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पारस-पारस पा-रस, प्रात्मज्ञान अनुरूप । चमके चञ्चल चन्द्र से, चारों ओर अनूप ॥ ४ ॥ तिरे और तारे कई, तीन लोक के जीव । पारस प्रभु-प्रभुता लही, तारक तरणि सजीव ॥ ५ ॥ महिमा मण्डित मनजयी, मंगल मूरति रूप । अग-जग में जग-मग सदा, ज्योतिर्मय तव रूप ॥ ६ ॥ सकल सफल सुन्दर बने, जीवन धन अनुकूल । पल में विलय-निलय लहें, पार्श्व जपे, प्रतिकूल ।। ७ ।। पुरुषादानी पार्श्व की, महिमा का क्या पार । परम प्रतापी पूज्य को, वन्दन बार हजार ।। ८ ।। परम भाव, पावन मना, पाङराधनचित्त । 'विजय सुशील' नमो सदा, जपो पार्श्व इक चित्त ॥ ६ ।।
[ 'शान्ति ज्योति' धार्मिक पाक्षिक
पत्रिका में से उद्धृत । संवत् २०५१ माघसुदी पंचमी
४ फरवरी १६६५ अंक-१]