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________________ ( ४६ ) श्रमण भगवान महावीर स्वामी के चरणों में इन्द्र महाराजा ने आकर और सर झुकाकर प्रणाम किया तथा चंडकौशिक सर्प ने आकर डंख दिया। ऐसा होते हुए भी प्रभु ने इन्द्र महाराजा पर राग-स्नेह नहीं किया और चंडकौशिक सर्प पर अंश मात्र भी द्वष नहीं किया। दोनों के प्रति समता-समभाव एक समान रखा। इसके सम्बन्ध में योगशास्त्र में कहा है किपन्नगे च सुरेन्द्र च, कौशिके पादसंस्पृशि । निविशेषमनस्काय, श्रीवीरस्वामिने नमः ॥ २ ॥ (३) महामुनि श्रीगजसुकुमार के सिर पर ससुर ने पाकर सुलगते अंगारे रखे, तो भी उन्होंने अपूर्व समता धारण कर अन्त में सकल कर्म का क्षय कर मोक्ष में सादि अनन्त स्थिति प्राप्त की। प्रात्मसाधना के मार्ग में अनुकूल या प्रतिकूल संयोगों में भी प्रात्मलक्ष्यपूर्वक समता रखकर प्रात्मबल प्रगट करना चाहिए जिससे प्रात्मा परम समाधि प्राप्त कर सके । (९) एकता-नवधा भक्ति पैकी यह अन्तिम प्रकार है। आत्मसाधना की यह अन्तिम-चरम सीमा है। 'पराभक्ति' तरीके इसका ही नाम शास्त्र में प्रसिद्ध है ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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