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पनवन्धि-पचार्षिशतिः
[293 :राम पि क्षुपिता दियभाना थार्यालयमा
कुखोपापति मैव सम्मुखमिवो यचो विधेयो र ॥४१॥ 294 ) राजापि क्षणमाइतो विषिषशाशयते निश्चित
सर्वष्याधिषिवर्जितो ऽपि तरुणो ऽप्याशु क्षयं गच्छति । अन्यः किं किल सारतामुपगते श्रीजीषिसे दे तयोः
संसारे स्थितिरीहशीति विदुषा काम्यत्र कार्यो मवः ॥४२॥ 295) इन्ति व्योम स मुष्टिनाथ सरितं शुष्को तरस्याकुलः
तृष्णातो ऽथ मरीचिकाः पिबति च प्रायः प्रमतो भवन् । प्रोत्तुजाखलचूलिकागतमयत्प्रेडत्प्रदीपोपमैः
यः सम्पत्सुतकामिमीप्रभृतिभिः कुर्यान्मर्व मानवः ।। ४३॥ 296 ) लक्ष्मी व्याधमृगीमतीव चपलामाभिस्य भूषा मृगाः
पुत्रादीमपरान् मृगानतिरपा निम्ति सेर्थे किल । यमः। बुधितः भतिनियमनाः । पुनः किंलक्षणः समः । जिषासुः प्रसिद्धम् इच्छुः जिपस्सुः । बुधैः पण्डितैः । इतः यमात् । यनः विश्यः कर्तव्यः ॥४१॥ राजा अपि । विधिवशात् कर्मवशात् । क्षणमात्रतः क्षणतः । निवितम् । रहायते स इव पाचरति। सर्वव्याधिविवर्जितोऽपि तरुप्पः आशु क्षयं गच्छति । अन्यैः किम् । किल इति सत्ये । श्रीजीविते हे सारताम् उपगते । सयोः दयोः श्रीमीषितयोः । इसी स्थितिः । इति ज्ञात्वा । विदुषा पण्डितेन । अन्यत्र । क कस्मिन् विषये। मदः कार्यः । अपितु मदः म कर्सम्यः ॥ ४२ ॥ अन्न संसारे । यः मानवः सम्पत्सुतकामिनीप्रभृतिमिः । मदं गर्वम् । कुर्यात् । किलक्षणः संपामुतकामिनीप्रतिभिः । प्रकर्षेण उतुझा अचलपूलिका तस्यां गतः मरुत् तेन प्रेशतः वे प्रवीपाः तस्समानैः । यः मद करोति स मूर्खः मुष्टिना ध्योम हन्ति मारयति । मथ भाकुलः शुष्काम् । सरित मदरीम् । तरति । अब पुमः । प्रायः पाहल्येन । प्रमत्तः भवन तृष्णातः मरीचिकाः पियति । इति ज्ञात्वा । मदः न कार्यः न कर्तव्यः ॥३॥ भूपाः मृगाः। अपनी रक्षा करनेके लिये अर्थात् मोक्षप्राप्तिके लिये ही प्रयत्न करना चाहिये ॥ ४१॥ भाग्यवश राजा भी क्षणभरमें निश्चयसे रंकके समान हो जाता है, तथा समस्त रोगोंसे रहित युवा पुरुष भी शीघ्र ही मरणको प्राप्त होता है । इस प्रकार अन्य पदार्थोके विषय में तो क्या कहा जाय, किन्तु जो लक्ष्मी और जीवित दोनों ही संसारमै श्रेष्ठ समझे जाते हैं उनकी भी जब ऐसी (उपर्युक्त) स्थिति है तब विद्वान् मनुष्यको अन्य किसके विषयमें अभिमान करना चाहिये ! अर्थात् अभिमान करनेके योग्य कोई भी पदार्थ यहां सायी नहीं है॥४२॥ सम्पति, पुत्र और स्त्री आदि पदार्थ ऊंचे पर्वतकी शिखरपर स्थित व वायुसे चलायमान दीपकके समान शीघ्र ही नाशको प्राप्त होनेवाले हैं। फिर भी जो मनुष्य उनके विषयमें स्थिरताका अभिमान करता है वह मानो मुट्ठीसे आकाशको नष्ट करता है, अथवा व्याकुल होकर सूखी ( जलसे रहित ) नदीको तैरता है, अथवा प्याससे पीड़ित होकर प्रमादयुक्त होता हुआ वालको पीता है। विशेषार्थ- जिस प्रकार मुट्ठीसे आकाशको ताड़ित करना, जलरहित नदीमें तैरना, और प्याससे पीड़ित होकर वालुका पान करना; यह सब कार्य असम्भव होनेसे मनुष्यकी अज्ञानताका घोतक है उसी प्रकार जो सम्पत्ति, पुत्र और स्त्री आदि पदार्थ देखते देखते ही नष्ट होनेवाले हैं उनके विषयमें अभिमान करना भी मनुष्यकी अज्ञानताको प्रगट करता है । कारण कि यदि उक्त पदार्थ चिरस्थायी होते तो उनके विषयमें अमिमान करना उचित कहा जा सकता था, सो तो हैं नहीं ॥ ४३ ॥ राजारूपी मृग अत्यन्त चंचल ऐसी लक्ष्मीरूपी ज्याधकी हिरणीका आश्रय लेकर ईर्ष्यायुक्त होते हुए अतिशय क्रोषसे पुत्रादिरूपी दूसरे मृगोंका घात करते हैं। वे जिस यमरूपी व्याधने बहुत सी
१च न मरता मैखंतः।