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१४. जिनवरस्तवनम्
768) विडे तुमम्मि णिवर चिंतामणिकामधेणुकप्पतरू । खज्जोय थ्व पहाय मज्झ मणे शिष्पदा जाया ॥ २२ ॥ 764) विद्वे तुमम्मि जिणवर रहसरसो मह मणम्मि जो जाओ । सुमिस सो तसो णीहर बहिरंतो ॥ २३ ॥ 765 ) दिडे तुमम्मि जिणवर कलाणपरंपरा पुरो पुरिसे । संचरह माइया वि ससहरे किरणमाल ॥ २४ ॥ 766 ) दिट्ठे तुमम्मि जिपवर दिसबल्लीओ फलंति सम्बाध । दई अहुलिया वि हु परिसइ सुष्णं पि रयणेहिं ॥ २५ ॥ 767 ) दिट्ठे तुमम्मि जिनवर भव्यो भयपजिओ हमे णवरं । गयहिं चिये जाय जोदापसरे' सरे कुमुर्य * ॥ २६ ॥ 768) विडे तुमम्मि जिणवर हियपणं मद्द झुहं समुल्लसियं । सरिणाहेणिव सहसा उग्गमिए पुण्णिमाइंदे ॥ २७ ॥
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दृष्टिः । दोषाकरे जड़े । खस्थे आकाशस्थे । चन्द्रे रमते । किंलक्षणे त्वयि । शामवति ज्ञानयुक्ते पुनः दोोजिससे तुम ॥ २१ ॥ मो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति चिन्तामणिरत्नक, मधेनु कल्पतरवः मग मनसि निःप्रभा जाताः । स्वद्योत व प्रभाते ज्योतिरिंगच इव || २२ || मो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति । मम मनसि गः रहस्य [ रभस ] रसः । जातः उत्पन्नः । स रहस्यरसैः । तस्मात्कारणात् । आनन्दामिषात् व्याजात् बहिरन्तः निःसरति ॥ २३ ॥ भो जिनवर । त्वयि दृष्टे सति कल्याणपरम्परा मातापि अचिन्तिता अपि पुरुषस्य अत्रे संचरति आगच्छति । शशधरे चन्द्रे किरणमालावत ॥ २४ || भो जिनवर । त्वमि दृष्टे सति सर्वाः दिग्बल्यः फलन्ति दृष्टं सुखं फलन्ति । किंलक्षणा दिग्दार्थः । अकुष्ठिता अपि । हु स्फुटम् । आकाशं रत्नैः वर्षति ॥ २५ ॥ भो जिनवर 1 यि दृष्टे सति भव्यः भगवातो भवेत् । नवरं शीघ्रम् सरे सरोवरे । कुमुदं चन्द्रोदये सति गतनि जायते ॥ २६ ॥ भो • जिनवर । त्वयि रटे सति मम हृदयेन सुखं समुहसितं शीध्रेण यथा पूर्णिमा चन्द्रे उद्द्वमिते सति प्रकटिते सति । सरिनाथेन इव दोषोंसे रहित और वीर ऐसे आपको देख लेनेपर फिर किसकी दृष्टि चन्द्रमाकी और रमती है ? अर्थात् आपका वर्शन करके फिर किसीको भी चन्द्रमा दर्शनकी इच्छा नहीं रहती । कारण कि उसका स्वरूप आपसे विपरीत है - आप ज्ञानी हैं, परन्तु वह जड (मूर्ख, शीतल ) है । आप दोषोज्झित अर्थात् अज्ञानादि दोषोंसे रहित हैं, परन्तु वह दोषाकर ( दोषोंकी खान, रात्रिका करनेवाला) है। तथा आप वीर अर्थात् कर्म -शत्रुओंको जीतनेवाले सुभट हैं, परन्तु यह स्वस्थ ( आकाश में स्थित ) अर्थात् भयभीत होकर आकाशमें छिपकर रहनेवाला है || २१ || है जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे मनमें चिन्तामणि, कामधेनु और कल्पवृक्ष भी इस प्रकार कान्तिहीन (फी) हो गये हैं जिस प्रकार कि प्रभातके हो जानेपर जुगनू कान्तिहीन हो जाती है ॥ २२ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर मेरे मनमें जो हर्षरूप जल उत्पन्न हुआ है वह मानो हर्षके कारण उत्पन्न हुए आंसुओं मिषसे भीतर से बाहर ही निकल रहा है ॥ २३ ॥ हे जिनेन्द्र | आपका दर्शन होनेपर कल्याणकी परम्परा (समूह) बिना बुलाये ही पुरुषके आगे इस प्रकारसे चलती है जिस प्रकार कि चन्द्रमाके आगे उसकी किरणोंका समूह चलता है || २४ || हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर सब दिशारूप बेलें फूलोंके बिना भी अमीष्ट फल देती हैं, तथा रिक्त भी आकाश स्तोकी वर्षा करता है ।। २५ ।। हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होनेपर भव्य जीव सहसा भय और निद्रासे इस प्रकार रहित ( प्रबुद्ध ) हो जाता है जिस प्रकार कि चांदनीका विस्तार होनेपर सरोवर में कुमुद (सफेद कमल) निद्रा से रहित (प्रफुल्लित ) हो जाता है || २६ ॥ हे जिनेन्द्र ! आपका दर्शन होने पर मेरा हृदय सहसा इस प्रकार सुखपूर्वक हर्षको प्राप्त हुआ है जिस प्रकार कि पूर्णिमाके चन्द्रका सुमिता । २ गमणिरचिय व गणयि * अक जो पसरे । ४ कुसुमं कुमुर्य, शकुमुदव्य ५ श 'जातः उत्पः स रहस्यरसः' नास्ति । ६णि दिशः । पद्मने २८
१ च प्रतिपाठोऽयम् ।