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१. धमापदेशामृतम् 59) मे स्वाधारमपारसौल्यमुतरोवीज परं पञ्चधा
सबोधाः स्वयमाचरन्ति परामाचारवस्येव था। अन्यग्धिविमुक्तमुक्तिपदवीं प्राप्तास या प्रापिता।
ते रसत्रयधारिणः शिषमुखं कुर्वन्तु नः सूरयः ॥ ५९॥ 60) भ्रान्तिपदेषुषावम॑सु अम्मको पन्थानमेकममृतस परं नवन्ति ।
ये लोकमुषतधियः प्रणमामि सेभ्यः तेनाप्य जिगमिर्गुरुनायकेभ्यः ॥ ६ ॥ 81) शिष्याणामपहाय मोइपटक कालेन दीघेण य
ज्जातं स्यास्पदलामिछतोज्यलयचोदिव्याजनेन स्फुटम् । ये कुर्वन्ति इशं परामतितरा सर्वावलोकक्षमा
लोके कारणमन्तरेण भिषजास्ते पान्तु मो ऽभ्यापकाः ॥ ३१॥ बपि हारवैश्विषाः पश्य रण्डाल ददतीति षष्यवाः । वे गुरवः जयन्ति ॥ ५८॥ ते सूरयः । नः अस्माकं । शिबसूखं कुर्वन्तु । ये मुनमः परषा । खाचार सकीयमाचारम् । स्वयम् माचरन्ति । किंलक्षणमाचारम् । अपारसौख्यसतरोबीजम् । परम् उत्कृष्टम् । य पुनः । पगन् शिष्यादीन् आचारयन्ति । ये प्रत्यान्धिविमुकमुक्तिपदवी प्राप्ताः. पन्धस्स या प्रन्थिः प्रन्यमन्धिः तेमय तया विमुका था मुक्तिपदवी ता विमुक्तमुक्तपदवी प्राप्ताः । यः मुनीश्वरैः । अन्ये मुक्तिपदवी प्रापिताः । पुनः किलक्षमाः सूरमः । रजत्रयधारिणः । एवंभूताः मुनयः नः अस्माकं शिवसुखं कुर्वन्नु ॥ ५९ ।। ये गुरवः । जन्मको संसारवने। प्रान्तिप्रदेषु बहुवर्मा बहुमिथ्यात्वमार्गेषु सत्सु । लोकम् । अमृतस्य मोक्षस्य । एक पन्धा मार्गम् । नयन्ति । शिलक्षगाः गुरवः । उमतधियः । तेभ्य आचार्येभ्यः प्रणमामि । किंलक्षणेभ्यः आचार्येभ्यः । गुरुनायकेभ्यः । तेन पथा अहमपि जियामिपुः यातुमिछुः ॥ १॥ ते अध्यापकाः । मः अस्मान् । पान्तु रक्षन्तु । ये शिष्याणां दशं नेत्रम् । अतितराम् । परां श्रेयम् । सन्ति । कित्ता। मोहपटलम्सापडाय स्फेटयित्वा । केन। स्यात्पदलामिछतोचलबचोदिव्याजनेन । सिक्षण मोहपटलमा यहीय कान जातम् उत्पन्नम् । किंलक्षणा दशम् । सर्वावलोकक्षमा सर्वपदा वोकनक्षमाम् । पुनः ये अध्यापकाः । कारणमन्तरंग वैधव्य प्रदान करनेवाले हैं, वे गुरु नमस्कार करने योग्य हैं । विशेषार्थ- जो अमूल्य तीन रनोंसे सम्पन्न होगा वह निर्मन्थ (दरिद्र) नहीं हो सकता, इसी प्रकार जो प्रशनत होगा- क्रोधादि विकारोंसे रहित होगा-बह शत्रुपक्षीको विषवा नहीं बना सकता है। इस प्रकार यहां विरोधाभासको प्रगट करके उसका परिहार करते हुए प्रन्पकार यह बतलाते हैं कि जो गुरु सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्ररूप अनुपम रजत्रयके धारक होकर निर्मन्ध-मू रहित होते हुए दिगम्बरत्य- अवस्थाको प्राप्त हुए है; तथा जो अशान्तिके कारणभूत क्रोधादि कषायोंको नष्ट करके कामवासनासे रहित हो चुके हैं उन गुरुओंको नमस्कार करना चाहिये ॥ ५८॥ जो विवेकी आचार्य अपरिमित सुखरूपी उत्तम वृक्षके बीजभूत अपने पांच प्रकारके (ज्ञान, दर्शन, तप, वीर्य और चारित्र) उत्कृष्ट आचारका स्वयं पालन करते हैं तथा अन्य शिष्याविकोंको भी पालन कराते हैं, जो परिमहरूपी गांठसे रहित ऐसे मोक्षमार्गको स्वयं प्राप्त हो चुके हैं तथा जिन्होंने अन्य धात्महितैषियोंको भी उक्त मोक्षमार्ग प्राप्त कराया है, वे रजत्रयके धारक आचार्य परमेष्ठी. हमको मोजमुल प्रदान करें ॥ ५९ ॥ जो उन्नत बुद्धिके धारक आचार्य इस जन्म मरणस्वरूप संसाररूपी वनमें भ्रान्तिको उत्पक करनेवाले अनेक माकि होनेपर भी दूसरे जनोंको केवल मोक्षके मार्गपर ही ले जाते हैं उन अन्य मुनियोंको सन्मार्गपर ले जानेवाले आमायाँको मैं भी उसी मार्गसे जानेन इच्छुक होकर नमस्कार करता हूं ॥ ६ ॥ जो लोकमें अकारण (निस्वार्थ) वैयके समान होते हुए शिष्योंके चिरकालसे उत्पन्न हुए प्रशानसमूहको हटाकर 'स्पात' पदसे चिड़ित अर्थात् अनेकान्तमय निर्मक वचनरूपी दिव्य अंजनसे उनकी अत्यन्त श्रेष्ठ दृष्टिको स्पष्टतया समस्त पदाकि देखने में समर्ष
समीति वदति है।