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१. धर्मोपदेशामृतम्
आत्मा कायम विवेकनिलयः कर्ता च भोका स्वयं संयुक्तः स्थिरताविनाशजननैः प्रत्येकमेकक्षणे ॥ १३४ ॥ 135 ) कात्मा तिष्ठति कीदृशः स कलितः केमात्र यस्येशी तिस्तत्र विकल्प संभूतमना यः कोऽपि सहायताम् । किंवान्यस्य कुतो मतिः परमियं भ्रान्ताशुभांत्कर्मणो नीत्वा नाशमुपायतस्तदखिलं जानाति ज्ञाता प्रभुः ॥ १३५ ॥
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प्रत्येकं पद्द्रव्यम् । स्थिरता विनाशजननैः संयुक्तः । एकक्षणे क्षणं समयं समयं प्रति ।। १३४ || भारमा क तिष्ठति । आत्मा कीदृशः । स आत्मा अत्र संसारे फेन कलितः शातः । यरम ईदृशी भ्रान्तिः । तत्र भारमनि । विकल्पसमृतमनाः स कोऽपि आत्मा ज्ञायताम् । किं च । अन्यस्य पदार्थस्य । इयं मतिः कुतः परं केवलम् अशुभास्कर्मणः भ्रान्तौ । तत् भ्रमम् ।
'न क्षणिकः' अर्थात् आत्मा सर्वथा क्षणक्षमी नहीं है, ऐसा कहा है। वैशेषिक आदि आत्माको विश्वव्यापक मानते हैं । उनके मतको दोषपूर्ण बतलाते हुए यहां 'न विश्वविततः' अर्थात् वह समस्त लोकमें व्याप्त नहीं है, ऐसा निर्दिष्ट किया है। सांख्यमतानुयायी आत्माको सर्वथा नित्य स्वीकार करते हैं । उनके इस अभिमतको दूषित ठहराते हुए यहां 'न नित्यः' अर्थात् वह सर्वथा नित्य नहीं है, ऐसा निर्देश किया गया है । यहां 'एकान्ततः ' इस पदका सम्बन्ध सर्वत्र समझना चाहिये । यथा - 'एकान्ततः मो शून्यः, एकान्ततः न जडः' इत्यादि । जैनमतानुसार आत्माका स्वरूप कैसा है, इसका निर्देश करते हुए आगे यह बतलाया है कि नयविवक्षाके अनुसार वह आत्मा प्राप्त शरीरके बराबर और चेतन है । वह व्यवहारसे स्वयं कर्मों का कर्ता और उनके फलका भोक्ता भी है। प्रकृति कर्त्री और पुरुष भोक्ता है, इस सांख्यसिद्धान्त के अनुसार कर्ता एक (प्रकृति) और फलका भोक्ता दूसरा ( पुरुष ) हो; ऐसा सम्भव नहीं है । जीवादि छह द्रव्योंमेंसे प्रत्येक प्रतिक्षण उत्पाद, व्यय एवं धौव्यसे संयुक्त रहता है । कोई भी द्रव्य सर्वथा क्षणिक अथवा नित्य नहीं है ॥ १३४ ॥ आत्मा कहां रहता है, वह कैसा है, तथा वह यहां किसके द्वारा जाना गया है; इस प्रकारकी जिसके भ्रान्ति हो रही है वहां उपर्युक्त विकल्पोंसे परिपूर्ण चितवाला जो कोई भी है उसे आत्मा जानना चाहिये । कारण कि इस प्रकारकी बुद्धि अन्य ( जड ) के नहीं हो सकती है। विशेषता केवल इतनी है कि आत्मा उत्पन्न हुआ उपर्युक्त विचार अशुभ कर्मके उदयसे प्रान्तिसे युक्त है । इस भ्रान्तिको प्रयत्नपूर्वक नष्ट करके ज्ञाता आत्मा समस्त विश्वको जानता है || विशेषार्थ- आत्मा अतीन्द्रिय है । इसीलिये उसे अल्पज्ञानी इन चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकते । अढश्य होनेसे ही अनेक प्राणियोंको 'आत्मा कहां रहता है, कैसा है और किसके द्वारा देखा गया है' इत्यादि प्रकारका सन्देह प्रायः आत्माके विषयमें हुआ करता है । इस सन्देहको दूर करते हुए यहां यह बतलाया है कि जिस किसीके मी उपर्युक्त सन्देह होता है वास्तव में वही आत्मा है, क्योंकि ऐसा विकल्प शरीर आदि जड पदार्थ के नहीं हो सकता। वह तो 'अहम् अहम्' अर्थात् मैं जानता हूं, मैं अमुक कार्य करता हूं; इस प्रकार 'मैं मैं' इस उल्लेखसे प्रतीयमान चेतन आत्मा ही हो सकता है। इतना अवश्य है कि जब तक मिध्यात्व आदि अशुभ कर्मोंका उदय रहता है तब तक जीवके उपर्युक्त प्रान्ति रह सकती है । तत्पश्चात् वह तपश्चरणादिके द्वारा ज्ञानावरणा
१ म श कायमिति । २ भान्तोऽशुभाव । १श भ्रान्तः ।