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यदि प्रन्थकारको स्वयं इस ग्रन्थका नाम 'पाटविंशति' अमीष्ट होता तो फिर अधिकारोंकी यह संख्याविषयक असंगति दृष्टिगोचर नहीं होती। इनमेंसे कुछ कृतियां (जैसे- एकत्वसप्तति आदि) स्वतन्त्ररूपसे भी प्राप्त होती हैं व प्रकाशित हो चुकी है। उनमें परस्पर पुनरुक्ति मी बहुत है । अत एव जान पड़ता है। for rकारने अनेक स्वतंत्र रचनाएँ की थीं जिनमेंसे किसीने पचीसको एकत्र कर उस संग्रहका नाम अनधिगति दिन उपधात् किसी अन्यने उनकी एक और रचनाको उसी संग्रहमें जोड़ दिया किन्तु नामका परिवर्तन नहीं किया । आम्धर्य नहीं जो किसी अन्य इसमें आ जुड़ी हो ।
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अन्धकारकी भी एक रचना
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सब प्रकरणों की एककर्तृकता- यहां यह एक प्रश्न उपस्थित होता है कि वे सब प्रकरण किसी एक ही पद्मनन्दीके द्वारा रचे गये हैं, या पद्मनन्दी नामके किन्हीं विभिन्न आचार्योंके द्वारा रवे गये हैं, अथवा अन्य भी किसी आचार्य द्वारा कोई प्रकरण रचा गया है? इस प्रश्नपर हमारी दृष्टि ग्रंथके उन प्रकरणों पर जाती है जहां ग्रन्थकारने किसी न किसी रूपमें अपने नामकी सूचना की है। ऐसे प्रकरण बाईस (१-२१ व २५ ) हैं। इन प्रकरणों में प्रन्थकर्ताने पद्मनन्दी, पहुअनन्दी, अम्भोजनन्दी, अम्भोरुदनन्दी, पद्म और अननन्दी; इन पर्दकि द्वारा अपने नामकी व कहीं कहीं अपने गुरु वीरनन्दीकी मी सूचना की है'। इसके साथ साथ उन प्रकरणोंकी भाषा, रचनाशैली और नाम व्यक्त करनेकी पद्धतिको देखते हुए उन सबके एक ही कर्ताके द्वारा रचे जानेमें कोई सन्देह नहीं रहता । इनको छोड़कर एकत्व भावनादशक ( २२ ), परमार्थविंशति ( २३ ), शरीराष्टक (२४) और ब्रह्मचर्याष्टक (२६) ये चार प्रकरण शेष रहते हैं, जिनमें अन्थकर्ताका नाम निर्दिष्ट नहीं है। श्री मुनि पद्मनन्दी अपने गुरुके अतिशय भक्त थे । उन्होंने गुरुको परमेश्वर तुल्य ( १०-४९ ) निर्दिष्ट करते हुए इस गुरुभक्तिको अनेक खालोंपर प्रगट किया है। यह गुरुभक्ति एकत्वभावनादशक प्रकरणके छठे लोकमें भी देखी जाती है। इससे यह प्रकरण उन्हींक द्वारा रचा गया प्रतीत होता है ।
वह गुरुभक्ति एकत्वभावनादशकके समान परमार्थविंशतिमें भी दृष्टि गोचर होती हैं। दूसरे, इस प्रकरणमें जो १०६ लोक आया है वह कुछ थो-से परिवर्तित स्वरूपमें इसके पूर्व अनित्यपञ्चाशत ( ३- १७) में भी आ चुका है। तीसरे, इस प्रकरणमें अवस्पिद S मिलषिता मोक्षेऽपि सा सिद्धिहृत्-- इत्यादि) की समानता कितने ही पिछले लोकोंके साथ पायी जाती है । इसके अतिरिक्त प्रस्तुत प्रकरणके अन्तर्गत १९व श्लोक तो प्रायः (तृतीय चरणको छोड़कर) उसी
१८वें छोक ( जायेतोद्वतमोहतो
१. पद्मनन्दी १-११८, १-५४, ३-५५, ४७७, ६-६२, १००४, ११-३१, ११-११, १३-६०, १५-३०, १६-१४, नन्दी ५-९, ७-१७, ९-३३, २५-८६ अम्भोजनन्दी ८-२९ अम्भोरुहनन्दी १७-८, १८-९: पद्म १४ - ३३, १९ - १०, २०-८१ अब्जनम्मी ११-१८.
२. देखिये ११९५, २-५४, १-३२, १०-४९, ११-४ और ११-५५.
३. गुरूपदेशतोऽस्माकं निःश्रेयसपदं प्रियम् ॥ २२-६.
४. देखिये श्लोक ९ ( नित्यानन्दपदप्रदं गुरुवयों आगर्ति वेतन) और १६ ( गुर्वप्रियतमुतिपदवीप्राध्यर्थनिर्मन्यताआतानन्दवशात्) । ५. देखिये मेक १-५५ और ४-५३.