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[२१. क्रियाकाण्डचूलिका ] 866 ) सम्यग्दर्शनयोधवृत्तसमताशीलभमाधैर्धनैः
संकेताश्रयवजिनेश्वर भवान् सधैर्गुणैराश्चितः । मन्ये त्वय्यवकाशलब्धिरहितः सर्वत्र लोके वयं
संग्राह्या इति गर्षितैः परिहतो दोषैरशेधैरपि ॥ १ ॥ 867 ) यस्यामनन्तगुणमेकविभुं त्रिलोक्याः स्तौति प्रभूतकवितागुणगर्वितात्मा।
आरोहति दुमशिरः स नरो नमो ऽन्तं गन्तुं जिनेन्द्र मासिविभ्रमतो खुषो ऽपि ॥२॥ 868) शक्नोति कर्तुमिह का स्तवनं समस्तविद्याधिपस्य भवसो विबुधार्थिता।
तत्रापि तजिनपत्ते जामहे सो यत् रातिदायमा सन्निमिवाय ॥ ६ ॥ भो जिनेश्वर । भवान् त्वम् । सर्वैः गुणैः आश्रितः सम्यग्दर्शनमोधवृत्त-चारित्रसमसाशीलक्षमाद्यैः । धनैः निविद। त्वम् आश्रितः । किंवत् । सहेताश्रथवत् संकेतगृहवत् । भो जिनेश । त्वम् भशेवैः समस्तैः दोषैः परिवतः त्यजः । अहम् एवं मन्ये । किलक्षणे दोषः । स्वयि विषये अवकाशलब्धिरहितः। पुनः किलक्षणः दोवैः । इति हेतोः। गर्वितैः । इतीति किम् । सर्वत्र लोके बर्य संप्रायाः संग्रहणीयाः ॥ भो जिनेन्द। यः नरः। त्वोस्तीति। किंलक्षणं स्वाम् । मनन्तगुणम् । त्रिमोक्या एवं विभुम् । किंलक्षणः सेमरः। प्रभून-उत्पा-कवितागुणः तेन कवितागुणेन गर्वितात्मा । समरःनभोऽन्तं गन्तुं मसिविश्रमतः एमशिरः भारोहति । पुधोऽपि चतुरोऽपि ॥२॥ भो जिनपते । इह लोके संसारे । भक्तः तब । स्तान फर्नु कः शक्रोति । किनक्षमस भवतः । समस्त विद्याधिपस्य । पुनः किंलक्षणस्य भवतः । विगुपैः देवैः अर्थिता । सत्रापि त्वयि विषये । अनः तत् खनन करते।
हे जिनेश्वर! सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, समता, शील और क्षमा आदि सब गुणोंने जो संकेतगृहके समान आपका सघनरूपसे आश्रय किया है। इससे मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आपमें खान प्राप्त न होनेसे 'लोकमें हम सर्वत्र संग्रह किये जानेके योग्य हैं। इस प्रकारके अभिमानको ही मानों प्राप्त होकर सब दोषोंने आपको छोड़ दिया है ॥ विशेषार्थ-जिन भगवान्में सम्यग्दर्शन आदि सभी उत्तमोत्तम गुण होते हैं, परन्तु दोष उनमें एक भी नहीं होता है। इसके लिये अन्धकारने यहां यह उत्प्रेक्षा की है कि उनके भीतर इतने अधिक गुण प्रविष्ट हो चुके थे कि दोषोंको वहां स्थान ही नहीं रहा था। इसीलिये मानों उनसे तिरस्कृत होनेके कारण दोषोंको यह अभिमान ही उत्पन्न हुआ था कि लोकमें हमारा संग्रह तो सब ही करना चाहते हैं, फिर यदि ये जिन हमारी उपेक्षा करते हैं तो हम इनके पास कभी भी न जावेंगे। इस अभिमानके कारण ही उन दोषोंने जिनेन्द्र देवको छोड़ दिया था ॥ १ ॥ हे जिनेन्द्र! कविता करने योग्य बहुत से गुणोंके होनेसे अभिमानको प्राप्त हुआ जो मनुष्य अनन्त गुणोंसे सहित एवं तीनों लोकोंके अद्वितीय प्रभुस्वरूप तुम्हारी स्तुति करता है वह विद्वान् होकर भी मानों बुद्धिकी विपरीततासे ( मूर्खतासे) आकाशके अन्तको पानेके लिये वृक्षके शिखरपर ही चढ़ता है। विशेषार्थ-- जिस प्रकार अनन्त आकाशका अन्त पाना असम्भव है उसी प्रकार त्रिलोकीनाथ (जिनेन्द्र) के अनन्त गुणोंका भी स्तुतिके द्वारा अन्त पाना असम्भव ही है। फिर भी जो विद्वान् कवि स्तुतिके द्वारा उनके अनन्त गुणोंकर कीर्तन करना चाहत्व है, यह समझना चाहिये कि वह अपने कवित्व गुणके अभिमानसे ही वैसा करनेके लिये उद्यत होता है ॥२॥ जो समस्त विद्याकि स्वामी हैं तथा जिनके चरण देवों द्वारा पूजे गये हैं ऐसे आपकी स्तुति करनेके लिये यहां फौन समर्थ है ! अर्थात् कोई भी समर्थ नहीं है। फिर भी हे जिनेन्द्र। मनुष्य जो आपकी स्तुति करता है वह अपने चित्तमें रहनेवाली भक्तिको प्रगट करनेके लिये ही उसे करता है ॥ ३ ॥
भस शमता। श स नास्ति ।