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पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः वे भगवान् जब सर्वार्थसिद्धिसे च्युत होकर माता मरुदेवीके गर्भमें आनेवाले थे, उसके छह महिने पूर्वसे ही नाभिरायके धरपर रनोंकी वर्षा प्रारम्भ हो गई । उस समय देवोंने आकर मरुदेवीके चरणों में नमस्कार किया। तत्पश्चात् प्रभुका जन्म हो जानेपर जब सौधर्म इन्द्रने उन्हें मेरु पर्वतपर अभिषेकार्थ ले जानेके लिये अपनी गोदमें लिया तब उन्हें देखकर उसमें अपने निर्निमेष हजार नेत्रोंको सफल समझा (६-९)।
__इस अवसर्पिणी कालके चतुर्थ पर्वमें जब चौरासी लाख पूर्व, तीन वर्ष और साढ़े आठ माह शेष रहे थे तब भगवान् ऋषभ देवका जन्म हुआ था। यह परिवर्तनका समय था- भोगभूमिका अन्त होकर कर्मभूमिकी रचना प्रारम्भ होनेवाली थी । उस समय कल्पवृक्ष धीरे धीरे नष्ट होते जा रहे थे । इससे प्रजाजन भूख आदिसे पीड़ित होने लगे थे। तब भगवान् ऋषभदेवने उन्हें यथायोग्य खेती आदिकी शिक्षा दी। इस प्रकार उन्होंने बहुत-से कल्पवृक्षोंके कार्यको अकेले ही पूरा कर दिया (१३)। उनकी आयु चौरासी लाख पूर्वकी थी । इसमेंसे गृहस्थ अवस्थामें उनके तेरासी लाख पूर्व बीत चुके थे।
एक समय वे सभाभवनमें सुन्दर सिंहासनके ऊपर स्थित होकर इन्द्रके द्वारा आयोजित नीलांजना अप्सराके नृत्यको देख रहे थे। इसी बीच नीलांजनाकी आयुके क्षीण हो जानेसे वह क्षणभरमै अदृश्य हो गई । यद्यपि इन्द्रने उसके स्थानपर उसी समय दूसरी अप्सराको खड़ा कर दिया, फिर भी यह बात भगवान्की दिव्य दृष्टिके ओझल नहीं रही। फिर क्या था, उन्होंने उस नीलांजनाकी क्षणनश्वरताको देखकर राजलक्ष्मीके भी क्षणनश्वर स्वरूपको जान लिया । तब उन्होंने उस राजलक्ष्मीको जीर्ण तृणके समान छोड़कर दीक्षा ग्रहण कर ली (१५-१६)। इस प्रकार तपश्चरण करते हुए उनके एक हजार वर्ष बीत गये तब उन्होंने अनुपम समाधिके द्वारा चार धातिया कोको नष्ट करके केवलज्ञानको प्राप्त किया (१९)।
__इस प्रसंगमें यहां समवसरणमें विराजमान भगवान् आदि जिनेन्द्रके सिंहासनादि आठ प्रातिहार्योंका वर्णन किया गया है ( २३-३४) । उस समय भगवान्ने अपनी दिव्य वाणीके द्वारा विश्वको हितकारी मोक्षमार्गका उपदेश दिया । उसको सुनकर मुमुक्षु जन मोहसे रहित होते हुए उस मार्गपर निराकुलतापूर्वक इस प्रकार चलने लगे जिस प्रकार कि चोरादिकी बाधासे रहित मार्गपर व्यवहारी जन निश्चिन्ततापूर्वक चला करते हैं ( ३७) । इस प्रकार तीर्थकर प्रकृतिके उदयकी महिमाको प्रगट करते हुए ग्रन्थकार मुनि पद्मनन्दीने इस स्तुतिको समाप्त किया है।
१४. जिनदर्शनस्तवन---यह प्रकरण भी प्राकृत भाषामय है और उसमें ३४ गाथाओंके द्वारा जिनदर्शनकी महिमाको दिखलाया गया है ।
१५. श्रुतदेवतास्तुति- इस प्रकरणमें ३१ श्लोकोंके द्वारा जिनवाणीकी स्तुति की गई है। १ मुगमदुसमम्मि गामे सेसे यउसीदिलक्खपुत्राणि । दासतए अडमासे इगिपक्से उसहरप्पत्ती ॥ ति. प. ४,५५३. २ प्रजापतियः प्रथम जिजीविषुः शशास कुष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । : प्रबुद्धतस्वः पुनर तोदयो ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ।। वृहत्त. २. ३ ति. प. ४-५८३,५९० (कुमारकाल २० लासपूर्व+राज्यकाल ६३ लाखपूर्व-८३ लाखपूर्व) आ.पु. १५,
११.५ति. प. ४,६७५.