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पनष्टिपतिः
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भयद्यगमशाखच्चादचारित्रपुष्पस्तदरमृतफलेन प्रीणयत्याशु भव्यम् ॥ ७३ ॥ 74) गमत्रालंकृत सिद्धिपात्रं लघुरपि न गुरुः स्यादन्यथात्वे कदाचित् । स्फुटमवगतमा याति भन्दो ऽपि गच्छभिमतपदमभ्यो नैव तूर्णो ऽपि जन्तुः ॥ ७४ ॥ 75) वनशिखिनि सृतो ऽन्यः संचरन् बाढमवि द्वितयविकल मूर्तिर्वीक्षमाणो ऽपि खजः । अपि सनयनपादो ऽधानञ्च तस्माद्वगवगमचरित्रैः संयुतैरेव सिद्धिः ॥ ७५ ॥
सदम्भः सारिणीतिः तु पुनः अशक्का आदिवष्टगुणाः सत्समीचीना एव अम्भःसारणी' जलधोरिणी' तथा सिकं सिश्चितम् बैः खातिशयेन । तरुः अमृतफळेन । आशु शीघ्रम् । भयं प्रीणयति पोषयवि । किंलक्षणस्तरुः । चादचारित्रपुष्पः । मध्यम् असफलेन मोक्ष फळेन पोषयति । पुनः विलक्षणस्तदः । भवदवगमशावः । भवद् उत्पद्यमानः अवगमः ज्ञानं तदेव शास्त्रा श्रस्य सः ॥ ७३ ॥ कश्विन्मुनिः लघुरपि तथा शिष्योऽपि यदि हगवगमचरित्रालङ्कृतो दर्शनशानचारित्रसहितः । सिद्धि पात्रं स्थाद्भवेत् । अन्यवात् गुरु परिथेऽपि दर्शनज्ञान चारित्ररहितः सिद्धिपात्रं न स्यात् मोक्षभोका न भवति । तत्र दृशन्तमाह । स्फुटं प्रगटम् 1 अवगतमार्गः शातमार्गः । जन्तुः जीवैः । मन्दोऽपि गच्छन् मन्दं मन्दं गरछन् । अभिमतपदं याति मभिलषितपदं याति । अन्यः शातमार्गः जीवः । सूर्योऽपि गच्छन् शीघ्रममनसहितः । अभिमतपदं न याति गच्छति न ॥ ७४ ॥ अन्धः । बनशिखिनि दवाओं । सृतः । किंलक्षणोऽन्यः । बाढम् अतिशयेन । संचरन् गच्छन् । पुनः स्वजः पशुः वनशिखिनि मृतः । किंलक्षणः खनः । वीक्षमाणोऽपि अनलोकमानोऽपि । पुनः किंलक्षणः खमः । मतिद्वितयविकलमूर्तिः चरणरहितः । च पुनः । सनयनपादः पुमान् वनशिखिनि मृतः । किंलक्षणः सनयनपादः । श्रद्दधानः भालस्यसहितः । तस्मात्कारणात् । रगवगमचरित्रेः नदीके द्वारा अतिशय सींचा जाकर उत्पन्न हुई सम्यग्ज्ञानरूपी शाखाओं और मनोहर सम्यक्चारित्ररूपी पुष्पों से सम्पन्न होता हुआ वृक्षके रूपमें परिणत होता है, जो भव्य जीवको शीघ्र ही मोक्षरूपी फलको देकर प्रसन्न करता है ॥ ७३ ॥ सम्यग्दर्शन, सम्यम्ज्ञान एवं सम्यक् चारित्र से विभूषित पुरुष यदि तप आदि अन्य गुणोंमें मन्द भी हो तो भी वह सिद्धिका पात्र है, अर्थात् उसे सिद्धि प्राप्त होती है । किन्तु इसके विपरीत यदि रत्नत्रयसे रहित पुरुष अन्य गुणोंमें महान् भी हो तो भी वह कभी भी सिद्धिको प्राप्त नहीं हो सकता है। ठीक ही है—स्पष्टतया मार्गसे परिचित व्यक्ति यदि चलने में मन्द मी हो तो भी वह धीरे धीरे चरकर अभीष्ट स्थानमें पहुंच जाता है। किन्तु इसके विपरीत जो अन्य व्यक्ति मार्गसे अपरिचित है वह चलने में शीघ्रगामी होकर भी अभीष्ट स्थानको नहीं प्राप्त हो सकता है ।। ७४ ।। दावानलसे जलते हुए वनमें शीघ्र गमन करनेवाला अन्धा मर जाता है, इसी प्रकार दोनों पैरोंसे रहित शरीरवाला लंगड़ा मनुष्य दावानलको देखता हुआ भी चलने में असमर्थ होनेसे जलकर मर जाता है, तथा अमिका विश्वास न करनेवाला मनुष्य मी नेत्र एवं पैरोंसे संयुक्त होकर भी उक्त दावानलमें भस्म हो जाता है। इसीलिये सम्यग्दर्शन, सम्यन्हान और सम्यक्चारित्र इन तीनोंके एकताको प्राप्त होनेपर ही उनसे सिद्धि प्राप्स होती है; ऐसा निश्चित समझना चाहिये ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार उक्त तीनों मनुष्योंमें एक व्यक्ति तो असे अग्निको देखकर और भागने में समर्थ होकर भी केवल अविश्वासके कारण मरता है, दूसरा (अन्धा ) व्यक्ति अमिका परिज्ञान न हो सकनेसे मृत्युको प्राप्त होता है, तथा तीसरा ( लंगड़ा ) व्यक्ति अभिपर भरोसा रखकर और उसे जानकर मी चलनेमें असमर्थ होनेसे ही मृत्युके मुखमें प्रविष्ट होता है। उसी प्रकार ज्ञान और चारित्र से रहित जो प्राणी तत्त्वार्थका केवल श्रद्धान करता है, श्रद्धान और आचरणसे रहित जिसको एक मात्र तत्त्वार्थका परिज्ञान ही है, अथवा श्रद्धा और ज्ञानसे रहित जो जीव केवल चारित्रका ही परिपालन करता है; इन तीनोंमेंसे किसीको भी मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकती । वह तो इन तीनों की
१ बस न स एव अन्य २ वा सारिमी धारिणी । ४ ब झ अम्यया । ५ स ज्ञातमार्गः जीवः ।