________________
[388R१
पचनन्दि-पचार्षिशतिः 268) ये भूय भुवितेऽपि बुसाइतये म्यापारमातम्यते
सा माभूतथवा स्वकर्मषशतस्तमात्र ते तायशाः। मान मूर्वनियमचीन मनु वयं वानेच मन्यामहे
पति चुनते सति मिजे पापाय दुम्लाय च ॥ १५ ॥ 264) किं जामानिमणिोनिमम कि प्रत्यक्षमेवेक्षसे
मिशेष जगदिन्द्रजालसाशं रम्मेष लारोजितम् । किं शोक कुरपे ऽत्र मानुषपशो लोकान्तरस्थे निजे तरिकचिरकुर येन नित्यपरमायागार गच्छति। १०
तत् अवसानं विनाशः । तदा तस्सिन्तमये। जायते उत्पद्यते । तदेतदुर्व निषितम् । हावा । प्रियेऽपि मृते। झोकम् 1 मुध सब । बादराव सुखद धर्म करुण । मो भम्पाः । सपै । दूरम् उपागचे सति । सस्य सर्पल । पृष्टिः नीहा । माइन्यते यष्टिमिः पीच्यते । इति भिम् । इति मूलत्वम् ॥१.n भुवि भूमण्डले । मपि मूर्खाः। ये शठाः दुःखहतये दुःखविनाशाय । म्यापारम् भातन्वते विखारयन्ति । तस्मास्त्रकर्मवशतः । सा दुःखहतिः । मा अभूत् । अथवा ते मूखः तादृशाः। ननु इति वित। वर्य तान् एष मूनि मूलसिरोमणीन् मन्यामहे ये शुर्य लोकं कुर्वन्ति । क सति । निजे बटे। मृते सति । तत् शोकं पापाय पुनः । दुःशाप भवति ॥ ११॥ भो मानुषपयो । निःशेवं अगत् इन्द्रजालसदृशम् । रम्भा व सदसगर्भवत् । पारोमिततम् । किन भानाति । किंग शुगोवि । म बसे । पत्र संसारे । बिजे इटे। सोकान्तरस्बे मृते सति ।
तब उसकी रेखाको कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष साठी आदिके द्वारा ताइन करता है ! अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् वैसा नहीं करता है ।।१०॥ इस पृथिवीपर जो मूर्ख जन हैं वे भी दुःखको नष्ट करनेके लिये प्रयास करते हैं। फिर यदि अपने कर्मके प्रभावसे वह दुःखका विनाश न भी हो तो भी वे वैसे मूर्ख नहीं हैं । हम तो उन्ही मूखौंको मूखोंमें श्रेष्ठ अर्थात् अतिशय मूर्ख मानते हैं जो किसी इष्ट जनका मरण होनेपर पाप और दुःखके निमितभूत शोकको करते हैं। विशेषार्थ-लोफमें जो प्राणी मूर्स समझे जाते हैं वे मी दुःखको दूर करनेकन प्रया करते हैं। यदि कदाचित् दैववशात् उन्हें अपने इस प्रयत्नमें सफलता न भी मिले तो भी उन्हें इतना अधिक बब नहीं समझा आता । किन्तु ओ पुरुष किसी इट जनका वियोग हो आनेपर शोक करते हैं उन्हें मूर्ख ही नहीं बल्कि मूर्सशिरोमणि (अतिशय बर) समझा जाता है। कारण यह कि मूर्ख समझे जानेवाले के प्राणी तो आये हुए दुःसको दूर करनेके लिये ही कुछ न कुछ प्रयास करते हैं, किन्तु ये मूर्खशिरोमणि इष्टवियोगमै शोकाकुल होकर और नवीन दुःसको मी उत्पन्न करनेका प्रयत्न करते हैं । इसका मी कारण यह है कि उस शोकसे "दुःल-शोक तापक्रन्दन-वध-परिदेवनान्यात्म-परोभयखान्यसद्वेधस्म" इस सूत्र (त. सू. ६-११)के अनुसार असातावेदनीय कर्मका ही बन्ध होता है, जिससे कि भविष्यमें भी उन्हें उस दुःखकी प्राप्ति अनिवार्य हो जाती है।॥ ११॥ हे अज्ञानी मनुष्य ! यह समस्त जगत् इन्द्रजालके सदृश विनाधर और केलेके स्वम्भके समान निस्सार है। इस बातको तुम क्या नहीं जानते हो, क्या आगममें नहीं सुनते हो, और क्या प्रत्यक्षमें ही नहीं देखते हो! अर्थात् अवश्य ही तुम इसे जानते हो, सुनते हो और प्रत्यक्षमें भी देखते हो। फिर मा यहाँ अपने किसी सम्बन्धी अनके मरणको प्राप्त होनेपर क्यों शोक करते हो ! अर्थात् शोकको छोड़कर ऐसा कुछ प्रयत करो जिससे कि शाधतिक उत्तम सुखके सानभूत मोक्षको प्रास हो सको ॥१२॥
सूमण्डले लाप।