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पअनन्दि-पञ्चविंशतिः
[839 : १७-३परसद्धर्मविषिप्रवर्षमकर उत्सुप्रभातं पर
मन्ये ऽईस्परमेष्ठिनो निवपमं संसारसंतापात् ॥ ३॥ 884) सानन्दं सुरसुन्दरीभिरभितः शायदा गीयते
प्रातः भातरधीश्वर यवतुलं पतासिक पच्यते । पवाभावि नरेश फणिभिः कन्याजनादायत
स्तदन्दे जिनसुप्रभातमखिलत्रैलोक्याइर्षप्रदम् ॥ ४॥ 835) उधोते सति पत्र नश्यति सरां छोके उपचारोऽचिरं
दोषेशो ऽतरतीच यत्र मलिनो मन्दप्रभो जायते । यत्रानीतितमस्ततेर्विघटनाजाता दिशो निर्मला
बन्ध नन्दतु शाश्वत जिनपतेस्सस्सुप्रभात परम् ॥ ५॥ संसारसंतापहत् संसारासापनाशनम् । यत्र सुप्रभाते । एकान्त-उद्धतवाविकौशिकपातेः एकान्दमिथ्यात्ववारिकौशिकसहनैः । भयात् । माकुलः व्याकुलः । मष्टं जातम् । यत्र सप्रमाते विशुद्धोबरतुतिम्याहारकोलाहलं जातं बेचरस्तुतिवचनैः कोलाहल जातम् ॥1॥ तबिमसुप्रभातमहं वन्दे । किंलक्षणं सुप्रभातम् । मसिलत्रैलोक्यहर्षप्रदम् । मरमासः सुरसुन्दरीमिः । सार्धम् । शकः इन्द्रः । अभितः समन्तात् । सानन्दं यथा सातया भागीयते । यत् प्रातः । अधीश्वर स्वामिनम् उदिश्य । अतुलं यथा स्यात्तथा । बेतासिक बन्दिजनः पवते । व पुनः । यत्प्रातः । नभरः विद्याधरैः पक्षिभिः। फणिभिः धरणेन्द्रः । अश्रावि श्रुतम् । यत्प्रातःकन्याजनात् नागसम्माजमातू गायतः । त्रिलोकनिषासिजनः भूतम् ॥४॥ जिनपतेः श्रीसर्वशस्य । रुस प्रभातं नन्दतु । किसाणं सुप्रभातम् । वन्धम् । शाचतम् । पर प्रकृष्टम् । यत्र सुप्रभाते उपोते सति । लोके सेकषिषये। अपचौरः पापचौरः । तराम अतिशयेन । नश्यति बिलीयते । यत्र सुप्रमाते । दोषेशः मोहः । मन्दप्रभः आयते । यतश्च मन्दप्रमः जायते । किलक्षणो मोहबरम । अन्तः मध्ये । अतीरमलिनः । यत्र सुप्रभाते । अनीतितमस्वतः वर्णयतमःसमस्यै विघटनात् व्याकुल होकर नष्ट हो चुके हैं, जो आकाशगामी विधाघरों एवं देवों के द्वारा की जानेवाली विशुद्ध स्तुति के शब्दसे शब्दापमान है, जो समीचीन धर्मविधिको बढ़ानेवाला है, उपमासे रहित अर्थात् अनुपम है, तथा संसारके सन्सारको नष्ट करनेवाला है, ऐसे उस अरहंत परमेष्ठीके सुप्रभातको ही मैं उत्कृष्ट सुप्रभात मानता हं ॥ ३ ॥ इन्द्रों के साथ देवांगनाएं जिस सुप्रभातका आनन्दपूर्वक सब ओर गान करती हैं, बंदीजन अपने स्वामीको लक्ष्य करके जिस अनुपम सुप्रभातकी स्तुति करते हैं, तथा जिस सुप्रभातको विद्याधर और नागकुमार जातिके देन गाती हुई कन्याजनोंसे सुनते हैं। इस प्रकार समस्त तीनों भी लोकोंको हर्षित करनेवाले उस जिन भगवान्के सुप्रभातकी में बन्दना करता हूं ॥१॥ जिस सुप्रभातका प्रकाश हो जानेपर लोकमें पापरूप चोर भतिशय क्षीण न हो जाता है, जिस सुप्रभातके प्रकाशमें दोषेश अर्थात् मोहरूप चन्द्रमा भीतर अतिशय मलिन होकर मन्दप्रभावाल हो जाता है, तथा जिस सुप्रभातके होनेपर अन्यायरूप अन्धकारसमूहके नष्ट हो जानेसे दिशायें निर्मल हो जाती हैं। ऐसा वह वन्दनीय व अविनश्वर जिन भगवान्का उत्कृष्ट सुप्रभात वृद्धिको प्राप्त होवे || विशेषार्थ-प्रभात समयके हो जानेपर रात्रिमें संचार करनेवाले चोर भाग जाते हैं, दोषेश (रात्रिका स्वामी चन्द्रमा) मलिन वं मन्दप्रभावाला ( फीका) हो जाता है, तथा रात्रिजनित अन्धकारके नष्ट हो जानेसे दिशायें निर्मल हो जाती हैं। इसी प्रकार जिन भगवान्को जिस अनुपम सुप्रभातका लाभ होता है उसके होनेपर चोरके समान चिरकालीन पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाता है, दोषेश ( दोपोंका स्वामी मोह) कान्तिहीन होकर दूर भाग जाता है, तथा अन्याय व अत्याचारके नष्ट हो जानेसे सब ओर प्रसन्नता छ्य
१श वझिमिः । २स चौरम्रि । मतमोसमूहस्य ।