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पद्मनन्दि-पञ्चविंशतिः
[228: 2-40228) ये धर्मकारण समुल्ललिता विकल्पास्त्यागेन ते धनयुतस्य भवन्ति सत्याः । स्पृष्टाः शशाङ्ककिरणैरमृतं क्षरन्तन्द्रोपलाः किल लभन्त इह प्रतिष्ठाम् ॥ ३० 229) मन्दायते यद दानविधौ धने ऽपि सत्यात्मनो पति धार्मिकतां च यत् । माया हृदि स्फुरति सा मनुजस्य तस्य या जायते तडित्रमुत्र सुखावलेषु ॥ ३१ ॥ 230 ) सातवर्धमपि देयमथार्धमेव तस्यापि संततमणुवतिना यथा ।
इच्छानुरूपमिह कस्य कदात्र लोके द्रव्यं भविष्यति सत्तमदानहेतुः ॥ ३२ ॥
अनिष्टं मनुते । सत्यम् ॥ २९ ॥ धनयुतस्यै घनवतः पुरुषस्य । ये विकल्पाः । धर्मकारणे समुचिताः उत्पन्नाः । ते विकल्पाः । त्यामेन दानेन । सत्याः सफलाः भवन्ति । किल इति सत्ये । यथा चन्द्रोपलाः चन्द्रकान्तमणयः । शशाङ्ककिरणैः चन्द्रकिरणैः स्पृष्टाः स्पर्शिताः । अमृतं क्षरन्तः । इद्द जगति । प्रतिष्ठां शोभाम् । लभन्ते ॥ ३० ॥ यः नरः । इह जगति संसारे । दानविधी । मन्दायते नियद्यमो भवति सति । धनेऽपि सति भने बिद्यमाने सति । यत् आत्मनः धार्मिकता वदति भई धर्मवान् इति कथयति । तत्तस्य मनुजस्य मरस्य । हृदि सा माया स्फुरति । या माया । अमुत्र मुखाचकेषु परलोकसुखपर्वतेषु । तद्ि विद्युत् जायते उत्पद्यते ॥ ३१ ॥ इह संसारे अणुव्रतिना गृहस्थेन प्रायः देयः । कस्मै । पात्राय । तस्य प्रासस्य अर्थ देयम् । यथाशकि । तस्य प्रासार्थस्यापि अर्थ यथा यथाशधि देयम् । अत्र लोके इच्छानुरूपं द्रव्यं कस्य कदा पुत्रका मरण हो जाता है तो यह शोकाकुल नहीं होता है । कारण कि वह जानता है कि यह पुत्रवियोग अपने पूर्वोपार्जित कर्मके उदयसे हुआ है जो कि किसी भी प्रकारसे टाला नहीं जा सकता था । परन्तु उसके यहां यदि किसी दिन साधु जनको आहारादि नहीं दिया जाता है तो वह इसके लिये पश्चाताप करता है। इसका कारण यह है कि वह उसकी असावधानीसे हुआ है, इसमें देव कुछ बाघक नहीं हुआ है । यदि वह सावधान रहकर द्वारापेक्षण आदि करता तो मुनिदानका सुयोग उसे प्राप्त हो सकता था ॥ २९ ॥ धर्मके साधनार्थ जो विकल्प उत्पन्न होते हैं वे धनवान् मनुष्यके दानके द्वारा सत्य होते हैं। ठीक हैयहां प्रतिष्ठाको प्राप्त होते हैं ॥ विशेषार्थचन्द्रकान्तमणि चन्द्रकिरणोंसे स्पर्शित होकर अमृतको बहाते हुए। अभिप्राय यह है कि पात्र के लिये दान देनेवाला श्रावक इस भवमें उक्त दानके द्वारा लोकमें प्रतिष्ठाको प्राप्त करता है । जैसे- चन्द्रकान्त मणिसे निर्मित भवनको देखते हुए भी साधारण मनुष्य उक्त चन्द्रकान्त मणिका परिचय नहीं पाता है। किन्तु चन्द्रमोका उदय होनेपर जब उस भवन से पानीका प्रवाह बहने लगता है तब साधारणसे साधारण मनुष्य भी यह समझ लेता है कि उक्त भवन चन्द्रकान्त मणियोंसे निर्मित है । इसीलिये वह उनकी प्रशंसा करता है। ठीक इसी प्रकारसे विवेकी दाता जिनमन्दिर आदिका निर्माण कराकर अपनी सम्पत्तिका सदुपयोग करता है । वह यद्यपि स्वयं अपनी प्रतिष्ठा नहीं चाहता है फिर भी उक्त जिनमन्दिर आदिका अवलोकन करनेवाले अन्य मनुष्य उसकी प्रशंसा करते ही हैं । यह तो हुई इस जन्मकी बात । इसके साथ ही पात्रदानादि धर्मकार्यों के द्वारा जो उसको पुण्यलाभ होता है उससे वह पर जन्ममें भी सम्पन्न व सुखी होता है ॥ ३० ॥ जो मनुष्य घनके रहनेपर भी दान देनेमें उत्सुक तो नहीं होता, परन्तु अपनी धार्मिकताको प्रगट करता है उसके हृदयमें जो कुटिलता रहती है वह परलोकमें उसके सुखरूपी पर्वतों के विनाशके लिये बिजलीका काम करती है ॥ ३१ ॥ अणुव्रती श्रावकको निरन्तर अपनी सम्पत्तिके अनुसार एक ग्रास, आधा ग्रास अथवा उसके भी आघे भाग अर्थात् प्रासके चतुर्थीशको भी देना चाहिये। कारण यह कि यहां लोकमें अपनी इच्छानुसार द्रव्य किसके किस समय होगा जो कि उत्तम पात्रदानका कारण
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१ क यथार्थम् च वन्युतस्य ३ व अमात्य अपि अर्थ यथामति ।