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पचनन्दि-पशितिः
1234:-- 234) यस्यास्ति नो घमवतः किल पात्रदानमसिम् परत्र व मवे पशले मुखाय ।
अन्येन फेमचिदन्नसुपुण्यमाजा शितःस सेवकनरोधमरक्षनाथ ३६॥ 235) चैत्यालये जिमसरिखुधार्यमे व दाने व संयतमनस्य सुदुःखिते।
पश्चात्मनि स्वभुपयोगि तदेव नूममारमीयमन्यविद कस्यचिदन्यपुंसः ॥ ३७ ॥ 236 ) पुण्यक्षयारक्षयमुपैति न दीयमाना लक्ष्मीरसः कुक्त संतप्तपात्रदानम् ।
कृपेम पश्यत जाले गृहिणः समन्तादारुष्यमाणमपि वर्धत एव नित्यम् ॥ ३८॥ 237 ) सर्वान गुणानिह पर वहन्ति लोभः सर्षस्य पूज्यजनप्मनहानिहेतुः।।
मन्यत्र तत्र विहिते ऽपि हि दोषमानमेकत्र जन्मनि परे प्रययन्ति लोकाः ॥ ३९॥ अधिरुह्य भारुयं पठित्वा । समुई प्रविशेत् ॥ ३५ ॥ किल इति शानोको लोकोको भूयते । यस्य धनवतः पुत्रस्म । पात्रदान न मस्ति । यस्पात्रदानम् । अस्मिन् भने पर्याये । यायसे वशोनिमितं भवति । परत्र अन्यमवे सुखाय भवति । स अदः । अन्येन
नचित् । अनूनसुपुण्यभाजा पूर्णपुण्ययुकेन । धमरक्षणाय मदतः सेवकनरः । क्षिप्तः स्थापितः॥३६॥ इह लोके यत् खं बम्बम् । पैसामन्ये चैत्यालयनिमित्तं भवति । च पुनः । यद्भाव्यं जिनसूतिपुधार्थने देवगुरुशास्त्रार्थने पूजानिमितं भवति । पुनः। संगतजनस्य दाने दाननिम्मित भवति । य पुनः । सदमिते बने । मध्यम । भात्मनि आत्मनिमिते उपयोगि वाशितजना मारमनिमितं भवति । नूनं तदेव इष्पम् आत्मीयम् । यत् अन्यत् इव्यम् । दानाय म भुजये न ताम्यम् । कस्पचित अन्यपुंसः अन्यपुस्खस्स विदि ॥ ३७॥ मो गृहिणः भो गृहस्थाः । लक्ष्मीः पुण्यश्चात् पुण्यविनाशात् । क्षयं माशम् । उपैति । सूक्ष्मीः रमाना बिनाशम्।। उपैसि न गच्छति। अतः कारणात् । संततं निरन्तरम् । पात्रदानं कुरुत। मो लोकाः । कूपे पविषये। जले न पश्यत समन्तात् माकम्पमाणम् अपि । निस्य सदैव । वर्षते । एघ निश्चयेन ॥ ३८॥ भो लोकाः भूपताम् । इह जन्मनि । र पुनः । पत्र उसने मनुष्य पर्यायके साथ उसके योग्य सम्पतिको पाकर भी किया ही नहीं है ॥ ३५ ॥ जो पात्रदान इस मवमें यशका कारण तथा परमयमें सुखका कारण है उसे ओ धनवान् मनुष्य नहीं करता है वह मनुष्य मानो किसी दूसरे भतिशय पुण्यशाली मनुष्यके द्वारा धनकी रक्षाके लिये सेवकके रूपमें ही रखा गया है ।। विशेषार्थ-यदि भाम्यवश्व धन-सम्पत्तिकी प्राप्ति हुई तो उसका सदुपयोग अपनी योग्य आवश्यकताकी पूर्ति करते हुए पात्रदानमें करना चाहिये । परन्तु जो मनुष्य प्राप्त सम्पछिका न तो स्वयं उपभोग करता है और न पात्रदान भी करता है वह मनुष्य अन्य नयान मनुष्यके द्वारा अपने धनकी रक्षार्थ रखे गये दासके ही समान है । कारण कि जिस प्रकार धनके रक्षणार्थ रखा गया दास (मुनीम आदि) स्वयं उस धनका उपयोग नहीं कर सकता, किन्तु केवल उसका रक्षण ही करता है; ठीक इसी प्रकार वह धनवान् मनुष्य मी अब उस धनको न अपने उपभोगमें खर्च करता है और न पात्रदानादि भी करता है तब भला उक्त दासकी अपेक्षा इसमें क्या विशेषता रहती है। कुछ भी नहीं ॥ ३६ ॥ लोकमें जो धन जिनालयके निर्माण करानेमें; जिनदेव, आचार्य और पण्डित अर्थात् उपाध्यायकी पूजाम; संयमी जनोंको दान करनेमें, अतिशय दुःखी प्राणियोंफो मी दयापूर्वक दान करनेमें, तथा अपने उपमोगमें भी काम आता है; उसे ही निश्चयसे अपना धन समझना चाहिये । इसके विपरीत जो धन इन उपर्युक कामोंमें खर्च नहीं किया जाता है उसे किसी दूसरे ही मनुष्यका धन समझना चाहिये ॥ ३७॥ सम्पत्ति पुण्यके क्षयसे क्षयको प्राप्त होती है, न कि दान करनेसे । अत एव हे श्रावको ! आप निरन्तर पात्रदान करें। क्या आप यह नहीं देखते कि कुएंसे सब ओरसे निकाला जानेवाला भी जल नित्य बढ़ता ही रहता है ॥ ३८ ॥ पूज्य जनोंकी पूजामें बाधा पहुंचानेवाला लोम इस लोकमें और परलोकमें भी सबके समी
संयतजनस्य च दाने।