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________________ ( ४८ ) इसके समर्थन में 'सकलार्हत् स्तोत्र' में कहा है किकमठे धरणेन्द्र च, स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्य-मनोवृत्तिः, पार्श्वनाथ श्रियेऽस्तु वः ॥ २५ ॥ अर्थ-अपने को उचित ऐसा कृत्य करने वाले, कमठासुर और धरणेन्द्र पर समान भाव धारण करने वाले ऐसे श्री पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हें प्रात्म-लक्ष्मी के लिए हों ।। २५ ॥ (२) श्रमण भगवान महावीर स्वामी पर संगमदेव ने अनेक प्रकार के उपसर्ग किये तो भी उन्होंने उस पर अंशमात्र भी द्वषभाव नहीं किया, किन्तु करुणा के अमीअश्रुबिन्दु बरसाये। इस सम्बन्ध में 'सकलार्हत् स्तोत्र' में कहा है किकृतापराधेऽपि जने, कृपा-मन्थर-तारयोः । ईषद्-वाष्पायोर्भद्रं, श्रीवीरजिन - नेत्रयोः ॥ २७ ॥ अर्थ-अपराध किये हुए जन पर (संगमदेव पर) भी अनुकम्पा से मन्द कनीनिका वाले तथा कुछ अश्रु से भीगे हुए श्री महावीर प्रभु के दोनों नेत्रों का कल्याण हो । २७ ।।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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