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(२) ईसाई लोग भी अपने धर्मस्थानक चर्च-गिरजा में शूली का चिह्न बनाते हैं ताकि ईशु के उपासकों में उनकी कर्तव्यपरायणता की स्मृति सदा बनी रहे । शूली की आकृति-पाकार मूर्तिरूप में ही है और उसकी पूजा भी प्रकारान्तर से मूर्तिपूजा ही है।
(३) भूतकाल का और वर्तमानकाल का इतिहास कह रहा है कि-विश्व के लोगों में पूजाभाव की विद्यमानता मौजूदगी नहीं है तो फिर महत्त्वपूर्ण कार्य करने वालों के तैलचित्र या प्रस्तर मूत्तियाँ आदि क्यों बनाये जाते हैं ? भूतकाल की और वर्तमान काल की बनाई हुई सैकड़ों मूत्तियाँ आज भी अनेक स्थलों पर देखने में आती हैं। प्रत्येक धर्म में या प्रत्येक सम्प्रदाय में आज भी मूत्ति की पूजा आदि किसी-न-किसी स्वरूप में होती है।
अनादिकालीन सनातन जैनधर्म सारे विश्व में अद्वितीय अलौकिक अजोड़ है। यह विनयमूलक सद्धर्म है । इसका सार विनय ही है। इसलिए शास्त्र में कहा है कि-'विणयमूले धम्मे पण्णत्ते।' वीतराग जिनेश्वर तीर्थंकर भगवान की भव्य मूत्ति का विधिपूर्वक जितना भी विनय सद्भावना युक्त किया जाय उतना ही प्रात्मा को उच्चकोटि का आत्म-कल्याण का प्रत्युत्तम विशेष