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613 : ११-१६)
११. निमयपशा 610) सम्यकसुखबोधाश त्रितयमखण्ड परात्मनो कपम् ।
तत्र तत्परो पास पव तलग्धिकवकृत्या ॥ १३॥ 611) अन्नावियोष्णभाषः सम्यग्दोधो ऽस्ति पर्शन शुभम् ।
सातं प्रतीतमाभ्यां सूत्स्वास्थ्य भवति चारित्रम् ॥ १५ ॥ 812). विहिताभ्यासा बहिरवेभ्यसंपम्धिनो गाविशराः।
सफलाः शुखात्मरणे छिन्दितकर्मारिसंघाताः ॥१५॥ 613) हिंसोसित एकाकी सर्वोपद्रवलहो धनस्थो ऽपि ।
सकरिव नरो न सिध्यति सम्पग्बोपाइते जातु ॥ १६ ॥
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संसारनाशाय भवति । भूतार्थपपस्थितमुझे निवयमार्गदलितबुदेः मुनेः । आत्मैन तत्रितयम् ॥ १२॥ सम्बकमुखोपशो दर्शनहानमारित्राणाम् । त्रितयं परास्मनः रूपम् । भखम्हं परिपूर्णम् । ततस्मारकारणात । सः भव्यः । स ारमनि विषये सत्परः स एव भव्यः तलम्धिान्तकृत्यः सस्य आत्मनः धिमा तात्यः ॥ १३॥ शुद्ध यशात प्रतीतम् अस्ति अमो विषये यथा उम्णमाः तथा सम्यग्मावबोधोऽस्ति । आभ्यां द्वाभ्याम् । स्वास्थ्य सत् चारित्रं भवति ॥ १४ ॥ गादिशारा; दर्शनादिवाणाः । असारमरणे संग्रामे सफला भवन्ति । विलक्षणाः बारा । छिन्दितकर्म-अरिसंघाताः छिन्दिरकर्मसत्रसमूह । पुनः विलक्षणा बाणाः। बहिरर्थदेष्यसंबनिधन: विहित-अभ्यासाः॥१५॥ नरः सम्मम्बोषा ऋदे रहितः । जात कदाचित् । न सिध्यति । स नरः तकः इव । विलक्षणः गायोजिविहिनः मग्री:mr:
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झान और स्थिति (चरित्र) रूप रत्नत्रय संसारके नाशका कारण है। किन्तु जिसकी बुद्धि शुद्ध निश्चयनयके मार्गमें प्रवृत्त हो चुकी है उसके लिये वे तीनों (सम्यग्दर्शनादि ) एक आत्मस्यरूप ही है-उससे भिन्न नहीं हैं ।। १२ । समीचीन सुख (चारित्र ), ज्ञान और दर्शन इन तीनोंकी एकता परमात्माका अखण्ड स्वरूप है । इसीलिये जो जीव उपर्युक्त परमात्मस्वरूपमें लीन होता है वही उनकी प्रातिसे कृतकृत्य होता है ।। १३ ॥ जिस प्रकार अभेदस्वरूपसे अमिमें उष्णता रहती है उसी प्रकारसे आत्मामें ज्ञान है, इस प्रकारकी प्रतीतिका नाम शुद्ध सम्यग्दर्शन और उसी प्रकारसे जाननेका नाम सम्यग्ज्ञान है । इन दोनोंके साथ उक्त आत्माके स्वरूपमें स्थित होनेफा नाम सम्यचारित्र है ।। १४ || जो सम्यग्दर्शन आदिरूप बाण बाह्य वस्तुरूप वेध्य ( लक्ष्य) से सम्बन्ध रखते हैं तथा जिन्होंने इस कार्यका अभ्यास मी किया है वे सम्यग्दर्शनादिरूप बाण शुद्ध आत्मारूप रणमें कर्मरूप शत्रुओंके समूहको नष्ट करके सफल होते हैं ॥ १५ ॥ जो मनुष्य वृक्षके समान हिंसाफर्मसे रहित है, अकेला है अर्थात् किसी सहायककी अपेक्षा नहीं करता है, समस्त उपद्रवोंको सहन करनेवाला है, तथा वनमें स्थित भी है, फिर भी वह सम्यग्ज्ञानके विना कभी भी सिद्ध नहीं हो सकता है। विशेषार्थ-बनमें अकेला स्थित जो वृक्ष शैत्य एवं गर्मी आदिके उपदवोंको सहता है तथा स्थावर होनेके कारण हिंसाकर्मसे भी रहित है, फिर भी सम्यग्ज्ञानसे रहित होनेके कारण जिस प्रकार वह कमी मुक्ति नहीं पा सकता है उसी प्रकार जो मनुष्य साधु हो करके सब प्रकारके उपद्रवों एवं परीषहोंको सहन करता है, घरको छोड़कर बनमें एकाकी रह रहा है, तथा प्राणिघातसे विरत है। फिर भी यदि उसने सम्यग्ज्ञानको नहीं प्राप्त किया है तो वह भी फमी मुक्त नहीं हो
१२ बोस्ति । २ प्रवीति ।
कमसमूगाः ।