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पचनदि-पविशतिः
[215:३२:275) आनन्दं कुरुते यवन जनता नष्टे निजे मानुषे
जाते या मुदं तदुखतधियो अल्पन्ति वातूलताम् । यजास्यास्तदुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रवन्धोदयात्
मृत्युत्पत्तिपरम्परामयमिदं सर्व जमत्सर्वदा ॥२३॥ 216) गुर्वी भ्रान्तिरिय जडत्वमथ वा लोकस्य यस्माइसन्
संसारे बहुवुःखजालजटिले शोकीभवत्यापदि । भूतप्रेतपिशायफेरपचितापूर्णे श्मशाने गृह
का कृत्वा भयदायमङ्गलकूते भावाद्भवेच्छतिः ॥२४॥ 277) अमति नभसि चन्द्रः संस्तौ शश्वदङ्गी लभत उदयमस्तं पूर्णता हीनतां ।
कलुषितहदयः सन् याति राशि च राशेस्तनुमिह तनुतस्तरकात्र मुस्कल शोकः ॥२५॥ मृतेः मरणस्य । सा घेला येवैरपि । भूपक्ष्मबलनस्तोका भपि मनुष्यनेत्रपलकसदृशापि । न लपते । तत्तस्मात्कारणात् । कस्मिन् हो। सैस्थिते सति मृते सति । सुखकरम् । श्रेयः पुण्यम् । विहाय त्यक्त्वा । कः सुधीः सानवान् । शोकं विदध्यात् शोक कुर्यात् । किलक्षणं शोकम् । सर्वत्र सदैव दुरन्तदुःखजनकम् उत्पादकम् ॥ २२॥ अत्र संसारे । जनता जनसमूहः 1 निजे मानुषे नष्टे सति मृते सति यत् आकन्दं रोदनम् । कहते । च पुनः । निजे इष्टे जाते सति उत्पने सति । मुदं इर्षम् । कुहले । तत् । उन्नतधियः गणधरदेवाः । वातूलताम् । जस्पन्ति कथयन्ति । यत् यतः । इदं सर्व जगत् । सर्वदा सदैव । जाण्यास्कृततुष्टचेष्टितभवत्कर्मप्रबन्धोदयात् उपार्जितकर्मविपाकात्। मृत्यूत्पत्तिपरम्परामयं सर्व जगत् इत्यर्थः ॥ २३ ॥ लोकस्य इयं गुबी श्रान्तिः गुरुतरप्रमः । अथवा जडत्वं यस्मात् संसारे। वसन् तिछन् सन् । आपवि सत्याम् । कोशीमबति घोकं करोति । किलक्षणे संसारे। बहुःखजालजटिले बहुलदुःखपूर्णे । श्मशाने गृहं हवा । मयदात् भावाद पदार्थात् । - पुमान् शक्तिः भवेत् । किलक्षणे श्मशाने। भूतप्रेतपिशाचफेरवफेत्कारमाम्दचितापूर्ण । पुनः किंलक्षणे श्मशाने । अमाल इते अम्ल खस्पे ॥ २४ ॥ मथा चन्द्रः शश्वत् । नभसि भाकाशे । भ्रमति । तथा संसतौ संसारे। अनी जीवः । भ्रमति । च (पलककी टिमकार ) के बराबर थोड़ा-सा भी नहीं लांध सकते। इस कारण किसी मी इष्ट जनके मरणको प्राप्त होनेपर कौन-सा बुद्धिमान् मनुष्य सुखदायक कल्याणमार्गको छोड़कर सर्वत्र अपार दुःखको उत्पन्न करनेवाले शोकको करता है ? अर्थात् कोई भी बुद्धिमान् शोकको नहीं करता ।। २२ ॥ संसारमें जनसमुदाय अपने किसी सम्बन्धी मनुष्यके मरणको प्राप्त होनेपर जो विलापपूर्वक चिल्लाकर रुदन करता है तथा उसके उत्पन्न होनेपर जो हर्ष करता है उसे उन्नत बुद्धिके धारक गणधर आदि पागलपन बतलाते हैं। कारण कि मूर्खतांवश जो दुष्प्रवृत्तियां की गई हैं उनसे होनेवाले कर्मके प्रकृष्ट बन्ध व उसके उदयसे सदा यह सब जगद् मृत्यु और उत्पसिकी परम्परास्वरूप है ।। २३ ।। बहुत दुःखोंके समूहसे परिपूर्ण ऐसे संसारमें रहनेवाला मनुष्य आपत्तिके आनेपर जो शोकाकुल होता है यह उसकी बड़ी भारी प्रान्ति अथवा अज्ञानता है। ठीक है-जो व्यक्ति भूत, प्रेत, पिशाच, शृगाल और चिताओंसे मरे हुए ऐसे अमंगलकारक श्मशानमें मकानको बनाकर रहता है वह क्या भयको उत्पन्न करनेवाले पदार्थ से कभी शंकित होगा ! अर्थात् नहीं होगा ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार भूत-प्रेतादिसे व्याप्त श्मशानमें घर बनाकर रहनेवाला व्यक्ति कमी अन्य पदार्थसे भयभीत नहीं होता, उसी प्रकार अनेक दुःखोंसे परिपूर्ण इस जन्म-मरणरूप संसारमें परिग्रमण करनेवाले जीवको भी किसी इष्टवियोगादिरूप आपचिके प्राप्त होनेपर व्याकुल नहीं होना चाहिये ! फिर यदि ऐसी आपत्तियोंके आनेपर प्राणी शोकादिसे संतप्त होता है तो इसमें उसकी अज्ञानता ही कारण है, क्योंकि, जब संसार स्वभावसे ही दुःखमय है तब आपत्तियोंका आना जाना तो रहेगा ही। फिर उसमें रहते हुए भला हर्ष और विवाद करनेसे कौन-सा प्रयोजन सिद्ध होगा। ॥ २४ ।। जिस प्रकार चन्द्रमा
साक म्हनं। २ क इलर नाति।