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उपासकसंस्कार 420 ) अणुमतानि पञ्ष त्रिप्रकार गुणवतम् । शिक्षाप्रतानि चस्वारि मादशेति गहिनते ॥ २४ ॥ उदुम्बरपञ्चक अजनीयम् । एते गृहिणः गृहस्थस्य । मूलगुणाः दृष्टिपूर्वकाः सम्पग्दर्शनसहिताः। मोजाः कथिताः ॥ २३ ॥ गृहिमते इति हादरा बसानि सन्ति । पचैव अप्रतानि । त्रिप्रकारे गुणारतम् । अस्वारि शिक्षावतानि । इति दाद मसानि ॥२४॥ बड़ और पीपल) का त्याग करना चाहिये । सम्यग्दर्शनके साथ ये आठ श्रावफके मूलगुण कहे गये हैं। विशेषार्थ-मूल शब्दका अर्थ जड़ होता है । जिस वृक्षकी जड़े गहरी और बलिष्ठ होती हैं उसकी स्थिति बहुत समय तक रहती है। किन्तु जिसकी जड़ें अधिक गहरी और बलिष्ठ नहीं होती उसकी खिति महुत काल तक नहीं रह सकती- वह आधी आदिके द्वारा शीघ्र ही उखाड़ दिया जाता है। ठीक इसी प्रकारसे चूंकि इन गुणोंके विनाशावकके उत्तर गुणों ( अणुव्रतादि ) की स्थिति भी हद नहीं रहती है, इसीलिये ये श्रावकके मूलगुण कहे जाते हैं । इनके मी प्रारम्भमें सम्यग्दर्शन अवश्य होना चाहिये, क्योंकि उसके विना प्रायः व्रत आदि सब निरर्थक ही रहते हैं ॥ २३ ॥ गहिवत अर्थात् देशनतमें पांच अणुक्त, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाक्त; इस प्रकार ये बारह प्रत होते हैं । विशेषार्थ-हिंसा, असत्य वचन, चोरी, मैथुन और परिग्रह इन पांच स्थूल पापोंका परित्याग करना; इसे अणुव्रत कहा जाता है । वह पांच प्रकारका है- अहिंसाणुनत, सत्याणुनस, अचौर्याणुव्रत, ब्रह्मचर्याणुव्रत और परिप्रहपरिमाणाणुनत । मन, बचन और कायके द्वारा कृत, कारित एवं अनुमोदना रूपसे ( नौ प्रकारसे) जो संकल्पपूर्वक प्रस जीवोंकी हिंसाका परित्याग किया जाता है उसे अहिंसाणुव्रत कहते हैं । स्थूल असत्य वचनको न स्वयं बोलना और न इसके लिये दूसरेको प्रेरित करना तथा जिस सत्य वचनसे दूसरा विपत्ति में पड़ता हो ऐसे सत्य वचनको भी न बोलना, इसे सत्याणुप्रत कहा जाता है। रखे हुए, गिरे हुए अथवा भूले हुए परधनको विना दिये ग्रहण न करना अचौर्याणुव्रत कहलाता है। परस्त्रीसे न तो स्वयं ही सम्बन्ध रखना और न दूसरेको भी उसके लिये प्रेरित करना, इसे ब्रह्मचर्याणुव्रत अथवा स्वदारसन्तोष कहा जाता है । धन-धान्यादि परिग्रहका प्रमाण करके उससे अधिककी इच्छा न करना, इसे परिमहपरिमाणाशुव्रत कहते हैं। गुणव्रत तीन हैं-दिखत, अनर्थदण्डवत और भोगोपमोगपरिमाण । पूर्वादिक दस दिशाओंमें प्रसिद्ध किन्हीं समुद्र, नदी, वन और पर्वत आदिकी मर्यादा करके उसके बाहिर जानेका मरण पर्यन्त नियम कर लेनेको दिम्मत कहा जाता है । जिन कामोंसे किसी प्रकारका लाम न होकर केवल पाप ही उत्पन्न होता है ये अनर्थदण्ड कहलाते हैं और उनके त्यागको अनर्थदण्डवत कहा जाता है। जो वस्तु एक ही बार भोगनेमें आती है वह भोग कहलाती है-जैसे भोजनादि । तया जो वस्तु एक वार भोगी जाकर भी दुवारा भोगनेमें आती है उसे उपभोग कहा जाता है-- जैसे वस्त्रादि । इन भोग और उपभोगरूप इन्द्रियविषयोंका प्रमाण करके अधिककी इच्छा नहीं करना, इसे भोगोपभोगपरिमाण कहते हैं। ये तीनों ब्रत चूंकि मूलगुणोंकी वृद्धिके कारण हैं, अत एव इनको गुणवत कहा गया है। देशावकाशिक, सामायिक, प्रोषधोपवास और वैयावृत्य ये चार शिक्षाप्रत है । दिग्नतमें की गई मर्यादाके मीतर मी कुछ समय के लिये किसी गृह, गांव एवं नगर आदिकी मर्यादा करके उसके भीतर ही रहनेका नियम करना देशावकाशिकात कहा जाता है। नियत समय तक पांचों पापोंका पूर्णरूपसे त्याग कर देनेको सामायिक कहते हैं। यह सामायिक जिनचैत्यालयादिरूप किसी निर्वाध एकान्त स्थानमें की जाती है। सामायिकमें खित होकर यह विचार करना
१कादशानि प्रतानि ।