Book Title: Jinmandiradi Lekh Sangraha
Author(s): Sushilsuri, Ravichandravijay
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री TOUणपणन जिनमन्दिरादि लेखसंग्रह गोका गारे * लेखक * (प. पू. आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MalhaldiramALMAdiladki AAAAAAAMANASANANASAN 4 श्रीनेमि-लावण्य-दक्ष-सुशील ग्रन्थमाला रत्न ६८ वा ) विश्ववन्ध-विश्वविभु-देवाधिदेव तीर्थकर परमात्मा श्री जिनेश्वर भगवान के मन्दिरादि का दिग्दर्शक lauddandisuallaadla श्रीजिनमन्दिरादि-लेखसंग्रह। * लेखक * शासनसम्राट्-परमपूज्याचार्य महाराजाधिराज श्रीमद् विजयनेमिसूरीश्वरजी म. सा. के दिव्यपट्टालंकार-साहित्यसम्राट्-परमपूज्याचार्यप्रवर श्रीमद् विजयलावण्यसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टधर - धर्मप्रभावक - परमपूज्याचार्यवर्य श्रीमद् । विजय दक्षसूरीश्वरजी म. सा. के पट्टधर-जैनधर्मदिवाकरपूज्यपाद-प्राचार्यदेव श्रीमद् विजयसुशीलसूरीश्वरजी म. सा. 卐 * सम्पादक * ज्ञानाभ्यासी - तपस्वी पूज्य मुनिराज श्री रविचन्द्र विजयजी महाराज Ramdadabad Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MilindiandiaNALMAALMALAM 卐 प्रकाशक .. श्री सुशील साहित्य प्रकाशन समिति . . c/o श्री गुणवयालचन्दजी भंडारी .. राइका बाग, पुरानी पुलिस लाइन के पास, जोधपुर (राजस्थान) श्रीवीर सं. २५२३ विक्रम सं. २०५३ - नेमि सं. ४८ लावण्य सं. ३२-३३ ईस्वी सन् १९६७ प्रतियाँ-१००० प्रथमावृत्ति मूल्य ५.०० रुपये * द्रव्य-सहायक * पचपदरानिवासी शा. अमृतराज - कुशलराज - लूणचन्द-गणपतराज-तखतमल - देवीचन्द - इन्द्रमल - महेन्द्रकुमार-जवेरीलाल-पद्म-राजेश-विकास - मनोजपंकज-अनिल - ऋषभ-भरत - पुनीत - पीयूष - गौरव चोपड़ा परिवार। फर्म-बी. डी. टैक्सटाइल्स मिल्स प्रा. लि. मुम्बई, बालोतरा Aamhiandianimladdindiahindi मुद्रक : Mardandidaha ताज प्रिण्टर्स जालोरी गेट के अन्दर, जोधपुर (राज.) 1621435, 621853 wwwwwwwwwwwwww Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ooooooooooooooooooooooooooooo oppo ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤â¤¤¤¤¤¤ * समर्पण * हमारे परमोपकारी बालब्रह्मचारी सुमधुर प्रवचनकार - विद्वान् उपाध्यायप्रवर श्री जिनोत्तम विजयजी गणिवर्य महाराज साहब ! जिन्होंने साढ़े नौ वर्ष की बाल्यावस्था में भागवती दीक्षा प्राप्त की और जो संयम की सुन्दर आराधना में पच्चीस वर्ष पूर्ण कर आगे बढ़ रहे हैं, ऐसे पूज्य गुरुदेव के कर-कमलों में यह पुस्तिका मैं सादर - सभक्ति - सहर्ष समर्पित करता हूँ । popopp श्रापका श्रन्तिषद् मुनि रविचन्द्र विजय ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤ ¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤¤ Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पंच परमेष्ठि-वन्दना xx ( मंगलाचरण ) अरिहन्त प्रभु तुझ चरणों में, ये जीवन मेरा अर्पित है । हे प्रातम-रिपु-विजय भगवन्, तुमको सर्वस्व समर्पित है ।। अरिहन्त ...... हे प्रष्ट करम-मारक सिद्धा, हे चिदानन्द ! हे शिवधामी । हे अव्याबाध, अनादि सादि, हे नमो-नमो अन्तर्यामी ॥ अरिहन्त ...... छत्तीस गुणों से युक्त हुए, प्राचार्यदेव जग हितकारी । शासन - पति के प्राज्ञापालक, हे नमो-नमो हे गरणधारी ॥ अरिहन्त ...... हे तप-रत द्वादश अंगध्यायी, उपदेशक उत्तम पदधारी । हे उपाध्याय ! भगवन्त नमो, हे सुखकारी ! हे सुविचारी !! अरिहन्त .... ममता-मारक, समताघारी, समिति, गुप्ति, संयम पाले । ऐसे साधु भगवन्त नमो, जो दोष बयालीस को टाले || अरिहन्त ..... ये पंच परमेष्ठी भव- तारक, इनकी महिमा का पार नहीं । ये 'नैन' निरन्तर जाप जपे, बिन जाप किये उद्धार नहीं । अरिहन्त .... फ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ** पुरो व चन * श्री जैनशासन में श्रात्म-साधना के लिए अनेक अनुपम आलम्बन प्रतिपादित किये गये हैं । यद्यपि वे समस्त श्रालम्बन अपने-अपने स्वरूप की अपेक्षा सर्वोत्तम हैं तथापि अन्य सर्वं श्रालम्बनों में भक्तियोग का आलम्बन आत्म-साधना के लिए आबाल-वृद्ध सबको ही विशेष प्रति उपयोगी होता है । यह आलम्बन ही एक ऐसा विशिष्ट और सर्वमान्य श्रालम्बन है कि जिसके द्वारा आत्मा साधना में पवित्र पन्थे प्रसारण करता है | मोक्ष के लिए भक्तिमार्ग की मुख्यता है, वैसे मोक्ष के साथ योग करा दे ऐसे कई मार्ग हैं | भक्तियोग में श्रात्मा परमात्मा के साथ तन्मय एकरस बन जाय, जैसे दुग्ध- दूध में शक्कर मिल जाय । ऐसा हो जाय तो निश्चित ही भक्त एक दिन भगवान बन सकता है । भक्ति के बल पर तो भूतकाल में अनन्त आत्माएँ जिन जिनेश्वर तीर्थंकर बनी हैं और भविष्य में भी अनन्त बनेंगी । , भक्तियोग की साधना वेदान्त, सांख्य और बौद्ध इत्यादि भारत के सर्वदर्शनों में है । इतना ही नहीं किन्तु मुस्लिम मौर ईसाई धर्म में भी क्रमश: मस्जिद तथा चर्च में जाने की प्राज्ञा है । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६ ) वहाँ जाकर प्रार्थना इत्यादि करने की प्रवृत्ति भी मुख्यत: भक्तियोग को सूचित करती है। अन्य सर्व दर्शनों की भाँति श्री जैनदर्शन में भी भक्तियोग का अत्यन्त महत्त्व है । , श्री जैनशासन में मनुष्य रूपे जन्म प्राप्त धर्मप्रेमी आत्मा को अहर्निश सामायिक प्रतिक्रमण, देवदर्शन-पूजन तथा व्रत नियमपालन इत्यादि सर्व आराधनाएँ अपनी शक्ति के अनुसार अवश्य करनी चाहिए । कदाचित् संयोगवशात् सामायिक, प्रतिक्रमण किंवा व्रतनियम की आराधना नहीं कर सके तो वह चला लेवे, किन्तु प्रभु दर्शन-पूजन और चैत्यवन्दन, प्रभुभक्ति हेतु आवश्यक कृत्य तो उस आत्मा को अवश्य ही करने चाहिए । भक्तियोग की प्राराधना से कोई भी आत्मा वंचित नहीं रहनी चाहिए । यही इस प्राराधना के पीछे मुख्य तात्पर्य है । जिनमन्दिर, जिनमूर्ति, जिनदर्शन-पूजन जिनवाणी, जिनस्तुति तथा स्तवनादि, संसाररूपी अरण्य वन जंगल में भूलेभटकते ऐसे जीवों- श्रात्मानों के लिए दिव्यमार्ग बताने वाले अद्वितीय जोड़ और अमोघ यन्त्र हैं । मोक्ष के शाश्वत सुख की प्राप्ति अर्थ अक्षय सुख के खजाना - भण्डार से भरपूर ऐसे अनंतज्ञान के स्वामी, अठारह दूषण से रहित तथा परमपद को प्राप्त किये विशुद्ध जीवों- श्रात्मानों की भक्ति-स्तुति इत्यादि, ये ही उच्चकक्षा की स्तवना-भावना हैं । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७ ) अन्तःकरण के एकतारे पर केवल निष्कामे की हुई प्रभुसेवा-भावना-स्तवनादिक ही आत्मा को अविचल शाश्वत सुख का सच्चा अधिकारी बनाती है। निर्मल-विशुद्ध मन से तथा प्रभुभक्ति की तान से एवं सही आत्मा के रंग से वीतराग-देवाधिदेव-जिनेश्वर भगवान प्रति सद्भावना की तरणी संसार सागर से पार उतारने में अलौकिक अनुपम आधारभूत है। विशुद्ध भावना के तार द्वारा प्रभुभक्ति में मग्न-लयलीन बनकर आत्मा उत्तरोत्तर शाश्वत दिव्य सुख का भोक्ता होता है। संसार में जन्म-मरण के परिभ्रमण से सर्वथा विमुख होता है एवं मोक्ष में सादि अनन्त स्थिति में सदाकाल महालता है। प्रस्तुत 'श्री जिनमन्दिरादि-लेखसंग्रह' प्रभु गुण रूपी अमृतमय स्रोत वाचक वर्ग के अन्तर पट में निरन्तर सदाकाल अस्खलितपने प्रवाहित हो, यही प्रात्मा की अभ्यर्थना। श्री वीर सं. २५२२ । लेखक विक्रम सं. २०५२ । प्राचार्य विजय सुशील सूरि स्थल भाद्रपद शुक्ला-१४, गुरुवार | श्री जैन धार्मिक क्रिया भवन दिनांक २६-६-६६ । खिमाड़ा (राजस्थान) 000 Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है -: प्राप्ति-स्थान : * श्री अष्टापद जैन तीर्थ सुशील विहार, वरकाणा रोड मु. रानी स्टेशन-३०६ ११५ जि. पाली (राज.) 8 ०२६३४-२२७१५ * श्री सुशील साहित्य-प्रकाशन समिति श्री गुणदयालचंद जी भंडारी राइकाबाग, पुरानी पुलिस लाइन के पास मु. जोधपुर (राज.) - ६२३८२६, ३६८२१ * श्री ननमल विनयचंद्र जी सुराणा सुशील-सन्देश प्रकाशन मन्दिर सुराणा कुटीर, रूपाखान मार्ग, पुराने बस स्टेण्ड के पास, मुकाम-सिरोही-३०७ ००.१ (राज.) 8 ०२९७२-३०३३० Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म पुस्तक-प्रकाशन में सुकृत के सहयोगी स्व. श्री कानराजजी चौपड़ा स्व. श्री सुपा देवी चौपड़ा • स्व. श्री कानराजजी चौपड़ा जन्म–संवत् १६६८ चैत्र सुदि १३ जन्म-स्थान-पचपदरा पिता स्व. श्री बछराजजी चौपड़ा निर्भीक प्रखर वक्ता, न्याति में प्रमुख, उदार एवं न्यायप्रिय गोद पिता-स्व. श्री लछमणदासजी चौपड़ा (बछराजजी के अनुज) भ्राता-श्री अमृतराजजी, श्री कुशलराजजी, श्री छगनराजजी पुत्र--श्री गणपतराजजी चौपड़ा (बी. डी. टैक्सटाइल्स, मुम्बई) पौत्र-राजेश, पंकज, पौत्री हर्षलता, नीता स्वर्गवास-संवत् २०३२ चैत्र वदि १०, दिनांक २५-३-७६ विशेषताएँ–सरल, मधुर, निश्छल, करुणाशील अनेक आध्यात्मिक गुणों से परिपूरित, दीन-दुःखियों के संकटमोचक, पारदर्शी व्यक्तित्व । स्व. श्रीमती सुपा देवी चौपड़ा जन्म-संवत् १९७१ कार्तिक सुदि १३ जन्म स्थान-जसोल, जि. बाड़मेर पिता का नाम-स्व. श्री प्रतापमलजी कोठारी (मालानी की बड़ी जागीर जसोल के प्रमुख कामदार, व्यवहार कुशलता व सेवा भावना से जन-जन में प्रिय) भाई-श्री मिश्रीमलजी कोठारी श्री सोहनराजजी कोठारी (सेवानिवत्त जिला न्यायाधीश) बहिन--श्रीमती चम्पा देवी सालेचा (श्रद्धा की प्रतिमूति) स्वर्गवास-संवत् २०३३ कार्तिक सुदि ६ विशेषताएँ-कार्यदक्ष, कर्मठ, स्वाभिमानी, स्नेहशील, उदार व्यक्तित्व > > > > > > > > > Page #11 --------------------------------------------------------------------------  Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रकाशकीय-निवेदन * 'श्रीजिनमन्दिरादि-लेखसंग्रह' नामक यह लघु ग्रन्थ प्रकाशित करते हुए हमें अतीव आनन्द की अनुभूति हो रही है । इस लघु ग्रन्थ में 'जिनमन्दिर' 'जिनमूत्ति' 'जिनदर्शन' 'जिनपूजा' 'जिनभक्ति' आदि लेखों का सुन्दर संग्रह है। इन सभी लेखों के लेखक १०८ ग्रन्थों के सर्जक पूज्य शासनसम्राट समुदाय के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. हैं। उन्होंने सरल हिन्दी भाषा में संक्षिप्त, सुन्दर आलेखन किया है। उन्हीं के विद्वान् शिष्यरत्न-सुमधुरप्रवचनकार-कार्यदक्ष पूज्य उपाध्याय श्री जिनोत्तम विजय जी गरिणवर्य महाराज के मुख्य शिष्यरत्न-ज्ञानाभ्यासी-तपस्वी पूज्य मुनिराज श्री रविचन्द्रविजयजी महाराजश्री ने इन सभी लेखों का संग्रह करके इस लघुग्रन्थ का सम्पादन कार्य भी अच्छा किया है। इस लघु ग्रन्थ के स्वच्छ, शुद्ध एवं निर्दोष प्रकाशन का कार्य डॉ. चेतनप्रकाशजी पाटनी की देखरेख में सम्पन्न हुआ है। इन सभी का हम हार्दिक आभार मानते हैं । Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * विषयानुक्रमणिका * विषय १. 'जिनमन्दिर' २. 'जिनमूत्ति' ३. 'जिनदर्शन' ४. 'जिनपूजा' ५. 'जिनभक्ति' ६. 'जिनेश्वर के जीवन की पूज्यता एवं उनके भक्तिभाव का साधन' ७. 'मूर्तिवाद का समर्थन' ८. श्री सम्प्रति महाराजा द्वारा मन्दिरों और मूर्तियों का निर्माण ६. जिनदर्शन - विधि १०. जिनदर्शन-पूजन की महिमा ११. त्रिकाल जिनपूजा-पूजन का समय १२. सकल तीर्थ - वन्दना १३. लोक में विद्यमान शाश्वत जिन चैत्यों तथा जिनबिम्बों की संख्या का निर्देश १४. प्रभु-स्तुति - - पृष्ठ संख्या १-५ ६-८ ६-१३ १४-२७ २८-५२ ५३-५७ ५८-७१ ७२-७५ ७६-६६ ६७-१०१ १०२-१०६ १०७-११० १११-१२० १२१-१२२ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) विषय १५. देव- गुरु गीत १६. आध्यात्मिक आत्मबोध गीत १७. आध्यात्मिक आत्मबोध गीत १८. प्रभु पार्श्व वन्दना १६. प्रभु प्रार्थना २०. प्रभु-स्तुति २१. श्री जिनेश्वर भगवान २२. जिनाज्ञा २३. प्रभु की मूर्ति क्या करती है। २४. श्रावक की दिनचर्या २५. श्रावक जीवन के कर्त्तव्य • वि. सं. २०४५ में अनुपम शासन प्रभावना १. श्री प्रोसियांजी तीर्थ में प्रवेश और संघमाला २. श्री गांगाणी - कापरड़ाजी तीर्थ की यात्रा ३. साथीन गाँव में प्रवेश और प्रतिष्ठा महोत्सव ४. जोधपुर में प्रवेश और नूतन ध्वजारोहण५. पाली में प्रवेश और नूतन ध्वजारोहण ६. श्री वरकारणा तीर्थ में पौष दशमी ७. श्री फतेहनगर में प्रवेश और प्रतिष्ठा महोत्सव 1 पृष्ठ संख् १२३-१२४ १२५-१२६ १२७-१२८ १२६-१३० १३१ १३२ १३३ १३६ १३८ १४१-१४३ १४४-१४८ ११ १३ १६ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) विषय पृष्ठ संख्या ८. सांचोड़ी में प्रवेश और प्रतिष्ठा महोत्सव६. कोलरंगढ़ तीर्थ में प्रवेश और श्री उपधान तप का प्रारम्भ :-... १.: खीमेल में जिनेन्द्र-भक्ति महोत्सव --. ११. रामाजी का गुड़ा में प्रवेश एवं र प्रतिष्ठा महोत्सव का प्रारम्भ १२. आउवा में प्रतिष्ठा महोत्सव .... १३. ढालोप से श्री राणकपुरजी आदि 3 पंच तीर्थों का पद यात्रा-संघ १४. सिन्दरु में महोत्सव १५. गुड़ा एन्दला में उद्यापन युक्त महोत्सव - १६. चांदराई में उद्यापन युक्त महोत्सव १७. रानी गांव में प्रवेश, पूजा एवं प्रयास १८. श्री वरकाणा तीर्थ में पूजा तथा स्वामिवात्सल्य Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमामि सव्वजिणाणं ॥ । [१] जिनमन्दिर जगत् में जैन और जैनेतरों के अनेक मन्दिर हैं। जैनमन्दिरों का शिल्प, स्थापत्य और उनकी कला इत्यादि अनेरी और अनोखी है। भारतीय संस्कृति मन्दिरों एवं तीर्थों की पवित्र भूमि है। हमारी संस्कृति के सन्देशवाहक तीर्थ तथा मन्दिर हैं। जिनमन्दिर, जिनप्रतिमा और उनकी पूजा का विधान प्रात्मोन्नतिकारक एवं आत्मविकास के अद्वितीय साधन हैं, इतना ही नहीं किन्तु धार्मिक जीवन के अनुपम लक्ष्यबिन्दु हैं तथा कालिक मलौकिक कर्तव्य रूप हैं। जिनमन्दिर प्राध्यात्मिक शुद्धि का अद्भुत केन्द्ररूप पवित्र स्थल है। जैन मन्दिरों की अनुपम महिमा का सुन्दर वर्णन करते हुए एक समर्थ विद्वान् पण्डित ने यहाँ तक कहा है कि- "श्रीजिनमन्दिर विकास-मार्ग से विमुख प्राणियों को इस मार्ग पर मागे बढ़ने के लिए अगम्य उपदेश देने वाले मूल्यवान ग्रंथ हैं । पथभ्रष्ट भवाटवी के पथिकों को राह बताने के लिए प्रकाशस्तम्भ हैं। प्राधि, व्याधि व उपाधि के त्रिविध Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) ताप से जलती हुई आत्माओं को विश्राम के लिए श्राश्रयस्थान हैं । कर्म तथा मोह के आक्रमण से व्यथित हृदयों को आराम देने के लिए संरोहिणी औषधि हैं । आपत्तिरूपी पहाड़ी पर्वतों में घटादार छायादार वृक्ष हैं । दुःखरूपी जलते दावानल में शीतल हिमकूट हैं । संसाररूपी खारे सागर में मीठे झरने हैं । सन्तों के जीवन प्राण हैं । दुर्जनों के लिये अमोघ शासन हैं । अतीत की पवित्र स्मृति हैं । वर्त्तमान के आत्मिक विलास भवन हैं । भविष्य का भोजन हैं । स्वर्ग की सीढ़ी हैं । मोक्ष के स्तम्भ हैं । नरक मार्ग में तिर्यंचगति के द्वारों के विरुद्ध शक्तिशाली अर्गला हैं ।" दुर्गम पहाड़ हैं तथा जिनचैत्यों - जिनमन्दिरों के शाश्वत और प्रशाश्वत दो विभाग, शास्त्रों में प्रतिपादित किये गये हैं । इसी तरह जिनमूर्तियों - जिनप्रतिमानों के भी शाश्वती और प्रशाश्वती दो विभाग प्रतिपादित किये हैं । विद्वान् श्रीजीवविजयजी महाराज द्वारा गुर्जर भाषा में 'सकलतीर्थवन्दना' नामक स्तोत्र रचा गया है । 'श्री तीर्थवन्दना सूत्र' रूप में उसकी प्रसिद्धि है । प्रतिदिन प्रातः राइय प्रतिक्रमण में चतुर्विध संघ [ साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका ] उसे बोलकर तीनों लोकों में रहे हुए शाश्वत - प्रशाश्वत जिनचैत्यों की एवं जिनमूर्तियों की वन्दना करते हैं । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शाश्वत जिनमन्दिरों तथा जिनमूत्तियों की संख्या निम्नलिखित है + देवलोक-संख्या 9 (१) सौधर्म देवलोक में-बत्तीस लाख (३२०००००). (२) ईशान देवलोक में-अट्ठावीस लाख (२८०००००) (३) सनत्कुमार देवलोक में-बारह लाख (१२०००००) (४) माहेन्द्र देवलोक में -आठ लाख (८०००००) -(५) ब्रह्मदेवलोक में चार लाख (४०००००) (६)लान्तक देवलोक में-पचास हजार (५००००) (७) महाशुक्र देवलोक में-चालीस हजार (४००००) (८) सहस्रार देवलोक में-छह हजार (६०००) (९) प्राणत देवलोक में-चार सौ (४००) (१०) प्राणत देवलोक में-चार सौ (४००) (११) पारण देवलोक में-तीन सौ (३००) (१२) अच्युत देवलोक में-तीन सौ (३००) . उक्त इन बारह देवलोक में रहे हुए चैत्यों की संख्या चौरासी लाख छन्नू हजार सात सौ (८४९६७००) है। Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * शाश्वत चैत्य-शाश्वती मूलियाँ *. कुल--- ८४६६७००x१८०=....१५२६४०६००० नवग्रेवेयक...................... ३१८) पांच अनुत्तर.......................५) x १२०=..............३८७६० भवनपति.......७७२०००००x१८०= १३८६६०००००० ति_लोक ..........३१९६४ १२०) १ नंदीश्वरद्वीप) -- )= ........३६१३२० रुचकद्वीप).......६०x१२४) कुण्डलद्वीप) जिनचैत्य- कुल मूत्तियां८,५७,००,२८२ १ ५,४२,५८,३६,०८० शाश्वत जिनमन्दिरों की तथा शाश्वत जिनमत्तियों की उक्त संख्या जाननी। [गाथा १ से १० तक में] . तदुपरान्त-प्रशाश्वत जिनमन्दिर और जिनमूत्तियों के सम्बन्ध में कहा है कि- . समेतशिखर बंदूं जिनवीश , अष्टापद वंदं चौवीश । विमलाचल ने गढ़ गिरनार , प्राबू ऊपर जिनवर जुहार ॥११॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शंखेश्वर केसरियो सार , तारंगे श्री अजित जुहार । अंतरिक वरकारपो पास , . जीरावलो ने थंभरण पास ॥१२॥ गाम नगर पुर पाटण जेह , . जिनवर चैत्य नमूं गुणगेह । विहरमान वंदूं जिन वीश , - सिद्ध अनन्त नमूं निशदीश ॥१३॥ इस प्रकार तीनों लोकों में रहे हुए शाश्वत प्रशाश्वत तीर्थों की तथा जिनमूर्तियों की वन्दना की जाती है । इससे यह सिद्ध होता है कि-लोक में जिनमन्दिर एवं जिनमत्तियाँ भूतकाल में विद्यमान थे। वर्तमान काल में भी विद्यमान हैं तथा भविष्यत्काल में भी विद्यमान रहेंगे। इसलिए जिनमन्दिर और जिनमूत्तियां महर्निश दर्शनीय, वन्दनीय-नमस्करणीय एवं सर्वदा पूजनीय हैं। श्रीवीर सं.-२५१५ विक्रम सं.-२०४५ कार्तिक [मागशर] वद-५ स्थान : . सोमवार जैन धर्मशाला, दिनांक-२८-११-८८ मु.-प्रोसियां तीर्थ [संघमाला का दिन] Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है [२] जिनमुत्ति 4 . जगत् में अनेक देवों की मूर्तियाँ देखने में आती हैं। देवाधिदेव वीतराम श्री जिनेश्वर भगवन्त की मूर्ति अन्य सभी देवों से न्यारी, अनेरी और अनोखी लगती है । कारण यह है कि-श्री जिनेश्वर भगवान के अनन्त गुणों का स्मरण तथा सद्ध्यान करने के लिए पवित्र ऐसे जिनमन्दिरों में विधिपूर्वक जिनमूत्ति-जिनप्रतिमाओं की स्थापना की गई है। उनका दर्शन करने के साथ ही साक्षात् वीतराग विभु-जिनेश्वर देव के अनेक गुण याद माते हैं। ... ____ अन्य देवों की मूत्तियों में राग के साधन, द्वष के साधन और मोह के साधन देखने में आते हैं। जैसेकिसी के हाथ में शस्त्रादि, नयन-नेत्र में विकृति, पैर से शत्रु का दमन तथा पास में नारी-स्त्री इत्यादि । __जिनेश्वर भगवन्त की मूत्तियों में न राग के साधन हैं, न द्वष के साधन हैं, न मोह के साधन हैं और न अन्य किसी प्रकार की विकृति-विकार के साधन हैं। इसीलिए तो कहा है कि Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशमरसनिमग्नं हष्टियुग्मं प्रसन्न । वदनकमलमङ्क - कामिनी- सङ्गशून्यम् ॥ करयुगमप्रियते शस्त्रसम्बन्धवन्धं । तदसि जगति देव वीतरागस्त्वमेवम् ॥१॥ अर्थ-जिनके दोनों नेत्र प्रशमरस से निमग्न हैं, मुखरूपी कमल प्रसन्न है, उत्संग स्त्री के संग से शून्य है, दोनों हाथ शास्त्र के सम्बन्ध से रहित हैं, ऐसे विश्व के देव वीतराग तुम ही हो। (१) अपने आत्मिक विकास के लिए विश्वजीवों के अनन्त, उपकारी तथा निष्कारण विश्वबन्धु ऐसे जिनेश्वर भगवान तीर्थंकर परमात्मा की यथाशक्ति अनुपम सेवा-भक्ति करना, मेरा परम कर्तव्य है। प्रभु की प्रशान्त मुद्रा को देखकर मेरे शरीर की साढ़े तीन करोड़ रोमराजि विकस्वर हो जाती है, मेरा मन-मयूर नाच उठता है तथा अन्तःकरण में शुभ भावना उत्पन्न होती है । ऐसे देवाधिदेव वीतराग विभु जिनेश्वर देव की भव्य मूत्ति के मैं अहर्निश दर्शन एवं पूजनादिक करूं । तथा भवसिन्धु को पार कर मोक्ष के शाश्वत सुख को प्राप्त करूं, यही भावना है। न्यायाचार्य न्यायविशारद Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६ ) महामहोपाध्याय श्रीमद् यशोविजयजी महाराज ने स्वरचित 'प्रतिमाशतक' नामक ग्रन्थ में कहा है किमोहोदामदवानलप्रशमने पाथोदवृष्टिः शमस्रोतानिझरिणी समीहितविधौ कल्पद्रुवल्लिः सताम् । संझारप्रबलान्धकारमथने मार्तण्डचण्डद्युतिजनीत्तिरुपास्यतां शिवसुखे भव्याः पिपासास्ति चेत् ॥ अर्थ-हे भव्यात्मायो ! जो तुम्हें मोक्ष के सुख प्राप्त करने की इच्छा हो तो तुम जिनेश्वर भगवान की मूर्ति की उपासना करो। जो मूत्ति मोहरूपी दावानल को शान्त करने में मेघवृष्टि रूप है, जो समतारूपी प्रवाह देने के लिए सरिता-नदी है, जो सत्पुरुषों को वांछित देने में कल्पलता है, तथा जो भवरूपी. प्रबल अन्धकार का नाश करने में सूर्य की तीव्र प्रभारूप है। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है [३] जिनदर्शन तरण-तारण तीर्थंकर परमात्मा-जिनेश्वर भगवान की स्थापना निक्षेप रूप जिनमूत्ति-जिनप्रतिमा-जिनबिम्ब के दर्शन एवं पूजन का एक मात्र ध्येय श्री तीर्थंकर भगवन्त के स्वरूप को प्राप्त करना होता है। इसलिए साक्षात् तीर्थंकर-जिनेश्वर भगवन्त के अभाव में जिनमूत्ति ही परम आधारभूत श्रेयस्कर है। "इस पाँचवें पारे में प्रभु की मूत्ति-प्रतिमा मेरे लिए तो साक्षात् प्रभु ही है। विश्व के जीवों पर असीम उपकार करने वाली है।" इत्यादि शुभ भावनाओं से अपने मन को सुवासित करके जिनदर्शनार्थ एवं जिनपूजनार्थ अहनिश जिनमूत्ति-जिनप्रतिमाजी के पास जाना चाहिए। तथा दर्शन-पूजन का लाभ लेना ही चाहिए। जिनदर्शन से क्या-क्या लाभ होता है ? शास्त्रकारों ने कहा है किवर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम् ।। दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम् ॥ १॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) अर्थ-देवों के भी जो देव हैं ऐसे देवाधिदेव [ जिनेश्वर भगवान ] के दर्शन पाप का नाश करने वाले हैं, स्वर्ग यानी देवलोक के सोपान हैं, तथा मोक्ष के साधन हैं ||१|| दर्शनेन जिनेन्द्राणां साधूनां वन्दनेन च । " न तिष्ठति चिरं पापं, छिद्रहस्ते यथोदकम् ।। २ ।। अर्थ - जिनेश्वरों के दर्शन से और गुरुत्रों के वन्दन से चिरकाल के पाप नष्ट हो जाते हैं । जैसे हाथ के छिद्र में जल - पानी नहीं ठहरता है, उसी तरह पाप भी नहीं । ठहरते हैं ||२|| पुन: श्रद्य मे सफलं जन्म, श्रद्य मे सफलं क्रिया । शुद्धाद् दिनोदये देव, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ॥ ३ ॥ अर्थ- हे जिनेन्द्र भगवन् ! आपके दर्शन से मेरा जन्म सफल हो गया, मेरी क्रियाएँ सफल हो गईं, और हे देव ! श्राज शुद्ध दिन का उदय हुआ । अर्थात् पूर्णतया आज मेरा दिन कल्याणकारी उदय हुआ है ||३॥ पुनरपि - अद्य मिथ्यान्धकारश्च हतो ज्ञानदिवाकरः । उदेति स्म शरीरेऽस्मिन्, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ॥ ४ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अर्थ-हे जिनेन्द्र देव ! आपके दर्शन से मेरा अज्ञानरूपी अन्धकार नष्ट हो गया, तथा ज्ञानरूपी प्रकाश हो गया है ।।४।। यतःअद्य मे क्षालितं गात्रं, नेत्रे च विमले कृते । स्नातोऽहं धर्मतीर्थेषु, जिनेन्द्र ! तव दर्शनात् ॥५॥ अर्थ-हे जिनेन्द्र प्रभो ! आपके दर्शन से मानो मैंने धर्मतीर्थ स्थान में स्नान किया है। जिससे मेरे नेत्र पवित्र हो गये हैं, तथा शरीर का मैल धुल गया है ।।५।। इस तरह से जो भव्यात्मा अपनी चित्तप्रवृत्ति को एकाग्र करके दर्शन करता है, वह समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। उसकी आत्मा पवित्र बनती है और वह स्वर्गापवर्ग के सुख भी पाता है। इसलिए वीतराग जिनेश्वर भगवान के दर्शनादि अहर्निश अवश्य ही करने चाहिए। उपर्युक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि "जिनमूत्तिजिनप्रतिमा' आत्म-साधना के लिए असाधारण अचूक साधन है। इसके दर्शन, पूजन एवं भक्ति इत्यादि माहात्म्य के लिए श्री भक्तामर स्तोत्र और श्री कल्याण Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) मन्दिर स्तोत्रादिक में भक्ति-भावों का कितना सुन्दर वर्णन किया है ! जो भव्यात्मा-भव्यप्राणी जिनमूत्ति-जिनप्रतिमा की अनुपम भक्ति अर्थात् श्री तीर्थंकर भगवन्तों की अनुपम आराधना करता है, वह अवश्य ही मोक्ष-सुखों को प्राप्त कर सकता है। जिनमन्दिर में जब दर्शन-पूजन करने को जाते हैं तब जिनेश्वर भगवान की मूत्ति-प्रतिमा के सम्मुख ‘नमुत्थुणं अरिहंताणं भगवंताणं' इत्यादि कहकर तीर्थंकर भगवंतों की अनुपम भक्ति की जाती है। जैसे जिनेश्वर भगवान की अनानुपूर्वी के प्रकों पर से अङ्क १ से 'नमो अरिहंताणं' कहते हैं, अङ्क २ से 'नमो सिद्धाणं' कहते हैं, अङ्क ३ से 'नमो आयरियारणं' कहते हैं, अङ्क ४ से 'नमो उवज्झायारणं' कहते हैं, तथा अङ्क ५ से 'नमो लोए सव्वसाहूरणं' कहते हैं। इन सभी को नामोच्चारण युक्त नमस्कार करके पञ्च परमेष्ठी की अनुपम भक्ति और उपासनाआराधना की जाती है। कारण कि, यहाँ पर पञ्च परमेष्ठियों की अङ्कों के स्वरूप में स्थापना की गई है । वैसे ही इधर भी जिनमूत्ति-जिनप्रतिमा के रूप में साक्षात् जिनेश्वर भगवान की वीतराग परमात्मा की स्थापना करके श्री तीर्थंकर प्रभु की उपासना करते हैं। Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३ ) जिनमूर्तियाँ, जिनमन्दिर एवं जैनतीर्थं इनके दर्शनपूजन सम्यक्त्व की शुद्धि, सम्यक्त्व की प्राप्ति तथा सम्यक्त्व की दृढ़ता के लिए कारण माने गये हैं । श्री श्राचाराङ्ग, श्रावश्यक इत्यादि श्रागमसूत्रों तथा नियुक्तियों श्रादि में प्राज भी इन स्थावर तीर्थों का निर्देश मिलता है । इससे स्पष्ट है कि जिनमूर्तियों, जिनमन्दिरों तथा जैनतीर्थों के दर्शन-पूजन आदि का लाभ अहर्निश प्रवश्य ही लेना चाहिए । श्रीवीर सं.- २५१५ विक्रम सं.- २०४५ मागशर सुद-६ बुधवार दिनांक - १४-१२-८८ [ श्री कुन्थुनाथ जिन मन्दिर प्रतिष्ठा दिन ] 卐 00 जैन भवन मु. साथीन वाया - पीपाड़ शहर जिला - जोधपुर राजस्थान (मारवाड़) Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] जिनपूजा Lowwwwwwwwwww पूर्वजन्म के पुण्य से, मिला जिनधर्म महान् । इस भव जिनेन्द्र पूजिए, परभव सुख महान् ॥ १॥ अनादि काल से इस संसार में परिभ्रमण करते हुए प्राणी ने पूर्व जन्म के प्रबल पुण्य से इस भव में मनुष्यजन्म पाया। पार्यक्षेत्र, उत्तम कुल, उत्तम जाति तथा सर्वोत्तम जैनधर्म भी साथ में मिला। जो आत्मा देवाधिदेव वीतराग श्री अरिहन्त भगवन्त की मूतिप्रतिमाओं को साक्षात् वीतराग श्री अरिहन्त स्वरूप समझ कर अर्थात् मानकर अपने अन्तःकरण में प्रभु के प्रति राग (स्नेह-प्रेम) रखकर विधियुक्त भक्तिभाव और बहुमानपूर्वक पूजता है, वह आत्मा परभव में सद्गति और उत्तम सुख को प्राप्त करता है। इतना ही नहीं किन्तु मोक्ष के शाश्वत अनन्त सुख को भी क्रमशः प्राप्त कर सकता है । अपने पूर्वजों द्वारा निर्मित ये सभी अद्भुत कारीगरी वाले विशालकाय जिनमन्दिर, जिनचैत्य अपन को और Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १५ ) अपनी सद्भावनाओं को सतेज रखने के लिए निमित्त भूत हैं। इन जिनमन्दिरों - जिनचैत्यों में प्राणप्रतिष्ठित की हुई श्रीजिनेश्वर देवों की मनोहर भव्य मूत्तियों प्रतिमानों के दर्शन, वन्दन एवं पूजन से आत्मा अनन्त शान्ति का अनुभव करती है । आज भी इस अवसर्पिणी के पंचम श्रारे में सैकड़ोंहजारों-लाखों-करोड़ों ग्रात्माएँ अपने हृदय में विविध प्रकार से अनुपम श्रद्धा रखकर देवाधिदेव श्रीजिनेश्वर भगवन्तों की मूर्तियों प्रतिमाओं को पूजती हैं । प्रभु के नौ अंग की पूजा करती हैं । कोई श्रात्मा जिनमूर्ति प्रतिमा के दर्शन से तृप्ति पाती है, कोई आत्मा गीतनाद और नृत्यादिक से, प्रभु की अनुपम भक्ति करके अनंत सुख का अनुभव करती है । । अंगपूजा, अग्रपूजा और भावपूजा इस प्रकार प्रभु की पूजा तीन प्रकार की है । इनमें प्रभु की मूर्ति पर पुष्पादिक चढ़ाने से अंगपूजा होती है । प्रभु के सम्मुख फल-नैवेद्य इत्यादि रखने से अग्रपूजा होती है | के आगे स्तुति - प्रार्थना, स्तवन इत्यादि करने से भावपूजा होती है । तथा प्रभु Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) (अ) अंगपूजा-जलाभिषेक से, फूल-पुष्पों से तथा अलंकार-प्राभूषणों से, इस तरह तीन प्रकार से होती है । चन्दन-केसरपूजा तथा वासक्षेप पूजा इस अंगपूजा के अन्तर्गत आ जाती है। (१) जलपूजा-केसर के जल से, कर्पूर के जल से पुष्पों के जल से और निर्मल सामान्य जल से इस तरह चार प्रकार से होती है। (२) पुष्पपूजा-अत्यन्त सुगन्धित ऐसे गुलाब आदि कमल, चंपा, चमेली तथा मोगरा-मालती इत्यादि पुष्पों से गूंथकर बनाई हुई मालाओं यानी हारों से होती है। बिखरे हुए फूलों-पुष्पों से भी पुष्पपूजा होती है । (३) आभूषणपूजा-मुकुट, कुण्डल तथा रत्न जड़ित हार इत्यादिक से होती है। (प्रा) अग्रपूजा-धूप, दीप, पंखा, चामर, अक्षत, फल तथा नैवेद्य इत्यादि द्वारा होती है। . (इ) भावपूजा-स्तुति-स्तवन इत्यादि द्वारा होती है। वह तीन प्रकार की है। (१) जघन्यभावपूजा, (२) मध्यम भावपूजा तथा (३) उत्कृष्ट भावपूजा । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । १७ ) (१) जघन्य भावपूजा-"नमो जिणाणं" बोलकर प्रभु की स्तुति करना। बाद में तीन खमासमण देकर 'अरिहंत चेइयाणं' तथा अन्नत्थ० बोलकर एक नवकार का काउसग्ग करके स्तुति बोलना। यह जघन्य भावपूजा है। (२) मध्यम भावपूजा-प्रभु की अष्टप्रकारी पूजा करने के पश्चात् वर्तमान में चैत्यवन्दन किया जाता है। इरियावहि कर चैत्यवन्दन नमुत्थुणं स्तवन तथा जयवीयराय आदि के बाद एक नवकार काउसग्ग करके स्तुति बोली जाती है। यह मध्यम भावपूजा है । (३) उत्कृष्ट भावपूजा-तीन चैत्यवन्दन, पाँच बार नमुत्थुणं स्तवन तथा पाठ थोय से देववन्दन किया जाता है। यह उत्कृष्ट भावपूजा है । द्रव्यपूजा करते हुए भाव उत्पन्न होता है। इसलिए भावपूजा में चैत्यवन्दन, स्तवन और स्तुति बोली जाती है। यह पूजा अष्टप्रकारी, सतरह प्रकारी तथा इक्कीस प्रकारी इत्यादि अनेक प्रकार से होती है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १८ ) इस तरह जानकर सद्भाग्यशाली पुण्यवन्त धर्मात्माओं को, धर्मी जीवों को तथा धर्मानुरागियों को अपने जीवन को पवित्र एवं सफल करने के लिए तथा धन्य बनाने के लिए प्रतिदिन प्रभुपूजा-जिनपूजा विधिपूर्वक अवश्य ही करनी चाहिए। जो भव्य संसार की समस्त प्रकार की पोद्गलिक अभिलाषा प्राशा रहित सिर्फ अपने अष्टकर्मों के क्षय और मोक्ष के शाश्वत अनन्त सुख की प्राप्ति के लिए जलादि अष्टप्रकारों से विधिपूर्वक प्रभुपूजा-जिनपूजा करता है, वह विश्व से भी वन्दनीय होता है। इतना ही नहीं, किन्तु अपने सकल कर्मों का क्षय करके मोक्ष के शाश्वत सुख को भी प्राप्त करता है। इसलिए भव्यात्माओं को अपने कल्याण के लिए प्रतिदिन जिनेश्वरदेव की विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिए। अर्हत् पूजा करने से पूजक को बहुत ही लाभ होता है। अनेक प्रकार की आई हुई आपत्तियाँ मिट जाती हैं और अनेक प्रकार की ऋद्धियाँ प्राप्त होती हैं । इसके समर्थन में विद्वान् श्री सोमप्रभाचार्य महाराज ने सिन्दूरप्रकरण नामक ग्रन्थ में कहा है कि Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १६ ) पापं लुम्पति दुर्गति दलयति व्यापादयत्यापदं । पुण्यं संचिनुते श्रियं वितनुते पुष्णाति नीरोगताम् । सौभाग्यं विदधाति पल्लवयति प्रीति प्रसूते यशः । स्वर्ग यच्छति निर्वृति च रचयत्यहितां निर्मिता ॥६॥ अर्थ-श्री अरिहन्त परमात्मा की की हुई पूजा पाप को काट देती है, दुर्गति को मिटा देती है, आपत्ति को विनष्ट करती है, पुण्य को एकत्र करती है, लक्ष्मी की वृद्धि करती है, आरोग्य को पुष्ट करती है, सुख को देने वाली है, सन्मान-प्रतिष्ठा को बढ़ाती है, प्रीति बढ़ाती है, स्वर्ग देती है एवं मुक्ति-मार्ग को बनाती है ।। ६ ।। स्वर्गस्तस्य गृहाङ्गणं सहचरी साम्राज्यलक्ष्मीः शुभा । सौभाग्यादि-गुणावलिविलसति स्वरं वपुर्वेश्मनि ॥ संसारः सुतरः शिवं करतल-क्रोडे लुठत्यंजसा । यः श्रद्धाभर-भाजनं जिनपतेः पूजां विधत्ते जनः ॥१०॥ अर्थ-जो मनुष्य श्रद्धा युक्त चित्त से जिनेश्वर भगवान की पूजा करता है उसके घर का प्राङ्गन सर्वांग स्वर्ग के समान हो जाता है तथा कल्याण को करने वाली साम्राज्यरूपी लक्ष्मी उसके साथ रहने वाली स्त्री के समान हो जाती है एवं उसके अंग शरीर रूपी गृह में सौभाग्य तथा सम्पत्ति इत्यादि गुणों की पंक्ति होकर Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २० ) विलसती है। संसाररूपी समुद्र सुख से रहने योग्य हो जाता है तथा श्रेय साधनरूपी मुक्ति शीघ्र उसके करतल यानी हथेली में लौटने लग जाती है ।। १० ।। श्रीबृहच्छान्ति (बड़ी शान्ति) स्तोत्र में भी कहा है कि उपसर्गाः क्षयं यान्ति, छिद्यन्ते विघ्नवल्लयः । मनः प्रसन्नतामेति, पूज्यमाने जिनेश्वरे ॥ अर्थ-श्री जिनेश्वर प्रभु की पूजा करने से उपसर्गों का क्षय होता है, विघ्नवल्लरियाँ नष्ट हो जाती हैं तथा मन प्रसन्नता का अनुभव करता है । जिनपूजा के सम्बन्ध में और समर्थन में अनेक श्लोक तथा अनेक शास्त्रीय पाठ इत्यादि आज भी पागमशास्त्रों में विद्यमान हैं। जिनपूजा करने में चाहे पुरुष हो, चाहे स्त्री हो दोनों का समान हक है। (१) पाँच भरत क्षेत्र और पाँच ऐरावत क्षेत्र मिलकर दस क्षेत्रों में ५० कल्याणकों को गिनने पर जिनेश्वर भगवन्तों के ५०० कल्याणकों का उत्सव Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २१ ) जिन्होंने अपने देव भव में देवों के साथ किया तथा श्रीनन्दीश्वरद्वीप इत्यादि स्थलों में शाश्वत जिनबिम्बों की पूजा स्वयं अपने हाथों से की, ऐसे श्रीपार्श्वनाथ प्रभु ने अपने देव भव में ५०० तीर्थंकर भगवन्तों की पूजा भक्ति की। ऐसा अलौकिक प्रबल पुण्य उपार्जित कर इस अवसर्पिणी काल में वे तेईसवें तीर्थंकर पुरुषादानी श्रीपार्श्वनाथ भगवान सारे विश्व में प्रसिद्धि को प्राप्त (२) श्रीकुमारपाल महाराजा ने अपने पूर्व भव में पाँच कोडि का फूल भगवान को चढ़ाकर श्रीजिनेश्वरदेव की भक्ति की थी, जिसके फलस्वरूप वे अठारह देशों के महाराजा हुए। (३) श्रीपाल और मयणा विवाह-लग्न के दूसरे दिन श्री जिनेश्वर भगवान के मन्दिर में श्रद्धापूर्वक दर्शन कर प्रभु की स्तुति द्वारा भावपूजा करते हैं। उस समय अधिष्ठायक देव की सहायता से मयरणा को हार और श्रीपाल को बीजोरा मिलता है। इतना ही नहीं किन्तु श्रीसिद्धचक्र भगवन्त की विधिपूर्वक अाराधना से श्रीपाल का कोढ़ का रोग भी चला जाता है । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २२ ) (४) श्री नलराजा की रानी सती दमयन्ती ने श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा की थी, जिससे उसको सुख की प्राप्ति हुई। (५) पाण्डवों की पत्नी सती द्रौपदी ने भी जिनपूजा करके सम्यक्त्व-समकित को पुष्ट किया था। ऐसे अनेक उदाहरण प्रागम-शास्त्रों में मिलते हैं। इसीलिए तो कहा है कि"जिनप्रतिमा जिण सारखी जाणो, न करो शङ्का कोई।" इस प्रकार के उद्देश्य को ध्यान में रखकर अहर्निश अवश्य ही जिनेश्वर भगवान की त्रिकाल पूजा धर्मीजीवोंधर्मात्माओं को करनी चाहिए । जिनपूजा का फल प्रागम-शास्त्रों में स्थान-स्थान पर देवाधिदेव श्री जिनेश्वर भगवान की पूजा करने का विधान है। वह तीन प्रकार की है। प्रातःकाल की पूजा, मध्याह्न काल की पूजा और सायंकाल की पूजा। (१) प्रातःकाल की पूजा : प्रातःकाल की पूजा के लिए श्रावक एवं श्राविका सूर्योदय से डेढ़ घंटे पूर्व उठकर एक सामायिक और राई Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २३ ) प्रतिक्रमण करें। पश्चाद् हाथ, पैर तथा मुख इत्यादि साफ करके और शुद्ध वस्त्र धारण करके जिनमन्दिर जाने के लिए जब पैर उठावें तब सूर्योदय हो जाना चाहिए । मार्ग में चलते हुए जयणा पूर्वक जीवों की रक्षा करते हुए तथा यथास्थान दस त्रिकों का भी पालन करते हुए जिनमन्दिर में प्रवेश करें। देवाधिदेव वीतराग श्रीजिनेश्वर भगवान की तीन प्रदक्षिणा देवें और भाववाही स्तुति करें। बाद में उत्तम प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से प्रभु की वासक्षेप-पूजा करें। उसके पश्चाद् धूपपूजा तथा दीपकपूजा करके चैत्यवन्दन करें। तत्पश्चाद् यथाशक्ति नौकारसी आदि का पच्चक्खाण ग्रहण करें। यह प्रातःकाल की जिनपूजा कही जाती है । (२) मध्याह्न काल की पूजा : ___मध्याह्न काल में श्रावक एवं श्राविका भोजन करने के पूर्व जयणापूर्वक स्नान करके पूजा के लायक उचित वस्त्र पहनकर प्रष्ट प्रकार के पूजा के द्रव्य ग्रहण करके जिनमन्दिर में आते हैं तथा प्रभु की भक्ति-बहुमानपूर्वक द्रव्यपूजा और भावपूजा करते हैं। यह मध्याह्नकालीन पूजा कही जाती है। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २४ ) (३) सायंकालीन पूजा : ___ सूर्यास्त के दो घड़ी (४८ मिनिट) पूर्व सायंकालीन भोजन कार्य पूर्ण करने के पश्चात् जिनमन्दिर प्राकर प्रभु के दर्शन, नमस्कार-प्रणाम, प्रदक्षिणा और स्तुति इत्यादि करके धूप-दीप जलाते हैं। तत्पश्चात् चैत्यवन्दन तथा सायंकालीन पच्चक्खाण करते हैं। बाद में जैन उपाश्रय में जाकर देवसि प्रतिक्रमण किया जाता है । इस तरह श्रीजिनेश्वर भगवान की त्रिकाल पूजा धर्मी जीवों को अवश्यमेव करनी चाहिए । __ त्रिकाल पूजा के फल के सम्बन्ध में श्रीधर वणिक की कथा नीचे प्रमाणे है * (१) श्रीधरवरिणक की कथा * गजपुर नाम का एक नगर था। वहाँ पर धर्मनिष्ठ श्रीधर नाम का एक वणिक रहता था। वह प्रतिदिन जिनमन्दिर में दर्शनार्थ जाता था। एक दिन वह जैन मुनियों के मुख से जिनपूजा का फल सुनकर प्रतिदिन जिनपूजा करने लगा। एक दिन श्रीधर धूपपूजा कर रहा था। उस समय उस ने ऐसा अभिग्रह लिया कि जब तक यह सलगता Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २५ ) और सुगन्ध देता हुआ धूप सम्पूर्णपने राख नहीं हो जाता तब तक मैं घर नहीं जाऊंगा, यहीं खड़ा रहूंगा । वहाँ पर ऐसा चमत्कार हुआ कि एक भयंकर विषधर - सर्प वहाँ आ गया उसको देखता हुआ श्रीधर भी निर्भयपने वहाँ पर स्थिर खड़ा ही रहा । उस समय क्रोधायमान विषधर - सर्प श्रीधर के पैर पर डसने के लिए आगे बढ़ा तभी वहाँ एक आश्चर्यकारी चमत्कार हुआ । तत्काल शासनदेवता ने उस विषधरसर्प को खूब दूर फेंक दिया और श्रीधर के हाथ में एक दिव्यरत्न रख दिया कालान्तर में उस दिव्यरत्न के प्रभाव से श्रीधर श्रीमन्त करोड़पति श्रेष्ठी हुआ । एक दिन श्रीधर श्रेष्ठी ने लोगों के मुख से सुना कि कामरूप नाम के यक्ष की पूजा करने से सर्ववांछित फल मिलता है, सभी अभीष्ट प्राप्त होता है । यह सुनकर श्रेष्ठी श्रीधर भी लोभ के वश होकर उस कामरूप यक्ष की पूजा करने लगा तथा अन्य देव - देवियों की भी पूजा और प्रार्थना करने लगा । एक दिन श्रेष्ठी श्रीधर के घर में चोरों ने आकर सब धन लूट लिया । इससे श्रीधर धनहीन बन गया । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) उसका व्यापार भी बन्द हो गया । भी मुश्किल हो गई । आजीविका के लिए अन्त में, श्रीधर ने श्रम का तप करके शासनदेवी की आराधना की । उससे देवी ने प्रत्यक्ष होकर कहा कि- "मुझे कैसे याद किया ?" जिनपूजा करनी छोड़कर अन्य देव - देवियों की आराधना करने वाले हे श्रीधर ! जा, उनके पास प्रार्थना कर और सहायता की याचना कर ।" ऐसा कहकर और गुस्से में श्राकर शासनदेवी वहाँ से अदृश्य हो गई । इससे श्रीधर घबरा गया और मूढ़ बन गया । उसने पुनः साहस कर शासनदेवी की आराधना की । उससे शासनदेवी ने पुनः प्रत्यक्ष दर्शन दिया और श्रीधर को पुनः जैनधर्म में सुदृढ़ किया । अब श्रीधर भी अन्य सब देव-देवियों को छोड़कर सिर्फ देवाधिदेव वीतराग श्रीजिनेश्वर परमात्मा की अहर्निश त्रिकालपूजा करने लगा । उसके प्रभाव से फिर Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २७ ) श्रीधर श्रेष्ठी करोड़ों सोना मोहर का स्वामी बना। अन्त में, मृत्यु पाकर सद्गति को प्राप्त हुआ। श्रीवीर सं. २५१५ विक्रम सं. २०४५ पौष (महा) वद-५ शुक्रवार, दिनाङ्क २७-१२-१९८६ [श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनमन्दिर प्रतिष्ठा दिवस] जैन धर्मशाला मु. फतहनगर जिला-उदयपुर 00 Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [५] जिनभक्ति जिनेभक्तिजिनेभक्ति - जिनेभक्तिदिने दिने । सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु सदामेऽस्तु भवे भवे ॥१॥ - शास्त्र में शास्त्रकार महर्षियों ने महापुरुषों ने मोक्ष की साधना के लिए भक्ति प्रादि तीन योग बतलाये हैं, उनके नाम हैं- भक्तियोग, ज्ञानयोग और कर्मयोग | इन तीन योगों की साधना रत्नत्रयी की सम्यग् आराधना स्वरूप है । उनमें भक्तियोग की प्रधानता मुख्य रूप में है । कारण कि, ज्ञान और चारित्र की सफलता का श्राधार भी सम्यग्दर्शन ही है । । विनय का ही एक प्रकार भक्ति है । भक्ति से मुक्ति सुलभ है । इसलिए कहा है कि- 'भक्ति बिना नहि मुक्ति रे० ' जो व्यक्ति सुदेव और सुगुरु के प्रति भक्ति- बहुमान से समर्पित हो जाता है, उसके लिए तो मुक्ति हाथ में श्रर्थात् हथेली पर है । कर्म के ताप से संतप्त हुई आत्मा को शान्ति के लिए प्रभु की अनुपम भक्ति तीर्थों के जलस्नान से अर्थात् शत्रु जय गंगा आदि के जलस्नान से भी अधिक श्रेष्ठ बढ़कर है । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २६ ) * 'प्रभुभक्ति-जिनभक्ति तो मुक्ति की महान् दूती है।' * 'परमात्मा की भक्ति अपनी आत्मा के लिए तो जनरल टॉनिक है।' * जगत् में श्रेष्ठमार्ग भक्तिमार्ग है। कारण कि वह ज्ञानमार्ग और योगमार्ग अर्थात् ध्यान मार्ग से भी सरल और सुगम है। क्योंकि, भक्ति के आराधक के पास सद्गुरु का श्रेष्ठ बल है। उसको तो दृढ़ श्रद्धा पूर्वक तन, मन और धन इन तीनों को सद्गुरु के प्रति न्योछावर करके समर्पित हो जाने का है तथा उनके बताये हुए मार्ग पर चलने का है । ज्ञान और क्रिया ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। भक्ति प्रेमरूप बिना ज्ञान शून्य ही है तथा ज्ञानी महापुरुष के चरण-कमल में मन को स्थापित किये बिना वह मार्ग सिद्ध नहीं होता है। __ ज्ञानी महापुरुषों के चरण-कमलों में सर्वभाव समर्पित करके उनकी प्राज्ञा का पाराधन-पालन अवश्य ही करना चाहिए तथा भक्ति करने में किसी भी प्रकार की स्पृहा नहीं होनी चाहिए, न रखनी चाहिए। शास्त्र में भी कहा है कि-"आणाए धम्मो प्राणाए तवो" अर्थात्-प्राज्ञा Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का पाराधन यही धर्म है और प्राज्ञा का पाराधन यही तप है। जहाँ-जहां भक्ति द्वारा भक्तों ने प्रभु के प्रति प्रीति जोड़ी है, प्रेम-स्नेह रखा है वहाँ-वहाँ उन्होंने परम दर्शन प्राप्त किये हैं जैसे (१) प्रभु श्री महावीर और चन्दनबाला का प्रसंगअट्ठम के तप वाली चन्दनबाला पैरों में बेड़ियाँ, एक पांव देहरी के बाहर और एक पाँव भीतर, हाथ में सूपड़ा और उसके कोने में उड़द के बाकुले तथा मुण्डित मस्तक । ऐसी विषम परिस्थिति में भी चन्दनबाला मूला सेठाणी को दोष नहीं देती हुई प्रभु का स्मरण कर रही है। उसी समय पांच मास और पच्चीस दिन के उपवासी तथा अभिग्रहधारी प्रभु महावीर वहाँ पधारे और अपूर्णता देखकर वापिस जाने लगे। फिर चन्दनबाला के नेत्रों में से गिरते हुए अश्रुबिन्दु देखकर और अपना अभिग्रह पूर्ण होते देखकर पुनः पधारे। उड़द के बाकुला वहोर चन्दनबाला को कृतकृत्य कर दिया और धर्मतीर्थ की स्थापना के समय पर भी चन्दनबाला को मुख्य साध्वी पद पर स्थापित किया। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३१ ) (२) मीराबाई का प्रसंग-भक्ति और भजन में मग्नलीन ऐसी मीराबाई भी प्रेमदीवानी थी। एक दिन मीरां ने शिशु अवस्था में-बचपन में अपनी माता को वर के विषय में पूछा। तब माताजी ने श्रीकृष्णजी को श्रेष्ठ वर रूप में बताया। मीरां ने उसो समय अखण्ड सौभाग्य प्राप्त रहे' ऐसे श्रेष्ठवर श्रीकृष्णजी को स्वीकारा। उसी में यह ऐसी मस्त हो गई कि, उसे राज्य के सुख भी तुच्छ लगने लगे। की हुई भक्ति और भजन के प्रभाव से राणाजी द्वारा भेजा हुआ विष यानी जहर का प्याला अमृत हो गया तथा सर्प पुष्पमाला बन गया। मीरां बोल रही है किजनम-जनम की पूंजी पाई, जग में सभी खोवायो । पायोजी मैंने रामरतन धन पायो । कैसा धन पाया ? तो कह रही है कि... खरचे न खटे वाको चोर न लूटे ; दिन-दिन बढ़त सवायो , पायोजी मैंने रामरतन धन पायो । (३) श्रीकृष्णजी ने विदुर की भाजी और सुदामा के तन्दुल आरोग कर दोनों को धन्य कर दिया । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३२ ) (४) श्रीकृष्णजी ने स्वयं प्राकर नरसिंह महेता के कितने काम कर दिये । कुवरबाई का मामेरा तथा नागरी जात को जिमा दी। इसीलिए तो जनता बोल रही है कि 'भक्त के आधीन भगवान ।' नरसिंह महेता भी कहते हैं किकुल ने तजिए, कुटुम्ब ने तजिए, तजिए, माँ ने बाप रे । सुत दारा वनिता ने तजिए, कंचुली तजे जेम साँप रे । नारायण, नाम ज लेतां, वारे तेने तजिए रे ॥ (५) गुरु के वचनों पर विश्वास रखकर अखण्ड श्रद्धापूर्वक साठ वर्ष व्यतीत करने वाली शबरी भील कन्या को लोग कहने लगे कि-"अली गांडी ! क्या इस तरह राम आ जायेंगे ?” ऐसा होते हुए भी गुरुवचनों में अचल श्रद्धा रखने से श्रीराम को पाना ही पड़ा और श्रीराम के लिए चख-चखकर इकट्ठ किये हुए बोर जब शबरी भीलकन्या ने श्रीराम के सामने रखे तब श्रीराम ने उन जूठे बोरों को पूर्ण प्रेम से खाया। शबरी भीलकन्या का जीवन धन्य बन गया। भक्त भगवान की भक्ति में जब मग्न-लीन बन जाता है तब उसमें दिव्य प्रेम का संचार होता है। उसका Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३३ ) रोम-रोम विकस्वर उल्लसित हो जाता है तथा उसका हृदय भी नृत्य-नाच करता है। अध्यात्मयोगी श्री प्रानन्दघनजी महाराज ने भी प्रभु के साथ प्रीति जोड़कर के श्री ऋषभदेव भगवान के स्तवन में कहा है किऋषभ जिनेश्वर प्रीतम माहरो रे , __ और न चाहूँ रे कंत । रीझ्यो साहेब संग न परिहरे रे, भांगे सादि अनन्त । न्यायविशारद, न्यायाचार्य, महामहोपाध्याय श्री यशोविजय जी महाराज ने तो अपने बनाये हुए प्रभु के स्तवन में भक्ति के आगे मुक्ति को भी गौरण कर दिया है। देखियेमुक्ति थी अधिक तुज भक्ति मुज मन वसी, जेह सबल प्रतिबन्ध लाग्यो । चमक पाषाण जिम लोहने खेंचशे, मुक्ति ने सहज तुज भक्ति राखो।। भक्ति ज्ञान का हेतु है और ज्ञान मोक्ष का हेतु है । अर्थात्-भक्ति के बल से ज्ञान निर्मल होता है और निर्मल Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३४ ) ज्ञान मुक्ति का हेतु बनता है । भक्त शब्द भज् धातु से बनता है । उसका अर्थ भजन करना होता है । भक्त भगवान के चररण-कमलों में अपना सर्वस्व समर्पण कर देता है यानी भक्त, भक्ति और भगवान एक हो जाते हैं, तब 'पराभक्ति' प्रगटती है । कवि श्रीदेवचन्द्रजी महाराज ने श्रीवासुपूज्य भगवान के स्तवन में कहा है कि जिनवर पूजा रे ते निज पूजना रे, जिनपद निजपद एकता भेदभाव नहि कांइ । प्रभु के प्रति श्रद्धा एवं समर्पण भाव श्रात्मा को साक्षात् परमात्म पद प्राप्ति तक ले जाता है । * भक्ति के प्रकार प्रभु भक्ति के अनेक प्रकार हैं । जैनधर्म के शास्त्रों में की पूजा के पाँच प्रकार प्रतिपादित किये गये हैंपुष्पाद्यर्चा तदाज्ञा च तद् द्रव्यपरिरक्षणम् । उत्सवा तीर्थयात्रा च भक्तिः पञ्चविधा मता ॥ १ ॥ (२) प्रभु की आज्ञा (४) उत्सव - अर्थ - (१) चन्दन पुष्प पूजा, का पालन, (३) देवद्रव्य का रक्षण, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३५ ) महोत्सव, तथा (५) तीर्थयात्रा; यह पाँच प्रकार की भक्ति है। जैनेतर धर्म के शास्त्रों में 'नवधा-भक्ति' यानी 'नौ प्रकार की भक्ति' प्रतिपादित की गई हैश्रवण' कीर्तन चिन्तवन , वन्दन सेवन५ ध्यान । लघुता' समता एकता , नवधा भक्ति प्रणाम ॥१॥ अर्थात्-श्रवण, कीर्तन, चिन्तवन (स्मरण), वन्दन, सेवन (पूजन), ध्यान, लघुता (दास्यभाव), समता (मैत्रीभाव), तथा एकता (आत्मनिवेदन) । यह नौ प्रकार की भक्ति प्रणाम-नमस्कार रूप है। यह 'नवधा भक्ति' 'प्रेमलक्षणा भक्ति' कही जाती है। इसमें-श्रवण, कीर्तन और स्मरण ये तीनों 'वर्ण-अक्षर' के आलम्बन से प्रभु की भक्ति कराते हैं। वन्दन, पूजन और ध्यान प्रभु की प्राकृति के पालम्बन से प्रभु की भक्ति कराते हैं। लघुता (दास्यभाव), समता (मैत्रीभाव) और एकता (प्रात्मनिवेदन) ये तीनों प्रभु के निरालम्बन ध्यान हैं। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) अब नौ प्रकार की भक्ति का क्रमशः संक्षिप्त वर्णन करते हैं (१) श्रवण-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का पहला प्रकार है। श्रवण यानी सुनना। अर्थात् सद्गुरु प्रदत्त धर्मदेशना-धर्मोपदेश का श्रवण करना। श्रवण करने के पश्चात् मनन करना। मनन करने के बाद निदिध्यासन करना, जिससे अपनी प्रात्मा में वह सदुपदेश परिणमे । जिसको शास्त्र की भाषा में 'देशनालब्धि' कहते हैं । आज पर्यन्त जितनी आत्माएँ आत्मज्ञान पा चुकी हैं वे सभी देशनालब्धि से ही ऐसा कर सकी हैं। कारण कि, शास्त्र का बोध उपदेश बिना परिणमता नहीं है। विश्व के सर्वदर्शनों में श्रवण का अति माहात्म्य बताया है। ज्ञानी महापुरुषों के सचरित्रों का प्रेमपूर्वक श्रवण करने से अपनी आत्मा में क्षमा आदि अनेक गुण प्रगट होते हैं और धर्म में भी विशेष रुचि होती है। __ सद्धर्म के सदुपदेश द्वारा श्रवण-चिन्तन से श्रद्धा और प्रीति उत्पन्न होती है। जहाँ पर प्रभु का गुणगान होता है वहाँ पर जाने से प्रीति उत्पन्न होती है। प्रीति के अङ्कुर धीरे-धीरे प्रगट होते रहते हैं, जो पुनः श्रद्धा और बाद में भक्ति का प्राकार ग्रहण करते हैं। श्रवण Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३७ ) से श्रानंद की उर्मि और प्रभु के प्रति भक्ति का प्रादुर्भाव अवश्य ही होता है । महामहोपाध्याय श्रीयशोविजयजी महाराज श्रीमहावीर भगवान के स्तवन में कहते हैं कि गिरुग्रा रे गुरण तुम तणा, श्रीवर्द्धमान जिनराया रे ; । सुरगतां श्रवणे अमी भरे, मारी निर्मल थाये काया रे ॥ श्रीवर्द्धमान जिनेश्वर भगवान के गुरण श्रवरण के अमीभरण से मेरी काया निर्मल हो जाती है । जिस तरह शरीर को टिकाने के लिए और स्वस्थ रखने के लिए खान-पान यानी भोजन-प्रौषधादिक की आवश्यकता है, उसी तरह आत्मा की उज्ज्वलता को टिकाने के लिए धर्मदेशना धर्मोपदेश श्रवण करने की प्रति आवश्यकता है | जिस तरह वस्त्रों को शुद्ध-उज्ज्वल रखने के लिए पानी और साबुन आदि की आवश्यकता रहती है, उसी तरह अपनी आत्मा को शुद्ध-निर्मल करने के लिए सद्गुरु के सदुपदेश रूपी साबुन की और जिनवाणी रूपी जलपानी की अति आवश्यकता है । धर्मजीवों-धर्मात्मानों को अहर्निश सद्गुरुओं द्वारा जिनवाणी रूप धर्मदेशना का धर्मोपदेश का श्रवण श्रवश्य ही करना चाहिए । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३८ ) (२) कीर्तन-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का दूसरा प्रकार है। परमेश्वर-परमात्मा के दिव्य गुणों का भावपूर्वक मधुर स्वर से अन्य भी श्रवण कर सकें उस माफिक, उच्चारण करना, उसका नाम है कीर्तन । श्रवण द्वारा प्रभु के प्रति और गुरु के प्रति जिसको बहुमान हुआ ऐसे भक्त को वाणी द्वारा व्यक्त करने का भावोल्लास पाता है, उससे वह कीर्तन करने के लिए प्रेरित होता है। अपने सांसारिक कार्यों से समय निकाल कर प्रभु की स्तुति-स्तवन, गीत-गान, तथा सज्झाय एवं भावना इत्यादि श्रवण करने से अपना ध्यान भगवान में मग्न-तल्लीन हो जाता है। तथा कीर्तन से सारा संसार भूल जाता है। प्रभु के बाह्य और अभ्यन्तर गुणों का स्तवन-वर्णन कीर्तन में प्राता है। जैसे अन्य दर्शनों के कीर्तनकार प्रसिद्ध नरसिंह मेहता, संत तुकाराम, नर्मद कवि तथा मीराबाई आदि भक्तजनों के कीर्तन में भाग लेने वाले तल्लीन हो जाते हैं। जैनदर्शन में भी श्रीपाल-मयणा की, रावण-मन्दोदरी की, नागकेतु की तथा पेथड़कुमार Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ३६ ) इत्यादि की तल्लीनता आती है, जिसके जीवन का अनुभव सभी को होता है । आम जनता में सगालशा सेठ, नल-दमयन्ती, हरिश्चन्द्रतारामती तथा प्रह्लाद, ध्रुव आदि के प्राख्यान प्रसिद्ध हैं । भागवत, रामायण और महाभारत भी प्रसिद्ध हैं । कीर्तनकार जनता को सुनाकर उसमें धार्मिक संस्कारों का सिंचन पूर्व में भी करते थे और आज भी कर रहे हैं । कीर्तनकार भी कीर्तन करने में ऐसे भावविभोर हो जाते हैं कि उनके नयनों से प्रभु के प्रेम की अश्रुधारा बहती रहती है और वे स्वयं सात्त्विक आनंद का अनुभव करते हैं और आज भी कर रहे हैं । (३) स्मरण - चिन्तन - नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का तीसरा प्रकार है । श्रवण और कीर्त्तन से प्रभावित हुई आत्मा अपने अन्तःकरण में प्रभु की महिमा लाकर उनके गुणों का गहराई से स्मरण - चिन्तन करती है । तथा अपनी दृष्टि सम्मुख प्रभु की मूर्ति रखकर उनके गुणों का स्मरण- चिन्तन करते हुए उनमें रहे हुए प्रशान्तादि गुण अपने में भी प्रगटाती है। प्रभु का नित्य स्मरणचिन्तन करने से मनुष्य अपने सभी दुःख भूल जाता है । जैसे- प्रभु की स्तुति, स्तवन और स्तोत्रादि Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४० ) मुंह यानी मुख से बोलने के प्रकार हैं, वैसे प्रभु का स्मरण, चिन्तन और ध्यान स्मरण शक्ति के प्रकार हैं। सभी ज्ञानी महापुरुषों ने भाव से प्रभु का नाम, जप और स्मरण-चिन्तन इत्यादि अहर्निश करने को कहा ही है घड़ी-घड़ी पल-पल सदा, प्रभु स्मरण को चाव । नरभव सफलो जो करे, दान शील तप भाव ॥ जिसका नित्य स्मरण-चिन्तन होता है तथा उसी का जाप जपा जाता है तो उसके साथ प्रेम-स्नेह बँधता ही है। महाज्ञानी चौदहपूर्वधारी आदि महापुरुष भी प्रभु का नाम-स्मरण करते हैं, इतना ही नहीं किन्तु अन्तिम समय में भी देवाधिदेव वीतराग विभु का नाम स्मरण कराने का अवश्य प्रबन्ध करते हैं जिससे स्वयं का सम्यक् समाधिमरण हो। इसलिए प्रभु का नाम-स्मरण चाहते ही हैं। प्रभु के नाम से ही श्रवण, कीर्तन और स्मरण ये तीनों अक्षर के पालम्बन से प्राराधना कराते हैं। (४) वन्दन-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का चौथा प्रकार है । वन्दन कहो, नमस्कार कहो या प्रणाम कहो, सभी समान अर्थ वाले पर्यायवाचक शब्द हैं। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४१ ) श्रवण, कीर्तन तथा स्मरण-चिन्तन इत्यादिक से अंकित साधक व्यक्ति अब प्रभु के घनिष्ट सान्निध्य को चाहता है। उससे वह स्नेह-प्रेम के प्रतीक रूप प्रभु की मूत्ति आदि का अवलम्बन लेकर, उन्हीं के दर्शन, वन्दन एवं पूजन में प्रवृत्त होता है । वन्दन-नमस्कार से अभिमान, अहंकार और गर्व कम होता है तथा शरणागति का स्वीकार होता है । इससे अपने जीवन में प्रादर, बहुमान, नम्रता, विनय और विवेक इत्यादि गुण आ जाते हैं। स्वयं प्रभु के दास-सेवक बन जाते हैं। ___ जैनदर्शन में तो सुबह और शाम के प्रतिक्रमण में प्राते हुए षड़ावश्यक यानी छह आवश्यक में पांचवाँ वन्दन नाम का प्रावश्यक है । वन्दन-नमस्कार करने से क्या-क्या होता है ? तो कहा है कि भावपूर्वक किया हुआ एक नमस्कार भी नरक की स्थिति को कम करता है। जाके वन्दन थकी दोष दुःख दूरहि जावे , जाके वन्दन थकी मुक्तितिय सन्मुख पावे ; जाके वन्दन थकी वन्द्य होवे सुरगन के , ऐसे वीर जिनेश वंदि हौं क्रमयुग तिन के ॥१॥ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४२ ) 'सिद्धाणं बुद्धाणं' सूत्र में तो यहाँ तक कहा है किइक्को वि नमुक्कारो, जिरणवर-वसहस्स, वद्धमाणस्स । संसार - सागरायो, तारेइ नरं व नारि वा ॥३॥ जिनेश्वरों में उत्तम ऐसे श्री वर्द्धमान स्वामी को यानी श्री महावीर प्रभु को किया हुआ एक भी नमस्कार पुरुष या नारी को संसार रूप सागर से तिरा देता है ॥ ३ ॥ अन्य धर्म में भी कहा है कि__ अश्वमेध यज्ञ करने से जितना फल मिलता है, उतना ही फल प्रभु को वन्दन-नमस्कार करने से भी मिलता (५) सेवन (सेवा)-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का पाँचवाँ प्रकार है। प्रात्मा में दासत्वभाव आये बिना सेवा नहीं हो सकती। इसलिए साधक को वन्दननमस्कार द्वारा नम्र बनकर के ही प्रभु की सेवा करने के लिए सज्ज बनकर और जाग्रत होकर तैयार रहना चाहिए। प्रभु के चरणों की सेवा और प्रत्येक कार्य में प्रभु की आज्ञा का पालन अवश्य ही होना चाहिए । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 83 ) प्रभु के चरणों की अनुपम सेवा-भक्ति प्रष्टप्रकारी पूजा इत्यादि कार्य करते हुए होती है । पूजा का निमित्त पाकर प्रभु के समीप में जा सकते हैं और प्रभु की अनुपम सेवा-भक्ति का सुन्दर लाभ ले सकते हैं । जैसे - अपने माता, पिता तथा वडीलों आदि की सेवा-भक्ति करने से अपन को उनका आशीर्वाद मिलता है । राजामहाराजा, प्रधानमन्त्री तथा श्रेष्ठी वगैरह की भी सेवा करने से वे सभी प्रसन्न होते हैं; वैसे ही साक्षात् प्रभु के प्रभाव में उनकी मूर्ति प्रतिमा की सेवा-भक्ति करने से अपने चित्त-मन की प्रसन्नता होती है । प्रभु का दास, प्रभु का सेवक, प्रभु का चाकर, प्रभु का नौकर तथा प्रभु का भक्त बनना यह तो अपना प्रबल पुण्योदय हो तो ही यह लाभ मिल सकता है । इसके सम्बन्ध में 'भक्तामर स्तोत्र' के कर्त्ता श्री मानतु गसूरीश्वर जी महाराज ने कहा है कि लोको सेवे कदि धनिकने तो धनी जेम थाय । सेवा यातां प्रभुपद तणी श्राप जेवा ज थाय ॥ श्री कबीर जी ने भी कहा है कि , दास कहावन कठिन है, मैं दासन को दास अब तो ऐसा हो रहूँ, कि पाँव तले की घास । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४४ ) मीराबाई भी कहती हैं किमने चाकर राखोजी, गिरधारीलाल, चाकर राखोजी । चाकर रहे°, बाग बनीशु, नित-नित दर्शन पाशुं , वृन्दावन की कुजगली में, गोविंद लीला गाशु, मने चाकर । वीतराग विभु के दासादि बनने वाली और उन्हीं की सेवा करने वाली प्रात्मा अवश्य वीतराग बन सकती है । जिसने प्रभु के चरणारविन्द सेये हैं, वही उनकी दशा को प्राप्त करता है। इसलिए समस्त ज्ञानी पुरुषों ने इसी वीतराग मार्ग की सेवा की है, आज भी सेवा कर रहे हैं और भविष्य में भी अवश्य सेवा करेंगे। (६) ध्यान-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का छठा प्रकार है । ध्यान के अनेक प्रकार हैं। उनमें आत्मोन्नतिकारक धर्मध्यान और शुक्लध्यान हैं, तथा अवनतिकारक आर्तध्यान और रौद्रध्यान हैं। प्रात्मा जिसमें मुख्यपने वर्त्तता है वही ध्यान कहा जाता है। उस प्रात्मध्यान की प्राप्ति प्रात्मज्ञान के बिना नहीं हो सकती है। आत्मज्ञान भी यथार्थ बोध की प्राप्ति बिना नहीं हो सकता । साधक व्यक्ति जब इष्टदेव के स्वरूप के या गुणों के चिन्तन में एकतार हो जाता है तब वह स्मरण में से ध्यान में चला जाता है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४५ ) प्रात्मा को निर्मल करने का साधक का लक्ष्य सुन्दर होना चाहिए। ध्येय दृष्टि समक्ष रखकर ही प्रभु का ध्यान करने का है। धार्मिक अनुष्ठानों को ध्यान के लिए आत्मलक्ष किये हों तो वे सहायकारी होते हैं, अन्यथा नहीं। साधक व्यक्ति ध्यान में निज देह को अपने से पृथक्भिन्न अनुभवता है। शुभध्यान से प्रात्मा में शान्ति होती है तथा अशुभ ध्यान से चिन्ता होती है। जब गृहस्थ साधक को शुभध्यान की उत्कृष्टता होती है तब कोई एकाध क्षण-पल ऐसी आ जाती है कि शुभ छूट जाता है और शुद्ध को स्पर्शी जाता है। उस समय अपूर्व अवर्णनीय आनन्द अनुभवता है । शुद्धोपयोगी संयमी मुनिराज को तो ऐसे अपूर्व अवर्णनीय आनन्द का अनुभव पुनःपुनः यानी बारंबार होता है, जिसको आत्मसाक्षात्कार कहने में आता है। (७) लघुता-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का सातवाँ प्रकार है । लघुता यानी दोनता। अहंकार-ममत्व का घट जाना। जब किसी भी प्रकार की स्पृहा-इच्छा बिना प्रभु की शरण को स्वीकारता है तब परमात्मा उसे Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्नेह-प्रेम से भर देता है। आये हुए दुःख-कष्ट-संकट को भी दूर कर उसका सम्यक् संरक्षण करता है। जिसने प्रभु का शरण दीनतापूर्वक स्वीकारा है, उसके संरक्षण के साथ उसकी लाज भी रखने का ज्वलन्त उदाहरण महाभारत में आता हुआ सती द्रौपदी का निम्नलिखित प्रसंग है कर्म के संयोग से पाण्डवों की पत्नी सती द्रौपदी के चीर यानी वस्त्र जब भरी सभा में दुःशासन ने खींचे तब द्रौपदी श्री युधिष्ठिर आदि पाँचों पाण्डवों की तरफ देख रही है तथा अपने अन्तःकरण के नाद से प्रभु को पुकार रही है। तत्काल वहाँ पर अदृश्य रूप में श्रीकृष्णजी नवसौ नव्वाणु (६६६) चीर-वस्त्र द्वारा पूरी सती द्रौपदी जी की लाज रखते हैं । इसीलिए तो कहा गया है किलघुता से प्रभुता मिले, प्रभुता से प्रभु दूर । जो लघुता दिल में धरे, तो सभी संकट दूर ॥ आत्मा जप-तप-क्रिया जो कोई साधन करता है, उसके पीछे लघुता हो तो साधन सफल होता है । (८) समता-नवधा भक्ति पैकी यह भक्ति का पाठवाँ प्रकार है। 'सम' यानी राग-द्वेष रहित मध्यस्थ भाव । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४७ ) सुख और दुःख में, संयोग और वियोग में तथा मान और अपमान में शान्त भाव से रहना, उसका नाम 'समता' है । वो ही समभाव-समता गुण कहा जाता है। उसमें कदाचित् विषमता-विषमभाव पा जाय तो भी मन को क्षुब्ध न होने देने, क्रोधादि कषायों को शमन करने का यत्न-प्रयत्न विशेष रूप में करना चाहिए । साधक प्रात्मा जब पूर्वोक्त श्रवणादि सप्त गुणों से समलंकृत हो जाता है, तब इस पाठवें समता गुण का प्रादुर्भाव होता है। इन सभी गुणों की उपासना द्वारा ही भावों की शुद्धि होती है। जैसे-जैसे आत्मा के भावों की शुद्धि हो जाती है, वैसे-वैसे समताभाव में भी अभिवृद्धि होती रहती है। विश्व के समस्त जीवों में जब मैत्रीभाव हो जाता है, तब समताभाव अपने वास्तविक स्वरूप में अनुपम प्रकाश करता है । वह सर्वत्र फैल जाता है । जैसे-(१) पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ भगवान और कमठ तापस का ज्वलन्त दृष्टात। श्री पार्श्वनाथ प्रभु ने स्वयं पर अनेक उपसर्ग करने वाले कमठ पर भी द्वष नहीं किया तथा सहाय करने वाले धरणेन्द्र पर भी राग नहीं किया । अर्थात् दोनों पर समभाव रखा । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४८ ) इसके समर्थन में 'सकलार्हत् स्तोत्र' में कहा है किकमठे धरणेन्द्र च, स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्य-मनोवृत्तिः, पार्श्वनाथ श्रियेऽस्तु वः ॥ २५ ॥ अर्थ-अपने को उचित ऐसा कृत्य करने वाले, कमठासुर और धरणेन्द्र पर समान भाव धारण करने वाले ऐसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हें प्रात्म-लक्ष्मी के लिए हों ।। २५ ॥ (२) श्रमण भगवान महावीर स्वामी पर संगमदेव ने अनेक प्रकार के उपसर्ग किये तो भी उन्होंने उस पर अंशमात्र भी द्वषभाव नहीं किया, किन्तु करुणा के अमीअश्रुबिन्दु बरसाये। इस सम्बन्ध में 'सकलार्हत् स्तोत्र' में कहा है किकृतापराधेऽपि जने, कृपा-मन्थर-तारयोः । ईषद्-वाष्पायोर्भद्रं, श्रीवीरजिन - नेत्रयोः ॥ २७ ॥ अर्थ-अपराध किये हुए जन पर (संगमदेव पर) भी अनुकम्पा से मन्द कनीनिका वाले तथा कुछ अश्रु से भीगे हुए श्री महावीर प्रभु के दोनों नेत्रों का कल्याण हो । २७ ।। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ४६ ) श्रमण भगवान महावीर स्वामी के चरणों में इन्द्र महाराजा ने आकर और सर झुकाकर प्रणाम किया तथा चंडकौशिक सर्प ने आकर डंख दिया। ऐसा होते हुए भी प्रभु ने इन्द्र महाराजा पर राग-स्नेह नहीं किया और चंडकौशिक सर्प पर अंश मात्र भी द्वष नहीं किया। दोनों के प्रति समता-समभाव एक समान रखा। इसके सम्बन्ध में योगशास्त्र में कहा है किपन्नगे च सुरेन्द्र च, कौशिके पादसंस्पृशि । निविशेषमनस्काय, श्रीवीरस्वामिने नमः ॥ २ ॥ (३) महामुनि श्रीगजसुकुमार के सिर पर ससुर ने पाकर सुलगते अंगारे रखे, तो भी उन्होंने अपूर्व समता धारण कर अन्त में सकल कर्म का क्षय कर मोक्ष में सादि अनन्त स्थिति प्राप्त की। प्रात्मसाधना के मार्ग में अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों में भी प्रात्मलक्ष्यपूर्वक समता रखकर प्रात्मबल प्रगट करना चाहिए जिससे प्रात्मा परम समाधि प्राप्त कर सके । (९) एकता-नवधा भक्ति पैकी यह अन्तिम प्रकार है। आत्मसाधना की यह अन्तिम-चरम सीमा है। 'पराभक्ति' तरीके इसका ही नाम शास्त्र में प्रसिद्ध है । Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५० ) सम्यक् आराधना का उत्तम फल यही है, इतना ही नहीं किन्तु कृतकृत्यता भी यही मानी जाती है। इसे ही ज्ञानी महापुरुष स्वानुभूति कहते हैं तथा योगी महात्मा निर्विकल्प समाधि कहते हैं। जहाँ पर मन, वचन और काया के योग प्रभु के साथ संलग्न हो जाते हैं, तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय भी एक हो जाते हैं। इसलिए वहाँ पर कोई भेद रहता नहीं है। कारण कि परमात्मा के साथ एकतार हो गया है। अपनी आत्मा ही परमात्मा। जब भक्त भगवान की भक्ति एकतार बनकर करता है, तब अपने देह-शरीर का भान भूल जाता है । उस वक्त भक्त का यही उद्गार निकलता है कि हे भगवन् ! हे परमात्मन् ! हे देवाधिदेव ! बस तू ही, तू ही, तू ही। 00 Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार समस्त कर्मों के क्षय रूप और अनन्त सुखों के भंडार स्वरूप ऐसे मोक्ष की प्राप्ति के लिए यथाशक्य पुरुषार्थ करना, यही इस दुर्लभ मनुष्यभव में करने योग्य सर्वोत्तमसर्वोत्कृष्ट कार्य है । मोक्षमार्ग की आराधना के लिए अनेक प्रकारों में भक्तिमार्ग सबसे सरल, सुलभ और शीघ्र सिद्ध हो जाय, ऐसा योग है। उसका पालम्बन लेकर प्रात्मा सहेलाई से परमेश्वरपरमात्मा के साथ एकतार हो सकता है। वीतराग परमात्मा के साथ भक्ति द्वारा एकतार होना, यही समस्त योगों में प्रधान-मुख्य योग है । साधारण शिक्षित प्राणीमनुष्य भी इस मार्ग में प्रयाण कर तथा सकल कर्मों का क्षय कर भवनिस्तार एवं आत्मनिस्तार अर्थात् परमपदमोक्ष प्राप्त कर सकता है। भक्तिप्रिय धर्मात्मा-धर्मीजीव एवं संसारवर्ती सभी प्राणी परमेश्वर-परमात्मा की भक्ति में प्रतिदिन लीन-मग्न होकर प्रात्मकल्याण साधे, तथा Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) अन्य भी योग्य भक्तिप्रिय जीवों में प्रभुभक्ति का भाव प्रकटाने में निमित्तभूत बन कर स्व-पर कल्याण के भागी होकर दस-दस दृष्टान्तों से दुर्लभ ऐसे इस मनुष्यभव-मानव जन्म को सफल करें। यही शुभ कामना । श्रीवीर सं० २५१५ विक्रम सं० २०४५ महा सुद-१३ शनिवार, दिनांक १८-२-१९८६, साँचोड़ी (पाली) [श्रीमनमोहन पार्श्वनाथ जैनमन्दिर-प्रतिष्ठा दिन] Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है जिनेश्वर के जीवन की पूज्यता है है एवं उनके भक्तिभाव का साधन Lwwwwwweservewwwwwwwwwwws सारे विश्व में देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन्त ही हैं। उनका समस्त जीवन परम पवित्र है। इसलिए वे सर्वदा नमस्करणीय-वन्दनीय, पूजनीय, प्रशंसनीय एवं आदरणीय हैं। उनके समग्र जीवन के सुप्रसिद्ध मुख्य पाँच कल्याणक होते हैं। च्यवनकल्याणक, जन्मकल्याणक, दीक्षाकल्याणक एवं निर्वाण (मोक्ष) कल्याणक । इन पाँच कल्याणकों द्वारा तीर्थंकर परमात्माजिनेश्वर भगवान परम पूज्य होने से उनके जीवन के अन्य भी सभी प्रसंग सर्वदा पूज्य बन जाते हैं। कारण कि-अपने पर आज भी प्रत्यक्ष-साक्षात् उपकार उनके सदुपदेश का ही है, तो भी परम्परा से उनके पवित्र जीवन का प्रभाव है। ऐसे पूज्य जिनेश्वर भगवन्तों की साक्षात् अविद्यमान दशा में उनके प्रति भक्तिभाव प्रदर्शित करने का श्रेष्ठ साधन जिनालय एवं जिनप्रतिमाएँ हैं । Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज तीर्थंकर परमात्मा-जिनेश्वर भगवन्त मुक्तिधाम में हैं तथापि उनके द्वारा किये हुए कार्य, उनका प्रभाव तथा उनके सदुपदेश की विश्व जीवों के जीवन पर पड़ी हुई गहरी छाप भी एक रीति से इस वर्तमान काल में भी तीर्थंकर परमात्मा-जिनेश्वर भगवान के साक्षात्-प्रत्यक्ष विद्यमान होने का संकेत है। उसी तरह उसके केन्द्र रूप में उनके मन्दिर और उनकी मूत्ति-प्रतिमा भी एक प्रकार का प्रत्यक्ष साक्षात् स्वरूप है। नामादि चारों निक्षेपों से वे वन्दनीय एवं पूजनीय हैं। ऐसे वीतराग विभु की मूति-प्रतिमा की अहर्निश वन्दना तथा अर्चना-पूजादि द्वारा सत्कार-बहुमानादि भक्तिभावपूर्वक करना ही चाहिए । श्रीतीर्थंकर परमात्मा-जिनेश्वर भगवान का समस्त जीवन विश्व के सभी जीवों के लिए और अपने लिए पूज्य होने से, उनके च्यवनकल्याणक की सूचक महामंगलकारी चौदह स्वप्नावतार की पूजा, जन्मकल्याणक की सूचक स्नात्रमहोत्सव पूजा तथा उनकी पिण्डस्थादि भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की सूचक अन्य अनेक प्रकार की Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५५ ) पूजाएँ आदि रूप अपने समक्ष उनका उत्तम आदर्श-दृश्य तथा उनकी प्रत्युत्तम सेवा-भक्ति प्रकट करने के लिए साधन रूप में विद्यमान हैं। जैसे प्रभु के जन्म के अवसर पर शकेन्द्रादि चौंसठ इन्द्रों के साथ देव स्वर्णमय मेरुपर्वत पर स्नात्र महोत्सव करते हैं उसी के अनुकरण स्वरूप अपने को भी प्रभु का स्नात्रमहोत्सव विधिपूर्वक प्रवश्यमेव पढ़ाना चाहिए। आगमशास्त्रों में भी प्रभु के 'स्नात्रमहोत्सव' का वर्णन आता है। इसलिए इस विषय में शंका करने को या रखने की आवश्यकता नहीं है। श्रीतीर्थंकर परमात्मा-जिनेश्वर भगवान स्वयं पवित्र हैं। सर्व पवित्र संयोगों की छाया द्वारा प्रतिष्ठा के विधान से संस्कारित प्रभु की मूत्ति-प्रतिमा भी पवित्र ही है। इसलिए प्रभु मूति प्रतिमा का स्नात्र जल भी पवित्र और सर्वत्र शान्तिकारक है । नवाङ्गी टीकाकार महर्षि पूज्याचार्यदेव श्रीमद् अभयदेव सूरीश्वरजी महाराज का कोढ़ का रोग भी श्रीस्तम्भनपार्श्वनाथ प्रभु की प्रतिमा के स्नात्रजल के छिड़कने से चला गया। ऐसे अनेक ज्वलन्त दृष्टान्त जैनशास्त्रों में विद्यमान हैं। प्रभु-भक्ति के अनेक प्रकारों में जन्मकल्याणक की भक्ति भी एक प्रकार है। इसलिए जिनेश्वर भगवान की देवों कृत स्नात्र महोत्सव की क्रिया की अवस्था के तादृश क्रियान्वयन Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ). स्वरूप बाह्य साधनों द्वारा और अपने मन से भक्ति भाव से, पूर्ण उल्लास से, सद्रव्यों से, मधुर राग-रागिनी से तथा वृद्धिकारक उत्तम वातावरण से प्रभु का विधिपूर्वक स्नात्र पढ़ाने से सम्यक्त्व-समकित की निर्मलता होती है, प्रात्मा की पवित्रता बढ़ती है, अमंगल दूर होता है, धार्मिक जीवन में सद्प्रेरणा मिलती है, अशुभकर्म की निर्जरा होती है तथा शुभकर्म का बन्ध पड़ता है एवं देवतत्त्व की अनुपम आराधना होती है । इससे अनन्त उपकारी प्रभु के प्रति कृतज्ञता प्रदर्शित होती है और अन्त में अपनी आत्मा भी परमात्म स्वरूप प्राप्त करती है। हमने अपने महान्-प्रबल पुण्योदय से जैनधर्म-जैनशासन पाया है। अतः भवसिन्धु तेरकर मुक्तिधाम को पहुँचना है। उनके प्रशस्त पालम्बन अाज जिनमूर्ति और जिनागम हैं। उनका पालम्बन लेकर हमें संसार-सागर तरना है और मोक्ष के शाश्वत सुख को पाना है। इसके अलावा किसी प्रकार की, कोई भी अभिलाषा-इच्छा हमारे दिल में नहीं है। जैनशासन को प्राप्त जीवों को - आत्माओं को जिनमत्ति-प्रतिमा से सांसारिक-भौतिक द्रव्यों की प्राप्ति करने की नहीं है, किन्तु जिनेश्वर भगवान की मूत्ति को Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५७ ) निमित्त बनाकर सम्यग्दर्शनादि धर्म की प्राप्ति अपनी प्रात्मा में से ही प्रगट करने की है। जैसे साक्षात् तीर्थंकर भगवंत की विद्यमान अवस्था में उनकी सेवाभक्ति द्वारा सम्यग्दर्शनादि गुणों को आवत करने वाले ज्ञानावरणीयादि कर्म-प्रावरणों को दूर करके अपने प्रात्मगुणों को प्रगट कर सकते हैं, वैसे ही श्री तीर्थंकर भगवन्त की अविद्यमान अवस्था में उनकी मूत्ति-प्रतिमा की सेवा-भक्ति द्वारा भी सम्यग्दर्शनादि गुणों को प्राच्छादित करने वाले ज्ञानावरणीयादि कर्मों को हटाकर आत्मगुणों को अवश्य ही प्रगट कर सकते हैं और अन्त में मोक्ष के शाश्वत सुख को पा सकते हैं। महासुद-१५ सोमवार दिनांक-२०-२-८६ अम्बाजी नगर (फालना) Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नमो जिणाणं ॥ मूत्तिवाद का समर्थन RA Lawwwwwwwwwwwww अनादि एवं अनन्तकालीन विश्व है। उसमें आज भी अनेक वाद प्रवर्त्तमान हैं। सर्वोत्कृष्ट स्याद्वादअनेकान्तवाद है। उसकी तुलना में अन्य एक भी वाद नहीं पा सकता है। कारण कि परस्पर विरोधी वस्तुओं को भी एक ही अपेक्षाभेद से यही स्याद्वादअनेकान्तवाद सत्य स्वरूप में समन्वय दृष्टि से घटा सकता है अर्थात् सुन्दर वर्णन कर सकता है। इसलिए वह सभी वादों में सर्वोत्कृष्ट कहा जाता है । विश्व में चल रहे अनेक वादों में 'मूतिवाद' का भी महत्त्वपूर्ण स्थान है। विश्व का समस्त व्यवहार चेतन और जड़ वस्तु पर चल रहा है। सदा काल चेतन चेतन ही रहता है और जड़-जड़ ही रहता है। अर्थात् कभी भी न चेतन जड़ होता है और न जड़ चेतन होता है। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५६ ) संसारवर्ती प्रत्येक प्राणी को प्रत्येक कार्य में जड़ वस्तु-पदार्थ का सहकार अहर्निश अवश्य ही लेना पड़ता है। प्रस्तुत में साक्षात् श्री जिनेश्वर भगवान तीर्थंकर परमात्मा के अभाव में संसारी आत्मा को आत्मिक विकास और परमपद यानी मोक्ष के शाश्वत सुख पाने के लिए इस अवसर्पिणी के पाँचवें पारे में और हुंडावसर्पिणी काल में दो ही प्रबल प्रशस्त पालम्बन हैं-जिनबिम्ब और जिनागम। ये संसार सागर से तिर कर मुक्तिरूपी तट पर पहुँचने के लिए प्रत्युत्तम स्टीमर-नौका-जहाज के समान हैं। संसारी आत्मा कर्माधीन है। उसे जैसा निमित्त प्रालंबन मिलेगा वह वैसा ही कार्य करेगा। अच्छासुन्दर निमित्त पालम्बन मिलेगा तो अच्छा-सुन्दर कार्य करेगा और बुरा निमित्त पालम्बन मिलेगा तो वह बुरा कार्य करेगा। विश्व में जैसे पवित्र धर्मस्थान पैकी जैन मन्दिर एवं जिनमूत्ति आदि प्रात्मोन्नतिकारक प्रशस्त पालम्बन हैं, वैसे- प्रात्म अधःपतनकारक भी अनेक अपवित्र हिंसक-स्थल तथा कामोत्पादक दृश्य एवं वीभत्स सिनेमादि चित्र अप्रशस्त पालम्बन हैं। अप्रशस्त पालम्बनों से प्रात्मा का अवश्यमेव अधःपतन होता है। Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६० ) इसीलिए तो आगमशास्त्र श्रीदशवकालिक सूत्र में कहा है कि-'चित्तभित्ति न निझाए, नारिं वा सु-अलंकिग्रं.' अर्थात्-'भीत-दीवार पर लगाये हुए या आलेखन किये हुए स्त्रियों के चित्र भी श्रमण-साधुओं को नहीं देखने चाहिए। क्योंकि अपनी मानसिक वृत्तियाँ विकृत यानी विकारयुक्त होकर शीलव्रत से यानी ब्रह्मचर्य से अपन को च्युत कर देती हैं।' जब सिनेमा आदि के चित्रों को देखकर या यों ही सुन्दरी स्त्रियों के चित्र देखकर उनके अवलोकन द्वारा ब्रह्मचर्य से भ्रष्ट होने की सम्भावना रहती है, तब वीतराग श्री जिनेश्वर भगवान की भव्य मूत्ति को देखकर उनके दर्शन, वन्दन, नमन और अर्चन-पूजनादि करके अपनी आत्मा को पवित्र बनाने की और स्वयं वीतराग भगवान बनने की भावना अवश्यमेव होती है। इसलिए साक्षात् श्री जिनेश्वर भगवान के अभाव में उनकी विधिविधानपूर्वक प्राण प्रतिष्ठित की हुई भव्य मूत्ति प्रहनिश दर्शनीय, वन्दनीय एवं पूजनीय है । मूत्ति द्वारा ही आत्मिक विकास-उन्नति के सम्बन्ध में भूतकाल के भी अनेक उदाहरण विद्यमान हैं। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१) इस अवसर्पिणी काल में जैनों के श्रीऋषभदेवादि चौबीस तीर्थंकर भगवन्त हुए हैं। उनमें उन्नीसवें तीर्थंकर श्रीमल्लिनाथ भगवन्त हुए। उन्होंने अपने अन्तिम भव मल्लिराजकुमारी के भव में संसारी अवस्था में अपने पूर्व भवों के छह मित्रों से अपने स्नेह-प्रेम को दूर करने के लिए अपनी एक सोने की सुन्दर मूत्ति बनवाई। प्रतिदिन उस मूत्ति के उदर गर्भ में एक-एक ग्रास भोजन डालने लगी। भीतर में रहा हुआ भोजन सड़ जाने के कारण जीवों की उत्पत्ति होने लगी और मूत्ति का मुख ढक्कन खोल देने पर अति दुर्गन्ध पाने लगी। इधर मल्लिराजकुमारी के साथ विवाह करने के लिए छहों राजकुमार पाये। उस समय मल्लिराजकुमारी ने छहों राजकुमारों को लग्न-विवाह मण्डप में बुलाया। और जहाँ पर अपनी सोने की मूर्ति थी वहाँ पर जाकर उस मूत्ति के मुख ढक्कन को खोलकर पास में ही वह स्वयं खड़ी हो गई। लग्न मण्डप में विवाह करने के लिए आये हुए छहों राजकुमार पाती हुई अति दुर्गन्ध से बेहद घबराने लने। उस वक्त मल्लिराजकुमारी ने कहा कि-हे राजकुमारो! सुन्दर दिखाई देने वाली इस सोने की मूत्ति में मैं कुछ दिनों से प्रतिदिन एक-एक ग्रास भोजन डालती रही हूँ जिसका Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६२ ) परिणाम यह हुआ है कि अभी आप इस मूर्ति के पास खड़े रहने में भी असमर्थ हो रहे हैं। जैसी यह मूत्ति है वैसी मैं भी हाड़-मांस की मूत्ति के सिवा और कुछ नहीं हूँ। मेरे साथ विवाह करने के लिए अर्थात् मुझे पाने के लिए आप सब पागल हो रहे हैं। उसमें तो प्रतिदिन कितने ग्रास डाले जाते हैं, तब उससे आखिर जो गन्ध आएगी, उससे आपकी क्या दशा होगी, क्या यह भी सोचते हैं ? मल्लिराजकुमारी के उद्बोधन से और मूत्ति के साक्षात्कार से विवाह करने के लिए लग्न-मण्डप में पाये हुए छहों राजकुमार संसार से विरक्त हो गये। उनके हृदय में सच्चे ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश हो गया। इस दृष्टान्त का सार यह है कि यदि कृत्रिम मूति से असली वस्तु का विराग प्राप्त हो सकता है तो वीतराग जिनेश्वर भगवान की मूत्तियों से हम भो सच्चा विराग अवश्य प्राप्त कर सकते हैं । इसमें कोई सन्देह नहीं। (२) इस अवसर्पिणी काल में अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर परमात्मा हुए। एक समय मगधदेश के सम्राट् श्रेणिक महाराजा ने नरक के Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) अतिदुःखों और कष्टों से भयभीत होकर सर्वज्ञ भगवान महावीर से पूछा कि-भगवन् ! आप तो सर्वज्ञविभु परमदयालु करुणासिन्धु हो। मुझ पर आपकी असीम कृपा है। ऐसा कोई उपाय बतलाइये कि मुझे नरक में न जाना पड़े। प्रभु ने कहा कि हे श्रेणिक ! तुमको नरक में न जाना पड़े, इसके तीन उपाय हैं(१) तुम्हारी नगरी का निवासी कालिकसुर कसाई एक दिन पांचसौ पाड़ों की हिंसा न करे । (२) तुम्हारे महल में काम करने वाली कपिला दासी अपनी दानशाला में अपनी प्रात्मिक भावना से अन्य को दान देवे । (३) प्रतिदिन शुद्ध सामायिक करता हुआ पूणिया श्रावक एक सामायिक तुमको समर्पित करे । इन तीन कार्यों में से कोई भी एक कार्य सफल होवे तो तुम्हारे नरक में जाने का बंध न होवे । यह कथन प्रभु के मुंह से सुनकर श्रेणिक महाराजा ने सफलता प्राप्त करने का प्रयत्न किया। उन्होंने सेवक Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬૪ ) भेजकर कालिकसुर कसाई को अपने पास बुलाया और समझाया कि तुम सिर्फ एक दिन पाँच सौ पाड़ों की हिंसा मत करो । लेकिन उसने तो प्रतिदिन पाँचसौ पाड़ों की हिंसा करने का संकल्प किया हुआ था, इसलिए वह नहीं माना । आखिर महाराजा के हुक्म से उसके दोनों पैर बाँधकर उसे एक कुए में लटका दिया गया जिससे उसको हिंसा करने का निमित्त ही न मिले । महाराजा को अब पक्का विश्वास हो गया था कि उस कालिकसुर कसाई ने आज हिंसा न की होगी । इसलिए प्रभु के पास जाकर श्रेणिक महाराजा ने कहा अब तो मुझे नरक में नहीं जाना पड़ेगा क्योंकि, कालिककसाई को कुए में रखने से वहाँ एक भी पाड़ा न होने से उसने आज हिंसा नहीं की । प्रभु ने कहा कि हे श्रेणिक ! उसने वहाँ पर भी हिंसा की है । पता लगाने पर श्रेणिक महाराजा को मालूम हुआ कि उसने तो कुए में रहकर भी अपने हाथ से पाँचसौ पाड़ों के चित्र के द्वारा मूर्तियाँ बनाकर काटी हैं-हिंसा की है । कि, भगवन् ! श्रेणिक महाराजा की आशा पूरी न हो सकी । कारण कि, कालिक कसाई द्वारा उन काल्पनिक मूर्तियों की हिंसा हो गई थी । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालिक कसाई का मन का भाव वैसा ही था, जैसा कि असली साक्षात् पाँचसौ पाड़ों को मारने के वक्त अर्थात् हिंसा करने के समय रहा करता था। वीतराग जिनेश्वर भगवान की प्राणप्रतिष्ठित भव्य मूत्ति को भावावेश से साक्षात् वीतराग भगवान समझकर दर्शन-वन्दन एवं पूजनादि करने में कोई दोष नहीं लगता । किन्तु कर्म की निर्जरा होती है और पुण्य का बन्ध पड़ता है। कालान्तरे मोक्ष के शाश्वत सुख की प्राप्ति भी अवश्य होती है। यदि श्रद्धा और भक्ति से भगवान की मूत्ति का दर्शन-वन्दन एवं पूजा-पूजन आदि किया जायेगा तो अवश्यमेव अपना अभीष्ट सिद्ध होकर ही रहेगा। यह निश्चित ही समझना। इसमें शंका या सन्देह रखने की जरूरत नहीं । (३) श्रमण भगवान महावीर परमात्मा के समय में अनार्यदेश में राजकुल में उत्पन्न हुए प्रार्द्रकुमार के पास, श्रेणिक महाराजा के पुत्र अभयकुमार मन्त्री की भेजी हुई जिनेश्वर भगवान की मूत्ति जब आई तब उसे देखने से उसके अज्ञान का परदा हट गया और उसका मानस विचार-तरङ्गों पर लहराने लगा। यही निमित्त पाकर आर्द्रकुमार आर्य देश में पाया। उसने संयम धारण 5 किया और आखिर मूर्तिदर्शन मोक्षसुख का कारण बना। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) ऐसे अनेक उदाहरण जिनमूत्ति-जिनप्रतिमा दर्शनवन्दन एवं पूजन के सम्बन्ध में विद्यमान जैनशास्त्रों में आज भी मिलते हैं। महाभारत में भी एकलव्य भील का उदाहरण आता है। कहा है कि जिस समय विद्यागुरु श्री द्रोणाचार्य के पास युधिष्ठिर आदि पाण्डव और दुर्योधन आदि कौरव विद्याभ्यास कर रहे थे; उस समय एकलव्य नामक एक भील भी श्रीद्रोणाचार्य से शस्त्रविद्या सीखने को आया। लेकिन श्रीद्रोणाचार्य ने एकलव्य को सिखाने से इन्कार कर दिया । तो भी एकलव्य ने श्रीद्रोणाचार्य की मूत्ति बनाकर अति प्रेम से उस मूत्ति में प्राण-प्रतिष्ठा की और अच्छी तरह से उस मूत्ति के ही द्वारा शस्त्रविद्या सीखी। इस उदाहरण से मूत्ति और मूर्तिपूजा की असलियत पर मूर्तिपूजकों की भाँति मूर्तिपूजन न करने वालों को भी अवश्य विश्वास करके अहर्निश प्राणप्रतिष्ठित प्रभुमूर्ति के दर्शन, वन्दन एवं उसकी पूजा-पूजन का लाभ अवश्य ही लेना चाहिए और मिले हुए मनुष्य भव को सफल करना चाहिए। ___'मूत्ति की सिद्धि एवं मूतिपूजा की प्राचीनता' शीर्षक मेरी लिखी पुस्तिका में शास्त्रीय प्रमाणों और युक्तियों Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६७ ) से यह सिद्ध किया गया है कि मूर्ति और मूर्ति की पूजा युक्तियुक्त है । कारण कि विश्व में प्रवर्त्तमान कोई भी धर्म या कोई भी सम्प्रदाय - समुदाय समाज ऐसा नहीं है जो प्रकारान्तर से भी मूर्ति न मानता हो या मूर्तिपूजा न करता हो । चाहे वह अपने को मूर्तिपूजक न कहता हो या मूर्तिपूजक कहता हो । ( १ ) मुसलमान लोग मूर्ति नहीं मानते हैं तो भी वे लोग काल्पनिक मूर्ति को तो मानते ही हैं । वे लोग पश्चिम दिशा की ओर अपना मुँह करके 'नमाज' पढ़ते हैं । प्रायः पश्चिम दिशा की तरफ पैर रखकर सोते नहीं हैं और टट्टी पेशाब भी नहीं करते हैं । कारण कि, उनके धर्मस्थानक मक्का-मदीना पश्चिम दिशा में हैं । वहाँ पर पहले मोहम्मद साहब थे, अभी तो नहीं हैं तो भी मानना पड़ेगा कि मानसिक कल्पना के द्वारा मोहम्मद साहब की सत्ता यानी मौजूदगी वहाँ पर मानकर ही उनके प्रति प्रादर बहुमान प्रदर्शित किया जाता है । कब्रिस्तान पर चादर चढ़ाना, पुष्प चढ़ाना और धूपपूजा आदि करना एवं ताजिया बनाना, रखना और जल में डुबोना क्या ये मूर्ति के और मूर्तिपूजा के द्योतक नहीं हैं ? कहना पड़ेगा कि अवश्य ही हैं । Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) (२) ईसाई लोग भी अपने धर्मस्थानक चर्च-गिरजा में शूली का चिह्न बनाते हैं ताकि ईशु के उपासकों में उनकी कर्तव्यपरायणता की स्मृति सदा बनी रहे । शूली की आकृति-पाकार मूर्तिरूप में ही है और उसकी पूजा भी प्रकारान्तर से मूर्तिपूजा ही है। (३) भूतकाल का और वर्तमानकाल का इतिहास कह रहा है कि-विश्व के लोगों में पूजाभाव की विद्यमानता मौजूदगी नहीं है तो फिर महत्त्वपूर्ण कार्य करने वालों के तैलचित्र या प्रस्तर मूत्तियाँ आदि क्यों बनाये जाते हैं ? भूतकाल की और वर्तमान काल की बनाई हुई सैकड़ों मूत्तियाँ आज भी अनेक स्थलों पर देखने में आती हैं। प्रत्येक धर्म में या प्रत्येक सम्प्रदाय में आज भी मूत्ति की पूजा आदि किसी-न-किसी स्वरूप में होती है। अनादिकालीन सनातन जैनधर्म सारे विश्व में अद्वितीय अलौकिक अजोड़ है। यह विनयमूलक सद्धर्म है । इसका सार विनय ही है। इसलिए शास्त्र में कहा है कि-'विणयमूले धम्मे पण्णत्ते।' वीतराग जिनेश्वर तीर्थंकर भगवान की भव्य मूत्ति का विधिपूर्वक जितना भी विनय सद्भावना युक्त किया जाय उतना ही प्रात्मा को उच्चकोटि का आत्म-कल्याण का प्रत्युत्तम विशेष Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६६ ) लाभ होगा । इतना ही नहीं किन्तु वह भव्यात्मा एक दिन भगवान की भक्ति से भगवान बन सकता है और तीर्थंकर की पदवी - उपाधि भी धारण कर सकता है । इसलिए यही कारण है कि जिनमूर्ति- जिनप्रतिमा- जिनबिम्ब को विधिपूर्वक की पूजा द्रव्य श्रौर भावयुक्त अनादिकाल से चली आ रही है । इस सम्बन्ध में कोई कहते हैं कि प्रभु की द्रव्यपूजा नहीं करनी चाहिए । ऐसा कहने वाले को समझना चाहिए कि द्रव्य बिना भाव का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है । यह जैनधर्म का सुदृढ़ सिद्धान्त है । विश्व में किसी भी प्रकार के धार्मिक या व्यावहारिक कार्य में पहले द्रव्यक्रिया करनी पड़ती है । उसके पश्चात् भाव का उदय होता है । अर्थात् द्रव्य करणी से ही भाव करणी का उदय होता है । इसलिए मूर्तिपूजक मूर्ति की द्रव्यपूजा करते हैं । भावपूजा का श्राविर्भाव मनुष्याधीन नहीं है। वह तो आत्मा के अनादि काल से लगे हुए कर्मों की निर्जरा पर निर्भर है । जब कभी भाव पूजा अपने मानस पटल पर आ जायेगी तो भी वह द्रव्यपूजा की महत्ता से ही । अतएव धर्मी जीवों-धर्मात्मानों को द्रव्यपूजा करनी परम आवश्यक Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७० ) है। वह द्रव्यपूजा सम्यक्शास्त्रानुसार विनय और विवेकयुक्त विधिपूर्वक ही करनी चाहिए। इसलिए जिनमूर्ति की जलचन्दनादि द्वारा अष्टप्रकारी पूजा आदि का विधान जैन आगमशास्त्र में आज भी विद्यमान है । देखिये (१) श्रीज्ञातासूत्र में-'सती द्रौपदी ने सम्यक्त्व पाने के पश्चात् प्रभुमूत्ति की पूजा की थी।' (२) श्रीरायपसेरणी सूत्र में प्रदेशी राजा के सम्यक्त्व युक्त जीव ने अवती होते हुए भी प्रभुमूत्ति की पूजा की थी। (३) श्रीप्रश्नव्याकरण सूत्र में-पास्रवद्वार और संवरद्वार का वर्णन आता है, जिसमें मूर्तिपूजा को संवरद्वार में माना है, प्रास्रवद्वार में नहीं। (४) श्रीप्रावश्यक सूत्र में कहा है कि-'कित्तिय वंविन महिना' अर्थात्-श्रीजिनेश्वर भगवान-तीर्थकर परमात्मा कीर्तन करने के योग्य हैं, वन्दन करने के योग्य हैं तथा द्रव्य और भाव से पूजन करने के योग्य हैं। ___ इसी तरह इतर धर्मों में भी मूर्तिपूजा के अनेक प्रमाण मौजूद हैं। Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतएव "जिनमूत्तिपूजा' अवश्य ही करना प्रत्येक गृहस्थ श्रावक एवं श्राविका का परम कर्तव्य है। श्रीवीर सं. २०४६ - स्थल - विक्रम सं. २५१६ श्रीजैन उपाश्रय नेमि सं. ४१ देसूरी, राजस्थान कात्तिक [मागसर] वद १० बुधवार दिनांक२२-११-१९८६ [श्रीउपधान तप मालारोपण दिन] Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीसम्प्रति महाराजा द्वारा मन्दिरों और मूत्तियों का निर्माण । . Lawwwwwewwwsememesewwwwxwxn सम्राट सम्प्रति का नाम आज भी भारत के इतिहास में सुवर्णाक्षरों में लिखा गया अमर है। वह कुणाल राजा का पुत्र था और सम्राट अशोक का पौत्र था। उसने दिग्विजय करके सोलह हजार राजाओं को जीत कर अनेक नगरों पर अपना वर्चस्व-आधिपत्य जमाया था। अपनी विजय-यात्रा की पूर्णाहुति कर अवन्ती नगरी में भव्य प्रवेश करने के पश्चात् सम्राट् सम्प्रति ने अपनी पूज्य जनेता माता के चरणों में सिर झुकाया और उसे आशीर्वाद देने को कहा। धर्मी माता ने कहा-"बेटा! तेरी इस विजय-यात्रा से मैं खुश नहीं हूँ। यदि तू जगह-जगह पर जिनमन्दिर Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७३ ) बनाकर और जिनमूर्ति स्थापित कर पाता तो मैं खुश होती और मेरा मन मयूर नाच उठता।" धन्य हो ऐसी धर्मी माता को। अपने पुत्र को आत्मिक विकास और आत्मोद्धार के सम्बन्ध में कैसी अनुपम प्रेरणा दी। उसी समय सम्प्रति ने कहा-"पूज्य मातृश्री ! आपकी अनुपम प्रेरणा और आपके शुभाशीर्वाद से 'मोह मेरी मैया' आपकी इस शुभेच्छा को मैं अवश्यमेव पूरी करूगा।" पश्चात् सम्प्रति ने राजज्योतिषी द्वारा अपना प्रायुष्य प्रायः १०० वर्ष का यानी ३६ हजार दिन का जानकर, उसी दिन से अपने मन में नूतन एक जिनमन्दिर-निर्माण के सम्बन्ध में एक महान् संकल्प किया। प्रतिदिन नूतन एक जिनमन्दिर के शिलान्यास यानी शिलास्थापन के शुभ समाचार आने के बाद माता के पास जाकर माता के चरणों में अपना सिर झुकाता। उस समय माता अपने प्रिय पुत्र के कपाल-ललाट पर कुमकुम का तिलक करके शुभाशीर्वाद देती। इसके पश्चात् ही सम्प्रति सम्राट् दातुन करता था । कैसा दृढ़ संकल्प । Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७४ ) अपने पूज्य गुरुदेव दशपूर्वधर महर्षि आर्यसुहस्ति सूरीश्वरजी महाराज से धर्म पाया और उन्हीं के सदुपदेश से तथा अपनी माता की महत्त्वपूर्ण प्रेरणा से, सम्प्रति महाराजा ने अपने जीवन-काल में सम्यक्त्वयुक्त मूलबारह व्रत स्वीकारे। अपने राज्य में प्रमारिपटह बजवाये। सवा करोड़ नूतन जिनबिम्ब भराये, छत्तीस हजार नूतन जिनमन्दिर बनवाये और नवाणु हजार प्राचीन जिनमन्दिरों का जीर्णोद्धार करवाया। तदुपरान्त कुल एक लाख पच्चीस हजार सात सौ दानशालाएँ खोल कर दान का प्रवाह बहाया। ___अनार्य देश में भी उपदेशकों द्वारा जैनधर्म-जैनशासन की अनुपम प्रभावना कराकर डंका बजवाया। और जैनधर्म का विजय ध्वज लहराया। जगत् में आज भी सम्प्रति महाराजा के समय की उनकी ओर से भराई हुई जिनेश्वर भगवान की सैकड़ों भव्य मूत्तियाँ-जिनप्रतिमाएँ और मनोहर जिनमन्दिरजिनप्रासाद-जिनालय विद्यमान हैं। भव्य आत्माएँ भी भक्तिभाव से उनके दर्शन, वन्दन एवं पूजनादि करके अपने जीवन को सफल करते हैं; पुण्योपार्जन करते हैं और मुक्तिमार्ग के सन्मुख होते हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७५ ) यह अनुपम प्रभाव श्रीजैनधर्म को-जैनशासन को प्रवर्त्ताने वाले देवाधिदेव वीतराग भगवन्त श्रीजिनेश्वरतीर्थंकर परमात्माओं का है। वर्तमान काल में इस अवसर्पिणी के चौबीसवें तीर्थंकर श्रमण भगवान महावीर परमात्मा का अनुपम प्रभाव है। प्राषाढ़ [ज्येष्ठ] वद ७ ११-६-१९६३ [अंजनशलाका दिन] जैन उपाश्रया कोसेलाव, राजस्थान Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ KARAN जिनदर्शनविधि Lwwwwwwwwwww जगत् में जिन प्रात्माओं ने इस प्रसार संसार के आवागमन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए अनुपम धर्ममार्ग बताया है ऐसे अरिहन्त भगवन्तों को और जिन आत्माओं ने उस अनुपम धर्ममार्ग को सही रूप सम्पूर्णपने अपनाकर इस असार संसार के आवागमन से मोक्ष प्राप्त कर लिया है ऐसे सिद्ध भगवन्तों को, तथा जो आत्माएँ उस अनुपम धर्ममार्ग को स्वयं अपना करके एवं दूसरों से भी अपनाने की जिनवारणी द्वारा शुभ प्रेरणा करके इस प्रसार संसार के आवागमन से मुक्त होने का भगीरथ पुरुषार्थ कर रही हैं ऐसे प्राचार्य महाराजा, उपाध्याय महाराजा और साधुमहाराजा के जिनवचन रूप कथनानुसार उत्तम जीवन जीने का प्रयत्न करने वाले 'जैन' हैं। यह जैन शब्द गुणवाचक है, जातिवाचक या व्यक्तिवाचक नहीं है । जिन्होंने प्रात्मा के अभ्यन्तर शत्रु राग-द्वषादि जीते हैं, वे 'जिन' कहलाते हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७७ ) ऐसे 'जिन' को भवोदधितारक मोक्षदायक वीतराग देवाधिदेव एवं परम पूज्य मानने वाले और उनके द्वारा प्ररूपित सद्धर्म को सानंद सोत्साह स्वीकारने वाले पाचरण करने वाले 'जैन' कहलाते हैं । अरिहन्तादि पाँच को 'पंचपरमेष्ठी' अर्थात् पाँच परम इष्ट मानते हैं। उनकी सम्यक् आराधना नाम, स्थापना, द्रव्य और भाव इन चारों से की जाती है; अर्थात् नामस्मरण, दर्शन, वन्दन एवं पूजन इत्यादिक से होती है। जिसके सर्वोत्कृष्ट पालम्बन से अपनी प्रात्मा संयमादि द्वारा इस असार संसार के आवागमन से मुक्त हो जाती है और मोक्ष के शाश्वत सुख को प्राप्त करती है । इस विश्व पर अनन्त उपकार अरिहन्त परमात्मा का है। इनके ही अनुपम प्रभाव से दस दृष्टान्त से दुर्लभ ऐसा मनुष्यभव, प्रार्यक्षेत्र, उत्तमकुल, उत्तमजाति-सद्धर्म और उत्तम साधन हुए हैं। इन्होंने विश्व के आवागमन से अपनी आत्मा को कर्म से मुक्त होने का सन्मार्ग बताया है । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७८ ) इनका ऋण चुकाने के लिए, इनके बताये हुए सन्मार्ग पर चलने के लिए और इनके ही समान बनने के लिए अहर्निश इनका दर्शन, वन्दन और पूजन इत्यादि अवश्यमेव करना चाहिए । वीतराग श्रीजिनेश्वरदेव के दर्शनादि करने के लिए जाने के पूर्व बाह्य शुद्धि-शरीर स्वच्छ एवं स्वस्थ होना चाहिए । वस्त्र भी साफ-सुथरे एवं मर्यादापूर्वक ढंग से पहने हुए होने चाहिए । अपने हृदय में उल्लासपूर्ण भावना रखकर घर से रवाना होना चाहिए । अक्षत, नैवेद्य, फल इत्यादि लेकर तथा पूजन करना हो तो भ्रष्टप्रकारी पूजन की सामग्री लेकर जिनमन्दिर जाना चाहिए । दर्शनार्थ जिनमन्दिर में जाने के लिए १० त्रिक का ध्यान रखना अति आवश्यक है । साथ में मार्ग में चलते-चलते जैसे ही जिनमन्दिर का शिखर तथा शिखर पर लहराती ऊँची ध्वजा दिखाई दे तत्काल अपने दोनों हाथ जोड़कर एवं सिर झुकाकर 'नमो जिणाणं' कहते हुए नमस्कार करना चाहिए । जिनमन्दिर के द्वार पर पहुँचते ही पैरों में से जूते निकाल दें | पैर यदि गंदे - खराब हुए हों तो पानी से पैर धोकर ही मन्दिरजी में प्रवेश करें । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ७६ ) * दसत्रिक * जिनमन्दिर में प्रवेश करके बाहर निकलने तक दस त्रिक का परिपालन अवश्य करना चाहिए (१) निसीही त्रिक, (२) प्रदक्षिणा त्रिक, (३) प्रणामत्रिक, (४) पूजा त्रिक (५) अवस्था त्रिक, (६) प्रमार्जना त्रिक, (७) दिशात्याग त्रिक, (८) पालम्बन त्रिक, (६) मुद्रा त्रिक एवं (१०) प्रणिधान त्रिक । इन दसों त्रिकों तथा इनके कुल ३० उपभेदों का क्रमशः संक्षिप्त वर्णन करेंगे (१) निसीही त्रिक-'निसीही' शब्द का अर्थ है 'निषेध करना।' तीन निसीही द्वारा तीन स्थानों पर विविध कार्यों का निषेध-त्याग करना है । जिनमन्दिर में प्रवेश करते ही प्रवेश द्वार पर प्रथम 'निसीही' कहना चाहिए । प्रारम्भ में 'प्रथम निसोही' कहने का कारण यह है कि-'हे प्रभो ! इस मन्दिर में मैं संसार के समस्त व्यापारों का त्रिकरण योगे अर्थात्-मन-वचन-काया से त्याग करता हूँ। Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८० ) दूसरी निसीही गंभारे के द्वार पर जब पहुँचे तब कहनी चाहिए। इसके कहने का कारण है कि-मन्दिर के भीतर सांसारिक बातें या सांसारिक प्रवृत्ति नहीं होनी । अर्थात्-जिनमन्दिर की सफाई और शिल्पी के कार्य की भलाई या बुराई कहने का मैं त्याग करता हूँ। अब सबसे पूर्व केसर-चन्दन रखने के कमरे में जाकर अपने कपाल-ललाट पर दो भौंहों के बीच मध्य भाग में बराबर प्राज्ञाचक्र के बिन्दु पर बादाम के आकार का, या दीपक की ज्योत जैसा तिलक करें। उस समय यह भावना भाना कि हे देवाधिदेव जिनेश्वर भगवान ! मैं आपकी आज्ञा शिरोधार्य करता हूँ। आपकी उपासना के लिए उपस्थित हुआ हूँ। यह उपासना आपकी आज्ञानुसार मैं विधिपूर्वक अवश्य करूंगा। इसके बाद सामने ही वीतराग परमात्मा की मूत्ति यदि दिखाई देती हो तो तत्काल दोनों हाथ जोड़कर और सिर झुकाकर नमन करते हुए 'नमो जिणाणं' कहना। यह अंजलिबद्ध प्रणाम नमस्कार है । १. पुरुषों को दीपक की ज्योत जैसा लम्बा तिलक अपने ललाट पर करना चाहिए और स्त्रियों को चन्द्रमा के समान गोल तिलक अपने कपाल में करना चाहिए । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८१ ) तीसरी निसीही-प्रभु की अष्टप्रकारी पूजा पूर्ण करने के पश्चाद् जिनचैत्यवन्दन का प्रारम्भ करने के पूर्व द्रव्यपूजा सम्बन्धी कार्यों के त्याग करने हेतु तीसरी निसीही बोलने की होती है। (२) प्रदक्षिणात्रिक-प्रदक्षिणा यानी फेरी । भगवान की दाहिनी ओर से बाँयों ओर चारों तरफ तीन बार दी जाती है। प्रदक्षिणा देते समय बातें नहीं करनी चाहिए, किन्तु प्रभु की प्रार्थनाएँ, दोहे इत्यादि बोलने चाहिए। ___ अनादिकाल से इस चार गति रूप संसार में परिभ्रमण कर रही आत्मा के भवभ्रमण को दूर करने के लिए श्रीजिनेश्वर भगवान के चारों तरफ तीन प्रदक्षिणा दी जाती है। तथा सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूपी रत्नत्रय की प्राप्ति के लिए भी तीन प्रदक्षिणा दी जाती है । ये तीन प्रदक्षिणा परमात्मस्वरूप प्राप्त कराने वाली और भवभ्रमण को सदा के लिए मिटाने वाली हैं । प्रदक्षिणा के दौरान जहाँ जिनमूत्ति दिखाई देती हो, वहाँ पर सिर झुकाकर नमन करना चाहिए। इस तरह तीन प्रदक्षिणा देवें। * पहली प्रदक्षिणा देते समय कहना कि-'हे प्रभो ! दर्शनगुणस्य प्राप्त्यर्थं प्रथमप्रदक्षिणा ददामि ।' Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५२ ) हे प्रभो ! दर्शनगुण की प्राप्ति के लिए मैं पहली प्रदक्षिणा देता हूँ। * 'हे प्रभो ! ज्ञानगुणस्य प्राप्त्यर्थं द्वितीयप्रदक्षिणा ददामि। हे प्रभो ! ज्ञानगुण की प्राप्ति के लिए मैं दूसरी प्रदक्षिणा देता हूँ। * 'हे प्रभो! चारित्रगुणस्य प्राप्त्यर्थं तृतीयप्रदक्षिणा ददामि। हे प्रभो ! चारित्रगुण की प्राप्ति के लिए मैं तीसरी प्रदक्षिणा देता हूँ। (३) प्रणामत्रिक-प्रणाम यानी नमस्कार-नमन करना । वह तीन प्रकार का है। अंजलिबद्ध, अर्धावनत और पंचांग प्रणिपात । उनमें (१) अंजलिबद्ध प्रणाम-परमात्मा को देखते ही अपने दोनों हाथ जोड़कर सिर में लगाकर और सिर को झुकाते हुए 'नमो जिरणाणं' कहकर जो प्रणाम किया जाता है वह 'अंजलिबद्ध प्रणाम' है । (२) अर्धावनत प्रणाम-परमात्मा के गर्भद्वार के पास पहुँच कर अपनी कमर तक काया-शरीर को झुकाकर Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८३ ) और दोनों हाथ जोड़कर जो प्रणाम किया जाता है वह 'अर्धावनत प्रणाम' है। (३) पंचांग प्रणिपात प्रणाम-अपने दोनों हाथ, मस्तक और दोनों घुटने अर्थात् शरीर के इन पाँच अंगों को जमोन पर स्पर्श कराना वह 'पंचांग प्रणिपात' है। तीन प्रदक्षिणा देने के बाद मूल गम्भारे के सामने पुरुषों को भगवान की दाहिनी तरफ और स्त्रियों को भगवान की बायीं यानी डाबी तरफ खड़े रहकर दर्शन करने चाहिए। कारण कि-बीच में खड़े रहकर दर्शन करने से पीछे से दर्शन करने वालों को और चैत्यवन्दनादि करने वालों को बाधा नहीं पहुँचे, इसलिए बाजू में खड़े रहकर दर्शनादि करें। गंभारे के द्वार पर, प्रभु के सामने खड़ रहते वक्त अपना शरीर आधा झुकाकर अर्धावनत प्रणाम-नमस्कार करें। तथा भक्तिभावपूर्वक भावविभोर बनकर प्रभु की स्तुति करें-प्रार्थना करें। दर्शनं देवदेवस्य, दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्गसोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम् ॥१॥ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ ) इसके बाद धूप एवं दीपक द्वारा प्रभु की पूजा करें 1 चँवर भी दुलावें । प्रभुजी के समक्ष पाटे । स्वस्तिक - साथिया करें । पर चैत्यवन्दन करते समय पंचांग प्रणिपातपूर्वक यानी दोनों घुटनों, दोनों हाथों और मस्तक को जमीन पर छुप्राकर प्रणाम - नमस्कार करना । ( ४ ) पूजात्रिक - पूजा के दो भेद हैं । द्रव्यपूजा और भावपूजा । उनमें द्रव्यपूजा के दो भेद जानना । अंगपूजा और अग्रपूजा । * प्रभुजी की जल, चन्दन, पुष्प, वासक्षेप, ग्रांगी और विलेपन वगैरह से पूजा करना, वह 'अंगपूजा' है । * प्रभुजी के आगे धूप, दीप, अक्षत, फल और नैवेद्य आदि से पूजा करना वह 'अग्रपूजा' है । अंगपूजा और अग्रपूजा ये दोनों मिलकर प्रष्टप्रकारी पूजा होती है । * चैत्यवन्दन, स्तुति-स्तवन, गीत-गान, नृत्य-नाच, कीर्तन-भजन, चिन्तन - स्मरण और ध्यान इत्यादि से प्रभुजी की जो भावभक्ति की जावे, वह 'भावपूजा' है । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८५ ) इस तरह अष्टप्रकारी जिनपूजा-स्नात्रपूजा इत्यादि पूर्ण होने के पश्चाद् भारती एवं मंगलदीप किया जाता है। (५) अवस्था त्रिक-यानी प्रभु की तीन अवस्थाएँ । प्रभु की भिन्न-भिन्न अवस्था का चिन्तन पिण्डस्थ, पदस्थ और रूपस्थ इन तीनों से करने का होता है। इस त्रिक द्वारा प्रभु के जन्म से लेकर मोक्ष-निर्वाण पर्यन्त की पाँच अवस्थाओं का चिन्तन किया जाता है। उनमें पिण्डस्थ के सम्बन्ध में प्रभु को तीन अवस्था का चिन्तन करना चाहिए। जन्मावस्था, राज्यावस्था और श्रमणावस्था का। * जन्मावस्था-हे देवाधिदेव जिनेश्वर भगवन् ! आपका अन्तिमभव यानी मनुष्यभव तीर्थंकर स्वरूप में होता है। आपने तीर्थंकर के भव में जब जन्म पाया तब छप्पन दिग्कुमारिकाओं ने आकर तथा चौंसठ इन्द्रों ने भी आकर आपका जन्मकल्याणकरूप जन्मोत्सव मनाया। स्वर्णमय मेरुपर्वत पर जन्माभिषेक किया। आपके जन्म वक्त भी तीनों लोकों में दिव्य प्रकाश होता है, तथा सभी त्रस और स्थावर जीवों को क्षण भर सुख और आनंद की अनुभूति हो जाती है। यह कैसी आपकी अनुपम महिमा ! Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८६ ) बाल्यावस्था में प्रापको सम्यग्मति-श्रुत-अवधिज्ञान होते हुए भी लेशमात्र उत्कर्ष या अभिमान-अहंकार आपने नहीं किया। धन्य है आपकी उत्तम लघुता और धन्य है आपका अनुपम गाम्भीर्य गुण । * राज्यावस्था-हे वीतराग जिनेश्वरदेव ! आपको महान् साम्राज्य मिला, वैभव-सम्पत्ति और परिवार मिले तो भो उनसे आप राग और द्वेष से रहित रहे, निलिप्त रहे, इतना ही नहीं किन्तु अनासक्त योगी महात्मा जैसे रहे। प्रभो ! धन्य है आपका उत्कृष्ट वैराग्य । * श्रमणावस्था-हे भवसिन्धु तारक परमात्मन् ! आपने प्राप्त किये हुए सांसारिक सारे वैभव को तृण यानी घास के समान त्याग कर प्रात्मकल्याण के लिए संयम स्वीकार कर अर्थात् साधु जीवन प्राप्त कर अनुकूल या प्रतिकूल अनेक उपद्रव-उपसर्ग एवं परीषह समता भाव से सहन किये। साथ में अतुल त्याग तथा कठोर तपश्चर्या करके भी आपने चार घनघाती कर्मों का सर्वथा घात यानी विनाश किया। प्रभो ! धन्य है आपकी अनुपम साधना और धन्य है आपका महान् पराक्रम । * पदस्थावस्था-पदस्थ अवस्था यानी तीर्थंकर पद भोगने की अवस्था कहो जाती है । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसकी भावना इस तरह भावे कि हे तरनतारन तोर्थंकर परमात्मन् ! आपने तीर्थंकर पद प्राप्त कर इस संसार के जीवों पर अनंत उपकार किया है। चौंतीस अतिशय से समलंकृत अरिहन्त-तीर्थंकर भगवन्त बनकर वारणो के पैंतोस गुणों से परिपूर्ण होकर तत्त्व मार्ग-सिद्धान्त को धर्मदेशनारूप पीयूष-अमृत का अनुपम पान कराया है। तीर्थ, चतुर्विध संघ एवं शासन को सर्वोत्कृष्ट स्थापना की है। साधु-साध्वी-श्रावक-श्राविका इन चारों को धर्मतीर्थ के सभ्य बनाये हैं। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यगचारित्र रूप त्रिवेणी संगम द्वारा मोक्ष का मार्ग बताया है। अनेकान्तवाद-स्याद्वाद, सप्तभंगी, नयवाद, प्रमाण, निक्षेप तथा नवतत्त्व इत्यादि लोकोत्तर सिद्धान्त दिये हैं। दर्शन-वन्दन-पूजन-स्मरण-चिन्तन-मनन तथा ध्यान इत्यादि में भी प्रशस्त पालम्बन देकर जगत् की जनता पर महान् उपकार किया है। हे विश्ववन्ध-विश्वविभो ! अाप अशोकवृक्ष इत्यादि अष्ट प्रातिहार्यों से युक्त और इन्द्र महाराजाओं आदि से सेवित हैं। महाबुद्धि निधान श्रुतकेवली ऐसे गणधर भगवन्त भी आपकी अनुपम सेवा करते हैं। आपकी वाणी पैंतीस गुणों से समलंकृत है । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८८ ) कैसा है आपकी दिव्यवाणी का अद्वितीय प्रभाव ! आपके समवसरण में हिंसक प्राणी भी अपने जन्मजात वैरी के साथ मित्रभाव से बैठकर वाणी का श्रवण करते हैं। अहो ! आपके स्मरण, दर्शन, वन्दन, पूजन एवं ध्यान मात्र से भी भक्तजनों का दुःख दूर होता है, पाप का विनाश होता है, पुण्योपार्जन होता है तथा प्रान्ते संयम द्वारा सकलकर्म के क्षय के साथ मोक्ष का शाश्वत सुख भी मिलता है। आपका इस विश्व-संसार पर अनन्त उपकार है । इतने पर भी आपको बदले में कुछ भी नहीं चाहिए । कैसी है आपकी यह अकारणवत्सलता ! वात्सल्यभाव । घोर अपकारी-अपराधी ऐसे जीवों पर भी तारने का उत्तम उपकार किया है आपने । * रूपस्थावस्था-रूपस्थ अवस्था यानी शुद्ध स्वरूप अवस्था। हे वीतराग परमात्मन् ! आपने प्रष्ट कर्मों को सर्वथा निर्मूल कर अशरीरी, अरूपी, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त एवं सिद्ध अवस्था प्राप्त करके अनंतज्ञानगुण, अनंतदर्शनगुण, अव्याबाधगुण, अनंतचारित्रगुण, अक्षयस्थितिगुण, अरूपोनिरंजनगुण, अगुरुलघुगुण एवं अनंतवीर्यगुण प्राप्त किया है। Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( दह ) आप ईषद् प्राग्भार पृथ्वी - सिद्धशिला पर पर सादि अनंत स्थिति में विराजमान हो गये, जहाँ पर नित्य निष्कलंक, निर्विकार, निराकार स्थिति है । हे प्रभो ! जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक, दारिद्रय इत्यादि सभी पीड़ाओं से सर्वथा श्राप मुक्त हो चुके हो । धन्य हो, धन्य हो, धन्य हो हे वीतरागी प्रभो ! 1 (६) दिशात्याग त्रिक- चैत्यवन्दन प्रारम्भ करने के पूर्व जिस दिशा में जिनेश्वरदेव बिराजमान हैं, उसके अतिरिक्त तीन दिशा दायीं, बायीं और पिछली इन तीन दिशाओं में देखने की क्रिया को बन्द करना; उसे ही दिशात्याग त्रिक कहते हैं । अर्थात् जब तक चैत्यवन्दन पूर्ण हो तब तक देवाधिदेव जिनेश्वर भगवान की मूर्ति के सामने ही देखना | (७) प्रमार्जना त्रिक- प्रमार्जना यानी उपयोगपूर्वक प्रभु का चैत्यवन्दन छोर अर्थात् किनारों से पूजना - प्रमार्जित करना । प्रमार्जित करना अर्थात् पूजना । प्रारम्भ करने के पूर्व दुपट्ट े के बैठने की जगह को मृदुता से उसे ही प्रमार्जना त्रिक कहते हैं । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (६० ) (८) पालम्बन त्रिक-जिनमूत्ति का, जो शब्द बोलते हैं उनका और उनके अर्थ का पालम्बन लेकर चित्त उसी में स्थिर रखना। ये ही पालम्बन त्रिक हैं । अर्थात् चैत्यवन्दन करते समय अपने मन, वचन और काया के योग अप्रशस्त भावों में न चले जायें, उनका ध्यान रखने के लिए यह पालम्बन त्रिक कहा है। इनके द्वारा मन-वचन-काया के योग को स्थिर करके भगवान के भक्ति-योग में तदाकार हो जाना चाहिए। (६) मुद्रात्रिक-मुद्रा यानी अभिनय करना। विविध प्रकार की मुद्राओं का विधान जैनशास्त्रों में किया गया है। प्रभु की अंजनशलाका-प्राणप्रतिष्ठा में योग आदि विधियों में, मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र आदि साधनामों में तथा धार्मिक पूजा-पूजना चैत्यवन्दन-देववन्दन-सामायिकप्रतिक्रमण एवं आवश्यक आदि क्रियाओं में भिन्न-भिन्न अनेक प्रकार की मुद्राएँ अवश्य करनी पड़ती हैं । __ तथा भिन्न-भिन्न सूत्रों का उच्चारण करते समय भी शरीर की मुद्राएँ परिवर्तित करनी पड़ती हैं । __ प्रस्तुत चैत्यवन्दन आदि विधि में योगमुद्रा, मुक्ताशुक्तिमुद्रा एवं जिनमुद्रा पाती हैं। इस मुद्रा त्रिक की तीनों प्रशस्त मुद्राएँ निम्नलिखित प्रमाणे हैं। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६१ ) * योगमुद्रा-दो हाथ जोड़कर दोनों हाथों की कोहनी अपने पेट पर रखें तथा जुड़े हुए दोनों हाथों को अंगुलियाँ एक दूसरे में क्रमशः गुँथी हुई हों, एवं अपनी हथेली का आकार भी कोश के डोडे की माफिक अर्थात् अविकसित कमल की तरह करे तो वह 'योगमुद्रा' कही जाती है । जिनेश्वर भगवन्त की स्तुति, स्तवन, चैत्यवन्दन तथा इरियावहियं - रणमुत्थुणं - अरिहंत चेइप्राणं इत्यादि सूत्र इस योगमुद्रा में बोले जाते हैं । सूत्र, स्तुति और स्तवन इत्यादि बोलते समय अपना बायाँ घुटना ऊपर, दायाँ घुटना नीचे और दोनों हाथों की कोहनी पेट पर रखकर अपने दोनों हाथ इस प्रकार जोड़ने चाहिए कि एक अंगुली का सहारा रहे । * मुक्ताशुक्ति मुद्रा - मुक्ता यानी मोती, शुक्ति यानी उसका उत्पत्तिस्थान रूप सीप | उसके आकार वाली मुद्रा, वह 'मुक्ताशुक्तिमुद्रा' कही जाती है । इस मुद्रा में दोनों हथेलियों को सम यानी अगुलियों को परस्पर अन्तरित किये बिना रखना होता है । अर्थात् दोनों हथेलियाँ इस तरह मिलें कि भीतर से पोलापन रहे और बाहर कछुए की पीठ की तरह उठी रहे । दोनों Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) हथेलियाँ चिपका कर नहीं रखनी चाहिए । इस तरह रखे हुए दोनों हाथ मोती की सीप की आकार के बनते हैं । मिली हुई दोनों हथेलियों को ललाट पर रखना । कितनेक प्राचार्य यह भी कहते हैं कि - " दोनों हाथ कपालेललाटे न रखना, किन्तु भाल- कपाल ललाट के सम्मुख ऊँचा रखना ।" यह मुक्ताशुक्तिमुद्रा कहलाती है । "योगमुद्रा, जिनमुद्रा और मुक्ताशुक्ति मुद्रा' इन तीन मुद्रात्रों का उपयोग नीचे प्रमाणे होता है• पंचाङ्ग प्रणिपात और और स्तवनपाठ योगमुद्रा में करना । । चैत्यवन्दन करते समय चैत्यवन्दन और नमुत्थुणं योगमुद्रा में होता है । उसमें जावंति चेइग्राइं और जावंत के वि साहु तथा जयवीयराय यह जो योगमुद्रा चालू होती है, तो भी दोनों हाथ ललाट पर ऊँचे रखकर मुक्ताशुक्तिमुद्रा से ये तीनों प्रणिधान करते हैं । जयवीयराय बीच में स्तवन योगमुद्रा में होता है । के बाद अरिहंत चेप्राणं, कायोत्सर्ग, थोय इत्यादि खड़े होकर जिनमुद्रा में करते हैं । तथा चैत्यवन्दन या Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६३ ) देववन्दन करने से पहले इरियावहियं प्रतिक्रमाती है, वह भी लोगस्स कहने तक जिनमुद्रा में होता है । * प्रणिधान त्रिक- चैत्यवन्दन, मुनिवन्दन मन, प्रार्थना स्वरूप अथवा एकाग्रपना; यह प्रणिधानत्रिक कहा जाता है । और वचन तथा काया का (१) 'जावंति चेडयाई' सूत्र में तीन लोक में वर्त्तते हुए चैत्यों को नमस्कार होने से चैत्यवन्दन सूत्र कहा जाता है, 'जावंत के वि साहू' सूत्र में ढाई द्वीप में वर्त्तते समस्त साधुनों को नमस्कार होने से वे मुनिवन्दनसूत्र कहे जाते हैं । तथा 'जयवीयराय' सूत्र में भव से वैराग्य, मार्गानुसारिपना, इष्ट फल की सिद्धि, लोकविरुद्ध का त्याग, गुरुजन की पूजा, परोपकारकरण, सद्गुरु का योग और भवपर्यन्त सद्गुरु के वचन की सेवा और प्रभुचरणों की सेवा । ये नौ वस्तुएँ श्रीवीतराग प्रभु से याचना करने से यह 'प्रार्थना सूत्र' गिना जाता है । यह तीसरा प्रणिधान चैत्यवन्दना के अन्त में अवश्य करना चाहिए | इस तरह दस त्रिक का संक्षिप्त वर्णन जानना । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पाँच अभिगम * अभिगम के पाँच प्रकार इस प्रकार है (१) अपने पास के खाद्य पदार्थ, सूघने के पुष्प-फूल, अथवा अपने देह पर धारण की हुई पुष्प-फूल की माला इत्यादि सचित्त द्रव्य छोड़कर जिनमन्दिर-चैत्य में प्रवेश करना। ___यह भी एक प्रकार का प्रभुजी का प्रादर और विनय है। पाँच अभिगमों में यह पहला अभिगम है । (२) पहने हुए प्राभरण, वस्त्र, पात्र तथा नाणां न छोड़ना, यह दूसरा अभिगम है । (३) मन की एकाग्रता रखनी, यह तीसरा अभिगम है। (४) दोनों छोरों पर दशियों वाला और बीच में न सँधा हुआ प्रखण्ड उत्तरासङ्ग [खेस] रखना, यह चौथा अभिगम है । (५) वीतराग विभु-प्रभुजी की मूत्ति देखने के साथ 'नमो जिणाणं' कह कर अञ्जलिपूर्वक शिर-मस्तक नमाकर नमस्कार-प्रणाम करना, यह पाँचवाँ अभिगम है । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) ये पाँचों अभिगम श्रीजिनेश्वर भगवान के पास जाते समय करने के हैं। ये पाँच अभिगम अल्प ऋद्धिवन्त श्रावक को उद्देश्य कर कहे गये हैं । अपने खाने-पीने की और सूघने को वस्तुएँ अचित्त हों, तो भी श्रीजिनेश्वर भगवान की दृष्टि न पड़े, अतः चैत्य-मन्दिरजी के बाहर छोड़कर ही प्रवेश करना। जो दृष्टिगत हुई हों तो वे वस्तुएँ अपने उपयोग में न लेना, ऐसा आचरण भी प्रभुजी के लोकोत्तर विनय रूप है । खेस रखने की विधि, अंगपूजा तथा उत्कृष्ट चैत्यवन्दन करने वाले के लिए है, तो भी अन्य पुरुषों को भी पगड़ी और खेस युक्त ही प्रभुजी के पास जाना चाहिए । नहीं तो प्रभुजी का अविनय गिना जाता है। पूजा के समय पुरुष को दो वस्त्र और स्त्री को जघन्य से तीन वस्त्र रखने चाहिए। अंगपूजा तथा उत्कृष्ट चैत्यवन्दन के समय खेस अवश्य रखना चाहिए। स्त्रियों को अंजलि शिर-मस्तक नमाना चाहिए, किन्तु अंजलि के साथ हाथ ऊँचे कर शिर-मस्तक पर नहीं लगाने चाहिए। स्त्री वर्ग वस्त्रावृत्त अंग-शरीर वाली ही होनी चाहिए। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ९६ ) अन्य रोति से भी पाँच अभिगम इस प्रकार हैं * श्रीजिनेश्वर भगवान के दर्शन करने की भावना वाले राजा प्रादि को महद्धिक होते हुए भी अपने राजचिह्न बाहर छोड़कर ही जिनचैत्य-जिनमन्दिर में प्रवेश करना चाहिए। क्योंकि तीन भुवन के सम्राट् देवाधिदेव श्रीजिनेश्वर भगवान के आगे अपना राजापना दर्शाना अत्यन्त अविनय है। प्रभु के पास तो सेवक भाव ही दर्शाने का होता है । प्रभु का सेवक बनना भी परमभाग्य से ही होता है । मुकुट यानी शिरोवेष्टन पर राजचिह्न तरीके जो कलगीवाला ताज पहनाते हैं वह जानना, किन्तु शिरोवेष्टन समझना नहीं। कारण कि उघाड़े मस्तक प्रभु के पास नहीं जाना चाहिए। महापाडम्बरपूर्वक परिवारयुक्त, प्रभु के दर्शन-वन्दनादि करने को जाना चाहिए । इससे अनेक जीवों के मन में प्रभु के प्रति भक्तिराग जागृत होकर उन्हें सम्यक्त्वादि गुणों का लाभ होता है । 00 Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट - १ AAA जिनदर्शन-पूजन की महिमा पवित्र भूमि है । एवं मन्दिर हैं । हमारी भारतीय संस्कृति तीर्थों एवं मन्दिरों की हमारी संस्कृति के संदेशवाहक तीर्थं दोनों विधायक साधन सुन्दर हैं । प्राणी मात्र की बाह्य और प्रांतरिक श्रावश्यकता तीर्थों और मन्दिरों में रही हुई प्रभु की मूर्ति से परिपूर्ण होती है । प्रभु वीतरागदेव की मूर्ति विश्व की जनता को आत्मोन्नति आदि कार्यों में सक्षम श्रालम्बन है । अपने चंचल मन को प्रसन्नता की ओर ले जाने के लिए प्रबल कारण है । जैसे स्विच बल्ब में प्रकाश को खींच लाती है वैसे वीतराग विभु की मूर्ति दूर रही हुई मुक्ति मंजिल को खींच लाती है । अर्थात् मुक्ति को अपने समीप लाने में प्रति सहायक बनती है । Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ६८ ) हमारे आत्मबल को और प्रात्मतेज को विकसित करने वाले ऐसे जिनमंदिर में, जिनचैत्य में जिनालय में जाने की भावना अहर्निश रहनी चाहिए। 'चलो जिनमंदिर चलें' यही वाक्य हृदय मन्दिर में अवश्य जागृत रहना चाहिए। तथा त्रिकाल अपने मस्तिष्क में गूंजना चाहिए। जिनमंदिर चलने की, जिनदर्शन की और जिनपूजन की विधि में सक्रिय बनना चाहिए । वीतराग श्रीजिनेश्वर देव के दर्शन एवं पूजन-पूजातथा भक्ति आदि से आत्मा के ताप, संताप और पाप इन तीनों का विनाश होता है। उपसर्ग एवं उपद्रव उपशान्त हो जाते हैं। विघ्न की बेलड़ियाँ छेदी जाती हैं। मन प्रसन्न हो जाता है और परम परमात्मा का अनुभव करता है। दुःख, दर्द, रोग, रंज, अशाता एवं अशान्ति सब दूर हो जाते हैं। तथा आत्मा सुख, शान्ति, आनन्द एवं प्रारोग्य प्राप्त करता है, इतना ही नहीं किन्तु सम्यग्दर्शन-ज्ञानचारित्र द्वारा यही प्रात्मा अन्तिम समाधिपूर्वक सकल कर्म का सर्वथा क्षय कर शाश्वत सुख-सचिदानन्दस्वरूप में मग्न-लीन हो जाता है। तथा सादि अनंत स्थिति में सर्वदा सिद्ध भगवन्तों के साथ मोक्षस्थान में निवास करता है। Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( 6 ) धर्मी जीवों-धर्मात्माओं को अहर्निश जिनमन्दिर जाना चाहिए और जिनदर्शन एवं जिनपूजा-पूजन प्रमुख का अनुपम लाभ अवश्य लेना चाहिए। श्रीवीतराग विभु के अनुयायी श्रद्धावंत श्रावक को अपना निवास-स्थान जिनमन्दिर-जिनालय के समीप में ही रखना चाहिए, ऐसा शास्त्र में विधान है। जिनमन्दिर जाने की विधि का आदर होना चाहिए (१) प्रभु के दर्शनादि के लिए जिनमन्दिर जाने की इच्छा मात्र करने पर एक उपवास का लाभ होता है । अर्थात् एक उपवास का फल मिलता है । (२) जिनमंदिर जाने के लिए खड़ा होने पर बेले यानी दो उपवास का फल मिलता है । अर्थात् दो उपवास का पुण्य प्राप्त होता है । (३) जिनमंदिर जाने के लिए पैर उठाने पर तेले यानी तीन उपवास का फल मिलता है । (४) जिनमंदिर जाने के लिए कदम उठाते ही अर्थात् चलना प्रारम्भ करने पर चार उपवास का पुण्य प्राप्त होता है । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०० ) (५) जिनमंदिर जाने के लिए राह में अल्प चलने पर पांच उपवास का फल मिलता है । (६) जिनमंदिर जाने के लिए अर्द्ध पथ आते ही पंद्रह उपवास का पुण्य प्राप्त होता है। (७) जिनमंदिर का दर्शन होने पर अर्थात् जिनमंदिर दिखने पर मासक्षमण का यानी एक महीने के उपवास का फल मिलता है। (८) जब जिनमंदिर के समीप पाता है तब छह मास यानी छह महीने के उपवास का पुण्य प्राप्त करता है। (६) श्रीजिनेश्वरदेव की मूत्ति-प्रतिमा के दर्शन का अभिलाषी जब मंदिर के द्वार-दरवाजे के पास पहुँचता है तब एक वर्ष के उपवास का फल प्राप्त करता है । (१०) जिनमंदिर में तीन प्रदक्षिणा देने से सौ वर्ष के उपवास का फल मिलता है । (११) देवाधिदेव श्रीजिनेश्वर भगवान की मूत्तिप्रतिमा की पूजा करने से एक हजार वर्ष के उपवास का फल मिलता है। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०१ ) (१२) वीतराग प्रभुदर्शन के फल की अपेक्षा श्रीजिनेश्वर भगवान की मूत्ति-प्रतिमा का प्रमार्जन करने से सौ-गुना फल मिलता है । (१३) श्रीजिनबिम्ब-मूत्ति-प्रतिमा का विलेपन करने से हजार गुना फल मिलता है। (१४) श्रीजिनबिम्ब-मूति-प्रतिमा को सुगन्धित पुष्प-फूलों की माला पहनाने से लाख गुना फल मिलता है। (१५) श्रीजिनबिम्ब-मूत्ति-प्रतिमा के सम्मुख भावभक्तिपूर्वक स्तुति-स्तवन, गीत-गान और नृत्य-नाच इत्यादि करने से अनंत गुना फल मिलता है। इसके समर्थन में शास्त्र में कहा है किसयं पमज्जणे पुन्न, सहस्सं च विलेवणे। सयसहस्सिया माला, अनंत गीयवायए ॥१॥ Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-२ । त्रिकाल जिनपूजा-पूजन का समय Lwwwwwwwwwwwwwwwwwwwd जैनशास्त्रों में स्थान-स्थान पर जिनदर्शन एवं जिनपूजा-पूजन का विधिपूर्वक विधान है। प्रातःकाल की पूजा, मध्याह्न काल की पूजा एवं सन्ध्याकाल की पूजाएँ सुप्रसिद्ध हैं। (१) प्रातःकाल की प्रभुपूजा-प्रातःकाल की पूजा के लिए श्रावक रात्रि के चौथे प्रहर में अर्थात् ब्राह्ममुहूर्त में' सूर्योदय से ४ घटिका पूर्व अर्थात् १।। घंटे पूर्व जाग्रत होकर पंचपरमेष्ठी का स्मरण करते हुए शयन का त्याग कर देता है। एक सामायिक और राईप्रतिक्रमण पूर्ण करने के पश्चाद् अपने हाथ, पैर और मुख प्रादि साफ करता है । बाद में योग्य शुद्ध वस्त्र धारण करके जब वह जिनमन्दिर १. सूर्य का उदय होने में जब चार घड़ी यानी ६६ मिनट बाकी रहें तब उस समय को 'ब्राह्ममुहूर्त' कहते हैं । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०३ ) जाने के लिए अपने पैर उठाता है, तब पूर्वदिशा में सूर्य का उदय हो जाता है । मार्ग में चलते हुए जीवों की रक्षा करते हुए तथा यथास्थान दस त्रिकों का सम्यग् पालन करने के साथ-साथ वह जिनमन्दिर में प्रवेश निस्सही' कहकर करे । तीन प्रदक्षिणा देकर परमात्मा की स्तुति करे । पुरुष प्रभु की दक्षिण बाजू में और स्त्री प्रभु की बायीं बाजू में खड़े होकर भगवान के दर्शन एवं स्तुतिप्रार्थना करे | भगवान से उत्कृष्ट ६० हाथ दूर या जघन्य से 8 हाथ दूर खड़े होकर दर्शन एवं स्तुति आदि की जाय । बाद में उत्तम प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों से जिनबिम्ब जिनमूर्ति - जिनप्रतिमा की वासक्षेप पूजा करे । उसके पश्चाद् धूपपूजा एवं दीपकपूजा करके चैत्यवन्दन करे | तत्पश्चाद् यथाशक्ति नवकारसी आदि या प्रायंबिल - उपवासादि का पच्चक्खाण ग्रहरण करे । १. पहली निस्सही कहकर घर-व्यापारादि सम्बन्धी समस्त चिन्ता को दूर करे। दूसरी निस्सही से जिनमन्दिर में जहाँ-जहाँ श्राशातना होती हो, वहाँ-वहाँ उसको देखकर उसकी शुद्धि करे । तथा तीसरी निस्सही कह करके मन-वचन-काया की एकाग्रता से शुद्धिपूर्वक स्तुति प्रार्थनादि करे । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०४ ) परमात्मा की यही प्रातःकाल की पूजा कही जाती है। जिनमन्दिर से बाहर निकलने के समय 'प्रावस्साहि' अवश्य कही जाती है। (२) मध्याह्न काल को प्रभु पूजा-मध्याह्न काल में भोजन के पूर्व श्रावक जयणापूर्वक परिमित जल से स्नान करे । स्नान करने के समय पूर्वदिशा के सम्मुख मुख रखकर स्नान करना चाहिए। जिस पट्टे पर बैठकर स्नान किया जाय, वह नालयुक्त और जमीन से ऊँचा ऐसा होना चाहिए कि जिससे जल बाहर निकल जाये, तथा किसी जीव को दुःख न होवे अर्थात् बाधा न पहुँचे । स्नान के पश्चात् स्वच्छ वस्त्र से अपने अंग-शरीर को साफ करना चाहिए। तथा स्नान वाले वस्त्र को बदलकर ऊनी कम्बल पहननी चाहिए। जब तक अपने पैर न सूख जाय, तब तक खड़े रहना चाहिए। और मन में जिनेश्वर भगवन्त का स्मरण करते रहें। बाद में पुरुष को पूजा के शुद्ध वस्त्र धोती और दुपट्टा-खेस दोनों ही पहनने के हैं, न कि लेंघा, चड्डी, रेशमी झब्बा प्रादि । Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०५ ) स्त्री को पूजा के योग्य तीन वस्त्र पहनने चाहिए। तदुपरान्त रुमाल रखने का। पूजाविधि में पुरुष स्त्री के वस्त्र न पहने और स्त्री पुरुष के वस्त्र न पहने । इस तरह प्रभु-पूजा के वस्त्र पहन कर अष्टप्रकार के पूजा के द्रव्य 'जल, चन्दन, पुष्प, धूप, अक्षत, फल, नैवेद्य और दीपक' इन प्रष्ट द्रव्यों से युक्त जिनमन्दिर में प्राकर विधिपूर्वक अष्ट द्रव्यों से अष्टप्रकारी पूजा प्रभु की करते हैं। द्रव्यपूजा और भावपूजा करके दोनों ही श्रावक-श्राविका पुण्योपार्जन करते हैं । यही मध्याह्न काल की पूजा कही जाती है। पूजा के समय सात प्रकार की शुद्धि होनी चाहिए-(१) मन की शुद्धि, (२) वचन की शुद्धि, (३) काया की शुद्धि, (४) वस्त्र की शुद्धि, (५) भूमि की शुद्धि, (६) पूजा के उपकरण, और (७) स्थिति । इन सातों की शुद्धि अवश्य होनी चाहिए। (३) सन्ध्याकाल की पूजा-सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व भोजन और जल-पानी कार्य पूर्ण करके जिनमन्दिर आकर श्रावक दर्शन, नमस्कार, प्रदक्षिणा और स्तुति आदि करके धूप-दीप जलाता है। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) बाद में चैत्यवन्दन एवं पच्चक्खाण करके धार्मिक उपाश्रय में जाकर देवसि प्रतिक्रमण करते हैं। यह सन्ध्याकालीन पूजा कही जाती है । प्रत्येक श्रावक-श्राविका को प्रतिदिन प्रातः-मध्याह्न, सायंकालीन प्रभु की पूजा अवश्य ही करनी चाहिए । प्रत्येक साधु-साध्वीजी को भी प्रतिदिन जिनमन्दिर में जाकर वीतरागदेव के दर्शन-वन्दन-स्तुति-स्तवन-चैत्यवन्दन इत्यादिरूप भावपूजा अवश्य ही करनी चाहिए । ज्येष्ठ [वैशाख] वद-७ न्याति नोहरा बुधवार पीपाड़ दिनाङ्क राजस्थान १२-५-१६६३ [प्रतिष्ठा दिन] Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-3 MMMMMMMMMMMMM सकल-तीर्थ-वन्दना Chann wowwwwwn कर्ता-मुनिराज श्री जीवविजयजी महाराज सकल तीर्थ वंदु कर जोड़ , जिनवरनामे मंगल कोड । पहेले स्वर्गे लाख बत्रीश , जिनवरचैत्य नमु निशदिश ॥ १ ॥ बीजे लाख अठ्ठावीस कह्यां , त्रीजे बार लाख सदह्यां । चौथे स्वर्गे पड़ लख धार , पांचमे वंदु लाख ज चार ॥ २ ॥ छ? स्वर्गे सहस पचास , सातमे चालीस सहस प्रासाद । पाठमे स्वर्गे छः हजार , नव-दशमे वंदु शत चार ।। ३ ॥ अग्यार - बारमें त्रणसें सार , नव अवेयके त्रणसें अढ़ार । पांच अनुत्तर सर्वे मली , लाख चोरासी अधिकां वली ॥ ४ ॥ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०८ ) सहस - सत्ताणु त्रेवीश सार , जिनवर-भवनतणो अधिकार । लांबां सौ जोजन विस्तार , पचास ऊँचां बहोतेर धार ॥ ५ ॥ एकसौ एशी बिंबप्रमाण , सभा सहित एक चैत्ये जाण । सो क्रोड बावन क्रोड समान , लाख चोराणु सहस चौपाल ॥ ६ ।। सातसें ऊपर साठ विशाल , सवि बिंब प्रणमुत्रण काल । सात क्रोड ने बहोतेर लाख , भवनपतिमां देवल भाख ।। ७ ।। एकसौ एशी बिंब प्रमाण , एक एक चैत्ये संख्या जाण । तेरसे क्रोड़ नेव्याशी क्रोड़ , साठ लाख वंदु कर जोड़ ।। ८ ।। बत्रीसे ने प्रोगणसाठ , तीर्छालोकमां चैत्यनो पाठ । त्रण लाख एकाणु हजार , त्रणसे वीश ते बिंब जुहार ।। ६ ।। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १०६ ) व्यंतर-ज्योतिषीमां वली जेह , शाश्वता जिन वंदु तेह । ऋषभ - चन्द्रानन - वारिषेण , वर्द्धमान नामे गुणसेण ॥ १० ॥ समेतशिखर वंदु जिन वीश , अष्टापद वंदु चोवीश । विमलाचल ने गढ़ गिरनार , प्राबू ऊपर जिनवर जुहार ।। ११ ॥ शंखेश्वर केसरियो सार , तारंगे श्री अजित जुहार । अंतरिक्ख वरकाणो पास , जीराउलोने थंभरण पास ।। १२ ।। ग्राम नगर पुर पाटण जेह , जिनवरचैत्य नमु गुण गेह । विहरमान वंदु जिनवीश , सिद्ध अनंत नमुनिश दिश ।। १३ ।। प्रढी द्वीपमां जे मणगार , अढार सहस शीलांगना धार । पंच महाव्रत समितिसार , पाले पलावे पंचाचार ।। १४ ॥ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११० ) बाह्य अभ्यंतर तप उजमाल , ते मुनि वंदु गुणमणिमाल । नित-नित उठी कीत्ति करूं , 'जीव' कहे भवसागर तरूँ ॥ १५ ॥ * भावार्थ-इस तीर्थ-वंदना में तीन लोक के अन्दर माये हुए शाश्वत-प्रशाश्वत चैत्यों (मन्दिरों) तथा उनके अन्दर रही हुई मूत्ति-प्रतिमाओं की संख्या बताई है, तदुपरान्त इन सभी को नमस्कार-वन्दन करने में पाये हैं। इस 'तीर्थ-वन्दना' के कर्ता मुनिराजश्री जीवविजय जी महाराज हैं। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-४ 11 * लोक में विद्यमान शाश्वत जिनचैत्यों तथा जिनबिम्बों की संख्या का निर्देश * Limawwwwwwwwwwwwwwwwwws प्रश्न-अनादिकालीन इस लोक में स्वर्ग है, पाताल है और मृत्युलोक भी है। इन तीनों लोकों में श्रीजिनेश्वर भगवन्तों के शाश्वत जिनचैत्यों तथा शाश्वत जिनबिम्बों को संख्या श्रीजैनागम के अनुसार कितनी-कितनी है ? उत्तर-इसका उत्तर इस प्रकार है+ (१) शाश्वत जिनचैत्य तथा जिनबिम्ब * लोक * * शाश्वत जिन-चैत्य * ८४६७०२३ * शाश्वत जिन-बिम्ब * १५२६४४४७६० १. स्वर्ग में२. पाताल अथवा भवनपति के मावास में३. मर्त्य-मृत्यु लोक में ७७२००००० १३८९६०००००० ३२५६ ३६१३२० + (२) स्वर्ग में विद्यमान शाश्वत जिन-चैत्य तथा शाश्वत जिन-बिम्ब Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नाम १. पहले सौधर्म देवलोक में २. दूसरे ईशान देवलोक में ३. तीसरे सानत्कुमार देवलोक में - ४. चौथे माहेन्द्र देवलोक में ५. पाँचवें ब्रह्मलोक देवलोक में ६. छठे लान्तक देवलोक में * चैत्य-प्रासादों की संख्या बत्तीस लाख ३२००००० अट्ठाईस लाख २८००००० बारह लाख १२००००० आठ लाख ८००००० चार लाख ४००००० पचास हजार ५०००० * प्रत्येक चैत्य प्रासाद में विद्यमान जिन-बिम्बों की संख्या १८० १८० १८० १८० १८० १८० * कुल मिन-बिम्बों की संख्या ५७६०००००० ५०४०००००० २१६०००००० १४४०००००० ७२०००००० ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ ܘ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नाम ७. सातवें महाशुक्र देवलोक में - ८. आठवें सहस्रार देवलोक में - ६. नौवें प्रानत देवलोक में तथा १०. दसवें प्रारणत देवलोक में SOUR ११. ग्यारहवें प्रारण देवलोक में तथा १२. बारहवें प्रच्युत देवलोक में * चैत्य-प्रासादों की संख्या चालीस हजार ४०००० छः हजार ६००० चा र सो ४०० ती सौ ३०० * प्रत्येक चैत्य-प्रासाद में विद्यमान जिन - बिम्बों की संख्या १८० १८० १८० १८० * कुल जिन-बिम्बों की संख्या ७२००००० १०८०००० ७२००० ५४००० Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. तेरहवें नौ में १४. चौदहवें अनुत्तर वि मा न में कुल ( ११४ ) तीन सौ अठारह ३१८ पाँच ५ ८४७०२३ एक सी बीस १२० एक सो बीस जिन बिम्ब १२० अड़तीस हजार एक सौ साठ ३८१६० प्रत्येक देवलोक में पाँच सभायें होती हैं - छह सौ ६०० १५२६४४४ ७६० * देवलोक में प्रत्येक चैत्य में १८० जिन-बिम्बों की गिनती नीचे प्रमाणे करने में प्राती है — (१) मज्जन सभा, (२) अलंकार सभा, (३) सुधर्म सभा, (४) सिद्धायतन सभा और ( ५ ) व्यवसाय सभा Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११५ ) है। प्रत्येक सभा के तीन द्वार होते हैं। इसलिये पाँच सभा के मिलकर के पन्द्रह द्वार होते हैं। इन प्रत्येक द्वार पर श्रीजिनेश्वर भगवान के चौमुख बिम्ब होते हैं। इसलिए पांच सभा की अपेक्षा कुल साठ बिम्ब हो जाते हैं। प्रत्येक देवलोक में विद्यमान जिनचैत्य भी तीन द्वार वाला ही होता है। इसलिए इसमें कुल बारह जिन बिम्ब होते हैं। तथा चैत्य के गभारा में १०८ जिन बिम्ब होते हैं। सब मिलकर जिनचैत्य में रहे हुए जिन बिम्बों की कुल संख्या १२० की होती है। सभा के साठ (६०) तथा चैत्य के एक सौ बीस (१२०) मिलकर कुल एक सौ अस्सी (१८०) जिनबिम्ब हो जाते हैं । ___ नव ग्रैवेयक में तथा पांच अनुत्तर विमानों में सभाएँ नहीं होती हैं। इसलिए इनमें एक सौ बीस (१२०) जिनबिम्ब ही हैं। (२) पाताल लोक में विद्यमान शाश्वत जिन-चैत्य तथा शाश्वत जिनविम्ब इस प्रकार हैं Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम १. असुरनिकाय २. नागकुमार ३. सुवर्णकुमार ४. विद्युत्कुमार ५. अग्निकुमार ६. द्वीपकुमार ७. उदधिकुमार दिक्कुमार ८. ( ११६ ) शाश्वत जिन चैत्यों की संख्या ६४००००० १८० १८० ७२००००० १८० ७६००००० १८० ७६००००० १८० ७६००००० १८० ७६००००० १८० ७६००००० १८० ६६००००० १८० १८० ८४००००० ६. पवनकुमार १०. स्तनितकुमार ७६००००० प्रत्येक जिन चैत्य में विद्य कुल ७७२००००० मान शाश्वत जिन बिम्बों की संख्या कुल जिन-बिम्बों की संख्या ११५२०००००० १५१२०००००० १२६६०००००० १३६८०००००० १३६८०००००० १३६८०००००० १३६८०००००० १३६८०००००० १७२८०००००० १३६८०००००० १३८६६०००००० Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११७ ) जिन भवन १. व्यन्तर - असंख्याता २. ज्योतिष - असंख्याता जिन-बिम्ब असंख्याता असंख्याता भवन प्रत्येक मन्दिर में जिन-बिम्बों की संख्या कुल संख्या १२४ ६४४८ १२४ १२४ १२० ३६०० १. श्री नंदीश्वर द्वीप में बावन (५२) भवन-जिनमन्दिर२. कुण्डल द्वीप में३. रुचक द्वीप में४. कुलगिरि (वर्षधर पर्वत) ३० ऊपर५. देवकुरु/उत्तरकुरु क्षेत्र दस६. पांच मेरुपर्वत के वन-२०/८०-- ७. गजदन्त पर्वत २०/२०८. वक्षस्कार पर्वत ८० ऊपर १२० १२० १६०० १२० २४०० १२० ६६०० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११८ ) ४८० ९. ईष्वाकार पवंत ४ ऊपर१०. मानुषोत्तर पर्वत ४८० ११. दिग्गज कूट ४० ४८०० ६६०० १२०००० ८४०० १२. द्रह तीस बड़े, पचास छोटे= ८० मां- | १३. कंचनगिरि १००० उपर१४. महानदियों (७०) के किनारे१५. दीर्घ वैतान्य १७० पर्वत ऊपर१६. कुण्ड ३२० (विजय-१६० के) वे. वे० नदी के और ६० अंतरकुण्ड नदी के ३८०१७. यमक गिरि २० ऊपर- | २०४०० ४५६०० १२० २४०० Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. मेरुपर्वत की पांच चूलिका ऊपर १६. जम्बु प्रमुख ( ११६ ) दश वृक्ष परिवारों को मिलाकर १९७० २०. वृत्त वैताढ्य बीस गिरि ऊपर २१. नंदीश्वर द्वीप में शक्रेन्द्र तथा ईशानेन्द्र की प्राठआठ अ महिषी की सोलह राजधानी में ——— ३२५६ १२० १२० १२० १२० ६०० १४०४०० २४०० १६२० ३६१३२० इस तरह उपर्युक्त कथित लोक में विद्यमान श्री जिनेश्वर भगवन्तों के शाश्वत जिनचैत्यों तथा शाश्वत जिनबिम्बों का वर्णन संख्या की दृष्टि से निश्चयपूर्वक निःशङ्क जानना । इस विषय में अपने पूज्य श्रागम शास्त्र आज भी साक्षी पूर रहे हैं । Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) इस अवसर्पिणी के पांचवें पारे में भव्य जीवों को भवसिन्धु तिरने के लिए और सदा शाश्वत मोक्षसुख पाने के लिए जिनबिम्ब और जिनागम ये दो ही परम मालम्बन भूत सर्वोत्कृष्ट साधन हैं । इन साधनों द्वारा भव्य जीव भव्यात्माएँ सचिदानन्द स्वरूप मय शाश्वत मोक्षसुख प्राप्त करें, यही हार्दिक शुभ भावना। लेखक : प्रथम प्राषाढ़ विजय सुशीलसूरि वद प्राठम स्थल : सोमवार नूतन श्री अष्टापद तीर्थ दिनाङ्क सुशील विहार ८-७-६६ रानी स्टेशन, राजस्थान Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ॥ प्रभु-स्तुति ॥ अर्हन्तो भगवन्त इन्द्रमहिताः सिद्धाश्च सिद्धिस्थिताः । प्राचार्याः जिनशासनोन्नतिकराः , पूज्या उपाध्यायकाः । श्रीसिद्धान्तसुपाठकाः मुनिवराः __ रत्नत्रयाराधकाः पञ्चैते परमेष्ठिनः प्रतिदिनं, कुर्वन्तु वो मंगलम् ॥ १ ॥ देवदेवस्य , दर्शनं पापनाशनम् । दर्शनं स्वर्ग-सोपानं, दर्शनं मोक्षसाधनम् ॥ २ ॥ जिने भक्तिजिने भक्ति जिने भक्तिदिने दिने । सदा मेऽस्तु सदा मेऽस्तु , सदा मेऽस्तु भवे-भवे ॥ ३ ॥ दर्शनं Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अद्य ( १२२ ) मे सफलं जन्म, अद्य मे सफला गात्रं, अद्य मे सफलं जिनेन्द्र ! अन्यथा शरणं त्वमेव तस्मात् रक्ष क्रिया | दर्शनात् ।। ४ ।। तव नास्ति, शरणं कारुण्यभावेन, रक्ष , मम । जिनेश्वर ।। ५ ॥ * गुरु-स्तुतिः * ज्ञानाञ्जनशलाकया । अज्ञानतिमिरान्धानां नेत्रमुन्मीलितं येन तस्मै श्रीगुरवे नमः ॥ १ ॥ सर्वारिष्टप्रणाशाय, सर्वाभिष्टार्थदायिने । सर्वलब्धिनिधानाय, गौतमस्वामिने नमः ।। २ ।। वन्देऽहं नेमिसूरीशं, लावण्यं सूरिपं तथा । दक्षं श्रीदक्षसूरीशं, सुशीलं सद्गुरु सदा ।। ३ ।। 5 श्रीसरस्वती स्तुतिः फ्र निषण्णा कमले भव्या, श्रब्जहस्ता सरस्वती । सम्यग्ज्ञानप्रदा भूयाद्, भव्यानां भक्तिशालिनाम् ॥ १ ॥ Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * देव-गुरु-गीत * कर्त्ता - पूज्याचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. ( राग - गजल ) भूलूं मैं विश्व सुखी होऊँ या दुःखी भी होऊँ, सब माया, न भूलू देव- गुरुवर को । न भूलू देव गुरुवर को ॥ १ ॥ अमीरी या फकीरी में, पर प्राणान्त अगर हूँ पर्णकुटी में जीवन की विकट स्थिति में, न भूलू देव गुरुवर को ।। २ ।। विपत्ति के पहाड़ टूटे, विश्व समस्त भी रूठे । भोगे मैं, न भूलू देव गुरुवर को ।। ३ ।। में, कभी भी गाढ़ जंगल में । में. न भूलू देव गुरुवर को ॥ ४ ॥ देश-विदेश कभी भी कभी हूँ गृह - महेलो Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२४ ) कियाऽर्पण शीश चरणों में, झुकाया देह शरणों में । हृदय से होना नहीं न्यारा, न भूलू देव-गुरुवर को ॥ ५ ।। भव भ्रमण मिटाना, जन्म-मरण भी हटाना । प्रष्टकर्म को भगाना, न भूलू देव-गुरुवर को ।। ६ ।। शिवपुरी पन्थ दिखाना, शाश्वता सुख दिलाना। सुशील शिव नारी मिलाना, न भूलू देव-गुरुवर को ।। ७ ॥ भवोभव जिन चरणों की, मांगता हूँ भाव से सेवा । लेना है मुक्ति-मिष्ट मेवा, न भूलू देव-गुरुवर को ॥ ८ ॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ cronmenmononnonmononsman । आध्यात्मिक आत्मबोध-गीत mmmmmmmmmonrorum कर्ता-पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरिजी म.सा. मैं चाहूँ मोक्षपुरी का सुख, जहाँ न है अंश मात्र दुःख । ॥ टेक ॥ जहाँ न कोई भेदभाव है, न कोई भी असमान । फिर न कोई लघु-महान् है, सभी है प्रात्मा समान । मैं चाहूँ० ॥ १ ॥ जहाँ न कोई माता-पिता है, न कोई कुटुम्ब-कबीला । जहाँ न कोई शत्रु-मित्र है, न कोई रंग-रंगीला । मैं चाहूँ० ॥ २ ॥ जहाँ न होती लाड़ी और वाड़ी, तथा न होती कोई गाड़ी। जहाँ न होता कभी खाना-पीना, और न होता हँसना-रोना । मैं चाहूँ० ॥ ३ ॥ जहाँ न होती काया और माया, न होती धूप तथा छाया । जहाँ न जन्म-जरा-मरना, न होता जहाँ से हटना । मैं चाहूँ० ॥ ४ ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२६ ) जहाँ न जाता स्वर्ग से ही जीव, न जाता नर्क से भी जीव । फिर न जाता तिर्यंच से जीव, जाता मोक्षे मनुष्य जीव । मैं चाहूँ० ।। ५ ॥ जहां आत्मा अनन्तज्ञानवान् है तथा अनन्तदर्शनवान् । जहां प्रात्मा निराबाध सुखी है, और अनन्तचारित्रवान् । मैं चाहूँ० ॥ ६ ॥ जहां प्रात्मा अक्षयस्थितिवान् है, तथा नित्य अरूपीवान् । जहां प्रात्मा प्रगुरु-लघुवान् है, और अनन्त वीर्यवान् । ___ मैं चाहूँ० ॥ ७ ॥ जहां शक्ति भण्डार भरा है, सत् चिदानन्द स्वरूप । जगमग ज्योति सदा जगती है, दीसे यह त्रिलोक कूप । मैं चाहूँ० ॥ ८ ॥ इस मोक्षपुरी में वास मैं करूं, सुशील शिववधू वरूं। सादि अनन्त स्थिति महीं रहूँ, शाश्वत सुख में झूलू। मैं चाहूँ० ॥ ६ ॥ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आध्यात्मिक प्रात्मबोध-गीत कर्ता-प्राचार्यदेव श्रीमद्विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. मेरे प्रात्मा में भया प्रकाश, ज्ञानज्योति मुझे मिली है खास । ॥हर ॥ काल अनन्त रुला भवाटवी में, बँधा कर्म की पाश । क्रोध मान माया लोभ कषाये, हुअा मैं विश्व का दास । मेरे० ॥१॥ तन-धन कुटुम्बादि सब ही पर हैं, अन्य की प्राश निराश । जड़ पुद्गल को निज कर मैंने, किया सत्त्व विनाश । मेरे० ॥२॥ रोग-शोकादिक मुझे न देते, अंश मात्र भी त्रास । इस विश्व में कर्म ने मुझको, डाला गर्भावास । अस्थि-मांसमय अशुचि अंग में, हुआ मेरा ही वास । मेरे० ॥३॥ ममता दुःख थकी सन्ताप, उठा हुमा विश्वास । भेदज्ञान के शस्त्रधार से, काटा कर्म वह पाश । मेरे ॥४॥ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२० ) संयम से होगा कर्मक्षय तब, देखे विश्व प्रकाश । भवभ्रमण सदा बन्द ही होगा, मिले मोक्ष में वास । मेरे ॥५॥ सादि अनन्त स्थिति में मग्न सदा, सद् चिदानन्द जास। सुशील कहे शाश्वत सुख मिला, अब नहीं मुझे किसी की प्राश ।। मेरे० ॥६।। + मंगलमय धुन म मन्त्रं संसारसारं, त्रिजगदनुपम, सर्वपापारिमन्त्रम् । संसारोच्छेदमन्त्रं, विषमविषहरं, कर्मनिर्मूलमन्त्रम् ॥ मन्त्रं सिद्धिप्रदानं, शिवसुखजननं, केवलज्ञानमन्त्रम् । मन्त्रं श्रीजैनमन्त्रं जप-जप-जपितं जन्मनिर्वाणमन्त्रम् ॥ ॐ जैनं जयति शासनम् ॥ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MMMMMMMMM * प्रभु पार्श्व वन्दना * WIWwww प्राचार्य श्री विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. साहित्यसाधना के अनुपम साधक हैं । जप, तप, श्रनुष्ठान के अतिरिक्त समय में सर्वदा साहित्य-सृजन में लीन रहते हैं । आपकी शास्त्रीय विवेचन शैली प्रामाणिक एवं प्रभावोत्पादक है । कविता के क्षेत्र में रसानुसिक्त, अनुप्रासादि अलंकारों से सहज रूप से मुखरित प्रापकी रचनायें काव्यरसिकों के मन को मोहित कर लेती हैं । प्रस्तुत 'पार्श्व वन्दना' आपकी साहित्यिक कलम की एक झलक मात्र है । - सम्पादक (१) शमन किया गुणवन्त । " राग-द्व ेष अरु दम्भ का समता-सर- सरसिज बने, पार्श्वप्रभु जयवंत ।। १ ।। दया धर्म दीपित श्रहो, दूरंदेश विचार | श्रमल - कमल सा खिल रहा, पार्श्वनाथ आचार ॥ २ ॥ गुण गरण गरणना में गुणी, गुञ्जित गौरव गान । गरिमा गाथा गुरुतरा, पार्श्व जिनेश्वर ज्ञान ।। ३ ।। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३० ) पारस-पारस पा-रस, प्रात्मज्ञान अनुरूप । चमके चञ्चल चन्द्र से, चारों ओर अनूप ॥ ४ ॥ तिरे और तारे कई, तीन लोक के जीव । पारस प्रभु-प्रभुता लही, तारक तरणि सजीव ॥ ५ ॥ महिमा मण्डित मनजयी, मंगल मूरति रूप । अग-जग में जग-मग सदा, ज्योतिर्मय तव रूप ॥ ६ ॥ सकल सफल सुन्दर बने, जीवन धन अनुकूल । पल में विलय-निलय लहें, पार्श्व जपे, प्रतिकूल ।। ७ ।। पुरुषादानी पार्श्व की, महिमा का क्या पार । परम प्रतापी पूज्य को, वन्दन बार हजार ।। ८ ।। परम भाव, पावन मना, पाङराधनचित्त । 'विजय सुशील' नमो सदा, जपो पार्श्व इक चित्त ॥ ६ ।। [ 'शान्ति ज्योति' धार्मिक पाक्षिक पत्रिका में से उद्धृत । संवत् २०५१ माघसुदी पंचमी ४ फरवरी १६६५ अंक-१] Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .XXXSC3:23 . * प्रभु-प्रार्थना * कर्ता-पूज्याचार्य श्रीमद् विजय सुशील सूरिजी म. सा. पाया प्रभु के दरबार, कीजे भवसिन्धु पार । विश्व में तू ही प्राधार, मुझे तार-तार-तार ॥ १ ॥ आत्मगुणों के भण्डार, तेरी महिमा अपार । देखा सुन्दर देवदारु, कोजे पार-पार-पार ।। २ ।। तेरी मूत्ति मनोहार, नहीं कोई विकार । निरंजन निराकार, वन्दू वार-वार-वार ।। ३ ।। मेरे हृदय के हार, और जीवन प्राधार । अष्टकर्म हरनार, तू ही सार-सार-सार ।। ४ ।। दक्ष-सुशील अणगार, किया जिनोत्तम जुहार । दे दो मोक्ष-सुख अपार, विनंती धार-धार-धार ॥ ५ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * प्रभु-स्तुति *H प्रशमरसनिमग्नं दृष्टियुग्मं प्रसन्नम् । वदन-कमलमङ्ग, कामिनीसङ्गशून्यम् ।। करयुगमपियत्ते शस्त्रसम्बन्धवन्द्यम् । तदसि जगति देवो, वीतरागस्त्वमेव ।। १॥ अर्थ-प्रशान्त नयन हो, प्रसन्न वदन (मुख) हो, सदा हो स्त्रो के संग से शून्य हो, हाथ में न कोई शस्त्र हो, न कोई अस्त्र हो, वास्तव में देवाधिदेव ऐसे ही हो सकते हैं। विश्व में ऐसे देवाधिदेव प्रभो ! पाप ही हैं, वीतराग भी पाप हो हैं, परमात्मा भी पाप ही हैं और परमेश्वर भी आप ही हैं ।। १ ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * नित्य दर्शनीय-वन्दनीय-पूजनीय * 5 श्रीजिनेश्वर-भगवान की सारे विश्व में श्रोवीतराग विभु सच्चे देवाधिदेवजिनेश्वर भगवान ही हैं ।। १ ॥ अष्टादश दोष रहित सर्वथा निर्दोष वे ही अरिहन्त भगवान एवं सिद्ध परमात्मा-परमेश्वर प्रभु हैं ।। २ ॥ समस्त गुणों से समलंकृत एवं अनन्त गुणों के भण्डार वे ही जगत् में चिन्तामणि रत्न समान, जगत् के स्वामी, समस्त जगत् के गुरु, जगत् का रक्षण करने वाले, जगत् के बन्धु, जगत् को मोक्ष में पहुँचाने वाले, जगत् के उत्तम सार्थवाह, जगत् के सर्वभावों को जानने में तथा प्रकाशित करने में अद्वितीय दक्ष तथा अनुपम निपुण हैं ।। ३ ।। जिनकी पंचकल्याणकयुक्त अनुपम विधिपूर्वक प्राणप्रतिष्ठा की हुई हो, ऐसी वीतरागविभु की मूत्तिप्राकृति, पडिमा-प्रतिमा-बिम्ब तथा अष्टादश अभिषेकयुक्त Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३४ ) पट्ट-चित्र-छवि इत्यादि अहर्निश दर्शनीय, वन्दनीय, पूजनीयनमस्करणीय एवं स्मरणीय है ।। ४ ।। श्री वीतराग-जिनेश्वर भगवान की पंचकल्याणकयुक्त विधिपूर्वक की हुई मूत्ति-प्रतिमा केवल पत्थर-पाषाण नहीं है, किन्तु साक्षात् जिनेश्वर के समान प्रभु है-परमेश्वर हैअरिहन्त परमात्मा है-सिद्ध भगवान है ॥ ५ ।। श्री वीतरागविभु की मूत्ति की भावना काल्पनिक नहीं है, किन्तु मानव प्रकृति के साथ ही संकलायेली प्रकृति जितनी ही सनातन अनादिकाल की एक अनुपम-अद्वितीयमलौकिक चीज-वस्तु है ।। ६ ।। अनादिकालीन इस विश्व में जितनी सूर्य, चन्द्र और तारा को दिव्यज्योति है, इतनी ही सनातन श्रीवीतरागजिनेश्वर भगवान की मूत्ति-प्रतिमा की अलौकिक भावना है। जो भूतकाल में यही भावना थी, वर्तमान काल में है, और भविष्य काल में भी अवश्य ही रहेगी ॥ ७ ॥ प्रभु की मूत्ति मात्र मूर्ति ही नहीं, मूर्तमान प्रभु ही है ॥ ८ ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३५ ) प्रभु की प्रतिमा मात्र प्रतिमा ही नहीं, साक्षात् परमात्मा है ॥ ६ ॥ श्रीवीतराग प्रभु की मूत्ति-प्रतिमा प्रवन्दनीय नहीं, किन्तु वन्दनीय ही है। प्रस्तुत्य नहीं किन्तु स्तुत्य ही है । अपूज्य नहीं किन्तु पूजनीय ही है ।। १०॥ श्रीवीर सं. २५२३ - लेखक - विक्रम सं. २०५३ प्राचार्य विजय सुशीलसूरि मागशर [कात्तिक] - स्थ ल - वद-२ बुधवार श्री प्रोसवाल जैनसंघ उपाश्रय २७-११-६६ कोसेलाव, राजस्थान [मारवाड़] दिनाङ्क 卐 ॥ जैनं जयति शासनम् ॥ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कीजे पालन 5 जि....ना... ज्ञा करे प्रशंसा न कीजे उसका कभी भंग, भले प्राये जानना उसे कर्ता - प्राचार्य विजय सुशील सूरि जिनाज्ञा रहे जो जीव जिनाज्ञा में, का, श्रो जीव ! सर्वदा तू ही । जो सुखशील स्वच्छन्द माने 'प्रारणाए धम्मो सही । उसकी, सुरनरादि चारी, विराधे जो - कष्ट पापी जीव, सभी ।। १ ।। सभी सही ।। २ ।। जिन-आरण | मोक्षपन्थ रिपु समान || ३ || Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३७ ) एक साधु तथा साध्वी भी, श्रावक - श्राविका प्रख्यात । संघ प्राज्ञायुक्त जानना, अवशेष अछि संघात ।। ४ ।। आज्ञा ए तप-संयम कहा, जो आगमशास्त्र प्रमाण । प्राज्ञा विरण सभी निष्फल, सुशील शिशु शून्य जाण ।। ५ ।। ? * * सनातन सत्य है * * [१] 'तमेव सच्चं निस्संकं जं जिणेहिं पवेइयं ।' वही निःशङ्क सत्य है, जो जिनेश्वर भगवन्तों ने कहा है। [२] 'प्राज्ञाराद्धा विराद्धा च, शिवाय च भवाय च ।' श्रीजिनेश्वरदेव की प्राज्ञा की आराधना से मोक्ष की प्राप्ति है, तथा विराधना से संसार में भटकना पड़ता है अर्थात्-परिभ्रमण करना पड़ता है । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . ककककककक. प्रभु की मूर्ति क्या करती है ? ஸ்ஸ் . [१] प्रभु की मूत्ति प्रात्मा में सद्भावना प्रगटाती है । [ २ ] प्रभु की मूति प्रात्मा में से दुष्ट भावना भगाती है । [३] प्रभु की मूत्ति भव्यात्मा को भवोदधि-सागर से पार उतारती है। प्रभु की मूत्ति भव्यात्मा को मुक्तिधाम पहुँचाती है । [ ५ ] प्रभु की मूत्ति भव्यात्मा को सदा के लिए शाश्वत सुख दिलाती है। प्रभु की मूति-भव्यात्मा को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान एवं सम्यक्चारित्र रूपी रत्न दिलाती है । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १३६ ) [७] प्रभु की मूत्ति भव्यात्मा के भवभ्रमण को सदन्तर बन्द कराती है। [८] प्रभु की मूत्ति भव्यात्मा के प्रभ्यन्तर शत्रु अष्टकर्मों के सदन्तर विध्वंस-विनाश करती है । [६] प्रभु की मूत्ति-प्रात्मा के दान, शील, तप और शुभ भावना आदि में अहर्निश अभिवृद्धि कराती है । [ १० ] प्रभु की मूति-प्रात्मा के अहिंसक बनाती है, तथा वीतराग प्रभु की मूत्ति वीतराग बनाती है। इसलिए हे मानव ! तू पूर्णता का उपासक है। पूर्ण बनने के लिए तो पूर्णता का अनुपम प्रादर्श, पूर्ण करने वाली सारे विश्वभर में श्री वीतराग विभु की जिनेश्वर भगवान की प्राणप्रतिष्ठा [अंजनशलाका] की हुई एक ही अलौकिक-अद्वितीय-अद्भुत-अनुपम भव्य मूर्ति है। उसकी Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४० ) ही तू अहर्निश त्रिकरण योगे अाराधना-उपासनादि कर और वीतराग बनकर, तथा अष्टकर्म रहित होकर मुक्तिधाम में पहुँच कर सादि अनन्तस्थिति प्राप्त कर एवं सदा शाश्वत सुख का भोग कर । यही शुभकामना । । प्रासो सुद-१५ शनिवार दिनांक २६-१०-६६ विजय सुशीलसूरि कोसेलाव राजस्थान ॥ शुभं भवतु श्रीसंघस्य ।। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट-५ आवक की दिनचर्या सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को मानने वाले श्रावक वर्ग की दिनचर्या कैसी होनी चाहिये, उसका संक्षिप्त दिग्दर्शन नीचे प्रमाणे है (१) जैनधर्मी श्रावक प्रतिदिन ब्रह्ममुहूर्त में अर्थात् सूर्योदय से चार घड़ी (६६ मिनिट) पहले शयन का त्याग करे तथा उठते ही मन की एकाग्रता पूर्वक बारह नवकार-मन्त्र शुद्ध गिने । (२) बाद में शुद्ध वस्त्र पहन कर राई प्रतिक्रमण करे । प्रायः यह प्रतिक्रमण प्रातःकाल में मौनपने करे। कारण कि कोई भी हिंसक प्राणी अपनी आवाज से न जाग जाय और हिंसा न कर सके। (३) सूर्योदय के समय प्रभुदर्शन के योग्य सामग्री साथ में लेकर और ईर्यासमिति का पालन करते हुए विधिपूर्वक जिनमन्दिर में जावे। वहाँ प्रभु के सम्मुख भावपूर्वक स्तुति करे, मुखकोश बाँधकर प्रभुजी की जिन-१ ( १४१ ) Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वासक्षेप पूजा करे, धूप-दीप आदि अग्रपूजा करे तथा चैत्यवन्दन आदि भावपूजा करे। अन्त में, नवकारसी आदि का पच्चक्खाण ग्रहण करे। (४) उसके पश्चात् जहाँ पर परम पूज्य आचार्य म. सा. आदि सुविहित गुरु भगवन्त बिराजमान हैं, ऐसे धर्मस्थानक उपाश्रय आदि में जाकर पूज्यपाद आचार्यादि गुरु भगवन्तों को विधिपूर्वक वन्दन करे, सुख-शाता आदि पूछे तथा नवकारसी आदि पच्चक्खाण करे । (५) उसके बाद यदि नवकारसी का ही पच्चक्खाण हो तो पच्चक्खाण का समय आते ही पच्चक्खाण पालकर के नवकारसी करे। बाद में व्याख्यान का समय आते ही उपाश्रय में जाकर पूज्य गुरु महाराज के मुख से जिनवाणी-व्याख्यान का श्रवण ध्यानपूर्वक एकाग्रतायुक्त करे। (६) उसके पश्चाद् घर पर आकर परिमित जल से स्नानादि करे। पूजा के योग्य वस्त्र धारण कर और जिनमन्दिर में जाकर प्रभुजी की अष्ट प्रकारी द्रव्य-पूजा करने के बाद चैत्यवन्दनादिक से भाव-पूजा करे । (७) प्रभु की पूजा करने के बाद यदि गुरु महाराज का योग हो तो सुपात्रदान करे। अन्यथा अपनी शक्ति ( १४२ ) Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुसार अपने सार्मिक बन्धु की भोजनादिक से भक्ति करे तथा स्वयं निराशंस भाव से रस की आसक्तिलोलुपता बिना भोजन करे । (८) फिर अपने और अपने परिवार के भरणपोषण के लिये धनोपार्जन न्याय और नीति के परिपालन पूर्वक करे। (६) शाम को सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व (यानी ४८ मिनट) आहार-पानो से निवृत्त हो जावे तथा जिनमन्दिर में दर्शनादि करके चौविहार इत्यादि का पच्चक्खाण करे। (१०) उसके पश्चाद् पूज्य गुरु महाराज का योग हो तो उनकी निश्रा में जाकर देवसिक प्रतिक्रमण करे । पक्खी हो तो पक्खी, चौमासी हो तो चौमासी तथा संवच्छरी हो तो संवच्छरी प्रतिक्रमण करे। पूज्य गुरु महाराज का योग न हो तो भी स्वयमेव प्रतिक्रमण करे । उससे वंचित नहीं रहे । (११) शाम का प्रतिक्रमण करने के बाद में स्वाध्यायादि करे। संथारा पोरसी सुने तथा अनित्यादि भावना से अपने मन को भावित करे एवं श्री नमस्कार महामन्त्र का स्मरण कर शयन करे । ( १४३ ) Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावक जीवन के कर्त्तव्य जैनधर्मी श्रावक के अपने जीवन के योग्य कर्त्तव्य क्या हैं ? उनका संक्षिप्त निर्देश नीचे प्रमाण है ( १ ) श्रावक अपने जीवन पर्यन्त सुदेव, सुगुरु और सुधर्म को ही माने, उन्हीं को ही स्वीकारे और उन्हीं को ही पूजे, अन्य किसी को नहीं । (२) श्रावक अपनी शक्ति के अनुसार जिनमन्दिर, जिनमूर्ति, जिनागम, साधु, साध्वी, श्रावक एवं श्राविका इन सात क्षेत्रों की सेवा-भक्ति स्वयं अवश्य करे, अन्य से भी करावे और करने वालों की अनुमोदना करे । (३) श्रावक पूज्य गुरु भगवन्त के पास जाकर श्रावक के बारह व्रतों को समझकर उनको अपने जीवन ( १४४ ) Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में अंगीकार करे तथा प्रतिदिन चौदह नियम धारण करे। (४) श्रावक पर्वतिथि को पौषध विधिपूर्वक ग्रहण करे। (५) श्रावक शासन को अनुपम प्रभावना करने वाले तथा शासन की शोभा में अभिवृद्धि करने वाले प्रत्येक कार्य में अपने तन-मन और धन का पूर्ण सहकारसहयोग देवे । (६) श्रावक अपने भोजन में भक्ष्याभक्ष्य तथा पेय-अपेय प्रमुख का विवेक रखे । (७) श्रावक सभी त्याज्य पदार्थों का त्याग करे । (८) श्रावक अहर्निश अभक्ष्य एवं अनन्तकाय वस्तुओं को तथा रात्रिभोजन को सर्वथा तिलांजलि देवे । (६) श्रावक महा प्रारम्भ-समारम्भ की तथा अठारह पापस्थानों की प्रवृत्ति से दूर रहे । - (१०) श्रावक मद्यादि चार महाविगइयों को तथा द्यूतादि सात व्यसनों को सर्वथा त्यजे । ( १४५ ) Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) श्रावक अहर्निश अहिंसा को अपनावे, सत्य बोले, चोरी नहीं करे, ब्रह्मचर्य का पालन करे तथा परिग्रह का त्याग करे | उपयोगी जो होवे उनमें भी मोह, मूर्छा और सक्ति भाव न रखे । ( १२ ) श्रावक अहर्निश सबके साथ मैत्री भाव रखे और किसी के साथ भी वैर - विरोध तथा क्लेशकंकाश आदि न करे । (१३) श्रावक प्रतिदिनदेव-दर्शन-पूजन, गुरुवन्दन जिनवाणी - श्रवण, व्रत, पच्चक्खाण, तप, जप, सामायिक एवं प्रतिक्रमण इत्यादि अवश्य ही करे । (१४) श्रावक अहर्निश दान, शील, तप और भाव इन चारों प्रकार के धर्म को स्वीकार कर उनका परिपालन अवश्यमेव करे । (१५) श्रावक प्रतिदिन प्रभु की आज्ञा का पालन त्रिकरण योग से अवश्य ही करे । आज्ञा का उल्लंघन नहीं करे । (१६) श्रावक अहर्निश सुदेव, सुगुरु और सुधर्म के प्रति अपने अन्तःकरणपूर्वक सम्पूर्णपने वफादार रहे। ( १४६ ) Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (१७) श्रावक सदैव धर्मध्यान और शुक्लध्यान में मग्न-लीन रहे तथा आर्तध्यान और रौद्रध्यान को त्यजे । (१८) श्रावक अहर्निश विनय-विवेकवन्त रहे, सद्गुणानुरागी बने, सद्वर्तनशील रहे और सदाचारी बने। (१६) श्रावक प्रतिदिन अपनी आत्मा को समभाव में रखे, विषमभाव में कदापि नहीं ले जावे । (२०) श्रावक अहर्निश की हुई गलती-भूल का पश्चाताप तथा प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धीकरण अवश्यमेव करे। (२१) श्रावक प्रतिदिन विश्व के सभी जीवों को मन, वचन और काया से खमावे और खमे । (२२) श्रावक अहर्निश कम खावे, गम खावे और नम जावे तथा अपनी आत्मा को समभाव में रखे, विषम भाव में नहीं ले जावे । (२३) श्रावक अहर्निश शासनरक्षा-धर्मरक्षा के प्रत्येक कार्य में अपना सर्वस्व भोग देकर भी शासन कीधर्म की अवश्यमेव रक्षा करे । ( १४७ ) Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (२४) श्रावक प्रतिदिन शासन-प्रभावना के महत् कार्यों में अनुकम्पा-दान इत्यादि की भी उपेक्षा न करे अर्थात् न भूले । (२५) श्रावक-जीवन संयम-जीवन की योग्य भूमिका को प्राप्त करने में हेतु है। इसलिये इस जीवन में संयम-दीक्षा को प्राप्ति हेतु अहर्निश प्रयत्नशील रहना चाहिये। क्योंकि मनुष्य-भव यानी मनुष्य-जीवन ही मुक्ति की साधना का अद्वितीय एक महान् स्थल है तथा मनुष्य-जीवन में ही मोक्ष की साधना संयमजीवन में सुलभ है। अतः उसके द्वारा भव्य जीव मोक्षसुख को अवश्य ही प्राप्त हों। श्रोवीर सं. २५१५ विक्रम सं. २०४५ जेठ [आषाढ़] वद-१३ शनिवार दिनांक १-७-८६ लेखक विजय सुशील सूरि ___ जैन धर्मशाला, श्री वरकारणा तीर्थ राजस्थान [मारवाड़] ( १४८ ) Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwww-winwww वि. सं २०४५ में अनुपम शासन-प्रभावना [१] तीर्थयात्रा हेतु पैदल संघ का प्रयाण * राजस्थान की सुप्रसिद्ध सूर्यनगरी श्री जोधपुर शहर में विक्रम सं. २०४४ के वर्ष का चातुर्मास शासनप्रभावना पूर्वक पूर्ण करके २०४५ वर्ष के कात्तिक सुद १५ बुधवार दिनांक २३-११-८८ के दिन प्रातःकाल में जैन क्रियाभवन से विहार करके परम शासन-प्रभावक पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि का चातुर्मास परावर्तन श्रीमान् शिवराज जी कोचर के घर पर होने के पश्चाद्, वहाँ से श्री प्रोसियांजी तीर्थ की यात्रा करने के लिये पैदल चतुर्विध संघ के साथ पूज्यपाद प्रा. म. श्री ने मंगल प्रयाण किया। उसी दिन कालीबेरी गाँव में स्वागत पूर्वक Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पधारे। संघ को स्कूल में उतारा गया, वहीं पर पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. का प्रभाविक मंगल प्रवचन हुआ तथा श्री वर्द्धमान तप की ५८वीं अोली का भी पारणा हुआ । प्रभुपूजा और रात को भावना का कार्यक्रम रहा। * उसी तरह वद एकम् के दिन इन्द्रोका गाँव में भी स्कूल में उतारा रहा। वहाँ पर भी जिन प्रवचन, प्रभुपूजा और रात को भावना का कार्यक्रम रहा । * कात्तिक [मागशर] वद-२ शुक्रवार दिनांक २५-११८८ के दिन वालरवा में जिनमूत्ति का दर्शन करके तिवरी गाँव पधारते हुए । तिवरी संघ की ओर से पूज्यपाद आचार्य म. सा. आदि चतुर्विध संघ का स्वागत हुआ। वहाँ पर भी जिनप्रवचन, प्रभुपूजा और रात को भावना का कार्यक्रम रहा। उसी दिन राजस्थान-दीपक परम पूज्य आचार्य म. सा. ने अपनी निर्मल दीक्षा का ५७ वाँ वर्ष पूर्ण करके ५८ वें वर्ष में मंगल प्रवेश किया । * वद त्रीज के दिन गोपालसरी गाँव में पधारकर स्कूल में उतारा किया। वहाँ पर भी जिनप्रवचन, प्रभुपूजा और रात को भावना का कार्यक्रम रहा । ( २ ) Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ओसियांजी तीर्थ में प्रवेश और संघमाला २ कात्तिक [मागशर] वद-४ रविवार दिनांक २७-११-८८ के दिन श्री ओसियांजी तीर्थ में पधारे तीर्थप्रभावक परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा., पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजय जी म. तथा पूज्य मुनि श्री रविचन्द्र विजयजी म. आदि चतुर्विध संघ का स्वागत छात्रावास के बैन्ड की मनोहारी धुनों के साथ जैन पेढ़ी द्वारा किया गया। वहाँ पूज्य मुनिराज श्री जयरत्न विजयजी म. का सम्मिलन हुआ। श्री महावीर स्वामी जिनमन्दिर में दर्शनादि के बाद मांगलिक प्रवचन, प्रभुपूजा तथा रात को भावना में छात्रावास की मण्डली का प्रोग्राम रहा। * कात्तिक [मागशर] वद-५ सोमवार दिनांक २८-११-८८ के दिन शास्त्रविशारद पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. के सदुपदेश से जोधपुर से इस तीर्थ में पैदल संघ लाने वाले संघवी श्रीमान् शिवराजजी कोचर को और उनके परिवार को नाण समक्ष विधिपूर्वक संघमाला शासन-प्रभावना पूर्वक पहनाई गई । उस ( ३ ) Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समय पूज्यपाद आचार्य म. सा. के सदुपदेश से संघवी श्रीमान् शिवराजजी कोचर ने इस तीर्थ के विकासादि कार्यों में ३११११) रुपये अपनीअोर से देने के लिये उद्घोषणा की। उसी दिन संघवीजी की ओर से प्रभूपूजा तथा स्वामीवात्सल्य का कार्यक्रम रहा । संघ में आने वाले सभी भाई-बहिनों को चांदी के सिक्के की प्रभावना दी गई तथा संघवीजी की तरफ से संघ में आने वाले सभी भाई-बहिनों को वापस बस द्वारा जोधपुर पहुँचाया गया। [२] श्री गांगाणी-कापरड़ाजी तीर्थ की यात्रा * कात्तिक [मागशर] वद-६, मंगलवार दिनांक २६-११-८८ के दिन प्रातःकाल में परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि ठाणा-३ तथा पूज्य साध्वीजी महाराज श्री भाग्यलता श्री जी आदि ठाणा-१४ ने श्री गांगाणी तीर्थ की तथा श्री कापरड़ाजी तीर्थ की यात्रा करने के लिये श्री प्रोसियांजी तीर्थ से विहार किया । छठ को उम्मेदनगर और सातम को मवाद गाँव में स्थिरता की। के कार्तिक [मागशर] वद-८, गुरुवार दि. १-१२-८८ के दिन श्री गांगारणी तीर्थ में पधारे। वहाँ पर प्राचीन Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमन्दिर के मूलनायक आदि के दर्शनादिक का सुन्दर लाभ मिला। जैन पेढ़ी की ओर से सब व्यवस्था सुचारु रीत्या की गई थी। वहाँ से नौमी को जावरेला गाँव तथा पहली दशम को डांगियावास होकर दांतियावाड़ा गाँव में आए। के कात्तिक [मागशर] वद दूसरी दशम रविवार दिनांक ४-१२-८८ के दिन मरुधरदेशोद्धारक परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि श्री कापरड़ाजी तीर्थ में स्वागत पूर्वक पधारे। श्री स्वयम्भूपार्श्वनाथ जिनमन्दिर के और समवसरण मन्दिर के दर्शनादि किये। उसी दिन विहार के सभी स्थलों में भक्ति का लाभ लेने के लिये श्री प्रोसियांजी तीर्थ से साथ में आई हुई जोधपुर निवासी पानीबाई की तरफ से श्री पार्श्वनाथ पंचकल्याणक की पूजा पढ़ाई गई। ग्यारस के दिन भी पूज्यपाद आचार्य म. सा. आदि ने वहीं स्थिरता की। १ कात्तिक [मागशर] वद १२ मंगलवार दिनांक ५-१२-८८ के दिन प्रातःकाल में पूज्यपाद आचार्य म. सा. आदि श्री कापरड़ाजी तीर्थ से विहार कर पीपाड़ सिटी पधारे जहाँ श्री संघ ने बैन्ड की मधुर Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ध्वनियों के बीच आपका स्वागत किया। जिनमन्दिर के दर्शनादि के बाद पूज्यपाद श्री के प्रभाविक प्रवचन का लाभ श्री संघ को सुन्दर मिला । [३] साथीन गाँव में प्रवेश और प्रतिष्ठा-महोत्सव के कात्तिक [मागशर वद १३ बुधवार दिनांक ७-१२-८८ के दिन प्रातःकाल में पीपाड़ सिटी से विहार कर शासनरत्न परम पूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि ठाणा-३ तथा पूज्य साध्वी श्री भाग्यलता श्रीजी आदि ठाणा-१२ प्रतिष्ठा हेतु साथीन गाँव में पधारे । जैनसंघ की प्रोर से श्री कुन्थुनाथ भगवान का तथा पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. आदि साधु-साध्वीजी म. का भी बैन्ड युक्त मंगल प्रवेश हुआ। प्रतिष्ठा निमित्त नौ दिन के महोत्सव के प्रारम्भ के साथ कुम्भ-स्थापनादि का भी कार्यक्रम हुआ । प्रतिदिन व्याख्यान, प्रभुपूजा, दोनों टंक स्वामीवात्सल्य तथा रात को भावना का कार्यक्रम चालू रहा । __ अमावस के दिन साथीन-निवासी श्रीमान् मदनलालजी धोका के घर पर बाजते-गाजते परम पूज्य आचार्य म. सा. आदि पधारे। वहाँ ज्ञानपूजन एवं Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मांगलिक श्रवण के बाद श्री मदनलालजी ने प्रतिदिन प्रभु की पूजा करने का नियम लेकर संघपूजा की। * मागशर सुद २ रविवार दिनांक ११-१२-८८ के दिन पूज्य साध्वी श्री दिव्यप्रज्ञा श्री जी म. की श्री वर्द्ध मान तप की ६० वीं अोली के पारणा के प्रसंग पर साथीननिवासी श्रीमान् पारसमलजी के घर पर पूज्यपाद आचार्य महाराजश्री आदि बाजते-गाजते पधारे। वहाँ ज्ञानपूजन एवं मांगलिक श्रवण के पश्चाद् श्री पारसमलजी ने सजोड़े ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा लेकर प्रभावना की। उसी दिन विशेष रूप में जिनमन्दिर में नवग्रहादि पाटलापूजन का कार्यक्रम रहा । ___तीज-चौथ के दिन विशेष रूप में जिनमन्दिर में अठारह अभिषेक तथा ध्वज-दण्ड-कलशाभिषेक पूजन का कार्यक्रम रहा। ___ मागशर सुद ५ मंगलवार दिनांक १३-१२-८८ के दिन विशेष रूप में देवीपूजन हुआ तथा जल-यात्रा का भव्य जुलूस (वरघोड़ा) निकला । उसी दिन परम शासनप्रभावक पूज्यपाद आचार्य म. सा. के सदुपदेश से व्याख्यान में ही जहाँ पर पू. प्रा. म. सा. को Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ठहराया था, वह मुकाम धर्माराधना में ही उपयोग करने के लिये श्री पारसमलजी ने जाहिर किया । तदुपरान्त जीर्ण उपाश्रय का जीर्णोद्धार कराने के लिये भी जनरल टीप हुई । उसमें भी श्री पारसमलजी ने स्थानकवासी होते हुए भी अपनी दुकान भेंट देने की जाहेरात की । * मागशर सुद ६ बुधवार दिनांक १५-१२-८८ के दिन सुबह में परम पूज्य आचार्य म. सा. की पावन निश्रा में मूलनायक श्री कुन्थुनाथ भगवान तथा यक्षयक्षिणी की, ऊपर के भाग में संभवनाथ भगवान की एवं ध्वज - दण्ड - कलशारोपण की महामंगलकारी प्रतिष्ठा शुभ मुहूर्त्त में हुई । उसी दिन से बहशान्तिस्नात्र, स्वामीवात्सल्य तथा छत्तीस कौम में घर दीठ मोदक की प्रभावना देने का कार्य प्रतिदिन चलता । महोत्सव का लाभ लेने वाले श्रीमान् चुन्नीलालजी जबरचन्द पारसमल पीपाड़ वालों की ओर से हुआ । सम्मान समारोह में, इस मन्दिर का सभी कार्य करने के लिये पूज्यपाद आचार्य गुरु म. श्री की प्रेरणा से कार्यकर्त्तानों ने साथीन पीपाड़ की एक समिति का निर्माण किया । ( 5 ) Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * साथीन में श्री कुन्थुनाथ जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य शासनप्रभावना पूर्वक निर्विघ्न पूर्ण हुआ। परम पूज्य आचार्य म. सा. ने वहाँ से पीपाड़ सिटी की तरफ विहार किया। [४] जोधपुर में प्रवेश और नूतन ध्वजारोहण * पीपाड़-श्री कापरड़ा तीर्थ-डांगियावास और बनाड़ होकर मागशर सुद १० रविवार दिनांक १८-१२-८८ के दिन राजस्थान-दीपक परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सुरीश्वरजी म. सा. अपने परिवार समेत जोधपुर में पधारते हुए संघवी श्रीमान् गुणदयालचन्दजी भंडारी के घर पर पधारे। वहाँ से जैन क्रियाभवन में श्री समवसरण जिनमन्दिर को वर्षगाँठ निमित्त पधारे। वहाँ श्रीमान् मोतीलालजी पारेख द्वारा विधिपूर्वक नूतन ध्वजा चढ़ा कर तथा सत्तरह भेदी पूजा पढ़ाकर भेरूबाग पधारते हुए श्री संघ ने बैण्ड युक्त पूज्यपाद आचार्य म. सा. का स्वागत किया। संघ की ओर से पू. प्रा. म. सा. को कम्बली वहोराई । मंगल प्रवचन के पश्चात् श्रीमान् मोतीलालजी पारेख ने संघपूजा की। श्री संघ की विनंति को स्वीकार जिन-2 Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. ने भेरूबाग में वद एकम तक स्थिरता की । ॐ मागशर सुद ११ सोमवार दिनांक १६-१२-८८ के दिन पूज्यपाद आचार्य म. सा. का 'मौन एकादशी का महत्त्व' विषय पर प्रभाविक प्रवचन रहा । एक सद्गृहस्थ की ओर से संघपूजा हुई । देववन्दन का कार्यक्रम रहा । * मागशर सुद १३ बुधवार दिनांक २१-१२-८८ के दिन 'श्री शान्ति जिनपूजन' श्रीमान् लालचन्दजी की ओर से विधिपूर्वक पढ़ाई गई । * मागशर सुद १४ गुरुवार दिनांक २२-१२-८८ के दिन व्याख्यान में श्रीमान् जेठमलजी राठौड़ की ओर से संघपूजा हुई तथा श्रीमान् राखड़मलजी की तरफ से सामुदायिक आयंबिल हुए। भी उनको प्रोर से प्रभुपूजा पढ़ाई गई । । पूनम के दिन * मागशर (पौष) वद १ शनिवार दिनांक २४१२-८८ के दिन श्रीमान् मंगलचन्दजी गोलिया के घर पर पूज्य प्रा. म. सा. के पगलियाँ हुए I ( १० ) Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 8 मागसर (पौष) वद २ रविवार दिनांक २५१२-८८ के दिन श्रीमान् मोतीलालजी पारेख के घर पर पगलिये किये। वहाँ पर संघपूजा हुई। उनकी फेक्टरी में भी पगलिये किये। तथा वहाँ पर भी उनकी ओर से संघपूजा हुई। सार्मिक भक्ति रहो । ॐ परम पूज्याचार्यदेव ने जोधपुर से पाली तरफ जाने के लिये विहार किया। [५] पाली में प्रवेश और नूतन ध्वजारोहण * जोधपुर से विहार कर कुण्डी-काण्टाणी-रोहटखालड़ा-घुमटी होकर मागशर [पौष] वद ६ गुरुवार दिनांक २६-१२-८८ के दिन राजस्थान-दीपक परम पूज्य प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि पाली नगर में पधारते हुए । श्री संघ की ओर से बैन्ड युक्त स्वागत हुआ। श्री नवलखाजी पार्श्वनाथ जिनमन्दिर पधारे। वहाँ पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय गुणरत्न सूरीश्वरजी म. सा. आदि का सुमिलन हुआ। वयोवृद्ध मुनिराज श्री प्रमोद विजयजी म. भी मिले । श्री नवलखाजी पार्श्वनाथ जिनमन्दिर के प्रतिष्ठा की वर्षगाँठ का आज का ही दिन होने से बन्ने पूज्य प्राचार्य म. सा. को शुभ निश्रा में बावन शिखरबद्ध ( ११ ) Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देहरियों पर विधिपूर्वक नूतन ध्वजायें श्री संघ के अनेरे उत्साह पूर्वक चढ़ाने में आईं । बाद में वहाँ चलती हुई श्री उपधानतप की क्रिया के मण्डप में पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. का 'श्री उपधान तप की महत्ता ' पर मंगल प्रभाविक प्रवचन हुआ । साथ में पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय गुरगरत्न सूरिजी म. सा. का भी प्रवचन सुन्दर हुआ । दोपहर में पूजा - प्रभावना का कार्यक्रम रहा । बाद में पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा. अपने परिवार समेत गुजराती कटला - जैन उपाश्रय में पधारे । * मागसर [ पौष ] वद ७ शुक्रवार दिनांक ३० - १२ ८८ के दिन प्रातः काल में पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. श्रीमान् मांगीलालजी कोका के घर पर पधारे । मांगलिक सुनाने के बाद श्री नवलखाजी जिनमन्दिर दर्शनार्थ पधारे । इधर दोनों आचार्य महाराज का पुनः संमिलन हुआ । उपधानवाही भाई-बहिनों को मांगलिक सुनाकर पू. प्रा. श्रीमद् विजय गुणरत्न सूरिजी म. ( १२ ) Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदि सबके साथ नेहरू नगर में श्री मुनिसुव्रत भगवान के दर्शनार्थ पधारे। वहाँ भी प्रभुदर्शनादि के बाद श्री संघ को मांगलिक सुनाकर बाद में विहार कर पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. अपने परिवार समेत श्रीमान् किशोरचन्दजी के घर पर पधारे। वहाँ पर भी प्रभावना हुई। वहाँ से विहार कर परम पूज्य आचार्य म. सा. श्रीमान् मोहन लालजी पारेख की फैक्टरी में पधारे । [६] श्री वरकाणा तीर्थ में पौष दशमी ___ पाली से गुन्दोज-खौड़-सांचोड़ी होकर मागशर [पौष] वद १० सोमवार दिनांक २-१-८६ के दिन श्री वरकारणा तीर्थ में पधारते हुए तीर्थप्रभावक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. का जैन पेढ़ी की ओर से स्वागत हुआ। सद्गुणानुरागी पूज्य आचार्य श्रीमद् विजय प्रद्योतन सूरिजी म. सा. आदि का संमिलन हुआ। जिनमन्दिर के दर्शनादि बाद दोनों प्राचार्य महाराज की शुभ निश्रा में श्री वरकाणा छात्रावास के बालकों और विद्यावाड़ी की बालिकाओं को धार्मिक परीक्षा के इनाम-वितरण का कार्यक्रम आयोजित हुआ। पूज्याचार्य महाराज आदि ( १३ ) Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का प्रवचन भी हुआ। विधिपूर्वक पौष दशमी के अट्ठम तथा एकासणादिक के साथ प्रभावना युक्त प्रभुपूजा भी पढ़ाई गई । __मागसर [पौष] वद ११ मंगलवार दिनांक ३-१-८६ के दिन नाडोल में पधारते हुए पूज्यपाद प्रा. म. सा. का श्री संघ की ओर से स्वागत हुआ। जिनमन्दिरादि के दर्शनादि के बाद जैन उपाश्रय में परम पूज्याचार्य म. सा. का मांगलिक प्रवचन हुआ। वहाँ पर स्थित वयोवृद्ध पू. मुनिराज श्री हिम्मत विजयजी म. का भी संमिलन हुआ। मागसर [पौष] वद १२ बुधवार दिनांक ४-१-८६ के दिन नाइलाई पधारे। स्वागत के बाद जिनमन्दिरों के दर्शनादि हुए। श्री संघ को जिनप्रवचन श्रवण करने का लाभ मिला। ३. मागसर (पौष) वद १३ दिनांक ५-१-८६ के दिन नाडलाई से विहार कर मरुधरदेशोद्धारक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म.सा. आदि का श्री सुमेर तीर्थ में पधारते हुए जैन पेढ़ी की ओर से स्वागत हुआ। पूज्य पंन्यासप्रवर श्री रत्नाकर विजयजी म. तथा पूज्य मुनिराज श्री राजशेखर विजय Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जी म. का संमिलन हुआ। जिनमन्दिर के दर्शनादि के बाद वहाँ चल रहे श्री उपधान तप की क्रिया निमित्त शणगारा हुआ। विशाल मण्डप में पूज्यपाद आचार्य म. सा. का मांगलिक तथा प्रभाविक प्रवचन हुआ। पूज्य पंन्यासजी म. श्री तथा सुमेर तीर्थ के कार्यकर्ताओं आदि की साग्रह विनंति से तीन दिन तक स्थिरता की। प्रतिदिन पू. प्रा. म. सा., पू. पंन्यासजी म. तथा. पू. मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. के प्रवचन का लाभ सभो को मिलता रहा। पौष सुद १ रविवार दिनांक ८-१-८६ के दिन सुमेर से विहार कर देसुरी पधारते हुए पूज्यपाद आचार्य म. सा. का श्री संघ की ओर से स्वागत हुआ। मांगलिक श्रवण का संघ को लाभ मिला। * जीलवाड़ा - चारभुजा - गोमती चौराहा-पलासड़ीकेलवा-राजनगर होकर पौष सुद पंचमी के दिन श्री दयालशा तीर्थ किल्ले पर पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. परिवार युक्त पधारे। वहाँ जिनमन्दिर के दर्शनादि करके दो दिन स्थिरता की। विद्वान् पूज्य पंन्यास श्री अशोकसागरजी गणी महाराज आदि का तथा पू. मुनि श्री गुणभद्र विजयजी म. का संमिलन हुआ। ( १५ ) Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * मोहीगाँव-बनाड़ियागाँव होकर पौष सुद १० सोमवार दिनांक १६-१-८६ के दिन 'श्री करेड़ा तीर्थ' में तीर्थप्रभावक पूज्यपाद आचार्य म. सा. परिवार समेत पधारे । बावन जिनालय में मूलनायक श्री करेड़ा पार्श्वनाथ आदि के दर्शनादि करके दो दिन स्थिरता की। बारस के दिन नवाडरीया गाँव पधारे। वहाँ पर नूतन जिनमन्दिर का कार्य चालू कराने की पूज्यश्री ने प्रेरणा दी। श्री नेमीचन्दजी गोखरू आदि ने सानन्द स्वीकार किया । [७] श्री फतहनगर में प्रवेश और प्रतिष्ठा महोत्सव पौष सुद १३ गुरुवार दिनांक १६-१-८६ के दिन जैनधर्मदिवाकर परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा., पू. मुनिप्रवर श्री रत्नशेखर विजयजी म., पू. मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. तथा पू. मुनि श्री रविचन्द्र विजयजी म. आदि प्रतिष्ठा हेतु फतहनगर में पधारे वहाँ श्रीसंघ ने बैन्ड युक्त भव्य स्वागत किया। अनेक गहुँलिएँ हुईं। श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनमन्दिर में दर्शनादि के बाद, शणगारे हुए विशाल मण्डप में पूज्यपाद आचार्य म. सा. का ( १६ ) Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल प्रवचन हुआ तथा प्रभावना हुई। महोत्सव का प्रारम्भ हुआ। कुम्भ-स्थापनादि कार्य हुए। प्रतिदिन प्रवचन, प्रभुपूजा, दोनों टंक स्वामीवात्सल्य तथा रात को भावना का कार्य चलता रहा। __ पौष [महा] वद १ रविवार दिनांक २२-१-८६ के दिन पूज्यपाद प्रा. म. सा. चतुर्विध संघ सहित बाजते-गाजते बैन्ड युक्त पधारे (१) श्री नेमीचन्दजी प्रेमचन्दजी गोखरू के घर पर । (२) श्री मांगीलालजी बाबूलालजी सेठिया के घर पर। (३) श्री रोशनलालजी अशोककुमारजी सेठिया के घर पर । इन तीनों स्थलों में पगलियाँ होने के पश्चाद् ज्ञानपूजन, मांगलिक, प्रतिज्ञा एवं संघ-पूजा के कार्य हुए । * पौष [महा] वद २ सोमवार दिनांक २३-१-८६ के दिन भी पूज्यपाद आचार्य म. सा. आदि पूर्ववत् बाजते-गाजते पधारे (१) श्री गोविन्दसिंहजी मोदी के घर पर । ( १७ ) Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( २ ) श्री सौभागमलजी अशोककुमारजी कटारिया के घर पर । ( ३ ) श्री मांगीलालजी भेरूलालजी सेठिया के घर पर । इन तीनों स्थलों में पगलियाँ होने के बाद ज्ञान पूजन, मांगलिक, प्रतिज्ञा एवं संघपूजा के कार्य हुए । * पौष [ महा ] वद ३ ( पहली ) मंगलवार दिनांक २४-१-८६ के दिन भी पूज्यपाद आचार्य म. सा. आदि पूर्ववत् बाजते-गाजते पधारे (१) श्री लालचन्दजी गणपतलालजी तातेड़ के घर पर । (२) श्री वसन्तीलालजी अमृतलालजी के घर पर । (३) श्री रजनीकान्तजी गांधी के घर पर । इन तीनों स्थलों में पगलियाँ होने के पश्चाद् ज्ञानपूजन, मांगलिक, प्रतिज्ञा एवं संघपूजा के कार्य हुए । * पौष [ महा ] वद ३ ( दूसरी ) बुधवार दिनांक २५-१-८६ के दिन भी परम पूज्य आचार्य म. सा. आदि ( १८ ) Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्ववत् बाजते-गाजते श्रीमान् प्रकाशचन्दजी चतुर के घर पर पधारे। वहाँ पगलियाँ होने के पश्चाद् ज्ञानपूजन एवं मांगलिक प्रवचन हुआ। अन्त में सर्वमंगल के बाद श्रीफल की प्रभावना हुई। जिनमन्दिर में नवग्रहादि पाटलापूजन विधिपूर्वक हुआ। ____* पौष [महा] वद ४ गुरुवार २६-१-८६ के दिन चैत्याभिषेक अष्टादशाभिषेक तथा ध्वज-दण्ड-कलशाभिषेक विधिपूर्वक हुआ। उसी दिन रथ-हाथी-घोड़े-बैन्ड आदि युक्त जलयात्रा का भव्य जुलूस-वरघोड़ा निकाला । * पौष [महा] वद ५ शुक्रवार दिनांक २७-१-८६ के दिन शुभ लग्न मुहूर्त में नूतन जिनमन्दिर में मूलनायक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ आदि जिनबिम्बों की, यक्षयक्षिणी की तथा ध्वज-दण्ड-कलशारोपण इत्यादि की महामंगलकारी प्रतिष्ठा परम शासन प्रभावना पूर्वक पूज्यपाद आचार्य म. सा. की पावन निश्रा में निर्विघ्न हुई। वांकली निवासी श्रीमान् पृथ्वीराजजी ने मूलनायक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ की मूत्ति बिराजमान की। ( १६ ) Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिखर पर ध्वजा भी उन्हीं ने चढ़ाई। बृहदशान्ति स्नात्र भी पढ़ाया तथा उसी दिन नौकारसी का तथा छत्तीस कौम में प्रसादी देने का भी लाभ उन्होंने लिया । श्रीसंघ की ओर से सम्मान समारोह रहा। पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. के सदुपदेश से 'नूतन उपाश्रय-जैन भवन' बनाने का श्रीसंघ ने निर्णय किया। उसमें 'व्याख्यान हॉल' श्रीमान् देवीचन्दजी की ओर से बनाने की जाहेरात हुई। * पौष [महा] वद ६ शनिवार दिनांक २८-१-८६ के दिन प्रातःकाल में श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनमन्दिर का द्वारोद्घाटन हुआ। दोपहर में सतरहभेदी पूजा पढ़ाई गई। स्वामीवात्सल्य हुआ। ___ इस तरह फतहनगर में 'प्रतिष्ठा-महोत्सव' की शासनप्रभावना पूर्वक पूर्णाहुति हुई । ET मेवाड़ से मारवाड़ तरफ विहार जैनधर्मदिवाकर-शासनरत्न - तीर्थप्रभावक - मरुधरदेशोद्धारक परमपूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. ने फतहनगर में नूतन श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ जिनमन्दिर की प्रतिष्ठा का कार्य निर्विघ्न पूर्ण करके वहाँ से मारवाड़ तरफ विहार किया। ( २० ) Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनवाड़ा - खरतारणा - जेवणा - फलीचरा - नाथद्वारागांवगुड़ा-मजेरा- रिचेड़ - जीलवाड़ा - घाणेराव कीर्तिस्तम्भ होकर पौष [महा] वद १३ शनिवार दिनांक ४-२-८६ के दिन सादड़ी पधारे। उसी दिन लुणावा से निकला हुआ पदयात्रा संघ भी पूज्यपाद आचार्य श्रीमद् विजय प्रद्योतनसूरिजी म. सा. आदि के साथ आया। दोनों पूज्यपाद आचार्य म. सा. का संमिलन हुआ। सादड़ी संघ की ओर से बैन्ड युक्त स्वागत हुआ। जिनमन्दिरों के दर्शनादि के बाद जैन न्याति नोहरा में पूज्यपाद दोनों आचार्य म. सा. के मंगल प्रवचन का कार्यक्रम रहा । * पौष (महा) वद १४ रविवार दिनांक ५-२-८६ के दिन सादड़ी से पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. अपने मुनि परिवार सहित मुण्डारा पधारते हुए। श्री संघ की ओर से स्वागत हुआ। व्याख्यान के बाद प्रभावना हुई। वहाँ से संध्या समय कोट गाँव पधारे। [८] सांचोड़ी में प्रवेश और प्रतिष्ठा महोत्सव फालना-अम्बाजीनगर-खिमेल-रानीस्टेशन होकर महा सुद ५ (वसन्त पंचमी) शुक्रवार दिनांक १०-२-८६ के दिन परम शासन-प्रभावक-पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् ( २१ ) Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा., पू. मुनिप्रवर श्री रत्नशेखर वि. म. पू. मुनिराज श्री प्रमोद वि. म., विद्वान् सुमधुर प्रवचनकार पू. मुनिराज श्री जिनोत्तम वि. म., पू. मुनिराज श्री अरिहन्त वि. म. तथा पू. मुनिराज श्री रविचन्द्र वि. म. आदि प्रतिष्ठा हेतु सांचोड़ी गाँव में पधारते हुए । बाहर के विभाग में आई हुई स्कूल में स्थिरता की । गाँव में महोत्सव का प्रारम्भ हुआ । प्रतिदिन प्रवचन - प्रभुपूजा प्रभावना- दोनों टंक स्वामीवात्सल्य और रात को भावना का कार्यक्रम चालू रहा । * महा सुद छठ शनिवार दिनांक ११-२-८६ के दिन पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. आदि का श्री संघ की ओर से बैन्ड युक्त भव्य स्वागत पूर्वक सांचोड़ी गाँव में मंगल प्रवेश हुआ । अनेक गहुँलियाँ हुईं। । जिनमन्दिर में दर्शनादि के बाद पूज्यपाद प्रा. म. सा. का मंगल प्रवचन हुआ । अन्त में संघपूजा हुई । * महा सुद ७ रविवार दिनांक १२-२-८६ के दिन पूज्यपाद प्राचार्य श्रीमद् विजय प्रद्योतन सूरिजी म. आदि भी पधारते हुए । श्री संघ की ओर से बैन्ड युक्त स्वागत हुआ । दोनों प्राचार्य म. सा. के संमिलन के ( २२ ) Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ में मंगल प्रवचन भी हुआ। उसी दिन 'श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन' विधिपूर्वक सुन्दर पढ़ाया गया । * महा सुद ८ सोमवार दिनांक १३-२-८६ के दिन श्रीमान् घेवरचन्दजी जीवराजजी के घर पर तथा श्रीमान् बक्तावरमलजी जुहारमलजी के घर पर परमपूज्य प्राचार्य म. सा. आदि बाजते-गाजते बैन्ड सहित पधारे । वहाँ ज्ञानपूजन एवं मांगलिक श्रवण के बाद दोनों स्थलों पर संघपूजा हुई। उसी दिन श्री पार्श्वनाथ प्रभु के जन्मोत्सव का छप्पन दिग्कुमारिका युक्त कार्यक्रम अच्छा रहा । * महा सुद ६ मंगलवार दिनांक १४-२-८६ के दिन श्री पार्श्वनाथ का आध्यात्मिक श्री वामादेवी का थाल भरने का कार्यक्रम होने के बाद, जुलूस (वरघोड़ा) निकाला गया । * महा सुद १० बुधवार दिनांक १५-२-८६ के दिन प्रातःकाल में परमपूज्य आचार्य देव कीरवा गाँव पधारे । वहाँ जिनमन्दिर का शिलान्यासकार्य विधिपूर्वक कराके वापस सांचोड़ी पधारने के बाद, कुम्भ-स्थापनादि तथा नवग्रहादि पाटला पूजनादि का विधिपूर्वक कार्यक्रम हुआ । ( २३ ) Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * महा सुद ११ गुरुवार दिनांक १६-२-८६ के दिन अष्टादश अभिषेक, चैत्याभिषेक, ध्वज-दण्ड-कलशाभिषेक का कार्य विधिपूर्वक हुआ । उसी दिन श्रीमान् भबूतमलजी, श्रीमान् मुलतानमलजी, श्रीमान् चिमनमलजी इत्यादि सद्गृहस्थों के नौ घरों पर पूज्यपाद आचार्यदेव के बैन्ड युक्त पगलियाँ हुए। वहाँ पर ज्ञानपूजन मांगलिक तथा प्रतिज्ञा के पश्चाद् संघपूजा एवं प्रभावना हुई। * महा सुद १२ शुक्रवार दिनांक १७-२-८६ के दिन पूज्यपाद आचार्य म. सा. के सदुपदेश से सांचोड़ी के जैन संघ में एकता हुई। श्रीमान् अनराजजी आदि के घर पर बैन्ड युक्त पूज्य श्री के पुनीत पगलियाँ हुए । ज्ञानपूजन, मांगलिक एवं प्रतिज्ञा के पश्चाद् संघपूजा हुई। देवीपूजन हुआ। रथ-इन्द्रध्वज-हाथी-घोड़े-बैन्ड आदि युक्त जल यात्रा का भव्य वरघोड़ा निकला । * महा सुद १३ शनिवार दिनांक १८-२-८६ के दिन प्रातःकाल में तथा शुभलग्न मुहूर्त में जीर्णोद्धारकृत श्री मनमोहन पार्श्वनाथ आदि जिनबिम्बों की, गुरु-चरणपादुका की, यक्ष-यक्षिणी प्रादि मूत्तियों की तथा शिखर पर ध्वज-दण्ड-कलशारोहण की विधिपूर्वक महा मंगलकारी प्रतिष्ठा परमशासन प्रभावना पूर्वक परम शासन ( २४ ) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. की शुभ निश्रा में निर्विघ्न हुई। बृहद्शान्तिस्नात्र विधिपूर्वक पढ़ाया गया । उसी दिन समारोह तथा फलेचुन्दड़ी का भी कार्यक्रम बहुत ही सुन्दर हुआ। शाम को परमपूज्य प्राचार्य म. सा. आदि विहार कर रानीगाँव पधारे । __ महा सुद १४ रविवार दिनांक १६-२-८६ के दिन सांचोड़ी में प्रातः विधिपूर्वक द्वारोद्घाटन,दोपहर में सत्तरहभेदी पूजा तथा स्वामीवात्सल्यादि कार्य होते हुए प्रतिष्ठा महोत्सव की पूर्णाहुति परम शासन प्रभावना पूर्वक हुई, जो सांचोड़ी गाँव के इतिहास में सुवर्णाक्षरे अंकित रहेगी। (8) कोलरगढ़ तीर्थ में प्रवेश और श्री उपधान तप का प्रारम्भ राजस्थान-दीपक परम पूज्याचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि विहार कर खिमेल, फालना-अम्बाजीनगर, जाकोड़ा, सुमेरपुर, अटवाड़ा, पालड़ी (सिरोही) होकर महा (फागण) वद ४ शनिवार दिनांक २५-२-८६ के दिन कोलरगढ़ तीर्थ में पधारते हुए। श्री जैन पेढ़ी द्वारा बैन्ड युक्त पूज्यपाद आचार्य जिन-3 ( २५ ) Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म. सा. आदि का स्वागत हुआ । प्राचीन श्री आदिनाथ जिनमन्दिर के दर्शनादि के बाद मंगल प्रवचन पूज्यपादश्री का हुआ । ( १ ) महा ( फागरण ) वद ५ रविवार दिनांक २६-२-८९ के दिन तीर्थप्रभावक परम पूज्य आचार्य म. सा. को शुभ निश्रा में श्री उपधान तप की आराधना का प्रारम्भ हुआ । उसमें उपधानवाही भाई-बहिनों की संख्या ६३ हुई । उस दिन से श्री जिनेन्द्रदेव की भक्ति निमित्त ५१ दिन तक अखण्ड पूजा का कार्यक्रम भी प्रारम्भ हुआ । पूज्यपाद आचार्य म. सा., पूज्य उपाध्याय श्री विनोद विजयजी म. सा. एवं पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. का क्रमशः 'श्री उपधान तप की महिमा' पर प्रवचन हुआ । प्रतिदिन बैन्ड युक्त जिनदर्शन, श्री ऋषिमण्डल श्रवरण, व्याख्यान, पूजा प्रांगी तथा रात को भावना का कार्यक्रम चालू रहा । तदुपरान्त बीच में पधारे हुए पूज्य उपाध्याय श्री जयेन्द्रसागरजी म. पू. पंन्यास श्री धरणेन्द्रसागरजी म., पूज्य मुनिप्रवर श्री पुण्योदय विजयजी म., पूज्य मुनिराज , ( २६ ) Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री अभयचन्द्र विजयजी म. तथा उनके शिष्य पूज्य मुनि श्री अणमोलरत्न विजयजी म. के भी प्रवचन का लाभ मिलता रहा। इस प्रसंग पर पधारे हुए पूज्य साध्वी श्री मंजुला श्रीजी आदि, पूज्य साध्वी श्री सौम्यलता श्रीजी आदि तथा पूज्य साध्वी श्री भक्ति श्रीजी आदि एवं पूज्य साध्वी श्री पुण्यरेखा श्रीजी आदि साध्वीवृन्द के भी दर्शनवन्दनादि का लाभ सबको मिलता रहा। विशेष (१) फागण सुद ४ शनिवार दिनांक ११-३-८६ के दिन शासन-प्रभावक परम पूज्य प्रा. श्रीमद् विजय हिमाचल सूरीश्वरजी म. सा. के समुदाय के आज्ञावत्तिनी पूज्य साध्वी श्री कमलप्रभा श्रीजी की शिष्या पूज्य साध्वी श्री सौम्यप्रभा श्रीजी की 'बड़ी दीक्षा' विधिपूर्वक पूज्यपाद आचार्य म. सा. के वरद हस्ते हुई । (२) फागण सुद ५ रविवार दिनांक १२-३-८६ के दिन श्री ऋषभदेव जिनमन्दिर की वर्षगाँठ निमित्त विधिपूर्वक मन्दिर के शिखरों पर नूतन ध्वजा चढ़ाने में आई तथा प्रभुजी के अष्टादश अभिषेक का कार्य विधिपूर्वक हुआ। ( २७ ) Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (३) फागण (चैत्र) वद १ गुरुवार दिनांक २३-३-८६ के दिन मांडवला गाँव से बसों द्वारा आये हुए संघ का स्वागत हुआ । परम पूज्य आचार्य म. सा. ने मंगल प्रवचन किया। बाद में पूज्यपादश्री की प्रेरणा से संघवीजी ने पैदल संघ निकालने की प्रतिज्ञा की और इधर के जिनमन्दिर में अपनी अोर से आरस-पाषाण का एक तीर्थ पट्ट लगाने की जाहेरात की। (४) फागण (चैत्र) वद : शुक्रवार दिनांक ३१-३-८६ के दिन व्याख्यान में पुण्यप्रकाश का स्तवन तथा श्री पद्मावती की आराधना सुनाने के पश्चात् नीचे प्रमाणे तीन संघपूजा हुई। १. श्रीमान् खीमराजजी रानी स्टेशन वालों की अोर से । २. श्रीमान् पुखराजजी शिवगंज वालों की तरफ से । ३. श्रीमान् रिखबदासजी शिवगंज वालों की तरफ से । * फागण (चैत्र) वद ग्यारस के दिन व्याख्यान में संघपूजा श्रीमान् उत्तमचन्दजी मण्डारवाले की तरफ से हुई। ( २८ ) Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * फागण (चैत्र) वद चौदस के दिन व्याख्यान में संघपूजा श्रीमान् तेजराजजी बाफरणा सिरोही वालों की ओर से हुई। (५) चैत्र सुद ५ सोमवार दिनांक १०-४-८६ के दिन भवोभव के पुद्गल वोसराने की क्रिया समूह रूप में हुई तथा उस दिन 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधि पूर्वक पढ़ाई गई। (६) चैत्र सुद ८ गुरुवार दिनांक १३-४-८६ के दिन शाश्वती चैत्र मास की अोली का प्रारम्भ हुआ। उस दिन 'श्री भक्तामर महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। (७) चैत्र सुद ६ शुक्रवार दिनांक १४-४-८९ के दिन 'श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई । (८) चैत्र सुद १० शनिवार दिनांक १५-४-८६ के दिन 'लघु शान्ति-स्नात्र' विधिपूर्वक पढ़ाया गया। (6) चैत्र सुद ११ रविवार दिनांक १६-४-८९ के दिन श्री उपधान तप की पूर्णाहुति की माला का भव्य वरघोड़ा रथ, हाथी, बैन्ड युक्त निकाला गया। (१०) चैत्र सुद १२ सोमवार दिनांक १७-४-८६ ( २६ ) Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के दिन जैनधर्म-दिवाकर परम पूज्याचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. की पावन निश्रा में 'श्री उपधान तप की माला' का विधिपूर्वक कार्य निर्विघ्न पूर्ण हुआ। उसी दिन शाम को श्रीमान् पुखराजजी शिवगंज वालों की ओर से उपधानवाही भाई-बहिनों को श्री नागेश्वर पार्श्वनाथ तीर्थ की यात्रा कराने के लिये बस द्वारा श्री कोलरगढ़ तीर्थ से प्रस्थान किया। पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. आदि भी शाम को विहार कर पालड़ी गाँव (सिरोही) पधारे । * प्रथम तेरस सुमेरपुर जैन बोर्डिंग, द्वितीय तेरस जाकोड़ तीर्थ तथा चौदस फालना-अम्बाजीनगर में पूज्यपाद आचार्य म. सा. ने की। (8) खीमेल में जिनेन्द्र-भक्ति महोत्सव (१) खीमेल में द्वितीय चैत्र सुद तेरस से ग्यारह दिन का 'श्री जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव' प्रारम्भ हुआ था । कुम्भ-स्थापनादि भी उसी दिन हो गयी थी। उस दिन से लगाकर महोत्सव की पूर्णाहुति तक प्रतिदिन पूजा ( ३० ) Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभावना, नास्ता-स्वामीवात्सल्य, प्रांगी-रोशनी तथा रात को भावना का कार्यक्रम भी चालू रहा । (२) चैत्र (वैशाख) वद १४ के दिन पूजा तथा स्वामीवात्सल्य हुआ। (३) चैत्र सुद १५ शुक्रवार दिनांक ३१-४-८६ के दिन जिनके सदुपदेश से श्रीसंघ ने यहाँ श्री जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव का प्रारम्भ किया था, वे ही मरुधर-देशोद्धारक परम पूज्याचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वर जी म. सा. आदि खीमेल में पधारते हुए। उनका भव्य स्वागत श्रीसंघ ने अनेरे उत्साह के साथ किया । जिनमन्दिर के दर्शनादि के बाद पूज्यपाद प्रा. म. सा. का मंगल प्रवचन हुआ। उसी दिन 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। १. श्रीमान् प्रेमचन्द चैनाजी पारेख, २. श्रीमान् मोहनराज चैनाजी राठौड़ और ३. श्रीमान् मिश्रीमल वोरीदासजी । इन तीनों के घर पर पूज्यपाद आचार्य म. सा. चतुर्विध संघ के साथ बैन्ड युक्त पधारे। वहाँ पर ज्ञानपूजन, मंगल प्रवचन तथा प्रतिज्ञा के पश्चाद् संघपूजा ( ३१ ) Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई । मिलता रहा । प्रतिदिन व्याख्यान श्रवरण का लाभ श्रीसंघ को (४) चैत्र (वैशाख) वद १ शनिवार दिनांक २२-४-८९ के दिन नवग्रहादि पाटला पूजन, श्री मारिणभद्रपूजन तथा श्री क्षेत्रपालपूजन विधिपूर्वक सम्पन्न हुई । (५) चैत्र (वैशाख) वद २ रविवार दिनांक २३-४-८९ के दिन 'श्री पार्श्वपद्मावती महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई । ( ६ ) चैत्र ( वैशाख ) वद ३ सोमवार दिनांक २४-४-८९ के दिन छप्पन दिगुकुमारिका महोत्सव का कार्यक्रम रहा । (७) चैत्र (वैशाख) वद ४ मंगलवार दिनांक २५-४-८६ के दिन 'श्री वामा माता का थाल' भरने का तथा जुलूस का कार्यक्रम रहा । ( ८ ) चैत्र ( वैशाख ) वद ५ बुधवार दिनांक २६-४-८९ के दिन पूज्य पंन्यास श्री कुन्दकुन्द विजयजी म. तथा पूज्य मुनि श्री विनयधर्म विजयजी म. । पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. की वन्दनार्थ पधारे । उसी दिन बाहर के श्री ( ३२ ) Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऋषभदेव बावन जिनालय में अठारह अभिषेक विधिपूर्वक हुए। (6) चैत्र (वैशाख) वद ६ गुरुवार दिनांक २७-४-८६ के दिन गाँव के श्री शान्तिनाथ जिनमन्दिर में अठारह अभिषेक विधिपूर्वक हुए। उसी दिन जलयात्रा का भव्य वरघोड़ा रथ, इन्द्रध्वज, हाथी, घोड़े तथा बैन्ड आदि युक्त निकाला गया। (१०) चैत्र (वैशाख) वद ७ शुक्रवार दिनांक २८-४-८९ के दिन 'बृहद् शान्तिस्नात्र' विधिपूर्वक पढ़ाया गया। उसी दिन नौकारशी हुई तथा ३६ कौम में प्रत्येक के घर मिष्ट प्रसादी भेजी गई। शाम को पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. आदि रानी स्टेशन पधारे । (११) चैत्र (वैशाख) वद ८ शनिवार दिनांक २६-४-८६ के दिन सत्तरह भेदी पूजा पढ़ाई गई। सार्मिक वात्सल्य तथा अभिनन्दन (बहुमान) समारोह का कार्यक्रम भी हुआ। उसी दिन खीमेल में ग्यारह दिन के अभूतपूर्व महोत्सव की निर्विघ्न पूर्णाहुति हुई। खीमेल के इतिहास में यह महा मंगलकारी भव्य महोत्सव' सुवर्णाक्षरे अंकित होने वाला सम्पन्न हुआ। ( ३३ ) Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * चैत्र (वैशाख) वद ८ शनिवार दिनांक २६-४-८६ के दिन रानी स्टेशन से प्रातः विहार कर विजोवा में पूज्यपाद आचार्य म. सा. स्वागतपूर्वक पधारे । वहाँ पर जिनमन्दिर के दर्शनादि किये, बाद में पूज्यपादश्री के मंगल प्रवचन का लाभ श्रीसंघ को मिला । शाम को विहार कर नाडोल में बाहर की बगीची में पधारे । वहाँ से नवमी के दिन प्रातः विहार कर नीपल में स्वागत पूर्वक पधारे । वहाँ पर भी जिनमन्दिर में दर्शनादि किये । श्री संघ को जिनवाणी श्रवण का लाभ मिला । (११) रामाजी का गुड़ा में प्रवेश एवं प्रतिष्ठामहोत्सव का प्रारम्भ (१) चैत्र (वैशाख) वद १० सोमवार दिनांक १-५-८६ के दिन प्रातः जालोर - नंदीश्वर द्वीप मन्दिर से लाये हुए श्री सुमतिनाथ जिनमूत्ति का मंगल प्रवेश तथा नीपल से विहार कर रामाजी का गुड़ा में पधारते हुए जैनधर्मदिवाकर राजस्थान- दीपक परम पूज्याचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि का भी प्रवेश श्री जैनसंघ की ओर से बैन्डयुक्त भव्य स्वागतपूर्वक हुआ । श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान के दर्शनादि के बाद पूज्यपाद आचार्य म. सा. का 'प्रभु प्रतिष्ठा ( ३४ ) Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का महत्त्व' विषय पर प्रभाविक प्रवचन हुआ। इसी विषय पर पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. का भी सुन्दर प्रवचन हुआ। उसी दिन से तेरह दिन का जिनप्रतिष्ठा-महोत्सव प्रारम्भ हुआ। कुम्भ-स्थापना, अखण्ड दीपक, जवारारोपण तथा प्रभुपूजा एवं स्वामीवात्सल्य इत्यादिक कार्य हुए। प्रतिदिन व्याख्यान, पूजाप्रभावना, प्रांगी-रोशनी, स्वामीवात्सल्य तथा रात को भावना का कार्यक्रम चालू रहा । (२) चैत्र (वैशाख) वद ११ मंगलवार दिनांक २-५-८६ के दिन 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। (३) चैत्र (वैशाख) वद १३ बुधवार दिनांक ३-५-८६ के दिन 'छप्पन दिगकुमारिका स्नात्र महोत्सव' का कार्यक्रम सम्पन्न हुआ। पूज्य साध्वीश्री दिव्यप्रज्ञा श्रीजी के श्री वर्द्धमान तप की ६१ वी अोली की पूर्णाहुति के प्रसंग पर विशेष बोली बोलकर लाभ लेने वाले श्रीमान् राजमलजी के घर पर पूज्यपाद आ. म. सा. ने चतुर्विध संघ के साथ पगलियाँ किये। वहाँ पर ज्ञानपूजन, प्रतिज्ञा एवं मंगल प्रवचन के बाद संघपूजा हुई। ( ३५ ) Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४) चैत्र (वैशाख) वद १४ गुरुवार दिनांक ४-५-८६ के दिन श्री वामामाता के थाल के साथ सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हुआ। शाम को पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. विजोवा में प्रतिष्ठा हेतु जाने के लिए रामाजी का गुड़ा से विहार कर नीपल गाँव में पधार गये । * चैत्र (वैशाख) अमावस्या शुक्रवार दिनांक ५-५-८६ के दिन प्रातः नीपल से विहार कर नाडोल पधारते हुए पूज्यपाद आचार्य म. सा. का स्वागत पूर्वक प्रवेश हुआ। उनकी शुभ निश्रा में श्रीमान् कानमलजी की ओर से 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। शाम को विहार कर परम पूज्य आचार्य म. सा. श्री वरकारणा तीर्थ में पधारे । बिजोवा में प्रतिष्ठा-महोत्सव __वैशाख सुद १ शनिवार ६-५-८६ के दिन बिजोवा में गुरुमन्दिर की प्रतिष्ठा हेतु श्री वरकाणा तीर्थ से पधारते हुए मरुधर-देशोद्धारक परम पूज्याचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि का बैन्ड युक्त स्वागत कांकरिया परिवार की ओर से हुआ । ( ३६ ) Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनमन्दिर के दर्शनादि के बाद पूज्यपाद आचार्य म. सा. का मंगल प्रवचन हुआ। प्रतिष्ठा निमित्त चल रहे नवाह्निका महोत्सव में आज 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। * वैशाख सुद २ रविवार दिनांक ७-५-८६ के दिन प्रातः पूज्य पंन्यास श्री कुन्दकुन्द विजयजी गरिण म. प्रादि तथा पू. मुनिराज श्री धुरन्धर विजयजी आदि के बिजोवा में पधारने से श्रीसंघ के प्रानन्द में अभिवृद्धि हुई । दोपहर में जल-यात्रा का भव्य जुलूस निकला। * वैशाख सुद ३ (अक्षय तृतीया) सोमवार, दिनांक ८-५-८६ के दिन पूज्यपाद प्रा. म. सा. की शुभ निश्रा में बने हुए नूतन गुरुमन्दिर में शुभ लग्न मुहूर्त में स्वर्गीय पूज्य आचार्य श्री शान्ति सूरिजी म. को मूत्ति, स्वर्गीय पूज्य आचार्य श्री ललित सूरिजी म. की मूत्ति तथा स्वर्गीय पूज्य आचार्य श्री समुद्रसूरिजी म. की मूत्ति की प्रतिष्ठा हुई। दोपहर में कांकरिया परिवार की ओर से बृहद् शान्तिस्नात्र विधिपूर्वक पढ़ाया गया तथा स्वामीवात्सल्य भी हुआ। शाम को 'रामाजी का गुड़ा' में प्रतिष्ठा हेतु जाने Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के लिये पूज्यपाद आचार्य म. सा. ने बिजोवा से विहार किया। रामाजी का गड़ा में श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिष्ठा (१) वैशाख सुद ४ मंगलवार दिनांक ६-५-८६ के दिन परम शासन-प्रभावक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि विहार कर रामाजी का गुड़ा में पधारे; पू. श्री का प्रभाविक प्रवचन हुआ। श्रीमान् देवराजजी के घर पर बैन्ड युक्त चतुर्विध संघ के साथ पगलियाँ हुए। ज्ञानपूजन, पैदल संघ की प्रतिज्ञा और मंगल प्रवचन के बाद श्रीमान् देवराजजी की ओर से संघपूजा हुई। जिनमन्दिर में नवग्रहादि पाटलापूजन का कार्यक्रम भी रहा । (२) वैशाख सुद ५ बुधवार दिनांक १०-५-८६ के दिन प्रातः पूज्य साध्वी श्री विश्वपूर्णा श्रीजी के श्री वर्द्धमान तप की ८६ वीं अोली की पूर्णाहुति के पारणे के प्रसंग पर विशेष बोली बोलकर लाभ लेने वाले श्रीमान् देवराजजी कस्तूरचन्दजी के घर पर पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. आदि का बैन्ड युक्त चतुर्विध संघ के साथ पगलियाँ हुए। ज्ञानपूजन, मंगलप्रवचन, प्रतिज्ञा के बाद संघपूजा ( ३८ ) Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भी हुई। श्रीमान् मुलतानमलजी के घर पर भी इसी तरह पगलियाँ हुए। उसी दिन अष्टादशाभिषेक, ध्वज-दण्ड-कलशाभिषेकादि का तथा पूजा का कार्यक्रम हुआ। जलयात्रा का भव्य वरघोड़ा रथ-इन्द्रध्वज-हाथी-घोड़े-ऊँट तथा बैन्ड युक्त निकाला। रात को भावना के बाद वनोली भी निकाली गई। (३) वैशाख सुद ६ गुरुवार दिनांक ११-५-८६ के दिन प्रातः शुभ लग्न मुहूर्त में जैनधर्मदिवाकर-तीर्थप्रभावक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. की शुभ निश्रा में मूलनायक श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ आदि जिनबिम्बों की, यक्ष-यक्षिणी आदि की तथा शिखरोपरि ध्वज-दण्ड-कलशारोहण की विधिपूर्वक महामंगलकारी प्रतिष्ठा-स्थापना हुई । बृहद् शान्तिस्नात्र विधिपूर्वक पढ़ाया गया तथा नौकारसी भी हुई। शाम को पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. ने प्रतिष्ठा हेतु आउवा की तरफ विहार किया। १० वैशाख सुद ७ शुक्रवार दिनांक १२-५-८९ के दिन रामाजी का गड़ा में प्रातः द्वारोद्घाटन, सत्तरह ( ३६ ) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भेदी पूजा एवं ३६ कौम में प्रत्येक घर दीठ प्रसादी देने का कार्यक्रम हुआ। * वैशाख सुद ८ शनिवार दिनांक १३-५-८६ के दिन भी पूजा-प्रभावना का कार्यक्रम भव्य समारोह पूर्वक हुआ। प्रतिष्ठा महोत्सव की पूर्णाहुति का कार्य . परम शासन प्रभावना पूर्वक निर्विघ्न पूर्ण हुआ। श्री रामाजी गुड़ा के इतिहास में यह श्री शंखेश्वर पार्श्वनाथ भगवान की प्रतिष्ठा का तेरह दिन का महोत्सव सुवर्णाक्षर से अंकित होने वाला सम्पन्न हुआ । [१२] आउवा में प्रतिष्ठा-महोत्सव आउवा में श्री भीड़-भंजन-पार्श्वनाथ भगवान के जिनमन्दिर में ६ जिनबिम्ब एवं श्री नाकोड़ा भैरवदेव के मन्दिर की प्रतिष्ठा निमित्त श्रीसंघ की ओर से वैशाख सुद त्रीज (अक्षय तृतीया) के दिन से नौ दिन का श्री जिनेन्द्र भक्ति महोत्सव प्रारम्भ हुआ। प्रतिदिन पूजा-प्रभावना, प्रांगी-रोशनी तथा रात को भावना का कार्यक्रम चालू रहा। वैशाख सुद ८ शनिवार दिनांक १३-५-८६ के दिन परम शासक प्रभावक पूज्यपाद प्राचार्यदेव श्रीमद् विजय ( ४० ) Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुशील सूरीश्वरजी महाराज, पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. तथा पू. मुनि श्री रविचन्द्र विजयजी म. आऊवा में पधारते हुए । श्रीसंघ की ओर से बैन्डयुक्त स्वागत हुआ। उसी दिन 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई । * वैशाख सुद 8 रविवार दिनांक १४-५-८६ के दिन प्रातः पूज्यपाद आचार्य म. सा. का तथा पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. का प्रवचन हुआ । अष्टादश अभिषेक होने के बाद जलयात्रा का भव्य वरघोड़ा निकाला गया । * वैशाख सुद १० सोमवार दिनांक १५-५-८६ के दिन प्रातः पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. की पावन निश्रा में शुभ लग्न मुहूर्त में छह जिनबिम्बों की तथा नाकोड़ा भैरव मूर्ति की एवं स्वर्गीय पूज्य मुनिराज श्री देवभद्र विजयजी म. के चरणपादुका की महामंगलकारी प्रतिष्ठा हुई । दोपहर में बृहद्शान्तिस्नात्र विधिपूर्वक पढ़ाया गया । स्वामीवात्सल्य भी हुआ । शाम को विहार कर परम पूज्य आचार्य भगवन्त आदि मुनिराज बतागाँव पधारे । जिन-4 ( ४१ ) Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [१३] ढालोप से श्री राणकपुरजी आदि पंच तीर्थी का पदयात्रा-संघ १. बांता से विहार कर पोचेरीया-सावरलता-देवलीखारला-नाडोल होकर वैशाख सुद १३ गुरुवार दिनांक १८-५-८६ के दिन ढालोप में पधारते हुए तीर्थ प्रभावक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. का श्रीसंघ ने बैन्डयुक्त स्वागत किया। वहाँ पर तीर्थ पदयात्रा संघ था, तथा शा. धनराजजी हिम्मतमलजी राठौड़ एवं अ. सौ. प्यारीबाई धनराजजी का शुभ जीवित महोत्सव तप उद्यापन युक्त चल रहा था। पंचाह्निका महोत्सव के प्रसंग में 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। उसी दिन श्रीमान् धनराजजी के घर पर बैन्डयुक्त चतुर्विध संघ के साथ पूज्यपाद प्रा. म. सा. के पुनीत पगलियाँ हुए। ज्ञानपूजन एवं मंगल प्रवचन के बाद संघपूजा हुई। स्वामीवात्सल्य भी हुआ। २. वैशाख सुद १४ शुक्रवार दिनांक १९-५-८६ के दिन प्रातः ढालोप से पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. की पावन निश्रा में श्रीमान् धनराजजी हिम्मतमलजी राठौड़ की ओर से श्री राणकपुरजी आदि पंचतीर्थी का छरीपालित पदयात्रा-संघ निकला। दादाइ गाँव में देवदर्शन ( ४२ ) Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एवं दादाइ संघ की ओर से संघपूजा तथा श्री वरकाणा तीर्थ में रथ-इन्द्रध्वज-हाथी-घोड़े एवं बैन्डादि युक्त स्वागत पूर्वक प्रवेश, तीर्थदर्शन, व्याख्यान, पूजा-प्रभावना, स्वामीवात्सल्य एवं रात को भावना का कार्यक्रम हुा । ३. वैशाख सुद १५ शनिवार दिनांक २०-५-८६ के दिन नाडोल में स्वागत, जिनालयों के दर्शन, व्याख्यान, पूजा-प्रभावनादि का कार्यक्रम रहा । विशेष-श्रीमान् रूपचन्दजी कुन्दनमलजी के घर पर सकल संघ के साथ बैन्डयुक्त परम पूज्य आचार्य म. सा. के पावन पगलियाँ हुए। ज्ञानपूजन एवं मंगलप्रवचन के पश्चात् पाँच-पाँच रुपये से संघपूजा हुई। स्वामीवात्सल्य हुआ। रात को भावना का कार्यक्रम रहा । ४. वैशाख [ज्येष्ठ] वद १ रविवार दिनांक २१-५-८६ के दिन नाडलाई में स्वागत, जिनमन्दिरों के दर्शन, व्याख्यान में संघपूजा, प्रभुपूजा एवं रात को भावना का कार्यक्रम रहा। ५. वैशाख (ज्येष्ठ) वद २ सोमवार दिनांक २२-५-८६ के दिन प्रातः सुमेर तीर्थ में स्वागत, पूजाप्रभावना तथा स्वामीवात्सल्य सम्पन्न हुए। शाम को ( ४३ ) Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देसूरी में स्वागत तथा जिनमन्दिरों के दर्शन एवं रात को भावना का कार्यक्रम रहा । ६. वैशाख (ज्येष्ठ) वद ३ प्रातः मंगलवार दिनांक २३-५-८६ के दिन घाणेराव में जिनमन्दिरों के दर्शन तथा श्री मुछालामहावीर तीर्थ में जैनपेढ़ी द्वारा स्वागत, देवदर्शन, व्याख्यान, पूजा-प्रभावना तथा स्वामीवात्सल्य का कार्यक्रम रहा। शाम को घाणेराव-कीर्तिस्तम्भ में स्वागत, देवदर्शन एवं रात को भावना का कार्यक्रम रहा । ७. वैशाख (ज्येष्ठ) वद ४ बुधवार दिनांक २४-५-८६ के दिन प्रातः सादड़ी में संघ द्वारा स्वागत, जिनमन्दिरों के दर्शन, पू. पंन्यास श्री कुन्दकुन्द विजयजी गणि तथा पू. मुनिराज श्री शालिभद्र विजयजी आदि एवं पू. वयोवृद्ध मुनिराज श्री मुक्तिविजयजी म. आदि का सम्मिलन, प्रवचन, पूजा-प्रभावना का कार्यक्रम रहा । शाम को श्रीमान् पुखराजजी की बगीची में संघ के स्वागत पूर्वक पधारने के पश्चात् पूज्यपाद आचार्य म. सा. का मंगल प्रवचन हुअा। संघपूजा हुई तथा रात को भावना का कार्यक्रम रहा । ८. वैशाख (ज्येष्ठ) वद ५ गुरुवार दिनांक ( ४४ ) Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५-५-८६ के दिन प्रातः सादड़ी से संघ के साथ विहार कर श्री राणकपुरजी तीर्थ में पधारे जैनधर्मदिवाकर परम पूज्य आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि मुनिवृन्द का, साध्वी समुदाय का तथा संघपति वगैरह का जैनपेढ़ी द्वारा स्वागत हुआ। देवाधिदेव श्री ऋषभदेव भगवान आदि सर्व जिनबिम्बों के दर्शनादि होने के बाद मंगल प्रवचन हुआ। दोपहर में दादा के दरबार में प्रभावना युक्त पूजा पढ़ाई गई तथा रात को भावना हुई। ६. वैशाख (ज्येष्ठ) वद ६ शुक्रवार दिनांक २६-५-८६ के दिन प्रातः शुभ मुहूर्त में पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. की शुभ निश्रा में संघपति श्रीमान् धनराजजी हिम्मतमलजी राठौड़ आदि को विधिपूर्वक संघमाला (तीर्थमाला) नाण समक्ष चतुर्विध संघ की उपस्थिति में पहनाने में आई। पूजा तथा स्वामीवात्सल्य का कार्य भी हुआ। बाद में संघपति द्वारा बसों के साधन से संघ ढालोप की तरफ रवाना हुआ । * सातम के दिन प्रातः दादा के दर्शनादि करके पूज्यपाद प्रा. म. सा. यादि श्री राणकपुर तीर्थ से विहार Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर सादड़ी न्याति-नोहरे में तथा शाम को मुक्तिधाम में पधारे। ___ आठम के दिन कोटगाँव में और नवमी के दिन फालना-अम्बाजीनगर में पधारे । [१४] सिन्दरु में महोत्सव वैशाख (ज्येष्ठ) वद १० मंगलवार दिनांक ३०-५-८६ के दिन प्रातः फालना से विहार द्वारा सिन्दरु गाँव में पधारते हुए राजस्थान-दीपक परमपूज्य आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि का संघ की तरफ से बैन्डयुक्त स्वागत हुआ। जिनमन्दिर-दर्शनादि के बाद 'जैनभवन-न्याति-नोहरे' का उद्घाटन भी पूज्यपाद प्रा. म. सा. की पावन निश्रा में हुआ। वहाँ पूज्यश्री का मंगल प्रवचन हुआ। जिनमन्दिर में नौ दिन के महोत्सव का भी प्रारम्भ उसी दिन हुआ। कुम्भ-स्थापना, अखण्ड दीपक, जवारारोपण भी किया गया। श्री सिद्धचक्र महापूजन' भी पढ़ाया गया। प्रतिदिन पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. तथा पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. सा. का व्याख्यान, पूजा-प्रभावना, प्रांगी-रोशनी, स्वामीवात्सल्य तथा रात को भावना का भी कार्यक्रम चलता रहा । ( ४६ ) Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेठ सुद १ रविवार दिनांक ४-६-८६ के दिन नवग्रहादि, पाटलापूजन तथा श्री मणिभद्र पूजन विधिपूर्वक हुआ। * जेठ सुद २ सोमवार दिनांक ५-६-८६ के दिन जलयात्रा का भव्य वरघोड़ा निकाला गया। * जेठ सुद ३ मंगलवार दिनांक ६-६-८६ के दिन बृहद् अष्टोत्तरीस्नात्र विधिपूर्वक पढ़ाया गया । (१५) गुड़ा एन्दला में उद्यापनयुक्त महोत्सव १. जेठ सुद ५ गुरुवार दिनांक ८-६-८६ को प्रातः गुड़ा एन्दला में पधारे शास्त्र-विशारद परम पूज्याचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि का श्रीसंघ की तरफ से बैन्डयुक्त स्वागत हुआ। श्री पार्श्वनाथ जिनमन्दिर के वर्षगाँठ निमित्त शिखर पर नूतन ध्वजा विधिपूर्वक चढ़ाने में आई। उद्यापनयुक्त अष्टाह्निका-महोत्सव में आज श्री सिद्धचक्र महापूजन विधिपूर्वक पढ़ाई गई। श्री सिद्धचक्र महापूजन पढ़ाने वाले महानुभाव के घर पर भी पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. के चतुर्विध संघ के साथ बैन्डयुक्त पगलियाँ हुए । ज्ञानपूजन एवं मंगलाचरण के पश्चाद् संघपूजा हुई। ( ४७ ) Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्याख्यान, पूजा-प्रभावना, स्वामीवात्सल्य तथा रात को भावना का कार्यक्रम पूर्ववत् चालू रहा। २. जेठ सुद ६ शुक्रवार दिनांक ६-६-८६ के दिन कुम्भस्थापनादि, अष्टादश अभिषेक तथा जलयात्रा का भव्य वरघोड़ा तथा पगलियाँ का कार्यक्रम विशेष रूप में हुआ। ३. जेठ सुद ७ शनिवार दिनांक १०-६-८६ के दिन बृहदशान्तिस्नात्र विधिपूर्वक पढ़ाया गया। पगलियाँ का भी कार्यक्रम रहा। ४. जेठ सुद ८ रविवार दिनांक ११-६-८६ के दिन 'श्री पार्श्व पद्मावती महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। स्वामीवात्सल्य भी हुआ। पगलियाँ का भी कार्यक्रम रहा। महोत्सव की पूर्णाहुति हुई। शाम को विहार कर पूज्यपाद प्रा. म. सा. वालराई पधारे। * जेठ सुद ६ सोमवार दिनांक १२-६-८६ को प्रातः विहार कर पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. आदि धरणागाँव में पधारे। जिनमन्दिर में दर्शनादि किया और मन्दिर अंगे श्रीसंघ को मार्गदर्शन दिया। व्याख्यान में पाँच भाइयों की ओर से पाँच संघपूजा हुई तथा संघ की तरफ से पंच कल्याणक पूजा प्रभावना समेत पढ़ाई गई। ( ४८ ) Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * पहली दसम कोसेलाव में करके दूसरी दसम के दिन आचार्यश्री संघ सहित तखतगढ़ में प्रातः स्वागत पूर्वक पधारे। जिनमन्दिरों के दर्शन करने के बाद पूज्यपाद आचार्य म. सा. का व्याख्यान हुआ। दोपहर में पंच कल्याणक पूजा-प्रभावना युक्त श्रीसंघ ने पढ़ाई । ग्यारस के दिन भी स्थिरता दरम्यान पूज्यपाद आचार्य म. सा. तथा पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. के प्रवचन का लाभ श्रीसंघ को मिला। ___* जेठ सुद १२ शुक्रवार दिनांक १६-६-८६ के दिन प्रातः तखतगढ़ से विहार कर पादरली पधारते हुए साहित्यरत्न पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि का संघ की तरफ से बैन्डयुक्त स्वागत हुआ। वहाँ महोत्सव निमित्त पधारे हुए पूज्यपाद आचार्य श्रीमद् विजय हेमप्रभ सूरीश्वरजी म. सा. आदि का सुभग संमिलन हुआ। व्याख्यान के पश्चाद् संघपूजा हुई। उद्यापन युक्त चालू महोत्सव में 'श्री सिद्धचक्र महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। (१६) चांदराई में उद्यापनयुक्त महोत्सव (१) जेठ सुद १३ शनिवार दिनांक १७-६-८६ के दिन प्रातः पादरली से विहार कर जैनधर्मदिवाकर ( ४६ ) Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परम पूज्याचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि चांदराई पधारे । उनका शा. किसनाजी भारमलजी परिवार की ओर से बैन्डयुक्त स्वागत हुआ । उसी दिन से पूज्यपाद आचार्य म. सा. की शुभ निश्रा में, स्व. श्री सरेमलजी की धर्मपत्नी श्रीमती गेरीबाई द्वारा आराधित श्री वीशस्थानक आदि तपश्चर्या के निमित्त सात छोड़ उद्यापन ( उजवरणा ) युक्त नवाह्निकामहोत्सव प्रारम्भ हुआ । प्रतिदिन प्रवचन, पूजा - प्रभावना, प्रांगी रोशनी तथा रात को भावना का कार्यक्रम चालू रहा पूज्यपाद आचार्य म. सा. ने श्री वर्द्धमान तप की ५६ वीं प्रोली का भी प्रारम्भ किया । श्री सिद्धचक्र महापूजन विधिपूर्वक आज ही पढ़ाई गई । (२) जेठ ( आषाढ़ ) वद १ मंगलवार दिनांक २०-६-८६ के दिन परम पूज्य प्राचार्य श्रीमद् विजय हेमप्रभ सूरीश्वरजी म. सा. प्रादि के स्वागत युक्त यहाँ पधारने से दोनों आचार्य भगवन्त का सुभग संमिलन हुआ । श्रीमान् बाबूलालजी किसनाजी के घर पर दोनों प्राचार्यों ने चतुविध संघ के साथ बैन्डयुक्त पगलियाँ किये । ( ५० ) Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहाँ पर ज्ञानपूजन एवं मंगल प्रवचन के पश्चाद् संघपूजा हुई। (३) जेठ (आषाढ़) वद २ बुधवार दिनांक २१-६-८६ के दिन श्रीमान् मोहनलालजी सरेमलजी के घर पर पूज्यपाद दोनों प्राचार्य म. सा. ने चतुर्विध संघ के साथ बैन्ड समेत पगलियाँ किये। वहाँ पर भी ज्ञानपूजन तथा मंगल प्रवचन के बाद संघपूजा हुई। (४) जेठ (आषाढ़) वद ३ गुरुवार दिनांक २२-६-८६ के दिन श्रीमान् फूलचन्दजी चमनाजी के घर पर परम पूज्य दोनों आचार्यदेव ने चतुर्विध संघ के साथ बैन्ड सहित पगलियाँ किये। वहाँ पर ज्ञानपूजन, ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा एवं मंगलपूजन के बाद संघपूजा हुई। उसी दिन 'श्री वीशस्थानक महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई। (५) जेठ (आषाढ़) वद ४ शुक्रवार दिनांक २३-६-८६ के दिन श्रीमान् छगनलाल मीठालालजी के घर पर दोनों आचार्य भगवन्त ने चतुर्विध संघ के साथ बैन्ड सहित पगलियाँ किये। ज्ञानपूजन एवं मंगल प्रवचन के बाद संघपूजा हुई। (६) जेठ (आषाढ़) वद ५ शनिवार दिनांक ( ५१ ) Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४-६-८९ के दिन प्रातः श्रीमान् कुन्दनमल गुलाबचन्दजी भादरजण वालों ने सुबह में प्रभु की पूजा पढ़ाई और स्वामीवात्सल्य भी किया। दोपहर में भी पूर्ववत् पूजा पढ़ाने का कार्यक्रम चालू रहा । उसी दिन श्रीमान् कमलेशकुमार सरेमलजी के घर पर परम पूज्य दोनों आचार्य महाराज चतुर्विध संघ समेत बैन्ड के साथ पधारे । ज्ञानपूजन तथा मंगल प्रवचन के पश्चात् वहाँ पर भी संघपूजा हुई । (७) जेठ ( आषाढ़ ) वद रविवार दिनांक २५-६-८६ के दिन 'श्री भक्तामर महापूजन' विधिपूर्वक पढ़ाई गई तथा स्वामीवात्सल्य भी श्रीमान् मोहनलाल सरेमलजी की ओर से हुआ । चालू महोत्सव की भी पूर्णाहुति हुई । 67 * जेठ (आषाढ़) वद ८ सोमवार दिनांक २६-६-८६ के दिन प्रातः विहार द्वारा पूज्यपाद आचार्य म. सा. आदि बलदरा गाँव में पधारे । उनका श्रीसंघ की ओर से बैन्ड युक्त स्वागत हुआ । जिनमन्दिरों के दर्शनादि किये । व्याख्यान में जिनमन्दिर अंगे पूज्यश्री ने मार्गदर्शन श्रीसंघ को दिया । बाद में प्रभावना हुई । ( ५२ ) Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दोपहर में कवराला गाँवमें जिन्मन्दिर के दर्शनादि करके श्रीसंघ को मांगलिक सुनाया। प्रभावना हुई। बाद में विहार कर शाम को रोडला गाँव में पधारे । [१७] रानी गाँव में प्रवेश, पूजा एवं प्रयाण मरुधरदेशोद्धारक - परमशासनप्रभावक-पूज्यपाद आचार्य भगवन्त श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. आदि विहार द्वारा कोसेलाव, खिमाड़ा, विरामी और रानी स्टेशन होकर रानी गाँव में बारस के दिन पधारे । उनका बैन्डयुक्त स्वागत श्रीमान् भबूतमलजी रिखबजी परमार की ओर से हुआ। जिनमन्दिर में दर्शनादि करके श्रीमान् भबूतमलजी के घर पर उनकी धर्मपत्नी अ. सौ. अंशीबाई के ५०० आयंबिल तप की पूर्णाहुति प्रसंग पर चतुर्विध संघ के साथ बैन्डयुक्त पूज्यपाद प्राचार्यदेव, पूज्य मुनिराज श्री जिनोत्तम विजयजी म. तथा पूज्य मुनि श्री रविचन्द्र विजयजी म. (उन्हीं के संसारी पुत्ररत्न) आदि पधारे। वहाँ पर ज्ञानपूजन एवं मंगल प्रवचन के बाद प्रभावना हुई । श्रीमान् फूटरमलजी हिम्मतमलजी राठौड़ के घर पर भी पूज्यपाद प्राचार्य म. सा. आदि ने पगलियाँ किये । वहाँ पर भी ज्ञानपूजन, पैदल संघ की प्रतिज्ञा एवं मंगल प्रवचन के पश्चात् संघपूजा हुई । ( ५३ ) Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन न्याती नोहरे में पूज्यपाद आचार्य म. सा. ने चतुर्विध संघ को मांगलिक सुनाया और पू. मुनि श्री रविचन्द्र विजयजी म. ने भी प्रवचन किया। दोपहर में प्रभुपूजा का तथा रात को भावना का कार्यक्रम रहा । [१८] श्री वरकाणा तीर्थ में पूजा तथा स्वामीवात्सल्य ___ जेठ (आषाढ़) वद १३ शनिवार दिनांक १-७-८६ के दिन प्रातः रानी गाँव से चतुर्विध संघ सहित विहार कर श्री वरकाणा तीर्थ में पधारते हुए तीर्थ प्रभावक पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजय सुशील सूरीश्वरजी म. सा. का जैनपेढ़ी के द्वारा भव्य स्वागत हुआ । जिनमन्दिर में दर्शनादि के बाद परमपूज्य आचार्य म. सा. का मंगल प्रवचन हुआ। श्री वरकाणा तीर्थ में जैनधर्मशाला में इंगलिश मीडियम स्कूल का भी उद्घाटन पूज्यपाद आचार्य म. सा. की शुभ निश्रा में हुआ। श्रीमान् भबूतमलजी रानीगाँव वालों की ओर से अपनी धर्मपत्नी अंशीबाई द्वारा आराधित ५०० आयंबिल की तपश्चर्या की पूर्णाहुति के प्रसंग पर प्रभुपूजा पढ़ाई गई और स्वामीवात्सल्य भी आयोजित किया। ( ५४ ) Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * जेठ ( आषाढ़ ) वद १४ रविवार दिनांक २-७-८६ के दिन परमपूज्य आचार्य म. सा. आदि प्रातः विहार कर नाडोल पधारे तथा जेठ ( आषाढ़ ) अमावस्या के दिन नारलाई पधारे । वहाँ स्थिरता कर आषाढ़ सुद एकम के दिन सभी जिनमन्दिरों की तथा श्री सिद्धाचलजी तीर्थ की एवं श्री गिरनारजी तीर्थ की यात्रा की । ( ५५ ) Page #219 --------------------------------------------------------------------------  Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 卐 प्रकाशक है हित्य UDAI 0000000 - श्यसम्यरज्ञानका प्रचार प्रसार ॐ नमो नाणस्सा पुस्तक-प्रकाशन में 卐 सुकृत के सहयोगी है पचपदरा निवासी शा. अमृतराज कुशलराज - लूणचन्द गणपतराज-तखतमल-देवीचन्द-इन्द्रमल - महेन्द्र कुमार जवेरीलाल - पद्म - राजेश - विकास - मनोज - पंकज अनिल - ऋिषभ - भरत - पुनीत - पीयूष - गौरव - चौपड़ा परिवार / फर्म : बी. डी. टैक्सटाइल्स मिल्स प्रा. लि. मुम्बई - बालोतरा