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सम्यक् आराधना का उत्तम फल यही है, इतना ही नहीं किन्तु कृतकृत्यता भी यही मानी जाती है। इसे ही ज्ञानी महापुरुष स्वानुभूति कहते हैं तथा योगी महात्मा निर्विकल्प समाधि कहते हैं। जहाँ पर मन, वचन और काया के योग प्रभु के साथ संलग्न हो जाते हैं, तथा ध्याता, ध्यान और ध्येय भी एक हो जाते हैं। इसलिए वहाँ पर कोई भेद रहता नहीं है। कारण कि परमात्मा के साथ एकतार हो गया है। अपनी आत्मा ही परमात्मा। जब भक्त भगवान की भक्ति एकतार बनकर करता है, तब अपने देह-शरीर का भान भूल जाता है । उस वक्त भक्त का यही उद्गार निकलता है कि
हे भगवन् ! हे परमात्मन् ! हे देवाधिदेव ! बस तू ही, तू ही, तू ही।
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