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परानन्दि-पञ्चविंशतिः
788 ) त्वयि प्रभूतानि पदानि देहिनां पदं तदेकं तदपि प्रयच्छसि । समस्तशुक्लापि सुवर्णविप्रा स्वमत्र मातः कृतचित्रचेष्टिता ॥ १३ ॥ 789 ) समुद्रघोषाकृति ईति प्रभौ यदा स्वमुत्कर्षमुपागता भृशम् ।
अशेषभाषात्मतया त्वया तदा कृतं न केषां हृदि मातरद्भुतम् ॥ १४ ॥ 790) सचक्षुरप्येष जनस्त्वया विना यन्त्र एवेति विभाव्यते बुधैः । तदस्य छोकत्रितयस्य लोचनं सरस्वति श्वं परमार्थदर्शने ॥ १५ ॥
अयम् । विधाय कृत्वा । मोक्षपदं धायन्ति प्राप्नुवन्ति । यत् मानवः नरः । तमस्तते तमोभ्यासे गृहे प्रदीप आश्रित्य । ईप्सितं वाञ्छितं वस्तु । लमेत प्राप्नोति ॥ १२ ॥ भो मातः । अत्र जगति । त्वं कृतांचेत्रचेष्टिता । त्वयि विषये । प्रभूतानि पदानि तदपि देहिनां जीवानां तदेकं पदं प्रयच्छसि ददासि । किंलक्षणा त्वम्। समस्तचापि सुवर्णविमा सु[]] वर्ण सुवर्णे' शरीरं यस्याः सा । व्यवहारेण सुवर्णमयच्छविशरीरा इत्यर्थः ॥ १३ ॥ भो भातः । यदा काले त्वम् अर्हति प्रभौ सर्वज्ञे । मृनम् अत्यर्थम् । उत्तम् उपागता उत्कर्षता प्राप्ता । किंलक्षणा त्वम् । समुद्रघोषाकृतिः । तदा स्वया अशेषभाषात्मतया सर्वभाषा स्वरूपेण । केषां जीवानां हृदि अद्भुतम् श्राश्वर्यं न वृतम् । अपि तु सर्वेषां हृदि भावर्यं कृतम् ॥ १४॥ भो सरखति । यत् एष जनः । स्वया विना । सचक्षुरपि नेत्रयुक्तोऽपि जन: बुधैः अन्य इति विभाव्यते कध्यते । तत्तस्मात्कारणात् । अस्य
महामुनि जब पहिले तेरा अबलम्बन लेते हैं तब कहीं उस मोक्षपदका आश्रय ले पाते हैं। ठीक भी हैमनुष्य अन्धकार से व्याप्त घरमै दीपकका अवलम्बन लेकर ही इच्छित वस्तुको प्राप्त करता है ॥ १२ ॥ हे माता ! तुम्हारे विषय में प्राणियों के बहुत से पद हैं, अर्थात् प्राणी अनेक पदोंके द्वारा तुम्हारी स्तुति करते हैं, तो भी तुम उन्हें उस एक ही पद (मोक्ष को देती हो। तुम पूर्णतया धवल हो करके भी उत्तम वर्णमय (अकारादि अक्षर स्वरूप ) शरीरखाली हो । हे देवी! तुम्हारी यह प्रवृत्ति यहां आश्चर्यको उत्पन्न करती हैं ॥ विशेषार्थ – सरस्वतीके पास मनुष्यों के बहुत पद हैं, परंतु वह उन्हें एक ही पद देती है; इस प्रकार यद्यपि यहां शब्द से विशेष प्रतीत होता है, परन्तु यथार्थतः विरोध नहीं है। कारण यह कि यहां 'पद' शब्द के दो अर्थ हैं- शब्द और स्थान | इससे यहां वह भाव निकलता है कि मनुष्य बहुत-से शब्दों द्वारा जो सरस्वतीकी स्तुति करते हैं उससे वह उन्हें अद्वितीय मोक्षपदको प्रदान करती है । इसी प्रकार जो सरस्वती पूर्णतया घवल ( श्वेत ) है वह सुवर्ण जैसे शरीरवाली कैसे हो सकती है ? यह भी यद्यपि विरोध प्रतीत होता है, परन्तु वास्तव में विरोध यहां कुछ भी नहीं है । कारण यह कि शुक्ल शब्दसे अभिप्राय यहां निर्मलका तथा वर्ण शब्दसे अभिप्राय अकारादि अक्षरोंका है । अत एव भाव इसका यह हुआ कि अकारादि उत्तम वर्णोंरूप शरीरवाली वह सरस्वती पूर्णतया निर्मल है ॥ १३ ॥ हे माता ! जब तुम भगवान् अरहन्तके विषय में समुद्रके शब्द के समान आकारको धरण करके अतिशय उत्कर्षको प्राप्त होती हो तब समस्त भाषाओं में परिणत होकर तुम किन जीवोंके हृदयमें आश्चर्यको नहीं करती हो? अर्थात् सभी जीवोंको आश्चर्यान्वित करती हो ॥ विशेषार्थ — जिनेन्द्र भगवान्की जो समुद्रके शब्द समान गम्भीर दिव्यध्वनि खिरती है यही वास्तवमें सरस्वतीकी सर्वोत्कृष्टता है । इसे ही गणधर देव बारह अंगोंमें ग्रथित करते हैं । उसमें यह अतिशयविशेष है कि जिससे वह समुद्रके शब्द के समान अक्षरमय न होकर भी श्रोताजनको अपनी अपनी भाषास्वरूप प्रतीत होती है और इसीलिये उसे सर्वभाषात्मक कहा जाता है || १४ || हे सरस्वति । चूंकि यह मनुष्य तुम्हारे बिना आंखोंसे सहित होकर
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" श आश्रमन्ति । २ शमुवण सुवर्ण ।