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पानन्दि-पञ्चविंशतिः
[136: १.१३६136) आत्मा मूर्तिविषार्जितो ऽपि वपुषि स्थित्वापि दुर्लक्षा
प्राप्तोऽपि स्फुरति स्फुदं यदाहमित्युल्लेखतः संततम् । तरिक मुह्यत शासनावपि गुरोर्धान्तिः समुत्सृज्यता
मन्तः पश्यत निश्चलेन मनसा तं तन्मुसाक्षमजाः ॥ १३६ ॥ 137) ध्यापी नैव शरीर पर यदलावात्मा स्फुरस्यन्वई
भूतामायको न भूताननितो गादी माया माः । उपायतः नाशं नीत्वा। प्रभु अखिले जानाति शाता भात्मा ॥ १२५॥ यद्यस्मात्कारगात् । आत्मा मूर्ति विवर्जितोऽपि वपुषि स्थित्वापि दुर्लक्षता प्रामोति । सन्तत निरन्तरम् । स्फुट व्यकं प्रकटम् । स्फुरति । अहम् इति उलेखतः अहम् इति स्मरणमात्रतः। गुरोः शासभात् अपि गुरूपदेशादपि । तकि मुखत 1 भो लोकाः गुरूपदेशाद् प्रान्तिः समुत्सृज्यता स्यज्यताम् । निक्षलेन मनसा । तम् भात्मानम् । मन्तःकरणे पश्यत । भो लोकाः भो भव्याः। तस्मिन् वात्मनि मुखे सन्मुखे अक्षयजः इन्द्रियपरिणतिसमूहः येषा ते तन्मुखाक्षनजाः ॥ १३६ ॥ असो धात्मा । भन्दम् अनवरतम् । व्यापी नैव । यः शरीरे एव स्फुरति । अन्वयतः निश्चयतः । आत्मा भूतो न इन्दिरस्पो न । पृथ्मादिजनितो न भूतजनितो न । यवः प्रकृत्या ज्ञानी। दा निले अपवा क्षणिक । कथमपि अर्थक्रिया न युज्यते उत्पादश्यमधौम्यत्रयात्मिका क्रिया न युज्यते । अपि तु सर्वेषु प्रज्येषु धोत्र्यध्ययोत्पाददिकोंको नष्ट करके अपने स्वभावानुसार अखिल पदार्थोंका ज्ञाता (सर्वज्ञ) बन जाता है ।। १३५॥ आत्मा मूर्ति (रूप, रस, गन्ध, स्पर्श) से रहित होता हुआ भी, शरीरमें स्थित होकर भी, तथा अदृश्य अवस्थाको प्राप्त होता हुआ भी निरन्तर 'अहम्' अर्थात् 'मैं' इस उल्लेखसे स्पष्टतया प्रतीत होता है। ऐसी अवस्थामें हे भव्य जीवो ! तुम आत्मोन्मुख इन्द्रियसमूहसे संयुक्त होकर क्यों मोहको प्राप्त होते हो ! गुरुकी आज्ञासे भी भ्रमको छोड़ो और अभ्यन्तरमें निश्चल मनसे उस आरमाका अवलोकन करो।। १३६ । आत्मा ब्यापी नहीं ही है, क्योंकि, वह निरन्तर शरीरमें ही प्रतिभासित होता है । वह भूतोंसे उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, उसके साथ भूतोंका अन्वय नहीं देखा जाता है तथा यह स्वभावसे ज्ञाता भी है । उसको सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक स्वीकार करनेपर उसमें किसी प्रकारसे अर्थक्रिया नहीं बन सकती है । उसमें एकत्व भी नहीं है, क्योंकि, वह प्रमाणसे दृढ़ताको प्राप्त हुई भेदप्रतीति द्वारा बाधित है। विशेषार्थजो वैशेषिक आदि आत्माको व्यापी स्वीकार करते हैं उनको क्ष्य करके यहां यह कहा गया है कि 'आत्मा व्यापी नहीं है। क्योंकि, वह शरीरमें ही प्रतिभासित होता है । यदि आत्मा व्यापी होता तो उसकी प्रतीति केवल शरीरमें ही क्यों होती? अन्यत्र भी होनी चाहिये थी । परन्तु शरीरको छोड़कर अन्यत्र कहींपर भी उसकी प्रतीति नहीं होती । अतएव निश्चित है कि आत्मा शरीर प्रमाण ही है, न कि सर्वव्यापी । 'आत्मा पांच भूतोंसे उत्पन्न हुआ है। इस चार्वाकमतको दूषित बतलाते हुए यहाँ यह कहा है कि आत्मा चूंकि स्वभावसे ही ज्ञाता दृष्टा है, अतएव वह भूतजनित नहीं है । यदि वैसा होता तो आत्मामें स्वभावतः चैतन्य गुण नहीं पाया जाना चाहिये था। इसका भी कारण यह है कि कार्य प्रायः अपने उपादान कारणके अनुसार ही उत्पन्न होता है, जैसे मिट्टीसे उत्पन्न होनेवाले घटमें मिट्टीके ही गुण (मूर्तिमत्व एवं अचेनत्व आदि) पाये जाते हैं । उसी प्रकार यदि आत्मा भूतोंसे उत्पन्न होता तो उसमें भूतोंके गुण अचेतनत्व आदि ही पाये जाने चाहिये थे, न कि स्वाभाविक चेतनस्य आदि । परन्तु चूंकि उसमें अचेतनत्यके विरुद्ध चेतनत्य ही पाया जाता है, अतएव सिद्ध है कि वह आत्मा पृथिव्यादि मूतोंसे नहीं उत्पन्न हुआ है। आत्माको सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक माननेपर उसमें घटकी जलधारण आदि अर्थक्रियाके
१ च प्रतिपाठोऽयम् स क श भूतो नान्ययतो । व भूत्येनावयतो। २* निश्चयेन ।