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१. धर्मोपदेशामृतम्
स्कने जिस किसी प्रकार रसोइयेसे यथार्थ स्थिति जान ली। उसने प्रतिदिन इसी प्रकारका मांस सिलानेके लिये रसोइएको बाध्य किया। वेचारा रसोइया प्रतिदिन चना एवं लड् आदि लेकर जाता और किसी एक बालकको फुसला कर ले आता । इससे नगरमें बच्चोंकी कमी होने लगी। पुरवासी इससे बहुत चिन्तित हो रहे थे । आखिर एक दिन वह रसोइया बालकके साथ पकड़ लिया गया । लोगोंने उसे लात-घूसोंसे मारना शुरु कर दिया। इससे धबड़ा कर उसने यथार्थ स्थिति प्रगट कर दी। इसी बीच पिताके दीक्षित हो आनेपर बकको राज्यकी मी प्राप्ति हो चुकी थी। पुरवासियोंने मिलकर उसे राज्यसे भ्रष्ट कर दिया । वह नगरसे बाहिर रहकर मृत मनुष्यों के शवोंको खाने लगा ! जब कभी उसे यदि जीवित मनुष्य भी मिलता तो वह उसे मी वा जाता था । लोग उसे राक्षस कहने लगे थे । अन्तमें वह किसी प्रकार वसुदेवके द्वारा मारा गया था । उसे मांसभक्षण व्यसनसे इस प्रकार दुःख सहना पड़ा । ३ यादवकिसी समय भगवान् नेमि जिनका समवसरण गिरनार पर्वत आया था । उस समय अनेक पुरवासी उनकी वंदना करने और उपदेश श्रवण करनके लिये गिरनार पर्वतपर पहुंचे थे । धर्मश्रवणके अन्तमें बलदेवने पूछा कि भगवन् ! यह द्वारिकापुरी कुबेरके द्वारा निर्मित की गई है । उसका विनाश कब और किस प्रकारसे होगा ! उत्तरमें भगवान् नेमि जिन बोले कि यह पुरी मद्यके निमित्तसे बारह वर्षमै द्वीपायनकुमारके द्वारा भस की जावेगी । यह सुनकर रोहिणीका भाई द्वीपायनकुमार दीक्षित हो गया और इस अवधिको पूर्ण करनेके लिये पूर्व देशमें जाकर तप करने लगा । तत्पश्चात् वह द्वीपायनकुमार प्रान्तिवश 'अब बारह वर्ष बीत चुके' ऐसा समझकर फिरसे वापिस आगया और द्वारिकाके बाहिर पर्वतके निकट ध्यान करने लगा। इधर जिनवचनके अनुसार मद्यको द्वारिकादाहका कारण समझकर कृष्णने प्रजाको मद्य और उसकी साधनसामग्रीको भी दूर फेक देनेका आदेश दिया था । तदनुसार मद्यपायी जनोंने मद्य और उसके साधनोंको कादम्ब पर्वतके पास एक गड्डेमें फेक दिया था । इसी समय शंब आदि राजकुमार वनक्रीड़ाके लिये उधर गये थे । उन लोगोंने प्याससे पीड़ित होकर पूर्वनिक्षिप्त उस मद्यको पानी समझकर पी लिया । इससे उन्मत्त होकर वे नाचते गाते हुए द्वारिकाकी ओर वापिस आरहे थे। उन्होंने मार्गमें द्वीपायन मुनिको स्थित देखकर
और उन्हें द्वारिकादाहक समझफर उनके ऊपर पत्थरों की वर्षा आरम्भ की, जिससे क्रोधवश मरणको प्राप्त होकर वे अमिकुमार देव हुए । उसने चारों ओरसे द्वारिकापुरीको अमिसे प्रज्वलित कर दिया । इस दुर्घटनामें कृष्णा और बलदेवको छोड़कर अन्य कोई भी प्राणी जीवित नहीं बच सका । यह सब मद्यपानके ही दोषसे हुआ था । ४ चारुदत्त-चम्पापुरीमें एक भानुदत्त नामके सेठ थे । उनकी पनीका नाम सुभद्रा था । इन दोनोंकी यौवन अवस्था विना पुत्रके ही व्यतीत हुई । तत्पश्चात् उनके एक पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम चारुदत्त रखा गया । उसे बाल्य कालमें ही अणुव्रत दीक्षा दिलायी गयी थी। उसका विवाह मामा सर्वार्थकी पुत्री मित्रवतीके साथ सम्पन्न हुआ था । चारुदत्तको शास्त्रका व्यसन था, इसलिये पनीके प्रति उसका किंचित् भी अनुराग न था । चारुदत्तकी माताने उसे काममोगमें आसक्त करने के लिये रुद्रदत्त ( चारुदत्तके चाचा) को प्रेरित किया । वह किसी बहानेसे चारुदत्तको कलिंगसेना वेश्याके यहां ले गया । उसके एक वसन्तसेना नामकी सुन्दर पुत्री थी। चारुदत्तको उसके प्रति प्रेम हो गया । उसमें अनुरक्त होनेसे कलिंगसेनाने वसन्तसेनाके साथ चारुदत्तका पाणिग्रहण कर दिया था । वह वसन्तसेनाके यहां बारह वर्ष रहा ।