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पानविपणिति 205) मायासकोटिभिरुपार्जितमरजेभ्यो यजीवितादपि मिजाइपितं जनामाम् ।
वित्तस्य तस्य सुगति। खलु दानमेकमन्या विपत्तय इसि प्रवदन्ति सम्तः ॥ 206) भुस्यादिभिः प्रतिविनं गृहिणो न सम्यवनष्टा रमापि पुनरेति कदाधिवत्र।
सत्पात्रदानविधिना तु गताप्युदेति क्षेत्रस्थवीममिव कोटिगुणं बटस्य ॥ ८॥ 207) यो दप्सवानिह मुमुक्षुजनाय भुति भत्याश्रितः शिषपथे न घृतः स पक्ष ।
आत्मापि तेन विदधस्सुरसम नूनमुथैः पदं अजति सत्साहितो ऽपि शिस्पी ॥९॥ क्षलु इति निश्चितम् । तस्य वित्तस्य सुगतिः एकं दानम् । यत् द्रव्यम् भावासकोटिमिः उपार्जितम् । अनाना लोकानाम् ।
: अपि । निजात् जीविताद् अपि । दयित बचभम् । तस्यव्यस्था अन्यागविः विपत्तयः। सन्तः सापक इति प्रवदन्ति कषयन्ति ॥७॥ अगसारे । गृहिण: रावस ।
: प्रीति वादिभिः सम्यक नाही । पुनरपि कदाचित् न एति नागच्छति । इ पुनः । ससानदानविधिना गता लक्ष्मीः । उदेति भागच्छति। यथा बटव क्षेत्रका बीच कोटिगुणम् उदेति ॥ ८ ॥ इह संसारे । यः स्मः । भत्याश्रितः । मुमुक्षुअमाय मुनये । भुकिम् बाहारम् । वदान् । तेन विधि ही है, जैसे कि समुद्रसे पार होनेके लिये चतुर खेवट ( मल्लाह ) से संचालित नाव कारण है ।। विशेषार्थ-जो दान देनेके मोम्य है उसे पात्र कहा जाता है। वह उत्तम, मध्यम और जघन्यके मेदसे तीन प्रकारका है । इनमें सकल चारित्र (महावत ) को धारण करनेवाले मुनिको उत्तम पात्र, विकल चारित्र (देशनत ) को धारण करनेवाले श्रावकको मध्यम पात्र, तथा अतरहित सम्यग्दृष्टिको जघन्य पात्र समझना चाहिये । इन पात्रोंको यदि मिध्यादृष्टि जीव आहार आदि प्रदान करता है तो वह यथाक्रमसे (उत्तम पात्र आदिके अनुसार ) उत्तम, मध्यम एवं बधन्य भोगभूमिके सुखको भोगकर तत्पश्चात् यथासम्भव देव पर्यायको प्राप्त करता है। किन्तु यदि उपर्युक्त पात्रोंको ही सम्यम्हष्टि जीव आहार आदि प्रदान करता है तो वह नियमतः उत्तम देवोंमें ही उत्पन्न होता है। कारण यह है कि सम्यम्दृष्टि जीवके एक मात्र देवायुका ही बन्ध होता है। इनके अतिरिक्त जो जीव सम्यग्दर्शनसे रहित होकर मी ब्रतोंका परिपालन करते हैं वे कुपात्र कहलाते हैं । कुपात्रदानके प्रभावसे प्राणी कुभोगमूमियों ( अन्तरद्वीपों ) में कुमानुष उत्पन होता है । जो प्राणी न तो सम्यग्दृष्टि है और न व्रतोंका भी पालन करता है वह अपात्र कहा जाता है और ऐसे अपात्रके लिये दिया गया दान व्यर्थ होता है-उसका कोई फल प्राप्त नहीं होग, नैसे कि ऊसर भूमिमें बोया गया बीज । इतना अवश्य है कि अपात्र होकर भी जो प्राणी विकलांग (लंगडे व अन्ये आदि ) अथवा असहाय हैं उनके लिये दयापूर्वक दिया गया दान ( दयादत्ति ) व्यर्थ नहीं होता। किन्तु उससे भी यथायोग्य पुष्य फर्मका बन्ध अवश्य होता है ।। ६ ।। करोड़ों परिश्रमोंसे संचित किया हुआ जो धन प्राणियोंको पुत्रों और अपने प्राणोंसे भी अधिक प्रिय प्रतीत होता है उसका सदुपयोग केवल दान देनेमें ही होता है, इसके विरुद्ध दुर्व्यसनादिमें उसका उपयोग करनेसे प्राणीको अनेक कष्ट ही भोगने पड़ते हैं। ऐसा साधु जनोंका कहना है ॥ ७ ॥ लोकमें प्रतिदिन भोजन आदिके द्वारा नाशको प्राप्त हुई गृहस्थकी लक्ष्मी ( सम्पत्ति ) यहां फिरसे कभी भी प्राप्त नहीं होती । किन्तु उत्तम पात्रोंक लिये दिये गये दानकी विधिसे व्ययको प्राप्त हुई वही सम्पत्ति फिरसे भी प्राप्त हो जाती है । जैसे कि उत्तम
भूमिमें बोया हुआ वट वृक्षका बीज करोड़गुणा फल देता है॥ ८ ॥ जिस श्राक्कने यहां मोक्षाभिलाषी मुनिके लिये भक्तिपूर्वक आहार दिया है उसने केवल उस मुनिके लिये ही मोक्षमार्गमें प्रवत नहीं किया है, परिक
१ क श क्षेत्रस्य । २ क विपत्तथे । ३ + क्षेत्रस्य ।