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पानदि पञ्चविंशतिः
489 ) ये जित्वा निजकर्मकर्कशरिपून प्राप्ताः पदं शाश्वतं येषां जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः सीमापि नोलपते । येवैश्वर्यमचिन्त्यमेकमसमशानादिसंयोजित ते सन्तु त्रिजगािश्रमणयः सिद्धा मम श्रेयसे ॥ ४ ॥ 490) सिद्धों बोधमितिः स बोध उदितो ज्ञेयप्रमाणो भवेत् ज्ञेयं लोकमलोकमेव च धवन्त्यात्मेति सर्वस्थितः । मूषायां मनोजते हि जठरे यारंग नमस्तादृशः प्राक्कायात् किमपि प्रहीण इति वा सिद्धः सदानन्दति ॥ ५ ॥
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सिद्धाः | रक्षन्तु ॥ ३ ॥ ते सिद्धाः मम श्रेयसे । सन्तु भवन्तु । किंलक्षणाः सिद्धाः । त्रिजगच्छिणाश्रमणयः । ये सिद्धाः निजकर्मकर्कशरिपून् शत्रून् जित्वा शाश्वतं पदं प्राप्ताः । येषां सिद्धानाम् । धीमा अपि मर्यादा अपि । जन्मजरामृतिप्रभृतिभिः नोलभ्यते । येषु सिद्धेषु एकम् अचिन्त्यम् ऐश्वर्य वर्तते । असमज्ञानादिसंयोजित शानम् अतीन्द्रियज्ञानं वर्तते ॥ ४ ॥ सिद्धः सदा आनन्दति किंलक्षणः सिद्धः । कृतकृत्यः । पुनः किलक्षणः सिद्धः । बोधमिति बोधप्रमाणम् । स उदितः बोधः प्रकटीभूतः बोधः
प्रमाणो भवेत् । ज्ञेयं लोकं च पुनः अलोकम् एव वदन्ति । इति हेतोः । आत्मा सर्वस्थितः हि यतः । भूषायां समयपुतलिकायाम् । मदन उज्झिते मयणरहिते । जाठरे उदरे यारकू नमः आकाशः अस्ति तादृशः सिद्धाकारः इति प्राकायात्
और ज्ञान (केवलज्ञान ) रूप अनुपम शरीरको धारण करते हैं, जो कृतकृत्यस्वरूपको प्राप्त हो चुके हैं, अनुपम हैं, जगत्के लिये मंगलस्वरूप है, तथा अविनश्वर सुखरूप अमृतरसके पात्र हैं; ऐसे वे सिद्ध सदा आप लोगोंकी रक्षा करें ॥ ३ ॥ जो सिद्ध परमेष्ठी अपने कर्मरूपी कठोर शत्रुओंको जीतकर नित्य (मोक्ष) पदको प्राप्त हो चुके हैं; जन्म, जरा एवं मरण आदि जिनकी सीमाको भी नहीं लांघ सकते, अर्थात् जो जन्म, जरा और मरणसे मुक्त हो गये हैं तथा जिनमें असाधारण ज्ञान आदिके द्वारा अचिन्त्य एवं अद्वितीय अनन्तचतुष्टयस्वरूप ऐश्वर्यका संयोग कराया गया है; ऐसे वे तीनों लोकोंके चूड़ामणिके समान सिद्ध परमेष्ठी मेरे कल्याणके लिये होवें ॥ ४ ॥ सिद्ध जीव अपने ज्ञानके प्रमाण हैं। और वह ज्ञान ज्ञेय ( ज्ञानका विषय ) के प्रमाण कहा गया है। वह ज्ञेय भी लोक एवं अलोकस्वरूप है । इसीसे आत्मा सर्वव्यापक कहा जाता है। सांचे ( जिसमें ढालकर पात्र एवं आभूषण आदि बनाये जाते हैं) से मैनके पृथक हो जानेपर उसके मीतर जैसा शुद्ध आकाश शेष रह जाता है ऐसे आकारको धारण करनेवाला तथा पूर्व शरीरसे कुछ हीन ऐसा वह सिद्ध परमेष्ठी सदा आनन्दका अनुभव करता है ॥ विशेषार्थ -- सिद्धोंका ज्ञान अपरिमित है जो समस्त लोक एवं अलोकको विषय करता है। इस प्रकार लोक और अलोक रूप अपरिमित ज्ञेयको विषय करनेवाले उस ज्ञानसे चूंकि आत्मा अभिन्न है - तत्त्वरूप है; इसी अपेक्षासे आत्माको व्यापक कहा जाता है। वस्तुतः तो वह पूर्व शरीरसे कुछ न्यून रहकर अपने सीमित क्षेत्र में ही रहता है। पूर्व शरीरसे कुछ न्यून रहनेका कारण यह है कि शरीरके उपांगभूत जो नासिकाछिद्रादि होते हैं वहां आत्मप्रदेशका अभाव रहता है | शरीरका सम्बन्ध छूटनेपर अमूर्तिक सिद्धात्माका आकार कैसा रहता है, यह बतलाते हुए यहां यह उदाहरण दिया गया है कि जैसे मिट्टी आदि से निर्मित पुतलेके भीतर मैन भर दिया गया हो, तत्पश्चात् उसे अभिका संयोग प्राप्त होनेपर जिस प्रकार उस मैनके गल जानेपर वहां उस आकारमें शुद्ध आकाश शेष रह जाता है उसी प्रकार शरीरका सम्बन्ध छूट
१ च शुद्ध १ को अलोकं च पुनः एव वदन्ति ।
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