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१३. ऋषभस्तोत्रम् 718) सो मोहयेणरहिओ पयासिमो पदु सुपहो तप ताया।
तेणजे वि रयणजुया णिश्विग्घं ति णिव्याण ॥ ३७॥ 719) उम्मुहियम्मि सम्मिए मोक्खणिहाणम्मि गुणणिहाण तर।
केहिं ण जुण्णतिणाइव इयरणिहाणेहिं भुवणम्मि ॥ ३८॥ 720) मोहमहाफणिको जणो घिराय तुम पमुत्तूण।
इयराणाप कह पा विधेयणो धेयर्ण लहह ॥ ३९ ॥ 721) भषसायरम्मि धम्मो धरा परत जणं तुमय ।
अमरला न परमारणारमियराण जिणणाद ॥ ४० ॥
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का कार्वा ॥ १६ ॥ भो प्रभो । तदा तस्मिन् काले । स्वया सुपर्थः सुमार्गः । प्रकाशितः । विलक्षणः मार्गः । मोइयोरेग रहितः । तेन पथा मार्गेण । भव्यजीवाः अद्यापि रमयुताः दर्शनादियुताः । निर्विघ्नं विनरहितम् । निर्वाण मोक्ष प्रयान्ति ॥ ३०॥ भो गुणनिधान । स्त्रया । ( स्फुटम् । तस्मिन् मोक्षनिघाने उद्घाटिते सति । के भव्यजीवैः । भुवने त्रैलोक्ये । इतरनिधानानि सुवर्णादिजीर्णतृण इव न त्यकानि । अपि तु भम्यैः इतरदेव्याणि सक्तानि ॥ ३८ ॥ हे प्रभो। मोहमहामणिदष्टः विचेतनः गतश्चेतनः जनः। खो वीतरागगरुहं प्रमुखता [प्रमुथ्य ] इसरकुदेवाज्ञया घेतना कषं लभते ॥ ३९ ॥ भो जिननाथ । तेव अमः भवसागरे संसारसमुद्रे पतन्तं जन धारयति । इतरेषां मियादृष्टीना धर्मः परमारणकारमं अबरामा भिल्लामा धर्म
हे प्रभो ! उस समय आपने मोहरूप चोरसे रहित उस सुमार्ग ( मोक्षमार्ग) को प्रगट किया था कि जिससे आज भी मनुष्य रनों ( रनत्रय) से युक्त होकर निर्बाध मोक्षको जाते हैं । विशेषार्थ-जिस प्रकार शासनके सुप्रबन्धसे चोरोंसे रहित किये गये मार्गमें मनुष्य इच्छित धनको लेकर निर्बाध गमनागमन करते हैं, उसी प्रकार भगवान् ऋषभ देवने अपने दिव्य उपदेशके द्वारा जिस मोक्षमार्गको मोहरूप चोरसे रहित कर दिया था उससे संचार करते हुए साधुजन अभी भी सम्यग्दर्शनादिरूप अनुपम रलोंके साथ निर्विन अभीष्ट स्थान (मोक्ष) को प्राप्त करते हैं ॥३७॥ हे गुणनिधान ! आपके द्वारा उस मोक्षरूप निधि (खजाना) के खोल देनेपर लोकमें किन भव्य जीवोंने रम-सुवर्णादिरूप दूसरी निधियोंको जीर्ण तृणके समान नहीं छोड़ दिया था ! अर्थात् बहुतोंने उन्हें छोड़ कर जिनदीक्षा स्वीकार की थी ।। ३८ ॥ हे प्रभो ! मोहरूपी महान् सर्पके द्वारा काटा जाकर मूर्छाको प्राप्त हुआ मनुष्य आप वीतरामको छोड़कर दूसरेकी आज्ञा ( उपदेश) से कैसे चेतनाको प्राप्त हो सकता है! अर्थात् नहीं हो सकता ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार सर्पके काटनेसे मूर्छाको प्राप्त हुआ मनुष्य माविकके उपदेशसे निर्विष होकर चेतनताको पा लेता है उसी प्रकार मोहसे ग्रसित संसारी प्राणी आपके सदुपदेशसे अविवेकको छोड़कर अपने चैतन्यस्वरूपको पा लेते हैं ॥ ३९ ॥ हे जिनेन्द्र | संसाररूप समुद्र में गिरते हुए प्राणीकी रक्षा आपका ही धर्म करता है । दूसरोंका धर्म तो भीलके धर्म (धनुष) के समान अन्य जीवोंके मारनेका ही कारण होता है ॥ ४० ॥ हे जिन!
१ च प्रतिपाठोऽयम् । मकश मोहत्येण। २कक तेणान्न । न जुष्णतण्याइयमियर, 6 जुणतिमा हव, घाण जुण्यातणाइयमियर । ४च दिहो, वको। ५ कायर। सलवा सासुपषः। कमोस्वैरिणा । ८कदि। ९काम्यादि। १०श प्रमुखा। ११शतवैध ।
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