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२२० पद्मनम्दि-पञ्चविंशतिः
[779:१५-४779) श्रुतादिकेवल्यपि तावकी श्रियं स्तुवनशक्तो ऽहमिति प्रपद्यते ।
जयेति वर्णजयमेव माहशा वदन्ति यहेवि तदेव साहसम् ॥ ४॥ 780) त्वमत्र लोकत्रयसअनि स्थिता प्रदीपिका बोधमग्री सरस्वती।
सदस्तरस्थाखिलबस्तुसंचयं जनाः प्रपश्यन्ति सरष्टयो ऽप्यतः ॥ ५॥ 781) नभःसमं वर्त्म तवातिनिर्मलं पृथु प्रयास विबुधैर्न कैरिह ।
पारिवि प्रतिभासमो तसं यदेतदक्षुण्णमित्र क्षणेन तु ॥ ६ ॥ भो देवि । भो मातः । भुताविकेचली अपि ताबकी त्रिमं स्तुवन् सन् अहम् भशका, स श्रुतवली इति प्रतिपद्यते इति प्रवीति । यस्मारकारणात् । भो देयि। मादशाः पुरुषाः । त्वं जय रवि वर्णद्वयम् । एक निश्चयेन । बदन्ति । तदेव साहसम् अकुर्त गरिष्ठम् ॥ ४ ॥ भो सरस्वति भो मातः । त्वम् अत्र लोकत्रयसपनि गृहे। बोधमयी ज्ञानमयी। प्रदीपिका स्थिता अपि वर्तते। श्रतः बोधमयीपीपिकायाः सकाशात् । जमाः लोकाः। तदन्तरस्थाखिलवस्तुसंवयं तस्य लोकत्रयस्म अन्तरस्थ भखिलवस्तु
न्त अवलोच्यन्ति । किलक्षणा अनाः । सहयः दर्शनयकाः भव्याः॥५॥ भो देबि । तव वम मार्गः । नमःसमम् आकाशवत् अतिनिमलभू । तु पुनः । यत् तब अतिनिमैले मार्ग [र्गः] । पृथु विस्तीर्ण वर्तते । इह सब वर्मनि मागें। कैर्विसुधैः न प्रयास गुहता प्राप्तम् । तथापि क्षणेन । तराम् अतिशयेन । एतत् सव मार्गम् मधुण्यम् अवाहितम् इव प्रतिभासते। गंगा नदीके पानीको अंजुलीमें भरकर उससे उसी गंगा नदीको अर्ध देनेके लिये ही उनत हुआ हूं ॥ ३ ॥ हे देवी । जब तेरी लक्ष्मीकी स्तुति करते हुए श्रुतकेवली भी यह स्वीकार करते हैं कि 'हम स्तुति करनेमें असमर्थ हैं' तब फिर मुझ जैसे अल्पज्ञ मनुष्य जो तेरे विषयमें 'जय' अर्थात् तू जयवन्त हो, ऐसे दो ही अक्षर कहते हैं उसको भी साइस ही समझना चाहिये ॥५॥ हे सरस्वती! तुम तीन लोकरूप भवनमें स्थित यह ज्ञानमय दीपक हो कि जिसके द्वारा दृष्टिहीन (अन्धे) मनुष्योंके साथ दृष्टियुक्त (सूझता ) मनुष्य भी उक्त तीन लोकरूप भवनके भीतर स्थित समस्त वस्तुओंके समूहको देखते हैं। विशेषार्थयहाँ सरस्वती के लिये दीपककी उपमा दे करके उससे भी कुछ विशेषता प्रगट की गई है । वह इस प्रकारसे-- दीपकके द्वारा केवल सदृष्टि ( नेत्रयुक्त) प्राणियोंको ही पदार्थका दर्शन होता है, न कि दृष्टिहीन मनुष्योंको भी। परन्तु सरस्वतीमें यह विशेषता है कि उसके प्रसादसे जैसे दृष्टियुक्त मनुष्य पदार्थका ज्ञान प्राप्त करते हैं वैसे ही दृष्टिहीन (अन्ध) मनुष्य भी उसके द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं । यहां तक कि सरस्वतीकी उत्कर्षतासे केवलज्ञानको प्राप्त करके जीव समस्त विश्वके भी देखने में समर्थ हो जाता है जो कि दीपकके द्वारा सम्भव नहीं है।॥५॥ हे देवी! तेरा मार्ग आकाशके समान अत्यन्त निर्मल एवं विस्तृत है, इस मार्गसे कौन-से विद्वानोंने गमन नहीं किया है । अर्थात् उस मार्गसे बहुत से विद्वान् जाते रहे हैं । फिर भी यह क्षणभरके लिये अतिशय अक्षुण्ण-सा ( अनभ्यस्त-सा) ही प्रतिभासित होता है ॥ विशेषार्थ- जब किसी विशिष्ट नगर आदिके पार्थिव मार्गसे जनसमुदाय गमनागमन करता है तब वह अक्षुण्ण न रहकर उनके पादचिहादिसे अंकित हो जाता है । इसके अतिरिक्त उसके संकुचित होनेसे कुछ ही मनुष्य उस परसे आ-जा सकते हैं, न कि एक साथ बहुत-से । किन्तु सरस्वतीका मार्ग आकाशके समान निर्मल एवं विशाल है । जिस प्रकार आकाशमार्गसे यद्यपि अनेको विबुध ( देव ) व पक्षी आदि एक साथ प्रतिदिन निर्वाधस्वरूपसे गमनागमन करते हैं, फिर भी वह टूटने फूटने आदिसे रहित होनेके कारण विकृत नहीं होता, और इसीलिये ऐसा प्रतिभास होता है कि मानो यहाँसे किसीका संचार ही नहीं हुआ है। इसी प्रकार सरस्वतीका भी मार्ग इतना विशाल है कि उस परसे अनेक विद्वज्जन कितनी भी दूर तक क्यों न जावें, फिर भी उसका न तो अन्त ही