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११. निश्चयपञ्चाशत् 650) यो था मुक्तो वा चिद्रूपी नयविचारविधिरेषः ।
सर्वनयपक्षरहितो भवति हि साक्षात्समयसारः ।। ५३ ॥ 631) नयनिक्षेपप्रमितिप्रभृतिविकल्पोज्झितं परं शान्तम् ।
शुद्धानुभूतिमोचरमहमेकं धाम चिद्रूपम् ॥ ५४ ॥ 652) शाते शातमशेष हटेष्ट स शुद्धचिबूपे।।
निशेषयोध्यविषयौ रग्बोधौ यत्र तद्विनौ ॥ ५५॥ 653 ) भावे मनोहरे ऽपि च काचिनियता व जायते प्रीतिः।
अपि सः परमात्मनि हेतु स्वयं समाप्यते ॥५६॥ 654 सन्नध्यसनिय सिदा जनसामान्यो ऽपि कर्मणो योगः।
तरणपटूनामशः पथिकानामिव सरित्पूरः ॥ ५७ ॥ 655) मृगयमाणेन सुचिरं रोषणभुवि रखमीप्सितं प्राप्य ।
हेयाइयश्रुतिरपि विलोक्यते लग्यतस्येम ॥ ५८ ॥ विनवासिलविकल्पजालामाणि ॥५२॥ विषः पयः वा मुकः वा एषः नमविचारविधिः । हि यतः । सालासमयसारः सवनयपक्षरहितः भवति ॥ ५५ ॥ अहम् एक' विदूपम् । धाम गृहम् । किलक्षणं चिपम् । मयनिक्षेपछीवि-प्रमाषप्रमतिबादिविकल्पोजिप्ततं रहितम् । पुनः किंलक्षण चिबूपम् । शान्सम् । पर श्रेष्ठम् । पुनः शुशानुभूतिगोचरम् ॥ ५४ । विदूपे जाते सति भशेष ज्ञातम् । च पुनः । शुद्धचिद्रपे रहे सति भयं दृष्म्। संघमास्कारणाद। रम्बोधो । तद्विान समाद चिद्रूपान् भिभो न । किंलक्षणो रमोधी । निःशेषमोध्यविषयो निःशेषयगोचरौ ॥ ५५ ॥ च पुनः । मनोहरेऽपि मा सति । काचित् नियता निखिता। प्रीतिः । जायते उत्पद्यते । अपि । खयम् भारममा परमात्मनि दष्टे सति सर्वाः प्रीतमः समाप्यन्ते। यस्मिन् परमात्मनि रहे सति सर्वपदार्थाः रश्यन्ते । सवों मोहों विनाशं गच्छति ॥ ५५ ॥ विदा पण्डितानाम्।र्मन्ये शेका सन् अपि असन् इव ।तरणपट्टनो पथिकानो सरित्सरः सा किलक्षगः सरिसरः। जनसामान्योऽपि जनतुल्यः बासमत ॥५७ ॥ सन्धतस्पेन मुनिमा । हेय-अहेयश्रुतिः अपि विलोक्यते। रोहणभुवि रोहणाचले । सुधिर पिरवतम्। मनमानेन हो जाते हैं उसी प्रकार विवेकी जनके हृदयमें आत्मतेजके प्रगट हो जानेपर समस्त विकल्पसमूह नष्ट हो जाते हैं। ऐसे आत्मतेजको नमस्कार करना चाहिये ॥५२॥ चैतन्यस्वरूप बद्ध है अथवा मुक्त है, यह तो नयोंके आश्रित विचारका विधान है । वास्तवमें समयसार (आत्मस्वरूप) साक्षात् इन सब नयपक्षोंसे रहित है ।। ५३ ।। जो चैतन्यरूप तेज नय, निक्षेप और प्रमाण आदि विकल्पोंसे रहित; उत्कृष्ट, शान्त, एक एवं शुद्ध अनुभवका विषय है वही मैं हूं ॥ ५४ ॥ शुद्ध चैतन्यस्वरूपके ज्ञात हो जानेपर सब कुछ ज्ञात हो जाता है तथा उसके देख लेनेपर सब कुछ देखनेमें आ जाता है। कारण यह कि समस्त ज्ञेय पदार्थोंको विषय करनेवाले दर्शन और ज्ञान उक्त चैतन्य स्वरूपसे भिन्न नहीं हैं ॥ ५५ ॥ मनोहर भी पदार्थके विषयमें कुछ नियमित ही प्रीति उत्पन्न होती है। परन्तु परमात्माका दर्शन होनेपर सब ही प्रकारको प्रीति स्वयमेव नष्ट हो जाती है ! ५६ ॥ जिस प्रकार तैरनेमें निपुण पविकोंके लिये पृद्धिंगत नदीका प्रवाह हो करके भी नहींके समान होता है-उसे वे कुछ भी बाधक नहीं मानते हैं-उसी प्रकार विद्वज्जनोंके लिये जनसाधारणमें रहनेवाला कर्मका सम्बन्ध विद्यमान होकर भी अविद्यमानके समान प्रतीत होता है ।। ५७ ॥ जिस प्रकार चिर कालसे रोण पर्वतकी भूमिमें इच्छित रत्नको खोजनेवाल मनुष्य उसे प्राप्त करके हेय और उपादेयकी श्रुतिका भी अवलोकन करता है-यह ग्रहण करनेके योग्य है या त्यागनेके योग्य, इस प्रकारका विचार करता है- उसी प्रकार तत्त्वज्ञ पुरुष आत्मारूप रोहणमिमें चिर कालसे इच्छित आत्मतत्त्वरूप रलको खोजता हुआ उसे प्राप्त करके हेय-उपादेय श्रुविका भी
कवई मास्ति । - २ श एक आम्। वाममोहरे भावे। सा मोह !
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