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पतन्विपश्वाविंशतिः
निर्गत्यो तातोतिशिखिज्वालाकरालाद्वा
sarai प्राप्य च वापिकां विशति कस्तत्रैष धीमान् नरः ॥ १७ ॥ 912 ) जायेोतमोहतो मिळविता मोक्षे ऽपि सा सिद्धिद तद्भूतार्थ परिग्रहो भवति किं कापि स्पृहालुर्मुनिः । इत्यालोचनसंगत कमला शुद्धात्मसंबन्धिना तस्यानपरायणेन सततं स्वातव्यमप्राहिणा ॥ १८ ॥
918) जायन्ते विरसा रसा विघटते गोष्ठीकथाकौतुकं शीर्यन्ते विषयास्तथा विरमति प्रीतिः शरीरे ऽपि च ।
[911:२३-१७
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निर्मन्थतानन्देन । पुनः उज्वलतरध्यान- मातिस्फीतमा कृत्वा मम दुर्ष्यान असुखम् । स्मृतिपथप्रस्थायि स्मरणगोश्वरम् । कुतः स्यात् भवेत् । उद्गतवातबोधितशिखिवालाकरालात गृहात निर्गत्य पचनप्रेरित अमिना दग्धगृहात् निर्णय । च पुनः । शीना वापिकां प्राप्य । तत्रैव उचलितगृहे । कः धीमान् चतुरः नरः प्रविशति । अपि तु प्रवेश न करोति ॥ १७ ॥ मोक्षेऽपि अषता उङ्गतमोहृतः । जायेत उत्पद्येत । तस्य मोक्षस्य सा अभिलषिता । सिद्धिहत् मुझे निषेधिका । जायते । क्षतस्मात्कारणात् । भूतार्थपरिग्रहः सत्यार्थपरिग्रहः मुनिः । किं कापि वस्तुनि । स्पृहाः भवति । अपि तु न भवति । इति आलोचनसंगतैकमनसा । सततं निरन्तरम् । अग्राहिणा परिग्रहरहितेन शुद्धात्मसंबन्धिना तत्वज्ञानपरायणेन । स्थातव्यम् ॥ १८ ॥ चितः । चिन्तायामपि । मुमुक्षोः मुनेः । रसाः विरसाः जायन्ते । गोष्ठी कथाकौतुकं विघटते। तथा विषयाः कीर्यन्ते शटन्ति । पुनः । शरीरेऽपि प्रीतिः विरमति । च पुनः । मौनं प्रतिभासते । रहः एकान्ते प्राप्तः । प्रायः बाहुल्येन दोषैः समं सार्धम् ।
ध्यानसे उत्पन्न इन्द्रियसुख स्मृतिका विषय कहांसे हो सकता है ? अर्थात् निर्मन्यताजन्य सुखके सामने इन्द्रियविषयजन्य सुख तुच्छ प्रतीत होता है, अतः उसकी चाह नष्ट हो जाती है । ठीक है - उत्पन्न हुई वायुके द्वारा प्रगट की गई अमिकी ज्वाला से भयानक ऐसे घरके भीतर से निकल कर शीतल बावड़ीको प्राप्त करता हुआ कौन-सा बुद्धिमान् पुरुष फिरसे उसी जलते हुए घरमें प्रवेश करता है? अर्थात् कोई नहीं करता है ॥ १७ ॥ मोहके उदयसे जो मोक्षके विषयमें भी अभिलाषा होती है वह सिद्धि (मुक्ति) को नष्ट करनेवाली है । इसलिये भूतार्थ ( सत्यार्थ ) अर्थात् निश्चय नयको ग्रहण करनेवाला मुनि क्या किसी भी पदार्थके विषय में इच्छायुक्त होता है ? अर्थात् नहीं होता । इस प्रकार मनमें उपयुक्त विचार करके शुद्ध आत्मा से सम्बन्ध रखते हुए साधुको परिग्रहसे रहित होकर निरम्बर तत्त्वज्ञानमें तत्पर रहना चाहिये ॥ १८ ॥ चैतन्यस्वरूप आत्मा चिन्तनमें मुमुक्ष जनके रस नीरस हो जाते हैं, सम्मिलित होकर परस्पर चलनेवाली कथाओंका
कौतूहल नष्ट हो जाता है, इन्द्रियविषय बिलीन हो जाते हैं, शरीरके भी विषय प्रेमका अन्त हो जाता है, एकान्तमें मौन प्रतिभासित होता है, तथा वैसी अवस्था में दोषोंके साथ मन भी मरनेकी इच्छा करता है ॥ विशेषार्थ - अभिप्राय यह है कि जब तक प्राणीका आत्मस्वरूपकी ओर लक्ष्य नहीं होता है तभी तक उसे संगीत सुनने में, नृत्यपरिपूर्ण नाटक आदिके देखनेमें, परस्पर कथा वार्ता करनेमें तथा शंगारादिपूर्ण उपन्यास आदिके पढ़ने-सुननमें आनन्द आता है। किन्तु जैसे ही उसके हृदयमें आत्मस्वरूपका बोध उदित होता है वैसे ही उसे उपर्युक्त इन्द्रियविषयोंके निमिचसे प्राप्त होनेवाला रस ( आनन्द ) नीरस प्रतिभासित होने लगता है । अन्य इन्द्रियविषयोंकी तो बात ही क्या, किन्तु उस समय उसका अपने शरीर के विषयमें
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