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१. धर्मोपदेशामृतम्
18) काकीर्तिः क दरिद्रता के विपदः क कोधलोमादयः चौर्यादिव्यसनं क च क नरके दुःखं मृतानां नृणाम् । पेरुमोतो न रमते ते वदन्युनत
प्रज्ञा यषि दुर्जयेषु निखिलेध्येतदुरि स्मर्यते ॥ १८ ॥ 19 ) बीभत्सु प्राणघातोद्भवमशुचि मिस्वानमन्लाष्यमूल इस्तेमाक्ष्णापि शक्यं यदिह न महतां स्प्रष्टुमालोकितुं' च । तम अक्षरसेराहाम दर्ज गर्हितं यस्य साक्षात् पापं तस्यात्र पुंसो भुवि भवति कियत्का गतिर्वा न विद्मः ॥ १९ ॥
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अपि तु ज्ञानवान्नाङ्गीकरोति ॥ १७ ॥ उन्नतज्ञा विवेकिनः । इति वदन्ति । इतीति किम् । चेत् यदि चेतः मनः । छूते न रमते । कुतः । गुरुमोहतः । खूबे न रमते तदा अकीर्तिः क अपयशः । क्र-शब्दः महदन्तरं सूचयति । चेन्मनः गुरुमोदतः पूते न रमते तदा' क दरिद्रता । क विपदः । क क्रोधलोभादयः । क्र चौर्यादिव्यसनम् । क मृतानां नृणी मनुष्याणां नरके दुःखम् । जेम्मनः द्यूते न रमते । यद् यस्मात् । सुषि पृथिव्याम् । निश्चिकेषु व्यसनेषु । एतद् भूतम् । धुरि आदौ । समर्वते कथ्यते ॥ १८ ॥ यन्मा बीभत्सु भयानकं घृणास्पदम् । यन्मर्स प्राणिघातोषं प्राणिनवोत्पलम् । मन्मासे मशुचि अपवित्रम् । जन्मसि मिस्मानम् । मन्मा अश्वाभ्यमूलम् । इह लोके । महता पुरुषाणा हस्ते स्पष्टुं स्पर्शितुं शक्यं न । महता ममापि मात्रे किंतु " न तत् तस्मात्कारणात्। भक्ष्यमेतद्वचनमपि सतां गर्हितं निन्यं भवति । मन्त्र भुवि पृथिव्याम् । यस्य पुरुषस्य मार्च म भवति तस्य मांसभक्षकस्य पुंसः । साक्षात् केवलम् । किपत्पापं भवति तस्य का गतिर्भवति वयं न विद्यः वयं न जानीमः ॥ १९ ॥
जापत्तियोंका स्थान है, पायका कारण है, तथा दुःखदायक नरकके मागौनें अप्रगामी है; इस प्रकार जानकर यहाँ लोकमें कौन-सा निर्मल बुद्धिका धारक मनुष्य उपर्युक्त जुआको स्वीकार करता है! अर्थात् नहीं करता। जो दुर्बुद्धि मनुष्य हैं वे ही इस अनेक आपत्तियोंके उत्पादक जुआको अपनाते हैं, न कि विवेकी मनुष्य ॥ १७ ॥ यदि चित्त महामोहसे जुआ में नहीं रमता है तो फिर अपयश अथवा निन्दा कहांसे हो सकती है ? निर्धनता कहां रह सकती है ! विपत्तियां कहांसे आ सकती हैं ? क्रोष एवं लोभ आदि कषायें कहांसे उदित हो सकती हैं? चोरी आदि अन्यान्य व्यसन कहां रह सकते हैं ? तथा मर करके नरकमें उत्पन्न हुए मनुष्योंको दुःख कहांसे प्राप्त हो सकता है ? [ अर्थात् जुमासे विरत हुए मनुष्यको उपर्युक्त आपत्तियोंमेंसे कोई भी आपत्ति नहीं प्राप्त होती |] इस प्रकार उन्नत बुद्धिके धारक विद्वान् कहा करते हैं। ठीक ही है, क्योंकि समस्त दुर्व्यसनों में यह जुआ गाड़ीके चुराके समान मुख्य माना जाता है ॥ १८ ॥ जो मांस घृणाको उत्पन्न करता है, मृग आदि प्राणियोंके घातसे उत्पन्न होता है, अपवित्र है, कृमि आदि क्षुद्र कीड़ोंका स्थान है, जिसकी उत्पत्ति निन्दनीय है, तथा महापुरुष जिसका हाथसे स्पर्श नहीं करते मौर जांखसे जिसे देखते भी नहीं हैं ' वह मांस खानेके योग्य है' ऐसा कहना मी सज्जनोंके लिये निन्दाजनक है । फिर ऐसे अपवित्र मांसको जो पुरुष साक्षात् खाता है उसके लिये यहां लोकमें कितना पाप होता है तथा उसकी क्या अवस्था होती है, इस बासको हम नहीं जानते ॥ विशेषार्थ- मांस चूंकि प्रथम तो मृग आदिक मूक प्राणियों के वधसे उत्पन्न होता है, दूसरे उसमें असंख्य अन्य त्रस जीव भी उत्पन्न हो जाते हैं जिनकी हिंसा होना अनिवार्य है। इस कारण उसके भक्षण में हिंसाजनित पापका होना अवश्यंभावी
१ क मा कोकित। २ परमतेला कुतः १ अतो यद्वन्तः पाठवितो जातः । ४ मुवि मेदिन्या चिया । ५ ।
पहा २