________________
१७७
--587 : १0-10]
१०. सदोधचन्द्रोवा 588 ) नागदेश प्रतिवाहिनी सदा धामनि शुतगता पुरः परः।
थाषा परमात्मसंविदा भियते न हदयं मनीषिणः ॥ २६ ॥ 584 ) यः कषायपवनैरचुम्बितो शोधयतिरमलोलसहर्शः।
किं न मोहतिमिरं विखण्डयन भासते जगति चिरप्रदीपकः ॥ ३७ ॥ 585) बाधशास्रगहने विहारिणी या मतिर्षदुविकल्पधारिणी।
चित्स्यरूपकुलसमनिर्गता सा सती न सकशी कुयोषिता ॥ ३८॥ 586) यस्तु देयमितरच भावयन्नापतो हि परमातुमीइते।
सस्य बुद्धिरुपदेशतो गुरोराश्रयेस्स्वपदमेव निश्चलम् ॥ ३९ ॥ 587 ) सुप्त एष बहुमोई निद्रया लस्तिः स्वमबलादि पश्यति ।
जाप्रतोषला गुरोर्गतं संगतं सकलमेव इश्यते ॥ ४०॥
भर लोके । मनीषिणः मतिवाहिनी पण्डिसस्य बुद्धिमयी । सापदेव तामत्कालम् । श्रुतगता सिद्धान्ते प्रामा । पुरः पुरः भने बमे। सदा धावति । यावत्कालम् । परमात्मसंविदा परमारमझानेन । हृदय न मियते ॥३६॥ विप्रदीपकः मोहतिमिरे विखण्डयन्' जगति विषये किं न भासते। अपि तु भासते । यः चैतन्यदीपकः कषायपवनैः अधुम्बितः । किशक्षणः चैतन्यदीपक । बोषवभिमल-निर्मल-उासदशः भरलप्योगवति ॥३७॥ या मतिः पाशाखगहने बने । विहारिणी खेचचरमशीला। किंलक्षणा मतिः। बहुविकल्पधारिणी। पुनः मित्स्वरूपकुलसननिर्गता।सा मतिः सती साध्वी न ।योषिता सदशी सा मतिः ॥३८॥ यः भव्यः । हेय स्याज्यम् । पुनः। इतरत् अहेयम् उपादेयम् । द्वयम् । भावयन् विचारयन् । आयतः हेयात् । परम् उपादेयम् । आतुं प्राम् । ईइते वाश्यति। तस्य बुद्धिः गुरोः उपदेशतैः । निश्चल खपदम् आश्रयेत् ॥३९॥ एष भीषः सुतः बहुमोहनिया ललितः। अबलादि वं पश्यति कलग्रादि वात्मीय पश्यति । गुरोः उचवमा उचक्नेन । जामता अथवा मिथ्याज्ञानरूपी अभिके द्वारा नष्ट नहीं किया जाता है तो वह निश्चयसे अभीष्ट मोक्षरूपी उत्तम फलको उत्पन्न करता है ॥ ३५ ॥ यहां विद्वान् साधुकी बुद्धिरूपी नदी आगममें स्थित होकर निरन्तर तब सक ही आगे आगे दौड़ती है जब तक कि उसका हृदय उत्कृष्ट आत्मतत्त्वके ज्ञानसे भेदा नहीं जाता ॥ विशेषार्थ- इसका अभिप्राय यह है कि विद्वान् साधुके लिये जब उत्कृष्ट आत्माका स्वरूप समझमें आ जाता है तब उसे इतके परिशीलनकी विशेष आवश्यकता नहीं रहती । कारण यह कि आस्मतत्त्वका परिज्ञान प्राप्त करना यही तो आगमके अभ्यासका फल है, सो वह उसे प्राप्त हो ही चुका है । अब उसके लिये मोक्षपद कुछ दूर नहीं है ।। ३६ ॥ जो चैतन्यरूपी दीपक कषायरूपी वायुसे नहीं छुआ गया है, ज्ञानरूपी अमिसे सहित है, तथा प्रकाशमान निर्मल दशाओं (द्रव्यपर्यायों) रूप दशा (बत्ती) से सुशोभित है, वह क्या संसारमें मोहरूपी अन्धकारको नष्ट करता हुआ नहीं प्रतिमासित होता है ! अर्थात् अवश्य ही प्रतिभासित होता है ॥ ३७ ॥ जो बुद्धिरूपी स्त्री बाब शास्त्ररूपी वनमें घूमनेवाली है, बहुतसे विकल्पोंको धारण करती है, तथा चैतन्यरूपी कुलीन घरसे निकल चुकी है। वह पतिव्रताके समान समीयीन नहीं है, किन्तु दुराचारिणी स्त्रीके समान है ।। ३८ ॥ जो भव्य जीव हेय और उपादेयका विचार करता हुआ पहले ( हेय) की अपेक्षा दूसरे (उपादेय) को प्राप्त करनेका प्रयत्न करता है उसकी बुद्धि गुरुके उपदेशसे स्थिर आत्मपद ( मोक्ष ) को ही प्राप्त करती है ॥ ३९॥ मोहरूपी गाढ़ निद्राके वशीभूत होकर सोया हुआ यह प्राणी स्त्री-पुत्रादि वास वस्तुओंको अपनी समझता है । वह जब गुरुके ऊंचे वचन अर्थात् उपदेशसे जाग उठता है तब संयोगको प्राप्त हुए उन
तिनः । ५. साय'
सश विर्षजयन्, विडम्बपन् । ३ मत तदिह मोह। ४भ पर्ति, -'पास' नायि। उपदेशात्। गुरोपसा ।
नास्ति।