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पचनवि-पञ्चविंशतिः
7 ) धर्मो जीवदया गृहस्वामिनोर्भेदाद्विधा व प्रयं रमान परमं तथा दशविधोत्कृष्टक्षमादिस्ततः । मोहोत विकल्पजालरहिता वागङ्गसंगोज्झिता शुखानन्दमयात्मनः परिणतिर्धर्माख्यया गीयते ॥ ७ ॥ 8) आद्या सदतसंचयस्य उनी सौम्य सां मूलं धर्मतरोरनश्वरपदारोहनिःश्रेणिका । कार्या सद्भिरिहानिषु प्रथमतो नित्यं दया धार्मिकैः freeनामाप्यदयस्य तस्य च परं सर्वत्र शून्या दिशः ॥ ८ ॥
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धर्मः । उचैः अतिशयेन जनितपरमशर्मा जानेतम् उत्पादितं परमशमं सुखं येनासी जनितपरमशर्मा । एवंविधो जिनदेवो जयति ॥६॥ जीवश्या धर्मः । गृहस्थशमिनोः द्वयोः भेदाद् द्विधा धर्मः कथ्यते च । रमानां त्रयं विविधं धर्मः दर्शनशान चारित्राणि धर्मः । तथा दशविधो धर्मः उत्कृष्टक्षमादिः उत्तमक्षमादिः । ततः पश्चात् आत्मनः परिणतिः । धर्माख्यया धर्मनाम्ना कृत्वा आत्तमनः परिणतिः । गीयते कथ्यते । किंलक्षणा परिणतिः । मोहोद्भूतविकल्प जालरहिता मोहोद्भूतविकल्पजालेन रहिता । पुनः किलक्षणा । वागशसंगो सिता वचनकाय संगरहिता । पुनः किंलक्षणा शुद्धानन्दमया [य] ॥ ७ ॥ इह लोके । सद्भिः पण्डितैः भयैः । प्रथमतः । निषु जीयेषु दया कार्या । नित्यं सदैव । धार्मिकैः कार्या किलक्षणा दया । सद्व्रतसंचयस्य आया जननी माता । सौख्यस्य जननी माता पुनः किंलक्षणा दया । सत्संपदा मूलम् । पुनः धर्मत रोः धर्मवृक्षस्य मूलम् । पुनः किलक्षणा दया । अनश्वरपदा रोई कनिः श्रेणिका अनश्वरपदस्य मोक्षपदस्यारोहक निःश्रेणिका । तस्य अदयस्य नामापि धिक् । च
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लोकका अधिपति जिन देव जयवन्त होवे || ६ || प्राणियोंके ऊपर दयाभाव रखना, यह धर्मका स्वरूप है । वह धर्म गृहस्थ (श्रावक) और मुनिके भेदसे दो प्रकारका है। वहीं धर्म सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूप उत्कृष्ट रत्नत्रयके मेदसे तीन प्रकारका तथा उत्तम क्षमा एवं उत्तम मार्दव आदिके मेदसे दस प्रकारका भी है । परन्तु निश्चयसे तो मोहके निमित्तसे उत्पन्न होनेवाले मानसिक विकल्पसमूहसे तथा वचन एवं शरीरके संसर्गसे भी रहित जो शुद्ध आनन्दरूप आत्माकी परिणति होती है उसे ही 'धर्म' इस नामसे कहा जाता है ॥ विशेषार्थ प्राणियोंकि ऊपर दयाभाव रखना, रत्नत्रयका धारण करना, तथा उत्तमक्षमादि दस धर्मोका परिपालन करना; यह सब व्यवहार धर्मका स्वरूप है । निश्चय धर्म तो शुद्ध आनन्दमय आत्माकी परिणतिको ही कहा जाता है || ७ || यहां धर्मात्मा सज्जनोंको सबसे पहिले प्राणियोंके विषयमें नित्य ही दया करनी चाहिये, क्योंकि वह दया समीचीन व्रतसमूह, सुख एवं उत्कृष्ट सम्पदाओंकी मुख्य जननी अर्थात् उत्पादक है; धर्मरूपी वृक्षकी जड़ है, तथा अविनश्वर पद अर्थात् मोक्षमहलपर चढ़नेके लिये अपूर्व नसैनीका काम करती है । निर्दय पुरुषका नाम लेना भी निन्दाजनक है, उसके लिये सर्वत्र दिशायें शून्य जैसी हैं ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार जड़के विन्ध वृक्षकी स्थिति नहीं रहती है उसी प्रकार प्राणिदयाके बिना धर्मकी स्थिति भी नहीं रह सकती । अत एव वह धर्मरूपी वृक्षकी जड़के समान है। इसके अतिरिक्त प्राणिदयाके होनेपर ही चूंकि उत्तम व्रत, सुख एवं समीचीन संपदायें तथा अन्तमें मोक्ष भी प्राप्त होता है; अत एव धर्मात्मा जनोंका यह प्रथम कर्तव्य है कि वे समस्त प्राणधारियोंमें दयाभाव रक्खें । जो प्राणी निर्दयतासे जीवघातमें प्रवृत्त होते हैं उनका नाम लेना भी बुरा समझा जाता है। सुखसामग्री प्राप्त होनेवाली नहीं है । इसीलिये सत्पुरुषोंके लिये यह प्रथम उपदेश है
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उनके लिये कहीं भी वे समस्त प्राणियों में
१ अ श परिणतिः कथ्यते । २ सत्संपदा मूला अथवा धर्मतः सूला पुनः ।
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