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[२६. ब्रह्मचर्याष्टकम् ] 981) भवविधEममेव यतो भवेदधिकदुःखकरं चिरमशिनाम् ।
इति निजानयापि म तम्मतं मतिमतां सुरतं किमुतोऽन्यथा ॥ १ ॥ 982) पशष पप रते रतमानसा इसिबुधः पशुकर्म तदुख्यते ।
अभिषया मनु सार्थक्यानया पशुगतिः पुरतो ऽस्य फलं भवेत् ॥२॥ 983) यदि भवेदवलासु रतिः शुभा किल निजासु सतामिह सर्वथा ।
किमिति पर्वसु सा परिवर्जिता किमिति या तपसे सततं बुधैः ॥ ३ ॥ तत्पुरतम् । मतिमता शानवताम् । निशानयापि सह न मतं न कथितम् । इति देतोः । उत्त भहो । अन्यथा परागलया किम् । किमपि न । यतः यस्मात्कारणात् । सुरतं भवविवर्धनम् एव संसारवर्धकम् एव भवेत् । मशिना प्राणिनाम् । चिरचिरकालम् । भधिकयुःखारम् ॥ १ ॥रते सुरते। रतमानसः प्रातचित्ताः नराः । पशर एव । तस्मरस बुधैः पशुकर्म इति उच्यते कम्यते । ननु इति वितकें । मनया अभिधया सार्थकया नाना । पुरतः अमतः । अस्य जीवस्य । पशुगतिः फर्म भवेत् ॥२॥ यदि पेत् । अपलासु रतिः शुभा भवेत् । निकास खकीयत्रीषु रतिः श्रेष्ठ! भक्त् तदा इह लोके सर्षया सता साधूनाम् । मुनिभिः सा रतिः
मैथुन ( स्त्रीसेवन ) चूंकि प्राणियोंके संसारको बढ़ाकर उन्हें चिरकाल तक अधिक दुख देनेवाला है, इसीलिये बुद्धिमान् मनुष्योंको अब अपनी बीके भी साथ वह मैथुनकर्म अभीष्ट नहीं है तब भला अन्य प्रकारसे अर्थात् परस्त्री आदिके साथ तो वह उन्हें अभीष्ट क्यों होगा ? अर्थात् उसकी लो बुद्धिमान् मनुष्य कभी इच्छा ही नहीं करते हैं ॥ १ ॥ इस मैथुनकर्ममें चूंकि पशुओंका ही मन अनुरक्त रहता है, इसीलिये विद्वान् मनुष्य उसको पशुकर्म इस सार्थक नामसे कहते हैं। तथा आगेके भवमें इसका फल भी पशुगति अर्थात् तिर्यचगतिकी प्राप्ति होता है ॥ विशेषार्थ- अभिप्राय इसका यह है कि जो मनुष्य निरन्तर विषयासक्त रहते हैं वे पशुओंसे भी गये-बीते हैं, क्योंकि, पशुओंका तो प्रायः इसके लिये कुछ नियत ही समय रहता है। किन्तु ऐसे मनुष्योंका उसके लिये कोई भी समय नियत नहीं रहता-वे निरन्तर ही कामासक्त रहते हैं। इसका फल यह होता है कि आगामी भवमें उन्हें उस तिर्यच पर्यायकी प्राप्ति ही होती है जहां प्रायः हिताहितका कुछ भी विवेक नहीं रहता। इसीलिये शास्त्रकारोंने परस्परके विरोधसे रहित ही धर्म, अर्थ और काम इन तीन पुरुषार्थोंके सेवनका विधान किया है ॥ २ ॥ यदि लोकमें सज्जन पुरुषोंको अपनी खियोंके विषयमें भी किया जानेवाला अनुराग श्रेष्ठ प्रतीत होता तो फिर विद्वान् पर्व (अष्टमीव चतुर्दशी आदि) के दिनोंमें अथवा तपके निमित्त उसका निरन्तर त्याग क्यों कराते ! अर्थात् नहीं कराते ॥ विशेषार्थ-अभिप्राय यह है कि परसी आदिके साथ किया जानेवाला मैथुनकर्म तो सर्वथा निन्दनीय है ही, किन्तु स्वस्त्रीके साथ भी किया जानेवाला वह कर्म निन्दनीय ही है। हां, इतना अवश्य है कि वह परस्त्री आदिकी अपेक्षा कुछ कम निन्दनीय है । यही कारण है जो विवेकी गृहस्थ अष्टमी-चतुर्दशी आदि पर्वके दिनोंमें स्वलीसेवनका भी परित्याग किया करते हैं, तथा मुमुक्षु जन तो उसका सर्वथा ही त्याग करके तपको