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पसनम्वि-पञ्चविंशतिः
[99:१९९99) कषायविषयोदमपुरतस्करोघो छात्
सपासुमटताडितो विघटते यती दुर्जयः। अतो हि निरुपद्रवश्चरति तेन धर्मनिया
यति समुपलक्षितः पथि विमुक्तिपुर्याः सुखम् ॥ १९ ॥ 163) मिथ्यात्वापयदि मम्तिा दुग्धमुसपीभ्यो
जातं तस्मादवककणिकैकेय सर्वाधिनीरात। स्तोकं तेन प्रभवमखिलं कृच्छ्रलब्धे नरत्वे
यचेतर्हि स्खलति तदहो का क्षतिीष से स्यात् ॥ १००० 101) व्याल्या यत् क्रियते श्रुतस्य यत्तये यहीयते पुस्तक
स्थाने संयमसाधनादिकमपि प्रीत्या सदाचारिणा । पुनः । द्वादशधा । पुनः इदं तपः । जन्माम्बुधियानपात्र संसारसमुद्रसरणे प्रोहणम् ॥ ९८ ॥ यतः यस्मात्कारणात् । कषायविषयोद्भटप्रचुरतस्करोषः कषायविषयचौरसमूहः । दुर्जयः सुजीतः(1)। टासात् । तपःसुभदेन तारितः कषायविषयचौरसमूह। विषटवे विनाशं गच्छति। अतः कारणात् । हियतः। मुनिः। तेन तपसा । समुपल्लक्षितः संयुक्तः । पुनः धर्मश्रिया समुपलक्षितः युषः यतिः । विमुचिपुर्याः पथि मुक्तिमार्गे यथा स्यात्तथा । निरुपावः उपद्रवरहितः । चरति गच्छति ॥ ५९॥ बहो इति संबोधने। भो जीव इद्द जगति विषये । यदि चेत् । मिथ्यावादेः सकाशात् । र दुःखें । भविता भविष्यति । इह जगति। सपोभ्यः स्वोकं दुःखम् । जातम् उत्पनम् । तपोभ्यः दुःखं का इव । सर्वाधिनीरात् समुद्रजलात् । एका उदककणिका इव अन्लकणिका इव । एताह एतस्मिन् । कृष्ल मधे भरत्वे कोन प्रामे मनुष्यपदे। अखिलं प्रभवम् । उत्पन क्षमादिगुणं वर्तते। यदि एतस्मिन् नरत्वे स्खलसि सदा तम का हानिः का क्षतिः न स्यात् । अपितु सर्वधा प्रकारेण हानिः स्याद्भवेत् । इति हेतोः नरखे तपः करणीयम् ॥१०॥ सदाचारिणा मुनिना। यत् श्रुतस्य व्याख्या क्रियते । यत्पुस्तक स्थान संयमसाधनादिक ममकारका त्याग करना । ६ ध्यान-चित्तको इधर उधरसे हटाकर किसी एक पदार्थके चिन्तनमें लगाना ॥ ९८ ॥ जो क्रोधादि कषायों और पंचेन्द्रियविषयोंरूप उद्भट एवं बहुत-से चोरोंका समुदाय बड़ी कठिनता से जीता जा सकता है वह चूंकि तपरूपी सुभटके द्वारा बलपूर्वक ताड़ित होकर नष्ट हो जाता है, अत एवं उस तपसे तथा धर्मरूप लक्ष्मीसे संयुक्त साधु मुक्तिरूपी नगरीके मार्गमें सब प्रकारकी विन-बाधाओंसे रहित होकर सुखपूर्वक गमन करता है ॥ विशेषार्थ -- जिस प्रकार चोरोंका समुदाय मार्गमे चलनेवाले पथिक जनोंके घनका अपहरण करके उनको आगे जानेमें बाधा पहुंचाता है उसी प्रकार क्रोधादि कषायें एवं पंचेन्द्रियविषयभोग मोक्षमार्गमें चलनेवाले सत्पुरुषों के सम्यग्दर्शनादिरूप धनका अपहरण करके उनके आगे जानेमें बाधक होता है । उपर्युक्त चोरोंका समुदाय जिस प्रकार किसी शक्तिशाली सुमटसे पीड़ित होकर यत्र तत्र भाग जाता है उसी प्रकार तपके द्वारा वे विषय-कषायें भी नष्ट कर दी जाती हैं । इसीलिये चोरोंके न रहनेसे जिस प्रकार पथिक जन निरुपद्रव होकर मार्गमें गमन करते हैं उसी प्रकार विषय-कषायोंके नष्ट हो जानेसे सभ्यग्दर्शनादि गुणोंसे सम्पन्न साधु जन भी निर्बाध मोक्षमार्गमें गमन करते हैं ।। ९९ ॥ लोकमें मिथ्यात्व आदिके निमित्तसे जो तीव्र दुःख प्राप्त होनेवाला है उसकी अपेक्षा तपसे उत्पन्न हुआ दुःख इतना अल्प होता है जितनी कि समुद्रके सम्पूर्ण जलकी अपेक्षा उसकी एक बूंद होती है। उस तपसे सब कुछ (समता आदि ) आविर्भूत होता है। इसीलिये हे जीव ! करसे प्राप्त होनेवाली मनुष्य पर्यायके प्राप्त हो जानेपर भी यदि तुम इस समय उस तपसे भ्रष्ट होते हो तो फिर तुम्हारी कौन-सी हानि होगी, यह जानते हो! अर्थात् उस अवस्थामें तुम्हारा सब कुछ ही नष्ट हो जानेवाला है ।। १०० ॥ सदाचारी पुरुषके द्वारा मुनिके लिये जो प्रेमपूर्वक आगमका व्याख्यान किया जाता है, पुस्तक दी जाती है, वथा
१श पुनः ।