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[२०. श्रीकरुणाष्टकम् ] B58) त्रिभुवनगुरो जिनेश्वर
परमानन्दैककारण कुरुष्व । मयि किंकरेऽत्र करुणा
तया यथा जायसे मुक्तिः ॥१॥ 859) निर्विण्णोऽहं नितप
मईन बहुतुम्खया भवस्थित्या। भपुनर्भधाय भवहर
कुरु करणामत्र मयि दीने ॥२॥ 860) उदर मा पसितमतो
विषमाझयपतः कृपां छत्वा । अचलमुखरणे
स्वमसीति पुनः पुनर्वमि ॥ ३॥ 861) यं कारुणिका स्वामी
स्वमेव शरणं जिनेश नाहम् । मोहरिपुदलितमामः पूत्कारं तब पुरा कुर्वे ॥४॥
भो त्रिभुवनगुरो। भो जिनेवर। भो परमानन्दैककारण। अत्र मयि किंकरे सेक्के । तथा करना दयां कुरुष्व यथा मुक्तिः आयते उत्पयते ॥ ॥ भो भईन् । भो भवहर संसारनाशक । बहुदुःखयुकया भवस्थित्या बहं नितराम् अतिशयेन । निर्दिण्णः उदासीनः । अत्र मामि शने। करण दयां कुरु । अपुनर्भवाय भवनाशनाय ॥१॥ भो भईन् । पूर्ण कृत्वा श्रतः विषमात् कूपतः पतितं माम् असर । उदरणे त्वम् असं समर्षः भसि । इति हेतोः । पुनः पुनः तब अमे । वच्मि कपयामि ॥३॥ भो जिनेश । खै कारणिकः खामी । मम त्वमेर शरणम् । तेन कारणेन आंतर पुरः अमे। पूत्कार में। किलक्षणोऽहम् । मोहरिपुदलितमानः ॥ ४ ॥ भो जिन। प्रामपतेः मनायकस्य । परेग केनापि उपते पुंसि पीरितपुरके। करुणा जायते
तीनों लोकोंके गुरु और उस्कृष्ट सुखके अद्वितीय कारण ऐसे हे जिनेश्वर ! इस मुझ दासके ऊपर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे मुझे मुक्ति प्राप्त हो जाय ॥ १॥ हे संसारके नाशक अरइंत! मैं बहुत दुःखको उत्पन्न करनेवाले इस संसारवाससे अत्यन्त विरक्त हुआ हूं। आप इस मुझ दीनके ऊपर ऐसी कृपा कीजिये कि जिससे मुझे पुनः जन्म न लेना पड़े, अर्थात् मैं मुक्त हो जाऊं ॥२ ।। हे अरहंत! आप कृपा करके इस मयानक संसाररूप कुएंमें पड़े हुए मेरा उससे उद्धार कीजिये । आप उससे उद्धार करनेके लिये समर्थ हैं, इसीलिये मैं वार वार आपसे निवेदन करता हूं ॥ ३ ॥ हे जिनेश! तुम ही दयाल हो, तुम ही प्रभु हो, और तुम ही रक्षक हो । इसीलिये जिसका मोहरूप शत्रुके द्वारा मानमर्दन किया गया है ऐसा वह मैं आपके आगे पुकार कर कहता ई॥ ४ ॥ हे जिन! जो एक गांवका स्वामी होता है वह भी किसी
१श 'अपुनर्भवाय मवनाशनाय' नास्त्रि। २श पुरपे प्रामनायकस्य कारम ।