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२. वानोपदेशनम् 216) देषः स किं भवति यत्र विकारभावो धर्मः स किं न करुणाशिषु यत्र मुख्या ।
तत् किं तपो गुरुरथास्ति न यत्र बोधः सा किं विभूतिरिह यत्र न पात्रदानम् ॥१८॥ 217) किं ते गुणाः किमिछ तत्पुनमस्ति लोके सा किं विभूसिरथ यान शं प्रयाति ।
दानवतादिजनितो यदि मानवस्य धर्मो अगधयवशीकरणैकमनः ॥ १९॥ 218) सत्पात्रदानजनितोन्नतपुण्यराशिरेका वा परजने नरनाथलक्ष्मीः।
आधात्परस्तदपि दुर्गत एष यस्मादागामिकालफलदायि न तस्य किंचित् ॥ २० ॥ अन्तः मध्ये । येषां गृहिणा गृहस्थानां मनस्सु मुनमः । हि यतः । न संचरन्ति प्रवेश न कुर्वन्ति । किलक्षणाः गृहोः ।
केन चरणअलेन 1 निस्यं पवित्रितं घराप्रप्रदेश येषां ते पवित्रितपराप्रप्रदेशाः। अथ शिलक्षणाः गृहस्थाः। मुनेः स्मृतिवशात् स्मरणवशात् निल्यं पविनितशिरःप्रदेशाः ।।१७n यत्र यस्मिन् थे। विकारभावः अस्ति म कि देवः । अपितु देवः न। यत्र धर्म । अशिषु दयाम प्राणिषु करुणा मुख्यान। स किं धर्मः अपि तु धर्मःन। तहिं तपः स कि गुरुः । यत्र तपसि यत्र गुरी बोधः झानं न । अथ सा कि विभूतिः । यत्र विभूत्या पात्रदान न ॥ १८ ॥ यदि चेर । मानवस्य नरस्य । धर्मः अस्ति । किंलक्षणः धर्मः। दानवतादिजनितः दानेन व्रतेन उत्पादितः । पुनः किंलक्षणः धर्मः। जगत्रयवशीकरणक्रमः। इह लोके वे गुणाः कि ये गुणाः धर्मयुक्तस्य नरस्य पर्श न आयान्ति । इह लोके तत्सुस कि यत्सुसं धर्मयुक्तस्य नरस्य नास्ति । इहलोके सा विभूतिः किम् । अथ या विभूतिः धर्मयुक्तस्य पुषस्य पर्श न प्रयाति ॥ १९ ॥ एकत्र एकस्मिन् जने । सत्पात्रदानेन अनिता सत्पाविता या पुण्यराशिः सा पुण्यराशिः एकमने वर्तते। वा अपवा । परजने दितीयजने । मरनाथलक्ष्मीः वर्तते । तदपि आद्यात् पुण्यराशिसहितजनात् । परः द्वितीयः नरनाथलक्ष्मीवान् । दुर्गतः दरिद्री । एवं निष्चयेन । यद्यस्मात्कारणात् । तस्य साक्षात् संचार नहीं करते हैं वे गृह क्या है ! अर्थात् ऐसे गृहका कुछ भी महत्त्व नहीं है । इसी प्रकार सरणके बशसे अपने चरणजलके द्वारा श्रावकोंके शिरके प्रदेशोंफो पवित्र करनेवाले वे मुनिजन बिन श्रावकोंके मनमें संचार नहीं करते हैं वे श्रावक भी क्या है। अर्थात् उनका मी कुछ महत्त्व नहीं है ।। विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि जिन घरोंमें आहारादिके निमित्त मुनियोंका आवागमन होता रहता है ये ही घर वास्तवमें सफल हैं । इसी प्रकार जो गृहस्थ उन मुनियोंका मनसे चिन्तन करते हैं तथा उनको आहार आदिके देनेमें सदा उत्सुख रहते हैं वे ही गृहस्य प्रशंसाके योग्य है ॥ १७ ॥ जिसके क्रोधादि विकारमाव विद्यमान हैं यह क्या देव हो सकता है ! अर्थात् वह कदापि देव नहीं हो सकता ! जहां प्राणियों के विषयमें मुख्य दया नहीं है वह क्या धर्म कहा जा सकता है? नहीं कहा जा सकता । जिसमें सम्यग्ज्ञान नहीं है वह क्या तप और गुरु हो सकता है ! नहीं हो सकता । जिस सम्पत्रिमेंसे पात्रोंके लिये दान नहीं दिया जाता है वह सम्पत्ति मया सफल हो सकती है। अर्थात् नहीं हो सकती ॥ १८ ॥ यदि मनुष्यके पास तीनों लोकोंको वशीभूत करनेके लिये अद्वितीय वशीकरणमंत्रके समान दान एवं व्रत आदिसे उत्पन्न हुआ धर्म विद्यमान है तो ऐसे कौन-से गुण है जो उसके दशमें न हो सके, वह कौन सा सुख है जो उसको प्राप्त न हो सके, तथा वह कौन-सी विभूति है जो उसके अधीन न होती हो ! अर्थात् धर्मात्मा मनुष्य के लिये सब प्रकारके गुण, उसम सुख और अनुपम विभूति भी स्वयमेव प्राप्त हो जाती है ॥ १९ ॥ एक मनुष्य के पास उत्तम पात्रके लिये दिये गये दानसे उत्पन्न हुए उन्नत पुण्यका समुदाय है, तथा दूसरे मनुष्पके पास राज्यलक्ष्मी विद्यमान है। फिर भी प्रथम मनुष्यकी अपेक्षा द्वितीय मनुष्य दरिद्र ही है, क्योंकि, उसके पास आगामी कालमें फल देनेवाला कुल भी शेष नहीं है । विशेषार्थ अभिप्राय यह कि मुखका कारण एक मात्र पुण्यका संचय ही होता है। यही कारण है कि जिस व्यक्तिने पात्रदानादिके द्वारा
१साला! मधि ।