SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 84
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६६ ) लाभ होगा । इतना ही नहीं किन्तु वह भव्यात्मा एक दिन भगवान की भक्ति से भगवान बन सकता है और तीर्थंकर की पदवी - उपाधि भी धारण कर सकता है । इसलिए यही कारण है कि जिनमूर्ति- जिनप्रतिमा- जिनबिम्ब को विधिपूर्वक की पूजा द्रव्य श्रौर भावयुक्त अनादिकाल से चली आ रही है । इस सम्बन्ध में कोई कहते हैं कि प्रभु की द्रव्यपूजा नहीं करनी चाहिए । ऐसा कहने वाले को समझना चाहिए कि द्रव्य बिना भाव का प्रादुर्भाव नहीं हो सकता है । यह जैनधर्म का सुदृढ़ सिद्धान्त है । विश्व में किसी भी प्रकार के धार्मिक या व्यावहारिक कार्य में पहले द्रव्यक्रिया करनी पड़ती है । उसके पश्चात् भाव का उदय होता है । अर्थात् द्रव्य करणी से ही भाव करणी का उदय होता है । इसलिए मूर्तिपूजक मूर्ति की द्रव्यपूजा करते हैं । भावपूजा का श्राविर्भाव मनुष्याधीन नहीं है। वह तो आत्मा के अनादि काल से लगे हुए कर्मों की निर्जरा पर निर्भर है । जब कभी भाव पूजा अपने मानस पटल पर आ जायेगी तो भी वह द्रव्यपूजा की महत्ता से ही । अतएव धर्मी जीवों-धर्मात्मानों को द्रव्यपूजा करनी परम आवश्यक
SR No.002338
Book TitleJinmandiradi Lekh Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSushilsuri, Ravichandravijay
PublisherSushil Sahitya Prakashan Samiti
Publication Year1997
Total Pages220
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy