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[१५. श्रुतदेवतास्तुतिः] 776) जयस्यशेषामरमौलिलालितं सरस्वसि स्वस्पदपङ्कजवयम् ।
दि स्थितं यजनजाड्यनाशनं रजोषिमुक्तं यतीत्यपूर्वताम् ॥ १ ॥ 777) अपेक्षते यन्न दिन म यामिनी न चान्सरं नैव पहिच भारति ।
न तापकबायकर न सन्महः स्तुवे भवस्याः सकलप्रकाशकम् ॥ २ ॥ 778) तव सवे यस्कविरस्मि सांप्रतं भवत्प्रसादादपि लब्धपाटवः ।
सवित्रि गङ्गासरिते ऽर्धदायको भवामि तत्तजलपूरितालिः ॥ ३ ॥ मो सरस्वति । त्वत्पदपजदयं चरणकमलद्वयम् । जयति । किलक्षणं चरणकमलबूयमे । अशेष-अमराणा देवामा मौलिभिः
साहित स्वितम । यत्तव चरणकमलमूर्य हदि लिखताम् । जनजायनाशनं जनस्य मूर्खत्वनाशनम् । इति हेतोः । अपूर्वा भ्रयति । इतीति किम् । रजोधिमुकं तव चरणकमलद्वयं पापरजोरहितम् ॥ १॥ भो भारति भो सरस्वति । भवत्याः तब महा स्तुवे । यन्महः दिनं न अपेक्षते दिनं न पाछते । यन्महः यामिनी न अपेक्षवे रात्रि न वाञ्छते। यन्महः अन्तरम् अभ्यन्तरं भ । यन्महः । महिः बाह्ये न । वा महा साप च पुनः । यस मह जायकर भूलत्वकारकम् । न । किंलक्षणं महः । सकलप्रकाशकम् । भो मातः। भवत्याः तन्महः । स्तुवे भई तौमि ॥ २॥ भो सवित्रि भो मातः । यत् यस्मात्कारणात् । ई तव स्तवे । कपः अस्मिकविर्भवामि । सप्रितम् इदानीम् । अहम् । लन्धराटवः प्राप्तपाण्डित्यः । भवत्प्रसादात् । तत्र दृष्टान्त. माह । मह गक्षासरिते नौ अर्थदायको भवामि । किंलक्षणः अहम् । तम्मलेन तस्याः गङ्गायाः जलेन रितालिः ॥ ३ ॥
हे सरस्वती ! जो तेरे दोनों चरण-कमल हृदयमें स्थित होकर लोगों की जड़ता ( अज्ञानता) को नष्ट करनेवाले तथा रज ( पापरूए धूलि ) से रहित होते हुए उस जड़ और धूलियुक्त कमलकी अपेक्षा अपूर्वता (विशेषता ) को प्राप्त होते हैं घे तेरे दोनों चरण-कमल समस्त देवोंके मुकुटोंसे स्पर्शित होते हुए जयवन्त होवें ॥१॥हे सरस्वती! जो तेरा तेज न दिनकी अपेक्षा करता है और न रात्रिकी भी अपेक्षा करता है, न अभ्यन्तरकी अपेक्षा करता है और न बायकी भी अपेक्षा करता है, तथा न सन्तापको करता है और न जड़ताको भी करता है। उस समस्त पदार्थों को प्रकाशित करनेवाले तेरे तेजकी मैं स्तुति करता हूं ॥ विशेषार्थअभिप्राय यह है कि सरखतीका तेज सूर्य और चन्द्रके तेजकी अपेक्षा भी अधिक श्रेष्ठ है । इसका कारण यह है कि सूर्यका तेज जहां दिनकी अपेक्षा करता है वहां चन्द्रमाका तेज रात्रिकी अपेक्षा करता है, इसी प्रकार सूर्यका तेज यदि सन्तापक्षो करता है तो चन्द्रका तेज जड़ता ( शीतलता ) को करता है । इसके अतिरिक्त ये दोनों ही तेज केवल बाह्म अर्थको और उसे भी अल्प मात्रामें ही प्रकाशित करते हैं, न कि अन्तस्तत्त्वको भी । परन्तु सरस्वतीका तेज दिन और रात्रिकी अपेक्षा न करके सर्वदा ही वस्तुओंको प्रकाशित करता है । वह न तो सूर्यतेजके समान जनको सन्तप्त करता है और न चन्द्रतेजके समान जनताको ही करता है, बरिक वह लोगोंके सन्तापको नष्ट करके उनकी जड़ता ( अज्ञानता) को भी दूर करता है। इसके अतिरिक्त वह जैसे बाझ पदार्थोंको प्रकाशित करता है वैसे ही अन्तस्तत्त्वको भी प्रगट करता है। इसीलिये वह सरस्वतीका तेज सूर्य एवं चन्द्रके तेजकी अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ होनेके कारण स्तुति करनेके योग्य है ॥ २ ॥ हे सरस्वती माता ! तेरे ही प्रसादसे निपुणताको प्राप्त करके जो मैं इस समय तेरी स्तुतिके विषयमें कवि हुआ हूं अर्थात् कविता करनेके लिये उद्यत हुआ हूं वह इस प्रकार है जैसे कि मानो मैं
कलत्पादपंकजं तव चरणकमळ । २ क कमसम् । ३ म सरिते नपाः, क सरितः नत्याः ।