________________
२०४
पअनन्वि-पञ्चविंशतिः
[695: १३-१४695) पहुणा सप सणाहा परासि तीए कहाणही चूदो।
वघणसमयसमुल्लसियसासछम्मेण रोमचो ॥१४॥ 626शिम घलेगेनिट्रपणट्ठा पणधिरी अमरी।
जया तइया वितए रायसिरी तारिसी विट्ठा ॥ १५ ॥ 697) धेरगविणे सहसा सुहा जुण्णं तिर्ण व मुक्का ।
देष तप सा अन्न पि विलया सरिजलरषा बराई ॥ १६ ॥ 698} आसोहिओ सि तथा काउस्सग्गडिओ तुर्म णाद।
घम्मिकघरारमे उम्भीकर्यमूलखंभो ब्व ॥ १७॥ 699) हिययस्थशाणसिहिडझमाण सहसा सरीरधूमो म्ष ।
सहई जिण तुज्य सीसे महुयरकुलसंणिहो केसभरो॥ १८ ॥ त्वया पत्तिः परिकल्पिता ॥ १६ ॥ भो प्रभो त्वया प्रभुणा कृत्या धरा पृथ्वी सनाचा आसीत् । अन्यथा तस्या धरायाः मवचन-मेघसमयसमुलसितम्बास-सस्य-] छन [पना] प्रादुर्भूतः रोमाघः कथं भवेत् ।। १४ ॥ यदा यस्मिन् काले । स्वया मृत्यशाला प्रवृत्यन्ती अमरी देवाशना नीलांजसा प्रणा दृष्टा तथा काले राजनीः अपि सारिसी तादशी" देवाशनासदशी मिनश्वरा हटा । कस्मिन् फेव । मेघे विद्युदिय ॥ १५॥ भो देव । वैराग्यविने त्वया सहसा या वसुधा जीणेतृणम् इव मुक्का सा बसुधा मयापि सरिताजमरवात व्याजेन वराकिनी [पराफी ] विलपति रुदन करोति ॥ १६ ॥ भो नाथ । तं सदा कायोत्सर्गस्वितः भतिलोमितः आसीत् [ मसि ] धर्मगृहारम्भ कीकृतमूलस्वम्भवत् त्वं राजसे ॥ १७॥ भी जिन । तव शीर्षे मस्तके फेशसम्र: शोमते । किंलक्षणः केशभरः । मधुकर कुलसनिमः केशभरः । किंवत् । हृदयस्थत्र्यानशिविदयमानशरीरधूमवेत् ॥ १८ ॥ ये ॥ १३ ॥ हे भगवन् ! उस समय पृथिवी आप जैसे प्रभुको पाकर सनाथ हुई थी। यदि ऐसा न हुआ होता तो फिर वह नवीन वर्षाकालके समय प्रगट हुए धान्यांकुरोंके छलसे रोमांचको कैसे धारण कर सकती थी। ।। १४ ॥ हे भगवन् ! जब आपने मेषके मध्यमें क्षणमें नष्ट होनेवाली बिजलीके समान रंगभूमिमै देखते ही देखते मरणको प्राप्त होनेवाली नृत्य करती हुई नीलांजना अप्सराको देखा था तभी आपने राजलक्ष्मीको भी इसी प्रकार क्षणभंगुर समझ लिया था ॥ विशेषार्थ-किसी समय भगवान् ऋषभ जिनेन्द्र अनेक राजा-महाराओंसे वेष्टित होकर सिंहासनपर विराजमान थे। उस समय उनकी सेवा करनेके लिये इन्द्र अनेक गन्धवों और अप्सराओंके साथ वहां आया । उसने भक्तिवश वहां अप्सराओंका नृत्य प्रारम्भ कराया । उसने भगवानको राज्य-भोगसे विरक्त करनेकी इच्छासे इस कार्यमें ऐसे पात्र (नीलांजना) को नियुक्त किया जिसकी कि आयु शीघ्र ही समाप्त होनेवाली थी । तदनुसार नीलांजना रस, भाव
और लयके साथ नृत्य कर ही रही थी कि इतनेमें उसकी आयु समाप्त हो गई और वह देखते ही देखते क्षणभरमें अदृश्य हो गई । यद्यपि इन्द्रने रसभंगके भयसे वहां दूसरी वैसी ही अप्सराको तत्काल खड़ा कर दिया था, फिर भी भगवान् ऋषभ जिनेन्द्र इससे अनभिज्ञ नहीं रहे। इससे उनके हृदय में बड़ा वैराग्य हुआ (आ. पु. १७, १-११.) ॥ १- हे देव ! आपने वैराम्यके दिन चूंकि पृथिवीको जीर्ण हणके समान अकस्मात् ही छोड़ दिया था, इसीलिये यह वेचारी आज भी नदीजलकी ध्वनिके मिषसे विलाप कर रही है ॥ १६ ॥ हे नाथ ! आप कायोत्सर्गसे स्थित होकर पेसे अतिशय शोभायमान होते थे जैसे मानो धर्मसपी अद्वितीय प्रासादके निर्माण में ऊपर खड़ा किया गया मूल स्खम्मा ही हो ॥ १७ ॥ हे जिन ! आपके शिरपर जो अमरसमूहके समान काले केशोंका भार है वह ऐसा शोभित होता है
कई हो, व कईलाई । २२ पर। ३ प्रतिपाठोऽयम् । शशीकय । ४ क श सोहर, सुइ। ५० नवमेध। कस्वास। कपि सादशी। मशहदन करोतिनास्ति। ९. कायोत्संग १५मदग्धमानशीपशरीरषद धूम्रवदक दभमानशरीरभूमवर, दन्धमानषिशरीरभूमवत् ।