससे मुझे किसी प्रकारका खेद नहीं है। इसका कारण यह है कि उक्त गुरुके उपदेशके प्रभावसे असाधारण एवं उत्कृष्ट आनन्दकी कारणीभूत अविनश्वर मोक्षलक्ष्मी शीघ्र ही प्राप्त होती है ॥ ५ ॥ यह शरीर अन्तमें अर्थात् प्राणरहित होनेपर कीड़ोंस्वरूप, अथवा अनिके वश होकर भस्मस्वरूप, अथवा मछलियोंके खानेसे विष्ठा (मल) स्वरूप हो जाता है। उस शरीरका परिणमन ऐसा ही होता है। औषधि आदिके द्वारा भी नित्य नहीं हैं, किन्तु विनश्वर ही है, तब भला कौन-सा विद्वान् मनुष्य इसके विषयमें पापकार्य करता है? अर्थात् कोई भी विद्वान् उसके निम्ति पापकर्मको नहीं करता है । कारण यह कि उस पापसे नरकादि दुर्गति ही प्राप्त होगी ॥ ६ ॥ यह शरीरका सम्बन्ध ही संसार है, इससे विषय में प्रवृत्ति होती है जिससे प्राणीको दुख होते हैं। ठीक है -- लोहका आश्रय लेनेवाली अमिको कठोर बनके बात आदि सहने पड़ते हैं । इसलिये मोक्षार्थी भव्य जीवोंको इस शरीरको भस्मम्ध, च भस्मव । ५ तनुरोग ६ एव । १ नान्तं गौरवित । २ब तीरे ३ व भवति । ४ ७ क भस्मः । 4 तनुरोगः शरीरगः । Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६१ २४. शरीराष्टकम् स्थाज्या सेन तनुर्मुमुक्षुभिरियं युक्त्या महस्या तया मो भूयो ऽपि ययात्मनो भवकते तसनिधिर्जायते ॥ ७ ॥ 922 ) रक्षापोपविधौ जमो ऽस्य सपुषः सर्वः सदैवोद्यतः कालादिष्टजरा करोत्यनुदिनं तार्जर पानयोः। स्पर्धामाभितयोईयोर्षिजयिनी सैका जरा आयते साक्षात्कालपुरासरा यदि तवा कास्था स्थिरत्थे मृणाम् ॥ ८॥ == तनुः । तया महत्या युक्त्या परवा त्याज्या यया युक्त्या भूयोऽपि । भवकृते' कारणाय । आत्मनः । सस्य शरीरस्म । संनिधिः निकरम् । न जायते ॥॥ सर्वः जनः । अस्य वपुषः शरीरमा रक्षापोषविधौ सदा उद्यतः । अनुदिनम् । कालादिष्टजरा कालेन प्रेरिता जरा । तत् शरीरम् । अर्जर करोति । म पुनः । अनयोः जनजरयोः द्वयोः । स्पर्दाम् ईयाम् आश्रितयोः मध्ये यदि सा एका जरा साक्षात् विजमिनी जायते तदा नृणां स्थिरत्ने का आस्था ।सधंभूता जरा । कालपुरुसरा ॥८॥ इति शरीराष्टकम् ॥२४॥ Mन ऐसी महती युक्तिसे छोड़ना चाहिये कि जिससे संसारके कारणीभूत उस शरीरका सम्बन्ध आत्माके साथ फिरसे न हो सके ॥ विशेषार्थ--प्रथमतः लोहको अमिमें खूब तपाया जाता है। फिर उसे घनसे ठोकपीटकर उसके उपकरण बनाये जाते हैं। इस कार्यमें जिस प्रकार लोहेकी संगतिसे व्यर्थमें अग्निको भी घनकृत घातोंको सहना पड़ता है उसी प्रकार शरीरकी संगतिसे आत्माको भी उसके साथ अनेक प्रकारके दुस सहने पड़ते हैं। इसलिये अन्धकार कहते हैं कि तप आदिके द्वारा उस शरीरको इस प्रकारसे छोइनेफा प्रयत्न करना चाहिये कि जिससे पुनः उसकी प्राप्ति न हो। कारण यह कि इस मनुष्यशरीरको प्राप्त करके यदि उसके द्वारा साध्य संयम एवं तप आदिका आचरण न किया तो प्रणीको वह शरीर पुनः पुनः प्राप्त होता ही रहेगा और इससे शरीरके साथमै कष्टोंको भी सहना ही पड़ेगा ।। ७ ।। सब प्राणी इस शरीरके रक्षण और पोषणमें निरन्तर ही प्रयत्नशील रहते हैं, उधर कालके द्वारा आदिष्ट जरा- मृत्युसे प्रेरित बुदापा-उसे प्रतिदिन निर्बल करता है । इस प्रकार मानों परस्परमें स्पर्धाको ही प्राप्त हुए इन दोनोंमें एक वह बुढ़ापा ही विजयी होता है, क्योंकि, उसके आगे साक्षात् काल ( यमराज) स्थित है । ऐसी अवस्थामें जब शरीरकी यह स्थिति है तो फिर उसकी स्थिरतामें मनुष्योंका क्या प्रयत्न चल सकता है । अर्थात् कुछ भी उनका प्रयास नहीं चल सकता है ।। ८ ॥ इस प्रकार शरीराटक अधिकार समाप्त हुआ ॥२४॥ १६ भूयोऽपि वाले संसारको । Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२५. स्नानाष्टकम् ] 928) सम्माख्यादि यदीयसनिधिवशादस्पृश्यतामाश्रयेद विण्मूनादिभृतं रसादिघटितं बीमत्सु यत्पूति च । आरमा मलिन करोत्यपि शुचि लांशुबीनामिदं संकेतकगृहं नृणां यपुरषां मामास्कथं शुमति ॥१॥ 924) आत्माप्तीव शुचिः स्यमावत इति मान वृथालिन् परे कायधाशुचिरेष तेन शुचितामभ्येति नो जाचित् । मृणाम् इदं वपुः शरीरम् । अपां जलानाम् । नानात्वर्थ शुरूपति । यहीयसनिधिवशात् यस्य शरीरस्य संनिधियशात निकटयशात । सन्माल्यादि पुष्पमालादि अस्पृश्यताम् मात्रयेत् । च पुनः । मद शरी बिद-विधामूत्राविमृतम् । पुनः रसादिघटितम् । पुनः बीभत्सु भयानकम् । पुनः पूति दुर्गन्धम् । शुधिम् मात्मानं मलिन करोति इदं शरीरम्। पुनः किंलक्षणम् । सर्वाशुचीनी संकेतकगृहम् । तत शरीरं जलात्न सुम्यति ।।॥ भारमा सभावतःमतीव शुचिः पवित्रः । इति तो अस्मिन् परे हे मात्मनि । स्नान कथा अफलम् । व पुनः। कायः सदैव अशुभिः एम। तेने जलेन । शुचिता पवित्रताम् । जाचित् जिस शरीरकी समीपताके कारण उत्तम माला आदि छनेके भी योग्य नहीं रहती है, जो मल एवं मूत्र आदिसे भरा हुआ है, रस एवं रुधिर आदि सात धातुओंसे रचा गया है, भयानक है, दुर्गन्धसे युक्त है, तथा जो निर्मल आत्माको भी मलिन करता है। ऐसा समस्त अपवित्रताओंके एक संकेतगृहके समान यह मनुष्योंका शरीर जलके खानसे कैसे शुद्ध हो सकता है। अर्थात् नहीं हो सकता है ॥ १ ॥ आत्मा तो स्वभावसे अत्यन्त पवित्र है, इसलिये उस उत्कृष्ट मात्माके विषयमें सान व्यर्थ ही है; तथा शरीर स्वमावसे अपवित्र ही है, इसलिये वह भी कभी उस मानके द्वारा पवित्र नहीं हो सकता है । इस प्रकार खानकी व्यर्थता दोनों ही प्रकारसे सिद्ध होती है। फिर भी जो लोग उस मानको करते हैं वह उनके लिये करोड़ों पृथिवीकायिक, जलकायिक एवं अन्य कीड़ोंकी हिंसाका कारण होनेसे पाप और रागका ही कारण होता है। विशेषार्थ- यहां ज्ञानकी आवश्यकताका विचार करते हुए यह प्रश्न उपस्थित होता है कि उससे क्या आत्मा पवित्र होती है या शरीर ! इसके उत्तरमें विचार करनेपर यह निश्रित प्रतीत होता है कि उक्त मानके द्वारा आत्मा तो पवित्र होती नहीं है, क्योंकि, वह स्वयं ही पवित्र है । फिर उससे शरीरकी शुद्धि होती हो, सो यह भी नहीं कहा जा सकता है; क्योंकि वह स्वभावसे ही अपवित्र है । जिस प्रकार कोयलेको जलसे रगड़ रगड़कर धोनेपर भी वह कभी कालेपनको नहीं छोड़ सकता है, अथवा मलसे भरा हुआ घट कभी बाहिर मांजनेसे शुद्ध नहीं हो सकता है; उसी प्रकार मल-मूत्रादिसे परिपूर्ण यह सप्तधातुमय शरीर भी कभी मानके द्वारा शुद्ध नहीं हो सकता है। इस तरह दोनों ही प्रकारसे खानकी व्यर्थता सिद्ध होती है। फिर भी जो लोग खान करते हैं वे चूंकि जलका यिक, पृथिवीकायिक तथा अन्य प्रस जीवोंका भी उसके द्वारा घात करते हैं; अत एव वे केवल हिंसाजनित पापके भागी होते हैं। इसके अतिरिक्त वे शरीरकी बाप स्वच्छतामें राग भी रखते हैं, यह भी पापका ही कारण है । अभिप्राय यह है १मः विण। २ क कायरा अधिः तेन । Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -~-926:२५-४] २६५ २५. मानाष्टकम् मानस्योभयथेस्यभूतिफलता ये कुर्वते तत्पुनस् तेषां भूजलकीटकोटिहननात्पापाय रागाय च ॥२॥ 925) चित्ते प्राग्भवकोटिसंचितरजासंबन्धिताविर्भवन मिथ्यात्वादिमलव्यपायजनक मानं विवेकः सताम् । अन्यद्वारिकृतं तु अन्तुनिकरव्यापायनास्पापक मो धो शिजता स साल मारे शहार शुधौ ।।। 926) सम्यग्बोधविशुद्धधारिणि लसत्सदर्शनोमिमजे निस्यानन्दविशेषशैत्यसुभगे निःशेषपापहि । सत्तीर्थ परमात्मनामनि सदा खानं कुरुभ्यं घुधार शुद्धयर्थे किमु घायत त्रिपथगामालप्रयासाकुलाः ॥ ४॥ कदाचित् । मो अभ्येति न प्राप्नोति । इति हेतोः । स्नानस्य उभयपा द्विप्रकारम् । विफलता अभूत् । पुनः ये मुनमः तत् मान कुर्वते तेषां यतीना भूजलकीटकोटिईननात् तत्स्नानं पापाय रागाय च ॥२॥ सतो सत्पुरुषाणाम् । विवेकः मानम् । किंलक्षणः बिबेकविते मनति । प्राग्भव-पूर्वपर्याय-कोटिसंचितरजःसंबन्धिताविर्भवन्मिध्यास्वादिमलव्यपायजनक नाशकारक: विवेकः । पुनः। खलु इति निश्चितम् । खभाषाशुची स्वभावात् अपवित्रे काये । अन्यद्वारिकृत मानं जन्तुनिकरण्यापादनात् जन्तुसमूहविनाशनाद पापकृत् । ततः पापात् नो धर्मः । खलु निश्चितम् । खभावाशुचौ काये पवित्रता न ॥३॥ भो बुधाः त्रिपया गङ्गाम् । शुकार्य किमु भारत भालप्रयासालाः । मो मग्याः। परमात्मनामनि सनी मान कुरुथ्वम् । किलक्षणे सनी। सम्बन्धोष एवं सुरजले यत्र तत्तस्मिन् सम्यम्बोधविशुद्धवारिणि । पुनः किंलक्षणे परमात्मनामनि वीर्षे । लसस्थानोमिबजे । पुनः नित्यानन्द. monmenunmmmmmmmmmmananer कि निश्चय दृष्टिसे विचार करनेपर स्नानके द्वारा शरीर तो शुद्ध नहीं होता है, प्रत्युत जीवहिंसा एवं आरम्म आदि ही उससे होता है। यही कारण है जो मुनियों के मूलगुणों में ही उसका निषेध किया गया है। परन्तु व्यवहारकी अपेक्षा वह अनावश्यक नहीं है, बल्कि गृहस्थके लिये वह आवश्यक भी है। कारण कि उसके विना शरीर तो मलिन रहता ही है, साथमें मन भी मलिन रहता है। विना मानके जिनपूजनादि शुभ कार्यों में प्रसन्नता भी नहीं रहती । हां, यह अवश्य है कि बाय शुद्धिके साथ ही आभ्यन्तर शुद्धिका भी ध्यान अवश्य रखना चाहिये । यदि अन्तरंगमें मद-मात्सर्यादि भाव हैं तो केवल यह बाह्य शुद्धि कार्यकारी नहीं होगी || २ | चित्तमें पूर्वके करोड़ों भवोंमें संचित हुए पाप कर्मरूप धूलिके सम्बन्धसे प्रगट होनेवाले मिथ्यात्व आदिरूप मलको नष्ट करनेवाली जो विवेकबुद्धि उत्पन्न होती है वही वास्तव में साधु जनोंका मान है । इससे भिन्न जो जलकृत स्नान है वह प्राणिसमूहको पीडाजनक होनेसे पापको करनेवाला है। उससे न तो धर्म ही सम्भव है और न स्वभावसे अपवित्र शरीरकी पवित्रता भी सम्भव है || ३ ॥ हे विद्वानो! जो परमात्मा नामक समीचीन तीर्थ सम्यग्ज्ञानरूप निर्मल जलसे परिपूर्ण है, शोभायमान सम्यग्दर्शनरूप लहरों के समूहसे व्याप्त है, अविनश्वर आनन्दविशेषरूप ( अनन्तसुख) शैत्यसे मनोहर है, तथा समस्त पापोंको नष्ट करनेवाला है। उसमें आप लोग निरन्तर स्नान करें । व्यर्थक परिश्रमसे व्याकुल होकर शुद्धिके लिये गंगाकी ओर क्यों दौड़ते हैं । अर्थात् गंगा आदिमें स्नान करनेसे कुछ अन्तरंग शुद्धि नहीं हो सकती है, वह तो परमात्माके स्मरण एवं उसके स्वरूपके चिन्तन आदिसे ही हो सकती है, अत एवं उसीमें अवगाहन १पा कोटिकीट। २क शुद्धजलम् । मनन ३४ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ [927:२५५ पचनन्वि-पशिपिंशतिः 927 ) नो इष्टः शुचितस्वनिमयनदो नसामरक्षाकर पापैः कापि न पश्यते व समतानामातिशुद्धा मदी। सेनैतानि विहाय पापहरणे सस्यामि तीर्थानि ते तीर्यामाससुरागादिषु अझ मान्ति तुभ्यन्ति च ॥५॥ 928) नो सीयें न जले तस्ति भुवने नान्यस्किमप्यस्ति तत् निःशेषाशुधि येन मानुश्वयुः लाक्षाविद शुद्ध्यति । भाभियाधिजरामाप्तिपनिमिया तथैतत्पुनः' शश्वत्तापकरं यथास्य वपुषो नामाप्पसह्यं सताम् ॥ ६॥ 929 ) सबैस्तीर्थ अलैरपि प्रतिदिन सात न शुद्ध भवेत् करादिविलेपनैरपि सदा लिप्तं च दुग्धभुत् । पोनापि च रक्षितं शयपथमस्थायि दुम्सप्रद यत्तस्मादपुषः किमयाशुभ कर च किं प्राणिमाम् ॥७॥ विशेषशैलसुभगे । पुनः निःशेषपापहार पापस्फेटके ॥पापैः पापयुक्तः पुरुषैः । वापि कस्मिन् काले । शुचितत्वनिक्षयनदः न राष्टः । पुनः तैः पापैः सानरजाकरः न : 1 र पुनः । समता नाम नदी न दृश्यते। तेन कारणेन। एतानि सत्यानि सी नि पापहरणे समर्थानि । बिहाय परित्यज्य । ते जडाः मूर्खः । वीर्धाभाससुरापगादिषु गङ्गादितीर्थेषु मजन्ति तुष्यन्ति चै ॥ ५ ॥ भुवने संसारे । येन वस्तुना। इदं मानुषवपुः साक्षात् शुभ्यति सत्तीर्थ नो । तखल न अस्ति। तदन्यत् किमपि न भस्ति । निःशेषाशुचि सर्वम् अशुचि । पुनः धिम्याधिजरामृतिप्रभूतिभिः । तत् शरीरम् । स्याप्तम् शश्वत् तापकरम् । यथा अस्य वपुषः नाम्। भसामा यवपुः सः तीर्थजलैः अपि प्रतिदिन सात शुद्ध न भवेत् । यद्दपः कर्मरादिक्लेिपनैः सदा लिशम् अपि दुर्गन्धमृत् । च पुनः । योनापि रक्षितम् । क्षयपयप्रस्थायि क्षयपथगमनशीलम् । पुनः दुःखप्रदम् । करना चाहिये ॥ ४ ॥ पापी जीवोंने न तो तत्वके निश्चयरूप पवित्र नद (नदीविशेष ) को देखा है और न ज्ञानरूप समुद्रको ही देखा है । वे समता नामक अतिशय पवित्र नदीको भी कहींपर नहीं देखते हैं। इसलिये वे मूर्ख पापको नष्ट करनेके विषयमें यथार्थभूत इन समीचीन तीथोंको छोड़कर तीर्थके समान प्रतिभासित होनेवाले गंगा आदि तीर्थाभासोंमें स्नान करके सन्तुष्ट होते हैं ॥ ५ ।। संसारमें वह कोई तीर्थ नहीं है, वह कोई जल नहीं है, तथा अन्य भी वह कोई वस्तु नहीं है। जिसके द्वारा पूर्णरूपसे अपवित्र यह मनुष्यका शरीर प्रत्यक्षमें शुद्ध हो सके। आधि ( मानसिक कष्ट), व्याधि ( शारीरिक कष्ट ), बुढ़ापा और मरण आदिसे व्याप्त यह शरीर निरन्तर इतना सन्तापकारक है कि सज्जनोंको उसका नाम लेना भी असा प्रतीत होता है ।। ६ ।। यदि इस शरीरको प्रतिदिन समस्त तीर्थोके जलसे भी मान कराया जाय तो भी वह शुद्ध नहीं हो सकता है, यदि इसका कपूर व कुंकुम आदि उबटनोंके द्वारा निरन्तर लेपन भी किया जाय तो भी वह दुर्गन्धको धारण करता है, तथा यदि इसकी प्रयत्नपूर्वक रक्षा भी की जाय तो भी वह क्षयके मार्गमें ही प्रस्थान करनेवाला अर्थात् नष्ट होनेवाला है। इस प्रकार जो शरीर सब प्रकारसे दुख देनेवाला है उससे अधिक प्राणियोंको और दूसरा कौन-सा अशुभ व कौन-सा कृष्ट हो सकता है ! अर्थात् प्राणियोंको सबसे अधिक अशुभ और कष्ट देनेवाला यह शरीर ही १ प्रतिपाठोऽयम् । क न्याप्तं तदा तत्पुनः भ्याप्त येतवनः। र श 'च' नास्ति। ३ अस्त्रि भन्यस्किमपि । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -930:२५-८] २५. सानाएकम् 930 ) भव्या भूरिभवार्जितोदितमहद्रमोहसोल्लसन् मिथ्याबोधविषमसंगविकला मन्दीमयदृष्टयः । श्रीमत्पङ्कजनम्दिवाराशदिम्भप्रसूतं परं पीत्वा कर्णपुटैर्भवन्तु सुखिनः सानायकाण्यामृतम् ॥ ८॥ तस्मानपुषः सकाशात् अन्यत्कष्टं किम् । प्राणिनाम् अन्यत् अशुभ किम् ॥ ७ ॥ भो भव्याः । मानाष्टकारख्यामृतं कर्णपुरैः पीवा सुखिनः भवन् । किलक्षणा यूयम् । भूरिमार्जित-उवित-महाधमोहसर्प-पुलसन्मिध्यागोधविषप्रसंगेन विकलाः । मन्दीभवद्दृष्टयः । किंलक्षणम् अमृतम् । श्रीमत्पाज-पयनन्दिवत्रशशभूत्-चन्द्रनिम्बात् प्रसूतम् ।। पर श्रेष्ठम् ॥ ८॥ इति स्नानाष्टक समाप्तम् ॥ २५ ॥ है, अन्य कोई नहीं है ॥ ७ ॥ जो भव्य जीष अनेक जन्मों में उपार्जित होकर उदयको प्राप्त हुए ऐसे दर्शनमोहनीयरूप महासर्पसे प्रगट हुए मिथ्याज्ञानरूप विषके संसर्गसे व्याकुल हैं तथा इसी कारणसे जिनकी सम्यग्दर्शनरूप दृष्टि अतिशय मन्द हो गई है वे भव्य जीव श्रीमान् पानन्दी मुनिके मुखरूप चन्द्रबिम्बसे उत्पन्न हुए इस उत्कृष्ट 'सानाष्टक' नामक अमृतको कानोंसे पॉकर सुखी होवे ॥ विशेषार्थ-यति कभी किसी प्राणीको विषैला सर्प काट लेता है तो वह शरीरमें फैलनेवाले उसके विषसे अत्यन्त व्याकुल हो जाता है तथा उसकी दृष्टि ( निगाह ) मन्द पड़ जाती है । सौभाग्यसे यदि उस समय उसे चन्द्रबिम्बसे उत्पन्न अमृतकी प्राप्ति हो जाती है, तो वह उसे पीकर निर्विष होता हुआ पूर्व चेतनाको प्राप्त कर लेता है। ठीक इसी प्रकार जो प्राणी सर्पके समान अनेक भवोंमें उपार्जित दर्शनमोहनीयके उदय से मिथ्याभावको प्राप्त हुए ज्ञान (मिथ्याज्ञान ) के द्वारा विवेकशून्य हो गये हैं तथा जिनका सम्यग्दर्शन मन्द पड़ गया है वे यदि पद्मनन्दी मुनिके द्वारा रचित इस 'खानाष्टक' प्रकरणको कानोंसे सुनेंगे तो उस अविवेकके नष्ट हो जानेसे थे अवश्य ही प्रबोधको प्राप्त हो जायेंगे, क्योंकि, यह मानाष्टक प्रकरण अमृतके समान सुख देनेवाला है ॥ ८ ॥ इस प्रकार खानाष्टक अधिकार समाप्त हुआ ॥ २४ ।। एम सरानि, शशिभीन, व शशिभूमि । २कम पाबकचन्द्र । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [२६. ब्रह्मचर्याष्टकम् ] 981) भवविधEममेव यतो भवेदधिकदुःखकरं चिरमशिनाम् । इति निजानयापि म तम्मतं मतिमतां सुरतं किमुतोऽन्यथा ॥ १ ॥ 982) पशष पप रते रतमानसा इसिबुधः पशुकर्म तदुख्यते । अभिषया मनु सार्थक्यानया पशुगतिः पुरतो ऽस्य फलं भवेत् ॥२॥ 983) यदि भवेदवलासु रतिः शुभा किल निजासु सतामिह सर्वथा । किमिति पर्वसु सा परिवर्जिता किमिति या तपसे सततं बुधैः ॥ ३ ॥ तत्पुरतम् । मतिमता शानवताम् । निशानयापि सह न मतं न कथितम् । इति देतोः । उत्त भहो । अन्यथा परागलया किम् । किमपि न । यतः यस्मात्कारणात् । सुरतं भवविवर्धनम् एव संसारवर्धकम् एव भवेत् । मशिना प्राणिनाम् । चिरचिरकालम् । भधिकयुःखारम् ॥ १ ॥रते सुरते। रतमानसः प्रातचित्ताः नराः । पशर एव । तस्मरस बुधैः पशुकर्म इति उच्यते कम्यते । ननु इति वितकें । मनया अभिधया सार्थकया नाना । पुरतः अमतः । अस्य जीवस्य । पशुगतिः फर्म भवेत् ॥२॥ यदि पेत् । अपलासु रतिः शुभा भवेत् । निकास खकीयत्रीषु रतिः श्रेष्ठ! भक्त् तदा इह लोके सर्षया सता साधूनाम् । मुनिभिः सा रतिः मैथुन ( स्त्रीसेवन ) चूंकि प्राणियोंके संसारको बढ़ाकर उन्हें चिरकाल तक अधिक दुख देनेवाला है, इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्योंको अब अपनी बीके भी साथ वह मैथुनकर्म अभीष्ट नहीं है तब भला अन्य प्रकारसे अर्थात् परस्त्री आदिके साथ तो वह उन्हें अभीष्ट क्यों होगा ? अर्थात् उसकी लो बुद्धिमान् मनुष्य कभी इच्छा ही नहीं करते हैं ॥ १ ॥ इस मैथुनकर्ममें चूंकि पशुओंका ही मन अनुरक्त रहता है, इसीलिये विद्वान् मनुष्य उसको पशुकर्म इस सार्थक नामसे कहते हैं। तथा आगेके भवमें इसका फल भी पशुगति अर्थात् तिर्यचगतिकी प्राप्ति होता है ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय इसका यह है कि जो मनुष्य निरन्तर विषयासक्त रहते हैं वे पशुओंसे भी गये-बीते हैं, क्योंकि, पशुओंका तो प्रायः इसके लिये कुछ नियत ही समय रहता है। किन्तु ऐसे मनुष्योंका उसके लिये कोई भी समय नियत नहीं रहता-वे निरन्तर ही कामासक्त रहते हैं। इसका फल यह होता है कि आगामी भवमें उन्हें उस तिर्यच पर्यायकी प्राप्ति ही होती है जहां प्रायः हिताहितका कुछ भी विवेक नहीं रहता। इसीलिये शास्त्रकारोंने परस्परके विरोधसे रहित ही धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थोंके सेवनका विधान किया है ॥ २ ॥ यदि लोकमें सज्जन पुरुषोंको अपनी खियोंके विषयमें भी किया जानेवाला अनुराग श्रेष्ठ प्रतीत होता तो फिर विद्वान् पर्व (अष्टमीव चतुर्दशी आदि) के दिनोंमें अथवा तपके निमित्त उसका निरन्तर त्याग क्यों कराते ! अर्थात् नहीं कराते ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि परसी आदिके साथ किया जानेवाला मैथुनकर्म तो सर्वथा निन्दनीय है ही, किन्तु स्वस्त्रीके साथ भी किया जानेवाला वह कर्म निन्दनीय ही है। हां, इतना अवश्य है कि वह परस्त्री आदिकी अपेक्षा कुछ कम निन्दनीय है । यही कारण है जो विवेकी गृहस्थ अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें स्वलीसेवनका भी परित्याग किया करते हैं, तथा मुमुक्षु जन तो उसका सर्वथा ही त्याग करके तपको Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -998 : २६-८ ] २३. ब्रह्मचर्याष्टकम् 934 ) रतिपदारयोषितोरशुचिनोर्वपुषोः परिघट्टनात् । अशुचि सुष्ठुतरं तदितो भवेत्सुखलवे विदुषः कथमादरः ॥ ४ ॥ 935 ) अशुचिनि प्रसभं रतकर्मणि प्रतिशरीरि रतिर्यदपि स्थिता | चिदरिमो विजुग्भणदूषणादियमहो भवतीति निवोधिता' ॥ ५ ॥ 936 ) निरवशेषयमद्रुमखण्डने शितकुठारह तिर्ननु मैथुनम् । सततमात्महितं शुभमिच्छता परिहतिसिनास्य विधीयते ॥ ६ ॥ 937) मधु यथा पिवतो विकृतिस्तथा वृजिनकर्मभृतः सुरते मतिः । न पुनरेतभीष्टमिहाङ्गिनां न च परत्र यदायति दुःखदम् ॥ ७ ॥ 938 ) रतिनिषेधविधौ यततां भवेश्चपलतां प्रविहाय मनः सदा । त्रिसौष्यमिदं विवसंनिभं कुशलमस्ति न भुक्तवतस्तव ॥ ८ ॥ २६९ अष्टम्यादिषु कथं परिवर्जिता । या बुकेोषितोः द्वयोः । रतिपतेः कामस्य उदयान् । अशुचिनोः वदुषोः परिघट्टमात् परिघर्षयात् । तत् अशुचि सुनुतरं निधं फलं भवेत् । इतः अस्मात् कारणात् । विदुषः पण्डितस्य । सुखलवे स्तोकसुखे आदरः कथम् अपि पण्डितः आदरं न करोति ॥ ४ ॥ अहो इति आश्वर्ये । यदपि प्रतिशरीरि जीवं जीवं प्रति । अशुविनि । रतकर्मणि रागकर्मणि स्थिते सति रतिः स्थिता प्रसभं बलात्कारेण । इति वित्-अरिमोविजृम्भण - प्रसरण दूषणात् । इयं रतिः निबोधिता भवति प्रकटीभवति ॥ ५ ॥ ननु इति वितर्के। मैथुनं निरवशेषय महमखण्डने । चित तीक्ष्ण कुठारहतिः । ब्रतिना यतिना । अस्य मैथुनस्य । परिवृतिः त्यागः । विधीयते क्रियते । किंलक्षणेन व्रतिना । सततम् आत्महितं शुभं हितम् इच्छता ॥ ६ ॥ यथा । मधु मयं पिबतः विकृतिः भवेत् तथा वृजिनकर्मभृतः पापकर्म मृतः जीवस्य सुरते मतिः । पुनः एतत् सुरतम् । इद लोके अहिनाम् अभीष्टं न च पुनः परत्र परलोके । यत्सुरतम् भायति आग्गमिकाले | दुःखदं सुरतं वर्तते ॥ ७ ॥ हे मनः । चपलतां विहाय त्यक्वा । रतिनिषेधविधी । यततो बलं कुताम् । इदं ग्रहण करते हैं || ३ || काम (वेद) के उदयसे पुरुष और स्त्रीके अपवित्र शरीरों (जननेन्द्रियों) के रगड़ने से जो अत्यन्त अपवित्र मैथुनकर्म तथा उससे जो अल्प सुख होता है उसके विषयमें भला विवेकी जीवको कैसे आदर हो सकता है ! अर्थात् नहीं हो सकता ॥ ४ ॥ प्रत्येक प्राणीमें जो अपवित्र मैथुनकर्मके विषय में बलात् अनुराग स्थित रहता है वह चेतनता के शत्रुभूत मोहके विस्ताररूप दोषसे होता है । इसका कारण अविवेक है ॥ ५ ॥ निश्चयसे यह मैथुनकर्म समस्त संयमरूप वृक्षके खण्डित करनेमें तीक्ष्ण कुठारके आघात के समान है । इसीलिये निरन्तर उत्तम आत्महितकी इच्छा करनेवाला साधु इसका त्याग करता है || ६ || जिस प्रकार मद्यके पीनेवाले पुरुषको विकार होता है उसी प्रकार पाप कर्मको धारण करनेवाले प्राणीकी मैथुनके विषयमें बुद्धि होती है । परन्तु यह प्राणियोंको न इस लोकमें अभीष्ट है और न परलोकमें भी, क्योंकि वह भविष्य में दुखदायक है ॥ ॥ हे मन ! तू चंचलताको छोड़कर निरन्तर मैथुनके परित्यागकी विधिमें प्रयत्न कर, क्योंकि, यह विषयसुख विषके समान दुखदायक है । इसलिये इसको भोगते हुए तेरा कल्याण नहीं हो सकता है ॥ विशेषार्थ- जिस प्रकार विषके भक्षणसे प्राणीको मरणजन्य दुखको भोगना पड़ता है उसी प्रकार इस मैथुनविषयक अनुरागसे भी प्राणीको जन्ममरणके अनेक दुःख सहने पड़ते हैं । इसीलिये यहां मनको संबोधित करके यह कह गया है कि हे मन ! तू इस लोक और परलोक दोनों ही लोकोंमें दुख देनेवाले उस विषयभोगको छोड़नेका प्रयत्न कर, अन्यथा तैरा १श प्रतिशरीर । २ अ श निबोधता च निबोधितो, व निबोधतः [ निषेधिता ] । ३ सततं किं । ४ रागकमैणि रतिः स्थिता सती प्रसभं । ५ क अ श निबोधता भवेत् प्रकटीभवति । तथा तपसे किं था तथा तपसे ६ के दुखद वर्तते । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः [999:२६५989 ) युवतिसंगतिवर्जनमक प्रति मुमुक्षुजन भणितं मया। सुरतरागसमुनगता जनाः कुरुत मा कुधमत्र मुनी माथि ॥ ९ ॥ विषयसौख्य विषसैनिमं मकेत् । तव विषयान् भुखतः कुशल न अस्ति ॥ ८॥ मया पप्रमन्दिमुनिना । मुमुधुजनं प्रति । युबति-छीसंगतिवर्जनम् अष्टकम् । भगित अपितम् । सुरतरागसमुहगताः प्रातः । जमाः लोकाः । अत्र मयि मुनी मुनीश्वरे। क्रुषं कोपम् । मा कुलत मा कुर्वन्तु । मवि पननन्दिसुनौ ॥॥मचर्याष्टकं समातम ॥ १६ ॥ ___॥ इति पद्ममन्याचार्यविरचिता पममन्दिपञ्चविंशतिः ॥ अहित अनिवार्य है ।। ८ ॥ मैंने स्त्रीसंसर्गके परित्यागविषयक जो यह आठ श्लोकोंका प्रकरण रचा है वह मोक्षाभिलाषी जनको लक्ष्य करके रचा है। इसलिये जो प्राणी मैथुनके अनुरागरूप समुद्रमें मम हो रहे है थे मुझ ( पसन्दी) मुनिक मार को करें. ९ ॥ इस प्रकार ब्रह्मचर्याष्टक समाप्त हुआ ॥ २६ ॥ इस प्रकार पद्मनन्दी मुनिके द्वारा विरचित 'पद्मनन्दि-पञ्चविंशति' प्रन्थ समाप्त हुआ । १क संगषिवर्नन । २-प्रताविधास्पस्य सोकस्व टीका-मया एमनन्दिना मुनिना । बुबतिसंगविवर्जन अबकम् । प्रति मुमुक्षुनने मुनिजनं प्रति । भणितम् अस्ति । पुनः सुरतरामसमुद्र गताः प्राप्ताः । जनाः लोकाः। अत्र मवि मुनौ । कुध कोपम् । मा कुल ३९॥ - - Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्यानुक्रमणिका अ | भलियं कमले कमला "-4, 727 ! भाषातेऽनुमा भवाति -:04, 108 बहसोहिमो सि तया १३-10,698 | अल्पायुषामल्पधियाँ 1.110, 127 | मासकोटिभिरुपा- २-४२, 205 भक्षयस्वाक्षयानम्- -५०, 357 मचिरतमिद तावत् 1-10५, 105 | मायासकोरिमिरुपा- २-७, 240 मगोचरो वासरकृनिशान १५-२०,795 मशुचिनि प्रसन २५-५, 985 | भायुःक्षतिः प्रतिक्षणम् ३-२८,280 मनाषियोपसमावः 11-11, 611 अस्तु अयं मम सुदर्शन-२.८, 878 प्राराध्यस्ते जिनेन्ना 1-11,13 मग यपि योषितां १२-1, 673 अस्पृष्टमबमनपा 11-10,614मारार्तिक सरलवहिणि ११-६,858 अच्छतु ताव इयरा १३-२५,705 अहमहमियाए णिवति १३-०३,724 | आवरणाईणि तए १३.२०, 701 अजमेकं परं ज्ञात -१८,325 महमेकात्यद्वैस 11-14,642 माश्रित्य व्यवहारमार्ग ९-९,528 मझो. यजयकोटिभिः १-१३०, 130 महमेव विसरूपः १.-81,638 | पालामम्यगतो प्रतिक्षण-102.142 मह चैतम्भमेबैक्यं अणुस्तानि पञ्चैव २५, 420 ४-५४, 361 | माझामस्य विधामता १.१९६, 196 कस्ये ना विढे ३.१, 690 | मणस्स जहा जोहा १५.३६,717 | भाखामेतदमुत्र स्तृत १-२५, 93 मणो को तह पुरभो 1,722 भारतामेतपदिह अपनी 1-२१, 22 अतिसूक्ष्ममतिस्थूलं ४-५८, 365 "-4, 602 भाकाक्ष एवं शशिसूर्य-1-11.283 | मास्तो अराविदुःखें अधुवाणि समस्तानि ६-४५, 441 | भाक्रम्दं कुरुते यन्न १-२१, 2751 मास्तां सब स्थितो मस्तु .१२,869 मधुवाशरणे चैव द.१३, 439 | आधारश्न तदेवक भास्ता बाहिरुपाधिषयः 11-२७,624 11,84814 अनन्तबोधावि- १६-१४, 820 | भाचारो मधर्मसंघम- १-३८, 38 | | माहारास्युखितोषभा -२, 470 भनय रखत्रय -५८, 58 माजाते स्त्वमसि ७२,172 भनुप्रेक्षा इमाः सद्भिः ६.५४, 454 भारमन निश्चयबोध- ११-१२, 609 | इति क्षेयं तदेवक -1, 328 अनेकजन्मार्जितपाप- १५-२७, 802 मारमोधम्धितीर्थ- १०-२८, 575 | इत्यत्र पहनेऽत्यन्त -६1, 868 अनौपम्यमनिदेश्य ४-५९, 366 | मारमभुवि कर्मत्रीजात् 112.,617 इत्यादिधर्म एषः क्षितिप-160,164 अन्तरमवहिरङ्गयोगतः १.४४, 591 कास्मातीव सुचिः २५-२,924 / इस्यास्थाय हवि स्थिरं ९-२८, 542 भन्तर्याबिकल्पमाल- २३-२,896 भारमानमेवमधिगम्य 1-1३९ 139 इत्युपासकसंस्कारः -१२, 48 अन्तस्तस्वमुपाधिवर्मित- ५.८, 395 | भारम। प्राविविक्तबोध-१२-२, 661 इस्येकानमना नित्य २२-१.,893 अन्तस्मस्वं विशुद्वात्मा ६-६०, 456 | मारमा भित्रस्तदनुगति-.-१५,386 | इन्द्रवं च निगोदतां च ९-२०,544 भन्योऽहमन्यमेतत् १५-२२,619 भारमा मूर्तिविवर्जितो 1-12,136 | इन्द्रस्य प्रणतस्य -9, 4 भपहर मम जन्म दया २०.६, 863 | आत्मा परमीक्षते १-१५२, 152 | इमामधीते श्रुतदेवता- १५-१०,805 अपारजग्मसंतान- ४.५७,364 आरमेक: सोपयोगी मम-१५५,155 इष्टक्षयो यदि ते ३.४, 266 अपि प्रयाता चशमेक-१५-१५,794 ] भारमोत्तागृई .२७, 512 | इह वरमनुभूतं भूरि १-७, 37 अपेक्षते यत्र दिनं न १५-२, 777 । भादाय व्रतमात्मतरक- ५-१, 388 -1129 | मादी दर्शनमस 1114 | उक्त जिनविशमेद १-१२६, 126 भभ्यस्थतान्तरसं -५०, 50 | माथा सद्तसंचयस्व 11,8 उक्केयं मुनिपभनन्दि- १२-२२,681 भमलारमजलं समलं 11-11,618 भायो जिनो नृपः श्रेयानू.1,397 उमग्रीष्मरविप्रताप-१-१२, 192 अम्मोहदसंनिभा ३-१,256 माथोत्तमक्षमा यत्र -५५,455 उः फलाय परमामृत. १९-6,855 मम्हारिसाग सुई गोल- ३५, 686 | आधिम्याधिजरामृति ९-२१, 535 उझोदीरणा सता ४-३४, 341 अरिष्टसंकर्तनचक्र- १६-२२, 828 | आपत्सापि यतेः परेण २५-4,902 उदेति पातायं रविधा ३-७, 259 मादा प्रचुरप्रपञ्च- १-२८,28 | भापतषु रागरोष 1-10, 112 | उत्कृष्टपानमनगार- २-१८,246 माईनसमाश्रितसमस्त-2114,888 | भापग्मयसंसारे २-11, 298 | उबर मा पतिवमतो २०-३, 860 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ पभनन्दि-पाविशतिः अइयोते सति यन्त्र नश्यति ४.५,835 1 कर्म पर कार्य सुस-11-14, 625 या कार्यशतानि -1, 421 उम्मुच्चालाधनावपि १-६२, 62 कर्मबन्धकलितो- १०-, 560 | केपिकिंचित्परिशाम 1-4, 315 उम्मुहिमम्मि तम्मिय 1-14,719 | कर्मभिवमनिशं स्वतो. १०-21, 568 | केपिस्केनापि कारुण्यात् ५-६, 813 उस लिमिः 1-1९1, 194 कर्मभ्यः कर्मकार्पेभ्यः 4-11, 457 | केनापि हि परेण सात् ४-१५, 332 कर्ममलविकरहेतोः १-९८,98 | केमाप्पलिन कार्य. २२-, 898 मसाले म्यादि ... बर्मशुम्माशि- ३४, 581 | वसाहनस्क्सोक्य. -२०, 327 एकस्वसप्ततिरियं सुर- ४-७५, 384 | कर्माधीसविचित्रोषय-1-121,181 | को इह उम्बरंतो 21, 729 एकस्वस्थितये २५.३, 897 बनियानरोधोत्र १-५२, 448 | कोप्यन्धोऽपि -१८९, 189 एकत्वैकपदप्राप्त २१.२, 885 लायेक साधुभवति 14, 36 | शियाकाण्डसंबधिमी २-11,881 एमधुमे निशि सम्ति ३-11,268 | कषायविषयोन्जर- १.९९, 99 ! क्रियाकारकसंबन्ध- 1-14, 345 एकमेव हि चैतम्य -१५, 322 | कटिकारस- १५-1, 854 कोषाविकर्मयोगेऽपि -३५, 342 एकस्यापि ममत्वमात्म- 1.4,43 | काकिण्या भपि संग्रहो, १-१२,42 | यामः किं कुर्मः .-१२२, 122 एकाक्षाकर्मसंवृत- -4, 493 | कादाचिरको १-५१,54 काकीतिक परिव्रता 1.10, 18 एकान्तोदतवाविौमिक 1833 | कामसारममइष्णिमुल्य- २-५,203 बारमा सिष्ठति कीरशः 1-114,135 एकोऽप्यन्त्र बरोति या ..२, 460 कामिन्यादि विनाबदुस १२-१९,678 क्षमस्व मम वाणि स-11,879 एकजन्मफळं धर्मः २२.11,894 | कायोत्सर्गापा -1,1श्रीरनीरवदेखत्र -19,445 एतम्मोहकप्रयोग- 1-11, 119 कार्य तपः परमिह २-२५,223 | तस्मृस्पीह 1-100,177 एतावतेक मम पूर्वत २१-५, 870 |कार्याकार्यविचारशुम्म १२-11,675 एसेनेव विदुतिः ....,534 | कालवे बहिरवास्थिति 1-6, 67 | खगोडों किमुतामलस्य 10-4, 848 एनःस्वावलमोपमोगतः 9-10, 532 | बाहादपि प्रसृतमोह 1-14, 113 खबार व संवरती १३-५०,739 एवं सति पदेवाति ४-५६, 363 | काले दुःखमसंझके जिन-७-२1.479 ! खाविपकनिर्मुक्त -२, 309 एष बीविषये विनापिहि11.10,676 3 कालेम प्रस्त्यं ब्रजन्ति ५-५१, 303 एस जियो परमप्पा १३-१८, 709 कास्था समनि सुन्दरेऽपि 1-44,88 गासागरपुष्करादिषु १-५५, 95 किशाहि समुबलडे १३-५५, 734 | गतभाविभवनाव- 10, 644 ऐश्वर्यादिगुणप्रकाशन- 1-18, 121 किमासकोलाहोरमल- 1-10, 144 गसो ज्ञातिः कविहिरपि १-२०, 20 किंचिस्संसारसंधि २२-1,889 | गाधाकृष्टमधुव्रत- १-४,842 मौदार्ययुक्तममबस- २-५७, 245 कि जानाति न कि ३.१२, 264 गिरा नरमाणिसमेति १५-14,791 किं जानासिन वीतराग-१-८६,86 | गीर्वाणामणिसादिस्वस्थ- ३.३३,285 ऋषा यूकावासा १५ किजीवितेन कृपणस्य २.४६, 244 गुणाः शीलानि सर्वाणि -४२,349 कणयकमलाणमुवरि १३.५४, 725 | किं ते गुणाः क्रिमिह २-१९,217 | गुरूपदेशतोऽभ्यासात् ५-२२, 329 कनि म कति न धारान् ४, 47 । किं से गृहः किमिह ते २.१७, 215 गुरोरेव प्रसादेन ६-१८, 414 कदाचिदम्ब स्वदनुग्रहं १५-11,786 | किं देवः किमु देवता ३-३२, 284 | गुर्वशिद्धयक्तमुक्ति- २३-१६,910 कम्मलकपडले १३.१९, 700 कि बायर्ड परेषु वस्तुषु ५-२७, 541 | गुवी भ्रान्तिरियं जबरव- ३-२४, 276 कायलोयलोयणुप्पल १३-२६, 707 |- किं में करिष्यतः करो -२८, 335 ; प्रामएतरपि करुणा २०-५, 862 करजुबलकमलमउले ११-१९,780 किलोकन किमाश्रयेण १-११९,149 अामान्स प्रजाति यः २-२६, 224 कर्मकलितोऽपि मुक्तः ७१.५९,666 | किलोकन किमाश्रयेण १-२४. 598 ग्रासतदर्धमपि मेय- २-३२,230 कर्मकृतकार्यजासे २१-३०, 627 | कुण्ठासेऽपि वृहस्पति-१५-१1,806 ग्रीष्मे भूधरमस्तकानित- ५-६, 993 कर्मक्षत्युपशान्तिकारण-२३-14,909 | कुर्यारकर्म शुभाशुभं १-१३८,138 कर्म चाहमिति च ये १०.१९, 566 ! कुर्यास्कर्म विकल्पं ११-२३, 633 । चक्षुर्मुल्याहपीककर्षक- २३.१५,908 कर्म म यथा स्वरूप १५-२९, 626 | सापि ताबोधपुटादि १५-16,793 वारि पाम्पमयमेषक- २-५०, 248 Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचानुक्रमणिका २०३ मााि ि1,684 | जापापहि निती -11,690 | वर्ष बागतिवति 11-10,607 पारि परमानि 1,544बासिरामरक- 1,848वभागविवर्ति ४०,914 पित समातिमानि 11 | जाविति माया . tet, 109 | समाचासतपोभून 101,72 किमान १५, 582 | बाबो मनो नियत एष -11,265 | आत्परः परमबोग- 1,657 नियामकरणी 13,579 | मावोऽयात २०, 238 | त्यतिमीसिविन १६, 350 विसनगाव -३.,684 | बानत परब -10,100 | या स्प काया 440, 446 प्रामवादि- १५.1, 925] बानीते काप २५, 881 | वस्तु बाबकविता १५-1, 782 पिल्सयुमब्याह १५-२९,576] बायन्ते जिलजबर्षि-2-10, 179 | वदे पर काम १५,346 रिसरूपगगने 10-20,594 | बाबत विरसा रसा -१५३, 154 | देरमाती बिचा -19956 सिमपदलीम- 1,590 जायन्ते विरसा सा २५-11,913 खदेकर वर्ष १७, 351 स्विपिदो परे -1,880 | जावेतोपमोहयो २५.16, 912 तदेवैक पर दुर्ग- -14, 355 विदामदेवावावं .1,308 जाति तिरी तइ ते 1-1, 687 तदेव पर से १-2,850 चिन्तामरिणाम- 1-18,877 ] नित्वा मोहमहाम -१९५, 163 | बड़क पर दिदि ५१,858 marसुमुकाम- 19, 477! जिनधर्मोऽयमखद ५५५, 452 साप सापांत् १-२९, 129 पिलान्याकुलता- १-२९, 29 | बिनेश्वर नमोऽस्तु ते 0-10,882 ब्लुरपि यदि मा 121, 26 विरातिसमतः 10,785बिनेरासर १५१1,796 सबमव गृहीताविक-11-41, 648 तसो नसोऽपि 10,554 | बीमाजिनो जगति २0 199 वनमत विनहाखिल-11-५९, 649 बेवासयमन वयात् १२-५, 664 बीबपोतो अवाम्भोजी १५1, 447 समाति तेजोसि विजिन 14.२८,809 सोमान्तिकारी मरल 1.1,665 | जीवा हिंसादिसंकलौः ५-11) 437 | अव जिन परणाम्ब- R.1,864 वोचिनिरोधनेन +२,389 | जीवाचीवविधिताख -10, 147 | तब प्रसादा कविता १५-२९, 804 लम्बमसंक 1-11,683 शुगुप्सते संमतिमन १-५१, 51 सन्देवासवितिः समस्त पकवियि १५-1,778 १५१, 887 जे कयमच्यारिसे . १५-५०, 728 मैलाउने जिनहि- २-11, 235 झाते हातमशेष 1.५५,652 वेष मोक्सानी १, 783 जालन्योतिलति -101,146 बिणजाणमर्णवं 11-, 685 दे शान दर्शनमय- र ५-५,519 पचवमाकविध त -२५, 706 -२१, 422 शान शेषमयशेष- 1-144, 158 | मम्मपोमदी 1-10,741 शानिमोमवसंगाल 1,378 सावत्पूज्यपालितिर १२,667 जगावे व इवो -11,817 वामदेव मतिवाहिनी १.१५,589 बगदेकरम भगवन् २०-८, 865 बापति वैरिका -104,175 सम्या दिवसातः 11, 528 अडवास्तवाचा- १-८२,82 तिकेन्याकुफकोपमै १५-१,918 काय जसो सो ३-५९,740 सियतणमारणो 1-1.,691 पाविमनसः ५५,96 | माणामलिनिम्माणे 1,702 तिहत्यापुरतीय 1-10-170 पन्स बारते धर्मः ५, 316 माह रह जम्मन्हाणे १३.१२, 693 तिमो अपमुख्यलेख ter,84 जन्म माय मरे 1-%, 169 जाहिधरे सुहारा- 1, 688 | ७.वर्ण चिव साहह 11-14,714 सम्मोः एष 1-101, 184 निदोसो जमेको १५-२३, 704 एपनी किमु 11.659 अब उसह माहिणवण 1.5, 682 गोसेसपायुसरये १३-५५, 786 | पूर्ण मारमा रिपुरण 14, 45 से बाइबलमारिग्वेऽपि १२५,482 बपति जिनो प्रतिषनुषा 1,253 पति पत्र सो ५०, 647 ! सेबोहानिमपूतसो १२५, 668 अपति सुतनिधान 1-17 चडिदिव समेत ३-२१, 278 | तेम्बा प्रवचमिह , 247 अपस्मोवासरमौखि १५.1,776 पानसुपाणचे 1.10,597 1 से या पाच मुमुक्षकः 141764 परिसरोव गुमा -1, 588 | मालमतमेव 14, 556 | सिवा परमेहिनो २५, 514 ज Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचनन्दि-पञ्चविंशतिः 11-1,598 जयति परं क्ष्येऽपि चिदात्मनि १-११०, 110 दुध्यानवियता 1-5, 261 दुर्गारार्जितकर्मकारण- ३-३, 258 बेटा कृतकर्मसिपि ३-१९, 291 दुध बहुदुःस्राक्ष १२-११, 680 दुःखप्राइगजाकीर्णे | दुःखम्पालसमाकु 4-40, 453 1-1, 269 दुःखम्पाक्षसमाकुले दुःखं किंचित् सुसं २३-१०, 904 *-*,381 दुःखे वा समुपखितेऽय ३५, 257 दूरादभीष्टमधिगच्छति १ १८८, 188 इगवगमचरित्राक्षं कुतः १०४, 74 महः - 491 | २७४ तैरेव प्रतिपचतेऽन २२,507 | १०-४८, 595 स्वताशेषपरिग्रहः या दूरं विधुरप्पासो १-१०८, 178 त्यक्त्वा म्यासनवप्रमाण ८- २१, 506 स्या सौ म६-२१, 419 आज्या सर्वा विम्वेति 11 ३५, 632 त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर १० - १ त्रिलोककोचरat 858 ११-२४, 830 | कोक्यप्रभावतो १०, 10 कोपानिपतित्व- १८-१ 889 त्रैलोक्ये किमिहास्ति १० ४९, 596 स्वदङ्घ्रिपद्मद्वयभक्ति- १५-२३, 798 त्वमत्र लोकप्रयसनि १५०५ 780 त्वमेव तीर्थ १-२४ 799 वयादिबोधः खलु 1474, 800 यि प्रभूतानि पदानि १५- १३, 788 २००४,861 ९-१९, 526 ६520 त्वं कारुणिका स्वामी स्वामासाद्य पुराकृतेन स्वामेकं त्रिजगत्पि इस मौषधमस्य नैग ३-४८, 300 बुतानन्वमपारसंभूति] ३ १९८, 198 दयानां चि द्वितयं १६-१७, 823 | धनशान चरित्र मूतमष्टभा स्वसमो शेयो दृष्टिमिणतिरश्मा दम निकाय पुंसि दमप्रकाशनमाोभनदानं येन प्रयच्छन्ति दानस्य यस्य न धर्म बानाथ यस्य न समुत्साइते २-३४, 292 दानेनैव गृहस्यता - 18,472 दानोपदेशनमिदं १-५३,251 दारा एव गृई न +4-11, 670 18-94, 677 दारार्यादिपरिग्रहः विडे तुमम्मि दिनानि खण्डानि गुरूणि ३०५०, 302 दिपखीमुखपङ्कजैक- १८०३, 841 दुर्गन्धं कृमिकीटा- २४- २, 916 दुर्गन्धाशुविधा ३- 255 दुर्गन्धाशुविधातुः २४-१, 915 दुर्व्यानार्थमवधकरण- १५३ 58 हास्यविदः देवपूजा गुरूपातिः देवगुरु देवः स किं भवति देवः सर्वविदेष एव देवाराम मपूजनादि वेोऽयमिति मब ६- १०, 426 देशमतानुसारेणं ४-१४, 321 | ५०५२, 250 ६-२, 428 *-*1, 219 दोषामाघुच्य लोके धूतमसिराहा भूतमससुरावेश्या 19-4, 852 १-२२, 418 1-4, 85 १ - १६, 16 E-10, 406 1-11, 31 चूतादर्मसुतः पाहि हादसापि सता विम्याः ६-४२, 438 | द्वैततो द्वैवमद्वैवल ४-३, 888 संसृतिरेव ९-२९ 543 | मरामराही श्वरपीड मे नहं रनमिवाम्बुधौ 4-4, 463 ६-३५ 481 1-61, 81 महा मणीरिव चिरात् नो बस्तुनि द्योभने माकृतिर्माक्षरं वर्णो 6-94, 500 ६-७, 408 | मानश्यति करा१३-१२, 906 | मानाजातिपरि2-14, 216 १८- २, 840 4-7, 465 每 १४-१६,742 - धन्योऽस्मि पुण्यनिकयो इ-फ 7 धर्मोदया गृहस्थधर्मो रक्षति रक्षितः १ -१८२, 182 भिकाम्दा रतनमण्डर्क १ १३२, 162 चिकू तत्पौदवमासतो भूमेधूसरियं निमुक्त 1-2-, 30 4,390 २१-९, 874 ३-५६,737 घर परमाणुलील धर्मशत्रुविनाशार्थं धर्मः श्रीवशमन एष धर्मानमेतदिह माय धर्माधर्मनांसि ६- १३, 409 ३-१९५, 195 १-८७, 87 १०२५,589 धर्मार्थिनोऽपि होकस्य ११, 407 न भ परमियन्ति भवन्ति मनःसमं वधर्म ममत्वं च तदेवेक नमोऽस्तु धर्माच मयनिक्षेपप्रमितिनयप्रमाणादिविधान १-३२, 92 144,781 निर्विण्णोऽहं शिवरां निर्विनाशमणि निश्रमपश्चाशत् निश्चयामगमनस्थिति निखवेन देवम लिखकरशा निलं *-90, 347 14-14, 821 11-4, 651 14-4, 811 14-9, 818 7-44, 372 २-१३ 211 *-1, 204 tkveiusfru 1-141,183 नाममात्रकथा नामापि देव भवतः मामापि यः स्मरति 10-22, 589 *1-8, 869 2-14, 214 भामापि हि परं तस्माद ४-३६, 343 मार्गः पदात्पदमपि निजैर्गुणैरप्रतिमैः २-४३,241 11-,810 नित्यं खावृति इस्तिस्कर १२-४ 668 नित्यानित्यतया महत् 10-2, 549 निश्वशेषयमङ्कुमल २५-१, 986 निरूप्यता स्थिरता निर्मन्यत्वमुदा निर्जरा च तथा कोको निर्जराक्षात प्रोका निर्दोषतचक्षुषा 1-c., 80 22-10, 911 ६-४४, 440 *-42, 449 6-4, 501 २०-२, 859 1-144, 166 २-३५, 233 1-14, 267 16-9, 561 11-41, 658 १०.३०, 57.7 ४-३१ 989 -9, 324 Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचानुक्रमणिका २७५ नितम्यो जिनेन्द्रस्वब-1-11, 128 | पापारिकमकासि ५.१, 396 ! पोषरूपमाखलेल्पाधि १०-२५, 572 निःशरी निरालम्ब ६०,967 | पुण्यक्षपक्षयमुपैति २-14,236 1 बोधादशिम किंचित् "-40.657 निःशेषयुत्बोधवृत्त- १८-९,847 | पुत्रादिशोकशिखिशान्ति -५५, 307. | | बोधेनापि युतिस्तस्य -10,344 विशेषश्रुतसंपदा ८-१९, 504 / पुने राम्यमशेषमर्षिषु ५-१६, 474 पोधोऽपि पत्र विरको ११.७, 604 निःशेमरशेखरा ८२, 487 पुनातु नः संभवतीर्थ १६-१, 809 निशेषामलशीक- 100, 107 | पुंसोऽयेषु चतुर्यु २५, 483 2 भवतु भवतु याहरु २४.५, 919 लाशेषावरणाप 10.1, 881 | पूजा न जिमपतेः २-२४, 222 भवकला यत्र न वाण १५-८,788 निःसंगत्वमागिताय ९-२, 516 | पूजाविधि विधिवत्र १९-९, 856 भवनमिदमकीतः 10,17 निःस्पृहामाणिमाच- 1.00, 377 1 पूर्वोपार्जितकर्मणा ३.१०,262 भवन्ति वृशेषु पतस्ति ३.८, 260 ननमत्र परात्मनि स्थितं १.६, 555 पोय पिव तुइवण १३-१२, 713 भवभुजगनागदमनी 3-4, 78 मून मृत्युमुपैति ९.१५, 529 प्रतिक्षणमय जनो ११५१, 151 भवरिपुरिह तावदुःख-1-110, 140 प्रणामशेषाणि सदैव २५-३, 917 | प्रतिक्षणमिव दि 1-14, 48 | भवविवर्धनमेव यतो २५.1, 931 नृमो भवत्सनिषिसंस्कृतं १५-१५,792 प्रतिपनमानमपि च 11-19, 641 भवसायसम्म धम्मो १५.१०, 721 मृत्वतरोविषयसुख 11.१८,685 1 प्रथममुदयमुरः ३.३०, 2825 मवारिरेको न परोऽस्ति १६.२, 808 मेवारमनो विकारः ११-२५, 622 प्रपश्यन्ति जिनं भरवा इ-19,410 भयानामभिवतः ७-२१, 484 मो किंचित्रकार्यमति १२,2 | प्रपोधो नीर १-४९, 49 भम्या भूरिभवार्जितो- २५-८, 930 मोतीर्थ न जर तदखि २५-1, 928 प्रमाणनवनिमेपाः ४-11, 323 भभ्याम्भोवहनन्दि- १८, 838 मो शुचिता .२५-५, 927 | प्रातक्षाय कर्तप -11,412 भावान्तःकरणेत्रिपाणि ९-11, 525 मो विकम्परहितं .-4, 553 | मातमदलामकोटि-1-10, 174 भावे मनोहरेअपि च 12-५६,653 भो शून्यो म जोन 1-11, 134 प्राप्ते जन्मनि तपः २.२२, 220 मिक्षा वर परिस्सा २-१३, 221 म्यावादम्बकवतकीवक 1-140,167 प्राप्तेऽपि दुईभतरेऽपि २-४, 202 मिष्णाण परणयाण ५-१५,716 पास सत्रमाणं २-१५,243 | प्रायः कुतो गृहगते ' २.१५,213 भिषोऽहं वपुषो गहि- 1-11, 148 प्रियजनमुतिमोकः १-२५,279 भुक्त्यादिमिः प्रतिदिनं १-4, 206 प्रेरिताः भुतगुणेन 10-11, 578 भुवणरधुप धुणइ जह १३५५, 738 पत्ताण सारणि पिव १२-11,712 मोत्तिम्मफरोप्रतेजति ११५, 65 भूरिधर्मयुतमप्यबुद्धि १०.१२, 559 पदाम्जयुग्मे तब ११-१२,818 भूरिधर्मामकं तार्य -1, 314 परमधर्मनदाजन- 1-114,116 भूकाः पुष्पितकेतकी- 1-1८५, 185 परमानन्दागरसं १-१५३, 158 | पश्यन् गद्धो -14, 645 मेदशामविशेषसहत ५-७, 394 पर पराययाति ११.२1, 827 | बहो मुक्तोऽहमथ 11-३६, 643 भोगोपभोगसंस्थान -२०, 423 पर मरवा सर्व1-101, 103 | बड़ो वा मुको पा ११.५३, 650 भ्रमति ममास पायाः ३-२५, 277 परामवातिपत्ति १५-२२, 797 | बम्धमोक्षौ रतिद्वेषौ -1,840 भ्रमतोऽपि सदा माय- ५.५, 312 परिग्रहवता शिवे यदि १-५६,56 पम्पस्कन्धसमाश्रिता १.१९०, 190 भ्रान्तिप्रदेषु बहुवरमैसु १.१०.60 पर्वते किमयोऽथ पशि २४-1, 920 | बहिर्विषयसबन्धः -11,318 माम्मन् कालम्लम्तमत्र ३-२०,272 पस्वाप ययाति ५-२५, 421 बहुभिरपि किमन्यैः 11, 76 मक्षेपेज जपन्ति थे १२-1, 660 पलितकदर्शवादपि 101,171 सप्पडदा सण १३-41, 732 बहनोऽम जिया 1.1५, 880 | पासमागहने १.१८, 585 पसव एव रते रतमानसा-२६-३,982 बाबाम्बवरसंग- 1,459 मधु यथा पिवतो २६-७, 937 पवाद यानि कार्याणि 4-10,415 बायायामपि विकलो 11.81,628 | मनसोऽपिन्य 11-२,599 पाणा सर सजादा 11-14,695 विम्बाएरेशति .-२२, 480 | मनोवोs: .11,876 पात्राणामुपयोग यत् ..14,473 | पी मोक्षतरोश 1,461 | मनोवाकायचेहाभिः १३०, 397 पा कारितवान् मदन ९-.,521 बीरभसुःप्राणियायो १९, 19 | मन्थावते व श दान- २-11, 229 Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पमानि-पारिवाति मन्ये म प्रारणापा ५५, 117 पर.पा. -11, 197 , पर बान्ति पर लिपति 111, 29 मदितः परजात 11.1,631 पायोकं प्रतिमाभिरानि- 1-14, 15 | बुदे तावद रथेम- 11, 293 महर्षिमुक्तो विमको 11-11,819 या अबकोक एप 20,478 युवतिसंगक्विन १५-१,939 मदरमहिबमापांकु-1-1.711 यत्पसण्डमही1-101,181 पूजाधामकता पाय 12-14,674 मामा बाहिरसा -१९, 646 पत्संगाचारमेतपति 1-1.1, 104 ये गुरु नै मम्पन्ते 19, 415 मानसस गसिरति १२,569 | भत्सवकसुरद ४-२, 832 ये जिला निजकर्मक्कम 6-1,489 मानुभकिक दुलम १९४, 97 | | मत्सा पदसातम् -11,905 थे जिनेन्द्रन पश्यस्ति -१५,41I मानुष्य प्राप्प पुण्यात् 101,71 | यसुख ससुखामास -10, 449 देधर्मकारणसमुसिता २२०, 228 मानुष्यं सरकुले अम्म .७२, 379 - मत्स्स्म महम -11, 498 | मेनेई जावापदम्पषि 1-10 117 मायित्वं कुको कृतं १-१०, 90 | मथाविधान बमनुस्मृता ।५-१५,801 पठन्ति न समसार ६.२०,416 मार्ग समकटीकरोति 11,836 | पदण्यकमबोधामा -1, 810 येन्यासयन्ति कथमन्ति८०,387 मिथ्यावादेव विह 100, 100 यदि मवेदालासु रतिः २५.1,993 | थे मूळ मुषि तेऽपि 1,268 मिप्याशी विसरमा १-१४, 34 पदीयपादादिम १९,815 मोझ प्रतिमोचता। 16,475 मियोऽपि करिव २-११, 231 | पर्षदेशे नभसि १५-२३, 829 वेकोकाप्रषिकम्बिनः ८-1,488 मुक इत्यपि न 10.14, 565 | यदेव चैतम्यमई तदेव -04. 383 बेषां कर्मनिदानाम्य -1,496 मुक्केबारिहार्गका १२-७, 666 | यहीयते जिनगृहाय २.५१, 249 | मेषां बिनोपदेशेन 10,433 मुल्ला मूलगुणान् ..40 पद रहे बहिरङ्गानादि :-101, 143 | ये साधारमपारसौषप १-५५, 59 मुस्मोपचारविति 11,608 | पहानोरपि गोचरं न १०-७, 987 | मैर्युःखानि समानुपति ८.७, 492 मुमुक्षूणां तदैवैक 14, 353 यमदेव मनप्ति स्थित 1.-11, 569 नियम विलोक्यते 18, 478 मूळ धमतरोराचा -16, 434 | अनन्तनिहितानि खानि :-144, 156 | पैव स्वकर्मातकाल 1-14, 270 मूले तमुखदर धावति २-19, 212 | पचान इनिधि 1,515 | पोगतो हिमभते १.२५, 578 अगलमाणेन मुधिर 11-५८,655 | बछेकन दिने 2.254 | रोजानाति मुत्योचरमागते ३-14, 297 | बयेवला मम ९.१, 517 | यो दत्तवानिह मुमुक्षु २-५, 207 मेरुसिरे परशुमालिय 1-11,692 | माचो भिनपतेः ११-१, 849 | यो मात्र गोचरं मृत्योः १.२९, 281 मोक्ष पब सुख साक्षात् २२-५, 888 | चाम्सन बहिस्मित 11५५, 159 पो येनैव इतः १-२०, 27 मोक्षस कारणमनि- ५-१२, 210 | पाचन बहि:स्थित ५.१५,538 | पो हेवेवरबोधसंभृत 410,502 मोक्षेऽपि मोहादमिवाय- १-५५,55 बस्तु हेबमिवरण 1.15,586 मोहोपरतिभिता २५-1,895 | बस्वामनम्वगुण २१.२, 867 रक्षापोपविधी जनो २४८, 922 मोहमहाफनिको ५-१९, 720 | वहाकोकतर्विनिम्- 10-1,844 सायते परिणजोदि .१७५, 173 मोहबारभदेन संहति -14,118 | पखालिनो धनवतः 11, 234 रजाशिवासाशीमिः .२४, 24 मोहोचवविवाद- १२-1,890 | Nः कल्पयेकिमपि १-११५,125 रतिजलरममाणो 100, 176 म्हाने शासनाकुसा 11, 41 | पः कश्मिभिपुणो १-५, 518 रतिनिवेषविधौ २५-6, 938 महापकोकनदेऽपि 1-41,68 या कषायश्वनैः 10-20,584 रतिपक्षमाचर- १५,934 मानाप्यतिगावगाह- ८-१,494 रखनयपरिप्राप्तिः ३-५५, 451 पजामपि पुरिमामपि ...1, 548| यः शकपिण्डमपि -10, 208 जनयामके मागे , 899 पजायते किमपि4-111,161 यः सिरे परमात्मनि ८-२१, 509 रखनयाभरणवीर २५४, 252 पतीला मारकाणां च 4-6, 436 | मानाभिः सपनमहोत्सव -२३, 481 रखत्रवाश्मयः कार्यः १-२४, 424 एकमाणपरंपरार्पण- १५, 435 | पादुकविता १२५, 25 रखत्रवे तपसि पनि २१-१.,875 योऽपि मदमार्थ- १-२०, 225 | पासयपि वारश्यपि 11-11, 630 स्म्भातम्भमलाल १२-11, 672 मत्परदारावि १.१४,94 | बावन्मे लिखतिभोजमेऽस्ति 1-1,43 | रराज पामभवीर्षहत 1.1, 812 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परज रविणो संतावर १९,710, बिहामन्यतया सदस्प-1-111,111 ! पुर्व बागतिवति 1.14, 157 रागद्वेपतैर्यधा -२१, 540 | विधाय कर्मक्षयमात्म- ११.१५,822 | शुराकुलमखुद -14,615 रागो बसम विद्यते |विधाम मातः प्रथम १५-१२,787 | शृण्वन्तकयोचरे ३१८,290 राजपसौ पुचिता १५-, 850 | दिन यथायोग्य १-२९, 425 | भामण्यपुग्यतारुक १-०३, 83 राजापि क्षममरसतो ३-५२, 294 | विष्पडियद जो तुद १३-२0,715 | श्रीपअनन्दितगुणौष १९-१०, 857 खजाराविविकृतिनं १०-२५, 570 | विभाम्वियत्याशिनसा 11-14, 824 | श्रीवीरेण मम प्रस्सा ५-१६, 546 विमोहामोशाय स्वहित 1-10२,102 भुतपरिचितमनुभूत 1-4,603 लक्ष्मी बाथरापीमतीव-1-१५,296 विपला मोहणधूली १३-५०,731 | श्रुताविकेवलयपि 14-1,779 पक्षीहत्य सदायमा २२-८,891 विधवस्तुविधतिक्षम 1.4, 552 | श्रेयासपो जयति। बस्याते जनावमा ३-२२,274 | वियं पश्यति वेति शर्म ८-२०, 505 | श्रेयोऽभियस्य नृपतेः. २-२, 200 सम्वा श्रीशिवरामिमा -10,292 | विस्तीर्णासिलवस्तु- 10.0,845 | वापि शितेरपि २१, 239 करिश्पवासामग्री -१२,319 | विस्मृतार्यपरिमार्गण 1..१५,562 | सब कय कयमपीह 1-६४, 168 / विहलीकपपंचसरो १३-२७, 708 सा हमकयाणसुझे 1-४५, 726 साध्या जन्म कुले पुची ५-५, 392 | विहाय नूनं तृणवत् १५-२०,826 | 26 स एवामुखमार्गस्थः -१९, 326 कीलोटेक्षितबा- 144,846 विहाय व्यामोह २१, 123 समसपुरुषधर्म- २1, 21 लोउत्तरालिसा १५-२१,709 | विहिनाभ्यासा बहिरर्थ-11-14,612 सचक्षुरप्येष जन- १५-१५,790 लोकपर बहमाब- .-१५,592 वीतरागपचे सस्था २२-९, 8921 सचिव सरणवियपा 11-6,689 डोकवनबित1.11.141| अक्षाश्मभिवायजा .११,271 | सबसि गुहारीबालू 11-1601 लोक सोडरित्र -५१.450/ परम्गविणे सहसा ३-1, 697 | सजयति बिनदेवः -16 छोका गप्रियतमा- 1-48.3061 वश्या साबनवाव- १२-16,669 | सवताभ्वस्तभोगान १-१५०, 150 कोलोकमतपय ५८, 522 म्यस्यागवानक-1-10६,106 सती पदी वन १३-10,816 डोकावति ५.905 | म्यवहारोऽमूसापों 11-9, 606 खसि हितीये सिम्ता 11१२,629 मददविरोधजन 11.4, 605 सति सम्ति ताम्वेग १-२१, 92 म्याल्पा पुस्तकदाममुखत -10,468 बचनिवितदोपचते १-४९, 79 सत्पात्रदानजनितीनव- १२०, 218 व्याहव्या बत् क्रियते 1-101,101 बने पतस्यपि सत्पात्रेषु यथाशक्ति -1,427 1-1,631 म्यानणानातकायल 14,442 पक्षिमिनि स्तोमा ७५,75 | सत्समाधिसश- 10-11,580 म्याविनाममिभूगते १.२५, 571 | सम्मान गुणिलसा एवं ८.२३, 508 | माविस्तदति शरीरं 11-२३, 620 ] सम्बोधमय बिहाय सखा सुखरामणीपक 1-140,180 अपुराविपरित्यक्ते 11.40 600/व्यापी नैव शरीर एक 1.1३, 137 | २५-१, 901 बपुरात्रितमिदमखिल -२४, 621 | समागते किल विपक्ष २-२८, 226 बपतिह निजपूषा ११, 46| सम्व सुरासुरेन्य १२, 12 वर्ष वर्षमपाकरोतु २१.११, 907 | बाकोसि कतमिहः २१३, 8681 समप्यसविर विदां 10,654 पावसस्य प्रमाण व इ-11,124| शरीरादिवहिबिना ४-५५, 862 सम्मात्यादि पदीय २५.1, 923 वामस्येव सुख सदन १-81,288 पाक्षिपभो वागमवायु ११८,814 | सहव मराणि स्युः ६-१२, 408 पानी प्रमाणमिह २७.11,878|सचजन्मजयन्तका- 1-1३५, 165 समता सर्वभूतेषु 4-6,404 बातम्याससमग्रवार १.१५, 581 सचम्मोहमहान्धकार १९, 182 समयस्पेषु वासक्य -11,432 बादल पुष किमु कि 1,299 | सान्ते मन्युचित 1-1३३, 133 समर्थोऽपि न यो दमाद ५-६४, 430 बासः शुन्यमठे पित् ५-१, 391 | शाम अश्मतकवि १५,852 | समुहपोषाकृतिरईति १५-१४,789 विकल्पोर्मिमिरयता १२१, 39विष्याणामपहाय 41,61 | सम्यकसुबोधडा 11-11,610 विम्म धणे रंगे 1-14,696 | शुदोषमयमसि १०-२०, 574 | सम्यग्दर्शनबोधत- २-1,866 विकिमिसकसे 1-111,114 | शुदवदेव चैतम्मे -५२, 359 | सम्यग्दर्शनबोधवृति 10,70 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पसलस्पिशितिः सम्बगरमोमचारिष -11, 320 | सबिनुदपरमात्म १.२०, 567 | सौमागीपतिकामिनी- 1101,186 सम्पगम्योपचारित्र -२,398 | संसारपोरधर्मेण -१४, 354 सौभाग्यशौर्षसुल- -17, 242 सम्यग्योधविशुश्वारिणि १५-४, 926 | संसारसागर- 14 लोग मानिसन्मयोग- .२.,679 सयलसुरासुरमणि ११-२, 688 | संसारखनुयोग पुष २१, 921 | स्थिर सदापि सर्मदा 1,278 सपो हारलता मवरण- १-१९1, 191 / संसारातपरसमान १-१२, 536 | सिया मा मुनयो भवन्तु २३.१,908 सर्वहः कुरुते परं . ८-10,495 | संसारेडापनादबी- 12%, 120 | | विवरपि मत मा २५, 35 सर्वत्र व्युतकर्म- ८-२१, 511 | संसारे भ्रमतबिर १९,9 स्पृहा पत्र मही सदति १.६९, 69 सर्वनोद्गतशोकवाष ३-३५, 286 | संसारो गहुदुःखदः ९-१३, 527 : स्पृहा मोशेऽपि मोहोरया -५५, 360 सर्वभावबिलये विभा- .., 551 | संहारोगसमीरसंहति १-१९३, 193 मरमपिशाव येषा १.५०, 57 सर्वमिभिरसंसारैः १३, 370 | संहतेषु समनोऽनिलेषु ...", 664 | सालादारतगर्भिता 6-10, 499 सर्वविद्वीतरागोकरे -10,917 | साक्षमाममिदं मनो -11, 597 स्मकर्मम्मानेण स्फुरित ५-१९, 301 समिमणिमादिपक 11, 550 1 साक्षादपुष्पचार एव 11, 851 ! स्वजनो वा पदो वापि 4-14,444 सर्वागमाषगमतः २५-4,871 साक्षाम्मनोवचमकाय 11, 209 स्वपरविभागावगने -१,639 सर्षाणि पस्सनालि दुर्गति 1,83 | साङ्गोपाङ्गमपि एवं 16,503 सपरहितमेव मुनिभिः १५1,91 सर्वान् गुणानिह पात्र २-11,297 | साधुलक्ष्यमनवाप्प १०-11, 558 | स्वमे स्वादतिचारिता 111,682 समें जीवदयापाराः १९,435 | सामाई सुरसुन्दरीमिः 1-५, 834 स्वपमुवा पेम समुच १५-1,807 सर्वेषामपि कर्मणाम् 18, 590 | सानुधानविदे 11-1९, 616 वर्गाचामसिनोऽपि 10, 11 सर्वेषामभयं प्रमुख- 11, 469 ! सामायिक जायेत ६.९, 405 | वसुख्पपसि दीम्सम्पत्यु -10,289 सर्वशीर्थजाहरपि २५-०, 929 | साम्यमेक पर कार्य ४-६५973 | संपुर प्रविहाय विण -१९: 39 सर्वोऽप्यत्र मुर्मुहुः ९-१०, 524 | सार्म निःशेषशायाणां -44,875 सानुभूत्यैव पगम्ब २९.1,884 सो मामति सोल्पमेव 2,466 | साम्प शरममित्याः १९, 376 | स्वान्त बातमशेष -१९, 686 स सर्वविपश्यति वेति १५.१,784 साम्य लोधनिर्माण -40,374 | खेपाहारविहार -१, 467 सहा सरीरं सुह पहु ११-१२, 728j साम्य स्वास्यं समाधिब-१४,371 संष्ठ कमरापि 100, 187 | सिबज्योतिरतीब निर्मकार,497न्ति म्पोम स मुहिना १-५५, 295 संपचारुकतः प्रिया- १-१५, 287 | सिवामा पामः परं ४-२५, 510 इन्ति स्थावरदेहिनः -६, 464 संपत दिमयं यदि १२-१२, 671 | सिदो रोपमितिः ८-५, 490 | हरति हरतु र २.७, 872 संपूर्णदेशमेदाम्या - ६-४, 400 | सुस पुष बहुमोह 100, 587 | हियमस्थमाणसिहि- १५.14, 699 संप्रस्यन्त्र कलौ काले -1,402 | सुप्त एष बहुमोहनिया :१-४१, 599 | हिंसा प्राणि कलम १.५५, 52 संप्रत्यपि प्रवतेत धर्मखनव ६-५, 401 | सुहमो सि सण १५४, 735 . हिंसोज्झित एकाकी 11-14, 613 संप्रस्यस्ति न केवली -11,68 | सुखसुखी स्पावहितः १६-१९, 825 | हीनं संहनने परीषद- २३.६, 900 संप्राक्षेत्र भषे कथं 2, 462 स्रुमस्वादशुदर्शिनो -1, 486 | इपयमुवि रके 11,73 संबरऽपि सति त्याज्यौ ४-२९, 386 सूनोमतेरपि दिनं १-२९, 227 | इदि यत्तदादि बहिः १४९, 89 संयोगेन यदायात ४.२७, 334 | सूरेः पाजनन्दिनः ९-११, 547 : रेवः किमु जीव 11४५, 145 संयोगो यदि विप्रयोग ३-५२, 304 | सैवैका सुगतिम्रदेव २८, 513 | इयं हि कर्म रागावि ५-७५, 382 सविििलना गलिये 1180,637 | सो मोहयेणरहिमो १५-१५,718 | हेयोपापविभाग- 11-14,640 Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विशेष-शन्व-सूची | अपरिया उम ३। उचमक्षमा २५,१३. २.,1०,२७ २१५ मधिर अविनति ११,14:|मशनदान वीपणा दुम्बरपंचक इदिष्टविरति १५० बचौधि मानित गनिमावि मानत अणुव्रतधारी अणुनदी बतिचारिता मोर ५८,१६९ ममोपयोग HD,९,११६सशोक ११५मसात net मसात कर्म २५५ उपाशभुत उपाध्याय (अध्यापक) उपासक उपासकाध्यमम २५१ 1०,२५२ माहिसा 14,1५ १५९ भाषायुप्रेक्षा जननुमति समन्स २३ २.. भनम्तबोधादि मनम्बसौल्प भयुप्रेक्षा सन्तराय ९.1 1 .-1 १९,२५ बम्बावर्तकीम बन्यामिबिधि ११,१२३ |माचार्म (सरि) एकादशस्थान १९५२बामा ५६-५५,५२,१५,1101 मात्मोत्य सुख १५. एकान्तबास पाविधिन १२० एकान्तविधि बामनिन नौपवान २,१९,२६३ | भावाभिमुख नान्तरसमस १६५ कलि भारम्भपिरति मारामा ३,१५. करपालिम " माई ११८ स्वामनिग्रह २१५ २५० काम मावरण कामगो कामधेनु भासद मम्ब कापलेस २१६माहारवाम कायोत्सर्ग २५० इयजाक २३ ५१,११. पा . २४ अभयदान अभिनन्दन १७,१२॥ गम्भोजनान्दी सम्मोकदमादी १,२०४ बरिनेति अमे Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० 1 काम 11 २३.चाच ११ १५,141 पामतीर्थ 1 १२५ केकी २.६,९९० छनत्रय मालवा जान्य पात्र विवाह दिव्यचति (पानी) बुभुमि दुबारित . मणेह बाबबासी नात्यादिगई सावित्रच माईस्थ देवपूजा बहना बिनदेव प्रति जिनपति १०५,10 गुरु २,८१,२५,२५५,२५" जिनवाणी गुरुमाथि किसन जिनाकृति प्रहलवा बीवियदान देस्वावधारी जैली बार महिधर्म 1,10,114144 . " पापवित् 11, 414,२: 11180... सित दिवस मोच प्रामपति सकती चार्य चतुर्पचारमा बर्षियवान वीर्य | धर्मरसावन तीर्थत्व पाग धर्मानुशा मागकर्म नमस् २५० ३१,३४,114,1 ,इण्डबजन ३.1८३ बझा २.१,५९ दर्षन ५ ,119 चामर .,42,111,114,1421 Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाब्द नवनिधि मवत्वानोव नाडीषण नाभि गामिनन्दन भाभिनरेन्द्र मामिल नम्म निक्षेप लिगोद मिल्य नित्यचतुडव निर्धन्या निर्जरा मिश्रय निव नि दास पचन्दी पत्र पद्ममन्दि पद्मनी पचप्रम परंज्योति परमेडी पराधना परिमहपिरति परीषद किविध पात्र पश्चदान पानी पूरक पुपर्न nchint पुनदृष्टि IT ล ७१ शक्तिमा १५० | प्रबोध २३० प्रमाण १,२०२ प्रमाद १०१ प्रमिति ७८ , १४९ ५६,११४,१९३ शब्द १९८ ५२,५५ १४९ बैं १५ विशेषान्दसूची प्रमोदित प्राणातिपाव प्राणिमा प्रायवित प्रायश्वितनिधि प्रोचच -मोश २५,१५० 120 मृत् १५५ बहिरामा २१६ मा ३ १५४ बालसंयम बृहस्पति १२७, १४८, १६८ ११८ पो बोधि २४२, १४० ७०,१२,११०,११४,बोधिदुर्कम $20,3#5,188,200, | W २२३, २२३,२३२ माचर्य ११चारी २४, ३११, १५ मझा १३३ ८,१२ भरतक्षेत्र २५३,२५६ भासण्डक २४७ भाव-हम्ता करण ११ भाषेन्द्रिय ८८-८९ मुक्तिदान झ ०,१५५ ५६, ११४, १५१, २२० ३६,१०४,१०,१४० २३२ मूठ १६५ बूढार्थ ६१,१६१ भोगभूमि १२९ मेगा २०६, १३७ | मोगोपभोगण्याच मति 20 मा १९१ २४७ १९५ महास ६ मंगळ १ मानस १९३ मार्बुद ०३९ मांस १५,३४ दाख १२ मिध्यागुरु मिष्या मध्यमपात्र ममस् मरादेवी महि ११७ | मिथ्याड् Brandt "" १५६ मिम्बावेम १५५ सुक्तिपथ १३ सुक्ष १९० सुनि २१ सुनिधर्म ११४ मुनिवृति 19 १३६ मूकगुण • ४२,१९३, १९५ १९३ १४ १९१,१६० ३. ११५ २०७२३८ 141 मूलबरा सूजहरदण्ड युगमा मेष मोबा मोह मीन यति बनसून पादय बोग 51 ९१ ५१,५४ बोगा १५८ ८७ योगिनायक भोगी 125 १३२ | राम ૨૧ TV ३३.२०८ 6,90 ९१ १६० २०५ २३१ १४६३ ११८ ७० ३५ 4,8 ५७ ६६ 415 १२ ३१ १८९ २८,३०, ३१, ३२५ २० ૧ २०, १३०, १६०, १४७ १९४ २१ १२ २०३ १६,१३० ४२,४९,१३२, १३३,१३३ ३५,१३९ ३० १९२ १४ २८, ११, १४९, १७४-७६,१७८ ५१ १७८ २, ११५११८, १७३, १०९ १२, १९९,२४७ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ पनवनि-पक्षाविधतिः सम्यग्दर्शन रखसंदिति रसायन रात्रिभोजन रात्रिभोजमवर्षन ७५ | पातन्द्रि २७ १३२ शिक्षारत नियमूति शीतक शी श्रीस्वस राम रोहण ११ और सविधपत्रक छोक सुद्धमय सम्पायोध १३1,118 सम्पन्च १४ सरस्वती २२१ सर्वार्थसिद्धि ५,०१,१५२ संभव १५ संघम ११,१८-११,१२,१३० संघमसाधन संयमी 104,२५० 100 संबर "" संसार 11-४ संहनन १२२, साधु • ५२ सामायिक १९८ साम्म १,२२,२८ साम्पसरोवर वर्धमान वसुमती वारसक्व वासुपूज्य विकार विकृति | अनिमय बादेश पुखोपयोग | भोपयोग सात १५. किमक शकार शाराविरस चौच २३ १८ १५४ सिबज्योति 14. १०५,९५. पीवराग बीर मीरनाम्ची परिसुनीमन वेदनीय FREERFEEEEEEEE शुसदेवता भूति श्रेयस् प्रेमान श्रेया राजा सुदर्शन सुख सुपाको २२८ बेश्या " ८३ सुबोध सुमति पदकर्म २०२ २२५ व्यवहारमय व्यवहारमार्ग व्यवहामार्ग ग्यसन ब्दसनिवास्याग व्यसनी म्याकरण व्यापी सवित्तस्याग [सचा १५५ सत्पात्रदान २४८ २२७ १९41३९ १५५ सुनत स्थितिमोजन स्वाहा स्वयम् खसंवेदन सरलता १२-२१ स्वाध्याय स्वाधुभूति २०५ १२१,१९. हिमवर १८ हिंसा 114,1२८ ५,७,२०,18. संतानाच समता समसार २१३ | समवसरण 10समाधि प्रततीर्ष ब्रवी शक शरम प्रमियम ५१,१२ २२९ | समिति Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन्धगत वृत्तोंकी संख्या १.शालविक्रोडित (वृ.र.३-१३६)-२-१, -१२, 11-14, 16, २६, २-11,1,३८-४४, ५२-५६, ५५, ११-१२,६४-६६,६८-५०, ७२,८३,८५,८८, ९०, ९३,९५, ९०,01,0७-१२, ११४,11-२१.१०, ११२,१३-१८, १४-१. १३५-५९. १५२, १५४, १५६-६०, ११२-१३, १९५-40, १९९-७०, १0४-७५, 100, 108-40, १८९-९३, १९५-९६, १९, २५५-५८, २१-४,२९०,२९९, २७१-१२, २७४-01, २८४-८८, २९०-९७, १००, .३-५, १८८-५६, १५९-७९, ४८१-५५०, ५९५-९५, १६०-८१,८०६, ८२१-४७, ८६६ ८७०, ८९५-९१५, ९१८, ९२०-103.९. इसके प्रत्येक चरणमें मगण, संगम, जगण, सगण, तगण, सगण भौर. अम्तमे वर्ण गुरु होता है। यति १२ और • वर्णोपर होती है। २. आर्या-२४, ६२, ५४, ८, ८५, ९, ९५, १६, १८, १२९, १५३,101, २५३, २८०, २९८, ५९८-१५०, ९८२-०७५, ८५८-१५-104. इसके प्रथम और हतीय चरणमे १२ मात्रायें, द्वितीय चरणमें १८ तथा अतुर्थ चरणमें १५ मात्रायें होती है (अयोध)। ३. श्लोक (अनुष्टुम् )-14, १२, १५०, २८, २०४-४२, ३९७-१८, ८८०, ८८५-९४=१५३. इसके चारों चरणों में पांचवां गर्न सम्बा गुरु होता है । द्वितीय व चतुर्थ चरणमें सातवा वर्ण अव होता है(धुतपोध)। ४. बसन्ततिलका (७. र. ३-९६)-1-२५, ५०, ३०, ३, ६७, ८३, ८७, १३, १२५, १३९, 1, ५७३, ८, १९, १९९-२५२, २१५-६६, २९८, २७०, २०१, २९९, ३०६-., १८४-८५, ३८७,४८०, ८१४-५०,८९७-04,006, 6८३3101. इसके प्रत्येक बरणमें जगण, भगण, जगण, जगण और धम्तमें २ वर्ष गुरु होते है। ५.पंशस्थ (पृ.८३-५९)-41,60, १५९, २.२.-८०५, ८००-३०, ८७६, ९.uata. इसके प्रत्येक करणमें जगन, तगण, जगण और रगण होता है। ६. रथोडता (पृ.८३-५१)-५५१-१५७४. इसके प्रत्येक चरणमें रगण, नगण, गण और तत्पश्चात् क्रमसे : मधु व । वीर्य वर्ण होता है। ७. मालिनी (बृ. र. ३-११०)-५, ६, ७, ९, १६, १७, १५-१७, ५७, 2-1, , १२, १०५, १४., 14, २०७-०९, २८९, २६५, ५. २५. इसके प्रत्येक घरणामें मगण, नगण, मगण, मगण मौर भगण क्या ६ व ७ वर्णोपर पति होती है। ८. स्नग्धरा (पृ. ८३-१४२)-1, १३, १९, २५, .1, ८१, ८५, १०४, ०१, १२५, २८, ११, 1,५५, १६, १९४-१९. इसके प्रत्येक चरण में मगण, (गण, भगम, नगण, और फिर । यगण होते है। पति , * . वर्णोपर Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पअनन्धि पापियति ९.शिखरिणी (पू. 25-223)-10,11,15,, ..,., 15, 122-23, 3.11. इसके प्रस्मेक चरणमे मगल, माण, नाग, समन, मगण और फिर क्रमसे / वर्ष भुप बर्ष दीर्य होता है। 10. दुसविलम्बित (1.83-62)-11151-1931.. इसके प्रत्येक चरणमें नगण, मगण, भगण और एगण होते है। 11. पृथ्बी (...3.124)-48, 56, 19, 10, 151, 201, 8.9, 8536. इसके प्रत्येक भणमें जगण, सगम, जगण, संगण, पगण मौर कमसे / वर्ण का गौर / गुरु होता है। पति 89 वापर होती है। 12. मन्दाकान्ता (पू.८३-१२७)-२१, 100, 8, 10, 100, 18tt. इसके प्रत्येक वाण मगण, भगण, नगल, बगल, सगण और अन्त में वीर्य वर्ण होते हैं। पति, . और बोंपर होती है। 13. उपेन्द्रवजा (ए.८५-४२)-५८, 203565. इसके प्रतेक पाने वगण, बगनबार सम्बने गुरु दो / 14. इन्द्रवजा (3.83-41)-55, 15-10-.. इसके माता ममें समल, फिर वगण, बगल और पवने व पुरु होते हैं। 15. भुजंगप्रपात (.8-70)-41. इसके प्रत्येक को 4 पगल होते है।