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पचनन्दि-पविशतिः
[687:१३६687 ) जासि सिरी तह संते नुव अवाण्णम्मि ती गट्ठा।
संके अणियाणिटा विट्ठा सबट्ठसिद्धी वि ॥ ६॥ 688) णाहिघरे सुहारापरणं ज मुहरमिह तुहोयरणा।
भासि महाहि जिणेसर तेण घरा पसुमई जाया ॥७॥ 689 ) स शिय सुरणवियपया मरूपयी पडु तियो सि जंगम्मे ।
पुरयो पट्टी बज्या मज्झे से पुलवंतीणं ॥ ८॥ 690) अकरथे ता दिटे जंतेण सुरायल सुरिदेण ।।
अणिमेसप्तबहुत्तं सयलं णयणाण पडिषणं ॥९॥ वाध्यिा मीः । मम पुरतः बने । मादेश प्रायन्ती संचरति प्रवर्तते ।। ५ ॥ शके अहम् । एवं मन्ये । मो श्रीसर्वत्र । या श्रीः लक्ष्मी तथा श्रीः बोमा । स्वयि सति सर्वार्थसिद्धौ । भासि पूर्वम् आसीत् । त्वयि अवतीर्णे सति तस्याः लक्ष्म्याः नष्टा शोभा सर्वार्थसिदौ अपि न दृष्टा । अनितानिष्टा ॥ ६॥ भो जिनेश्वर । सब अवतरणात् । नाभिगृहे [ इह ) पृधिन्याम् । नभसः भामाशात् । यद्यस्मात् । सुचिरचिरकालम् । वसुधारापतमम् मासीत् तेन हेतुना सा पृथ्वी वसुमती जाता द्रव्यवतीत्वमू उपगता ॥७॥ भो प्रभो । मरुदेवी सेंची सुर-देव-इन्द्राणी व पुनः [ स चिय सा एव ] देवैः नमितपदा जाता । सत्यं यस्याः मरुदेव्या: गर्भ व स्थितोऽसि तस्याः मरुदेव्याः मस्तके पुत्रवतीनो मधे अप्रतः पट्टः मध्यते । पुत्रवती मरुदेवी प्रधाना तस्सदृशा अन्या म ॥८॥ भो जिन्देश । भास्थ त्वयि दृष्टे सति सुरेन्द्रेण । नेत्राणाम् अनिमेषनामास्वं सफल प्रतिपलं सफल शातम् । किंलक्षणेन हुई उपसित होती है ॥ ५॥ हे भगवन् । आपके सर्वार्थसिद्धिमें स्थित रहनेपर जो उस समय उसकी शोभा थी यह आपके यहा भवतार लेनेपर नष्ट हो गई । इससे मुझे ऐसी आशंका होती है कि इसीलिये उस समय सर्वार्थसिद्धि भी ऐसी देखी गई मानों उनका अनिष्ट ही हो गया है। विशेषार्थ-जिस समय भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रका जीव सर्वार्थसिद्धिमें विद्यमान था उस समय भावी तीर्थकरके वहां रहनसे उसकी शोभा निराली ही थी। फिर जब वह वहांसे च्युत होकर माता मरुदेवीके गर्भ में अवतीर्ण हुआ तब सर्वार्थसिद्धिकी वह शोभा नष्ट हो गई थी । इसपर यहां यह उत्प्रेक्षा की गई है कि भगवान् ऋषभ जिनेन्द्रके च्युत होनेपर वह सर्वार्थसिद्धि मानो विधया ही हो गई थी, इसीलिये वह उस समय सौभाग्यश्रीसे रहित देखी गई ॥ ६ ॥ हे जिनेश्वर ! आपके अवतार लेनेसे नामि राजाके घरपर आकाशसे जो चिर काल (पन्द्रह मास) तक धनकी धाराका पतन हुआ- रत्नोंकी वर्षा हुई-उससे यह पृथिवी 'वसुमती ( धनवाली) इस सार्थक नामसे युक्त हुई ॥ ७॥ हे भगवन् ! जिस मरुदेवीके गर्भमै तुम जैसा प्रभु स्थित था उसीके चरणों में उस समय देवोंने नमस्कार किया था । तव पुत्रवती स्त्रियोंके मध्यमें उनके समक्ष उसके लिये पट्ट बांधा गया था, अर्थात् समस्त पुत्रवती स्त्रियोंके बीचमें तीर्थकर जैसे पुत्ररत्नको जन्म देनेवाली एक वही मरुदेवी पुत्रवती प्रसिद्ध की गई थी ।। ८ ॥ हे जिनेन्द्र ! सुमेरुपर जाते हुए इन्द्रको गोदमें खित आपका दर्शन होनेपर उसने अपने नेत्रोंकी निर्निमेषता (अपकनका अभाव) और अधिकता (सहन संख्या) को सफल समझा ॥ विशेषार्थ- यह आगमप्रसिद्ध बात है कि देवोंके नेत्र निर्निमेष ( पलकोंकी झपकनसे रहित ) होते हैं। तदनुसार इन्द्रके नेत्र निर्निमेष तो थे ही, साथमें वे संख्यामें भी एक हजार थे । इन्द्रने जब इन नेत्रोंसे प्रभुका दर्शन किया तब उसने उनको सफल समझा । यह सुयोग अन्य मनुष्य आदिको प्राप्त नहीं होता है । कारण कि उनके दो ही नेत्र होते हैं और वे भी सनिमेष । इसलिये वे अब त्रिलोकीनाथका दर्शन करते हैं तब उन्हें बीच बीचमें पलकोंके झपकनेसे व्यवधान भी होता है। वे उन देवोंके समान बहुत समय तक टकटकी लगाकर भगवान्का दर्शन नहीं कर पाते हैं ।।९॥
कश यासि । २ न अक्मणमि तीये, क अवयणामि सिये, शभबयणमितीये। ३ का गट्ठाये। ४ का सिद्धादि। पर सुरमर, सुपरमिक सुधरमहि। कशमरणी। प-प्रतिपाठोऽयम्, श सुरालय मासीय पर्ने आसी। भानध या शोमा। १.काशची।