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पामा पारि 499 ) स्थायदामृतगर्मितागममहारखाकरमानको
चौता पस्य मतिः स पर मनुते तवं विमुक्तात्ममः । वत्तस्यैव तव पाति समतेः सामानुपादेयता मेवेन वकतेन तेन च बिना संकपमेक परम् ॥ १४॥
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अप्रमाणलं तस्मात् अप्रमाणत्वात् । यसिदज्योतिः शल्प संसाराभावात् । मत्सिबज्योति: नो शून्य खचतुष्टयेन नो शून्यम् । । यसिद्धज्योतिः उत्पद्यते नश्यति पर्यायानयेने। यत्सिबज्योतिः निर्ल्स म्यनयेम । यस्सिमज्योतिः नास्ति मस्तिगुणापेक्षया व्यस्य नास्तित्वं गुणस्य अखिवं इण्यापेक्षया गुणस्य नातिवं व्यस्य अस्तित्वम् । यत्सिदस्योतिः एक व्यतः । यत्सिदज्योतिः भनेक गुणनः । यस्सिदज्योतिः तदपि हा प्रतीति प्राप्तम् । मसिखज्योतिः ममूर्ति चित्सुखममम् । तत् फेनापि लक्ष्यते ॥ १३ ॥ यस्य मन्यस्य मतिः । स्थानशब्द-अखित्यादिशब्दामृतेन गर्मितः भागमः एव रखाकरः तस मानतः 1 चौता प्रक्षालिता यस्य मतिः स एव विशुद्धालनः तवं मनुते । तत्तस्मात्कारणात् । तस्य सुमतेः । तदेव भास्मसत्वम् । उपादेवा । याति प्राह्मभावं याति । फेन । भेदेन भेदशानेन । च पुनः । तेन । सकृतेन मात्मना कृतेन । बिना भेदलानेन बिना । एक परे ।
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द्वारा देखी जाती है ॥ विशेषार्थ— यहां जो सिद्धज्योतिको परस्पर विरुद्ध प्रतीत होनेवाले अनेक धोंसे संयुक्त बताया है वह विवक्षामेदसे बताया गया है। यथा-वह सिद्धज्योति यूंकि अतीन्द्रिय है अत एव सूक्ष्म कही जाती है। परन्तु उसमें अनन्तानन्त पदार्थ प्रतिभासित होते हैं, अतः इस अपेक्षासे यह स्थल मी कही जाती है। वह पर (पुद्लादि) द्रव्योंके गुणोंसे रहित होनेके कारण शून्य तथा अनन्तचतुष्टयसे संयुक्त होनेके कारण परिपूर्ण भी है ! पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षा वह परिणमनशील होनेसे उत्पाद-विनाशशाली तथा द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षा विकार रहित होनेसे निस भी मानी जाती है । खकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा वह सद्भावस्वरूप तथा पर द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा अभावस्वरूप मी है। वह अपने स्वभावको छोड़कर अन्यस्वरूप न होनेके कारण एक तथा अनेक पदार्थोके स्वरूपको प्रतिभासित करनेके कारण अनेक स्वरूप भी है। ऐसी उस सिद्धज्योतिका चिन्तन सभी नहीं कर पाते, किन्तु निर्मल ज्ञानके धारक कुछ विशेष योगीजन ही उसका चिन्तन करते हैं ॥ १३ ॥ 'स्याद' शब्दरूप अमृतसे गर्भित आगम (अनेकान्तसिद्धान्त ) रूपी महासमुदमें खान करनेसे जिसकी बुद्धि निर्मल हो चुकी है वही सिद्ध आत्माके रहस्यको जान सकता है । इसलिये उसी सुबुद्धि जीवके लिये जब तक अपने आप किया गया मेद ( संसारी व मुक्त स्वरूप) विद्यमान है तब तक वही सिद्धस्वरूप साक्षात् उपादेय (ग्रहण करने योग्य) होता है । तत्पश्चात् उपर्युक मेबुद्धिके नष्ट हो जानेपर केवल एक निर्विकल्पक शुद्ध आत्मतत्त्व ही प्रतिभासित होता है- उस समय वह उपादान-उपादेय माव भी नष्ट हो जाता है | विशेषार्थ ---- यह भव्य जीव जब अनेकान्तमय परमागमका अभ्यास करता है तब वह विवेकबुद्धिको प्राप्त होकर सिद्धोके यथार्थ स्वरूपको जान लेता है । उस समय यह अपने आपको कर्मकलंकसे लिप्त जानकर उसी सिद्ध स्वरूपको ही उपादेय (प्राय) मानता है । किन्तु जैसे ही उसके स्वरूपाचरण प्रगट होता है वैसे ही उसकी वह संसारी और मुक्त विषयक मेदबुद्धि मी नष्ट हो जाती है- उस समय उसके ध्यान, ध्याता एवं ध्येयका भेद ही नहीं रहता । तब उसे सब प्रकारके विकल्पोंसे रहित एकमात्र
१स अतोऽये 'पुनर्न विद्यते प्रमाण मर्यादा यस्य तदभप्रमाणं मीयते प्रमाणीक्रियते मर्यादीभित्यते तत् प्रमाण' लेतावान् पाठोऽधिक: समुपलायसे। २पा पर्यायनयन ।