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पद्मगन्धि-पत्राविंशतिः
636 ) स्वान्तं ध्वान्तमशेषं दोषोहितमर्कविम्बमिव मार्गे । विनिहन्ति निरालम्बे संचरदनिशं यतीशानाम् ॥ ३९ ॥ 697 ) संविना गखिते तनुमूषाकर्ममममयवपुषि ।
स्वम एवं द्विपं पश्यन् योगी भवति लिखः ॥ ४० ॥ 688 ) महमेव चित्स्वरूपविद्रूपस्याश्रयो मम स एव ।
नाम्यत् किमपि जवारप्रीतिः सदृशेषु कल्याणी ॥ ४१ ॥ 699) खपरविभागावगमे जाते सम्यक परे परित्यके । लजैकवोधरूपे तिस्यात्मा स्वयं सिद्ध ॥ ४२ ॥
[636:11-11
स्व । विषमच्छायामामेन किं तुष्टोऽसि ममुतफलं गृहाण मोक्षफले ग्रहण ॥ ३८ ॥ मतीयानां स्वान्तं मनः । निराखम्बे मार्गे अनि संचरत् । अशेषं समत्तम् । ध्वान्तम् अन्धकारम् विनिहन्ति स्फेटयति । किंलक्षणं मना । दोलिन् । बर्कविम्बमिव सूर्यविम्बमिव ॥ ३९ ॥ योगी स्वं चिह्न पश्यन् सिद्धः भवति । क सवि । तनु-शरीरमूषा-सि (१) । मदनमयवपुषि कर्ममयणमये शरीरे । संविच्छिसिमा शानाभिना । गलिते सति योगी सिद्धः भवति ॥ ४० ॥ नई चिनूपः एन चिस्वरूपः । मम चिद्रूपस्य । स एव चित्स्वरूपः आश्रयः । किमपि धन्यत् न । कस्मात् । जडत्वात् । प्रौतिः ससेषु कल्याणी ॥ ४१ ॥ स्वपरविभाग - अवगमे मेदज्ञाने जाते सति उत्पन्ने सति । परवस्तुनि परित्यके सति । जिस प्रकार सूर्यके तापसे सन्तप्त कोई पथिक मार्गमें छायायुक्त वृक्षको पाकर उसकी केवल छायासे ही सन्तुष्ट हो जाता है, यदि वह उसमें लगे हुए फलको ग्रहण करनेका प्रयत्न करता तो उसे इससे भी कहीं अधिक सुख प्राप्त हो सकता था। ठीक इसी प्रकारसे वह जीव मनुष्य पर्यायको पाकर उससे प्राप्त होनेवाले विषयसुखका अनुभव करता हुआ इतने मात्र से ही सन्तुष्ट हो जाता है । परन्तु वह अज्ञानतावश यह नहीं सोचता कि इस मनुष्य पर्यायसे तो वह अजर-अमर पद (मोक्ष) प्राप्त किया जा सकता है जो कि अन्य देवादि पर्यायसे दुर्लम है । इसीलिये यहां मनको सम्बोधित करके यह उपदेश दिया गया है कि तू इस दुर्लभ मनुष्य पर्यायकों पाकर उस अस्थिर विषयसुखमें ही सन्तुष्ट न हो, किन्तु स्थिर मोक्षसुलको प्राप्त करनेका उद्यम कर || ३८ ॥ मुनियोंका मन सूर्यनिम्बके समान आलम्बन रहित मार्ग में निरन्तर संचार करता हुआ दोषोंसे रहित होकर समस्त अज्ञानरूप अन्धकारको नष्ट करता है । विशेषार्थ - जिस प्रकार सूर्यका विम्ब निराधार आकाशमार्गमें गमन करता हुआ दोषा ( रात्रि ) के सम्बन्धसे रहित होकर समस्त अन्धकारको नष्ट कर देता है उसी प्रकार मुनियोंका मन अनेक प्रकार के सकल्प-विकल्पोंरूप आश्रम से रहित मोक्षमार्ग में प्रवृत होकर दोषोंके संसर्गसे रहित होता हुआ समस्त अज्ञानको नष्ट कर देता है ॥ ३९ ॥ सम्यग्ज्ञानरूप अमिके निमित्तसे शरीररूप सांचेमेसे कर्मरूप मैनमम शरीरके गल जानेपर आकाशके समान अपने चैतन्य स्वरूपको देखनेवाला योगी सिद्ध हो जाता है ॥ विशेषार्थ - जिस प्रकार अनिके सम्बन्धसे सांचैके भीतर स्थित मैनेके गल जानेपर वहाँ शुद्ध आकाश ही शेष रह जाता है उसी प्रकार सम्यन्ज्ञानके द्वारा शरीरमेंसे कार्मण पिण्डके निर्जीण हो जानेपर अपना शुद्ध चैतन्य स्वरूप प्रगट हो जाता है । उसका अवलोकन करता हुआ योगी सिद्ध अवस्थाको प्राप्त हो जाता है ॥ ४० ॥ मैं ही चित्स्वरूप हूं, और चित्स्वरूप जो मैं हूं सो मेरा आश्रय भी वीर है । उसको छोड़कर जड़ होनेसे और कोई दूसरा मेरा आश्रय नहीं हो सकता है । यह ठीक भी है, क्योंकि, समान व्यक्तियोंमें जो प्रेम होता है वही कल्याणकारक होता है ॥ ४१ ॥
मौर पर विभाग (मेद ) का ज्ञान हो जानेपर यह आत्मा भली भांति परको छोड़कर स्वयं सिद्ध १वा स्फोट २ कमन - प्रविपाठोऽयम् ।
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