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-198 : १-१९८] 197) यत्पावपरकजरजोमिरपि प्रणामात
लः शिरस्यमलबोषकलावतारः। भण्यात्मनां भवति तत्क्षणमेव मोक्ष
स श्रीगुरुर्दिशतु मे मुनिवीरनन्दी ॥ १९७ ॥ 198) पचानम्बमपारसंमृतिपथभ्रान्समध्छेदकत्
मायो दुर्लभमत्र कर्णपुटकव्यात्मभिः पीयताम् । निर्यातं मुनिपसनन्निवदनपालेयरइमेः परं स्तोकं यद्यपि सारताधिकमिदं धर्मोपदेशामृतम् ॥ १९८ ॥
- इति धर्मोपदेशामृत समाप्ठम् ॥ १॥
तरक्षणमेव अमलयोधकलावतारः भवति । किलक्षणः रजोभिः। प्रणामान् शिरमि लप्रैः ॥ १७ ॥ भो भम्याः। दं धर्मोपदेशामृतं भव्यात्मभिः कर्णपुटकैः कर्णाजलिमिः पीयताम् । किलक्षणम् अमृतम् । दप्तानन्दम् । पुनः किलक्षणम् अमृतम् । अपारससति-संसारपयधान्तधमनछेदकत् संसारपथमार्गस्थश्रमविनाशकम् । पुनः किलक्षणम् अमृतम् । धर्मोपदेशामृतम् । प्रायः बाहुल्येन । अत्र संसारे दुर्लभम् 1 पुनः कि लक्षणं धर्मोपदेशामृतम् । मुनिपप्रनन्दिनदनपायरश्मेः मुनिपानन्दिवदनचन्द्रमसः । निर्यातम् उत्पलम् । पुनः किलक्षणम् । परम् उत्कृष्टम् । यद्यपि स्वोक तथापि सारताधिक समीरीनम् ॥ १८ ॥
इति धर्मोपदेशामृतं समाप्तम् ॥ १ ॥
प्राप्ति होती है वे श्रीमुनि वीरनन्दी गुरु मेरे लिये मोक्ष प्रदान करें ॥ १९७ ॥ जो धर्मोपदेशरूप अमृत आनन्दको देनेवाला है, अपार संसारके मार्गमे थके हुए पथिकके परिश्रमको दूर करनेवाला है, तथा महुत दुर्लभ है, उसे भव्य जीव कानोंरूप अंजुलियोंसे पीवे अर्थात् कानोंके द्वारा उसका श्रवण करें । मुनि पभनन्दीके मुखरूप चन्द्रमासे निकला हुआ यह उपदेशामृत यद्यपि अस्प है तथापि श्रेष्ठताकी अपेक्षा वह अधिक है ॥ विशेषार्थ-जिस प्रकार अमृतका पान करनेसे पथिकके मार्गकी थकावट दूर हो जाती है और उसे अतिशय आनन्द प्राप्त होता है उसी प्रकार इस धर्मोपदेशके सुननेसे भव्य जीवोंके संसारपरिभ्रमणका दुख दूर हो जाता है तथा उन्हें अनन्तसुखका लाम होता है, जैसे दुर्लभ अमृत है वैसे ही यह उपदेश भी दुर्लभ है, अमृत यदि चन्द्रमासे उत्पन्न होता है तो यह उपदेश उस चन्द्रमाके समान मुनि पमनन्दीके मुखसे प्रादुर्भूत हुआ है, तथा जिस प्रकार अमृत थोड़ा-सा भी हो तो मी वह लाभकारी अधिक होता है उसी प्रकार अन्धप्रमाणकी अपेक्षा यह उपदेश यद्यपि थोता है फिर भी वह लाभप्रद अधिक है । इस प्रकार इस उपदेशको अमृतके समान हितकारी जानकर भव्य जीवोंको उसका निरन्तरमनन करना चाहिये ।। १९८।।
इस प्रकार धर्मोपदेशामृत समाप्त हुआ ॥ १॥
औरणन्तिः ।