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-446 14-५०] ६. उपासकसंस्कार
१३५ 439 ) अनुवाशरणे चैव भष एकत्वमेव च । अन्यस्वमशुचित्वं च तथैवानवसंवरी ॥४३॥ 440) निर्जरा च तथा लोको बोधिदुर्लभधर्मता । द्वादशैता अनुप्रेक्षा भाषिता जिनपुङ्गवैः ॥ ४ ॥ 441 ) अध्रुवाणि समस्तानि शरीरादीनि देहिनाम् । तन्नाशे ऽपि न कर्तव्यः शोको दुष्कर्मकारणम् ॥४५ 442) ज्यानेणाघ्रासकायस्य मृगशावस्य निर्जने । यथा न शरणं जन्तोः संसारे न तथापदि ॥ ४६॥ 443) यत्सुखं तत्सुखाभासं यदुःख सत्सदालसा भवे लोकाः सुखं सत्यं मोक्ष एव स साध्यताम्॥ 444) स्वजनो वा परो पापि नो कचिरपरमार्थतः । केवलं स्वार्जितं कर्म जीवेनैकेन भुज्यते ॥४८॥ 445 ) क्षीरनीरषदेकत्र स्थितयोहदेहिनोः । मेदो यदि ततो ऽन्येषु कलत्रादिषु का कथा ॥४९॥ 446) तथाशुचिरय कायः कमिधातुमलाम्धितः । यथा सस्यैव संपर्कावन्यत्राप्यपवित्रता ।। ५० ॥ भवति ॥ ९ ॥ जिनपुरः सर्वविधिः । एता द्वादश भावमा अनुप्रेक्षा भाषिताः। १ मधुवम् । २ अशरणम् । ३ संसारः । ब पुनः । ४ एकरवम् । ५ अन्यत्वम् । ६ अशुचित्वम् । ७ तथा आमवः। वरम् । ९ निर्जरा । तपा १० लोकानुप्रेक्षा। ११ बोधिदुर्लभः । १३ धर्मानुप्रेक्षा। एताः द्वादश भावनाः कथिताः ॥ ४३-४४ ॥ देहिनो जीवानाम् । शरीरानि समखानि अभुवाणि घिनश्वराणि सन्ति । तमाशेऽपि शरीरादिनाशेऽपि शोका न कर्तव्यः। किंलक्षणः शोकः । दुष्कर्मकारणम् ॥४५॥ यया निर्जने वने । व्याण माघ्रातकायस्य गृहीतशरीरस्य मृगशावस्य शरण न । तथा संसारे। जन्तोः जीवस्य। आपदि शरणं न ॥ ४६॥ भो लोकाः। भवे संसारे । यत्सुखम् भस्ति तत्सुखम् आभासम् अस्ति । यार्स तत्सदा मनसा सामोल सस् । सत्यं शामतं पुर्व मोक्ष एवं मोक्षः साध्यताम् ॥ ४० ॥ परमार्थतः निश्चयतः । कवित्वा खजमापा परो जनः कोऽपि नो । एकेन जीवन केवल खार्जितं कर्म भुज्यते ॥४८॥ यदि चेत् । देदेहिनोः शरीर-आत्मनोः । भेदःझीरनीरवत् अस्ति। किंलक्षणयोः शरीरास्मनोः । एकत्र स्थितयोः । ततः कारणात् । अन्येषु कलादिषु का कया ॥ ४५ ॥ अर्थ कायः शरीरम् । तथा अशुचिः यथा तस्य कामस्य संपर्कात मेलापकात् । अन्यत्र सुगन्बादी वस्तुनि । अभुव अर्थात् अनित्य, अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व, अशुचित्य, उसी प्रकार आसव, संवर, निर्जरा, लोक, बोधिदुर्लभ और धर्म ये जिनेन्द्र भगवान्के द्वारा बारह अनुप्रेक्षायें कही गई हैं ।। ४३-४४ ॥ प्राणियों के शरीर आदि सब ही नश्वर हैं । इसलिये उक्त शरीर आदिके नष्ट हो जानेपर भी शोक नहीं करना चाहिये, क्योंकि, यह शोक पापबन्धका कारण है। इस प्रकारसे वार वार विचार करनेका नाम अनित्यभावना है ।। ४५॥ जिस प्रकार निर्जन बनमें सिंहके द्वारा पकड़े गये मृगके बच्चेकी रक्षा करनेवाला कोई नहीं है, उसी प्रकार आपत्ति ( मरण आदि) के प्राप्त होनेपर उससे जीवकी रक्षा करनेवाला भी संसारमें कोई नहीं है । इस प्रकार विचार करना अशरणभावना कही जाती है ।। ४६ ॥ संसारमें जो सुख है वह सुखका आभास है- यथार्थ सुख नहीं है, परन्तु जो दुःख है वह वास्तविक है और सदा रहनेवाला है । सच्चा सुख मोक्षमें ही है । इसलिये हे भव्यजनो ! उसे ही सिद्ध करना चाहिये । इस प्रकार संसारके स्वरूपका चिन्तन करना, यह संसारभावना है ॥ ४७ ।। कोई भी प्राणी वास्तवमें न तो स्वजन (स्वकीय माता-पिता आदि) है और न पर भी है। जीवके द्वारा जो फर्म बांधा गया है उसको ही केवल वह अकेला भोगनेवाला है । इस प्रकार बार बार विचार करना, इसे एकत्वभावना कहते हैं ॥४८॥ जब दूध और पानीके समान एक ही स्थानमें रहनेवाले शरीर और जीवमें भी मेद है तब प्रत्यक्षमें ही अपनेसे भिन्न दिखनेवाले स्त्री-पुत्र आदिके विषयमें भला क्या कहा जावे ! अर्थात् वे तो जीवसे भिन्न हैं ही । इस प्रकार विचार करनेका नाम अन्यत्वभावना है ।। ४९ ।। क्षुद्र कीड़ों, रस-रुधिरादि धातुओं तथा मलसे संयुक्त यह शरीर ऐसा अपवित्र है कि उसके ही सम्बन्धसे दूसरी (पुष्पमाला आदि) भी वस्तुएँ
तथा' जास्ति। २ आन। इस जीवानां नास्ति । अतोऽप्रे 'भवेत्' इस्तदपिक पदं दृश्यते। ५श सामनेन । ६०परखना। शनासुगन्यादी।