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पचनन्दि पञ्चविंशतिः
[447 : ३-५१ 447 ) जीवपोतोभषाम्भोधौ मिथ्यात्वादिकरम्नवान् । आरपति विनाशार्थ कर्माम्भः सुचिरं भ्रमात्॥ 448) कर्मानवनिरोधोऽनसंवरो भवति धषम साक्षादेतवानाधानं मनोवाकायसंपतिः ॥५२॥ 449) निर्जरा शातन मोका पूर्वोपार्जितकर्मणाम् । तपोभिर्बष्टुमिः सा स्याद्वैराग्याभितवेष्टितैः॥५३॥ 450) लोका सर्षों ऽपि सर्वत्र सापायस्थितिरधुषः । दुःखकारीति कर्तव्या मोक्ष पत्र मतिः सताम् ।। 451) रक्षप्रयपरिमातिाधिः सातीय पुर्लभा । लब्धा कथं कर्यचियेत् कार्यो यज्ञो महानिह ।। ५५ ।। अपवित्रता भवति । किंलक्षणः काय: । मान्त्रिता सम्मान न्योतः जीवप्रोहणः । भ्रमात् । कर्माम्भः कर्मजलम् । मुधिरं चिरकालम् । विनाशार्थम् आनवति । किंलक्षणः जीवप्रोडणः । मिथ्यात्वादिकरन्ध्रवान् छिद्रवान् ॥ ५ ॥ भत्र कर्मानवनिरोधः भुवं साक्षात् संकरो भवति । एतदनुष्ठान एतस्स कर्मालवनिरोधस्य आचरणम् । मनोवाकायसंपतिः संवरः ।। ५२ ॥ पूर्वोपार्जितकर्मणाम् । शातनं शटनम् । निर्जरा । प्रोक्ता कथिता । सा निर्जरा । बहुभिः सपोभिः स्यात् भवेत् । सा निर्जरा । वैराग्याश्रितचेष्टितैः कृत्वा भवेत् ।।५३ ॥ सर्वः अपि लोकः सर्वत्र सापायस्थितिः विनाशसहितस्थितिः । अनुवः दुःखकारी। इति हेतोः । सर्वा मतिः मोझे कर्तव्या। एव निश्चयेन ॥ ५४॥रमयपरिप्राप्तिः बोधिः [सा] अतीव दुर्लभा । चेत् कर्ष कन्चित् लब्धा । हा बोधौ । महान् यनः कार्यः पर्तव्यः ॥५५॥ अपवित्र हो जाती है । इस प्रकारसे शरीरके स्वरूपका विचार करना, यह अशुचिमावना है ।। ५० ॥ संसाररूपी समुद्रमै मिथ्यात्वादिरूप छेदोंसे संयुक्त जीवरूपी नाव अम ( अज्ञान व परिभ्रमण) के कारण बहुत कालसे आत्मविनाशके लिये कर्मरूपी जलको ग्रहण करती है। विशेषार्थ-जिस प्रकार छिद युक्त नाव घूमकर उक्त छिदके द्वारा जलको ग्रहण करती हुई अन्तमें समुद्र में डूबकर अपनेको नष्ट कर देती है उसी प्रकार यह जीव भी संसारमें परिश्रमण करता हुआ मिथ्यात्वादिके द्वारा कर्मोका आसव करके इसी दुःखमय संसारमें घूमता रहता है । तात्पर्य यह है कि दुलका कारण यह कोंका आसव ही है, इसीलिये उसे छोड़ना चाहिये । इस प्रकारके विचारका नाम आसवभावना है ॥५१॥ कर्मोके आसवको रोकना, यह निश्चयसे संवर कहलाता है । इस संवरका साक्षात् अनुष्ठान मन, वचन और कायकी अशुभ प्रवृत्तिको रोक देना ही है । विशेषार्थ-जिन मिध्यात्व एवं अविरति आदि परिणामों के द्वारा कर्म आते हैं उन्हें आसव तथा उनके निरोधको संवर कहा जाता है | आस्रव जहां संसारका कारण है वहां संवर मोक्षका कारण है । इसीलिये आस्रव हेय और संवर उपादेय है। इस प्रकार संवरके स्वरूपका विचार करना, यह संवरभावना कही जाती है ।। ५२ ।। पूर्वसंचित कमोंको धीरे धीरे नष्ट करना, यह निर्जरा कही गई है । वह वैराग्यके आलम्बनसे प्रवृत्त होनेवाले बहुतसे तपोंके द्वारा होती है। इस प्रकार निर्जराके स्वरूपका विचार करना, यह निर्जराभावना है ।। ५३ ॥ यह सब लोक सर्वत्र विनाशयुक्त स्थितिसे सहित, अनित्य तथा दुःखदायी है। इसीलिये विवेकी जनोंको अपनी बुद्धि मोक्षके विषयमें ही लगानी चाहिये ॥ विशेषार्थ-- यह चौदह राजु ऊंचा लोक अनादिनिधन है, इसका कोई करता-धरता नहीं है । जीव अपने कर्मके अनुसार इस लोकमें परिभ्रमण करता हुआ कभी नारकी, कभी तियेच, कभी देव और कभी मनुष्य होता है। इसमें परिभ्रमण करते हुए जीवको कभी निराकुल सुख प्राप्त नहीं होता । वह निराकुल सुख मोक्ष प्राप्त होनेपर ही उत्पन्न होता है । इसलिये विवेकी जनको उक्त मोक्षकी प्राप्तिका ही प्रयत्न करना चाहिये । इस प्रकार लोकके खभावका विचार करना, यह लोकभावना कहलाती है ॥ ५५ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र स्वरूप रतत्रयकी प्राप्तिका नाम बोधि है । वह बहुत ही दुर्लभ
१ मु ( जै. सि.) प्रचुरं। २ क अवयं। ३ श प्राप्तिः सा गोषिः भवीव ।