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________________ ( ४७ ) सुख और दुःख में, संयोग और वियोग में तथा मान और अपमान में शान्त भाव से रहना, उसका नाम 'समता' है । वो ही समभाव-समता गुण कहा जाता है। उसमें कदाचित् विषमता-विषमभाव पा जाय तो भी मन को क्षुब्ध न होने देने, क्रोधादि कषायों को शमन करने का यत्न-प्रयत्न विशेष रूप में करना चाहिए । साधक प्रात्मा जब पूर्वोक्त श्रवणादि सप्त गुणों से समलंकृत हो जाता है, तब इस पाठवें समता गुण का प्रादुर्भाव होता है। इन सभी गुणों की उपासना द्वारा ही भावों की शुद्धि होती है। जैसे-जैसे आत्मा के भावों की शुद्धि हो जाती है, वैसे-वैसे समताभाव में भी अभिवृद्धि होती रहती है। विश्व के समस्त जीवों में जब मैत्रीभाव हो जाता है, तब समताभाव अपने वास्तविक स्वरूप में अनुपम प्रकाश करता है । वह सर्वत्र फैल जाता है । जैसे-(१) पुरुषादानीय श्री पार्श्वनाथ भगवान और कमठ तापस का ज्वलन्त दृष्टात। श्री पार्श्वनाथ प्रभु ने स्वयं पर अनेक उपसर्ग करने वाले कमठ पर भी द्वष नहीं किया तथा सहाय करने वाले धरणेन्द्र पर भी राग नहीं किया । अर्थात् दोनों पर समभाव रखा ।
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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