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[२४. शरीराष्टकम् ] 15) तुर्गन्धाशुचिधातुभित्तिकलित संछादितं चर्मणा
पिण्मूलादिभृतं सुधादिविलसदुखाखुभिरिछद्रितम् । क्लिष्टं कायकुटीरक स्वयमपि प्राप्तं जरावलिना
देतचदपि स्थिरं शुचितरं मूढो जनो मन्यते ॥ १ ॥ 916) दुर्गन्ध कृमिकीटजालकलितं नित्यं भवहरसं
शोषमानविधानवारिविहितप्रक्षालन भृतम् ।
एतस्य यदीरक मूहः जनः । स्थिर शाश्वतम् । शुचितरे श्रेष्ठम् । मन्यते। किलक्षणं कायक्टीरकम्। दुर्गन्धाशुविधातुभितिकलितम् । पुनः किलझणं शरीरम् । चर्मणा संछादितम् । पुनः इदं शरीरं विवादिभूतादिमृतम् । क्षुधा-आदिदुःखमूषकाः सः छिद्रित पीडितमा पुनः इशारीर जरा-अमिना खयमपि दग्ध प्राप्तम्। क्लिष्ट केशमूतम् । तत्तस्मात्कारणात् । तदपि मूर्खः जनःशरीर स्थिर मन्यते ॥1॥ उमतषियः मुनयः मानुष्य वपुः शरीरम् नाडीव्रण स्फोटकम् । बाहुः कथयन्ति । तत्र शरीरव्रणेमनं भेषजम् । वसनानि वाणि पदकं लोके स्फोटको परिवसामन्धानम् । तत्रापि शरीरमणे । अनः रागी ममत्वं करोति । अहो इति भावयें ।
जो शरीररूप झोपडी दुर्गन्धयुक्त अपवित्र रस, रुधिर एवं अस्थि आदि धातुओंरूप भित्तियों (दीवालों ) के आश्रित है, चमड़ेसे वेष्टित है, विष्ठा एवं मूत्र आदिसे परिपूर्ण है तथा प्रगट हुए मूख-प्यास आदिक दुःखोरूम चूहोंक द्वारा छेदोंयुक्त की गई है। ऐसी वह शरीररूप झोपडी यद्यपि स्वयं ही वृद्धस्वरूप अग्निसे प्राप्त की जाती है तो भी अज्ञानी मनुष्य उसे स्थिर एवं अतिशय पवित्र मानते हैं । विशेषार्थ- यहां शरीरके लिये झोंपडीकी उपमा देकर यह बतलाया है कि जिस प्रकार बांस आदिसे निर्मित भीतोंके आश्रयसे रहनेवाली झोपड़ी घास या पत्तोंसे आच्छादित रहती है । इसमें चूहोंके द्वारा जो यत्र तत्र छेद किये जाते हैं उनसे वह कमजोर हो जाती है। उसमें यदि कदाचित् आग लग जाती है तो वह देखते ही देखते भस्म हो जाती है । ठीक इसी प्रकारका यह शरीर भी है- इसमें भीतोंके स्थानपर दुर्गन्धित एवं अपवित्र रस-रुधिरादि धातुएं हैं, घास आदिके स्थानमें इसको आच्छादित करनेवाला चमड़ा है, तथा यहां चूहकि स्थानमें भूख-प्यास आदिसे होनेवाले विपुल दुःख हैं जो उसे निरन्तर निर्बल करते हैं । इस प्रकार झोपड़ीके समान होनेपर भी उससे शरीरमें यह विशेषता है कि वह तो समयानुसार नियमसे वृद्धत्व (दुढापा) से व्याप्त होकर नाशको प्राप्त होनेवाला है, परन्तु यह झोपड़ी कदाचित् ही असावधानीके कारण अमि आदिसे व्यास होकर नष्ट होती है। ऐसी अवस्थाके होनेपर भी आश्चर्य यही है कि अज्ञानी प्राणी उसे स्थिर और पवित्र समझ कर उसके निमित्तसे अनेक प्रकारके दुःखोंको सहते हैं ।। १ ।। जो यह मनुष्यका शरीर दुर्गन्धसे सहित है, लटों एवं अन्य क्षुद्र कीड़ोंके समूहसे व्याप्त है, निरन्तर बहनेवाले एसीना एवं नासिका आदिके दूषित रससे परिपूर्ण है, पवित्रताके सूचक नानको सिद्ध करनेवाले जलसे जिसको धोया जाता है, फिर भी ओ रोगोंसे परिपूर्ण है। ऐसे उस मनुष्यके शरीरको उत्कृष्ट बुद्धिके धारक विद्वान् नससे सम्बद्ध फोषा आदिके पावके समान बतलाते हैं। उसमें अन (आहार) तो औषधके समान है तथा वन